शहादत / मुकेश कुमार

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संजय जब कैमरा टीम के साथ वहाँ पहुँचा तो अच्छा-खासा उजाला हो चुका था। उस छोटे से मगर पक्के घर के सामने भीड़ इकट्ठी थी। माहौल बेहद गमगीन था। लोग आपस में खुसुर-पुसुर कर रहे थे। किसी महिला के रोने का कातर स्वर वातावरण को और भी भारी बना रहा था।

भीड़ में जगह बनाते हुए वो घर के मुख्य द्वार के पास पहुँचा तो देखा बाहर चबूतरे पर ही प्रकाश का शव रखा हुआ है। प्रकाश यानी सब इंस्पेक्टर प्रकाश त्रिपाठी। शव सफेद कपड़े से ढँका हुआ है और उसके ऊपर करीने से फूल रखे हुए हैं। पास ही दिवंगत प्रकाश के माता-पिता बैठे हुए हैं। माँ लगातार रोए जा रही है। बीच-बीच में वो ऊँचे स्वर में रोना शुरू कर देती है। पास खड़ी औरतें उसे समझाने की कोशिश करती हैं मगर तब उसका स्वर और ऊँचा हो जाता है। प्रकाश के पिता बीच-बीच में अपनी नम आँखों को रूमाल से पोंछ रहे हैं।

संजय ने धीरे से कैमरामैन को समझाया कि क्या करना है... फटाफट विजुअल ले लो... भीड़ के, शव के, माँ के रोने के शाट्स कई एंगल्स से ले लेना। मैं पैरेंट्स के बाइट लेने का इंतजाम करता हूँ।

कैमरामैन अपने काम में जुट गया। एकत्रित भीड़ फ्रेम में आने की कोशिश करने लगी। कुछ लोगों ने पूछ लिया... कब दिखाओगे भइया... कैमरामैन ने बता दिया... दो-तीन घंटे के अंदर।

संजय ने प्रकाश के भाई से बात की तो वो पिताजी को बुलाकर ले आया... पास आकर गमछे से मुँह पोंछते हुए उन्होंने कहा... पूछो भाई क्या पूछना चाहते हो।

संजय ने कहा... पाँच मिनट का वक्त दीजिए मैं अपनी कैमरा टीम को ले आऊँ।

दस मिनट बाद संजय प्रकाश के पापा से सवाल कर रहा था... सबसे पहले तो ये बताइए कि प्रकाश के साथ हुए हादसे की सूचना आपको कब और कैसे मिली...

कल शाम को आपका चैनल देख रहे थे। उसी में ब्रेकिंग न्यूज आई कि काँकेर के पास नक्सलियों ने हमला किया है। हमने सोचा कि पता करें क्या मामला है। इतने में पुलिस विभाग से फोन आया कि चार पुलिस वालों की मौत हो गई है और बारह लोग घायल हो गए हैं। सबको रायपुर लाया गया है। हम लोग हास्पिटल भागे। वहाँ पता चला कि प्रकाश की डेथ हो गई है। हम लोग को भारी सदमा लगा। प्रकाश की माँ तो वहीं बेहोश हो गई।

संजय... इसके बाद क्या हुआ...

इसके बाद हम लोग संजय की डेड बाडी को ले आए। यहाँ पहुँचे तो देखा कि पूरा शहर घर पर उमड़ा हुआ है। सब लोग दुखी हैं... प्रकाश बहुत पापुलर था यहाँ... सबके सुख-दुख में हिस्सा लेता था। जहाँ जैसी मदद बन पड़ती थी करता था।

सुना है मुख्यमंत्री का फोन आया था।

हाँ आया था न... मुझसे बात की... प्रकाश की माँ से बात की... सांत्वना दे रहे थे... कह रहे थे प्रकाश मरा नहीं है शहीद हुआ है... शहादत दी है उसने नक्सलियों से लड़ते हुए।

इतने में कुछ और चैनल वाले भी आ गए। सभी उनसे सवाल पूछने लगे।

संजय का काम हो गया था इसलिए वो वहाँ से हट गया। थोड़ी देर सोचता रहा कि ऐसे समय माँ के पास जाकर बात करना ठीक होगा या नहीं... फिर उसे लगा कि अगर लिहाज करके उसने ऐसा न किया और किसी दूसरे चैनल ने उसका इंटरव्यू दिखा दिया तो उसकी तो क्लास लग जाएगी। इसलिए उसने कैमरामैन को साथ लिया और माँ के पास पहुँच गया।

धीरे से माँ के सामने माइक बढ़ाते हुए उसने पूछा... माँजी थोड़ा प्रकाश के बारे में बताइए।

माँ ने उसकी तरफ भीगी आँखों से देखा तो संजय अंदर तक काँप गया... मगर फौरन अपने को नियंत्रित करते हुए उसने प्रश्नाकुल नजरों से उनकी तरफ देखा...

माँ ने आँचल से आँसू पोंछे और बोली... अब क्या बताएँ... मेरा तो जिगर का टुकड़ा था वो... हमेशा मेरा खयाल रखता था... मेरा ही क्या वो तो हर किसी का खयाल रखता था... किसी का दिल दुखाना तो उसने सीखा ही नहीं था। आग लगे इन नक्सलियों को... मुझसे मेरा हीरा जैसा बेटा छीन लिया... हमेशा कहता रहता था... माँ तू चिंता मत किया कर... मुझे कुछ न होगा... (सुबकने लगती है... फिर आँचल से आँख पोंछती है... नाक सुड़कती है) ...अभी उमर ही क्या थी उसकी... छब्बीस साल... अभी तो उसको जीना था... उसकी शादी की बात चल रही थी... सब धरा रह गया... (फिर से रोना शुरू कर देती है)। घर में सबने मना किया था कि कुछ और कर लो बेटा लेकिन माना ही नहीं। पुलिस की ड्रेस पहनने का बड़ा शौक था उसे। एक ही बेटा था... मना करते थे पुलिस में मत जा बेटा... कहीं कुछ हो गया तो कौन देखभाल करेगा हमारी बुढ़ापे में... अब वही हुआ जिसका डर था... (माँ और भी जोर से रोने लगी)।

संजय को वो सब कुछ मिल गया था जिसकी उसे जरूरत थी... अब उसे निकल पड़ना चाहिए ताकि सबसे पहले स्टोरी उसी के चैनल पर चले... उसने कैमरामैन को चलने का इशारा किया मगर तभी देखा कि विधायक और सांसद महोदय चले आ रहे हैं। सोच में पड़ गया क्या करे... अगर रुकता है तो स्टोरी लेट होती है। न रुकने से कोई बड़ी चीज मिस हो सकती है। उसने तय किया कि अभी तक का फुटेज भिजवा दिया जाए ताकि चैनल पर विजुअल चलने लगें और वो बाकी का कवरेज कर ले... उसने ऐसा ही किया।

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ऊँचे कद, छरहरे बदन और गौर वर्ण का प्रकाश त्रिपाठी तीन साल पहले ही पुलिस में भरती हुआ था। ख्वाहिश तो उसकी अपने मामा की तरह एसपी बनने की थी मगर पढ़ाई -लिखाई में साधारण होने के कारण ये संभव नहीं हुआ। हाँ, किसी तरह सब इंस्पेक्टर बन गया और वो भी अपने मामा और नगद नारायण की कृपा से। उसके मामा ने सिफारिश लगाई थी और पापा ने इधर-उधर से कर्ज लेकर एक लाख रुपए चढ़ाए थे।

पुलिस अफसर बनने की ख्वाहिश प्रकाश में बचपन से ही थी। अपने मामा का रौब-दाब देख-देखकर ये तमन्ना जवान होती चली गई। मामा का शानदार घर, नौकर-चाकर खुली जीप और उनकी खाकी वर्दी, एक जादू की तरह उसके सिर पर सवार हो गई थी। फिर जिस तरह से उसके मम्मी-पापा उनकी ऊपरी आमदनी और उससे खड़ी की गई प्रापर्टी का जिक्र करते थे उससे उसके मन में ये बात बैठ गई कि अगर बनना है तो पुलिस अफसर। उसके मम्मी-पापा भी चाहते थे कि प्रकाश अपने मामा की तरह आगे बढ़े।

मामा को देख-देखकर प्रकाश ने काफी कुछ सीख लिया था इसलिए पुलिस में भरती होते ही वह तेजी के साथ आगे बढ़ने लगा। अपने अफसरों को खुश रखना वो बहुत अच्छे से जानता था। उसे पता था कि अगर वरिष्ठ खुश रहें तो वो कुछ भी करता रहे कोई उसका बाल बाँका नहीं कर सकता। फिर मामा तो हैं ही। उनका नाम वो हर जगह लिया करता था। इससे साथ वाले तो हड़कते ही थे ऊपर के लोग भी उस पर खास कृपा रखते थे।

प्रकाश ने काले धंधे करने वाले शहर के तमाम लोगों से प्यार भरे संबंध बना लिए थे। प्रकाश उनका खयाल रखता था और वो इनका। घर में भी अच्छे पैसे आने लगे। माँ-बाप भी खुश थे। सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। प्रकाश का कालेज के जमाने से ही अर्पिता नामक लड़की से इश्क चल रहा था। अर्पिता यानी अर्पिता श्रीवास्तव। उसका कायस्थ होना विवाह की सबसे बड़ी अड़चन थी। घर वाले अड़े हुए थे कि विजातीय कन्या को वे बहू नहीं बना सकते। मगर अर्पिता जैसे ही एक स्थानीय कालेज में असिस्टेंट प्रोफेसर बनी उनको जाति व्यवस्था समाज विरोधी नजर आने लगी। अब वे शादी के लिए तैयार हो गए थे। दोनों परिवारों ने तय किया था कि छह महीने बाद आने वाली गर्मियों में इस शुभ कार्य को भी संपन्न कर दिया जाए।

इस बीच तीन साल पूरे होते ही प्रकाश का ट्रांसफर कांकेर हो गया जो कि नक्सल प्रभावित इलाका है। प्रकाश और उसके मामा लगातार इस कोशिश में लगे हुए थे कि उसका तबादला रायपुर के पास ही कहीं करवा लिया जाए या कम से कम ऐसी जगह तो हो ही जाए जहाँ नक्सलियों का कोई खतरा न हो। प्रयास चल ही रहे थे कि ये सब हो गया। ये भी न होता यदि प्रकाश ने अपने अफसर को खुश करने के उत्साह में खुद ही पाँच-छह कांस्टेबलों के साथ गाड़ी लेकर जंगल की तरफ न चला गया होता। किसी बहाने टाल गया होता या किसी और को भेज देता तो आज उसके घर में मातम न हो रहा होता... कम से कम प्रकाश के माँ-बाप और मामा तो यही सोचते हैं।

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सांसद और विधायक के आने के बाद तो जैसे समाँ ही बदल गया। दोनों नेता जिस पार्टी के हैं वो नक्सलवादियों के खिलाफ है क्योंकि उनकी वजह से वो आदिवासी इलाकों में घुसपैठ नहीं कर पा रही। इसीलिए वो हर ऐसी घटना को अपने पक्ष में मोड़ने की जुगत में रहती है जो उसके आधार को पुख्ता कर सके। प्रकाश की मौत उनके लिए एक सुअवसर थी। लिहाजा वहाँ पहुँचते ही उनके समर्थकों ने नारे लगाने शुरू कर दिए -

प्रकाश तेरा ये बलिदान याद रखेगा हिंदुस्तान...

जब तक सूरज चाँद रहेगा प्रकाश तेरा नाम रहेगा...

नारेबाजी के साथ ही माहौल में गरमाहट आ गई। चैनलों के कैमरे और अखबारों के प्रतिनिधि नेताओं की ओर लपके... लोग अभी तक इसे एक सामान्य घटना मानकर चल रहे थे। नक्सल प्रभावित इलाका होने की वजह से पुलिसकर्मियों के मरने की घटनाएँ होती रहती हैं। मगर अब आम लोगों को भी एहसास होने लगा कि कुछ खास घटित हो रहा है। वे भी नेताओं की तरफ मुखातिब होने लगे...

शोक मुद्रा से लैस दोनों नेता प्रकाश के माँ-बाप के पास पहुँचे... उन्हें सांत्वना देने लगे... उन्होंने क्या कहा किसी के पल्ले नहीं पड़ा... सब मुँह बाए देख रहे थे बस... पत्रकार जरूर इस आशा से धक्का-मुक्की कर रहे थे कि शायद कोई बाइट मिल जाए सुर्खी लगाने के लिए। नेताओं ने पहले तो उन्हें नजरंदाज किया जैसे मीडिया उनके लिए बहुत तुच्छ चीज हो... मगर सांत्वना देने के काम से फारिग होते ही वे कैमरों के सामने थे।

नेताजी बोले - प्रकाश ने नक्सलवादियों के साथ बहादुरी से लड़ते हुए जान दी है... वो किसी हादसे में नहीं मारा गया बल्कि शहीद हुआ है... हमारा शहर इस शहादत को हमेशा याद रखेगा... आज शाम प्रकाश की शवयात्रा में हम सब शामिल होंगे... पूरा शहर शामिल होगा... मैं विपक्षी दलों से अपील करता हूँ कि इस मौके पर मतभेद भुलाकर वे भी एकजुटता का प्रदर्शन करें। ये नक्सलवादियों के लिए भी एक चेतावनी होगी। उन्हें पता चल जाना चाहिए कि लोग उनकी ज्यादतियों को अब और बर्दाश्त नहीं करेंगे।

इतना कहने के बाद नेताजी ने हाथ जोड़े... इसी के साथ नेताजी की जय-जयकार शुरू हो गई... मगर बीच में किसी ने उन्हें टोका तो फिर प्रकाश जिंदाबाद के नारे शुरू हो गए।

नेताजी के जाने के बाद हलचलें एकदम से बढ़ गईं। उनकी पार्टी के कार्यकर्ता भव्य शवयात्रा के प्रबंध में जुट गए। फौरन एक खुली जीप का इंतजाम हो गया, उसे फूलों से सजाया गया। घर पर एक लाउडस्पीकर लग गया जिस पर देशभक्ति के गीत भी बजने लगे। फटाफट कुछ बैनर तैयार किए गए जो शहर के विभिन्न हिस्सों में लगा दिए गए। कुल मिलाकर शहर में ऐसा माहौल बन गया कि प्रकाश से बड़ा कोई शहीद नहीं और उनसे बड़ा कोई देशभक्त नहीं।

इस बीच खबर फैल गई की खुद मुख्यमंत्री शवयात्रा में शामिल होने आ रहे हैं। बाद में पता चला कि उन्हें हाईकमान के बुलावे पर दिल्ली जाना है और अब उनकी जगह गृहमंत्री आएँगे। विपक्ष के नेता का आना तय हो गया था। इस तरह नेताओं की भीड़ लगना निश्चित था और इसे देखते हुए पुलिस भी अतिरिक्त सक्रिय हो गई। हर चौराहे पर ट्रेफिक पुलिस दिखने लगी। प्रकाश के घर पर तो पुलिस अफसरों और सिपाहियों की भीड़ ही इकट्ठी हो गई।

प्रकाश के माता-पिता ने इन हलचलों को पहले तो सुखद आश्चर्य से देखा... फिर उन्हें प्रकाश की मृत्यु के महत्व का एहसास हुआ तो वे भी सावधान हो गए। अब उनके चेहरे पर गर्वीली चमक दिखलाई देने लगी... अब वे प्रकाश की मृत्यु को मृत्यु नहीं शहादत कहने लगे थे। एक से एक बड़ा अधिकारी और नेता उनसे मिलने आ रहा था। सब उन्हें सांत्वना दे रहे थे। उधर किसी ने टीवी आन कर दिया था। उसमें लगातार प्रकाश की शहादत की खबर चल रही थी। खबर में वे भी थे। उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि कभी वे टीवी पर दिखेंगे... उनको इतना महत्व मिलेगा कि मंत्री और अफसर उनसे फोन पर बात करेंगे... उनसे मिलने आएँगे। पूरा शहर आज उन्हें विशेष नजरों से देख रहा था... उन्हें अपने बेटे की मौत पर गर्व होने लगा। पहले उन्हें बहुत अखर रहा था कि अगर बड़े अफसर ने जबर्दस्ती प्रकाश को गाड़ी लेकर आने को न कहा होता तो वो नक्सलियों की गोलियों का शिकार न बनता। वे पुलिस को और पुलिस की नौकरी को कोस भी रहे थे। बदले माहौल ने उनके सोच को भी बदल डाला था। उन्होंने किसी को कहते सुना था कि सरकार जरूर प्रकाश की शहादत पर कोई बड़ा इनाम घोषित करेगी।

संजय शूटिंग करते वक्त ये सब देख रहा था। उसे बहुत अटपटा लग रहा था कि ऐसा कैसे हो सकता है। मगर अपने चैनल की खबरें देखकर तो उसे और भी हैरत हुई। उसमें ये खबर खूब बढ़ा-चढ़ाकर दिखाई जा रही थी। प्रकाश की शहादत, नक्सलियों की क्रूर कार्रवाई, प्रकाश के शहरवालों का नक्सलियों को जवाब... किसी घर में नहीं जला चूल्हा... वगैरा, वगैरा... अब तो ओबी भी पहुँचने वाली है... इस खबर को और उछाला जाएगा। संदेश आ गया है कि प्राइम टाइम में आज बहस इसी घटना पर होनी है। एक मंत्री, एक विपक्षी नेता और एक रिटायर्ड डीजी को स्टूडियो के लिए तय कर दिया गया है। देर रात के लिए विशेष प्रोग्राम भी प्लान हो गया है।

संजय के आश्चर्य की वजह ये भी थी कि नक्सली हमले में केवल प्रकाश ही मारा गया हो ऐसा नहीं था। उसके साथ तीन और लोग मारे गए थे मगर उनके बारे में कोई बात नहीं कर रहा था। मानो उनकी मौत साधारण मौत हो। खबरों में केवल यही कहा जा रहा था कि प्रकाश और तीन अन्य लोग नक्सली हमले में मारे गए। क्या ऐसा इसलिए है कि प्रकाश ऊँची जाति का है, अभिजातवर्गीय है और राजधानी में रहता है। बाकी के तीन आदिवासी हैं और उनमें से भी दो ईसाई हैं। क्या इसलिए उन्हें जान-बूझकर नजरअंदाज किया जा रहा है। नेता और मीडिया सब सरकार की ही भाषा क्यों बोल रहे हैं। एकाध विपक्षी दल ने जरूर इनके परिवारों को भी अपनी शोक संवेदनाएँ भेजीं मगर फोन पर या बयान जारी करके। शायद वो भी इसलिए कि राज्य में आदिवासियों की संख्या बहुत है। उन्हें नाराज करके या उनकी उपेक्षा करके राजनीति नहीं की जा सकती। तभी उसे ध्यान आया कि वो भी तो केवल प्रकाश की मौत के कवरेज के लिए ही भाग दौड़ कर रहा है। अभी तक उसने जितने भी फोनो, सिमसेट दिए सबमें प्रकाश का ही जिक्र किया, बाकी को खा गया। उसने तय किया कि अब वो ऐसा नहीं करेगा। तभी मोबाइल बज उठा।

मुख्यालय से फोन है। उधर से किसी ने बताया कि अगले बुलेटिन में फोनो लिया जाएगा। फोनो मतलब फोन पर बातचीत। उसने सोचा अगर ओबी आ गई होती तो सीधे सिमसेट दे देता... खैर अगले बुलेटिन तक तो आ ही जाएगी... फिर तो जमकर लाइव भी होगा... उसने तैयारी करना शुरू कर दिया कि क्या-क्या बोलना है...

दस मिनट बाद वो फोनो दे रहा था...

स्टूडियो - बताइए संजय। क्या हो रहा है फिलहाल प्रकाश के घर पर।

संजय - जी, यहाँ जोर शोर से तैयारियाँ चल रही हैं प्रकाश की शवयात्रा की। एक बड़ी जीप फूलों से सजाई जा रही है। पुलिस का भारी इंतजाम हो गया है।

स्टूडियो - खबर है कि मुख्यमंत्री भी शामिल होने वाले हैं शवयात्रा में।

संजय - नहीं। हाईकमान का बुलावा आ गया है इसलिए वे दिल्ली के लिए रवाना होने वाले हैं। मैं आपको एक बात बता देना चाहता हूँ कि इस नक्सली हमले में और भी तीन पुलिसकर्मियों की जान गईं हैं मगर उनकी कोई सुध नहीं ले...

स्टूडियो - बात काटते हुए... हमें ये बताइए संजय कि और कौन-कौन से नेतागण वहाँ पहुँच रहे हैं।

संजय - स्थानीय विधायक और सांसद के अलावा गृहमंत्री के शामिल होने की पक्की सूचना है। विपक्ष के नेता भी आ रहे हैं। दरअसल ऐसा लगता है कि प्रकाश की मौत से सभी नेता और राजनीतिक दल फायदा उठाने की फिराक में हैं...

स्टूडियो - बात काटते हुए... इस जानकारी के लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया संजय... हम आपसे फिर संपर्क करेंगे।

फोनो के लिए संजय ने काफी जानकारी जुटाई थी। वो खास तौर पर चाह रहा था कि नक्सली हमले में मारे गए बाकी के तीन पुलिसकर्मियों के बारे में भी जानकारी दे मगर एंकर ने उसे कुछ बोलने ही नहीं दिया। एंकर भी साले सब मूर्ख हैं। इन्हें कुछ पता-वता तो होता नहीं है... बस सज-धजकर बैठ जाते हैं और जो भी समझ में आते हैं सवाल कर लेते हैं। हम यहाँ क्या फील्ड में... मराने के लिए हैं। वो सोच ही रहा था कि मोबाइल की घंटी फिर बज उठी... एडिटर सुशील का फोन है... हाँ सुनो प्रकाश के मामले पर टिके रहो... उससे हटना नहीं है... न न बाकी को छोड़ दो यार... सबका ध्यान इसी पर है... नेता वेता सब यहीं आ रहे हैं न। ओके ओबी कब पहुँच रही है... ठीक है तो आते ही लाइव देना और इसी पर कंसट्रेट करना... ठीक है... बाय...।

बात खत्म होते ही संजय के मुँह से माँ की गाली निकली... सालों को जर्नलिज्म का क ख ग पता नहीं है और बन गए हैं एडिटर...

संजय की समझ में नहीं आ रहा था कि प्रकाश ने ऐसा क्या जादू कर दिया है कि रायपुर से लेकर दिल्ली तक एक ही लाइन चल रही है। जरूर कोई खेल है। खैर... हमें क्या है... जैसा कहोगे कर देंगे।

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संजय पास की दुकान पर खड़ा टीवी पर अपना चैनल देख रहा है। मुख्यमंत्री निवास से राघव का लाइव चल रहा है।

एंकर - क्या हुआ राघव कैबिनेट की मीटिंग में...

राघव - कैबिनेट की मीटिंग में कल हुए नक्सली हमले के बाद एक बार फिर सुरक्षा व्यवस्था की समीक्षा की गई है। माना गया है कि आधुनिक शस्त्रों और संचार साधनों की कमी की वजह से नक्सलियों के खिलाफ प्रभावी कार्रवाई करने में पुलिस खुद को असमर्थ पा रही है इसलिए केंद्र से मदद माँगी जाए। इसके लिए एक कमेटी बनाने का फैसला लिया गया है जो कि ये तय करेगी कि केंद्र से कितनी और किस तरह की मदद माँगी जाए। वैसे सरकार का अनुमान है कि कम से कम 200 करोड़ रुपए की जरूरत होगी। आपको याद होगा कि अभी चंद महीने पहले ही राज्य सरकार को केंद्र से मोटी रकम मिली थी मगर उसका क्या हुआ कुछ पता नहीं चला। यहाँ ये माना जा रहा है कि ये अपनी असफलताओं को छिपाने का जरिया तो है ही साथ ही भ्रष्टाचार...

एंकर - (बात काटते हुए) ये बताइए कि प्रकाश की शहादत के बारे में क्या बात हुई...

राघव - जी इस बारे में कोई चर्चा हुई है ऐसा नहीं लगता...

एंकर - आपका मतलब है कि प्रकाश के परिजनों की मदद के लिए सरकार ने कोई पुरस्कार आदि की घोषणा नहीं की...

राघव - नहीं... ऐसा कुछ भी नहीं हुआ... देखिए ये संभव भी नहीं था क्योंकि नक्सली हमले में कुल चार लोग मारे गए हैं और अगर कोई घोषणा होती तो सबके लिए करनी होती... अन्यथा मैसेज गलत जाता... खास तौर पर आदिवासियों में...

एंकर - आपकी मुख्यमंत्री से बात हुई होगी... क्या कह रहे हैं वे...

राघव - मुख्यमंत्री ने शोक जाहिर किया है हादसे पर... उन्होंने नक्सलियों से हथियार डालकर मुख्यधारा में लौटने की अपनी अपील दोहराई है और कहा है कि सरकार हिंसक गतिविधियों को बर्दाश्त नहीं करेगी।

संजय इतना देखने के बाद वहाँ से हट गया... साला हर बार वही कर्मकांड... पैसा दो पैसा दो... सब रायपुर में ही बँट जाता है... सिपाहियों को कौन पूछता है। संजय गृह मंत्रालय और पुलिस कवर कर चुका है। सरकार बदलने के साथ ही उसकी बीट भी बदल दी गई थी। उसे पता है कि नक्सलियों से निपटने के नाम पर सालों से क्या होता चला आ रहा है। पूरा खेल खाने और खिलाने का है। नक्सलवाद से निपटने की चिंता किसी को नहीं है। किसी को समझ भी नहीं है मगर ऐसा जताएँगे कि उनसे बड़ा ज्ञानी कोई दुनिया में है ही नहीं। सब सोचते हैं कि पुलिस और सुरक्षा बल झोंक दो बस। एयरकंडीशंड कमरों में बैठे-बैठे रणनीति बनाते रहते हैं। हमेशा साधनों की कमी का रोना रोते रहेंगे और जब पैसा आएगा तो मिल बाँट के खा जाएँगे। सिपाही वहाँ गोलियाँ खाते रहते हैं।

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ओबी आते ही संजय की भाग दौड़ बढ़ गई। वो हर बुलेटिन में सिमसेट देने के निर्देश का पालन करने में जुटा हुआ था। हर बार कुछ नया देना संभव नहीं था इसलिए दोहराव हो रहा था मगर कोई बात नहीं देना है तो देना है। खबर को चैनल पर बनाए रखने का आदेश मिला है। आखिरकार, हाट केक है। आज तो यही बिकेगी। बस इसी को खेलते रहना है। फिर भी वो कभी पब्लिक से तो कभी किसी मेहमान से बात करके कुछ नवीनता लाने की कोशिश कर रहा था।

एक किनारे खड़ा होकर वो कैमरामैन से आगे की योजना बना रहा था कि उसके कान में कुछ स्वर सुनाई पड़े... देख वो पटाखा है न वही है प्रकाश की प्रेमिका... ऐसे बन रही है जैसे खसम ही मर गया हो...

संजय ने नजर दौड़ाई तो प्रकाश की माँ के पास खड़ी एक खूबसूरत लड़की पर नजर टिक गई। गम की चादर ओढ़े हुए इस लंबी दुबली-पतली लड़की ने सफेद कपड़े पहन रखे थे। अचानक संजय के मन में विचार आया कि अगर ये लड़की लाइव के लिए तैयार हो जाए तो मजा आ जाए। प्रकाश की प्रेमिका है, खूबसूरत है और क्या चाहिए। उसने दिल्ली बात करके बता दिया कि मैं कोशिश कर रहा हूँ वहाँ पूरी तैयारी रखना... जैसे ही आए काट लेना... उसने पाया कि उसके इस प्रस्ताव से दिल्ली में एक नए उत्साह का संचार हो गया है।

संजय ने डरते-डरते निवेदन किया मगर उसके आश्चर्य का तब ठिकाना नहीं रहा जब अर्पिता फौरन ही तैयार हो गई। संजय ने बिना समय गँवाए दिल्ली को बताया और अर्पिता को लेकर ओबी पर लाइव देने के लिए तैयार हो गया।

अर्पिता के साथ लाइव बातचीत करीब पैतालीस मिनट चली। संजय ने तो कम ही सवाल किए क्योंकि उसे संकोच हो रहा था। इतने सारे लोगों के बीच कैसे प्रेम संबंधों की चीर-फाड़ करे। मगर दिल्ली में बैठी एंकर संयोगिता तो बिल्कुल बिंदास निकली... उसने प्रकाश के साथ उसके रिश्ते को खोद-खोद के पूछा।

संयोगिता - अर्पिता आप प्रकाश से प्रेम करती थीं...

अर्पिता - करती थी नहीं करती हूँ...

संयोगिता - लेकिन अब तो वो जीवित नहीं हैं...

अर्पिता - हैं क्यों नहीं... मेरे दिल में हैं... यादों में हैं... और फिर प्रकाश मरा नहीं है शहीद होकर अमर हो गया है...

संयोगिता - फिर भी जीवित रूप में न होना आपके लिए क्या मायने रखता है...

अर्पिता - बहुत मायने रखता है... उनके साथ जीने के जो खवाब बुने थे वे उनकी मृत्यु से चकनाचूर हो गए हैं। उनके बिना जीने की सोचना अपने आप में एक भयानक ख्वाब है...

संयोगिता - हमारे दर्शकों को बताइए प्रकाश आपसे कब मिले थे, कैसे मिले थे, क्या ये लव एट फर्स्ट साइट था।

अर्पिता - था भी और नहीं भी... शुरुआत नोट्स के एक्सचेंज से हुई थी... फिर मुलाकातों का सिलसिला और इस तरह हम करीब आते चले गए...

संयोगिता - कितना करीब

अर्पिता - कितना करीब से आपका मतलब... जितना करीब प्रेमी-प्रेमिका होते हैं...

संयोगिता - मेरा मतलब है कि क्या आपके फिजिकल रिलेशंस भी थे... आजकल के प्रेम में इसे गलत नहीं माना जाता...

अर्पिता - देखिए ये दिल्ली मुंबई में होता होगा...

संयोगिता - मतलब आप कहना चाहती हैं कि ऐसा कुछ नहीं था...

अर्पिता - मैं ऐसे सवालों के जवाब नहीं देना चाहती...

इस बीच संजय माइक लिए ऐसे खड़ा था मानो उसको यही भूमिका निभानी हो। दरअसल इन संवादों ने उसे हतप्रभ कर दिया था। वो सोच रहा था कि अर्पिता और प्रकाश की प्रेम कहानी दुनिया भर में प्रसारित हो रही है... क्या अपनी प्रेम गाथा को इस तरह से सार्वजनिक करना ठीक है... क्या किसी न्यूज चैनल का किसी की निजी जिंदगी में इस हद तक घुसपैठ करना ठीक है... वो सोचे जा रहा था और चैनल पर प्रेम प्रश्नोत्तरी जारी थी...

संयोगिता - प्रकाश के बारे में बताइए... प्रकाश में क्या बात अच्छी लगती थी।

अर्पिता - प्रकाश की हर बात मुझे अच्छी लगती थी... उसका बोलना उसका हँसना... उसका प्यार जताना और... और बहुत कुछ...

संयोगिता - आपने कहा कि प्रकाश आपके दिल में है यादों में है... तो अब क्या करेंगी...

अर्पिता - क्या करूँगी मतलब...

संयोगिता - मतलब ये कि किसी की यादों के सहारे तो जिंदगी जी नहीं जाती... फिर कैसे जिएँगी आप...

अर्पिता - ...

संजय देख रहा था कि इस सवाल ने अर्पिता को परेशान कर दिया है। वहाँ पहले ही बहुत भीड़ इकट्ठी हो चुकी थी। सबकी निगाहें उस पर टिकी हुई थीं कि देखें वो क्या जवाब देती है... अर्पिता को इस बात का एहसास था कि वो चैनल पर लाइव है मगर उसे कोई जवाब सूझ नहीं रहा था... वो खामोश खड़ी थी... इस बीच संयोगिता ने फिर सवाल दागा... अर्पिता अगर आप हमें सुन पा रही हों तो बताइए कि कैसे जिएँगी भावी जिंदगी...

यहाँ प्रकाश के घर के बाहर ओबी वैन के चारों ओर और न्यूज चैनल पर एंकर संयोगिता का प्रश्न गूँज रहा था... कैसे जिएँगी आप... कैसे जिएँगी... और इसकी प्रतिध्वनि सन्नाटे को चीरती हुई अर्पिता के कानों में गूँज रही थी... उसे जवाब देना होगा... वो चुप नहीं रह सकती... उसे बताना ही पड़ेगा और अभी, इसी वक्त बताना पड़ेगा कि कैसे जिएगी वो... लेकिन क्या जवाब दे... क्या बताए वो कि कैसे जिएगी प्रकाश के बिना...

अर्पिता ने एक गहरी साँस ली और फिर अपना दो टूक उत्तर सुना दिया... अब शादी नहीं करूँगी, विधवा का जीवन गुजारूँगी... प्रकाश के माँ-पापा की सेवा करूँगी...

संयोगिता - आपने बहुत कड़ा फैसला लिया है... क्या ये आपका अंतिम फैसला है...

असहाय सी दिख रही अर्पिता को बोलना पड़ा - हाँ ये मेरा अंतिम फैसला है...

संयोगिता ने धन्यवाद देते हुए बातचीत को खत्म कर दिया।

इंटरव्यू खत्म होते ही किसी ने नारा लगाया प्रकाश - अर्पिता अमर रहें... कुछ देर तक ये नारा बार-बार दोहराया जाता रहा।

संजय ने देखा अर्पिता के चेहरे पर गर्व के भाव आ गए हैं। वो दौड़कर प्रकाश की माँ के गले लग गई...

थोड़ी ही देर में चैनल पर हेडलाइन बन गई... शादी नहीं करेगी शहीद प्रकाश की प्रेमिका... कहा - विधवा का जीवन गुजारूँगी...

संजय सोचने लगा... कुछ भावुकता ने मरवा दिया कुछ मीडिया ने। अब सारे अखबारों और चैनल में यही खबर चलेगी और फिर ये चाहकर भी शादी नहीं कर पाएगी। उसे अफसोस होने लगा कि वो उसे क्यों लेकर आया... उसे लग रहा था कि जैसे अर्पिता को उसने सती होने के लिए उकसाया हो... उसके लिए चिता सजाई हो। उसके सिर में दर्द होने लगा... उसने जेब से सिगरेट का पैकेट निकाला। एक सिगरेट सुलगाई और लंबा कश लेकर ढेर सारा धुआँ उगल दिया...।

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दूसरा अंत निरंतरता में -

ग्लानि भाव से भरे संजय के मन में कशमकश चल रही है। वो अपने चैनल को कोस रहा है और चैनल चलाने वालों की मन ही मन माँ-बहन कर रहा है। उसे अपने ऊपर भी क्रोध आ रहा है कि उसने क्यों अर्पिता को बुलाया। जो कुछ हुआ उसके लिए वो भी तो जिम्मेदार है। औरों से आगे निकलने की होड़ में और अपने नंबर बढ़ाने के लिए ही तो उसने ये आयडिया निकाला था। अब जबकि पाँसा उल्टा पड़ गया तो वो क्यों छाती पीट रहा है। लेकिन उसके मन में छिपे एक और मन ने कहा कि वो नहीं करता तो कोई और करता और तब उसकी क्या दुर्गति होती क्या इस बारे में उसने सोचा है... फिर ये तो उसका प्रोफशन है... घटना के नए-नए पहलुओं को तलाशना और लोगों के सामने रखना उसका काम है। ये खोजी वृत्ति न हो तो फिर वो पत्रकार काहे का... उसे तो ये करना ही था... गलती दिल्ली में हुई... जहाँ इसकी संवेदनशीलता को समझे बगैर तमाशा बना डाला गया। तो क्या उसे दुखी नहीं होना चाहिए... नहीं, संजय फिर भी दुखी है... वो अपने अपराध को नजरअंदाज नहीं कर सकता... फिर क्या करे वो... क्या कुछ किया जा सकता है... क्या कमान से निकला तीर वापस लौट सकता है।

यही सब सोचते-सोचते संजय धीरे-धीरे अर्पिता की तरफ चलने लगता है। उसे पता नहीं है कि वो किस लिए जा रहा है... क्या कहेगा वो अर्पिता से... कैसे मनाएगा उसे अपना फैसला बदलने के लिए...

अर्पिता प्रकाश की माँ के पास खड़ी थी। संजय ने धीरे से आवाज दी अर्पिता... अर्पिता ने धीरे से मुड़कर देखा और फिर दुपट्टे से आँखें पोंछती हुई उसके पास चली आई।

संजय ने देखा अर्पिता के खूबसूरत गोरे चेहरे पर कई कहानियाँ एक साथ लिखी हुईं हैं। आँसुओं से भरी आँखें सुर्ख हो गई हैं। उनमें एक तरह के समर्पण और त्याग के भाव हैं। मगर आँखों के नीचे उदासी पसरी हुई है। क्या कहती है ये उदासी... क्या ये प्रकाश से बिछड़ने की वजह से है या अंधकार भरे भावी जीवन की छायाएँ अपनी कालिमाओं के साथ उसके चेहरे पर तैर रही हैं। वो जाने कितनी देर और चेहरे के भावों का अनुवाद करता रहता मगर अर्पिता की ...जी कहिए... ने उसका ध्यान भंग कर दिया।

मगर क्या कहे वो अर्पिता से... क्या ये कि उसके चैनल ने उसके साथ ज्यादती की है... या फिर ये कि उसने बहुत गलत फैसला लिया है... वो फिर उधेड़बुन में फँस गया...

अर्पिता ने अब सीधे सवाल किया - क्या फिर इंटरव्यू करवाना चाहते हैं...

संजय ने महसूस किया कि अर्पिता के वाक्य में एक तरह की तल्खी है... उसके चेहरे के भाव भी बदल रहे हैं... गोरा मुखड़ा थोड़ा लाल हो चला है... गुस्से की लालिमा...

संजय अब मुश्किल में फँस गया। उसकी समझ में नहीं आ रहा क्या करे... फिर भी उसने धीरे से कहा - मुझे अफसोस है कि...

अर्पिता ने बात को काटते हुए कहा - कुछ और कहना है आपको...

देखिए मैं बहुत शर्मिंदा हूँ... संजय ने फिर धीरे से कहा... उसे लग रहा था कि सब लोग अब उसे ही घूर रहे हैं... वो असहज महसूस करने लगा...

अब ये सब कहने से फायदा... अर्पिता ने दो टूक प्रश्न दागा...

संजय के पास शब्द नहीं बचे थे... उसका गला सूखने लगा... उसने परेशानी में इधर-उधर नजरें घुमाई... उसे लगा अब और भी ज्यादा लोग घूर रहे हैं... अचानक उसके मुँह से निकला - तुम शादी जरूर करना ...इतना कहने के बाद उसने अर्पिता के चेहरे की तरफ देखने की कोशिश की... उसने बगैर सोचे-समझे भावावेश में ऐसा कह दिया था। शायद अपराधबोध ने उसकी जबान पर ये शब्द धर दिए थे।

उसने चोर निगाहों से अर्पिता के चेहरे की तरफ देखने की कोशिश की। चेहरे की लालिमा बढ़ गई थी... मगर इस लालिमा को वो परिभाषित करने में असफल रहा। क्या ये लाज की लालिमा थी या फिर बढ़ते क्रोध की या दोनों की...

कुछ और सोच पाता कि संजय की नजर पास खड़े प्रकाश के भाई की घूरती हुई आँखों पर पड़ी। लगता है उसने उसका निवेदन सुन लिया है... इतने में वो और पास आ गया... उसने अर्पिता से कहा - तू जा... फिर संजय की बाँह पकड़कर एक तरफ ले गया और बोला - चुपचाप यहाँ से खिसक ले नहीं तो सारी हीरोगीरी घुसेड़ दूँगा। राय बहादुर बनने का शौक है तुझे न ...साले गाँव वाले इतनी मार मारेंगे कि घर वाले तेरी लाश को पहचान भी नहीं पाएँगे। चल भाग...

संजय भारी कदमों से वापस लौट आया... आज उसे दोहरी पराजय का सामना करना पड़ा था... पहली अपने प्रोफेशन में और दूसरी समाज के सामने...