शहर और सिनेमा वाया दिल्ली / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
शहर और सिनेमा वाया दिल्ली
प्रकाशन तिथि :11 सितम्बर 2015


मिहिर पंड्या की किताब 'शहर और सिनेमा वाया दिल्ली' प्रतिभा और मेहनत से किए शोध का नतीजा है और इस तरह की सारगर्भित किताब लिखना मेरे बस की बात नहीं है। इस सार्थक किताब में दिल्ली में शूट हुई कुछ फिल्मों के माध्यम से भारतीय राजनीति और समाज की विसंगतियों व विरोधाभासों पर अच्छा प्रकाश डाला गया है और एक मायने में यह किताब आपको आजाद भारत की सच्ची तस्वीर भी प्रस्तुत करती है। यह वाणी प्रकाशन की पुस्तक है। किताब की कीमत लगभग पांच सौ रुपए है, जो अपनी उत्तम सामग्री के कारण खरीदार को ऐसी लगेगी जैसे उसने प्रकाशक को लूट लिया है।

मिहिर पंड्या ने भारत में महानगरों की संरचना की व्याख्या की है। लेखक ने अनेक किताबों के संदर्भ दिए हैं। मसलन, वे लिखते हैं, 'चंडीगढ़ जवाहरलाल नेहरू की स्वप्न योजना थी। नेहरू अपनी आधुनिकता की अवधारणा को इस शहर की संरचना के जरिये अमली जामा पहनाना चाहते थे।' आगे लिखा है, 'चंडीगढ़ को जिस सार्वदेशिकता की आकांक्षा थी, वह उसे कभी हासिल नहीं हो सकी। बजाए इसके कि भविष्य का यह शहर समाज पर शासन करता, उसे प्रबुद्ध बनाता, वह खुद ही अजायबघर की चीज बन गया। वह धर्मनिरपेक्ष व्यक्तियों के समाज को जन्म नहीं दे सका और न ही आधुनिकतावादी राजनीति का आधार बन पाया...चंडीगढ़ की हैसियत सांप्रदायिक अस्मिताओं के बीच नगण्य हो गई।' किताब में इस तरह के अनेक प्रसंग विस्तार से दिए गए हैं। आभास होता है कहीं ऐसा तो नहीं कि नेहरू की डायरी का कोई पन्ना ऐसे व्यक्ति के हाथ लगा, जिसे अंग्रेजी भाषा की समझ नहीं थी और उसी के अनुवाद पर 'सौ स्मार्ट शहरों' की संरचना का सपना दिखाया जा रहा है। नेहरू के आधुनिकता के विचार के साथ उनकी भारत की उदात्त संस्कृति की समझ को जोड़कर उन्होंने भारत के लिए न केवल सपना देखा वरन भाखड़ा नंगल, भिलाई इस्पात का निर्माण व परमाणु ऊर्जा आयोग की स्थापना की, इसके साथ ही साहित्य अकादमी, कला अकादमी व पुणे फिल्म संस्थान की भी रचना की। यह संभव है कि आधुनिक अवधारणा के साथ सांस्कृतिक मूल्यों के जोड़ने के प्रयास में संस्कृति की चादर से धर्मांधता भीतर घुस आई और सारा खेल ही बदल गया। उनकी सांस्कृतिक निष्ठा व इतिहास दृष्टि का साक्ष्य उनकी 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' है, जिस पर श्याम बेनेगल ने सार्थक सीरियल रचा। आज नेहरू विरासत के विध्वंस युग में यह किताब अत्यंत महत्वपूर्ण हो गई है।

मिहिर ऋषि कपूर अभिनीत 'दो दूनी चार' के संदर्भ में लिखते हैं कि मारुति 800 मध्यम वर्ग की महत्वाकांक्षा की संभावना को सत्य बनाती है और फिल्म का मध्यम वर्ग का परिवार इस सस्ती कार को चाहता है परंतु आर्थिक उदारतावाद के बाद मध्यम वर्ग की सोच ऐसी बदली कि टाटा की नैनो सबसे सस्ती कार के प्रचार के कारण वह फेल हो गई, क्योंकि इस समाज को फैशनेबल 'ब्रैंड' का मोह है और उन्हें कार का सस्ती होना ही उसका दुर्गुण लगा गोयाकि मध्यम वर्ग के जीवन की आधारभूत किफायत को ब्रैंड की माया ने नष्ट कर दिया।

मिहिर पंड्या ने राज कपूर की "आवारा' और "श्री 420' से अधिक बार 'अब दिल्ली दूर नहीं' का इस्तेमाल किया है कि कैसे आजादी के बाद के समय में दिल्ली शहर आशा का केंद्र था। ज्ञातव्य है कि राज कपूर ने इस फिल्म की संरचना जवाहरलाल नेहरू के संकेत पर की थी और फिल्म के क्लाइमैक्स में जवाहरलाल नेहरू स्वयं दो रोज की शूटिंग में अपने पात्र को निभाना चाहते थे परंतु फिल्म का अधिकांश भाग शूट होने के बाद राज कपूर को बताया गया कि मंत्रिमंडल के कुछ पुरातनवादी लोगों को इस पर एतराज है और नेहरू को खेद है कि वे चंद घंटे का समय भी नहीं दे पाएंगे। इस घटना के बाद राज कपूर ने स्टॉक शाट्स लेकर जैसे-तैसे फिल्म पूरी की।