शहीद / पद्मा राय

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वहाँ हॉल में जितने लोग बैठे थे-लगभग सभी का सिर नीचे झुका हुआ था। आँखें-हाथ में थामें तम्बोला के टिकट पर अटकीं थीं। एक हाथ में तम्बोला का टिकट और दूसरे में पेंसिल सम्भाले, उनका पूरा ध्यान बोले जाने वाले नम्बरों पर ही था। फिर से एक नम्बर पुकारा गया। तम्बोला खेलने वालों के कान खडे हो गये और उनकी निगाहें तम्बोला के टिकट पर उस नम्बर को तलाशने लगीं।

"लकी फॉर समवन-वन, थ्री, नम्बर थर्टीन।" मिसेज राना की आवाज लाउंज में गूँज उठी ।

"यस..." "किसकी आवाज है?" सबकी निगाहें आवाज की दिशा में घूम गयी।

अभी तक मिसेस राना ने अगला नम्बर एनाउंस नहीं किया था। उन्होंने चश्मा अपनी आँख पर से उतारा और मेज पर रख दिया। सुनीता मित्रा अपनी जगह से उठकर, अपने टिकट को ध्यान से देखते हुये उनकी तरफ ही आ रहीं थीं। टिकट को मिसेस राना को देने के पहले वे उसे अच्छी तरह से चेक कर लेना चाहतीं थीं । नहीं तो टिकट बोगी होने का खतरा था। संतुष्ट होने पर उन्होंने अपना टिकट मिसेस राना को थमा दिया। एक-एक करके उस टिकट में मौजूद सभी नम्बर पढकर बोले हगये नम्बरों से मिलाया गया । आखिरी नम्बर भी सही था। फुल हाउस क्लेम किया था मिसेस मित्रा ने ।इनाम की राशि जैसे ही सुनिता मित्रा के हाथों में आयी, कई आवाजें एक साथ वहाँ गूँज गयीं।

"पार्टी...पार्टी..." हँसी की एक झलक उनके चेहरे पर दिखायी दी।

पर्स खोलकर रुपये अन्दर रखते हुये वे अपनी जगह पर वापस बैठ गयीं। बाकी सभी ने अपने-अपने टिकट को अंतिम बार देखा और फाड दिया। तम्बोला का यह आखिरी राउंड था। खाना मेज पर आ चुका था। हर पन्द्रह दिनों में एक बार लेडीज क्लब की मीटिंग होती है। इतने दिनों में एक दूसरे से शेयर करने के लिये काफी कुछ इकट्ठा हो चुका होता है। तम्बोला खेलते समय वहाँ का माहौल एकदम शांत था किंतु अब वहाँ तरह-तरह की आवाजें सुनाई देने लगीं थीं ।

एक-एक करके लोग मेज की तरफ बढ रहे थे । खाना लेकर अपनी-अपनी प्लेटों के साथ कुछ महिलायें सोफों में धंस गईं तो कुछ इधर-उधर टहलते हुये एक दूसरे से बातें करने में मशगूल हो गयीं। खाना कम खाया जा रहा था, बातें ज़्यादा ।महीने में सिर्फ़ दो बार ऐसा मौका मिलता है उसका भरपूर फायदा उठाना भी चाहिये। एक बार जब बात शुरू हुयी तो जाने कहाँ-कहाँ की बातें निकलने लगीं । बातों का सिरा कब शादी-ब्याह की तरफ मुड गया उन्हें पता ही नहीं चला। "अरे भाई सुनीता, बेटे की शादी कब कर रही हो?" मिसेस सिंह की आवाज थी। सुनीता का मनपसन्द टॉपिक यही था। आजकल उनका मन सबसे ज़्यादा बेटे की शादी के बारे में ही बात करने में लगता है-और उसी के बारे में उनसे पूछा गया था। सुनते ही चेहरा गुलाब हो गया। बडे जोरों से जुटी हैं इस अभियान में वे आजकल । हर दूसरे दिन लडकियों की कुछ और नई तस्वीरें और बायोडेटा उनके पास पहले से ही मौजूद तस्वीरों और बायोडेटा के कलेक्शन में इजाफा कर जातीं हैं। अब तो डाकिया भी लिफाफा देखकर पहचानने लगा है कि भैया की शादी से सम्बन्धित ही कुछ है। डाकिये की याद आ गयी उन्हें ।

"मैडम ढूढ रहें हैं । लडकी पसन्द आने की देर है । हमारा बच्चा भी जुलाई में लौटने वाला है, तब तक शायद बात बन जायेगी । उसी समय मंगनी और शादी दोनो कर देंगें। बाकी तैयारियाँ तो सब हो ही चुकीं हैं।"

"क्या आपका बेटा लडकी देख चुका है? क्योंकि आजकल के लडके, बिना लडकी को खुद देखे तो शादी के लिये हाँ करते नहीं । क्या उसका ..." उनकी बात पूरी नहीं होने दी सुनीता नें-बीच में ही बोल उठी-"नहीं मैडम, मेरा बच्चा तो एक ही बात कहता है । लडकी चाहे हम जो भी पसन्द करें उसके लिए वह सही होगी किंतु ऐन्गेजमेंट के बाद कम से कम उसे एक महीने का समय एक दूसरे को जानने समझने के लिये चाहिए ।"

सुनीता के चेहरे पर गर्व साफ दिखायी दे रहा था। आर्मी में है उनका बेटा।

"आश्चर्य की बात है ।" कहती हुयी मिसेस सिंह उठीं और टहलते हुये किसी दूसरे ग्रुप का हिस्सा बन गयीं । उनको अपने बेटे की याद आयी जिसकी शादी सिर्फ़ इसलिये टलती जा रही थी क्योंकि उसे कोई लडकी ही पसन्द नहीं आ र्ही थी ।

"ऐसे भी बच्चे अभी हैं! होंगे, हुँह ।" खुद से ही सवाल जवाब करते हुये उन्होंने धीरे से अपना कन्धा उचकाया । लेकिन ऐसा कहते हुये उनके अलावा किसी ने उंनकी बात नहीं सुनी ।

"उसकी पोस्टिंग कहाँ है आजकल?"

"सोपोर-काश्मीर, में।"

"ओह ।" अपना सिर हिलाते हुये श्रीमती उपाध्याय ने कहा। उनके माथे पर चिंता की लकीरें उभर आयीं । काश्मीर के हालात कुछ ठीक नहीं हैं आजकल ।

"कल ही फोन पर उससे बात हुयी थी ।उनके बेटे की पोस्टिंग बीकानेर हो गयी थी किंतु बीच में ही उसकी यूनिट को सोनमर्ग जाने का हुक्म हुआ है। अब वहाँ द्रास सैक्टर में उसकी यूनिट की तैनाती होगी ।"

आवाज कुछ धीमी पड गयी सुनीता की । बात पूरी करते-करते बेटे का हंसता हुआ चेहरा आँखों के सामने घूम गया। लगा जैसे कह रहा हो-"अच्छा माँ, तो आप भी डरतीं हैं?"

"नहीं तो ।" मुँह से निकला उनके । फिर याद आया-उनका बेटा तो काश्मीर में है । वे अचानक चिंतित हो गयीं । बेटे का चेहरा अलग-अलग मुद्राओं में बार-बार उनके सामने आकर खडा हो जा रहा है।

"युद्ध जैसे हालात हैं वहाँ । कारगिल की लडाई जोरों पर है। कोई दिन ऐसा नहीं गुजरता जिस दिन पन्द्रह-बीस जवान, अफसर शहीद नहीं हो रहें हैं । घायलों की संख्या तो खीं ज़्यादा होगी। हालात कब तज ऐसे ही रहेंगे, कौन जाने?"

सुनीता की सोच सही है । काश्मीर के हालात तो पहले से ही खराब थे अब कारगिल उसमें और जुड गया। पाकिस्तानियों ने चुपके से कब हमारी हिस्से के काश्मीर-कारगिल में जगह-जगह अपना कब्जा जमा लिया किसी को कानोकान खबर भी नहीं हुयी और जब पता चला तब तक काफी देर हो चुकी थी । अब उन्हीं हिस्सों को खाली करवाने की कवायद चल रही है। एक जगह को उनके कब्जे से छुडाया जाता है तब तक और कई दूसरे ठिकानों के बारे में पता चलता है जहाँ दुश्मन की फौज़ अभी कब्जा जमाये बैठी है। शुरु-शुरु में लगता था कि बस दो-चार दिनों में पूरा कारगिल पाकिस्तानियों के कब्जे से छुडा लिया जायेगा, किन्तु कहाँ! अब तो ऐसा महसूस होने लगा है कि जैसे ये लडाई सदियों तक चलती रहने वाली है । कभी समाप्त नहीं होगी। शक की स्थिति है । औरों का कह नहीं सकते-किन्तु मिस्टर मित्रा और सुनीता-दोनो कुछ इसी तरह के शक के सवालों से घिरे बैठें हैं ।

उनका बेटा पिछले ढाई सालों से काश्मीर में ही है ।अब जब वह वापस लौटने वाला था कि कारगिल की प्राबल्म सामने आ गयी और उसकी पोस्टिंग वहाँ हो गयी । उन्हें अपने बच्चे की चिंता है । "कारगिल वार"-जिसके देखो वही आजकल इसी के बारे में बात करता है । इसका नाम सुनते ही दहशत होने लगती है, एक अनजाना-सा भय दिमाग में उथल-पुथल मचाये रहता है। रात-आधी सोते और आधी जगते बीतती है । इतना ही नहीं-सुबह अखबार खोलते समय डर लगता है ¸ हाथ कांपने लगते हैं। आधे से ज़्यादा अखबार कारगिल की खबरों से ही पटा रहता है। जैसे बाकी दुनियां में कहीं भी कुछ भी ऐसा नहीं हो रहा जिसकी रिपोर्टिंग करने की ज़रूरत हो। कँपकँपाते हाथों से अखबार उलटते हैं । धुकधुकी बढती जाती है । पहले इधर-उधर की खबरें पढतें हैं फिर जल्दी-जल्दी शहीदों के नाम पढ जातें हैं । बेटे का नाम उसमें नहीं होने पर चैन की साँस लेकर एक-दूसरे की तरफ देखतें हैं और तब इत्मीनान से मिस्टर मित्रा बाकी का अखबार पढतें हैं और सुनीता चाय बनाने किचन में चलीं जातीं हैं हमेशा ऐसा ही होता है ।

पहले अखबार मिस्टर मित्रा पढतें हैं और तब सुनीता की बारी आती है । कुछ दिन पहले तक अखबार पढने के नाम पर सुनीता सिर्फ़ हेडलाइंस पढती थी लेकिन आजकल केवल कारगिल से जुडी हुयी खबरें ही पढती है । एक-एक अक्षर कई-कई बार पढ जाती है, फिर भी संतोष नहीं होता । यहाँ अखबार पढ रही होती है और वहाँ उसका दिल और दिमाग दोनो मानो कारगिल में पहुँच चुका होता है ... उसका बेटा भी तो वहीं है । उन्हीं विषम परिस्थितियों में वह भी जुझ रहा होगा उसका बेटा भी। ऊपर पहाड की चोटी की आड में आधुनिक हथियारों से लैस दुश्मन और नीचे न जाने कितना बोझ अपने पीथ पर लादे। खुले में दुर्गमा पहाडियों पर कढती हुई सेना का एक छोटा-सा हिस्सा बना हुआ उसका बेटा ।दुश्मन के लिये कितना आसान टारगेट! एक पत्थर भी ऊपर से दुश्मन लुढका दे तो ऊपर चढता हुआ सिपाही ...! इसके बाद सुनीता का दिमाग सोचना बन्द कर द्र्ता है। वह सोचना भी नहीं चाहती और अखबार आगे पढने की कोशिश करने लगती। अखबार पढते समया प्रतिदिन न जाने कितने सम्मानों की घोषणा नए-नए रूप में आंखों के सामने से गुजर जातें हैं। सम्मानों की बाढ-सी आ गयी है ।

रक्तदान शिविर लग रहें हैं । लोग न जाने क्या-क्या दान कर रहें हैं । मुआवजे दिये जा रहें हैं, किसके एवज में? हर दिन एक नई लिस्ट । उसकी समझ में नहीं आता कि जब बच्चा ही नहीं बचेगा तब आखिर इन सबका क्या होगा? जाने क्यों हमेशा बुरे ख़्याल ही दिमाग में घुमडते रहतें हैं ।लडाई पर जाने वाले सही सलामत वापस भी तो लौटतें हैं! अजीब-सी बेचैनी दिमाग पर तारी है। उल्टे सीधे विचारों के गिरफ्त में सुनीता हर समय जकडी रहती है । कभी-कभी तो उसका दिमाग एकद्म शून्य हो जाता है । तब कुछ समझ में नहीं आता कि वह क्या करे!

आजकल कोई सीरियल वह नहीं देखती । ऐसा नहीं है कि टी•वी• पर सीरियल आना बन्द हो गयें हैं । उसके पसन्द के सभी सीरियल-जिन्हें वह कभी मिस नहीं करती थी, को भी देखने का अब मन नहीं करता है । टी•वी• पर न्यूज़ किसी न किसी चैनल पर हमेशा जारी रहती है । बस उन्हें ही देखती रहती है । अभी सुबह ही स्टार न्यूज़ पर दिखाया जा रहा था-एक साथ बीस-बीस डेड बॉडीस-कफन बॉक्स के अन्दर तिरंगे में लिपटे। उन्हें सलामी देते हुये फौज़ी अफसर, जवान और तमाम दूसरे लोग। झट से उठकर स्विच ऑफ कर दिया था उसने ।आगे देखा नहीं जा रहा था उससे । लेकिन कुछ देर बाद ही दुबारा टी•वी• ऑन करके वहीं बैठ गयी थी सुनीता । अज़ीब दिनचर्या हो गयी है उसकी!

जब से बेटा सोनमर्ग पहुँचा है, ये दोनो पति-पत्नी एक दूसरे के काफी करीब आ गयें हैं। जरा-जरा-सी बात में ही लड पडने वाले हर आम जोडों की तरह अब हर समय एक दूसरे का ध्यान रखने लगें हैं । कहीं कोई ऐसी बात मुँह से न निकल जाय जो दूसरे को चोट पहुँचा जाय-इसकी कुछ ज़्यादा ही चिंता रहने लगी है उन दोनो को। घंटों चुपचाप साथ-साथ बैठे रहतें हैं । आज रविवार का दिन है। दोनो साथ ही बैठें हैं कोई हडबडी नहीं है। आफिस भी नहीं जाना है। अभी तक बिस्तर पर ही हैं ।चाय पी रहें हैं दोनो। पूरे पलंग पर बेटे के रिश्ते के लिये आयीं तस्वीरें फैलीं हैं। मिस्टर मित्रा को एक तस्वीर पसन्द आयी है तो सुनीता को दूसरी कुछ ज़्यादा भा रही है । अपने-अपने पसन्द की तस्वीर हाथ में उठाकर दोनो थोडी देर तक एक दूसरे को देखते रहे और न जाने कुआ हुआ कि जोर-जोर से हँसने लगे । ज़्यादा वक्त नहीं लगा यह तय करने में बेटे की पसन्द ही आखिरी होगी । बेटे के निर्णय पर दोनो को भरोसा था । दोनो निश्चिंत थे हो गये और उनके दिल में यह आश्वस्ति भी कहीं न कहीं ज़रूर थी कि उनकी पसन्द ही बेटे की पसन्द होगी । लेकिन एक दूसरे पर अपने मन की बात को दोनो ने ही जाहिर नहीं किया ।

बस इंतजार था उसके लौट कर आने का।

अचानक टेलीफोन की घंटी बज उठी । सुनीता टेलीफोन की तरफ लपकी ।

"हैलो।"

"हैलो, हाँ। ... ..., मित्रा साहब के यहाँ से बोल रहें है?"

"जी हाँ, आप कौन बोल रहें हैं?"

"मैं टेलीफोन एक्सचेंज से बोल रहा हूँ । कोई मेजर रणधीर मित्रा दूसरी तरफ लाइन पर हैं ।"

"उन्हें फोन दीजिये।"

दिल की धडकन तेज हो गयी सुनीता की ।

"हैलो,"

दूसरे तरफ से चिर-परिचित आवाज सुनाई दी।

"हैलो बेटा राजू, मैं बोल रहीं हूँ।"

"हाँ जी ममा, प्रणाम ।"

"जीता रह पुत्तर, कैसा है बेटा?"

"तूने चिट्ठी क्यों नहीं लिखी अभी तक? वहाँ सब कुछ ठीक तो है न? खाना वाना ठीक से खाता है कि नहीं...?"

आवाज भर्राने लगी उसकी । गला फंस रहा है । बहुत कुछ जानना चाहती है अपने बेटे के बारे में किंतु अभी तक तो उसने एक भी बात का जवाब नहीं दिया है । सुनीता ने उसे बोलने का मौका ही कहाँ दिया? लेकिन अभी तो और भी ढेर सारी बातें पूछनी बाकी हैं । लेकिन उससे बोला ही नहीं जा रहा है । बहुत कोशिश करने पर भी शब्द बाहर नहीं आ पा रहें हैं ।

"हैलो...हैलो...हाँ... ममा मैं ठीक हूँ । आप लोग मेरी फिकर न करें । आपका हट्टा कट्टा बेटा जल्दी ही लौट कर वापस आयेगा । डैडी कैसें हैं? हैलो... हैलो... ममा आपकी आवाज बिल्कुल नहीं सुनायी दे रही है । आप सुन तो रहीं हैं न? मैं समझ गया, आप रो रहीं हैं । अच्छा डैडी को रिसीवर दीजिये ।"

सुनीता रिसीवर को कान से लगाये अपने बेटे की आवाज लगातार सुनती रहना चाहती थी लेकिन अब...!

उसने मि. मित्रा के ओर देखा । वहीं उससे सट कर वे खडे थे । अपनी आंखें पोंछते हुये रिसीवर उन्होंने उसके हाथ से ले लिया ।

"हैलो, बेटा मैं"

"जी डैडी... प्रणाम । कैसे हैं?"

"जीता रह बेटा, मैं बिल्कुल ठीक हूँ और तू?"

"बडा मजा आ रहा है यहाँ । हर दिन एक नया अनुभव मिल रहा है । मिलने पर आपको ढेर सारी बातें बतानी है । डैडी ममा का ध्यान रखियेगा । फोन पर उनकी आवाज सुनकर लगा कि वे बहुत परेशान हैं उनसे कहिये, वे चिंता न करें । अभी तक कोई तस्वीर पसन्द आयी कि नहीं? उनसे कहिये लडकी भी देख लें। मैं जल्दी ही लौटूंगा। हाँ एक बात और कल हमारी यूनिट द्रास के लिये मूव कर रही है । ममा का ध्यान रखियेगा और अपना भी । छोटा भी तो जुलाई में आ रहा है न?"

सब लोग मजे में है। तू यहाँ की फिकर मत कर, बेटे । छोटा भी अच्छा है । पच्चीस छब्बीस जून तक उसका इम्तहान खत्म होगा । उसके बाद वह यहाँ आयेगा । तीस जून तक उसके यहाँ पहुँचने की उम्मीद है । फुरसत मिलते ही चिट्ठी लिखना । ऑल द बेस्ट । मुखे पूरी उम्मीद है कि मेरा बेटा जल्दी लौटेगा विजयी होकर।"

" जी डैडी, प्रणाम।"

टेलीफोन की लाइन कट गयी । रिसीवर ठीक से रखकर मिस्टर मित्रा देर तक उसे सहलाते रहे । लगा जैसे बेटे को दुलरा रहें हों । उधर सुनीता अपने दुपट्टे के कोने से अपनी आंखों के कोरों को पोंछने में लगी थी।

" तुम भी अज़ीब औरत हो ।बजाय खुश होने के रो रही हो । इतने दिनों बाद तो आज जाकर बेटे से बात हुयी है तुम्हें तो खुश होना चाहिए । फिर क्या तुमा इतना भी नहीं जानती कि लडाई पर जाते हुये बेटे को खुशी-खुशी विदा करना चाहिए । पर तुम हो कि...! रोने से अशुभ होता है । क्या यह भी मैं ही तुम्हें बताऊँगा? "

" आज उसकी पलटन द्रास के लिये मूव करने वाली है । ईश्वर उनकी रक्षा करे ।" मन ही मन मित्रा साहब ने बेटे के लिये दुआ की । सुनीता ने नहीं सुना।

" रो कहाँ रहीं हूँ? ये तो बस ऐसे ही, उसकी आवाज सुनकर पता नहीं कैसे आँख में पानी उतर आया।" कहते हुये सुनीता ने हँसने की कोशिश की ज़रूर लेकिन उसकी हिचकी बन्ध गयी। सामने खडा होना मित्रा साहब के लिये भी अब मुश्किल होने लगा। ये तय था कि अगर अब थोडी देर भी वे यहाँ रुके तो वे भी अपने आप को संभाल नहीं पायेंगे । ज़्यादा वक्त नहीं बीता है, बेटे से बात किये हुये । दोनो में से कोई कुछ कह सुन नहीं रहा । खामोशी है पूरे घर में । थोडी देर पहले बेटे से हुयी बातचीत और उसकी आवाज के नशे में दोनो खोयें हैं।

" ठीक से बात हुयी भी कहाँ? कितना कुछ कहने सुनने से रह गया । कितनी सारी बातें भी तो उसे बतानी थीं। कारगिल के बारे में तो कुछ पूछा भी नहीं । उस समय कुछ याद ही नहीं आ रहा था । फोन आने के पहले कितना कुछ दिमाग में रहता है और उसकी आवाज सुनते ही न जाने क्या हो जाता है? इतनी जल्दी समय बीत जाता है ।"

लगभग इसी तरह की बातें दोनो के ही मन में हलचल मचायें थीं। दो-तीन दिन और बीत गये। एक-एक दिन जैसे एक-एक युग। काल चक्र जैसे अपनी जगह पर ठहर गया है। दिन भर एक ही समाचार बार-बार दुहराया जाता है। बस थोडा बहुत शब्दों में हेर फेर कर दिया जाता है। लेकिन वह भी कभी-कभी ही । मसलन, हमारी बहादुर सेना लगातार आगे बढ रही है। या कि हमारे जांबांज फौजी अपने प्राणों की परवाह किये बिना दुश्मन से जूझ रहें हैं । या फिर हमारे द्स जवान शहीद हुये और उनके बीस मारे गये । पता नहीं कितना सच और कितना झूठ?

ब्रीफिंग के समय मिस्टर मित्रा संस रोककर चौकन्ने बैठे होतें हैं ।ईश्वर में आस्था न रखने वाले मित्रा साहब उस समय न जाने कितनी मनौतियाँ मनाते रहतें हैं। सुनीता तो दिन के चार पांच घंटे अपने मन्दिर में बिताती ही है। उसके कमरे में ही उसका मन्दिर भी है, घंटे-आधे घंटे बीतते-बीतते जब उसकी घबडाहट बढने लगती है तब मानो वही उसका एक मात्र सहारा होता है। सीधे मन्दिर में पहुँचकर मत्था टेक देती है पूजा पाठ के सारे विधि विधान भूल चुकी है । न कोई मंत्र, न अगरबत्ती और न ही दीपक बाती से कोई मतलब रह गया है ।

हर समय-" मेरे राजू बेटे की रक्षा करना माँ ।"यही एक बात मंत्र की तरह न जाने कितनी बार अब तक जप चुकी है । मन्दिर में हो न हो, हर वक्त इसी मंत्र का जाप करती रहती है सुनीता । थोडे-थोडे अंतराल पर बेटे का मासूम चेहरा आंखों के सामने आकर खडा हो जाता है । आजकल छोटे बेटे की याद उतनी नहीं आती । इस समय भी वह देवी माता के सामने बैठी है । आंखें बन्द हैं। आंसू लगातार बह रहें हैं। बुदबुदा रही है ।

" मान जल्दी लडाई खत्म कर। मेरा बेटा ठीक-ठाक घर लौटा दे और मैं तुझसे कुछ नहीं मांगती । एक यही बात मेरी तू मान ले ।"

इसी तरह एक-एक दिन गुजरते जा रहें हैं । दूसरों के सामने काफी संयमित रहने की कोशिश करती है और सफल भी रहती है। बात बेबात हंस भी लेती है किंतु अकेले पडते ही बेचैनी बढने लगती है। बेटे का फोन आये हुये भी चार पांच दिन गुजर गयें हैं । अब शायद फोन करना मुमकिन न हो लेकिन इधर कई दिनों से उसकी एक भी चिट्ठी नहीं आयी। दिन में दसियों बार नीचे जाकर लेटर बॉक्स का ताला खोलकर निराश ही वापस लौटी. फिर भी आस लगाये है-आज तो चिट्ठी आनी ही चाहिए । सुनीता की दांयीं आँख सुबह से फडक रही है । उसे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है । बार-बार बालकनी में जाकर खडी हो जाती है ।डाकिया भी इसी समय आता है । शायद आज बेटे की चिट्ठी आये ।

मित्रा साहब आफिस में हैं। अभी-अभी लंच खतम किया है । इस समय उनकी आंखें बन्द हैं और वे अपना सिर कुर्सी पर टिकाकर कुछ सोच रहें हैं। सुबह के अखबार में छपी उन पांच शहीदों की तस्वीर दिमाग में तहलका मचाये है । उनमें से एक का चेहरा काफी जाना पहचाना लग रहा था। कभी मिले ज़रूर होंगे । पर कब? याद नहीं आ रहा था। ध्यान बार-बार बेटे की तरफ जा रहा था । आँख बन्द करते ही बेटा सामने आकर खडा हो जाता है । इसीलिये शायद आंखें बन्द करके चुपचाप बैठें हैं । अचानक झटका-सा लगा । टेलीफोन की ग्फ्हंटी बज रही थी । रिसीवर उठा लिया उन्होंने ।

" हैलो। "

" हैलो, में आई टाक टू मिस्टर मित्रा? "

" यस...स्पीकिंग... "

" ब्रिगेडियर वर्मा हियर फ्रॉम जम्मू..." मित्रा साहब के दिल के धडकने की रफ्तार एकाएक तेज हो गयी।

माथे पर पसीना चुहचुहा आया। एक हाथ से अपने सीने को रगडते हुये दूसरे में रिसीवर थामे आगे सुनने की कोशिश कर रहे थे ।

" हाँ कहिये, मैं सुन रहा हूँ । "

" सर, हियर इज ए मैसेज फॉर यू... योर सन हैज डन सुप्रीम सैक्रीफाइस फॉर हिज मदरलैंड...वी आर प्राउड ऑफ हिम... "

इसके आगे ब्रिगेडियर ने क्या कुछ कहा-मित्रा साहब ने कुछ नहीं सुना। इद्माग ने जैसे काम करना बन्द कर दिया था । बस हैलो...हैलो करते रह गये थे । दूसरे तरफ से कोई आवाज उन तक नहीं पहुँच पा रही थी । कुछ देर तक सोचते रहे । फिर धीरे-धीरे समझ में आने लगा-मैसेज में क्या था? ब्रिगेडियर ने उनसे क्या कहना चाहा था? रिसीवर हाथ में लेकर सुन्न बैठे रहे । अर्थ समझने में समय लगा था और जब समझ में आया तब ...! सोचने समझने की ताकत जैसे चुक गयी । आंखें नम नहीं हुयीं उनकी! हाँ सुनीता का ध्यान ज़रूर आया । उसे पता चलेगा तब ...?

" कौन बतायेगा उसे? वे कैसे बता पायेंगे उसे यह बात ...? उन्हें कितना बेरहम होना पडेगा!

"इधर उधर देखा उन्होंने। आसपास कोई भी नहीं था । घबराहट बढने लगी, ।सामने रखा हुआ पानी का गिलास उठाकर मुंह से लगा लिया । पेट में दर्द-सा महसूस हुआ । सीधे बाथरूम की तरफ भागे ।वापस लौटे तो सबसे पहले टेलीफोन पर ही गयी । दहशत-सी होने लगी । देर तक उसे ही घूरते रहे। याद आया कि अभी कुछ दिन पहले ही तो बेटे से टेलीफोन पर बात हुयी थी । उसने तो कहा था कि वह जल्दी ही लौट कर आयेगा फिर ...हताशा ने घेर लिया उन्हें। ... झटके से उठकर खडे हो गये, , उनके वश में कुछ भी नहीं रह गया था। हाथ पैर जैसे काम नहीं कर रहे थे। अभी तक वे निर्णय नहीं कर पा रहे थे कि अब आगे उन्हें क्या करना चाहिये...

सुनीता इस बात को कैसे झेलेगी? क्या करें वे? सुनीता जब अपने बेटे की मौत की खबर सुनेगी तब उसकी प्रतिल्रिया कैसी होगी? एक के बाद दूसरे कई प्रश्न उनके सामने मुंह बाये खडे होने लगे लेकिन उनके पास किसी एक का भी जवाब नहीं था। पैर कांपने लगे तो फिर बैठ गये। बैठा भी तो नहीं जा रहा है । बैठे-बैठे करवट बदल रहें हैं। चपरासी खाली गिलास भर कर वापस जा चुका था।अभी कुछ देर पहले ही उन्होंने पानी पिया था लेकिन पता नहीं क्यों प्यास कुछ ज़्यादा लग रही थी। गला बार-बार सूखता जा रहा है। गिलास एक बार फिर से उनके हाथ में था। छत पर पंखा फुल स्पीड में चल रहा था । ए•सी• भी ठीक काम कर रहा है । फिर इतना पसीना क्यों? एक बार फिर से सुनीता की याद आयी । उन सारी लडकियों की फोटो का क्या...? थोडी देर अगर और वे ऐसे ही बैठे रहे तो...! उन्हें लगा कि उनके दिमाग की सारी नसें एक-एक करके तडतडा कर फट जायेंगी। पूरी ताकत लगा कर वे उठे और मिस्टर सिंह के चैम्बर की तरफ चल दिये ... मिस्टर सिंह लंच के बाद द्स-पन्द्रह मिनट के लिये अपने आफिस में ही सोफे पर लेट कर आराम कर लेतें हैं । यह उनकी पुरानी आदत है। मित्रा साहब को उन्हें जगाने में संकोच हुआ। एक बार उनके मन में आया कि लौट जाय । वापस लौटने के लिये मुडे भी किंतु इसी बीच शायद कुछ आहट हुयी और सिंह साहब की आँख खुल गयी। आंखे खुलते ही उन्हें मित्रा साहब दिखायी दिये तो वे चौंके.

" अरे, मित्रा साहब ।आप? "उठकर बैठ गये सिंह साहब । उनकी आंखें सुर्ख हो थीं। शायद नींद अभी कच्ची थी।

" सॉरी सर। आपको डिस्टर्ब किया ..."कहते समय उनकी ज़ुबान लडखडाई.

" आप भी मित्रा साहब, कैसी बात कर रहें हैं? मैं तो उठने ही वाला था। बैठिये न खडे क्यों है? मैं अभी मुंह धो कर आया।"

उचटती-सी निगाह अपनी घडी पर डालते हुये बाथरूम की तरफ चल दिये। मित्रा साहब बैठ तो गये लेकिन उनके नसीब में अब इत्मीनान कहाँ! वापस आने में सिंह साहब को चार मिनट से ज़्यादा तो शायद ही लगे होंगे किंतु इतना समय भी मित्रा साहब के लिये न जाने कितने युगों के बराबर का हो गया था। कितनी बार उठकर खडे हुये मालूम नहीं, खडे होते और फिर बैठ जाते । न तो बैठ पा रहे थे और न ही खडे रहने की सामर्थ्य बची थी उनके पास । सारी ताकत जैसे बेटे के साथ ही समाप्त हो गयी थी। बेटे की मौत की खबर ने उन्हें बदहवास कर दिया था। मन मानने के लिये तैयार नहीं था किंतु सच यही था। बाथरूम का दरवाजा खुला। मित्रा साहब उठ कर खडे हो गये । अपने कुर्सी पर बैठते हुये सिंह साहब ने कहा,

" हाँ तो मित्रा साहब, सब कुछ ठीक तो है न? "

मित्रा साहब कुछ कह नहीं पाये। ऐसा लगा जैसे उन्होंने कुछ नहीं सुना। । मित्रा साहब और सिंह साहब दोनो आमने सामने थे। मित्रा साहब की आंखें नीचे झुकीं हुयीं थीं। सामने बैठे सिंह साहब की तरफ उनसे देखा नहीं जा रहा था । बदहवासी उनके हर हाव भाव से झलक रही थी । उनकी दशा सिंह साहब से छिपी नहीं थी किंतु इसके पीछे का कारण क्या है? यह समझने में वे अपने आप को असमर्थ पा रहे थे। कुछ देर तक वे उन्हें देखते रहे और इंतजार करते रहे कि शायद मित्रा साहब खुद ही कुछ कहें। किंतु कहां...!

" क्या बात है मित्रा साहब? "आज आपकी तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही है ।"

"नहीं सर, मुझे क्या होगा? मैं एकदम ठीक हूँ । लेकिन..." आगे के शब्दों ने उनका साथ छोड दिया । उन्हें बीच में ही रुकना पडा।

"हाँ...हाँ बताइये क्या बात है?" पूछ तो लिया सिंह साहब ने किंतु वे मित्रा साहब के व्यवहार से अचम्भित थे

"आज के पहले मेरे सामने कभी ऐसा व्यवहार तो इन्होंने नहीं किया था... हुआ क्या है इन्हें?" मन ही मन वे सोच रहे थे ।

कुछ अजीब तरह से पेश आ रहें हैं । उनकी निगाहें मित्रा साहब पर चिपक गयीं। चिंता भी होने लगी। उनकी ।

"आखिर बात हो क्या सकती है?" सर, उन्होंने कहा...था कि माई सन हैज डन सुप्रीम सैक्रीफाइस फॉर हिज मदरलैंड..."जल्दी से उन्होंने अपना वाक्य पूरा किया किंतु इस एक वाक्य को कहने में मित्रा साहब को अपने अन्दर की तमाम उर्जा लगा देनी पडी थी और वाक्य पूरा होते-होते वे अपनी कुर्सी पर लुढक से गये। ऐसा लग रहा था जैसे उनके कन्धों पर मनों बोझ लदा हो और वे उसके बोझ के चलते झुकते जा रहें हों। अभी कुछ देर पहले तक वे बदहवासी के गिरफ्त में होने के बावजूद अपने आप को संभाले हुये थे किंतु अब जब कि सिंह साहब सब कुछ जान गये थे तब उन्हें अपने आप को संभालना असंभव हो गया। अपना सिर मेज पर टिकाकर वे बेकाबू हो गये । उनके आंसू जिनकी अभी तक परछाईं भी नहीं दिखी थी, अब अचानक जैसे बान्ध तोडकर बहने लगे। मिस्टर सिंह के सामने, अब तक के अपने तमाम अच्छे बुरे दिनों में, ऐसी स्थिति कभी नहीं आयी थी। कुछ भी कहने सुनने के हालात थे ही नहीं और न ही वे कुछ कह पाये, बस धीरे-धीरे वे अपनी कुर्सी पर से उठे और जाकर मित्रा साहब के पास खडे हो गये। उनके कन्धों पर अपना हाथ रखकर धीरे से दबाया और रोने दिया उन्हें ।रोना इस समय उनके लिये बहुत ज़रूरी था । एक बार जी भर के रो लेने से कुछ तो मन हल्का होगा ही—सिंह साहब उनके पास खडे रहे । मित्रा साहब को संभलने में थोडा वक्त लगा । सिंह साहब ने पानी का गिलास उनकी तरफ बढ़ाया और स्वयं शब्दों की तलाश में जुट गये ।

" संभालिये आपने आपको, मित्रा साहब । ऐसे कैसे चलेगा? अब सब कुछ आपको ही देखना है । हिम्मत रखनी होगी आपको । अपनी पत्नी के बारे में सोचिये ज़रा । उन्हें भी आप ही को संभालना है ।ऐसा करिये, अब आप घर जाइये ।"

शब्द कोश चुक गया सिंह साहब का । ठीक से अफसोस भी नहीं कर पाये ।इतने में ही उनकी आवाज लटपटाने लगी थी। बेजान से मित्रा साहब अपने झुके कन्धों के साथ उठे और भारी कदमों से चलते हुये दरवाजे से बाहर निकल गये। दरवाजा धीरे-धीरे अपने आप बन्द हो गया। अब उन्हें क्या करना चाहिये, इसके बारे में उन्होंने सोचा। आफिस में कितना काम बचा है, उन्हें याद नहीं ।

गाडी सडक पर बेतहाशा भाग रही थी और मित्रा साहब उसमें बैठे हुये थे। दोनों तरफ लडाई चल रही थी लगातार, कारगिल में भी और उनके मन में भी । आज कारगिल में दुश्मनों के साथ जूझता हुआ उनका बेटा मारा गया था लेकिन यहाँ उन्हें अपने आप से ही जूझना है। जूझते जाना है अब बाकी पूरी ज़िन्दगी ।तब भी शायद मौत उनके हिस्से में नहीं । इतने भाग्यशाली वे कहाँ! एस•एस•बी• में सफल होने के बाद घर लौटे बेटे का उजला-उजला चेहरा बार-बार सामने आकर खडा हो जा रहा है । आज वह इस दुनियाँ में नहीं है-जानते हुये भी वे उस पर विश्वास नहीं करना चाहते । गाडी की रफ्तार धीमी होने लगी और धीमे होते-होते गाडी खडी हो गयी। उन्हें झटका लगा। जैसे नींद से जागें हों । सामने देखा, घर दिखायी नहीं दिया। ड्राइवर ने नीचे उतर कर गेट खोल दिया । नीचे उतरने का उनका जी नहीं कर रहा था । अभी तक तो वे ये भी तय नहीं कर पाये थे कि सुनीता को कैसे और क्या बतायेंगे? और उनकी गाडी घर के सामने पहुँच कर खडी भी हो गयी थी। सुनीता को उन्हें कुछ भी नहीं बताना पडा। तेज आग की लपटों की तरह उनके जवान बेटे की मौत की खबर पूरे दफ्तर में फिर सबके घरों तक पहुँचते हुये अंत में उनले घर भी पहुँच चुकी थी। उनके घर पहुँचने के पहले ही सुनीता को खबर मिल चुकी थी। तमाम लोग उनके घर भी पहुँच चुके थे और न जाने कितने लोग आते ही जा रहे थे । बाहर सडक पर भीड लगी थी। वे गाडी से नीचे उतरे । उनसे किसी ने कुछ कहा नही, चारों तरफ भयानक खामोशी थी। चुपचाप लोगों ने एक तरफ हटकर उन्हे घर के अन्दर जाने दिया। संवेदना जताने आये हुये लोगों के बीच में जाकर एक तरफ वे भी बैठ गये। एक बार उनका मन किया ज़रूर कि वे सुनीता के पस जायं किंतु उसके चारों तरफ इतनी भीड थी कि वे अपनी इच्छा को मन में लिये वहीं बैठे रह गये । जोग आते जा रहे थे । हर आने वाला दबे पैरों कमरे में प्रवेश करता, इधर-उधर देखता और फिर उनके पास आकर खडा होजाता । उनके कन्धे पर हाथ रखकर एक शब्द भी बोले बिना उन्हें ढाढस देने का असफल प्रयास करता और फिर जहां जगह मिलती वहाँ समा जाता। याद नहीं पडता लेकिन इन्हीं लोगों में से कुछ देर बाद किसी ने पूछा-" मि। मित्रा टेल मी एक्जेक्टली-वाट-हैपेन्दड? "

उस समय उनके आस-पास बैठे सभी लोग चौंक गये थे । बडी मुश्किल से अपने पर काबू रखते हुये उन्होंने ब्रिगेडियर के कहे वाक्य को जस का तस दुहरा दिया था । उस एक वाक्य को दुहराने में उन्हें कितनी बार मरना पडा था इसका शायद पूछने वाले को आभास तक नहीं हुआ था। सुनीता को बताया जा चुका था कि उसका बेटा अब इस दुनियां में नहीं है ।लेकिन वह नहीं मानती लोगों की इस बात को । नाराज है सुनीता कि आखिर ऐसी अपशकुनी बात लोगों के मुहं से निकली कैसे? उसे भरोसा है अपने बेटे पर, वह लौट कर ज़रूर आयेगा । हो सकता है कि आज ही लौट आये । उसका बेटा मटन का बहुत शौकीन है । इसलिये आज रात खाने में उसने मटन बनवाया है । उसे गोली लगी होगी यह तो वह मानती है और शायद इसीलिये वह आज वापस लौट रहा है । उसे किसी तरह की तकलीफ न हो इसका इंतजाम करने में वह व्यस्त है। उसका कमरा ठीक करवा रही है । घायल है इसलिये उसका बिस्तर आरामदेह होना चाहिए तथा ज़रूरत का हर सामान उसके कमरे में ही होना चाहिए, इसका भी खासा खयाल रखा है उसने । उसकी ऐसी हालत देखकर सब सकते में हैं ।लोग उसके पास चुपचाप बैठें हैं । किसी के पास कुछ भी कहने सुनने को नहीं है। विक्षिप्त-सी सुनीता बीच-बीच में भाग कर अपने देवी माँ के चरणों में मत्था टेक आती है और दूसरों से भी वैसा ही करने को कह रही है । उसके बेटे की रक्षा देवी माँ ज़रूर करेगी, ऐसा उसे विश्वास है। उनकी बडी महानता है। बडी आस है उनसे । वे चाहें तो क्या नहीं कर सकतीं!

मित्रा साहब सब सुन रहें हैं। हूक-सी उठ रही है कलेजे में। बेचैनी बढती जा रही है । बैठा नहीं गया उअंसे, उठ कर खडे हो गये । चहलकदमी करते हुये खिडकी के पास जाकर खडे हो गये । बेमकसद देर तक खिडकी से बाहर देखते रहे । तभी उन्हें उन दोनो तस्वीरों का खयाल आया जिनको लेकर उन दोनो के बीच मनमुटाव हो गया था, अपनी-अपनी पसन्द की तस्वीर दोनो ने संभाल कर रखी थी-अब उन तस्वीरों का क्या करेंगे? किसे दिखायेंगे? चक्कर आने लगा उन्हें । वहीं दीवान पर बैठ गये । आंखें बन्द थीं उनकी । सुनीता की आवाज बीच-बीच में सुनाई दे रही थी । उनके सीने पर पडा बोझ बढता जा रहा था। दिमाग गडबडा गया था उनका। आगे क्या करना है क्या नहीं, वे निर्णय नहीं कर पा रहे थे । अनजाने में उनके मुहं से निकला-" सब खत्म हो गया।"मन किया सुनीता के पास जाकर कुछ देर बैठें । शायद तब सीने पर का बोख कुछ कम हो । यही सोचते-सोचते वे कब खडे हुये और कब उस कमरे के दरवाजे के सामने पहुँचे जिसमें सुनीता थी उन्हें खबर ही नहीं। लगी । कमरा ठसाठस भरा था। जिसे देखना चाहते थे वह तो दिखी ही नहीं। बाथरूम में थी ।सुनीता, लालच वश वे कुछ देर तक वहीं खडे रहे लेकिन उसे बाहर आने में देर हो रही थी । वहाँ बहुत लोग मौजूद थे और उन सभी की निगाहें उन्हीं की ओर थीं । उनकी निगाहों का सामना करना आसान नहीं था उनके लिये । वहाँ ज़्यादा देर ठहरना मुश्किला होने लगा ।

भारी कदमों से वे वापस लौट गये। बैठक में घुसते समय उन्होंने सुना," मेजर रणधीर मित्रा की डेड बॉडी कब पहुँच रही है? उसे लेने भी तो जाना होगा।"पहले तो वे समझ ही नहीं पाये कि किसके विषय में बात हो रही है, किंतु थोडी देर में ही उन्हें याद आ गया कि उनके बेटे का ही नाम रणधीर था। अभी कुछ दिनों पहले तक वह कैप्टन था। कारगिल जाते समय ही उसे लोकल रैंक देकर बतौर मेजर पोस्ट किया गया था। इसका मतलब उन्हीं के बेटे के बारे में दरियाफ्त किया जा रहा था घबराहट बढने लगी उनकी और अब यहाँ भी खडा होना मुश्किल लगा ।, वे उल्टे पैर वापस हो लिये। रास्ते में याद आया कि आज सुबह से ही वे दोनो अपने राजू बेटे की चिट्ठी का इंतजार कर रहे थी । उन्हें क्या मालूम था कि चिट्ठी नहीं वह स्वयं आने वाला है, वह भी इस रूप में! चलते-चलते वे एक बार फिर से अपने पत्नी के कमरे के सामने पहुँच गये और वहीं ठहर गये । वे वहाँ से आगे एक कदम भी नहीं बढ़ा पा रहे थे, उनके पैर जैसे वहीं चिपक गये थे ।

सामने पलंग पर सुनीता थी । बेटे के आराम का पूरा इंतजाम करने के बाद थक चुकी सुनीता मिसेस नारंग के कन्धे का सहारा लेकेर बैठी थी। पूरी तरह से अस्त-व्यस्त, बेतरतीब, सूनी-सूनी आँखों से बाहरी दरवाजे पर अपनी आंखे टिकाये वह अपने राजू बेटे का बेसब्री से इंतजार कर रही थी ।दोनो की निगाहें मिलीं । उसकी आंखों के सूनेपन से मित्रा साहब सहम गये। उन्हें महसूस हुआ, जैसे सुनीता उनसे बहुत कुछ कहना चाहती हो। वे भी तो यही चाहते थे। कितनी देर से वे हिम्मत जुटा रहे थे ।आगे बढकर उसके पास पहुँचना चाहते थे लेकिन उनके बीच की दूरी जाने कितनी बढ गयी थी जो इतनी कोशिशों के बावजूद कम नहीं हो पा रही थी । उसके नजदीक पहुँचने में उन्हें इतना वक्त क्यों लग रहा था? अपने पैरों को घसीटने की कोशिश की उन्होंने किंतु एक इंच भी आगे नहीं बढ पाये । क्या करें वे? थोडी देर तक सुनीता उन्हें बडी उम्मीद के साथ देखती रही। शायद इंतजार कर रही थी उनके आगे बढ कर उसके नजदीक पहुँचने का ...किंतु वैसा नहीं हुआ और फिर...उसके चेहरे का आकार जाने कैसा हो गया ।और फिर एक चीत्कार के साथ वह फूट-फूट कर रोने लगी । रही सही हिम्मत भी मित्रा साहब गँवा बैठे । एक मिनट भी और वे वहाँ नहीं रुक पाये । इतने सारे लोगों के सामने उसके पास तक पहुँचने की ताकत नहीं थी उनके पास। दरवाजे से पीछे हट गये । बडी शिद्दत से एक इच्छा उनके अन्दर सिर उठा रही थी । वे चाहते थे कि वहाँ जितने लोग मौजूद हैं वे सभी उन दोनो को अकेला छोडकर चलें जायं। उन्हें किसी की सांत्वना नहीं चाहिए । बहुत हो गया यह सब । वे कैसे धर्य रख सकतें हैं? कहना कितना आसान है! किंतु... सुनीता भी तो यही चाहती है ... उसकी सूनी-सूनी आंखों ने उनसे यही तो कहना चाहा था। उन्हें उसकी बात समझ आ गयी थी तब वहाँ मौजूद बाकी लोगों को उसकी बात क्यों नहीं समझ आ रही है? आखिर कब तक ये लोग ऐसे ही भीड लगाये रहेंगे?

बेटे के चले जाने का दुख अब वे सिर्फ़ अपनी पत्नी सुनीता के साथ मनाना चाहतें थे । सिर झुका कर मित्रा साहब एक तरफ बैठ गये और बडी आजिजी से सबके जाने का इंतजार करने लगे । दो तीन दिन बीत गये। सुनीता का बेटा वापस आ गया और उसको इक्कीस तोपों की सलामी के साथ आखिरी विदा भी दे दी गयी । लेकिन सुनीता अभी तक उस चोट से उबर नहीं पा रही है। रह-रह कर उसकी आखें नम हो जातीं हैं । आंखों का सूनापन अब और बढ गया है । टी•वी• पर न्यूज आ रही है । अभी भी युद्ध जैसे हालात हैं। सुनीता टी•वी• के सामने बैठी है । तभी उसने देखा-दो तीन दिन पहले उसके बेटे को अंतिम सलामी देने वाला दृश्य दिखाया जा रहा था। किसी न्यूज रिपोर्टर की आवाज भी सुनायी दे रही थी ।" शहीद रणधीर मित्रा की माँ की आंखें नम ज़रूर हैं लेकिन वे कहतीं हैं कि उन्हें अपने बेटे की शहादत पर गर्व है जिसने देश की सीमाओं की रक्षा करते हुये अपने जान की भी परवाह नहीं की...! " न्यूज रिपोर्टर ने और भी न जाने क्या-क्या कहा होगा किंतु सुनीता को आगे कुछ भी सुनायी नहीं दिया। वह सोच रही थी कि उसने ये सारी बातें कब कहीं थीं? उसे कुछ याद नहीं था। उस समय तो शहीद शब्द का ध्यान उसे एक बार भी नहीं आया था। फिर इस तरह की बातें किसने कहीं? गर्व की अनुभूति का तो पता नहीं हां कलेजा ज़रूर उसका अभी भी लगता है जैसे फट पडेगा। जब-तब एक ही बात दिमाग में हलचल मचाये रह्ती है कि अब वह लाख कोशिशों के बावजूद भी अपने बेटे से कभी भी मिल नहीं पायेगी। शहीद बेटे की माँ कहलवाने की उसकी इच्छा कब थी! उसकी बस एक ही चाहत थी कि उसका बेटा लडाई के मैदान से विजयी होकर वापस लौटे।