शांतिपूर्ण क्रांति? / अब क्या हो? / सहजानन्द सरस्वती

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कहा जाता है कि भारत में शांतिपूर्ण राजनीतिक क्रांति हो गई (अब उसी प्रकार की सामाजिक क्रांति के लिए कांग्रेस का कायम रहना जरूरी है। परंतु इसी को यदि क्रांति कहें, तो सुधार किसे कहेंगे? जिसमें बातचीत और सुलह-समझौते से काम लिया जाए उसे सुधार कहते हैं, न कि क्रांति। हम इसे शांतिपूर्ण क्रांति तो तब कहते, जब अंग्रेज लोग यकायक इस मुल्क को छोड़के भाग जाते और हमारे नेता आ कर उनकी जगह बैठते तथा काम संभालते। सौदा करने की जब हिम्मत भी अंग्रेजों को न होती और जान ले कर भाग जाते, तो क्रांति की बात कही जा सकती थी। अंग्रेजों का होश-हवाश दुरुस्त न रहता और चुपचाप भाग जाने के अलावे उनके पास रास्ता रही न जाता, तो कहने का मौका आता कि शांतिपूर्ण क्रांति हो गई। मगर यहाँ तो उलटी बात है। वे मौजूद हैं और दो बिल्लियों के बीच बंदर-बाँट करे रहे हैं! फिर भी यह क्रांति है? तब सुधार क्या होगा? याकि दोनों एक ही हैं? यों तो हरेक के पास दिमाग है, हाथ है और कागज, कलम, दवात भी हैं। फिर जो चाहे कह दे, लिख दे और दो-दो को मिला कर पाँच कह दे। उसे कौन रोके? क्रांति तो एक को हटा या मिटा कर सुनसान Vacuum छोड़ जाती है, जिसमें दूसरे आ कर बैठते हैं। उसमें हटने-मिटनेवाले अपने विरोधियों को हाथ पकड़कर बैठाते नहीं। क्रांति के भय से ही तो लड़ने का रास्ता छोड़ा गया। फिर भी उसी का नाम!

उसी क्रांति से बचने के लिए किसान-मजदूर राज्य या साम्यवाद के नाम से भी इन लीडरों को बुखार चढ़ जाता था और बहाने करते थे कि मुल्क में वर्ग-विद्वेष पैदा हो जाएगा। तो क्या अब वह विद्वेष न पैदा होगा? और, क्या सचमुच भारत के जमींदार-मालदार इतने भोले-भाले और भले हैं कि उन्हें अपने वर्ग-स्वार्थ का ज्ञान अब तक था ही नहीं? गाँधी टोपी, गाढ़ी खादी को पहन कर और जेल के भीतर कांग्रेस के नाम पर रह कर भी इन जमींदार-मालदारों ने किसानों और मजदूरों के खून पीने में जरा भी हिचक कभी नहीं दिखाई है। उन्हीं के वोट से असेंबलियों में जा कर भी उनका गला कुंद छुरी से पहले भी काटा है, आज भी काट रहे हैं। अपना वर्ग-स्वार्थ वे बखूबी समझते और तदनुसार ही मुस्तैदी से अमल करते हैं। यह उनका सनातन धर्म है। फिर भी किसानों को जानबूझ कर उसी वर्ग-स्वार्थ की जानकारी जिन लीडरों ने आज तक न होने दी, वही जब शांतिपूर्ण क्रांति एवं सत्ता सौंपने की बात बोलते हैं, तो खून में आग लग जाती है। यदि हमारे लीडर शुरू से ही श्रमजीवी किसानों और मजदूरों को वर्ग-स्वार्थ की जानकारी कराते रहते, तो सचमुच ही आज क्रांति हो गई होती, फिर चाहे वह शांतिपूर्ण ही क्यों न होती, और अंग्रेजों के दुम दबा कर भाग जाने पर उनकी जगह जमींदार-मालदारों की हिम्मत ही न होती कि बैठें। उनके बिठाने के लिए ही तो यह सारा पँवारा रचा गया। तब क्रांति की क्या बात? क्रांति तो सामुद्रिक तूफान की लहर है जो अपने सामने किसी भी मंदिर, मस्जिद, महल, मकान, जंगल, पहाड़ को नहीं छोड़ती और सबों को धो बहाती है। सभी भले-बुरे को, जो सीना ताने खड़ा हो, मिटा देती है।