शापग्रस्त / अखिलेश

Gadya Kosh से
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सरोज वर्मा उद्विग्न थी कि पतिजी को क्या होता जा रहा है। कुछ दिनों से हँसी-खुशी उड़न-छू हो चली है। कितना हँसते-हँसाते थे। उस पर भी न हँसती तो गुदगुदी लगाने लगते थे। उजली तो उनके जीवन की चाभी थी। सुबह स्कूल के लिए वह ही उसको तैयार करते। चहकते हुए स्कूटर से उसे छोड़ने जाते। शाम ऑफिस से लौटते तो बस, लाद लेते बेटी को। फिर तो रात उन्हीं के पेट पर लेटे हुए वह सोती।

घर में जैसे खुशियों की अनेकानेक गौरैयाँ फुदकती-चहकती हों। देर से ऑफिस जाकर जल्दी घर लौट आते पतिजी. वह झूठ-मूठ में नाराज हो जाती तो मनाने लगते। शादी के सात साल हो गए पर बात-बात में हुस्न की खूबसूरती में शेर-ओ-शायरी करते रहते। इतना प्यार... इतना प्यार... कि शौचालय में उसे देर हो जाए तो सरोज... सरोज... कहते हुए दरवाजा भड़भड़ाने लगते, "सरोज, तुम ठीक तो हो न।"

वह कहती, फलाँ फ़िल्म का कैसेट लाओ-ला देते। कहती, साड़ी लाओ-ला देते। कहती, चाट खिलाओ-खिला देते। कहती, खाना बनाओ-बनाने लगते। कहती, बच्ची बहलाओ-बहलाने लगते।

पर, पिछले कुछ दिनों से इस शख्स को हो क्या गया। ऑफिस से छुट्टी मारकर बैठा है गुमसुम। आँख उठाकर देख तक नहीं रहा है। न उसकी तरफ-न बच्ची की तरफ। अजीबोगरीब हरकतें कर रहा है। बचपन की तसवीरों को घंटों देखता रहेगा। यौवन की तसवीरें देखकर आईने के सम्मुख खड़ा हो जाएगा और देर तक बिसूरता रहने के बाद अचानक चारपाई पर अनिश्चित समय के लिए तकिए से मुँह ढँककर लेट जाएगा। एक दिन न जाने क्या हुआ, उठा और अपनी नेमप्लेट उखाड़ डाली। इसी तरह एक दिन अपनी कविताएँ जोर-जोर से पढ़ने लगा। पढ़ना क्या, चिल्लाने लगा।

सरोज वर्मा उस घड़ी को कोसती है, जब उसने कह दिया था, "ए जी, आपकी तोंद बहुत ज़्यादा निकल आई है, इसे भीतर करिए ना।"

कर्तव्यपरायण पति प्रमोद वर्मा ने अगली सुबह दंडबैठक लगानी शुरू कर दी है। इस पर वह शेखी में मुँह फुला बैठी, "ये सब नहीं चलेगा जी. सफेद निकर और ऐक्शन शू पहनकर जागिंग करिए. फिर शीशे के सामने खड़े होकर तौलिया से पसीना पोंछें।"

प्रमोद वर्मा ने वैसा ही किया। आदमकद आईने के सामने सफेद निकर, बनियान और ऐक्शन बूट में वह छोटी-सी तौलिया से देह पोंछ रहा था। उसने सोचा कि हो सकता है कि तोंद कुछ पिचकी हो। आकलन के लिए उसने पेट पर हाथ फेरा। वह यथारूप था। तभी उसने अपने को कायदे से देखना शुरू किया। सब कुछ बदल गया था। अभी पैंतीस का था, पर कितना खुरदुरा और प्रौढ़ लग रहा था। वह अखबार में मुँह छिपाकर पास की कुर्सी पर बैठ गया। स्वयं से बोला, 'मेरा शरीर, मेरी आत्मा, दोनों बरबाद हो चुके हैं। मैं पैंतीस का हूँ लेकिन दोनों ही बूढ़े हो चुके हैं। न मेरी आत्मा निष्पाप हो सकती है, न मेरी तोंद पिचक सकती है। भौतिक और आध्यात्मिक दोनों के ही विकास की संभावनाएँ मेरे तईं धूमिल हो चुकी हैं।'

यही क्षण था जब उसमें परिवर्तन प्रकट होने लगा था। वह लंबी छुट्टी लेकर घर बैठ गया और उदास और बेचैन दिखने लगा। समय-समय पर वह लंबी साँस लेता अथवा लंबी निःश्वास छोड़ता।

पर जब अपनी पुरानी कविता का जोर-जोर से पाठ करते हुए चिल्लाने लगा, तो सरोज वर्मा सिहर गई और उसके सामने गिड़गिड़ा उठी, "प्लीज, आपको ये क्या हो गया है?"

"मुझे सत्य का पता चल गया है। बल्कि सत्य है कि मुझे असत्य का पता चल गया है।"

"क्या है असत्य?"

"वह सब कुछ असत्य था, जो अब तक हमारे बीच था।"

"मतलब कि हमारे बीच जो प्रेम था, जो सुख था, वह असत्य था..."

"हमारे बीच न प्रेम था, न सुख, यहाँ तक कि उजली के प्रति भी हमें प्यार न था। दरअसल हम जब तक जागते थे, प्रेम, सुख, वात्सल्य के देखे-सुने का रिहर्सल मात्र करते थे। हम प्यार नहीं, प्यार का प्रदर्शन करते थे।"

"कैसी बात कर रहे हैं।"

"सच कह रहा हूँ। सत्य तो ये है कि तुम्हारे बन-बनकर बोलने, कृत्रिम हँसी, नकली रूठने और हर पल इतराते रहने से मुझे घृणा होती थी। मगर दरअसल हम घर में रहकर भी सड़क पर होते थे, जहाँ लोग तमीज, मुहब्बत वगैरह का स्वाँग रचाते हैं।"

"तो क्या आपका वह गुदगुदी लगाना, वह टट्टीघर का दरवाजा भड़भड़ाना, वह किचन के काम में हाथ बँटाना झूठ था। ?"

"बिल्कुल झूठ था।"

"और वह शेर-ओ-शायरी सुनाना भी झूठ था?"

"बिल्कुल झूठ।"

"आप चाहते क्या हैं?"

"मैं सुखी होना चाहता हूँ। मुझे सुख की खोज है। मैं उसे पाना चाहता हूँ।"

"तुम पागल हो गए हो। भरी जवानी में तुम्हें साधू बनने की शैतानी सूझ गई है। हे भगवान्! ये इसी तरह अगर पगलाते रहे तो मेरा और मेरी बच्ची का क्या होगा?"

उजली दौड़ती हुई आई, "पाप्पा...पाप्पा... मुझे कॉमिक्स खरीद दो न।"

उजली ने हाथों को टामीगन की मुद्रा में बनाया। पापा कॉमिक्स नहीं देता... ठाँय...ठाँय... पापा मर गया... ठाँय...

प्रमोद वर्मा गोया सचमुच मर गया। वह चारपाई पर गिर पड़ा और चद्दर से मुँह ढँककर पड़ गया।

उसकी इधर की यह चिरपरिचित मुद्रा थी। इस मुद्रा में जैसे ही आता, द्वंद्व का एक शोकगीत शुरू हो जाता। इधर अनगिनत बार यह शोकगीत उसने गाया फिर भी वह जैसे ही मुँह ढँककर लेटने की मुद्रा में आता, शोकगीत शुरू हो जाता:

'मैं आदर्श भारतीय नागरिक की तरह बाईं पटरी पर चला और सच्चे भारतीय पुरुष की तरह अहर्निश गृहस्थी का खड़खड़ा खींचा। पत्नी द्वारा रोज-रोज फजीहत के बावजूद मैं बेशर्म के पौधे की तरह हरा-भरा खिला-खिला रहा। वी.सी.आर. खरीदा, स्कूटर खरीदा, सोफा-फ्रि़ज, सब कुछ है मेरे पास। एक स्थानीय किंतु प्रतिभाषाली चित्रकार के चित्र भी टँगे हैं ड्राइंगरूम में। अपना मकान न सही किंतु प्लॉट खरीद रखा है। पैंतीस वर्ष की अवस्था में कोई मध्यवर्गीय नवयुवक इससे अधिक क्या कर सकता है। बच्ची को बढ़िया स्कूल में पढ़ाता हूँ। कोई भरोसा न करे तो मेरे घर का फ्रिज खोलकर देख ले, खाने-पीने के सामान से ठसाठस रहता है। ढाई किलो तो दूध खरीदा जाता है। मेरे पेट की गड़बड़ी को छोड़ दिया जाए तो सब कुछ चुस्त-दुरुस्त है। पर हकीकत नहीं है यह। मैं एक रोग का रोगी हो गया हूँ पिछले कुछ दिनों से। अजीबोगरीब रोग हैं, मुझे कहीं भी किसी भी चीज में सुख नहीं मिलता।'

एक दिन यही सब सोचते-सोचते उसे थरथरी होने लगी।

सरोज वर्मा ने पूछा, "काँप क्यों रहे हैं?"

उसने टालने की गरज से कहा, "कँपकँपी आ रही है, इसलिए काँप रहा हूँ।"

"कँपकँपी आ रही है तो कोई दवा ले लें।"

'मेरी कँपकँपी की क्या दवा हो सकती है?' उसने सोचा और नतीजे पर पहुँचा कि नौकरी छोड़ देना उसकी कँपकँपी की दवा है, एंटीबायटिक है। वह नौकरी छोड़ देगा और कविताएँ लिखेगा। बैंक में तीन लाख रुपया जमा हैं, उनके सूद से घर चल जाएगा।

"कोई दवा मँगवाऊँ?"

"नहीं, उस दवा से मेरी कँपकँपी नहीं ठीक होगी। मेरी कँपकँपी ठीक होगी मेरे नौकरी छोड़ देने से। हाँ, मैं नौकरी छोड़ दूँगा।"

"आप पागल तो नहीं हो गए हैं। हे भगवान्! इन्हें कुछ दिनों से क्या होता जा रहा है।" वह गहरी नींद में सो रही उजली को उठा लाई. उसे झिंझोड़ते हुए पति से बोली, "इसका तो कुछ खयाल करिए. कैसे चलेगा घर का खर्चा?"

"बैंक में तीन लाख के ऊपर जमा हैं, उनके ब्याज से चलाएँगे हम खर्चा। वैसे भी जूनियर इंजीनियर का वेतन ब्याज की इस राशि से ज़्यादा नहीं होता है। अब तुम यह कह सकती हो कि हर साल इन्क्रीमेंट लगता है, बोनस मिलता है, उसका क्या होगा। इस पर मेरा जवाब है कि नौकरी छोड़ने के बाद भी मैं इधर-उधर से इतना ज़रूर कमा लूँगा जो बोनस और इन्क्रीमेंट की क्षतिपूर्ति करेगा।"

"नौकरी क्यों छोड़ रहे हैं, छोड़कर करेंगे क्या?" वह बदहवास थी।

"नौकरी मैं आत्मिक शांति के लिए छोड़ना चाहता हूँ। नौकरी छोड़ने के बाद कविताएँ लिखूँगा। साथ ही कुछ उच्चकोटि के निबंध लिखने का भी मेरा इरादा है।"

"चूल्हे-भाड़ में जाए आपका इरादा।" वह सिसकने लगी। अचानक फुर्ती से उठी और उसका हाथ खींचकर उजली के सिर पर रख दिया, "उजली के सिर की कसम जो नौकरी छोड़िए."

"कसम दिलाने से घटनाएँ घटित होना नहीं बंद कर देतीं। फर्ज करो तुम भारत के प्रधानमंत्री या अमेरिका के राष्ट्रपति से कहो कि आपको आपके बच्चे की कसम जो इस पद पर रहें, तो क्या नतीजा निकलेगा। कसम दिलाने से वायु का चलना नहीं रुकेगा, नदी का बहना नहीं रुकेगा, अग्नि का जलना नहीं रुके..."

"और आपका नौकरी छोड़ना नहीं रुकेगा... अरे तीन लाख के ब्याज से खाते रहेंगे तो बड़ी होने पर उजली का ब्याह कैसे करेंगे? पाँच लाख तो आज ही डॉक्टर, इंजीनियर का रेट है।"

"उजली का विवाह दहेज देकर न होगा। वह प्रेम विवाह करेगी। यदि प्रेम नहीं करेगी, प्रेम करने से डरेगी तो उसको प्रेम और प्रेम विवाह के लिए मैं प्रोत्साहित करूँगा।"

"आग लगे आपकी बुद्धि को। ऐ सर्वशक्तिमान! हमारी रक्षा करो।" वह उजली को लेकर सोने चली गई.

रात के 2-15 थे और सरोज वर्मा बेटी के साथ सो रही थी। प्रमोद वर्मा ने उसे जगाया, "मैं टेपरिकार्ड बजा दूँ?"

"यही पूछने के लिए जगाया है?"

"वो बात नहीं है।" वह बहुत खुश दिख रहा था। उसने कव्वाली का एक कैसेट बजा दिया और बोला, "अब नौकरी नहीं छोड़ना चाहता। दरअसल मैं सस्पैंड होना चाहता हूँ, इसके बड़े फायदे हैं।"

उसने फायदे बताए, "सस्पैंड होने पर दो-तिहाई वेतन मिलेगा। फिर लिख-पढ़कर वेतन के एक-तिहाई से ज़्यादा कमा ही लूँगा। दस से पाँच के चक्कर से छुट्टी मिल ही जाएगी।"

सरोज वर्मा उद्विग्न थी कि पतिजी को क्या होता जा रहा है। कुछ दिनों से हँसी-खुशी उड़न-छू हो चली है। कितना हँसते-हँसाते थे। उस पर भी न हँसती तो गुदगुदी लगाने लगते थे। उजली तो उनके जीवन की चाभी थी। सुबह स्कूल के लिए वह ही उसको तैयार करते। चहकते हुए स्कूटर से उसे छोड़ने जाते। शाम ऑफिस से लौटते तो बस, लाद लेते बेटी को। फिर तो रात उन्हीं के पेट पर लेटे हुए वह सोती।

घर में जैसे खुशियों की अनेकानेक गौरैयाँ फुदकती-चहकती हों। देर से ऑफिस जाकर जल्दी घर लौट आते पतिजी. वह झूठ-मूठ में नाराज हो जाती तो मनाने लगते। शादी के सात साल हो गए पर बात-बात में हुस्न की खूबसूरती में शेर-ओ-शायरी करते रहते। इतना प्यार... इतना प्यार... कि शौचालय में उसे देर हो जाए तो सरोज... सरोज... कहते हुए दरवाजा भड़भड़ाने लगते, "सरोज, तुम ठीक तो हो न।"

वह कहती, फलाँ फ़िल्म का कैसेट लाओ-ला देते। कहती, साड़ी लाओ-ला देते। कहती, चाट खिलाओ-खिला देते। कहती, खाना बनाओ-बनाने लगते। कहती, बच्ची बहलाओ-बहलाने लगते।

पर, पिछले कुछ दिनों से इस शख्स को हो क्या गया। ऑफिस से छुट्टी मारकर बैठा है गुमसुम। आँख उठाकर देख तक नहीं रहा है। न उसकी तरफ-न बच्ची की तरफ। अजीबोगरीब हरकतें कर रहा है। बचपन की तसवीरों को घंटों देखता रहेगा। यौवन की तसवीरें देखकर आईने के सम्मुख खड़ा हो जाएगा और देर तक बिसूरता रहने के बाद अचानक चारपाई पर अनिश्चित समय के लिए तकिए से मुँह ढँककर लेट जाएगा। एक दिन न जाने क्या हुआ, उठा और अपनी नेमप्लेट उखाड़ डाली। इसी तरह एक दिन अपनी कविताएँ जोर-जोर से पढ़ने लगा। पढ़ना क्या, चिल्लाने लगा।

सरोज वर्मा उस घड़ी को कोसती है, जब उसने कह दिया था, "ए जी, आपकी तोंद बहुत ज़्यादा निकल आई है, इसे भीतर करिए ना।"

कर्तव्यपरायण पति प्रमोद वर्मा ने अगली सुबह दंडबैठक लगानी शुरू कर दी है। इस पर वह शेखी में मुँह फुला बैठी, "ये सब नहीं चलेगा जी. सफेद निकर और ऐक्शन शू पहनकर जागिंग करिए. फिर शीशे के सामने खड़े होकर तौलिया से पसीना पोंछें।"

प्रमोद वर्मा ने वैसा ही किया। आदमकद आईने के सामने सफेद निकर, बनियान और ऐक्शन बूट में वह छोटी-सी तौलिया से देह पोंछ रहा था। उसने सोचा कि हो सकता है कि तोंद कुछ पिचकी हो। आकलन के लिए उसने पेट पर हाथ फेरा। वह यथारूप था। तभी उसने अपने को कायदे से देखना शुरू किया। सब कुछ बदल गया था। अभी पैंतीस का था, पर कितना खुरदुरा और प्रौढ़ लग रहा था। वह अखबार में मुँह छिपाकर पास की कुर्सी पर बैठ गया। स्वयं से बोला, 'मेरा शरीर, मेरी आत्मा, दोनों बरबाद हो चुके हैं। मैं पैंतीस का हूँ लेकिन दोनों ही बूढ़े हो चुके हैं। न मेरी आत्मा निष्पाप हो सकती है, न मेरी तोंद पिचक सकती है। भौतिक और आध्यात्मिक दोनों के ही विकास की संभावनाएँ मेरे तईं धूमिल हो चुकी हैं।'

यही क्षण था जब उसमें परिवर्तन प्रकट होने लगा था। वह लंबी छुट्टी लेकर घर बैठ गया और उदास और बेचैन दिखने लगा। समय-समय पर वह लंबी साँस लेता अथवा लंबी निःश्वास छोड़ता।

पर जब अपनी पुरानी कविता का जोर-जोर से पाठ करते हुए चिल्लाने लगा, तो सरोज वर्मा सिहर गई और उसके सामने गिड़गिड़ा उठी, "प्लीज, आपको ये क्या हो गया है?"

"मुझे सत्य का पता चल गया है। बल्कि सत्य है कि मुझे असत्य का पता चल गया है।"

"क्या है असत्य?"

"वह सब कुछ असत्य था, जो अब तक हमारे बीच था।"

"मतलब कि हमारे बीच जो प्रेम था, जो सुख था, वह असत्य था..."

"हमारे बीच न प्रेम था, न सुख, यहाँ तक कि उजली के प्रति भी हमें प्यार न था। दरअसल हम जब तक जागते थे, प्रेम, सुख, वात्सल्य के देखे-सुने का रिहर्सल मात्र करते थे। हम प्यार नहीं, प्यार का प्रदर्शन करते थे।"

"कैसी बात कर रहे हैं।"

"सच कह रहा हूँ। सत्य तो ये है कि तुम्हारे बन-बनकर बोलने, कृत्रिम हँसी, नकली रूठने और हर पल इतराते रहने से मुझे घृणा होती थी। मगर दरअसल हम घर में रहकर भी सड़क पर होते थे, जहाँ लोग तमीज, मुहब्बत वगैरह का स्वाँग रचाते हैं।"

"तो क्या आपका वह गुदगुदी लगाना, वह टट्टीघर का दरवाजा भड़भड़ाना, वह किचन के काम में हाथ बँटाना झूठ था। ?"

"बिल्कुल झूठ था।"

"और वह शेर-ओ-शायरी सुनाना भी झूठ था?"

"बिल्कुल झूठ।"

"आप चाहते क्या हैं?"

"मैं सुखी होना चाहता हूँ। मुझे सुख की खोज है। मैं उसे पाना चाहता हूँ।"

"तुम पागल हो गए हो। भरी जवानी में तुम्हें साधू बनने की शैतानी सूझ गई है। हे भगवान्! ये इसी तरह अगर पगलाते रहे तो मेरा और मेरी बच्ची का क्या होगा?"

उजली दौड़ती हुई आई, "पाप्पा...पाप्पा... मुझे कॉमिक्स खरीद दो न।"

उजली ने हाथों को टामीगन की मुद्रा में बनाया। पापा कॉमिक्स नहीं देता... ठाँय...ठाँय... पापा मर गया... ठाँय...

प्रमोद वर्मा गोया सचमुच मर गया। वह चारपाई पर गिर पड़ा और चद्दर से मुँह ढँककर पड़ गया।

उसकी इधर की यह चिरपरिचित मुद्रा थी। इस मुद्रा में जैसे ही आता, द्वंद्व का एक शोकगीत शुरू हो जाता। इधर अनगिनत बार यह शोकगीत उसने गाया फिर भी वह जैसे ही मुँह ढँककर लेटने की मुद्रा में आता, शोकगीत शुरू हो जाता:

'मैं आदर्श भारतीय नागरिक की तरह बाईं पटरी पर चला और सच्चे भारतीय पुरुष की तरह अहर्निश गृहस्थी का खड़खड़ा खींचा। पत्नी द्वारा रोज-रोज फजीहत के बावजूद मैं बेशर्म के पौधे की तरह हरा-भरा खिला-खिला रहा। वी.सी.आर. खरीदा, स्कूटर खरीदा, सोफा-फ्रि़ज, सब कुछ है मेरे पास। एक स्थानीय किंतु प्रतिभाषाली चित्रकार के चित्र भी टँगे हैं ड्राइंगरूम में। अपना मकान न सही किंतु प्लॉट खरीद रखा है। पैंतीस वर्ष की अवस्था में कोई मध्यवर्गीय नवयुवक इससे अधिक क्या कर सकता है। बच्ची को बढ़िया स्कूल में पढ़ाता हूँ। कोई भरोसा न करे तो मेरे घर का फ्रिज खोलकर देख ले, खाने-पीने के सामान से ठसाठस रहता है। ढाई किलो तो दूध खरीदा जाता है। मेरे पेट की गड़बड़ी को छोड़ दिया जाए तो सब कुछ चुस्त-दुरुस्त है। पर हकीकत नहीं है यह। मैं एक रोग का रोगी हो गया हूँ पिछले कुछ दिनों से। अजीबोगरीब रोग हैं, मुझे कहीं भी किसी भी चीज में सुख नहीं मिलता।'

एक दिन यही सब सोचते-सोचते उसे थरथरी होने लगी।

सरोज वर्मा ने पूछा, "काँप क्यों रहे हैं?"

उसने टालने की गरज से कहा, "कँपकँपी आ रही है, इसलिए काँप रहा हूँ।"

"कँपकँपी आ रही है तो कोई दवा ले लें।"

'मेरी कँपकँपी की क्या दवा हो सकती है?' उसने सोचा और नतीजे पर पहुँचा कि नौकरी छोड़ देना उसकी कँपकँपी की दवा है, एंटीबायटिक है। वह नौकरी छोड़ देगा और कविताएँ लिखेगा। बैंक में तीन लाख रुपया जमा हैं, उनके सूद से घर चल जाएगा।

"कोई दवा मँगवाऊँ?"

"नहीं, उस दवा से मेरी कँपकँपी नहीं ठीक होगी। मेरी कँपकँपी ठीक होगी मेरे नौकरी छोड़ देने से। हाँ, मैं नौकरी छोड़ दूँगा।"

"आप पागल तो नहीं हो गए हैं। हे भगवान्! इन्हें कुछ दिनों से क्या होता जा रहा है।" वह गहरी नींद में सो रही उजली को उठा लाई. उसे झिंझोड़ते हुए पति से बोली, "इसका तो कुछ खयाल करिए. कैसे चलेगा घर का खर्चा?"

"बैंक में तीन लाख के ऊपर जमा हैं, उनके ब्याज से चलाएँगे हम खर्चा। वैसे भी जूनियर इंजीनियर का वेतन ब्याज की इस राशि से ज़्यादा नहीं होता है। अब तुम यह कह सकती हो कि हर साल इन्क्रीमेंट लगता है, बोनस मिलता है, उसका क्या होगा। इस पर मेरा जवाब है कि नौकरी छोड़ने के बाद भी मैं इधर-उधर से इतना ज़रूर कमा लूँगा जो बोनस और इन्क्रीमेंट की क्षतिपूर्ति करेगा।"

"नौकरी क्यों छोड़ रहे हैं, छोड़कर करेंगे क्या?" वह बदहवास थी।

"नौकरी मैं आत्मिक शांति के लिए छोड़ना चाहता हूँ। नौकरी छोड़ने के बाद कविताएँ लिखूँगा। साथ ही कुछ उच्चकोटि के निबंध लिखने का भी मेरा इरादा है।"

"चूल्हे-भाड़ में जाए आपका इरादा।" वह सिसकने लगी। अचानक फुर्ती से उठी और उसका हाथ खींचकर उजली के सिर पर रख दिया, "उजली के सिर की कसम जो नौकरी छोड़िए."

"कसम दिलाने से घटनाएँ घटित होना नहीं बंद कर देतीं। फर्ज करो तुम भारत के प्रधानमंत्री या अमेरिका के राष्ट्रपति से कहो कि आपको आपके बच्चे की कसम जो इस पद पर रहें, तो क्या नतीजा निकलेगा। कसम दिलाने से वायु का चलना नहीं रुकेगा, नदी का बहना नहीं रुकेगा, अग्नि का जलना नहीं रुके..."

"और आपका नौकरी छोड़ना नहीं रुकेगा... अरे तीन लाख के ब्याज से खाते रहेंगे तो बड़ी होने पर उजली का ब्याह कैसे करेंगे? पाँच लाख तो आज ही डॉक्टर, इंजीनियर का रेट है।"

"उजली का विवाह दहेज देकर न होगा। वह प्रेम विवाह करेगी। यदि प्रेम नहीं करेगी, प्रेम करने से डरेगी तो उसको प्रेम और प्रेम विवाह के लिए मैं प्रोत्साहित करूँगा।"

"आग लगे आपकी बुद्धि को। ऐ सर्वशक्तिमान! हमारी रक्षा करो।" वह उजली को लेकर सोने चली गई.

रात के 2-15 थे और सरोज वर्मा बेटी के साथ सो रही थी। प्रमोद वर्मा ने उसे जगाया, "मैं टेपरिकार्ड बजा दूँ?"

"यही पूछने के लिए जगाया है?"

"वो बात नहीं है।" वह बहुत खुश दिख रहा था। उसने कव्वाली का एक कैसेट बजा दिया और बोला, "अब नौकरी नहीं छोड़ना चाहता। दरअसल मैं सस्पैंड होना चाहता हूँ, इसके बड़े फायदे हैं।"

उसने फायदे बताए, "सस्पैंड होने पर दो-तिहाई वेतन मिलेगा। फिर लिख-पढ़कर वेतन के एक-तिहाई से ज़्यादा कमा ही लूँगा। दस से पाँच के चक्कर से छुट्टी मिल ही जाएगी।"

वह सस्पैंड होने के लिए उद्यत था। उसने निश्चय कर लिया था कि बॉस का सिर फोड़ देगा। नेता को गाली बक देगा। महिला शौचालय में घुस जाएगा। स्टेनो राधा अग्रवाल को आँख मार देगा, जैसे भी संभव हुआ वह सस्पेंड होकर रहेगा। बस वह आर्थिक भ्रष्टाचार के आरोप में सस्पैंड होने के लिए तैयार नहीं था। इसके पीछे कुछ उसकी सदाचारी जीवन जीने की इच्छा थी और कुछ उसका यह अनुभव था कि सरकारी कर्मचारी भ्रष्टाचार के कारण दंड नहीं स्नेह, सम्मान का पात्र बन जाता है। तो इस प्रकार सस्पैंड होने के लिए उसके पास कोई सुसंगत और स्पष्ट रूपरेखा नहीं थी। बस एक दृढ़ इच्छाशक्ति थी, जो उसे अपने लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़ा रही थी।

उसने एक पैकेट सिगरेट और माचिस खरीदा। इसके पीछे उसका इरादा था कि इग्जीक्यूटिव इंजीनियर चरन साहब के सामने इसे पिएगा और धुआँ उनके मुँह पर छोड़ेगा।

वह कार्यालय में घुसा तो उसी समय सहायक अभियंता तिवारी स्कूटर खड़ा कर रहे थे। वह उनका अधीनस्थ था लेकिन नमस्कार नहीं किया। बल्कि घृणा से थूककर आगे बढ़ गया। सीधे जाकर चरन साहब की स्टेनो राधा अग्रवाल की मेज के सामने खड़ा हो गया। वह कोई फ़िल्मी पत्रिका पढ़ने में मशगूल थी, किसी तरह चेहरा उठाया। वर्मा बोला, "हलो राधा, कैसी हो?"

इस शर्मीले आदमी की यह बेफिक्री देखकर वह चकित हो गई. किसी तरह बोली, "नमस्ते।"

"अरे हाथ मिलाइए. हमें भी तो कभी-कभी लिफ्ट दे दिया करिए." वह निर्लज्जता से हँसा। राधा अग्रवाल का चेहरा आधा क्रोध, आधा शर्म से लाल हो गया। उसको उसकी दशा में छोड़कर वह अपनी सीट पर आ गया। वहाँ उससे सम्बद्ध दो ठेकेदार बैठे हुए थे। वह बोला, "एक-एक को डंडा कर दूँगा। बहुत हो चुका अब। चाहे सहायक अभियंता हो, अधिशासी अभियंता हो या ए.सी., सब सालों की ऐसी-तेसी कर दूँगा।" उसने होंठ टेढ़े करके नथुने फुला लिए.

"वाह साहब! अब आए आप इंजीनियरी वाली लाइन पर। नहीं तो मास्टरों की तरह झेंपे-झेंपे रहते थे।" ठेकेदारों में से एक ने कहा। दूसरा बोला, "हम तरसते रह गए कि हमारे साहब भी किसी को पिटवाने-उठवाने को कहें तो हमारे भी हाथ की खुजली शांत हो। अब लग रहा है कि हमारी ख्वाहिश पूरी होगी।"

सहायक अभियंता तिवारी का चपरासी पर्दा हटाकर घुसा, "ए. ई. साहब बुलाए हैं। बोले हैं कि जल्दी पहुँचें।"

"अबे भाग यहाँ से, जाकर बोल कि उनके बाप का नौकर नहीं हूँ। जब फुर्सत मिलेगी तो आऊँगा।"

ठेकेदार तक सनाका खा गए ये चुपचाप रहने और शांतिपूर्वक कमीशन खानेवाला इनसान अगिया बैताल कैसे बन गया। एक, माचिस उठाने के बहाने वर्मा के करीब तक झुका और सूँघा। शराब की गंध न पाकर वह हैरान हो चला वर्मा के रौद्र रूप पर।

वर्मा ने पैर उठाकर मेज पर फैला दिए. उसके पैरों के पंजे ठेकेदारों के मुँह की तरफ थे। पंजों की चमड़ी साफ थी। लेकिन फटी हुई थी। एक ठेकेदार के हृदय में दर्शन भाव पैदा हो गया। उसने सोचा, 'मनुष्य कितना रहस्यमय होता है। किसी जीव में कब कौन रूप विद्यमान हो उठे, इसकी निश्चित भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। जैसे यह वर्मा आज अकस्मात् इतना वीर, धाकड़ और निर्भीक हो जाएगा, क्या कोई कह सकता था।'

दूसरा, ठेकेदार अपने साथी के इस आध्यात्मिक चिंतन से असहमत था। उसकी धारणा थी कि निश्चय ही वर्मा को किसी माफिया बादशाह की छत्रछाया मिल गई है अथवा किसी मंत्री का वरद्हस्त।

ठेकेदार एक ने कहा, "दोनों एक ही बात हैं। मंत्री के वरद्हस्त का मतलब माफिया बादशाह की छत्रछाया है और माफिया बादशाह की छत्रछाया का मतलब मंत्री का वरद्हस्त है।"

"एक-एक को डंडा कर दूँगा।" वर्मा ने हुँकार भरी और मेज पर दाहिने पैर की एड़ी को हल्का-सा पटक दिया। ठेकेदार पशोपेश में पड़ गए कि यह वर्मा किसी और को डंडा करने के लिए गरजा है अथवा उनके ही ऊपर खफा हो गया है। वे इस मामले में उसके मन की टोह ले पाते कि इग्जीक्यूटिव इंजीनियर चरन साहब का बुलावा आ गया।

वर्मा मुस्कराया, 'अब वक्त आ गया है कि मैं सस्पैंड कर दिया जाऊँगा और मेरी तमन्ना पूरी होगी।'

उसने मेज पर से सिगरेट का पैकेट और माचिस लिया। आगे बढ़ा तो लगा कि पेट में गैस फैल गई है। खुश हो गया। दरवाजे पर लात मारकर भड़ाक से घुसेगा और भीतर पहुँचने पर इस फँसी हुई गैस को सुरीली तान में छोड़ेगा। जब तान मद्धिम होने लगेगी तो मुँह में लगी सिगरेट देवानंद हीरो की तरह हिलाते हुए खचाक् से तीली जलाकर सुलगा लेगा।

शाम वह घर पहुँचा तो सरोज वर्मा उजली की उँगली पकड़े बाहर खड़ी इंतजार कर रही थी। उसने उजली को सिखा रखा था कि पापा आएँ तो पापा-पापा कहते हुए लिपट जाना। स्वयं उसने भी अच्छा नाश्ता बनाने की तैयारी कर रखी थी और निश्चित किया था कि वह पति को देखते ही एक मोहिनी मुस्कान मुस्कराएगी और उसकी बाँह पकड़े हुए उसे घर में ले आएगी।

दरअसल सरोज वर्मा को यह विश्वास हो गया था कि पति प्रमोद वर्मा में इस बीच आए परिवर्तन की वजह गृहस्थी से उसका मन उचाट हो जाना है। ऐसी स्थितियाँ पुरुष को या तो साधु बना देती हैं या पराई औरत के पीछे मँडराता भौंरा। अभी तो प्रमोद वर्मा साधु बनने की दिशा में उन्मुख था किंतु क्या ठिकाना वह भौंरा बन जाए. इसीलिए उसने शाम को पति को देखते ही अमिट मुस्कान की ठान रखी थी। साथ ही प्रमोद वर्मा के भीतर वात्सल्य पर प्रवाहित करने के उद्देश्य से बच्ची को भी प्रशिक्षित का डाला था।

घर के भीतर नाश्ता सजाकर उसने सामने रखा और उजली से बोली, "बेटी! जाओ पार्क में थोड़ी देर खेल लो।" उजली के जाने के बाद वह प्रमोद वर्मा की गोद में बैठ गई, "नाश्ते के बाद अपने आज के अनुभव सुनाना है आपको।"

झुँझलाहट से प्रमोद वर्मा की नसें तन गईं, "देखो, मेरा इस समय का अनुभव तो यह है कि मुझे तुम्हारा यह प्रेम करने का तरीका अच्छा नहीं लग रहा है। चौंतीस की अवस्था में तुम चौबीस की अवस्थावाला प्रेम कर रही हो। तुम एक दशक पीछे चली गई हो। तुम इतने दिन पत्नी की भूमिका निबाहने के उपरांत कुँवारी प्रेमिका बनने चली हो। कृपया मेरे जंघे से उतर जाओ. उम्र में तुम मुझसे छोटी हो किंतु आयतन और भार दोनों में कहीं मुझसे अधिक। 61 किलोग्राम का भार मेरा जंघा सह नहीं पा रहा है। वैसे भी स्त्रिायों के नितंब पुरुषों की तुलना में काफी वजनदार होते हैं।"

"अच्छा बाबा लो।" वह माहौल को तनावपूर्ण नहीं बनाना चाहती थी, इसलिए हँसते हुए उतर गई, "अच्छा, अब ऑफिस का अनुभव सुनाइए."

उसने बताना शुरू किया। सब कुछ बतलाने के बाद उसने वर्णन का उपसंहार निम्नलिखित शब्दों में किया, " मैंने सौ फीसदी तय कर लिया था कि इग्जीक्यूटिव इंजीनियर के सामने घनघोर असभ्यता करूँगा और सस्पैंड कर दिया जाऊँगा। पर जैसे ही उसके कमरे के पास पहुँचा, थर-थर काँपने लगा। बोलते समय तालू सूख गया और जीभ लड़खड़ाने लगी। मैं रोज से भी ज़्यादा डरपोक, विनम्र और चापलूस बन गया। कमरे से बाहर आया तो लगा कि मेरे भीतर उड़नेवाला साहस का परिंदा कहीं गायब हो गया है। यकीन मानो पूरे दिन ऑफिस में... साइट पर मैं काम करता रहा। पर असल में मैं अपनी हिम्मत की लापता चिड़िया को ढूँढ़ रहा था।

वह चिड़िया उसे मिल गई थी। बड़ा साहब अपनी स्टेनो राधा अग्रवाल को डिक्टेशन दे रहा था। प्रमोद वर्मा ने प्रतिदिन की तरह खड़ा रहने के बजाय कुर्सी खींची, वह भी भड़भड़ाहट के साथ और बैठ गया जबकि दो सहायक अभियंता खड़े थे। उनमें उसका सहायक अभियंता तिवारी भी था। बड़ा साहब डिक्टेशन देना बंद करके चिल्लाया, "ये क्या हरकत है?"

वह उससे भी अधिक गर्जना से चिल्लाया, "ये क्या हरकत है।"

बड़ा साहब बोला, "होश में हो?"

"देखो बड़ा साहब, ज़्यादा जोश में न आओ." उसने सिगरेट सुलगाई और हाथ हिलाकर तीली बुझाते हुए राधा अग्रवाल को देखकर आँख मार दी, "अरे कभी-कभी हमसे भी डिक्टेशन ले लिया करो।" राधा अग्रवाल इस तरह घबड़ा गई कि नोटबुक को घुटनों के बीच दबाकर पेंसिल से पीठ खुजाने लगी और दिन होता तो बड़ा साहब राधा अग्रवाल के घुटने के आसपास या पीठ के आसपास देखने लगता। थोड़ी देर देखने के बाद डाँटकर भगा देता पर आज उसने ध्यान नहीं दिया और प्रमोद वर्मा पर पिल पड़ा, "यह क्या बदतमीजी है। मैं अभी सस्पैंड कर दूँगा।"

"कहें तो सस्पैंड होने के लिए मैं प्रार्थनापत्र दे दूँ।"

बड़ा साहब हाँफने लगा, "तुम्हारा ब्लडप्रैशर तो ठीक है न?"

"एकदम ठीक। मेरा रक्तचाप अधिकतम 120 और न्यूनतम 80 है। यह आदर्श रक्तचाप है जिसे मैंने बिना किसी परहेज और अधिक नमक सेवन के बावजूद बनाए रखा है। हाँ, मैं कब्ज तथा वायु विकार का रोगी अवश्य हूँ।" यह कहकर वह बड़े साहब के सामने पड़ा पेपरवेट अपनी तरफ खींचकर उछालने लगा।

पेपरवेट द्वारा पिट जाने की आशंका से अथवा प्रमोद वर्मा के वायु विकार के प्रकट हो जाने के डर से बड़ा साहब शांत होने लगा। वह इतना शांत हुआ कि बोला, "पहले पानी पीजिए." थोड़ी देर के अंतराल के बाद कहा, "आप परेशानी में लगते हैं। हम आपके शुभचिंतक हैं। अब देखिए, मैं सोच रहा हूँ कि महकमे की सबसे बड़ी सड़क आप ही बनवाएँ।" उसने प्रमोद वर्मा से हाथ मिला लिया। कमरे में उपस्थित सहायक अभियंता और खड़ी राधा अग्रवाल सभी स्तब्ध थे और सभी की निगाह में प्रमोद वर्मा का रोब कई गुना बढ़ गया था।

पूरे ऑफिस में प्रमोद वर्मा से लोग खौफ खाने लगे थे। उसके आगे-पीछे दुम हिलाने लगे थे। जिस शख्स ने बड़े साहब को सरेआम बेइज्जत किया और उसके बदले में बड़ा काम पा गया हो, उसके क्या कहने! पंद्रह मिनट की अवधि ने उसे लोक निर्माण विभाग के इस कार्यालय का सन्नाम नेता बना दिया। उसका दिल टूट गया था। सस्पैंड होने की उसकी हसरत का अब क्या होगा। वह जिस दलदल से उबरना चाहता था, उसी में और धँस गया।

सस्पैंड होकर दो-तिहाई वेतन का मजा लेने का उसका सपना चकनाचूर हो चला था। उसे महसूस हो रहा था कि सुखी होना उसकी तकदीर में नहीं है। बहरहाल वह अभी परास्त नहीं हुआ था। उम्मीदर की एक हल्की-सी कौंध थी कि एक न एक दिन सस्पैंड हो जाएगा। वह प्रयत्न भी कर रहा था। उसी क्रम में एक दिन राधा अग्रवाल के सामने पहुँचा और लोफरों की तरह पंजों के बल घूमकर बोला, "राधा मेरी जान, इरादे क्या हैं।" इसके बाद उसने रंगीन रूमाल हवा में लहराकर झटके से नीचे कर लिया, "एकदम कटार हो कटार।" उसे आशा थी कि अब तो हर हालत में राधा अग्रवाल उसको चप्पलों से पीटेंगी और एकदम ऊपर तक शिकायत करेंगी। पर यह क्या राधा अग्रवाल तो मुस्कराने लगीं, "सर! आप बस खाली-पीली बातें करते हैं।" वह भौंचक्का था, 'मैंने राधा अग्रवाल को समझने में भूल की। यह तो बदचलन है।' उसने निश्चय किया कि भविष्य में इसको बहिनजी कहा करेगा और मिलने पर नजरें नीची करके करबद्ध नमस्कार करेगा।

अगले दिन वह कार्यालय शराब पीकर आ गया। आँखें लाल-लाल और चाल लड़खड़ाती। उच्च स्वर में लोगों को गालियाँ बकनी शुरू कर दीं। कुछ के बारे में कहा कि उन्हें गोली मार देगा। कुछ का गला काट डालने और कुछ को ठाँय से उड़ा देने की घोषणा की। रही-सही कसर उसने सहायक अभियंता तिवारी को झापड़ मारकर पूरी कर दी। इसके बाद ठेकेदार से दो दिन के लिए माँगे गए रिवाल्वर से हवाई फायर किया और वापस घर लौट आया।

अगले दिन वह पूर्ण विश्वास के साथ कार्यालय पहुँचा। उसे पक्का यकीन था कि अब तो उसे सस्पैंड करने की कार्यवाही शुरू ही हो जाएगी पर दुखद आश्चर्य कि कार्यालय में उसकी तूती बोल रही थी। बड़े साहब ने उसको कमरे में बुलाया, "मैं तो सोच रहा था कि तिवारी की तरह मेहरोत्रा को भी पीटोगे। यार, उसे भी एक दिन चार झापड़ रसीद देते।"

सरोज वर्मा अति प्रसन्न थी कि पतिजी, कोशिशों के बावजूद सस्पैंड नहीं हो सके. वैसे ऊपर से वह अफसोस जताती, "मैं तो भगवान से मनाया करती थी कि आप सस्पैंड हो जाते पर क्या करूँ, उसने सुनी ही नहीं। खैर, चिंता मत करें, आज नहीं तो कल सस्पैंड होकर रहेंगे।" इसके बाद वह गुपचुप ढंग से भगवान से निवेदन करती, "माफ करना भगवान, मैंने झूठ बोला। तुम इन्हें कभी मत सस्पैंड होने देना। इनका तो दिमाग फिर गया है। एकदम सनक गए हैं। अब इस भक्तिन की लाज तुम्हारे ही हाथों में है प्रभु।"

प्रभु की कृपा से अथवा किसी अन्य वजह से प्रमोद वर्मा का मन नौकरी में लगने लगा। वह मनोयोग से निर्माण में मशगूल हो गया। सरोज वर्मा संतुष्ट थी, जिस प्रकार से महाशय सस्पैंड होने से नौकरी करने पर आ गए हैं, उसी भाँति कालांतर में घूसखोरी पर भी लौट जाएँगे और जीवन की नैया बड़े मजे से चलती रहेगी।

लेकिन ऑफिस में भरपूर असंतोष पनपने लगा था... प्रमोद वर्मा से सहायक अभियंता ने दस क्रेट व्हिस्की माँगी, "बड़े साहब के बेटे की शादी के लिए चाहिए."

स्वयं बड़ा साहब वर्मा से बोला, "भाई खाने-पीने के मामले में कायस्थों से अधिक कौन जानता है। इसीलिए शादी के बाद रिसैप्शन के दिन खाने और 'पीने' का इंतजाम तुम्हारे हवाले।"

"साहब! मैंने छोड़ दी है। न पीता हूँ, न पिलाता हूँ। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने मदिरा को अनेक पापों का मूल बताया है। जहाँ तक भोजन सम्बंधी व्यवस्था का प्रश्न है, तो मैं कुछ उम्दा किस्स के कैटरर्स के बारे में जानकारी दे सकता हूँ, जो लजीज खाने के लिए खासे मशहूर हैं। जैसे नान वैजिटेरियन के लिए..."

"मजाक की बात छोड़ो वर्मा, सीरियस हो जाओ. यहाँ जे.ई. लोग लड़की तक सप्लाई कर देते हैं और तुम हो कि दारू और खाने के नाम पर नक्शा पाद रहे हो।"

"देखिए, वे न जे.ई. होते हैं, न इनसान। वे भड़ुवे होते हैं। वैसे किसी के गिरने की बात का क्या, आपकी ही पोस्ट पर बैठे एक बड़े साहब ने ट्रांसफर रुकवाने के लिए खुद अपनी ही बेटी सप्लाई कर दी थी... कृपया आप जान लें कि मैं प्रमोद वर्मा भड़ुवा-दल्लाल नहीं, इनसान है।"

और उस दिन तो विस्फोट ही हो गया। सड़क बनकर तैयार हो गई. ऑफिस में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई. इग्जीक्यूटिव इंजीनियर खुश था, सहायक अभियंता खुश था, एकाउंटेंट खुश था। कैशियर, क्लर्क, चपरासी सभी प्रसन्न थे कि कमीशन के रूप में मोटी धनराशि हाथ आएगी। सभी ने अपनी हैसियत के मुताबिक अपनी पत्नी और बच्चों से खरीददारी का वादा कर रखा था। इग्जीक्यूटिव इंजीनियर इस बात से भी आनंदित था कि उसके इलाके़ से ए.सी. साहब, चीफ इंजीनियर, इंजीनियर इन-चीफ और मंत्री, सभी तगड़ी रकम काटेंगे और मस्त हो जाएँगे। वे आनंद से झूम उठेंगे और उसको अधिक फलदार जनपद में स्थानांतरित कर देंगे। बस कनिष्ठ अभियंता प्रमोद वर्मा की रिपोर्ट मिलने की देर थी, उसके उपरांत तो युद्ध स्तर की तैयारी से ठेकेदार का चेक कटना था और कमीशन का बँटवारा होना था। लेकिन कनिष्ठ अभियंता प्रमोद वर्मा की रिपोर्ट ने उनकी सारी खुशियों को तबाह कर दिया था। उसने लिखा था कि सड़क के निर्माण में अनुबंध की शर्तों की घोर अवमानना की गई है। इसके साथ ही प्रतीत हुआ है कि प्रयुक्त सामग्री में भारी घपला हुआ है। यह सड़क कमजोर ही नहीं, दो कौड़ी की बनी है। इसके एवज में किया गया भुगतान जनता तथा सरकार के साथ विश्वासघात होगा।

सनसनी फैल गई. लोकनिर्माण विभाग हैरत में था कि ऐसा भी हो सकता है।

एक लंबे अरसे बाद प्रमोद वर्मा शराब पी रहा था। सरोज वर्मा तवे पर कबाब सेंक रही थी। उजली गणित का सवाल हल कर रही थी। वह नशे में आने लगा था। गिलास उठाकर बेटी से बोला, "बिटिया, ये घूस की शराब नहीं है। मैं अपनी तनख्वाह के पैसे से लाया हूँ।"

तभी धाँय-धाँय... गोलियाँ थमीं तो बाहर से गालियों की आवाजें आने लगीं। दरवाजा भी जोर-जोर से पीटा जा रहा था, "निकल साले महात्मा गांधी की औलाद..."

प्रमोद वर्मा, सरोज वर्मा, उजली-तीनों डबलबेड पर एक-दूसरे को पकड़े, साँस रोके सिमटे हुए थे। वे थरथरा रहे थे। बाहर से अब ईंट-पत्थर फेंके जाने लगे थे। ...

इग्जीक्यूटिव इंजीनियर ने ए.सी. साहब को कनिष्ठ अभियंता प्रमोद वर्मा को सस्पैंड कर देने का प्रस्ताव भेजा। ए.सी. ने चीफ को, चीफ ने इंजीनियर-इन-चीफ को लिखा। ठेकेदार के आग्रह पर मंत्री ने भी इंजीनियर-इन-चीफ को आदेश दिया। इंजीनियर-इन-चीफ ने चीफ को, चीफ ने ए.सी. को, ए.सी. ने इग्जीक्यूटिव इंजीनियर को भेजा कि उनके कार्यालय का कनिष्ठ अभियंता प्रमोद वर्मा सस्पैंड किया गया...

सरोज वर्मा पति से कहने लगी, "इससे तो अच्छा था कि आप इस्तीफा दे देते नौकरी से। चारों तरफ बेइज्जती हो रही है। रिश्तेदार हँस रहे हैं।"

"जो हँस रहे हैं वे नीच हैं। नीच लोग ही दूसरों के कष्ट पर हँसते हैं और हमें नीच लोगों की परवाह नहीं करनी चाहिए. जहाँ तक इस्तीफे का सवाल है तो पहले मैंने उसी मार्ग पर चलना चाहा था लेकिन तुम ही गिड़गिड़ाने लगी थीं। वैसे यदि तुमको इस्तीफा इतना ही प्रिय है तो मैं उसका रास्ता निकालता हूँ।"

सरोज वर्मा अवाक् रुआँसी-सी पति को देखने लगी। प्रमोद वर्मा ने अपनी बात जारी रखी, "हाँ, मैं अपने सस्पेंशन के खिलाफ कोर्ट से स्टे लाऊँगा। कोर्ट हर बात पर स्टे दे देता है। इस देश में एक दिन आएगा जब हत्यारा हत्या करने और चोर चोरी करने के अपने अधिकार के पक्ष में स्टे लाएगा। मुझे तो सौ फीसदी स्टे मिलेगा। यह अलग बात है कि उसके फौरन बाद मैं नौकरी से इस्तीफा देकर तुम्हारी मुराद पूरी कर दूँगा।"

वह काँप गई, "नहीं...नहीं, आप इस्तीफा मत दें। हमारे लिए सस्पेंशन ही उचित और लाभदायक है।"

प्रमोद वर्मा संतुष्ट हुआ, "और हाँ, तुम चिंता मत करो। मैं कल ही अपने एक संपादक दोस्त से मिलूँगा। उससे कहूँगा कि अपनी पत्रिका में मेरे साथ हुए अन्याय की खबर छापे और मुझे नौकरी दे दे। मैं लोकनिर्माण विभाग की चूलें हिलाकर रख दूँगा। पत्रकारिता लोकतंत्र का सबसे आदरणीय तथा निर्भीक स्तंभ है। मैं पत्रकार बनूँगा और समाज में भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष छेड़ूँगा।"

संपादक दोस्त ने गर्मजोशी के साथ स्वागत किया। गले लगा लिया था। उसके मुँह से भभका उमड़ पड़ रहा था। सूर्य अस्त होने के पहले ही दारू चढ़ाकर संपादन कर रहा था दोस्त।

"हाँ तो क्या समस्या है?"

"समस्या नहीं, समस्याएँ हैं। एक, यह कि मैं सस्पैंड कर दिया गया हूँ। मेरे साथ हुए इस अत्याचार को अपनी पत्रिका के माध्यम से उजागर करिए."

"उजागर हो जाएगा पर किसी अखबार में। पत्रिका में राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर का भंडाफोड़ छपता है।"

"दूसरी बात, अब मैं खाली हूँ। मेरा लिखने-पढ़ने का अनुभव है ही। मैं अनुरोध करता हूँ कि आप अपने यहाँ मुझे काम दे दीजिए."

"इसके बारे में कल बतलाऊँगा।"

अगले दिन उसने संपादक से मुलाकात की, "मेरी नौकरी का क्या हुआ?"

"मिल गई तुमको।"

"कब ज्वाइन करूँ?"

"अभी से काम शुरू कर दो। पर हाँ भई, एक बात साफ कर दूँ इसी वक्त कि हम एप्वाइंटमेंट लेटर नहीं दे सकेंगे।"

प्रमोद वर्मा खुशी से बोला, "धन्यवाद...धन्यवाद। नियुक्तिपत्र न देने के लिए धन्यवाद। कृपया किसी रजिस्टर पर मेरा नाम भी न दर्ज कराएँ।" वह हँसते हुए चिल्लाया, "श्रम कानूनों का उल्लंघन भी कभी-कभी कर्मचारी के लिए हितकारी हो जाता है।"

दोस्त क्रुद्ध हो गया, "तो मुझ पर फब्ती कस रहे हो?"

"नहीं, नहीं, आपको गलतफहमी हो गई. मुझे चाहिए ही नहीं नियुक्तिपत्र। मैं एक सस्पैंडेट सरकारी मुलाजिम हूँ, कानूनी तौर पर दूसरी नौकरी करने से मेरे केस का कबाड़ा हो जाएगा।"

"ठीक है, जगमोहन से मिल लो, वह तुम्हारी सीट बता देगा।"

वह संपादक के कमरे से निकला तो सभी लोगों ने सामूहिक रूप से सवाल किया, "एप्वाइंटमेंट लैटर पाए कि नहीं?"

"नहीं, आप लोगों को मिला है क्या?"

"नहीं।"

"तो आप लोग भी सस्पैंडेंड हैं क्या?"

"मतलब?"

"कुछ नहीं... कुछ नहीं..." वह सँभला।

उसने कुछ प्रसंग को बदलने तथा कुछ अपनी सीट पाने की गरज से पूछा, "जगमोहन कहाँ है?"

जगमोहन के कान में दर्द था, वह हकीम के पास गए थे। इधर-उधर एक सीट अपेक्षाकृत नई, खाली और साफ दिखाई पड़ी। उसने अनुमान लगाया, यही उसकी सीट है। वह बैठने के लिए नितंब नीचे झुका ही रहा था कि एक युवती आई, "कहिए, मेरी सीट पर क्यों बैठ रहे हैं?"

"मैं भूल गया था कि हर ऑफिस में युवतियों की सीट खाली और ऐसी होती हैं, जैसे उस पर कोई काम नहीं होता।" वह उठ खड़ा हुआ।

वह पछता रहा था कि उसे उस सीट पर एक बार बैठ तो जाना ही चाहिए था। युवती सुंदर है। उसके बैठने के स्थान पर बैठना कितना सुखद होता। उसने स्वयं को तसल्ली दी, किसी दिन चाहे देर तक ऑफिस में रहना पड़े, वह युवती की कुर्सी पर बैठेगा ज़रूर। जितनी जगह में वह बैठती होगी, ठीक उसी आयतन के भीतर धँस जाएगा।

उसके हृदय ने धिक्कारा कि वह एक शादीशुदा इनसान है। उसे इस प्रकार की कल्पनाएँ नहीं करनी चाहिए. क्योंकि इस प्रकार की कल्पनाएँ पराई स्त्री के प्रति कामोद्दीपन पैदा करती हैं।

उसने कान पकड़ा, "मैं अपनी पत्नी को ही प्यार करूँगा और पराई स्त्री के प्रति कामोद्दीपन नहीं पैदा होने दूँगा।"

रात वह पत्नी से बोला, "मुझे लगता है कि अब मैं सुखी हो सकूँगा। मेरी ऊब के दिन गए. उत्साह-उमंग की नई भोर मेरे जीवन की कुंडी खटखटा रही है।"

अगले दिन दफ्तर में काम ज़्यादा था और जो था, उसे आज ही करना कोई ज़रूरी नहीं था। इसीलिए वह कान कुलबुला रहा था। उसने सोचा खुजलाने, कान कुलबुलाने इत्यादि में कितना आनंद है, वह भी निःशुल्क। तभी एक लड़की उसके सामने आ खड़ी हुई. उसने बिजली-सी फुर्ती के साथ कान से उँगली हटा ली। उसे महसूस हुआ, कान कुलबुलाने का आनंद कितना क्षीण और तुच्छ है, नारी-सौंदर्य के सामने। लड़की बैठ गई. वह 'विवाह के पहले प्रेम करना घातक है लड़कियों के लिए' शीर्षक का लेख छपाने आई थी।

प्रमोद वर्मा बोला, "तो क्या विवाह के बाद प्रेम करना फायदेमंद है लड़कियों के लिए, देखिए इसका शीर्षक ठीक नहीं है। दूसरी बात मैं आपसे पूछना चाहता हूँ, बशर्ते बुरा न मानिएगा कि क्या आप किसी से प्रेम करती हैं?"

"नहीं।"

"पर आप इतने गर्व से क्यों इनकार कर रही हैं। यह इतनी घृणास्पद वस्तु नहीं है। वैसे यदि प्रेम नहीं करती हैं तो ज़रूर आप मुकेश के दर्द भरे गाने सुनती होंगी। लता मंगेशकर भी पसंद होंगी। यदि घर की आर्थिक स्थिति ठीक हुई तो आप पेंटिंग या बागवानी करती होंगी, नहीं तो क्रोशिया और स्वेटर बुनने में प्रवीण होंगी।"

"मैं आपके संपादक के शिकायत करूँगी कि आप वाहियात इनसान हैं।"

"देखिए, बहुत हुआ तो संपादक यहाँ से हटा देगा। मुझे कोई फर्क नहीं पड़नेवाला है क्योंकि मैं लोकनिर्माण विभाग का एक सस्पैंडेड जूनियर इंजीनियर हूँ। मुझे दो-तिहाई वेतन मिलता है। इसके अतिरिक्त ऊपर की कमाई से मैंने बैंक में सम्मानपूर्ण धनराशि एकत्र कर रखी है और यदि शेयर बाज़ार का कबाड़ा न हुआ होता तो मैं ठीकठाक धनवान होता। पर मेरे कहने का तात्पर्य यह नहीं कि मैं पैसे का रुतबा दिखलाकर आपको प्रभावित करने की चेष्टा कर रहा हूँ। वैसे भी भारतीय मर्यादा की बेड़ियों ने मेरी रूमानी संभावनाओं को जकड़ दिया है। जी हाँ, मेरा विवाह कुछ साल पहले संपन्न हो चुका है और मैं एक बेटी का बाप हूँ। मैं उम्र के उस पड़ाव पर हूँ जहाँ दरवाजे पर प्रेम नहीं, बीमारियों के कोंपल फूटते हैं।"

लड़की हँस पड़ी, "आपसे तो नाराज भी नहीं हुआ जा सकता। वैसे आपके ऑफिस छोड़ने का वक्त हो चुका है। हम बस स्टैंड तक साथ चल सकते हैं।"

दोनों कार्यालय से साथ निकले। दस कदम ही बढ़े होंगे, प्रमोद वर्मा खड़ा हो गया। लड़की भी ठिठक गई, "क्या है?"

"आपके बाल कितने लंबे हैं। कुर्सी पर बैठी थीं तो पता नहीं लगता था। ये वाकई बहुत लंबे हैं।"

लड़की को अच्छा लगा, "मेरे बाल लंबे तो हैं लेकिन घने नहीं है। यह काले भी नहीं हैं। सुनहले हैं।"

"सुनहले। यह तो बड़ी अच्छी बात है। सुनहले बाल तो परियों के होते हैं। संस्कृत साहित्य में ऐसी लड़कियों को मधुकेशी कहा गया है। जी हाँ, आप शहद जैसे बालोंवाली लड़की हैं, मधुकेशी।"

वे धीरे-धीरे चलने लगे। प्रमोद वर्मा अब गंभीर हो गया था। रास्ते भर वह अपनी जिह्वा से बौद्धिकता की रस-वर्षा करता रहा। लड़की विभोर थी। वह हैरत में थी कि यह आदमी इतना मसखरा और इतना बुद्धिमान, दोनों कैसे हैं। लड़की ने अब तक न ऐसा मसखरा देखा था, न ऐसा बुद्धिमान। प्रमोद वर्मा था कि बोलता ही जा रहा था। तभी बस आई और वह अद्भुत तत्परता से बस में चढ़ गया और हाथ हिलाकर टा...टा...ऽ करने लगा।

लड़की को दूसरी बस पकड़नी थी। उसकी माँ ने उसे रिक्शा के लिए भी पैसे दिए थे, इसलिए वह रिक्शा करने का भी मन बना रही थी। वह बस से गई या रिक्शे से यह प्रमोद वर्मा को मालूम न हुआ। वह बस में खड़ा-खड़ा बाहर के जड़ किंतु गतिशील-से लगते पदार्थों को निहारता हुआ भीड़ के धक्के खा रहा था। उस समय उसकी चेतना में धक्के और ठेलमठेल विराजमान थे। उसमें लड़की नहीं, घर जल्दी पहुँचने की इच्छा हिलोरें मार रही थी। घर पहुँचते-पहुँचते तो वह लड़की को भूल ही गया। कई दिन भूला रहा। वह इतवार की सुबह थी। वह नाश्ता करने के बाद काफी देर पढ़ता रहा फिर उसे अनुभव हुआ कि बैठे-बैठे उसका पेट फूल आया है। थोड़ी देर वह बेटी से इस आशय के साथ खेलता रहा कि उछल-कूछ में उसका पेट पिचक जाए. होना क्या था, थोड़ी-सी वायु किसी प्रकार बाहर निकलती और उसका पेट पिचक जाता, पर वैसा नहीं हो पाया, तो उसने सोचा कि सिगरेट पीते हुए टहला जाए.

दुकान पर सिगरेट जलाकर उसने टहलना शुरू किया। थोड़ी ही दूर चला होगा कि वह लड़की जल उठी। उसे पता नहीं था कि कल से ही उसके भीतर वह थी। बस अँधेरा होने के कारण दिखती नहीं थी और इसी क्षण वह लड़की उसके हृदय में चलने लगी।

अगले दिन सुबह वह ऑफिस के लिए बस से उतरा तो फिर लड़की हृदय में चलने लगी।

शाम वह लड़की आई उसके पास, "कहिए क्या हुआ मेरे लेख का, छापेंगे?"

"उस पर तो अभी विचार हो रहा है।" प्रमोद वर्मा ने कहा।

"आप सिर क्यों नहीं उठा रहे हैं?" प्रमोद वर्मा कुछ लिख रहा था। उसने आँखें ऊपर कीं, "इसलिए कि आप बहुत सुंदर हैं। सचमुच आप बहुत सुंदर हैं। आपको जितना ही देखूँगा उतना ही मैं व्याकुल होता जाऊँगा। आप मेरी घनिष्ठ होतीं तो मैं कह देता, आप बुरका पहनकर आया करें। सचमुच आपको मैं देखता हूँ तो व्याकुल हो जाता हूँ।"

"आपसे मुझे ऐसी उम्मीद नहीं थी।"

"भविष्य में आपको मुझसे ऐसी ही उम्मीद करनी चाहिए. पहले मैं दृढ़ आत्मबलवाला था लेकिन मैं महसूस करता हूँ कि मैं एक गिरा हुआ पतित इनसान हूँ। आप यकीन मानें, मैं कोई नैतिकता का पुजारी नहीं हूँ। इस मौके पर यह स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं समझ रहा हूँ कि मैं आपको कमोबेश प्यार करता हूँ।"

इसी तरह वह एक रेस्तराँ में बैठे थे। प्रमोद वर्मा ने कहा, "आप अग्नि की तरह देदीप्यमान रहती हैं। सच कहता हूँ, जो छुए सो जल जाए."

लड़की हँसी.

"विश्वास नहीं हो रहा है न। देखिए, मैं अभी आपको छूता हूँ और जल जाता हूँ।" उसने लड़की को छू लिया, "मैं जल गया। हाँ, मैं झुलस चुका हूँ। यदि आपमें अंतर्दृष्टि होती तो देखतीं, मेरे भीतर धुआँ-ही-धुआँ भरा है। लेकिन मैं ऐसा जला हूँ कि निखर गया हूँ, जैसे स्वर्ण निखर उठता है। हालाँकि मैं स्वर्ण नहीं ताँबा हूँ, पीतल हूँ, बल्कि मैं टीन हूँ, जो आपकी सोहबत में सोना बन गया।"

प्रमोद वर्मा हन दिनों काफी मुदित था। उसे लग रहा था कि यही वह नेमत है, जिससे वह वंचित था और सुखी नहीं महसूस कर रहा था अपने को। लेकिन अब उसके पास खुशियाँ-ही-खुशियाँ थीं। वह लड़की से कहता भी, "आपको लगता नहीं कि आप जब मुझसे मिलती हैं तो मैं कितना खुश हो जाता हूँ। मेरी आँखें कितनी चमक उठती हैं।" लड़की मुस्करा देती या हँस देती और वह बदस्तूर दीवाना हो जाता।

प्रमोद वर्मा के मित्र हैरत में थे कि कोई सस्पैंडेड मुलाजिम इतना प्रसन्न कैसे रह सकता है। जबकि सरोज वर्मा समझती थी कि यह प्रसन्नता नौकरी से मुक्ति पाने की आत्मिक संतुष्टि का द्योतक है। सरोज वर्मा को यह भी अच्छा लगता था कि पतिजी ने पिछले दिनों नियमित दंडबैठकों के माध्यम से तोंद पिचका ली थी और क्रोध कम करते थे। कुल मिलाकर सब कुछ प्रफुल्ल ढंग से व्यतीत हो रहा था। लग रहा था कि प्रमोद वर्मा पत्नी सरोज वर्मा की आँख में इसी प्रकार धूल झोंकता हुआ अनवरत प्रसन्न बना रहेगा लेकिन एक दिन मामला हत्थे से उखड़ गया।

हुआ यह कि छुट्टी की दोपहर थी और उसने चावल ज़्यादा खा लिया था। उसके हाथ-पाँव सुस्त पड़ने लगे। शरीर भारी हो गया और नींद आ गई. सोकर उठा तो पाया कि चावल पच गए हैं और उसे जुकाम हो गया है। घिनौने रूपवाला प्रगाढ़ जुकाम नहीं, बल्कि एकदम शुरू का मद्धिम और उदात्त जुकाम, जो मनुष्य को विकट त्यागी तथा गुरुगंभीर बना देता है उसमें दुख, प्रसन्नता, जीवन के प्रति दार्शनिक भाव पैदा करता है। ऐसे ही जुकाम के कारण धीरोदात्त बना, वह पैर हिलाते हुए सोच रहा था। सोचते-सोचते वह लड़की के बारे में सोच बैठा। लड़की के विषय में चिंतन की प्रक्रिया के दौरान ही उसमें आत्मभर्त्सना का सोता फूट पड़ा, 'मैं इस चक्कर में पड़कर हास्यास्पद होने के लिए क्यों आमादा हूँ। उम्र के इस पड़ाव पर मैं छिछोरेपन की हरकतें कर रहा हूँ।' उसने थोड़ी देर पाँव हिलाए, 'मैं भी कैसा मनुष्य हूँ, लड़की के इतराने पर, प्रेम-भरी आँखें नचाने पर, बात-बात पर धत् जाओ मैं नहीं बोलती, कहने पर, गाना गाने पर मुझे हँसी आनी चाहिए किंतु मैं मोहित होता हूँ।'

वह बेचैनी से टहलने लगा, 'मुझमें तो इस लड़की के लिए वात्सल्य उमड़-घुमड़ पड़ना चाहिए था लेकिन मैं शृंगार की डफली बजा रहा था। पके बाल, उन्नत तोंद, कठोर कब्ज, अपरंपार वायु विकार लिए हुए जब मैंने प्रणय निवेदन किया होगा तो कितना बड़ा मूर्ख और विदूषक लगा हूँगा।' उसका मन प्रेम से उचाट होने लगा। कठोर कब्ज के स्मरण से उसे इन दिनों तेजी से सिर उठा रहे अपने फिश्चुला का स्मरण हो आया। वह कराह उठा, 'यह फिश्चुला भी कितना मजाकिया रोग है। किसी को बताने में लज्जा आती है।' वह पीड़ा से बिलबिलाया, 'कितना कष्टकारी, घृणित और हँसोड़ रोग।' वह हँसने लगा। वह अपने रोग पर हँसा और उसमें साहस पैदा होने लगा। उसने रीढ़ सीधी करके स्वयं से कहा, 'मैं अब हिम्मत से काम लूँगा। प्रेम को समाप्त करूँगा और लोगों को अपने फिश्चुला का परिचय दूँगा।' वह बाहर निकल गया। पड़ोस के चाचाजी दिखे, जो धार्मिक व्यक्ति थे, हमेशा बुझे-बुझे रहते थे। उसने चाचाजी से कहा, "नमस्कार, मुझे फिश्चुला हो गया है।"

"ये क्या होता है बेटा?"

"इसे हिन्दी में भगंदर कहते हैं लेकिन दरअसल यह गुदा रोग है। इसमें मलद्वार के पास फोड़ा हो जाता है।"

चाचाजी बेसाख्ता हँसने लगे।

उसने कुछ दूसरे परिचितों को बतलाया कि उसको फिश्चुला है, तो वे भी दिल खोलकर हँसे। उसे आश्चर्य हुआ कि ये हमेशा मुँह लटकाए रखनेवाले संतप्त लोग थे, इतना हँस कैसे रहे हैं। उसको अपने फिश्चुला पर गर्व महसूस हुआ। यह दुखी, पीड़ितों, रो रहे लोगों को हँसा सकता है। उसने निश्चय किया कि वह इस मूल्यवान फिश्चुला को परेशान समुदाय को हँसाने का माध्यम बनाएगा। वह थोड़ी देर के लिए ही सही, लोगों को फिश्चुला के जरिए, खुशी प्रदान करेगा।

घर में आकर पत्नी से बोला, "मुझे फिश्चुला है भई."

"तो कौन-सी नई बात है। वह तो है ही।"

"वही तो मैं भी कह रहा हूँ कि मुझे फिश्चुला है।" वह गुनगुनाने लगा, "मुझे फिश्चुला है, फिश्चुला है...फिश्चुला है।"

सरोज वर्मा भी हँसने लगी। पत्नी के चेहरे पर यह हँसी उसे बड़ी ही पवित्र तथा मनोरम लगी। वह उसके प्रति असीम करुणा से भर उठा।

अगले दिन उसने ऑफिस फोन कर दिया कि वह देर से पहुँचेगा। उसके बाद वह अपने पुराने ठिकाने लोकनिर्माण विभाग पहुँच गया। वह वहाँ बहुत दिन बाद गया था, सहकर्मी पूछने लगे, "क्या हाल हैं वर्माजी."

"मजे में हूँ। फिश्चुला हो गया है, आराम से दिन कट रहे हैं।"

"ये फिश्चुला क्या बला है?"

"हिंदी में इसे भगंदर कहते हैं लेकिन दरअसल यह गुदा रोग है..."

सब हो...हो...हो... कर हँसने लगे। उसे संतोष हुआ और अपने कमरे में आया, जहाँ वह बैठता था। उसकी कुर्सी खाली थी। उसे उसने विरक्ति से देखा 'इसी पर मैं इतने वर्षों से बैठ रहा था और मुझे फिश्चुला हो गया। मेरे फिश्चुला की जननी है यह कुर्सी.' उसे तकलीफ हुई और दीवार पर टेक लगाकर झुक गया। बरदाश्त नहीं हुआ तो ट्वायलेट में घुसा और तकलीफ से ऐंठ गया। वह बाहर निकला तो इग्जीक्यूटिव इंजीनियर चरन साहब आते दिखे। उन्होंने पूछा, "कहो वर्मा, कैसे हो?"

"बस साहब ठीक हूँ। आजकल फिश्चुला हो गया है।" साहब मुस्करा उठे।

संपूर्ण लोकनिर्माण विभाग का वातावरण मनोरंजनमय हो गया था। लेन-देन, बेईमानी-चोरी के अहर्निश चक्कर में कुटिल बन गए वहाँ के कर्मियों के चेहरों पर फिश्चुला ने सहज हास ला दिया था। अर्से बाद इस महकमे में लोग निःस्वार्थ भाव से खुश हुए थे।

जब वह पत्रिका के दफ्तर पहुँचा तो दोपहर हो चुकी थी और संपादक लंच कर रहा था। वह उसके सामने खड़ा हो गया।

संपादक ने सिर उठाया और खाते-खाते पूछा, "कुछ काम है क्या प्रमोद?"

"जी हाँ, बात दरअसल यह है कि मैं रिपोर्टिंग में काम करना चाहता हूँ। अब डेस्क के काम से मुक्त करिए मुझको।"

"क्यों?"

"इसलिए कि मुझको फिश्चुला हो गया है जिससे बैठने में मुझे दिक्कत होती है।"

वह साथियों के बीच हाजिर हुआ। सब कम वेतन, असुरक्षित भविष्य के शिकंजे में जकड़े दीनहीन, धकियाए हुए, मुरझाए व्यक्तित्व थे। लंच में रोटी-सब्जी खाकर इस प्रतीक्षा में शांत बैठे थे कि कहीं से चाय की व्यवस्था हो जाती।

प्रमोद वर्मा ने घोषणा की कि वह सबको चाय पिलाना चाहता है।

"क्यों भई, नौकरी बहाल हो गई है क्या?"

"नहीं, फिर भी यदि वैसा हुआ तो वह मेरे लिए हर्ष नहीं विषाद का विषय होगा, मैं नौकरी में अठावन साल बाद एक्सटेंशन तो चाहता हूँ लेकिन हमेशा सस्पैंड बने रहने की कामना है मेरी। इस परिस्थिति में एक अप्रतिम आनंद है।"

"फिर क्या बात है, जो इतना चहक रहे हो?"

"मुझे फिश्चुला हो गया है। हिन्दी में इसे भगंदर कहते हैं लेकिन दरअसल यह गुदा रोग है..."

हँसते-हँसते लोट-पोट हो गए सब। उन्हें मजा लेने का एक शस्त्रा मिल गया।

लोग उससे पूछते, "कहिए प्रमोदजी, आपके फिश्चुला का क्या हाल-चाल है?"

वह कहता, "बढ़िया है... बढ़िया है... मजे में है वह।"

उसने संपादक से फिर कहा था कि बैठने से फिश्चुला दब जाता है और असह्य वेदना होने लगती है, इसलिए उसे रिपोर्टिंग में लगा दिया जाए.

संपादक ने ठहाका लगाते हुए कहा था, "विचार करूँगा।"

वह मन मसोसकर बैठा था कि जाने कब विचार का क्रियान्वयन होगा। वह फिर संपादक के कमरे में गया, "मेरा फिश्चुला दर्द कर रहा है। मुझे छुट्टी दे दीजिए आज की।"

वह बाहर सड़क पर खड़ा रिक्शे का इंतजार करने लगा। दूसरी दिशा से एक रिक्शा आकर खड़ा हुआ। उसमें से लड़की उतरने लगी। उसने उससे वहीं रहने का इशारा किया और खुद उसकी बगल में जा बैठा।

रिक्शे ने दोनों को एक रेस्तराँ के सामने उतार दिया। वे कोने की टेबल घेरकर आमने-सामने बैठे। प्रमोद वर्मा ने लड़को को देखा। लड़की आज चुस्त और चमकदार कपड़े नहने थी। उसके उभरे हुए प्रकट वक्ष मन-विचलनकारी लग रहे थे। कसी हुई जाँघों ने भी उसे डाँवाडोल बनाया। वह खड़ा हो गया, "मैं आपकी बगल में बैठना चाहता हूँ।" जाकर बैठ गया। लड़की थोड़ा दूर खिसकी। वह पास खिसका। उसने लड़की के हाथ देखे। वे खुले थे, गोरे थे, पर उन पर अवांछित बाल थे। उसे शंका हुई कहीं लड़की के मूँछें तो नहीं हैं हल्की-फुल्की। उसने सोचा, 'हो सकता है लड़की के पेट और पीठ पर बाल उगे हों।' वह वितृष्णा से भर उठा, 'मैं जहाँ बैठा था, वहीं बैठूँगा।' वह सामने जाकर बैठ गया। खुद को धिक्कारा ' आज कामदेव ने अपना बाण चला दिया था, किस तरह बच सका हूँ। उसमें लड़की के मामले में दुबारा आत्म-भर्त्सना तथा आत्म-व्यंग्य की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई. अंततः वह लड़की को लेकर मजाकिया भावों से सराबोर हो गया। लड़की की कुछ हरकतों की कल्पना की और हँस पड़ा।

"आप हँस क्यों रहे हैं?"

"कुछ नहीं, बस ऐसे ही।"

"अपना हाथ लाइए, मैं ज्योतिष से बता दूँगी, क्यों हँसे?"

लड़की ने हाथ पकड़कर नाटकीय ढंग से कहा, "इसलिए हँसे जनाब कि आपका वेतन बढ़नेवाला है।"

"बहुत सही बताया आपने।"

"और कुछ पूछना हो तो पूछ लीजिए."

"पूछूँ?"

"हाँ...हाँ..."

"तो बतलाइए." वह फिर हँसा, "मेरा फिश्चुला कब ठीक होगा?"

"ये क्या होता है?"

"फिश्चुला को हिन्दी में भगंदर कहते हैं। दरअसल यह गुदा रोग है। इसमें मलद्वार पर फोड़ा..."

"बस...बस...करिए..." लड़की खिसिया गई.

"इसमें शर्माने की कोई बात नहीं है। मल-मूत्र विसजन समाज के सभी प्राणी करते हैं। आप यकीन मानिए, मुझे फिश्चुला हो गया है। यह कोई खतरनाक बीमारी नहीं है पर इसमें दर्द बहुत होता है। खासकर बैठते समय। बैठने में भी दीर्घ शंका समाधान के साथ ज्यादा। फिश्चुला की एक विशेषता यह होती है कि यह आपरेशन के उपरांत ठीक हो जाता है किंतु अमूमन यह कुछ दिनों बाद फिर हो उठता है। कभी-कभी तो आपरेशन के बावजूद इनसान जीवन-भर फिश्चुला का शिकार बनकर तड़पता रहता है। हाँ तो अपनी ज्योतिष विद्या के आधार पर बतलाइए कि मेरा फिश्चुला कब ठीक होगा? और ठीक होने के बाद फिर तो नहीं उभर आएगा?"

लड़की ने कानों में उँगली ठूँस रखी थीं। चेहरा घबराहट और शर्म से बेहाल था। उसे प्रमोद वर्मा फूहड़ तथा क्रूर लग रहा था। वह रुआँसी हो गई. रोते हुए उठी। पर्स लेकर तेजी से भाग गई. वह मुस्कराया पर अचानक बुझ गया। वह उदास हो चला। उचाट आँखों से आसपास को देखा। पैसा चुकाकर बाहर निकल आया।

घर आते-आते वह असहनीय कष्ट से घिर गया था। फिश्चुला मर्मान्तक हो चला था। लगता था कि इस यातना से बेहतर प्राण त्याग देना होगा। वह चारपाई पर गिर पड़ा। उसके होंठ भिंचे हुए थे। शरीर की समस्त शक्ति दर्द को बरदाश्त करने में खर्च हो रही थी। वह काला पड़ता जा रहा था। सरोज वर्मा धीरे-धीरे उसका सिर सहला रही थी। वह लाश की तरह लेट गया और हाँफने लगा। सरोज वर्मा उसकी पैंट का बैल्ट खोलने लगी। पैंट उतारकर उसको लुंगी पहनाई.

"दवा लगा दो।" प्रमोद वर्मा कराहा।

सरोज वर्मा ट्यूब से मलहम निकालकर उसके फिश्चुला पर आहिस्ता-आहिस्ता मलने लगी।

प्रमोद वर्मा ने कराहते हुए निराशा से कहा, "आपरेशन कराना ही पड़ेगा।"

आपरेशन के बाद फिश्चुला फिर उदित हो गया था। पूर्व फिश्चुला की तरह ही नृशंस था यह। प्रमोद वर्मा तकलीफ, जुगुप्सा और डर की भावनाओं से घिरा हुआ था। उसे यह दुख भी था कि फिश्चुला मनोरंजक नहीं रह गया था। उसके जिक्र पर लोग अब हँसते नहीं थे। लोग उसकी बीमारी पर न सहानुभूति प्रकट करते थे, न हँसते थे। दरअसल फिश्चुला अपनी सृजनात्मकता खो चुका था।

प्रमोद वर्मा अब फिर पहले जैसा हो गया था। घर में पैर हिलाते हुए शून्य में ताका करता था अथवा ऊटपटाँग हरकतों में लिप्त रहता था। उसे इस बात का अफसोस था कि इतने दिनों के बाद भी गाड़ी वहीं-की-वहीं है। वही क्षोभ और ऊब, वही नीरस और बेस्वाद जिंदगी। सुख की शाश्वत अनुभूति तो दूर, उसकी झलक-भर से वह वंचित था। वह अपने बाल नोचता, 'कैसे मैं सुखी हूँगा?' हताशा से भर जाता था, 'क्या मैं कभी सुखी नहीं हो सकूँगा।'

सरोज वर्मा जीवनसाथी के अजीबोगरीब कारनामों का अवलोकन कर रही थी। वह डरी हुई थी कि सुख की तलाश में उसका पति पागल न हो जाए या वैराग्य न धारण कर ले, वरना उसकी भरी जवानी का क्या होगा। बच्ची का क्या होगा!

प्रमोद वर्मा एक दिन नहाकर निकला तो सरोज वर्मा नाश्ता लगाकर इंतजार करने लगी। देर तक न आने पर वह दूसरे कमरे में घुसी. देखा, वह एक चटाई पर पालथी मारकर आँखें मूँदे बैठा है। नाश्ता ठंडा होकर ऐंठ गया, तब वह खड़ा हुआ, "इसे ध्यान कहते हैं, इसके समुचित ढंग से करने पर सांसारिक विषयों का शमन हो जाता है और मनुष्य को सुख से भी बढ़कर 'आनंद' की अवस्था प्राप्त होती है।"

सांसारिक विषयों से पीछा छुड़ाने की बात पर सरोज वर्मा को पुनः अपनी भरी जवानी का खयाल आया। उसने उसे बाँहों में जकड़ लिया और चुंबनों की बौछार करते हुए अपने वक्ष के मीठे दबाव से उसके वस्त्रहीन बदन को धकेलते हुए शयनकक्ष में ले गई...

शयनकक्ष में प्रमोद वर्मा का तौलिया अकेला, निस्सहाय, परित्यक्त पड़ा हुआ था और प्रमोद वर्मा को लग रहा था... यही सुख है... आनंद है... इससे बड़ा... इसके अलावा दूसरा कुछ भी नहीं है...

थोड़ी देर की खामोशी के बाद सरोज वर्मा पलटी. उसको अपनी तरफ खींचा। उसकी छाती पर सिर रखकर सुबकने लगी। फिर अचानक उसे झिंझोड़ने लगी। पल-भर भी न बीता होगा, वह बेतहाशा चूम रही थी, "क्या अभी-अभी जो था, वह सुख नहीं था... सुख नहीं था... बोलो..."

"सुख नहीं था। वस्तुतः वह सुख नहीं था, सुख का छलावा था। यह कितना पल-भर के लिए था। सुख या आनंद क्षणभंगुर नहीं होता है। संभोग के सुख से अधिक स्थायित्व तो पूर्व फिश्चुला की दशा में था।"

लेकिन इस विवाद ने प्रमोद वर्मा में नामालूम कैसी रासायनिक क्रिया कर दी कि अगले दिन से जब भी वह ध्यान के लिए बैठता, उसको संभोग-सुख की याद आने लगती। रति क्रिया के विभिन्न बिंब उसके ध्यान का पटरा कर देते। थककर उसने निर्णय लिया, भोग में ही वास्तविक सुख है। बिना विलंब किए बैंक से धन निकाला और अनाप-शनाप खर्च करने लगा। वह बेमतलब दो महानगरों की यात्राएँ कर आया, जहाँ उसने कैबरे देखा था और जुआ खेला था। लोकमनिर्माण विभागवाले उससे तीन महँगी दावतें पाकर हतप्रभ थे। सहायक अभियंता तिवारी का कथन था कि उसकी ज़रूर कोई लाटरी निकली है। जबकि बड़े साहब चरन साहब का मत था कि वह किसी बड़े तस्कर गिरोह का सदस्य बन गया है। ठेकेदारों की सामूहिक राय थी कि उसको अथाह गढ़ा धन हासिल हुआ है। वह इन टिप्पणियों से बेपरवाह पैसे लुटा-लुटाकर गुलछर्रे उड़ा रहा था और बिला नागा प्रतिदिन सरोज वर्मा के साथ सहवास कर रहा था।

सरोज वर्मा उस समय सन्नाटे में आ गई, जब प्रमोद वर्मा ने उससे आग्रह किया, "चलो नाचा जाए." जबकि नृत्य कला में दोनों ही अज्ञानी थे।

प्रमोद वर्मा नाचने के नाम पर बस अपने हिप हिला रहा था और सरोज वर्मा राजाओं को हवा देनेवाले चँवर की तरह टुटरूँ-टूँ डोल रही थी।

नाचते हुए प्रमोद वर्मा को महसूस हुआ, "मैं क्या चुतियापा कर रहा हूँ। ' वह कुर्सी पर बैठकर हाँफने लगा," नहीं...नहीं...इन सबमें सुख नहीं है..."

"मैं भी सोचती थी कि जब नाचना आता ही नहीं तो फिर नाचने में सुख कैसा।"

प्रमोद वर्मा ने विरक्ति से देखा, "मैं केवल नाचने की बात नहीं कह रहा हूँ। मैं कह रहा हूँ कि भोग में सुख नहीं है।"

"तब किसमें है?" सरोज वर्मा झुँझला गई.

"शायद त्याग में।"

"तो अपना फिश्चुला क्यों नहीं त्याग देते।" वह चिढ़कर बोली।

"फिश्चुला को त्याग सकना मेरे वश में नहीं है, लेकिन तुम्हें त्याग सकना मेरे वश में अवश्य है।"

सरोज वर्मा की रूह फना हो गई. वह सो रही उजली को छाती से लगाकर एकांत में देर तक रुदन करती रही। असुरक्षा-बोध ने उसे इतना जकड़ा कि वह गंडे-ताबीज के चक्कर में फँसने का निश्चय कर बैठी।

लेकिन प्रमोद वर्मा पर किसी चीज का असर नहीं हो रहा था। हाँ, 'त्याग' से जल्दी ही उसकी आस्था उखड़ गई थी, किंतु वह एकांतवास और मौन पर अटक गया था। वह कहता, "शब्द में ऊर्जा है। मौन अनंत ऊर्जा का भंडारण करता है। जब भंडारण यथोचित हो चलेगा तो सुख-ही-सुख होगा।"

बाद में 'मौन' से भी नाउम्मीद होकर वह वाचालता और मिलनसारी में रम गया था। उसका तर्क था, 'ये इनसान क्या हैं, ईश्वर की संतानें हैं। इन्हीं में घुलने-मिलने से सुख की उपलब्धि होगी!' अब वह घर से जल्दी निकल जाता और देर से आता। पत्रिका कार्यालय में वह मौका मिलते ही लोगों से गप्प लड़ाने लगता था। पत्रिका कार्यालय बंद होने के बाद वह लोगों से मुलाकात करने निकल पड़ता था। कभी किसी के घर, कभी किसी के घर। नतीजतन उसका दांपत्य जीवन विस्फोटक होने लगा था। भोगवाले दिनों की समाप्ति के पश्चात् सरोज वर्मा पति के साथ घूमने नहीं निकल पाई थी। उजली भी पापा के साथ घूमने के लिए ठान बैठी थी। अतः सरोज वर्मा ने तय किया कि वह पति से दुखड़ा कहकर रहेगी। कोई तुक होती है घर से बाहर रहने की।

मगर उस दिन अप्रत्याशित रूप से प्रमोद वर्मा पत्रिका कार्यालय से सीधा घर आ गया। थका-बुझा सा... हारा...हारा-सा।

"क्या बात है?" सरोज वर्मा उसके बालों को दुलारने लगी।

"देखो, मेरे बाल मत खींचो। ये वैसे ही बुरी तरह टूट रहे हैं। वैसे भी जानती हो कि मुझको प्यार-मोहब्बत के ये चोंचले अच्छे नहीं लगते हैं। रही बात कि बात क्या है तो मैं क्या बताऊँ कि बात क्या है।"

रात को बताई उसने बात। खाने की मेज पर उसने कहा, "सरोज, मेरा खाने का मन नहीं है।"

"थोड़ा-सा खा लो पापा।" उजली ने भी आग्रह किया।

"नहीं बेटे, मन नहीं है।"

मेज पर बड़ी देर तक मौन बैठा रहा।

प्रमोद वर्मा बोला, "सरोज, मैं क्या करूँ। मेरा मन नहीं लगता किसी चीज में, मुझे लगता है कि मुझे कुछ चाहिए. क्या है वह जो मुझे चाहिए, यह मुझे पता नहीं है। सरोज, मैं सुखी नहीं हूँ। मेरी आत्मा अक्सर मुझको मथती हैं और मैं परेशान हो जाता हूँ। वाकई मैं सुखी नहीं हूँ। मैं क्या करूँ सरोज!"

सरोज वर्मा ने सोच-विचार के बाद कहा, "किसी बूढ़े-बुजुर्ग से पूछो।"

वह खुश हुआ, "वाह सरोज!" वह उजली को उछालने लगा, "मुझे पहले क्यों न सूझी, बिटिया।"

अगले दिन पत्रिका कार्यालय में घुसते ही संपादक के पास पहुँचा, "एक काम था।" संपादक बोला, "छुट्टी चाहिए न, फिश्चुला बढ़ गया क्या?"

"नहीं, मुझे यह जानकारी चाहिए कि इस शहर में सबसे अधिक उम्र का व्यक्ति कौन है?"

"वाह! इस शहर में सबसे अधिक उम्र की एक बुढ़िया है, जो एक सौ बारह साल की है। वह नदी-किनारे रहती है और उसके दाँत अभी टूटे नहीं हैं। लोग कहते हैं कि वह बच्चों का टोना उतारती है। कोढ़, मिर्गी के मरीजों को छू देती है तो वे ठीक हो जाते हैं। अर्धरात्रि में उसके श्मशान घाट जाने के बारे में भी बताया जाता है।"

"एक निवेदन और मझे आज की छुट्टी दे दीजिए."

"क्यों, तुम्हारा फिश्चुला तो बढ़ा नहीं?"

"फिश्चुला की बात नहीं है। मुझे एक सौ बारह साल की बुढ़िया से मिलना है, जो नदी-किनारे रहती है और जिसके दाँत अभी टूटे नहीं हैं।"

वह बुढ़िया से मिलने चला जा रहा था, तभी यकायक, कई दिनों बाद लड़की टकरा गई. दोनों इस तरह आमने-सामने हुए कि कतराने का विकल्प बचता ही नहीं था।

"कहाँ जा रहे हैं आप इतनी तेजी में?" लड़की ने ही शुरुआत की।

"मैं एक सौ बारह साल की बुढ़िया से मिलने जा रहा हूँ।"

"अब बुढ़िया से ही मिलना रह गया है।"

"मैं तुम्हारी इस बात का जवाब देता, पर ज़रा जल्दी में हूँ।"

"और आपकी तबीयत कैसी है।" लड़की ग़लत सवाल कर बैठी।

"आपरेशन के बाद फिर उभर आया है फिश्चुला।" वह मुस्कराया, "यह आपको मालूम ही होगा कि इसे हिन्दी में भगंदर कहते हैं। यह गुदा रोग है..."

लड़की शर्म से पसीना-पसीना हो गई.

"तबियत के बारे में पूछने के लिए धन्यवाद।" वह एक सौ बारह साल की बुढ़िया से मिलने के लिए आगे बढ़ गया, जो नदी-किनारे रहती थी और जिसके दाँत अभी टूटे नहीं थे।

बुढ़िया नदी-किनारे रहती थी और सचमुच उसके दाँत टूटे नहीं थे। सबसे बड़ी बात उसके हाथों में ताकत और आँखों में रोशनी थी। वह पीढ़े पर बैठी किसी लकड़ी से अपनी पीठ खुजला रही थी।

कुछ कोढ़ी और कुछ मिर्गी के मरीज कमरे में बैठे बुढ़िया को निहार रहे थे। इक्का-दुक्का बच्चे भी अभिभावकों के साथ आए थे। सब बुढ़िया को बुढ़िया कह रहे थे। गोया बुढ़िया को यह सम्बोधन बहुत पसंद था।

पीठ खुजला चुकने के बाद बुढ़िया ने पानी पिया। फिर वह गुनगुनाने लगी। किसी पुराने लोकगीत की धुन थी।

प्रमोद वर्मा ने आवाज दी, "बुढ़ियाजी, नमस्कार।"

बुढ़िया ने हिकारत से कहा, "जा...जा... उस कोने में बैठ।"

थोड़ी देर बाद वह पीढ़े से उठी। कमर कमान जैसी झुकी थी। वह एक-एक के पास जा रही थी। उसका सिर सहला रही थी। स्पर्श कराने के बाद लोग बाहर हो जा रहे थे। आखिर में सिर्फ़ वह बचा। बुढ़िया उसके पास आई, "बोल, तुझे कोढ़ है कि मिर्गी?"

प्रमोद वर्मा घबड़ाया, "मुझे न कोढ़ है, न मिर्गी। मुझे फिश्चुला है। पर मैं यहाँ इलाज कराने नहीं, कुछ पूछने आया हूँ।"

वह कमर पर हाथ रखकर सिर हिलाने लगी। जाकर फिर पीढ़े पर बैठ गई और हाँफने लगी। हाँफ चुकने के बाद गरजी, "बोल, क्या पूछता है?"

"बुढ़िया, मैं सुखी नहीं हूँ। किसी चीज में मन नहीं लगता। भटकता रहता है मन। हमेशा खाली-खाली महसूस करता हूँ। उदास रहता हूँ। बुढ़िया, मैं बहुत परेशान हूँ। कई महीनों से सुख खोज रहा हूँ। जगह-जगह ढूँढ़ा। भाँति-भाँति से ढूँढ़ा, पर वह मिल नहीं रहा है। बता बुढ़िया, मैं सुखी कैसे हूँगा?"

बुढ़िया बड़ी देर सोचती रही। सोचती रही और आँखें मुलमुलाती रही। अचानक तमतमाकर खड़ी हो गई, "हुँह, बड़ा चला है सुखी होने। बोल बेवकूफ, कभी तू दुखी हुआ है? बोल, कभी सच्चे मन से दुखी हुआ है?"

प्रमोद वर्मा को लगा, बेहोश हो जाएगा। हथेलियों में सिर थामकर बैठ गया।

"मैं आज तक दुखी नहीं हुआ।" वह पसीना-पसीना हो गया। हल्का-हल्का काँप भी रहा था।

"दुख का मतलब जानता है मूरख। फोड़ा-फुंसी, बुखार बेरागी, या बीवी-बच्चों को डाँट देने से होनेवाला दुख नहीं, हमेशा चौबीस घंटों का दुख। हमेशा आत्मा को मथते रहनेवाला दुख। सुख को खोजेगा तो अपने को छलेगा। दुखी बन।"

वह बाहर आया। बीहड़ बरसात हो रही थी। बादल बिजली की चमक के साथ गरज रहे थे। तेज हवा थी। पेड़-पौधे जोर-जोर से झूम रहे थे। वह भीगते हुए चल पड़ा।

वह जल्दी-से-जल्दी दुखी होने का यत्न कर रहा था। वह गरीबों की बस्ती में गया, अस्पताल, अनाथालय गया और विधवाश्रम भी हो आया। पथरीली जमीनवाले इलाके़ में अकाल का हाहाकार था, वहाँ भी पहुँचा था। सब जगह दुख था। महँगाई, दंगा, बेटे की नौकरी, बेटी के ब्याह के चंगुल में फँसे लोगों का वह गौर से मुआयना करता था। लेकिन वह हतप्रभ था कि उसे कुछ होता ही नहीं था। वह अपनी ही निगाहों में गिरने लगा। इस बीच उसे बुखार ने भी दबोच लिया था।

बुखार के कारण उसका शरीर तप रहा था। रात उसे कई छींकें आईं और नाक सुड़सुड़ाने लगी। थोड़ी देर बाद बुखार से वह जलने लगा था।

सरोज वर्मा उजली के साथ दवा खरीदने गई थी। वह कंबल ओढ़कर लेटा था। उसकी नाक सुड़सुड़ाने लगी। अभी वह लगातार कई बार उठ-उठकर नाक छिनक चुका था। अतः इस बार भीतर-ही-भीतर सुड़क डाला वह बहुत अकेला पा रहा था। लग रहा था जैसे कोई भारी आवरण उसे घर रहा है। उसकी पलकें भारी-सी होने लगीं। वह बुदबुदाया, 'मैं कभी दुखी नहीं हो सकूँगा, न सुखी।' उसने सोचा, 'कितने साल हो गए होंगे, मुझे कभी पश्चात्ताप नहीं हुआ।' वह नींद और जागने के बीच की स्थिति में था। वह स्वप्न और यथार्थ की मिली-जुली अवस्था में था। धुँधला-धुँधला-सा सोच रहा था, 'मेरे पास आँसू भी नहीं बचे। बचपन के बाद मैं रोया ही नहीं।' वह उद्विग्न था, 'क्या जमाना आ गया है, लोग न रोते हैं, न पश्चात्ताप करते हैं।'

सरोज वर्मा दवा लेकर आ गई. रास्ते में पत्रिका कार्यालय फोन कर दिया था पति की छुट्टी के लिए. उसने दवा की गोलियाँ पति को दीं। प्रमोद वर्मा उन्हें गटक गया। देर तक लेटे-लेटे वह ऊब गया था। वहीं बिस्तर पर उकड़ूँ बैठ गया।

सरोज वर्मा ने सुझाव दिया, "ऐसे मत बैठिए, फिश्चुला दर्द करने लगेगा।"

वह उसी तरह बैठा रहा। नामालूम क्या सोचता रहा कि रुआँसा हो गया, "सरोज... सरोज... मैं क्या करूँ, मुझे कुछ अच्छा नहीं लगता। कुछ सुंदर नहीं लगता।"

सरोज वर्मा ने उसकी गरदन में बाँहें डाल दीं। प्रमोद वर्मा का सिर छोटे बच्चे की तरह अपने वक्ष से लगा लिया और सहलाने लगी, "क्या होता जा रहा है आपको... क्या होता जा रहा है... मैं फिर कहती हूँ कि आपको मेरी, उजली की रत्ती-भर परवाह नहीं है..."

उजली अपने नाम का जिक्र सुनकर उत्साहित हो गई, "पापा...पापा... आप कब दुखी होंगे?"

"कभी नहीं बिटिया।"

"ऐसा न बोलिए." सरोज वर्मा ने भारतीय नारी की तरह इतराते हुए धीरज बँधाना शुरू किया, "आप चिंता मत करिए. आप एक दिन ज़रूर दुखी होंगे। ईश्वर के घर में देर है मगर अंधेर नहीं है। वह आपको ज़रूर दुखी बनाएगा। मैं सोमवार का व्रत रखूँगी। शंकर जी से माँगूँगी कि आपको दुखी बनाएँ।"

"कोई फायदा नहीं। किसी भी तरह मेरा दुखी होना, यानी कि मेरा सुखी हो सकना किसी भी तरह मुमकिन नहीं है।" वह पुनः उकड़ूँ बैठ गया, "क्योंकि मेरी आत्मा खो गई है। मुझे यह पता भी नहीं कि वह कहाँ खोई. पहले मैं अक्सर उसे निकालकर रख देता था, इसी में वह कहीं खो गई. लोकनिर्माण विभाग के दफ्तर में, सड़क पर या किसी यात्रा में, पता नहीं कहाँ मैंने उसे अपने से अलग रखा और वह खो गई..." उसकी आँखों के सामने अँधेरा छाता जा रहा था। सब कुछ डूबता हुआ-सा लग रहा था।

अचानक उसके फिश्चुला में जोरों का दर्द हुआ। उससे सँभल पाता कि मितली आने लगी। वह ओ...ओ... करके उठा। भागते हुए बाशबेसिन तक गया और उलटी करने लगा। दुर्गन्ध से भरी हुई ढेर सारी उलटी.

वह सस्पैंड होने के लिए उद्यत था। उसने निश्चय कर लिया था कि बॉस का सिर फोड़ देगा। नेता को गाली बक देगा। महिला शौचालय में घुस जाएगा। स्टेनो राधा अग्रवाल को आँख मार देगा, जैसे भी संभव हुआ वह सस्पेंड होकर रहेगा। बस वह आर्थिक भ्रष्टाचार के आरोप में सस्पैंड होने के लिए तैयार नहीं था। इसके पीछे कुछ उसकी सदाचारी जीवन जीने की इच्छा थी और कुछ उसका यह अनुभव था कि सरकारी कर्मचारी भ्रष्टाचार के कारण दंड नहीं स्नेह, सम्मान का पात्र बन जाता है। तो इस प्रकार सस्पैंड होने के लिए उसके पास कोई सुसंगत और स्पष्ट रूपरेखा नहीं थी। बस एक दृढ़ इच्छाशक्ति थी, जो उसे अपने लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़ा रही थी।

उसने एक पैकेट सिगरेट और माचिस खरीदा। इसके पीछे उसका इरादा था कि इग्जीक्यूटिव इंजीनियर चरन साहब के सामने इसे पिएगा और धुआँ उनके मुँह पर छोड़ेगा।

वह कार्यालय में घुसा तो उसी समय सहायक अभियंता तिवारी स्कूटर खड़ा कर रहे थे। वह उनका अधीनस्थ था लेकिन नमस्कार नहीं किया। बल्कि घृणा से थूककर आगे बढ़ गया। सीधे जाकर चरन साहब की स्टेनो राधा अग्रवाल की मेज के सामने खड़ा हो गया। वह कोई फ़िल्मी पत्रिका पढ़ने में मशगूल थी, किसी तरह चेहरा उठाया। वर्मा बोला, "हलो राधा, कैसी हो?"

इस शर्मीले आदमी की यह बेफिक्री देखकर वह चकित हो गई. किसी तरह बोली, "नमस्ते।"

"अरे हाथ मिलाइए. हमें भी तो कभी-कभी लिफ्ट दे दिया करिए." वह निर्लज्जता से हँसा। राधा अग्रवाल का चेहरा आधा क्रोध, आधा शर्म से लाल हो गया। उसको उसकी दशा में छोड़कर वह अपनी सीट पर आ गया। वहाँ उससे सम्बद्ध दो ठेकेदार बैठे हुए थे। वह बोला, "एक-एक को डंडा कर दूँगा। बहुत हो चुका अब। चाहे सहायक अभियंता हो, अधिशासी अभियंता हो या ए.सी., सब सालों की ऐसी-तेसी कर दूँगा।" उसने होंठ टेढ़े करके नथुने फुला लिए.

"वाह साहब! अब आए आप इंजीनियरी वाली लाइन पर। नहीं तो मास्टरों की तरह झेंपे-झेंपे रहते थे।" ठेकेदारों में से एक ने कहा। दूसरा बोला, "हम तरसते रह गए कि हमारे साहब भी किसी को पिटवाने-उठवाने को कहें तो हमारे भी हाथ की खुजली शांत हो। अब लग रहा है कि हमारी ख्वाहिश पूरी होगी।"

सहायक अभियंता तिवारी का चपरासी पर्दा हटाकर घुसा, "ए. ई. साहब बुलाए हैं। बोले हैं कि जल्दी पहुँचें।"

"अबे भाग यहाँ से, जाकर बोल कि उनके बाप का नौकर नहीं हूँ। जब फुर्सत मिलेगी तो आऊँगा।"

ठेकेदार तक सनाका खा गए ये चुपचाप रहने और शांतिपूर्वक कमीशन खानेवाला इनसान अगिया बैताल कैसे बन गया। एक, माचिस उठाने के बहाने वर्मा के करीब तक झुका और सूँघा। शराब की गंध न पाकर वह हैरान हो चला वर्मा के रौद्र रूप पर।

वर्मा ने पैर उठाकर मेज पर फैला दिए. उसके पैरों के पंजे ठेकेदारों के मुँह की तरफ थे। पंजों की चमड़ी साफ थी। लेकिन फटी हुई थी। एक ठेकेदार के हृदय में दर्शन भाव पैदा हो गया। उसने सोचा, 'मनुष्य कितना रहस्यमय होता है। किसी जीव में कब कौन रूप विद्यमान हो उठे, इसकी निश्चित भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। जैसे यह वर्मा आज अकस्मात् इतना वीर, धाकड़ और निर्भीक हो जाएगा, क्या कोई कह सकता था।'

दूसरा, ठेकेदार अपने साथी के इस आध्यात्मिक चिंतन से असहमत था। उसकी धारणा थी कि निश्चय ही वर्मा को किसी माफिया बादशाह की छत्रछाया मिल गई है अथवा किसी मंत्री का वरद्हस्त।

ठेकेदार एक ने कहा, "दोनों एक ही बात हैं। मंत्री के वरद्हस्त का मतलब माफिया बादशाह की छत्रछाया है और माफिया बादशाह की छत्रछाया का मतलब मंत्री का वरद्हस्त है।"

"एक-एक को डंडा कर दूँगा।" वर्मा ने हुँकार भरी और मेज पर दाहिने पैर की एड़ी को हल्का-सा पटक दिया। ठेकेदार पशोपेश में पड़ गए कि यह वर्मा किसी और को डंडा करने के लिए गरजा है अथवा उनके ही ऊपर खफा हो गया है। वे इस मामले में उसके मन की टोह ले पाते कि इग्जीक्यूटिव इंजीनियर चरन साहब का बुलावा आ गया।

वर्मा मुस्कराया, 'अब वक्त आ गया है कि मैं सस्पैंड कर दिया जाऊँगा और मेरी तमन्ना पूरी होगी।'

उसने मेज पर से सिगरेट का पैकेट और माचिस लिया। आगे बढ़ा तो लगा कि पेट में गैस फैल गई है। खुश हो गया। दरवाजे पर लात मारकर भड़ाक से घुसेगा और भीतर पहुँचने पर इस फँसी हुई गैस को सुरीली तान में छोड़ेगा। जब तान मद्धिम होने लगेगी तो मुँह में लगी सिगरेट देवानंद हीरो की तरह हिलाते हुए खचाक् से तीली जलाकर सुलगा लेगा।

शाम वह घर पहुँचा तो सरोज वर्मा उजली की उँगली पकड़े बाहर खड़ी इंतजार कर रही थी। उसने उजली को सिखा रखा था कि पापा आएँ तो पापा-पापा कहते हुए लिपट जाना। स्वयं उसने भी अच्छा नाश्ता बनाने की तैयारी कर रखी थी और निश्चित किया था कि वह पति को देखते ही एक मोहिनी मुस्कान मुस्कराएगी और उसकी बाँह पकड़े हुए उसे घर में ले आएगी।

दरअसल सरोज वर्मा को यह विश्वास हो गया था कि पति प्रमोद वर्मा में इस बीच आए परिवर्तन की वजह गृहस्थी से उसका मन उचाट हो जाना है। ऐसी स्थितियाँ पुरुष को या तो साधु बना देती हैं या पराई औरत के पीछे मँडराता भौंरा। अभी तो प्रमोद वर्मा साधु बनने की दिशा में उन्मुख था किंतु क्या ठिकाना वह भौंरा बन जाए. इसीलिए उसने शाम को पति को देखते ही अमिट मुस्कान की ठान रखी थी। साथ ही प्रमोद वर्मा के भीतर वात्सल्य पर प्रवाहित करने के उद्देश्य से बच्ची को भी प्रशिक्षित का डाला था।

घर के भीतर नाश्ता सजाकर उसने सामने रखा और उजली से बोली, "बेटी! जाओ पार्क में थोड़ी देर खेल लो।" उजली के जाने के बाद वह प्रमोद वर्मा की गोद में बैठ गई, "नाश्ते के बाद अपने आज के अनुभव सुनाना है आपको।"

झुँझलाहट से प्रमोद वर्मा की नसें तन गईं, "देखो, मेरा इस समय का अनुभव तो यह है कि मुझे तुम्हारा यह प्रेम करने का तरीका अच्छा नहीं लग रहा है। चौंतीस की अवस्था में तुम चौबीस की अवस्थावाला प्रेम कर रही हो। तुम एक दशक पीछे चली गई हो। तुम इतने दिन पत्नी की भूमिका निबाहने के उपरांत कुँवारी प्रेमिका बनने चली हो। कृपया मेरे जंघे से उतर जाओ. उम्र में तुम मुझसे छोटी हो किंतु आयतन और भार दोनों में कहीं मुझसे अधिक। 61 किलोग्राम का भार मेरा जंघा सह नहीं पा रहा है। वैसे भी स्त्रिायों के नितंब पुरुषों की तुलना में काफी वजनदार होते हैं।"

"अच्छा बाबा लो।" वह माहौल को तनावपूर्ण नहीं बनाना चाहती थी, इसलिए हँसते हुए उतर गई, "अच्छा, अब ऑफिस का अनुभव सुनाइए."

उसने बताना शुरू किया। सब कुछ बतलाने के बाद उसने वर्णन का उपसंहार निम्नलिखित शब्दों में किया, " मैंने सौ फीसदी तय कर लिया था कि इग्जीक्यूटिव इंजीनियर के सामने घनघोर असभ्यता करूँगा और सस्पैंड कर दिया जाऊँगा। पर जैसे ही उसके कमरे के पास पहुँचा, थर-थर काँपने लगा। बोलते समय तालू सूख गया और जीभ लड़खड़ाने लगी। मैं रोज से भी ज़्यादा डरपोक, विनम्र और चापलूस बन गया। कमरे से बाहर आया तो लगा कि मेरे भीतर उड़नेवाला साहस का परिंदा कहीं गायब हो गया है। यकीन मानो पूरे दिन ऑफिस में... साइट पर मैं काम करता रहा। पर असल में मैं अपनी हिम्मत की लापता चिड़िया को ढूँढ़ रहा था।

वह चिड़िया उसे मिल गई थी। बड़ा साहब अपनी स्टेनो राधा अग्रवाल को डिक्टेशन दे रहा था। प्रमोद वर्मा ने प्रतिदिन की तरह खड़ा रहने के बजाय कुर्सी खींची, वह भी भड़भड़ाहट के साथ और बैठ गया जबकि दो सहायक अभियंता खड़े थे। उनमें उसका सहायक अभियंता तिवारी भी था। बड़ा साहब डिक्टेशन देना बंद करके चिल्लाया, "ये क्या हरकत है?"

वह उससे भी अधिक गर्जना से चिल्लाया, "ये क्या हरकत है।"

बड़ा साहब बोला, "होश में हो?"

"देखो बड़ा साहब, ज़्यादा जोश में न आओ." उसने सिगरेट सुलगाई और हाथ हिलाकर तीली बुझाते हुए राधा अग्रवाल को देखकर आँख मार दी, "अरे कभी-कभी हमसे भी डिक्टेशन ले लिया करो।" राधा अग्रवाल इस तरह घबड़ा गई कि नोटबुक को घुटनों के बीच दबाकर पेंसिल से पीठ खुजाने लगी और दिन होता तो बड़ा साहब राधा अग्रवाल के घुटने के आसपास या पीठ के आसपास देखने लगता। थोड़ी देर देखने के बाद डाँटकर भगा देता पर आज उसने ध्यान नहीं दिया और प्रमोद वर्मा पर पिल पड़ा, "यह क्या बदतमीजी है। मैं अभी सस्पैंड कर दूँगा।"

"कहें तो सस्पैंड होने के लिए मैं प्रार्थनापत्र दे दूँ।"

बड़ा साहब हाँफने लगा, "तुम्हारा ब्लडप्रैशर तो ठीक है न?"

"एकदम ठीक। मेरा रक्तचाप अधिकतम 120 और न्यूनतम 80 है। यह आदर्श रक्तचाप है जिसे मैंने बिना किसी परहेज और अधिक नमक सेवन के बावजूद बनाए रखा है। हाँ, मैं कब्ज तथा वायु विकार का रोगी अवश्य हूँ।" यह कहकर वह बड़े साहब के सामने पड़ा पेपरवेट अपनी तरफ खींचकर उछालने लगा।

पेपरवेट द्वारा पिट जाने की आशंका से अथवा प्रमोद वर्मा के वायु विकार के प्रकट हो जाने के डर से बड़ा साहब शांत होने लगा। वह इतना शांत हुआ कि बोला, "पहले पानी पीजिए." थोड़ी देर के अंतराल के बाद कहा, "आप परेशानी में लगते हैं। हम आपके शुभचिंतक हैं। अब देखिए, मैं सोच रहा हूँ कि महकमे की सबसे बड़ी सड़क आप ही बनवाएँ।" उसने प्रमोद वर्मा से हाथ मिला लिया। कमरे में उपस्थित सहायक अभियंता और खड़ी राधा अग्रवाल सभी स्तब्ध थे और सभी की निगाह में प्रमोद वर्मा का रोब कई गुना बढ़ गया था।

पूरे ऑफिस में प्रमोद वर्मा से लोग खौफ खाने लगे थे। उसके आगे-पीछे दुम हिलाने लगे थे। जिस शख्स ने बड़े साहब को सरेआम बेइज्जत किया और उसके बदले में बड़ा काम पा गया हो, उसके क्या कहने! पंद्रह मिनट की अवधि ने उसे लोक निर्माण विभाग के इस कार्यालय का सन्नाम नेता बना दिया। उसका दिल टूट गया था। सस्पैंड होने की उसकी हसरत का अब क्या होगा। वह जिस दलदल से उबरना चाहता था, उसी में और धँस गया।

सस्पैंड होकर दो-तिहाई वेतन का मजा लेने का उसका सपना चकनाचूर हो चला था। उसे महसूस हो रहा था कि सुखी होना उसकी तकदीर में नहीं है। बहरहाल वह अभी परास्त नहीं हुआ था। उम्मीदर की एक हल्की-सी कौंध थी कि एक न एक दिन सस्पैंड हो जाएगा। वह प्रयत्न भी कर रहा था। उसी क्रम में एक दिन राधा अग्रवाल के सामने पहुँचा और लोफरों की तरह पंजों के बल घूमकर बोला, "राधा मेरी जान, इरादे क्या हैं।" इसके बाद उसने रंगीन रूमाल हवा में लहराकर झटके से नीचे कर लिया, "एकदम कटार हो कटार।" उसे आशा थी कि अब तो हर हालत में राधा अग्रवाल उसको चप्पलों से पीटेंगी और एकदम ऊपर तक शिकायत करेंगी। पर यह क्या राधा अग्रवाल तो मुस्कराने लगीं, "सर! आप बस खाली-पीली बातें करते हैं।" वह भौंचक्का था, 'मैंने राधा अग्रवाल को समझने में भूल की। यह तो बदचलन है।' उसने निश्चय किया कि भविष्य में इसको बहिनजी कहा करेगा और मिलने पर नजरें नीची करके करबद्ध नमस्कार करेगा।

अगले दिन वह कार्यालय शराब पीकर आ गया। आँखें लाल-लाल और चाल लड़खड़ाती। उच्च स्वर में लोगों को गालियाँ बकनी शुरू कर दीं। कुछ के बारे में कहा कि उन्हें गोली मार देगा। कुछ का गला काट डालने और कुछ को ठाँय से उड़ा देने की घोषणा की। रही-सही कसर उसने सहायक अभियंता तिवारी को झापड़ मारकर पूरी कर दी। इसके बाद ठेकेदार से दो दिन के लिए माँगे गए रिवाल्वर से हवाई फायर किया और वापस घर लौट आया।

अगले दिन वह पूर्ण विश्वास के साथ कार्यालय पहुँचा। उसे पक्का यकीन था कि अब तो उसे सस्पैंड करने की कार्यवाही शुरू ही हो जाएगी पर दुखद आश्चर्य कि कार्यालय में उसकी तूती बोल रही थी। बड़े साहब ने उसको कमरे में बुलाया, "मैं तो सोच रहा था कि तिवारी की तरह मेहरोत्रा को भी पीटोगे। यार, उसे भी एक दिन चार झापड़ रसीद देते।"

सरोज वर्मा अति प्रसन्न थी कि पतिजी, कोशिशों के बावजूद सस्पैंड नहीं हो सके. वैसे ऊपर से वह अफसोस जताती, "मैं तो भगवान से मनाया करती थी कि आप सस्पैंड हो जाते पर क्या करूँ, उसने सुनी ही नहीं। खैर, चिंता मत करें, आज नहीं तो कल सस्पैंड होकर रहेंगे।" इसके बाद वह गुपचुप ढंग से भगवान से निवेदन करती, "माफ करना भगवान, मैंने झूठ बोला। तुम इन्हें कभी मत सस्पैंड होने देना। इनका तो दिमाग फिर गया है। एकदम सनक गए हैं। अब इस भक्तिन की लाज तुम्हारे ही हाथों में है प्रभु।"

प्रभु की कृपा से अथवा किसी अन्य वजह से प्रमोद वर्मा का मन नौकरी में लगने लगा। वह मनोयोग से निर्माण में मशगूल हो गया। सरोज वर्मा संतुष्ट थी, जिस प्रकार से महाशय सस्पैंड होने से नौकरी करने पर आ गए हैं, उसी भाँति कालांतर में घूसखोरी पर भी लौट जाएँगे और जीवन की नैया बड़े मजे से चलती रहेगी।

लेकिन ऑफिस में भरपूर असंतोष पनपने लगा था... प्रमोद वर्मा से सहायक अभियंता ने दस क्रेट व्हिस्की माँगी, "बड़े साहब के बेटे की शादी के लिए चाहिए."

स्वयं बड़ा साहब वर्मा से बोला, "भाई खाने-पीने के मामले में कायस्थों से अधिक कौन जानता है। इसीलिए शादी के बाद रिसैप्शन के दिन खाने और 'पीने' का इंतजाम तुम्हारे हवाले।"

"साहब! मैंने छोड़ दी है। न पीता हूँ, न पिलाता हूँ। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने मदिरा को अनेक पापों का मूल बताया है। जहाँ तक भोजन सम्बंधी व्यवस्था का प्रश्न है, तो मैं कुछ उम्दा किस्स के कैटरर्स के बारे में जानकारी दे सकता हूँ, जो लजीज खाने के लिए खासे मशहूर हैं। जैसे नान वैजिटेरियन के लिए..."

"मजाक की बात छोड़ो वर्मा, सीरियस हो जाओ. यहाँ जे.ई. लोग लड़की तक सप्लाई कर देते हैं और तुम हो कि दारू और खाने के नाम पर नक्शा पाद रहे हो।"

"देखिए, वे न जे.ई. होते हैं, न इनसान। वे भड़ुवे होते हैं। वैसे किसी के गिरने की बात का क्या, आपकी ही पोस्ट पर बैठे एक बड़े साहब ने ट्रांसफर रुकवाने के लिए खुद अपनी ही बेटी सप्लाई कर दी थी... कृपया आप जान लें कि मैं प्रमोद वर्मा भड़ुवा-दल्लाल नहीं, इनसान है।"

और उस दिन तो विस्फोट ही हो गया। सड़क बनकर तैयार हो गई. ऑफिस में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई. इग्जीक्यूटिव इंजीनियर खुश था, सहायक अभियंता खुश था, एकाउंटेंट खुश था। कैशियर, क्लर्क, चपरासी सभी प्रसन्न थे कि कमीशन के रूप में मोटी धनराशि हाथ आएगी। सभी ने अपनी हैसियत के मुताबिक अपनी पत्नी और बच्चों से खरीददारी का वादा कर रखा था। इग्जीक्यूटिव इंजीनियर इस बात से भी आनंदित था कि उसके इलाके़ से ए.सी. साहब, चीफ इंजीनियर, इंजीनियर इन-चीफ और मंत्री, सभी तगड़ी रकम काटेंगे और मस्त हो जाएँगे। वे आनंद से झूम उठेंगे और उसको अधिक फलदार जनपद में स्थानांतरित कर देंगे। बस कनिष्ठ अभियंता प्रमोद वर्मा की रिपोर्ट मिलने की देर थी, उसके उपरांत तो युद्ध स्तर की तैयारी से ठेकेदार का चेक कटना था और कमीशन का बँटवारा होना था। लेकिन कनिष्ठ अभियंता प्रमोद वर्मा की रिपोर्ट ने उनकी सारी खुशियों को तबाह कर दिया था। उसने लिखा था कि सड़क के निर्माण में अनुबंध की शर्तों की घोर अवमानना की गई है। इसके साथ ही प्रतीत हुआ है कि प्रयुक्त सामग्री में भारी घपला हुआ है। यह सड़क कमजोर ही नहीं, दो कौड़ी की बनी है। इसके एवज में किया गया भुगतान जनता तथा सरकार के साथ विश्वासघात होगा।

सनसनी फैल गई. लोकनिर्माण विभाग हैरत में था कि ऐसा भी हो सकता है।

एक लंबे अरसे बाद प्रमोद वर्मा शराब पी रहा था। सरोज वर्मा तवे पर कबाब सेंक रही थी। उजली गणित का सवाल हल कर रही थी। वह नशे में आने लगा था। गिलास उठाकर बेटी से बोला, "बिटिया, ये घूस की शराब नहीं है। मैं अपनी तनख्वाह के पैसे से लाया हूँ।"

तभी धाँय-धाँय... गोलियाँ थमीं तो बाहर से गालियों की आवाजें आने लगीं। दरवाजा भी जोर-जोर से पीटा जा रहा था, "निकल साले महात्मा गांधी की औलाद..."

प्रमोद वर्मा, सरोज वर्मा, उजली-तीनों डबलबेड पर एक-दूसरे को पकड़े, साँस रोके सिमटे हुए थे। वे थरथरा रहे थे। बाहर से अब ईंट-पत्थर फेंके जाने लगे थे। ...

इग्जीक्यूटिव इंजीनियर ने ए.सी. साहब को कनिष्ठ अभियंता प्रमोद वर्मा को सस्पैंड कर देने का प्रस्ताव भेजा। ए.सी. ने चीफ को, चीफ ने इंजीनियर-इन-चीफ को लिखा। ठेकेदार के आग्रह पर मंत्री ने भी इंजीनियर-इन-चीफ को आदेश दिया। इंजीनियर-इन-चीफ ने चीफ को, चीफ ने ए.सी. को, ए.सी. ने इग्जीक्यूटिव इंजीनियर को भेजा कि उनके कार्यालय का कनिष्ठ अभियंता प्रमोद वर्मा सस्पैंड किया गया...

सरोज वर्मा पति से कहने लगी, "इससे तो अच्छा था कि आप इस्तीफा दे देते नौकरी से। चारों तरफ बेइज्जती हो रही है। रिश्तेदार हँस रहे हैं।"

"जो हँस रहे हैं वे नीच हैं। नीच लोग ही दूसरों के कष्ट पर हँसते हैं और हमें नीच लोगों की परवाह नहीं करनी चाहिए. जहाँ तक इस्तीफे का सवाल है तो पहले मैंने उसी मार्ग पर चलना चाहा था लेकिन तुम ही गिड़गिड़ाने लगी थीं। वैसे यदि तुमको इस्तीफा इतना ही प्रिय है तो मैं उसका रास्ता निकालता हूँ।"

सरोज वर्मा अवाक् रुआँसी-सी पति को देखने लगी। प्रमोद वर्मा ने अपनी बात जारी रखी, "हाँ, मैं अपने सस्पेंशन के खिलाफ कोर्ट से स्टे लाऊँगा। कोर्ट हर बात पर स्टे दे देता है। इस देश में एक दिन आएगा जब हत्यारा हत्या करने और चोर चोरी करने के अपने अधिकार के पक्ष में स्टे लाएगा। मुझे तो सौ फीसदी स्टे मिलेगा। यह अलग बात है कि उसके फौरन बाद मैं नौकरी से इस्तीफा देकर तुम्हारी मुराद पूरी कर दूँगा।"

वह काँप गई, "नहीं...नहीं, आप इस्तीफा मत दें। हमारे लिए सस्पेंशन ही उचित और लाभदायक है।"

प्रमोद वर्मा संतुष्ट हुआ, "और हाँ, तुम चिंता मत करो। मैं कल ही अपने एक संपादक दोस्त से मिलूँगा। उससे कहूँगा कि अपनी पत्रिका में मेरे साथ हुए अन्याय की खबर छापे और मुझे नौकरी दे दे। मैं लोकनिर्माण विभाग की चूलें हिलाकर रख दूँगा। पत्रकारिता लोकतंत्र का सबसे आदरणीय तथा निर्भीक स्तंभ है। मैं पत्रकार बनूँगा और समाज में भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष छेड़ूँगा।"

संपादक दोस्त ने गर्मजोशी के साथ स्वागत किया। गले लगा लिया था। उसके मुँह से भभका उमड़ पड़ रहा था। सूर्य अस्त होने के पहले ही दारू चढ़ाकर संपादन कर रहा था दोस्त।

"हाँ तो क्या समस्या है?"

"समस्या नहीं, समस्याएँ हैं। एक, यह कि मैं सस्पैंड कर दिया गया हूँ। मेरे साथ हुए इस अत्याचार को अपनी पत्रिका के माध्यम से उजागर करिए."

"उजागर हो जाएगा पर किसी अखबार में। पत्रिका में राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर का भंडाफोड़ छपता है।"

"दूसरी बात, अब मैं खाली हूँ। मेरा लिखने-पढ़ने का अनुभव है ही। मैं अनुरोध करता हूँ कि आप अपने यहाँ मुझे काम दे दीजिए."

"इसके बारे में कल बतलाऊँगा।"

अगले दिन उसने संपादक से मुलाकात की, "मेरी नौकरी का क्या हुआ?"

"मिल गई तुमको।"

"कब ज्वाइन करूँ?"

"अभी से काम शुरू कर दो। पर हाँ भई, एक बात साफ कर दूँ इसी वक्त कि हम एप्वाइंटमेंट लेटर नहीं दे सकेंगे।"

प्रमोद वर्मा खुशी से बोला, "धन्यवाद...धन्यवाद। नियुक्तिपत्र न देने के लिए धन्यवाद। कृपया किसी रजिस्टर पर मेरा नाम भी न दर्ज कराएँ।" वह हँसते हुए चिल्लाया, "श्रम कानूनों का उल्लंघन भी कभी-कभी कर्मचारी के लिए हितकारी हो जाता है।"

दोस्त क्रुद्ध हो गया, "तो मुझ पर फब्ती कस रहे हो?"

"नहीं, नहीं, आपको गलतफहमी हो गई. मुझे चाहिए ही नहीं नियुक्तिपत्र। मैं एक सस्पैंडेट सरकारी मुलाजिम हूँ, कानूनी तौर पर दूसरी नौकरी करने से मेरे केस का कबाड़ा हो जाएगा।"

"ठीक है, जगमोहन से मिल लो, वह तुम्हारी सीट बता देगा।"

वह संपादक के कमरे से निकला तो सभी लोगों ने सामूहिक रूप से सवाल किया, "एप्वाइंटमेंट लैटर पाए कि नहीं?"

"नहीं, आप लोगों को मिला है क्या?"

"नहीं।"

"तो आप लोग भी सस्पैंडेंड हैं क्या?"

"मतलब?"

"कुछ नहीं... कुछ नहीं..." वह सँभला।

उसने कुछ प्रसंग को बदलने तथा कुछ अपनी सीट पाने की गरज से पूछा, "जगमोहन कहाँ है?"

जगमोहन के कान में दर्द था, वह हकीम के पास गए थे। इधर-उधर एक सीट अपेक्षाकृत नई, खाली और साफ दिखाई पड़ी। उसने अनुमान लगाया, यही उसकी सीट है। वह बैठने के लिए नितंब नीचे झुका ही रहा था कि एक युवती आई, "कहिए, मेरी सीट पर क्यों बैठ रहे हैं?"

"मैं भूल गया था कि हर ऑफिस में युवतियों की सीट खाली और ऐसी होती हैं, जैसे उस पर कोई काम नहीं होता।" वह उठ खड़ा हुआ।

वह पछता रहा था कि उसे उस सीट पर एक बार बैठ तो जाना ही चाहिए था। युवती सुंदर है। उसके बैठने के स्थान पर बैठना कितना सुखद होता। उसने स्वयं को तसल्ली दी, किसी दिन चाहे देर तक ऑफिस में रहना पड़े, वह युवती की कुर्सी पर बैठेगा ज़रूर। जितनी जगह में वह बैठती होगी, ठीक उसी आयतन के भीतर धँस जाएगा।

उसके हृदय ने धिक्कारा कि वह एक शादीशुदा इनसान है। उसे इस प्रकार की कल्पनाएँ नहीं करनी चाहिए. क्योंकि इस प्रकार की कल्पनाएँ पराई स्त्री के प्रति कामोद्दीपन पैदा करती हैं।

उसने कान पकड़ा, "मैं अपनी पत्नी को ही प्यार करूँगा और पराई स्त्री के प्रति कामोद्दीपन नहीं पैदा होने दूँगा।"

रात वह पत्नी से बोला, "मुझे लगता है कि अब मैं सुखी हो सकूँगा। मेरी ऊब के दिन गए. उत्साह-उमंग की नई भोर मेरे जीवन की कुंडी खटखटा रही है।"

अगले दिन दफ्तर में काम ज़्यादा था और जो था, उसे आज ही करना कोई ज़रूरी नहीं था। इसीलिए वह कान कुलबुला रहा था। उसने सोचा खुजलाने, कान कुलबुलाने इत्यादि में कितना आनंद है, वह भी निःशुल्क। तभी एक लड़की उसके सामने आ खड़ी हुई. उसने बिजली-सी फुर्ती के साथ कान से उँगली हटा ली। उसे महसूस हुआ, कान कुलबुलाने का आनंद कितना क्षीण और तुच्छ है, नारी-सौंदर्य के सामने। लड़की बैठ गई. वह 'विवाह के पहले प्रेम करना घातक है लड़कियों के लिए' शीर्षक का लेख छपाने आई थी।

प्रमोद वर्मा बोला, "तो क्या विवाह के बाद प्रेम करना फायदेमंद है लड़कियों के लिए, देखिए इसका शीर्षक ठीक नहीं है। दूसरी बात मैं आपसे पूछना चाहता हूँ, बशर्ते बुरा न मानिएगा कि क्या आप किसी से प्रेम करती हैं?"

"नहीं।"

"पर आप इतने गर्व से क्यों इनकार कर रही हैं। यह इतनी घृणास्पद वस्तु नहीं है। वैसे यदि प्रेम नहीं करती हैं तो ज़रूर आप मुकेश के दर्द भरे गाने सुनती होंगी। लता मंगेशकर भी पसंद होंगी। यदि घर की आर्थिक स्थिति ठीक हुई तो आप पेंटिंग या बागवानी करती होंगी, नहीं तो क्रोशिया और स्वेटर बुनने में प्रवीण होंगी।"

"मैं आपके संपादक के शिकायत करूँगी कि आप वाहियात इनसान हैं।"

"देखिए, बहुत हुआ तो संपादक यहाँ से हटा देगा। मुझे कोई फर्क नहीं पड़नेवाला है क्योंकि मैं लोकनिर्माण विभाग का एक सस्पैंडेड जूनियर इंजीनियर हूँ। मुझे दो-तिहाई वेतन मिलता है। इसके अतिरिक्त ऊपर की कमाई से मैंने बैंक में सम्मानपूर्ण धनराशि एकत्र कर रखी है और यदि शेयर बाज़ार का कबाड़ा न हुआ होता तो मैं ठीकठाक धनवान होता। पर मेरे कहने का तात्पर्य यह नहीं कि मैं पैसे का रुतबा दिखलाकर आपको प्रभावित करने की चेष्टा कर रहा हूँ। वैसे भी भारतीय मर्यादा की बेड़ियों ने मेरी रूमानी संभावनाओं को जकड़ दिया है। जी हाँ, मेरा विवाह कुछ साल पहले संपन्न हो चुका है और मैं एक बेटी का बाप हूँ। मैं उम्र के उस पड़ाव पर हूँ जहाँ दरवाजे पर प्रेम नहीं, बीमारियों के कोंपल फूटते हैं।"

लड़की हँस पड़ी, "आपसे तो नाराज भी नहीं हुआ जा सकता। वैसे आपके ऑफिस छोड़ने का वक्त हो चुका है। हम बस स्टैंड तक साथ चल सकते हैं।"

दोनों कार्यालय से साथ निकले। दस कदम ही बढ़े होंगे, प्रमोद वर्मा खड़ा हो गया। लड़की भी ठिठक गई, "क्या है?"

"आपके बाल कितने लंबे हैं। कुर्सी पर बैठी थीं तो पता नहीं लगता था। ये वाकई बहुत लंबे हैं।"

लड़की को अच्छा लगा, "मेरे बाल लंबे तो हैं लेकिन घने नहीं है। यह काले भी नहीं हैं। सुनहले हैं।"

"सुनहले। यह तो बड़ी अच्छी बात है। सुनहले बाल तो परियों के होते हैं। संस्कृत साहित्य में ऐसी लड़कियों को मधुकेशी कहा गया है। जी हाँ, आप शहद जैसे बालोंवाली लड़की हैं, मधुकेशी।"

वे धीरे-धीरे चलने लगे। प्रमोद वर्मा अब गंभीर हो गया था। रास्ते भर वह अपनी जिह्वा से बौद्धिकता की रस-वर्षा करता रहा। लड़की विभोर थी। वह हैरत में थी कि यह आदमी इतना मसखरा और इतना बुद्धिमान, दोनों कैसे हैं। लड़की ने अब तक न ऐसा मसखरा देखा था, न ऐसा बुद्धिमान। प्रमोद वर्मा था कि बोलता ही जा रहा था। तभी बस आई और वह अद्भुत तत्परता से बस में चढ़ गया और हाथ हिलाकर टा...टा...ऽ करने लगा।

लड़की को दूसरी बस पकड़नी थी। उसकी माँ ने उसे रिक्शा के लिए भी पैसे दिए थे, इसलिए वह रिक्शा करने का भी मन बना रही थी। वह बस से गई या रिक्शे से यह प्रमोद वर्मा को मालूम न हुआ। वह बस में खड़ा-खड़ा बाहर के जड़ किंतु गतिशील-से लगते पदार्थों को निहारता हुआ भीड़ के धक्के खा रहा था। उस समय उसकी चेतना में धक्के और ठेलमठेल विराजमान थे। उसमें लड़की नहीं, घर जल्दी पहुँचने की इच्छा हिलोरें मार रही थी। घर पहुँचते-पहुँचते तो वह लड़की को भूल ही गया। कई दिन भूला रहा। वह इतवार की सुबह थी। वह नाश्ता करने के बाद काफी देर पढ़ता रहा फिर उसे अनुभव हुआ कि बैठे-बैठे उसका पेट फूल आया है। थोड़ी देर वह बेटी से इस आशय के साथ खेलता रहा कि उछल-कूछ में उसका पेट पिचक जाए. होना क्या था, थोड़ी-सी वायु किसी प्रकार बाहर निकलती और उसका पेट पिचक जाता, पर वैसा नहीं हो पाया, तो उसने सोचा कि सिगरेट पीते हुए टहला जाए.

दुकान पर सिगरेट जलाकर उसने टहलना शुरू किया। थोड़ी ही दूर चला होगा कि वह लड़की जल उठी। उसे पता नहीं था कि कल से ही उसके भीतर वह थी। बस अँधेरा होने के कारण दिखती नहीं थी और इसी क्षण वह लड़की उसके हृदय में चलने लगी।

अगले दिन सुबह वह ऑफिस के लिए बस से उतरा तो फिर लड़की हृदय में चलने लगी।

शाम वह लड़की आई उसके पास, "कहिए क्या हुआ मेरे लेख का, छापेंगे?"

"उस पर तो अभी विचार हो रहा है।" प्रमोद वर्मा ने कहा।

"आप सिर क्यों नहीं उठा रहे हैं?" प्रमोद वर्मा कुछ लिख रहा था। उसने आँखें ऊपर कीं, "इसलिए कि आप बहुत सुंदर हैं। सचमुच आप बहुत सुंदर हैं। आपको जितना ही देखूँगा उतना ही मैं व्याकुल होता जाऊँगा। आप मेरी घनिष्ठ होतीं तो मैं कह देता, आप बुरका पहनकर आया करें। सचमुच आपको मैं देखता हूँ तो व्याकुल हो जाता हूँ।"

"आपसे मुझे ऐसी उम्मीद नहीं थी।"

"भविष्य में आपको मुझसे ऐसी ही उम्मीद करनी चाहिए. पहले मैं दृढ़ आत्मबलवाला था लेकिन मैं महसूस करता हूँ कि मैं एक गिरा हुआ पतित इनसान हूँ। आप यकीन मानें, मैं कोई नैतिकता का पुजारी नहीं हूँ। इस मौके पर यह स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं समझ रहा हूँ कि मैं आपको कमोबेश प्यार करता हूँ।"

इसी तरह वह एक रेस्तराँ में बैठे थे। प्रमोद वर्मा ने कहा, "आप अग्नि की तरह देदीप्यमान रहती हैं। सच कहता हूँ, जो छुए सो जल जाए."

लड़की हँसी.

"विश्वास नहीं हो रहा है न। देखिए, मैं अभी आपको छूता हूँ और जल जाता हूँ।" उसने लड़की को छू लिया, "मैं जल गया। हाँ, मैं झुलस चुका हूँ। यदि आपमें अंतर्दृष्टि होती तो देखतीं, मेरे भीतर धुआँ-ही-धुआँ भरा है। लेकिन मैं ऐसा जला हूँ कि निखर गया हूँ, जैसे स्वर्ण निखर उठता है। हालाँकि मैं स्वर्ण नहीं ताँबा हूँ, पीतल हूँ, बल्कि मैं टीन हूँ, जो आपकी सोहबत में सोना बन गया।"

प्रमोद वर्मा हन दिनों काफी मुदित था। उसे लग रहा था कि यही वह नेमत है, जिससे वह वंचित था और सुखी नहीं महसूस कर रहा था अपने को। लेकिन अब उसके पास खुशियाँ-ही-खुशियाँ थीं। वह लड़की से कहता भी, "आपको लगता नहीं कि आप जब मुझसे मिलती हैं तो मैं कितना खुश हो जाता हूँ। मेरी आँखें कितनी चमक उठती हैं।" लड़की मुस्करा देती या हँस देती और वह बदस्तूर दीवाना हो जाता।

सरोज वर्मा उद्विग्न थी कि पतिजी को क्या होता जा रहा है। कुछ दिनों से हँसी-खुशी उड़न-छू हो चली है। कितना हँसते-हँसाते थे। उस पर भी न हँसती तो गुदगुदी लगाने लगते थे। उजली तो उनके जीवन की चाभी थी। सुबह स्कूल के लिए वह ही उसको तैयार करते। चहकते हुए स्कूटर से उसे छोड़ने जाते। शाम ऑफिस से लौटते तो बस, लाद लेते बेटी को। फिर तो रात उन्हीं के पेट पर लेटे हुए वह सोती।

घर में जैसे खुशियों की अनेकानेक गौरैयाँ फुदकती-चहकती हों। देर से ऑफिस जाकर जल्दी घर लौट आते पतिजी. वह झूठ-मूठ में नाराज हो जाती तो मनाने लगते। शादी के सात साल हो गए पर बात-बात में हुस्न की खूबसूरती में शेर-ओ-शायरी करते रहते। इतना प्यार... इतना प्यार... कि शौचालय में उसे देर हो जाए तो सरोज... सरोज... कहते हुए दरवाजा भड़भड़ाने लगते, "सरोज, तुम ठीक तो हो न।"

वह कहती, फलाँ फ़िल्म का कैसेट लाओ-ला देते। कहती, साड़ी लाओ-ला देते। कहती, चाट खिलाओ-खिला देते। कहती, खाना बनाओ-बनाने लगते। कहती, बच्ची बहलाओ-बहलाने लगते।

पर, पिछले कुछ दिनों से इस शख्स को हो क्या गया। ऑफिस से छुट्टी मारकर बैठा है गुमसुम। आँख उठाकर देख तक नहीं रहा है। न उसकी तरफ-न बच्ची की तरफ। अजीबोगरीब हरकतें कर रहा है। बचपन की तसवीरों को घंटों देखता रहेगा। यौवन की तसवीरें देखकर आईने के सम्मुख खड़ा हो जाएगा और देर तक बिसूरता रहने के बाद अचानक चारपाई पर अनिश्चित समय के लिए तकिए से मुँह ढँककर लेट जाएगा। एक दिन न जाने क्या हुआ, उठा और अपनी नेमप्लेट उखाड़ डाली। इसी तरह एक दिन अपनी कविताएँ जोर-जोर से पढ़ने लगा। पढ़ना क्या, चिल्लाने लगा।

सरोज वर्मा उस घड़ी को कोसती है, जब उसने कह दिया था, "ए जी, आपकी तोंद बहुत ज़्यादा निकल आई है, इसे भीतर करिए ना।"

कर्तव्यपरायण पति प्रमोद वर्मा ने अगली सुबह दंडबैठक लगानी शुरू कर दी है। इस पर वह शेखी में मुँह फुला बैठी, "ये सब नहीं चलेगा जी. सफेद निकर और ऐक्शन शू पहनकर जागिंग करिए. फिर शीशे के सामने खड़े होकर तौलिया से पसीना पोंछें।"

प्रमोद वर्मा ने वैसा ही किया। आदमकद आईने के सामने सफेद निकर, बनियान और ऐक्शन बूट में वह छोटी-सी तौलिया से देह पोंछ रहा था। उसने सोचा कि हो सकता है कि तोंद कुछ पिचकी हो। आकलन के लिए उसने पेट पर हाथ फेरा। वह यथारूप था। तभी उसने अपने को कायदे से देखना शुरू किया। सब कुछ बदल गया था। अभी पैंतीस का था, पर कितना खुरदुरा और प्रौढ़ लग रहा था। वह अखबार में मुँह छिपाकर पास की कुर्सी पर बैठ गया। स्वयं से बोला, 'मेरा शरीर, मेरी आत्मा, दोनों बरबाद हो चुके हैं। मैं पैंतीस का हूँ लेकिन दोनों ही बूढ़े हो चुके हैं। न मेरी आत्मा निष्पाप हो सकती है, न मेरी तोंद पिचक सकती है। भौतिक और आध्यात्मिक दोनों के ही विकास की संभावनाएँ मेरे तईं धूमिल हो चुकी हैं।'

यही क्षण था जब उसमें परिवर्तन प्रकट होने लगा था। वह लंबी छुट्टी लेकर घर बैठ गया और उदास और बेचैन दिखने लगा। समय-समय पर वह लंबी साँस लेता अथवा लंबी निःश्वास छोड़ता।

पर जब अपनी पुरानी कविता का जोर-जोर से पाठ करते हुए चिल्लाने लगा, तो सरोज वर्मा सिहर गई और उसके सामने गिड़गिड़ा उठी, "प्लीज, आपको ये क्या हो गया है?"

"मुझे सत्य का पता चल गया है। बल्कि सत्य है कि मुझे असत्य का पता चल गया है।"

"क्या है असत्य?"

"वह सब कुछ असत्य था, जो अब तक हमारे बीच था।"

"मतलब कि हमारे बीच जो प्रेम था, जो सुख था, वह असत्य था..."

"हमारे बीच न प्रेम था, न सुख, यहाँ तक कि उजली के प्रति भी हमें प्यार न था। दरअसल हम जब तक जागते थे, प्रेम, सुख, वात्सल्य के देखे-सुने का रिहर्सल मात्र करते थे। हम प्यार नहीं, प्यार का प्रदर्शन करते थे।"

"कैसी बात कर रहे हैं।"

"सच कह रहा हूँ। सत्य तो ये है कि तुम्हारे बन-बनकर बोलने, कृत्रिम हँसी, नकली रूठने और हर पल इतराते रहने से मुझे घृणा होती थी। मगर दरअसल हम घर में रहकर भी सड़क पर होते थे, जहाँ लोग तमीज, मुहब्बत वगैरह का स्वाँग रचाते हैं।"

"तो क्या आपका वह गुदगुदी लगाना, वह टट्टीघर का दरवाजा भड़भड़ाना, वह किचन के काम में हाथ बँटाना झूठ था। ?"

"बिल्कुल झूठ था।"

"और वह शेर-ओ-शायरी सुनाना भी झूठ था?"

"बिल्कुल झूठ।"

"आप चाहते क्या हैं?"

"मैं सुखी होना चाहता हूँ। मुझे सुख की खोज है। मैं उसे पाना चाहता हूँ।"

"तुम पागल हो गए हो। भरी जवानी में तुम्हें साधू बनने की शैतानी सूझ गई है। हे भगवान्! ये इसी तरह अगर पगलाते रहे तो मेरा और मेरी बच्ची का क्या होगा?"

उजली दौड़ती हुई आई, "पाप्पा...पाप्पा... मुझे कॉमिक्स खरीद दो न।"

उजली ने हाथों को टामीगन की मुद्रा में बनाया। पापा कॉमिक्स नहीं देता... ठाँय...ठाँय... पापा मर गया... ठाँय...

प्रमोद वर्मा गोया सचमुच मर गया। वह चारपाई पर गिर पड़ा और चद्दर से मुँह ढँककर पड़ गया।

उसकी इधर की यह चिरपरिचित मुद्रा थी। इस मुद्रा में जैसे ही आता, द्वंद्व का एक शोकगीत शुरू हो जाता। इधर अनगिनत बार यह शोकगीत उसने गाया फिर भी वह जैसे ही मुँह ढँककर लेटने की मुद्रा में आता, शोकगीत शुरू हो जाता:

'मैं आदर्श भारतीय नागरिक की तरह बाईं पटरी पर चला और सच्चे भारतीय पुरुष की तरह अहर्निश गृहस्थी का खड़खड़ा खींचा। पत्नी द्वारा रोज-रोज फजीहत के बावजूद मैं बेशर्म के पौधे की तरह हरा-भरा खिला-खिला रहा। वी.सी.आर. खरीदा, स्कूटर खरीदा, सोफा-फ्रि़ज, सब कुछ है मेरे पास। एक स्थानीय किंतु प्रतिभाषाली चित्रकार के चित्र भी टँगे हैं ड्राइंगरूम में। अपना मकान न सही किंतु प्लॉट खरीद रखा है। पैंतीस वर्ष की अवस्था में कोई मध्यवर्गीय नवयुवक इससे अधिक क्या कर सकता है। बच्ची को बढ़िया स्कूल में पढ़ाता हूँ। कोई भरोसा न करे तो मेरे घर का फ्रिज खोलकर देख ले, खाने-पीने के सामान से ठसाठस रहता है। ढाई किलो तो दूध खरीदा जाता है। मेरे पेट की गड़बड़ी को छोड़ दिया जाए तो सब कुछ चुस्त-दुरुस्त है। पर हकीकत नहीं है यह। मैं एक रोग का रोगी हो गया हूँ पिछले कुछ दिनों से। अजीबोगरीब रोग हैं, मुझे कहीं भी किसी भी चीज में सुख नहीं मिलता।'

एक दिन यही सब सोचते-सोचते उसे थरथरी होने लगी।

सरोज वर्मा ने पूछा, "काँप क्यों रहे हैं?"

उसने टालने की गरज से कहा, "कँपकँपी आ रही है, इसलिए काँप रहा हूँ।"

"कँपकँपी आ रही है तो कोई दवा ले लें।"

'मेरी कँपकँपी की क्या दवा हो सकती है?' उसने सोचा और नतीजे पर पहुँचा कि नौकरी छोड़ देना उसकी कँपकँपी की दवा है, एंटीबायटिक है। वह नौकरी छोड़ देगा और कविताएँ लिखेगा। बैंक में तीन लाख रुपया जमा हैं, उनके सूद से घर चल जाएगा।

"कोई दवा मँगवाऊँ?"

"नहीं, उस दवा से मेरी कँपकँपी नहीं ठीक होगी। मेरी कँपकँपी ठीक होगी मेरे नौकरी छोड़ देने से। हाँ, मैं नौकरी छोड़ दूँगा।"

"आप पागल तो नहीं हो गए हैं। हे भगवान्! इन्हें कुछ दिनों से क्या होता जा रहा है।" वह गहरी नींद में सो रही उजली को उठा लाई. उसे झिंझोड़ते हुए पति से बोली, "इसका तो कुछ खयाल करिए. कैसे चलेगा घर का खर्चा?"

"बैंक में तीन लाख के ऊपर जमा हैं, उनके ब्याज से चलाएँगे हम खर्चा। वैसे भी जूनियर इंजीनियर का वेतन ब्याज की इस राशि से ज़्यादा नहीं होता है। अब तुम यह कह सकती हो कि हर साल इन्क्रीमेंट लगता है, बोनस मिलता है, उसका क्या होगा। इस पर मेरा जवाब है कि नौकरी छोड़ने के बाद भी मैं इधर-उधर से इतना ज़रूर कमा लूँगा जो बोनस और इन्क्रीमेंट की क्षतिपूर्ति करेगा।"

"नौकरी क्यों छोड़ रहे हैं, छोड़कर करेंगे क्या?" वह बदहवास थी।

"नौकरी मैं आत्मिक शांति के लिए छोड़ना चाहता हूँ। नौकरी छोड़ने के बाद कविताएँ लिखूँगा। साथ ही कुछ उच्चकोटि के निबंध लिखने का भी मेरा इरादा है।"

"चूल्हे-भाड़ में जाए आपका इरादा।" वह सिसकने लगी। अचानक फुर्ती से उठी और उसका हाथ खींचकर उजली के सिर पर रख दिया, "उजली के सिर की कसम जो नौकरी छोड़िए."

"कसम दिलाने से घटनाएँ घटित होना नहीं बंद कर देतीं। फर्ज करो तुम भारत के प्रधानमंत्री या अमेरिका के राष्ट्रपति से कहो कि आपको आपके बच्चे की कसम जो इस पद पर रहें, तो क्या नतीजा निकलेगा। कसम दिलाने से वायु का चलना नहीं रुकेगा, नदी का बहना नहीं रुकेगा, अग्नि का जलना नहीं रुके..."

"और आपका नौकरी छोड़ना नहीं रुकेगा... अरे तीन लाख के ब्याज से खाते रहेंगे तो बड़ी होने पर उजली का ब्याह कैसे करेंगे? पाँच लाख तो आज ही डॉक्टर, इंजीनियर का रेट है।"

"उजली का विवाह दहेज देकर न होगा। वह प्रेम विवाह करेगी। यदि प्रेम नहीं करेगी, प्रेम करने से डरेगी तो उसको प्रेम और प्रेम विवाह के लिए मैं प्रोत्साहित करूँगा।"

"आग लगे आपकी बुद्धि को। ऐ सर्वशक्तिमान! हमारी रक्षा करो।" वह उजली को लेकर सोने चली गई.

रात के 2-15 थे और सरोज वर्मा बेटी के साथ सो रही थी। प्रमोद वर्मा ने उसे जगाया, "मैं टेपरिकार्ड बजा दूँ?"

"यही पूछने के लिए जगाया है?"

"वो बात नहीं है।" वह बहुत खुश दिख रहा था। उसने कव्वाली का एक कैसेट बजा दिया और बोला, "अब नौकरी नहीं छोड़ना चाहता। दरअसल मैं सस्पैंड होना चाहता हूँ, इसके बड़े फायदे हैं।"

उसने फायदे बताए, "सस्पैंड होने पर दो-तिहाई वेतन मिलेगा। फिर लिख-पढ़कर वेतन के एक-तिहाई से ज़्यादा कमा ही लूँगा। दस से पाँच के चक्कर से छुट्टी मिल ही जाएगी।"

वह सस्पैंड होने के लिए उद्यत था। उसने निश्चय कर लिया था कि बॉस का सिर फोड़ देगा। नेता को गाली बक देगा। महिला शौचालय में घुस जाएगा। स्टेनो राधा अग्रवाल को आँख मार देगा, जैसे भी संभव हुआ वह सस्पेंड होकर रहेगा। बस वह आर्थिक भ्रष्टाचार के आरोप में सस्पैंड होने के लिए तैयार नहीं था। इसके पीछे कुछ उसकी सदाचारी जीवन जीने की इच्छा थी और कुछ उसका यह अनुभव था कि सरकारी कर्मचारी भ्रष्टाचार के कारण दंड नहीं स्नेह, सम्मान का पात्र बन जाता है। तो इस प्रकार सस्पैंड होने के लिए उसके पास कोई सुसंगत और स्पष्ट रूपरेखा नहीं थी। बस एक दृढ़ इच्छाशक्ति थी, जो उसे अपने लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़ा रही थी।

उसने एक पैकेट सिगरेट और माचिस खरीदा। इसके पीछे उसका इरादा था कि इग्जीक्यूटिव इंजीनियर चरन साहब के सामने इसे पिएगा और धुआँ उनके मुँह पर छोड़ेगा।

वह कार्यालय में घुसा तो उसी समय सहायक अभियंता तिवारी स्कूटर खड़ा कर रहे थे। वह उनका अधीनस्थ था लेकिन नमस्कार नहीं किया। बल्कि घृणा से थूककर आगे बढ़ गया। सीधे जाकर चरन साहब की स्टेनो राधा अग्रवाल की मेज के सामने खड़ा हो गया। वह कोई फ़िल्मी पत्रिका पढ़ने में मशगूल थी, किसी तरह चेहरा उठाया। वर्मा बोला, "हलो राधा, कैसी हो?"

इस शर्मीले आदमी की यह बेफिक्री देखकर वह चकित हो गई. किसी तरह बोली, "नमस्ते।"

"अरे हाथ मिलाइए. हमें भी तो कभी-कभी लिफ्ट दे दिया करिए." वह निर्लज्जता से हँसा। राधा अग्रवाल का चेहरा आधा क्रोध, आधा शर्म से लाल हो गया। उसको उसकी दशा में छोड़कर वह अपनी सीट पर आ गया। वहाँ उससे सम्बद्ध दो ठेकेदार बैठे हुए थे। वह बोला, "एक-एक को डंडा कर दूँगा। बहुत हो चुका अब। चाहे सहायक अभियंता हो, अधिशासी अभियंता हो या ए.सी., सब सालों की ऐसी-तेसी कर दूँगा।" उसने होंठ टेढ़े करके नथुने फुला लिए.

"वाह साहब! अब आए आप इंजीनियरी वाली लाइन पर। नहीं तो मास्टरों की तरह झेंपे-झेंपे रहते थे।" ठेकेदारों में से एक ने कहा। दूसरा बोला, "हम तरसते रह गए कि हमारे साहब भी किसी को पिटवाने-उठवाने को कहें तो हमारे भी हाथ की खुजली शांत हो। अब लग रहा है कि हमारी ख्वाहिश पूरी होगी।"

सहायक अभियंता तिवारी का चपरासी पर्दा हटाकर घुसा, "ए. ई. साहब बुलाए हैं। बोले हैं कि जल्दी पहुँचें।"

"अबे भाग यहाँ से, जाकर बोल कि उनके बाप का नौकर नहीं हूँ। जब फुर्सत मिलेगी तो आऊँगा।"

ठेकेदार तक सनाका खा गए ये चुपचाप रहने और शांतिपूर्वक कमीशन खानेवाला इनसान अगिया बैताल कैसे बन गया। एक, माचिस उठाने के बहाने वर्मा के करीब तक झुका और सूँघा। शराब की गंध न पाकर वह हैरान हो चला वर्मा के रौद्र रूप पर।

वर्मा ने पैर उठाकर मेज पर फैला दिए. उसके पैरों के पंजे ठेकेदारों के मुँह की तरफ थे। पंजों की चमड़ी साफ थी। लेकिन फटी हुई थी। एक ठेकेदार के हृदय में दर्शन भाव पैदा हो गया। उसने सोचा, 'मनुष्य कितना रहस्यमय होता है। किसी जीव में कब कौन रूप विद्यमान हो उठे, इसकी निश्चित भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। जैसे यह वर्मा आज अकस्मात् इतना वीर, धाकड़ और निर्भीक हो जाएगा, क्या कोई कह सकता था।'

दूसरा, ठेकेदार अपने साथी के इस आध्यात्मिक चिंतन से असहमत था। उसकी धारणा थी कि निश्चय ही वर्मा को किसी माफिया बादशाह की छत्रछाया मिल गई है अथवा किसी मंत्री का वरद्हस्त।

ठेकेदार एक ने कहा, "दोनों एक ही बात हैं। मंत्री के वरद्हस्त का मतलब माफिया बादशाह की छत्रछाया है और माफिया बादशाह की छत्रछाया का मतलब मंत्री का वरद्हस्त है।"

"एक-एक को डंडा कर दूँगा।" वर्मा ने हुँकार भरी और मेज पर दाहिने पैर की एड़ी को हल्का-सा पटक दिया। ठेकेदार पशोपेश में पड़ गए कि यह वर्मा किसी और को डंडा करने के लिए गरजा है अथवा उनके ही ऊपर खफा हो गया है। वे इस मामले में उसके मन की टोह ले पाते कि इग्जीक्यूटिव इंजीनियर चरन साहब का बुलावा आ गया।

वर्मा मुस्कराया, 'अब वक्त आ गया है कि मैं सस्पैंड कर दिया जाऊँगा और मेरी तमन्ना पूरी होगी।'

उसने मेज पर से सिगरेट का पैकेट और माचिस लिया। आगे बढ़ा तो लगा कि पेट में गैस फैल गई है। खुश हो गया। दरवाजे पर लात मारकर भड़ाक से घुसेगा और भीतर पहुँचने पर इस फँसी हुई गैस को सुरीली तान में छोड़ेगा। जब तान मद्धिम होने लगेगी तो मुँह में लगी सिगरेट देवानंद हीरो की तरह हिलाते हुए खचाक् से तीली जलाकर सुलगा लेगा।

शाम वह घर पहुँचा तो सरोज वर्मा उजली की उँगली पकड़े बाहर खड़ी इंतजार कर रही थी। उसने उजली को सिखा रखा था कि पापा आएँ तो पापा-पापा कहते हुए लिपट जाना। स्वयं उसने भी अच्छा नाश्ता बनाने की तैयारी कर रखी थी और निश्चित किया था कि वह पति को देखते ही एक मोहिनी मुस्कान मुस्कराएगी और उसकी बाँह पकड़े हुए उसे घर में ले आएगी।

दरअसल सरोज वर्मा को यह विश्वास हो गया था कि पति प्रमोद वर्मा में इस बीच आए परिवर्तन की वजह गृहस्थी से उसका मन उचाट हो जाना है। ऐसी स्थितियाँ पुरुष को या तो साधु बना देती हैं या पराई औरत के पीछे मँडराता भौंरा। अभी तो प्रमोद वर्मा साधु बनने की दिशा में उन्मुख था किंतु क्या ठिकाना वह भौंरा बन जाए. इसीलिए उसने शाम को पति को देखते ही अमिट मुस्कान की ठान रखी थी। साथ ही प्रमोद वर्मा के भीतर वात्सल्य पर प्रवाहित करने के उद्देश्य से बच्ची को भी प्रशिक्षित का डाला था।

घर के भीतर नाश्ता सजाकर उसने सामने रखा और उजली से बोली, "बेटी! जाओ पार्क में थोड़ी देर खेल लो।" उजली के जाने के बाद वह प्रमोद वर्मा की गोद में बैठ गई, "नाश्ते के बाद अपने आज के अनुभव सुनाना है आपको।"

झुँझलाहट से प्रमोद वर्मा की नसें तन गईं, "देखो, मेरा इस समय का अनुभव तो यह है कि मुझे तुम्हारा यह प्रेम करने का तरीका अच्छा नहीं लग रहा है। चौंतीस की अवस्था में तुम चौबीस की अवस्थावाला प्रेम कर रही हो। तुम एक दशक पीछे चली गई हो। तुम इतने दिन पत्नी की भूमिका निबाहने के उपरांत कुँवारी प्रेमिका बनने चली हो। कृपया मेरे जंघे से उतर जाओ. उम्र में तुम मुझसे छोटी हो किंतु आयतन और भार दोनों में कहीं मुझसे अधिक। 61 किलोग्राम का भार मेरा जंघा सह नहीं पा रहा है। वैसे भी स्त्रिायों के नितंब पुरुषों की तुलना में काफी वजनदार होते हैं।"

"अच्छा बाबा लो।" वह माहौल को तनावपूर्ण नहीं बनाना चाहती थी, इसलिए हँसते हुए उतर गई, "अच्छा, अब ऑफिस का अनुभव सुनाइए."

उसने बताना शुरू किया। सब कुछ बतलाने के बाद उसने वर्णन का उपसंहार निम्नलिखित शब्दों में किया, " मैंने सौ फीसदी तय कर लिया था कि इग्जीक्यूटिव इंजीनियर के सामने घनघोर असभ्यता करूँगा और सस्पैंड कर दिया जाऊँगा। पर जैसे ही उसके कमरे के पास पहुँचा, थर-थर काँपने लगा। बोलते समय तालू सूख गया और जीभ लड़खड़ाने लगी। मैं रोज से भी ज़्यादा डरपोक, विनम्र और चापलूस बन गया। कमरे से बाहर आया तो लगा कि मेरे भीतर उड़नेवाला साहस का परिंदा कहीं गायब हो गया है। यकीन मानो पूरे दिन ऑफिस में... साइट पर मैं काम करता रहा। पर असल में मैं अपनी हिम्मत की लापता चिड़िया को ढूँढ़ रहा था।

वह चिड़िया उसे मिल गई थी। बड़ा साहब अपनी स्टेनो राधा अग्रवाल को डिक्टेशन दे रहा था। प्रमोद वर्मा ने प्रतिदिन की तरह खड़ा रहने के बजाय कुर्सी खींची, वह भी भड़भड़ाहट के साथ और बैठ गया जबकि दो सहायक अभियंता खड़े थे। उनमें उसका सहायक अभियंता तिवारी भी था। बड़ा साहब डिक्टेशन देना बंद करके चिल्लाया, "ये क्या हरकत है?"

वह उससे भी अधिक गर्जना से चिल्लाया, "ये क्या हरकत है।"

बड़ा साहब बोला, "होश में हो?"

"देखो बड़ा साहब, ज़्यादा जोश में न आओ." उसने सिगरेट सुलगाई और हाथ हिलाकर तीली बुझाते हुए राधा अग्रवाल को देखकर आँख मार दी, "अरे कभी-कभी हमसे भी डिक्टेशन ले लिया करो।" राधा अग्रवाल इस तरह घबड़ा गई कि नोटबुक को घुटनों के बीच दबाकर पेंसिल से पीठ खुजाने लगी और दिन होता तो बड़ा साहब राधा अग्रवाल के घुटने के आसपास या पीठ के आसपास देखने लगता। थोड़ी देर देखने के बाद डाँटकर भगा देता पर आज उसने ध्यान नहीं दिया और प्रमोद वर्मा पर पिल पड़ा, "यह क्या बदतमीजी है। मैं अभी सस्पैंड कर दूँगा।"

"कहें तो सस्पैंड होने के लिए मैं प्रार्थनापत्र दे दूँ।"

बड़ा साहब हाँफने लगा, "तुम्हारा ब्लडप्रैशर तो ठीक है न?"

"एकदम ठीक। मेरा रक्तचाप अधिकतम 120 और न्यूनतम 80 है। यह आदर्श रक्तचाप है जिसे मैंने बिना किसी परहेज और अधिक नमक सेवन के बावजूद बनाए रखा है। हाँ, मैं कब्ज तथा वायु विकार का रोगी अवश्य हूँ।" यह कहकर वह बड़े साहब के सामने पड़ा पेपरवेट अपनी तरफ खींचकर उछालने लगा।

पेपरवेट द्वारा पिट जाने की आशंका से अथवा प्रमोद वर्मा के वायु विकार के प्रकट हो जाने के डर से बड़ा साहब शांत होने लगा। वह इतना शांत हुआ कि बोला, "पहले पानी पीजिए." थोड़ी देर के अंतराल के बाद कहा, "आप परेशानी में लगते हैं। हम आपके शुभचिंतक हैं। अब देखिए, मैं सोच रहा हूँ कि महकमे की सबसे बड़ी सड़क आप ही बनवाएँ।" उसने प्रमोद वर्मा से हाथ मिला लिया। कमरे में उपस्थित सहायक अभियंता और खड़ी राधा अग्रवाल सभी स्तब्ध थे और सभी की निगाह में प्रमोद वर्मा का रोब कई गुना बढ़ गया था।

पूरे ऑफिस में प्रमोद वर्मा से लोग खौफ खाने लगे थे। उसके आगे-पीछे दुम हिलाने लगे थे। जिस शख्स ने बड़े साहब को सरेआम बेइज्जत किया और उसके बदले में बड़ा काम पा गया हो, उसके क्या कहने! पंद्रह मिनट की अवधि ने उसे लोक निर्माण विभाग के इस कार्यालय का सन्नाम नेता बना दिया। उसका दिल टूट गया था। सस्पैंड होने की उसकी हसरत का अब क्या होगा। वह जिस दलदल से उबरना चाहता था, उसी में और धँस गया।

सस्पैंड होकर दो-तिहाई वेतन का मजा लेने का उसका सपना चकनाचूर हो चला था। उसे महसूस हो रहा था कि सुखी होना उसकी तकदीर में नहीं है। बहरहाल वह अभी परास्त नहीं हुआ था। उम्मीदर की एक हल्की-सी कौंध थी कि एक न एक दिन सस्पैंड हो जाएगा। वह प्रयत्न भी कर रहा था। उसी क्रम में एक दिन राधा अग्रवाल के सामने पहुँचा और लोफरों की तरह पंजों के बल घूमकर बोला, "राधा मेरी जान, इरादे क्या हैं।" इसके बाद उसने रंगीन रूमाल हवा में लहराकर झटके से नीचे कर लिया, "एकदम कटार हो कटार।" उसे आशा थी कि अब तो हर हालत में राधा अग्रवाल उसको चप्पलों से पीटेंगी और एकदम ऊपर तक शिकायत करेंगी। पर यह क्या राधा अग्रवाल तो मुस्कराने लगीं, "सर! आप बस खाली-पीली बातें करते हैं।" वह भौंचक्का था, 'मैंने राधा अग्रवाल को समझने में भूल की। यह तो बदचलन है।' उसने निश्चय किया कि भविष्य में इसको बहिनजी कहा करेगा और मिलने पर नजरें नीची करके करबद्ध नमस्कार करेगा।

अगले दिन वह कार्यालय शराब पीकर आ गया। आँखें लाल-लाल और चाल लड़खड़ाती। उच्च स्वर में लोगों को गालियाँ बकनी शुरू कर दीं। कुछ के बारे में कहा कि उन्हें गोली मार देगा। कुछ का गला काट डालने और कुछ को ठाँय से उड़ा देने की घोषणा की। रही-सही कसर उसने सहायक अभियंता तिवारी को झापड़ मारकर पूरी कर दी। इसके बाद ठेकेदार से दो दिन के लिए माँगे गए रिवाल्वर से हवाई फायर किया और वापस घर लौट आया।

अगले दिन वह पूर्ण विश्वास के साथ कार्यालय पहुँचा। उसे पक्का यकीन था कि अब तो उसे सस्पैंड करने की कार्यवाही शुरू ही हो जाएगी पर दुखद आश्चर्य कि कार्यालय में उसकी तूती बोल रही थी। बड़े साहब ने उसको कमरे में बुलाया, "मैं तो सोच रहा था कि तिवारी की तरह मेहरोत्रा को भी पीटोगे। यार, उसे भी एक दिन चार झापड़ रसीद देते।"

सरोज वर्मा अति प्रसन्न थी कि पतिजी, कोशिशों के बावजूद सस्पैंड नहीं हो सके. वैसे ऊपर से वह अफसोस जताती, "मैं तो भगवान से मनाया करती थी कि आप सस्पैंड हो जाते पर क्या करूँ, उसने सुनी ही नहीं। खैर, चिंता मत करें, आज नहीं तो कल सस्पैंड होकर रहेंगे।" इसके बाद वह गुपचुप ढंग से भगवान से निवेदन करती, "माफ करना भगवान, मैंने झूठ बोला। तुम इन्हें कभी मत सस्पैंड होने देना। इनका तो दिमाग फिर गया है। एकदम सनक गए हैं। अब इस भक्तिन की लाज तुम्हारे ही हाथों में है प्रभु।"

प्रभु की कृपा से अथवा किसी अन्य वजह से प्रमोद वर्मा का मन नौकरी में लगने लगा। वह मनोयोग से निर्माण में मशगूल हो गया। सरोज वर्मा संतुष्ट थी, जिस प्रकार से महाशय सस्पैंड होने से नौकरी करने पर आ गए हैं, उसी भाँति कालांतर में घूसखोरी पर भी लौट जाएँगे और जीवन की नैया बड़े मजे से चलती रहेगी।

लेकिन ऑफिस में भरपूर असंतोष पनपने लगा था... प्रमोद वर्मा से सहायक अभियंता ने दस क्रेट व्हिस्की माँगी, "बड़े साहब के बेटे की शादी के लिए चाहिए."

स्वयं बड़ा साहब वर्मा से बोला, "भाई खाने-पीने के मामले में कायस्थों से अधिक कौन जानता है। इसीलिए शादी के बाद रिसैप्शन के दिन खाने और 'पीने' का इंतजाम तुम्हारे हवाले।"

"साहब! मैंने छोड़ दी है। न पीता हूँ, न पिलाता हूँ। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने मदिरा को अनेक पापों का मूल बताया है। जहाँ तक भोजन सम्बंधी व्यवस्था का प्रश्न है, तो मैं कुछ उम्दा किस्स के कैटरर्स के बारे में जानकारी दे सकता हूँ, जो लजीज खाने के लिए खासे मशहूर हैं। जैसे नान वैजिटेरियन के लिए..."

"मजाक की बात छोड़ो वर्मा, सीरियस हो जाओ. यहाँ जे.ई. लोग लड़की तक सप्लाई कर देते हैं और तुम हो कि दारू और खाने के नाम पर नक्शा पाद रहे हो।"

"देखिए, वे न जे.ई. होते हैं, न इनसान। वे भड़ुवे होते हैं। वैसे किसी के गिरने की बात का क्या, आपकी ही पोस्ट पर बैठे एक बड़े साहब ने ट्रांसफर रुकवाने के लिए खुद अपनी ही बेटी सप्लाई कर दी थी... कृपया आप जान लें कि मैं प्रमोद वर्मा भड़ुवा-दल्लाल नहीं, इनसान है।"

और उस दिन तो विस्फोट ही हो गया। सड़क बनकर तैयार हो गई. ऑफिस में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई. इग्जीक्यूटिव इंजीनियर खुश था, सहायक अभियंता खुश था, एकाउंटेंट खुश था। कैशियर, क्लर्क, चपरासी सभी प्रसन्न थे कि कमीशन के रूप में मोटी धनराशि हाथ आएगी। सभी ने अपनी हैसियत के मुताबिक अपनी पत्नी और बच्चों से खरीददारी का वादा कर रखा था। इग्जीक्यूटिव इंजीनियर इस बात से भी आनंदित था कि उसके इलाके़ से ए.सी. साहब, चीफ इंजीनियर, इंजीनियर इन-चीफ और मंत्री, सभी तगड़ी रकम काटेंगे और मस्त हो जाएँगे। वे आनंद से झूम उठेंगे और उसको अधिक फलदार जनपद में स्थानांतरित कर देंगे। बस कनिष्ठ अभियंता प्रमोद वर्मा की रिपोर्ट मिलने की देर थी, उसके उपरांत तो युद्ध स्तर की तैयारी से ठेकेदार का चेक कटना था और कमीशन का बँटवारा होना था। लेकिन कनिष्ठ अभियंता प्रमोद वर्मा की रिपोर्ट ने उनकी सारी खुशियों को तबाह कर दिया था। उसने लिखा था कि सड़क के निर्माण में अनुबंध की शर्तों की घोर अवमानना की गई है। इसके साथ ही प्रतीत हुआ है कि प्रयुक्त सामग्री में भारी घपला हुआ है। यह सड़क कमजोर ही नहीं, दो कौड़ी की बनी है। इसके एवज में किया गया भुगतान जनता तथा सरकार के साथ विश्वासघात होगा।

सनसनी फैल गई. लोकनिर्माण विभाग हैरत में था कि ऐसा भी हो सकता है।

एक लंबे अरसे बाद प्रमोद वर्मा शराब पी रहा था। सरोज वर्मा तवे पर कबाब सेंक रही थी। उजली गणित का सवाल हल कर रही थी। वह नशे में आने लगा था। गिलास उठाकर बेटी से बोला, "बिटिया, ये घूस की शराब नहीं है। मैं अपनी तनख्वाह के पैसे से लाया हूँ।"

तभी धाँय-धाँय... गोलियाँ थमीं तो बाहर से गालियों की आवाजें आने लगीं। दरवाजा भी जोर-जोर से पीटा जा रहा था, "निकल साले महात्मा गांधी की औलाद..."

प्रमोद वर्मा, सरोज वर्मा, उजली-तीनों डबलबेड पर एक-दूसरे को पकड़े, साँस रोके सिमटे हुए थे। वे थरथरा रहे थे। बाहर से अब ईंट-पत्थर फेंके जाने लगे थे। ...

इग्जीक्यूटिव इंजीनियर ने ए.सी. साहब को कनिष्ठ अभियंता प्रमोद वर्मा को सस्पैंड कर देने का प्रस्ताव भेजा। ए.सी. ने चीफ को, चीफ ने इंजीनियर-इन-चीफ को लिखा। ठेकेदार के आग्रह पर मंत्री ने भी इंजीनियर-इन-चीफ को आदेश दिया। इंजीनियर-इन-चीफ ने चीफ को, चीफ ने ए.सी. को, ए.सी. ने इग्जीक्यूटिव इंजीनियर को भेजा कि उनके कार्यालय का कनिष्ठ अभियंता प्रमोद वर्मा सस्पैंड किया गया...

सरोज वर्मा पति से कहने लगी, "इससे तो अच्छा था कि आप इस्तीफा दे देते नौकरी से। चारों तरफ बेइज्जती हो रही है। रिश्तेदार हँस रहे हैं।"

"जो हँस रहे हैं वे नीच हैं। नीच लोग ही दूसरों के कष्ट पर हँसते हैं और हमें नीच लोगों की परवाह नहीं करनी चाहिए. जहाँ तक इस्तीफे का सवाल है तो पहले मैंने उसी मार्ग पर चलना चाहा था लेकिन तुम ही गिड़गिड़ाने लगी थीं। वैसे यदि तुमको इस्तीफा इतना ही प्रिय है तो मैं उसका रास्ता निकालता हूँ।"

सरोज वर्मा अवाक् रुआँसी-सी पति को देखने लगी। प्रमोद वर्मा ने अपनी बात जारी रखी, "हाँ, मैं अपने सस्पेंशन के खिलाफ कोर्ट से स्टे लाऊँगा। कोर्ट हर बात पर स्टे दे देता है। इस देश में एक दिन आएगा जब हत्यारा हत्या करने और चोर चोरी करने के अपने अधिकार के पक्ष में स्टे लाएगा। मुझे तो सौ फीसदी स्टे मिलेगा। यह अलग बात है कि उसके फौरन बाद मैं नौकरी से इस्तीफा देकर तुम्हारी मुराद पूरी कर दूँगा।"

वह काँप गई, "नहीं...नहीं, आप इस्तीफा मत दें। हमारे लिए सस्पेंशन ही उचित और लाभदायक है।"

प्रमोद वर्मा संतुष्ट हुआ, "और हाँ, तुम चिंता मत करो। मैं कल ही अपने एक संपादक दोस्त से मिलूँगा। उससे कहूँगा कि अपनी पत्रिका में मेरे साथ हुए अन्याय की खबर छापे और मुझे नौकरी दे दे। मैं लोकनिर्माण विभाग की चूलें हिलाकर रख दूँगा। पत्रकारिता लोकतंत्र का सबसे आदरणीय तथा निर्भीक स्तंभ है। मैं पत्रकार बनूँगा और समाज में भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष छेड़ूँगा।"

संपादक दोस्त ने गर्मजोशी के साथ स्वागत किया। गले लगा लिया था। उसके मुँह से भभका उमड़ पड़ रहा था। सूर्य अस्त होने के पहले ही दारू चढ़ाकर संपादन कर रहा था दोस्त।

"हाँ तो क्या समस्या है?"

"समस्या नहीं, समस्याएँ हैं। एक, यह कि मैं सस्पैंड कर दिया गया हूँ। मेरे साथ हुए इस अत्याचार को अपनी पत्रिका के माध्यम से उजागर करिए."

"उजागर हो जाएगा पर किसी अखबार में। पत्रिका में राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर का भंडाफोड़ छपता है।"

"दूसरी बात, अब मैं खाली हूँ। मेरा लिखने-पढ़ने का अनुभव है ही। मैं अनुरोध करता हूँ कि आप अपने यहाँ मुझे काम दे दीजिए."

"इसके बारे में कल बतलाऊँगा।"

अगले दिन उसने संपादक से मुलाकात की, "मेरी नौकरी का क्या हुआ?"

"मिल गई तुमको।"

"कब ज्वाइन करूँ?"

"अभी से काम शुरू कर दो। पर हाँ भई, एक बात साफ कर दूँ इसी वक्त कि हम एप्वाइंटमेंट लेटर नहीं दे सकेंगे।"

प्रमोद वर्मा खुशी से बोला, "धन्यवाद...धन्यवाद। नियुक्तिपत्र न देने के लिए धन्यवाद। कृपया किसी रजिस्टर पर मेरा नाम भी न दर्ज कराएँ।" वह हँसते हुए चिल्लाया, "श्रम कानूनों का उल्लंघन भी कभी-कभी कर्मचारी के लिए हितकारी हो जाता है।"

दोस्त क्रुद्ध हो गया, "तो मुझ पर फब्ती कस रहे हो?"

"नहीं, नहीं, आपको गलतफहमी हो गई. मुझे चाहिए ही नहीं नियुक्तिपत्र। मैं एक सस्पैंडेट सरकारी मुलाजिम हूँ, कानूनी तौर पर दूसरी नौकरी करने से मेरे केस का कबाड़ा हो जाएगा।"

"ठीक है, जगमोहन से मिल लो, वह तुम्हारी सीट बता देगा।"

वह संपादक के कमरे से निकला तो सभी लोगों ने सामूहिक रूप से सवाल किया, "एप्वाइंटमेंट लैटर पाए कि नहीं?"

"नहीं, आप लोगों को मिला है क्या?"

"नहीं।"

"तो आप लोग भी सस्पैंडेंड हैं क्या?"

"मतलब?"

"कुछ नहीं... कुछ नहीं..." वह सँभला।

उसने कुछ प्रसंग को बदलने तथा कुछ अपनी सीट पाने की गरज से पूछा, "जगमोहन कहाँ है?"

जगमोहन के कान में दर्द था, वह हकीम के पास गए थे। इधर-उधर एक सीट अपेक्षाकृत नई, खाली और साफ दिखाई पड़ी। उसने अनुमान लगाया, यही उसकी सीट है। वह बैठने के लिए नितंब नीचे झुका ही रहा था कि एक युवती आई, "कहिए, मेरी सीट पर क्यों बैठ रहे हैं?"

"मैं भूल गया था कि हर ऑफिस में युवतियों की सीट खाली और ऐसी होती हैं, जैसे उस पर कोई काम नहीं होता।" वह उठ खड़ा हुआ।

वह पछता रहा था कि उसे उस सीट पर एक बार बैठ तो जाना ही चाहिए था। युवती सुंदर है। उसके बैठने के स्थान पर बैठना कितना सुखद होता। उसने स्वयं को तसल्ली दी, किसी दिन चाहे देर तक ऑफिस में रहना पड़े, वह युवती की कुर्सी पर बैठेगा ज़रूर। जितनी जगह में वह बैठती होगी, ठीक उसी आयतन के भीतर धँस जाएगा।

उसके हृदय ने धिक्कारा कि वह एक शादीशुदा इनसान है। उसे इस प्रकार की कल्पनाएँ नहीं करनी चाहिए. क्योंकि इस प्रकार की कल्पनाएँ पराई स्त्री के प्रति कामोद्दीपन पैदा करती हैं।

उसने कान पकड़ा, "मैं अपनी पत्नी को ही प्यार करूँगा और पराई स्त्री के प्रति कामोद्दीपन नहीं पैदा होने दूँगा।"

रात वह पत्नी से बोला, "मुझे लगता है कि अब मैं सुखी हो सकूँगा। मेरी ऊब के दिन गए. उत्साह-उमंग की नई भोर मेरे जीवन की कुंडी खटखटा रही है।"

अगले दिन दफ्तर में काम ज़्यादा था और जो था, उसे आज ही करना कोई ज़रूरी नहीं था। इसीलिए वह कान कुलबुला रहा था। उसने सोचा खुजलाने, कान कुलबुलाने इत्यादि में कितना आनंद है, वह भी निःशुल्क। तभी एक लड़की उसके सामने आ खड़ी हुई. उसने बिजली-सी फुर्ती के साथ कान से उँगली हटा ली। उसे महसूस हुआ, कान कुलबुलाने का आनंद कितना क्षीण और तुच्छ है, नारी-सौंदर्य के सामने। लड़की बैठ गई. वह 'विवाह के पहले प्रेम करना घातक है लड़कियों के लिए' शीर्षक का लेख छपाने आई थी।

प्रमोद वर्मा बोला, "तो क्या विवाह के बाद प्रेम करना फायदेमंद है लड़कियों के लिए, देखिए इसका शीर्षक ठीक नहीं है। दूसरी बात मैं आपसे पूछना चाहता हूँ, बशर्ते बुरा न मानिएगा कि क्या आप किसी से प्रेम करती हैं?"

"नहीं।"

"पर आप इतने गर्व से क्यों इनकार कर रही हैं। यह इतनी घृणास्पद वस्तु नहीं है। वैसे यदि प्रेम नहीं करती हैं तो ज़रूर आप मुकेश के दर्द भरे गाने सुनती होंगी। लता मंगेशकर भी पसंद होंगी। यदि घर की आर्थिक स्थिति ठीक हुई तो आप पेंटिंग या बागवानी करती होंगी, नहीं तो क्रोशिया और स्वेटर बुनने में प्रवीण होंगी।"

"मैं आपके संपादक के शिकायत करूँगी कि आप वाहियात इनसान हैं।"

"देखिए, बहुत हुआ तो संपादक यहाँ से हटा देगा। मुझे कोई फर्क नहीं पड़नेवाला है क्योंकि मैं लोकनिर्माण विभाग का एक सस्पैंडेड जूनियर इंजीनियर हूँ। मुझे दो-तिहाई वेतन मिलता है। इसके अतिरिक्त ऊपर की कमाई से मैंने बैंक में सम्मानपूर्ण धनराशि एकत्र कर रखी है और यदि शेयर बाज़ार का कबाड़ा न हुआ होता तो मैं ठीकठाक धनवान होता। पर मेरे कहने का तात्पर्य यह नहीं कि मैं पैसे का रुतबा दिखलाकर आपको प्रभावित करने की चेष्टा कर रहा हूँ। वैसे भी भारतीय मर्यादा की बेड़ियों ने मेरी रूमानी संभावनाओं को जकड़ दिया है। जी हाँ, मेरा विवाह कुछ साल पहले संपन्न हो चुका है और मैं एक बेटी का बाप हूँ। मैं उम्र के उस पड़ाव पर हूँ जहाँ दरवाजे पर प्रेम नहीं, बीमारियों के कोंपल फूटते हैं।"

लड़की हँस पड़ी, "आपसे तो नाराज भी नहीं हुआ जा सकता। वैसे आपके ऑफिस छोड़ने का वक्त हो चुका है। हम बस स्टैंड तक साथ चल सकते हैं।"

दोनों कार्यालय से साथ निकले। दस कदम ही बढ़े होंगे, प्रमोद वर्मा खड़ा हो गया। लड़की भी ठिठक गई, "क्या है?"

"आपके बाल कितने लंबे हैं। कुर्सी पर बैठी थीं तो पता नहीं लगता था। ये वाकई बहुत लंबे हैं।"

लड़की को अच्छा लगा, "मेरे बाल लंबे तो हैं लेकिन घने नहीं है। यह काले भी नहीं हैं। सुनहले हैं।"

"सुनहले। यह तो बड़ी अच्छी बात है। सुनहले बाल तो परियों के होते हैं। संस्कृत साहित्य में ऐसी लड़कियों को मधुकेशी कहा गया है। जी हाँ, आप शहद जैसे बालोंवाली लड़की हैं, मधुकेशी।"

वे धीरे-धीरे चलने लगे। प्रमोद वर्मा अब गंभीर हो गया था। रास्ते भर वह अपनी जिह्वा से बौद्धिकता की रस-वर्षा करता रहा। लड़की विभोर थी। वह हैरत में थी कि यह आदमी इतना मसखरा और इतना बुद्धिमान, दोनों कैसे हैं। लड़की ने अब तक न ऐसा मसखरा देखा था, न ऐसा बुद्धिमान। प्रमोद वर्मा था कि बोलता ही जा रहा था। तभी बस आई और वह अद्भुत तत्परता से बस में चढ़ गया और हाथ हिलाकर टा...टा...ऽ करने लगा।

लड़की को दूसरी बस पकड़नी थी। उसकी माँ ने उसे रिक्शा के लिए भी पैसे दिए थे, इसलिए वह रिक्शा करने का भी मन बना रही थी। वह बस से गई या रिक्शे से यह प्रमोद वर्मा को मालूम न हुआ। वह बस में खड़ा-खड़ा बाहर के जड़ किंतु गतिशील-से लगते पदार्थों को निहारता हुआ भीड़ के धक्के खा रहा था। उस समय उसकी चेतना में धक्के और ठेलमठेल विराजमान थे। उसमें लड़की नहीं, घर जल्दी पहुँचने की इच्छा हिलोरें मार रही थी। घर पहुँचते-पहुँचते तो वह लड़की को भूल ही गया। कई दिन भूला रहा। वह इतवार की सुबह थी। वह नाश्ता करने के बाद काफी देर पढ़ता रहा फिर उसे अनुभव हुआ कि बैठे-बैठे उसका पेट फूल आया है। थोड़ी देर वह बेटी से इस आशय के साथ खेलता रहा कि उछल-कूछ में उसका पेट पिचक जाए. होना क्या था, थोड़ी-सी वायु किसी प्रकार बाहर निकलती और उसका पेट पिचक जाता, पर वैसा नहीं हो पाया, तो उसने सोचा कि सिगरेट पीते हुए टहला जाए.

दुकान पर सिगरेट जलाकर उसने टहलना शुरू किया। थोड़ी ही दूर चला होगा कि वह लड़की जल उठी। उसे पता नहीं था कि कल से ही उसके भीतर वह थी। बस अँधेरा होने के कारण दिखती नहीं थी और इसी क्षण वह लड़की उसके हृदय में चलने लगी।

अगले दिन सुबह वह ऑफिस के लिए बस से उतरा तो फिर लड़की हृदय में चलने लगी।

शाम वह लड़की आई उसके पास, "कहिए क्या हुआ मेरे लेख का, छापेंगे?"

"उस पर तो अभी विचार हो रहा है।" प्रमोद वर्मा ने कहा।

"आप सिर क्यों नहीं उठा रहे हैं?" प्रमोद वर्मा कुछ लिख रहा था। उसने आँखें ऊपर कीं, "इसलिए कि आप बहुत सुंदर हैं। सचमुच आप बहुत सुंदर हैं। आपको जितना ही देखूँगा उतना ही मैं व्याकुल होता जाऊँगा। आप मेरी घनिष्ठ होतीं तो मैं कह देता, आप बुरका पहनकर आया करें। सचमुच आपको मैं देखता हूँ तो व्याकुल हो जाता हूँ।"

"आपसे मुझे ऐसी उम्मीद नहीं थी।"

"भविष्य में आपको मुझसे ऐसी ही उम्मीद करनी चाहिए. पहले मैं दृढ़ आत्मबलवाला था लेकिन मैं महसूस करता हूँ कि मैं एक गिरा हुआ पतित इनसान हूँ। आप यकीन मानें, मैं कोई नैतिकता का पुजारी नहीं हूँ। इस मौके पर यह स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं समझ रहा हूँ कि मैं आपको कमोबेश प्यार करता हूँ।"

इसी तरह वह एक रेस्तराँ में बैठे थे। प्रमोद वर्मा ने कहा, "आप अग्नि की तरह देदीप्यमान रहती हैं। सच कहता हूँ, जो छुए सो जल जाए."

लड़की हँसी.

"विश्वास नहीं हो रहा है न। देखिए, मैं अभी आपको छूता हूँ और जल जाता हूँ।" उसने लड़की को छू लिया, "मैं जल गया। हाँ, मैं झुलस चुका हूँ। यदि आपमें अंतर्दृष्टि होती तो देखतीं, मेरे भीतर धुआँ-ही-धुआँ भरा है। लेकिन मैं ऐसा जला हूँ कि निखर गया हूँ, जैसे स्वर्ण निखर उठता है। हालाँकि मैं स्वर्ण नहीं ताँबा हूँ, पीतल हूँ, बल्कि मैं टीन हूँ, जो आपकी सोहबत में सोना बन गया।"

प्रमोद वर्मा हन दिनों काफी मुदित था। उसे लग रहा था कि यही वह नेमत है, जिससे वह वंचित था और सुखी नहीं महसूस कर रहा था अपने को। लेकिन अब उसके पास खुशियाँ-ही-खुशियाँ थीं। वह लड़की से कहता भी, "आपको लगता नहीं कि आप जब मुझसे मिलती हैं तो मैं कितना खुश हो जाता हूँ। मेरी आँखें कितनी चमक उठती हैं।" लड़की मुस्करा देती या हँस देती और वह बदस्तूर दीवाना हो जाता।

प्रमोद वर्मा के मित्र हैरत में थे कि कोई सस्पैंडेड मुलाजिम इतना प्रसन्न कैसे रह सकता है। जबकि सरोज वर्मा समझती थी कि यह प्रसन्नता नौकरी से मुक्ति पाने की आत्मिक संतुष्टि का द्योतक है। सरोज वर्मा को यह भी अच्छा लगता था कि पतिजी ने पिछले दिनों नियमित दंडबैठकों के माध्यम से तोंद पिचका ली थी और क्रोध कम करते थे। कुल मिलाकर सब कुछ प्रफुल्ल ढंग से व्यतीत हो रहा था। लग रहा था कि प्रमोद वर्मा पत्नी सरोज वर्मा की आँख में इसी प्रकार धूल झोंकता हुआ अनवरत प्रसन्न बना रहेगा लेकिन एक दिन मामला हत्थे से उखड़ गया।

हुआ यह कि छुट्टी की दोपहर थी और उसने चावल ज़्यादा खा लिया था। उसके हाथ-पाँव सुस्त पड़ने लगे। शरीर भारी हो गया और नींद आ गई. सोकर उठा तो पाया कि चावल पच गए हैं और उसे जुकाम हो गया है। घिनौने रूपवाला प्रगाढ़ जुकाम नहीं, बल्कि एकदम शुरू का मद्धिम और उदात्त जुकाम, जो मनुष्य को विकट त्यागी तथा गुरुगंभीर बना देता है उसमें दुख, प्रसन्नता, जीवन के प्रति दार्शनिक भाव पैदा करता है। ऐसे ही जुकाम के कारण धीरोदात्त बना, वह पैर हिलाते हुए सोच रहा था। सोचते-सोचते वह लड़की के बारे में सोच बैठा। लड़की के विषय में चिंतन की प्रक्रिया के दौरान ही उसमें आत्मभर्त्सना का सोता फूट पड़ा, 'मैं इस चक्कर में पड़कर हास्यास्पद होने के लिए क्यों आमादा हूँ। उम्र के इस पड़ाव पर मैं छिछोरेपन की हरकतें कर रहा हूँ।' उसने थोड़ी देर पाँव हिलाए, 'मैं भी कैसा मनुष्य हूँ, लड़की के इतराने पर, प्रेम-भरी आँखें नचाने पर, बात-बात पर धत् जाओ मैं नहीं बोलती, कहने पर, गाना गाने पर मुझे हँसी आनी चाहिए किंतु मैं मोहित होता हूँ।'

वह बेचैनी से टहलने लगा, 'मुझमें तो इस लड़की के लिए वात्सल्य उमड़-घुमड़ पड़ना चाहिए था लेकिन मैं शृंगार की डफली बजा रहा था। पके बाल, उन्नत तोंद, कठोर कब्ज, अपरंपार वायु विकार लिए हुए जब मैंने प्रणय निवेदन किया होगा तो कितना बड़ा मूर्ख और विदूषक लगा हूँगा।' उसका मन प्रेम से उचाट होने लगा। कठोर कब्ज के स्मरण से उसे इन दिनों तेजी से सिर उठा रहे अपने फिश्चुला का स्मरण हो आया। वह कराह उठा, 'यह फिश्चुला भी कितना मजाकिया रोग है। किसी को बताने में लज्जा आती है।' वह पीड़ा से बिलबिलाया, 'कितना कष्टकारी, घृणित और हँसोड़ रोग।' वह हँसने लगा। वह अपने रोग पर हँसा और उसमें साहस पैदा होने लगा। उसने रीढ़ सीधी करके स्वयं से कहा, 'मैं अब हिम्मत से काम लूँगा। प्रेम को समाप्त करूँगा और लोगों को अपने फिश्चुला का परिचय दूँगा।' वह बाहर निकल गया। पड़ोस के चाचाजी दिखे, जो धार्मिक व्यक्ति थे, हमेशा बुझे-बुझे रहते थे। उसने चाचाजी से कहा, "नमस्कार, मुझे फिश्चुला हो गया है।"

"ये क्या होता है बेटा?"

"इसे हिन्दी में भगंदर कहते हैं लेकिन दरअसल यह गुदा रोग है। इसमें मलद्वार के पास फोड़ा हो जाता है।"

चाचाजी बेसाख्ता हँसने लगे।

उसने कुछ दूसरे परिचितों को बतलाया कि उसको फिश्चुला है, तो वे भी दिल खोलकर हँसे। उसे आश्चर्य हुआ कि ये हमेशा मुँह लटकाए रखनेवाले संतप्त लोग थे, इतना हँस कैसे रहे हैं। उसको अपने फिश्चुला पर गर्व महसूस हुआ। यह दुखी, पीड़ितों, रो रहे लोगों को हँसा सकता है। उसने निश्चय किया कि वह इस मूल्यवान फिश्चुला को परेशान समुदाय को हँसाने का माध्यम बनाएगा। वह थोड़ी देर के लिए ही सही, लोगों को फिश्चुला के जरिए, खुशी प्रदान करेगा।

घर में आकर पत्नी से बोला, "मुझे फिश्चुला है भई."

"तो कौन-सी नई बात है। वह तो है ही।"

"वही तो मैं भी कह रहा हूँ कि मुझे फिश्चुला है।" वह गुनगुनाने लगा, "मुझे फिश्चुला है, फिश्चुला है...फिश्चुला है।"

सरोज वर्मा भी हँसने लगी। पत्नी के चेहरे पर यह हँसी उसे बड़ी ही पवित्र तथा मनोरम लगी। वह उसके प्रति असीम करुणा से भर उठा।

अगले दिन उसने ऑफिस फोन कर दिया कि वह देर से पहुँचेगा। उसके बाद वह अपने पुराने ठिकाने लोकनिर्माण विभाग पहुँच गया। वह वहाँ बहुत दिन बाद गया था, सहकर्मी पूछने लगे, "क्या हाल हैं वर्माजी."

"मजे में हूँ। फिश्चुला हो गया है, आराम से दिन कट रहे हैं।"

"ये फिश्चुला क्या बला है?"

"हिंदी में इसे भगंदर कहते हैं लेकिन दरअसल यह गुदा रोग है..."

सब हो...हो...हो... कर हँसने लगे। उसे संतोष हुआ और अपने कमरे में आया, जहाँ वह बैठता था। उसकी कुर्सी खाली थी। उसे उसने विरक्ति से देखा 'इसी पर मैं इतने वर्षों से बैठ रहा था और मुझे फिश्चुला हो गया। मेरे फिश्चुला की जननी है यह कुर्सी.' उसे तकलीफ हुई और दीवार पर टेक लगाकर झुक गया। बरदाश्त नहीं हुआ तो ट्वायलेट में घुसा और तकलीफ से ऐंठ गया। वह बाहर निकला तो इग्जीक्यूटिव इंजीनियर चरन साहब आते दिखे। उन्होंने पूछा, "कहो वर्मा, कैसे हो?"

"बस साहब ठीक हूँ। आजकल फिश्चुला हो गया है।" साहब मुस्करा उठे।

संपूर्ण लोकनिर्माण विभाग का वातावरण मनोरंजनमय हो गया था। लेन-देन, बेईमानी-चोरी के अहर्निश चक्कर में कुटिल बन गए वहाँ के कर्मियों के चेहरों पर फिश्चुला ने सहज हास ला दिया था। अर्से बाद इस महकमे में लोग निःस्वार्थ भाव से खुश हुए थे।

जब वह पत्रिका के दफ्तर पहुँचा तो दोपहर हो चुकी थी और संपादक लंच कर रहा था। वह उसके सामने खड़ा हो गया।

संपादक ने सिर उठाया और खाते-खाते पूछा, "कुछ काम है क्या प्रमोद?"

"जी हाँ, बात दरअसल यह है कि मैं रिपोर्टिंग में काम करना चाहता हूँ। अब डेस्क के काम से मुक्त करिए मुझको।"

"क्यों?"

"इसलिए कि मुझको फिश्चुला हो गया है जिससे बैठने में मुझे दिक्कत होती है।"

वह साथियों के बीच हाजिर हुआ। सब कम वेतन, असुरक्षित भविष्य के शिकंजे में जकड़े दीनहीन, धकियाए हुए, मुरझाए व्यक्तित्व थे। लंच में रोटी-सब्जी खाकर इस प्रतीक्षा में शांत बैठे थे कि कहीं से चाय की व्यवस्था हो जाती।

प्रमोद वर्मा ने घोषणा की कि वह सबको चाय पिलाना चाहता है।

"क्यों भई, नौकरी बहाल हो गई है क्या?"

"नहीं, फिर भी यदि वैसा हुआ तो वह मेरे लिए हर्ष नहीं विषाद का विषय होगा, मैं नौकरी में अठावन साल बाद एक्सटेंशन तो चाहता हूँ लेकिन हमेशा सस्पैंड बने रहने की कामना है मेरी। इस परिस्थिति में एक अप्रतिम आनंद है।"

"फिर क्या बात है, जो इतना चहक रहे हो?"

"मुझे फिश्चुला हो गया है। हिन्दी में इसे भगंदर कहते हैं लेकिन दरअसल यह गुदा रोग है..."

हँसते-हँसते लोट-पोट हो गए सब। उन्हें मजा लेने का एक शस्त्रा मिल गया।

लोग उससे पूछते, "कहिए प्रमोदजी, आपके फिश्चुला का क्या हाल-चाल है?"

वह कहता, "बढ़िया है... बढ़िया है... मजे में है वह।"

उसने संपादक से फिर कहा था कि बैठने से फिश्चुला दब जाता है और असह्य वेदना होने लगती है, इसलिए उसे रिपोर्टिंग में लगा दिया जाए.

संपादक ने ठहाका लगाते हुए कहा था, "विचार करूँगा।"

वह मन मसोसकर बैठा था कि जाने कब विचार का क्रियान्वयन होगा। वह फिर संपादक के कमरे में गया, "मेरा फिश्चुला दर्द कर रहा है। मुझे छुट्टी दे दीजिए आज की।"

वह बाहर सड़क पर खड़ा रिक्शे का इंतजार करने लगा। दूसरी दिशा से एक रिक्शा आकर खड़ा हुआ। उसमें से लड़की उतरने लगी। उसने उससे वहीं रहने का इशारा किया और खुद उसकी बगल में जा बैठा।

रिक्शे ने दोनों को एक रेस्तराँ के सामने उतार दिया। वे कोने की टेबल घेरकर आमने-सामने बैठे। प्रमोद वर्मा ने लड़को को देखा। लड़की आज चुस्त और चमकदार कपड़े नहने थी। उसके उभरे हुए प्रकट वक्ष मन-विचलनकारी लग रहे थे। कसी हुई जाँघों ने भी उसे डाँवाडोल बनाया। वह खड़ा हो गया, "मैं आपकी बगल में बैठना चाहता हूँ।" जाकर बैठ गया। लड़की थोड़ा दूर खिसकी। वह पास खिसका। उसने लड़की के हाथ देखे। वे खुले थे, गोरे थे, पर उन पर अवांछित बाल थे। उसे शंका हुई कहीं लड़की के मूँछें तो नहीं हैं हल्की-फुल्की। उसने सोचा, 'हो सकता है लड़की के पेट और पीठ पर बाल उगे हों।' वह वितृष्णा से भर उठा, 'मैं जहाँ बैठा था, वहीं बैठूँगा।' वह सामने जाकर बैठ गया। खुद को धिक्कारा ' आज कामदेव ने अपना बाण चला दिया था, किस तरह बच सका हूँ। उसमें लड़की के मामले में दुबारा आत्म-भर्त्सना तथा आत्म-व्यंग्य की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई. अंततः वह लड़की को लेकर मजाकिया भावों से सराबोर हो गया। लड़की की कुछ हरकतों की कल्पना की और हँस पड़ा।

"आप हँस क्यों रहे हैं?"

"कुछ नहीं, बस ऐसे ही।"

"अपना हाथ लाइए, मैं ज्योतिष से बता दूँगी, क्यों हँसे?"

लड़की ने हाथ पकड़कर नाटकीय ढंग से कहा, "इसलिए हँसे जनाब कि आपका वेतन बढ़नेवाला है।"

"बहुत सही बताया आपने।"

"और कुछ पूछना हो तो पूछ लीजिए."

"पूछूँ?"

"हाँ...हाँ..."

"तो बतलाइए." वह फिर हँसा, "मेरा फिश्चुला कब ठीक होगा?"

"ये क्या होता है?"

"फिश्चुला को हिन्दी में भगंदर कहते हैं। दरअसल यह गुदा रोग है। इसमें मलद्वार पर फोड़ा..."

"बस...बस...करिए..." लड़की खिसिया गई.

"इसमें शर्माने की कोई बात नहीं है। मल-मूत्र विसजन समाज के सभी प्राणी करते हैं। आप यकीन मानिए, मुझे फिश्चुला हो गया है। यह कोई खतरनाक बीमारी नहीं है पर इसमें दर्द बहुत होता है। खासकर बैठते समय। बैठने में भी दीर्घ शंका समाधान के साथ ज्यादा। फिश्चुला की एक विशेषता यह होती है कि यह आपरेशन के उपरांत ठीक हो जाता है किंतु अमूमन यह कुछ दिनों बाद फिर हो उठता है। कभी-कभी तो आपरेशन के बावजूद इनसान जीवन-भर फिश्चुला का शिकार बनकर तड़पता रहता है। हाँ तो अपनी ज्योतिष विद्या के आधार पर बतलाइए कि मेरा फिश्चुला कब ठीक होगा? और ठीक होने के बाद फिर तो नहीं उभर आएगा?"

लड़की ने कानों में उँगली ठूँस रखी थीं। चेहरा घबराहट और शर्म से बेहाल था। उसे प्रमोद वर्मा फूहड़ तथा क्रूर लग रहा था। वह रुआँसी हो गई. रोते हुए उठी। पर्स लेकर तेजी से भाग गई. वह मुस्कराया पर अचानक बुझ गया। वह उदास हो चला। उचाट आँखों से आसपास को देखा। पैसा चुकाकर बाहर निकल आया।

घर आते-आते वह असहनीय कष्ट से घिर गया था। फिश्चुला मर्मान्तक हो चला था। लगता था कि इस यातना से बेहतर प्राण त्याग देना होगा। वह चारपाई पर गिर पड़ा। उसके होंठ भिंचे हुए थे। शरीर की समस्त शक्ति दर्द को बरदाश्त करने में खर्च हो रही थी। वह काला पड़ता जा रहा था। सरोज वर्मा धीरे-धीरे उसका सिर सहला रही थी। वह लाश की तरह लेट गया और हाँफने लगा। सरोज वर्मा उसकी पैंट का बैल्ट खोलने लगी। पैंट उतारकर उसको लुंगी पहनाई.

"दवा लगा दो।" प्रमोद वर्मा कराहा।

सरोज वर्मा ट्यूब से मलहम निकालकर उसके फिश्चुला पर आहिस्ता-आहिस्ता मलने लगी।

प्रमोद वर्मा ने कराहते हुए निराशा से कहा, "आपरेशन कराना ही पड़ेगा।"

आपरेशन के बाद फिश्चुला फिर उदित हो गया था। पूर्व फिश्चुला की तरह ही नृशंस था यह। प्रमोद वर्मा तकलीफ, जुगुप्सा और डर की भावनाओं से घिरा हुआ था। उसे यह दुख भी था कि फिश्चुला मनोरंजक नहीं रह गया था। उसके जिक्र पर लोग अब हँसते नहीं थे। लोग उसकी बीमारी पर न सहानुभूति प्रकट करते थे, न हँसते थे। दरअसल फिश्चुला अपनी सृजनात्मकता खो चुका था।

प्रमोद वर्मा अब फिर पहले जैसा हो गया था। घर में पैर हिलाते हुए शून्य में ताका करता था अथवा ऊटपटाँग हरकतों में लिप्त रहता था। उसे इस बात का अफसोस था कि इतने दिनों के बाद भी गाड़ी वहीं-की-वहीं है। वही क्षोभ और ऊब, वही नीरस और बेस्वाद जिंदगी। सुख की शाश्वत अनुभूति तो दूर, उसकी झलक-भर से वह वंचित था। वह अपने बाल नोचता, 'कैसे मैं सुखी हूँगा?' हताशा से भर जाता था, 'क्या मैं कभी सुखी नहीं हो सकूँगा।'

सरोज वर्मा जीवनसाथी के अजीबोगरीब कारनामों का अवलोकन कर रही थी। वह डरी हुई थी कि सुख की तलाश में उसका पति पागल न हो जाए या वैराग्य न धारण कर ले, वरना उसकी भरी जवानी का क्या होगा। बच्ची का क्या होगा!

प्रमोद वर्मा एक दिन नहाकर निकला तो सरोज वर्मा नाश्ता लगाकर इंतजार करने लगी। देर तक न आने पर वह दूसरे कमरे में घुसी. देखा, वह एक चटाई पर पालथी मारकर आँखें मूँदे बैठा है। नाश्ता ठंडा होकर ऐंठ गया, तब वह खड़ा हुआ, "इसे ध्यान कहते हैं, इसके समुचित ढंग से करने पर सांसारिक विषयों का शमन हो जाता है और मनुष्य को सुख से भी बढ़कर 'आनंद' की अवस्था प्राप्त होती है।"

सांसारिक विषयों से पीछा छुड़ाने की बात पर सरोज वर्मा को पुनः अपनी भरी जवानी का खयाल आया। उसने उसे बाँहों में जकड़ लिया और चुंबनों की बौछार करते हुए अपने वक्ष के मीठे दबाव से उसके वस्त्रहीन बदन को धकेलते हुए शयनकक्ष में ले गई...

शयनकक्ष में प्रमोद वर्मा का तौलिया अकेला, निस्सहाय, परित्यक्त पड़ा हुआ था और प्रमोद वर्मा को लग रहा था... यही सुख है... आनंद है... इससे बड़ा... इसके अलावा दूसरा कुछ भी नहीं है...

थोड़ी देर की खामोशी के बाद सरोज वर्मा पलटी. उसको अपनी तरफ खींचा। उसकी छाती पर सिर रखकर सुबकने लगी। फिर अचानक उसे झिंझोड़ने लगी। पल-भर भी न बीता होगा, वह बेतहाशा चूम रही थी, "क्या अभी-अभी जो था, वह सुख नहीं था... सुख नहीं था... बोलो..."

"सुख नहीं था। वस्तुतः वह सुख नहीं था, सुख का छलावा था। यह कितना पल-भर के लिए था। सुख या आनंद क्षणभंगुर नहीं होता है। संभोग के सुख से अधिक स्थायित्व तो पूर्व फिश्चुला की दशा में था।"

लेकिन इस विवाद ने प्रमोद वर्मा में नामालूम कैसी रासायनिक क्रिया कर दी कि अगले दिन से जब भी वह ध्यान के लिए बैठता, उसको संभोग-सुख की याद आने लगती। रति क्रिया के विभिन्न बिंब उसके ध्यान का पटरा कर देते। थककर उसने निर्णय लिया, भोग में ही वास्तविक सुख है। बिना विलंब किए बैंक से धन निकाला और अनाप-शनाप खर्च करने लगा। वह बेमतलब दो महानगरों की यात्राएँ कर आया, जहाँ उसने कैबरे देखा था और जुआ खेला था। लोकमनिर्माण विभागवाले उससे तीन महँगी दावतें पाकर हतप्रभ थे। सहायक अभियंता तिवारी का कथन था कि उसकी ज़रूर कोई लाटरी निकली है। जबकि बड़े साहब चरन साहब का मत था कि वह किसी बड़े तस्कर गिरोह का सदस्य बन गया है। ठेकेदारों की सामूहिक राय थी कि उसको अथाह गढ़ा धन हासिल हुआ है। वह इन टिप्पणियों से बेपरवाह पैसे लुटा-लुटाकर गुलछर्रे उड़ा रहा था और बिला नागा प्रतिदिन सरोज वर्मा के साथ सहवास कर रहा था।

सरोज वर्मा उस समय सन्नाटे में आ गई, जब प्रमोद वर्मा ने उससे आग्रह किया, "चलो नाचा जाए." जबकि नृत्य कला में दोनों ही अज्ञानी थे।

प्रमोद वर्मा नाचने के नाम पर बस अपने हिप हिला रहा था और सरोज वर्मा राजाओं को हवा देनेवाले चँवर की तरह टुटरूँ-टूँ डोल रही थी।

नाचते हुए प्रमोद वर्मा को महसूस हुआ, "मैं क्या चुतियापा कर रहा हूँ। ' वह कुर्सी पर बैठकर हाँफने लगा," नहीं...नहीं...इन सबमें सुख नहीं है..."

"मैं भी सोचती थी कि जब नाचना आता ही नहीं तो फिर नाचने में सुख कैसा।"

प्रमोद वर्मा ने विरक्ति से देखा, "मैं केवल नाचने की बात नहीं कह रहा हूँ। मैं कह रहा हूँ कि भोग में सुख नहीं है।"

"तब किसमें है?" सरोज वर्मा झुँझला गई.

"शायद त्याग में।"

"तो अपना फिश्चुला क्यों नहीं त्याग देते।" वह चिढ़कर बोली।

"फिश्चुला को त्याग सकना मेरे वश में नहीं है, लेकिन तुम्हें त्याग सकना मेरे वश में अवश्य है।"

सरोज वर्मा की रूह फना हो गई. वह सो रही उजली को छाती से लगाकर एकांत में देर तक रुदन करती रही। असुरक्षा-बोध ने उसे इतना जकड़ा कि वह गंडे-ताबीज के चक्कर में फँसने का निश्चय कर बैठी।

लेकिन प्रमोद वर्मा पर किसी चीज का असर नहीं हो रहा था। हाँ, 'त्याग' से जल्दी ही उसकी आस्था उखड़ गई थी, किंतु वह एकांतवास और मौन पर अटक गया था। वह कहता, "शब्द में ऊर्जा है। मौन अनंत ऊर्जा का भंडारण करता है। जब भंडारण यथोचित हो चलेगा तो सुख-ही-सुख होगा।"

बाद में 'मौन' से भी नाउम्मीद होकर वह वाचालता और मिलनसारी में रम गया था। उसका तर्क था, 'ये इनसान क्या हैं, ईश्वर की संतानें हैं। इन्हीं में घुलने-मिलने से सुख की उपलब्धि होगी!' अब वह घर से जल्दी निकल जाता और देर से आता। पत्रिका कार्यालय में वह मौका मिलते ही लोगों से गप्प लड़ाने लगता था। पत्रिका कार्यालय बंद होने के बाद वह लोगों से मुलाकात करने निकल पड़ता था। कभी किसी के घर, कभी किसी के घर। नतीजतन उसका दांपत्य जीवन विस्फोटक होने लगा था। भोगवाले दिनों की समाप्ति के पश्चात् सरोज वर्मा पति के साथ घूमने नहीं निकल पाई थी। उजली भी पापा के साथ घूमने के लिए ठान बैठी थी। अतः सरोज वर्मा ने तय किया कि वह पति से दुखड़ा कहकर रहेगी। कोई तुक होती है घर से बाहर रहने की।

मगर उस दिन अप्रत्याशित रूप से प्रमोद वर्मा पत्रिका कार्यालय से सीधा घर आ गया। थका-बुझा सा... हारा...हारा-सा।

"क्या बात है?" सरोज वर्मा उसके बालों को दुलारने लगी।

"देखो, मेरे बाल मत खींचो। ये वैसे ही बुरी तरह टूट रहे हैं। वैसे भी जानती हो कि मुझको प्यार-मोहब्बत के ये चोंचले अच्छे नहीं लगते हैं। रही बात कि बात क्या है तो मैं क्या बताऊँ कि बात क्या है।"

रात को बताई उसने बात। खाने की मेज पर उसने कहा, "सरोज, मेरा खाने का मन नहीं है।"

"थोड़ा-सा खा लो पापा।" उजली ने भी आग्रह किया।

"नहीं बेटे, मन नहीं है।"

मेज पर बड़ी देर तक मौन बैठा रहा।

प्रमोद वर्मा बोला, "सरोज, मैं क्या करूँ। मेरा मन नहीं लगता किसी चीज में, मुझे लगता है कि मुझे कुछ चाहिए. क्या है वह जो मुझे चाहिए, यह मुझे पता नहीं है। सरोज, मैं सुखी नहीं हूँ। मेरी आत्मा अक्सर मुझको मथती हैं और मैं परेशान हो जाता हूँ। वाकई मैं सुखी नहीं हूँ। मैं क्या करूँ सरोज!"

सरोज वर्मा ने सोच-विचार के बाद कहा, "किसी बूढ़े-बुजुर्ग से पूछो।"

वह खुश हुआ, "वाह सरोज!" वह उजली को उछालने लगा, "मुझे पहले क्यों न सूझी, बिटिया।"

अगले दिन पत्रिका कार्यालय में घुसते ही संपादक के पास पहुँचा, "एक काम था।" संपादक बोला, "छुट्टी चाहिए न, फिश्चुला बढ़ गया क्या?"

"नहीं, मुझे यह जानकारी चाहिए कि इस शहर में सबसे अधिक उम्र का व्यक्ति कौन है?"

"वाह! इस शहर में सबसे अधिक उम्र की एक बुढ़िया है, जो एक सौ बारह साल की है। वह नदी-किनारे रहती है और उसके दाँत अभी टूटे नहीं हैं। लोग कहते हैं कि वह बच्चों का टोना उतारती है। कोढ़, मिर्गी के मरीजों को छू देती है तो वे ठीक हो जाते हैं। अर्धरात्रि में उसके श्मशान घाट जाने के बारे में भी बताया जाता है।"

"एक निवेदन और मझे आज की छुट्टी दे दीजिए."

"क्यों, तुम्हारा फिश्चुला तो बढ़ा नहीं?"

"फिश्चुला की बात नहीं है। मुझे एक सौ बारह साल की बुढ़िया से मिलना है, जो नदी-किनारे रहती है और जिसके दाँत अभी टूटे नहीं हैं।"

वह बुढ़िया से मिलने चला जा रहा था, तभी यकायक, कई दिनों बाद लड़की टकरा गई. दोनों इस तरह आमने-सामने हुए कि कतराने का विकल्प बचता ही नहीं था।

"कहाँ जा रहे हैं आप इतनी तेजी में?" लड़की ने ही शुरुआत की।

"मैं एक सौ बारह साल की बुढ़िया से मिलने जा रहा हूँ।"

"अब बुढ़िया से ही मिलना रह गया है।"

"मैं तुम्हारी इस बात का जवाब देता, पर ज़रा जल्दी में हूँ।"

"और आपकी तबीयत कैसी है।" लड़की ग़लत सवाल कर बैठी।

"आपरेशन के बाद फिर उभर आया है फिश्चुला।" वह मुस्कराया, "यह आपको मालूम ही होगा कि इसे हिन्दी में भगंदर कहते हैं। यह गुदा रोग है..."

लड़की शर्म से पसीना-पसीना हो गई.

"तबियत के बारे में पूछने के लिए धन्यवाद।" वह एक सौ बारह साल की बुढ़िया से मिलने के लिए आगे बढ़ गया, जो नदी-किनारे रहती थी और जिसके दाँत अभी टूटे नहीं थे।

बुढ़िया नदी-किनारे रहती थी और सचमुच उसके दाँत टूटे नहीं थे। सबसे बड़ी बात उसके हाथों में ताकत और आँखों में रोशनी थी। वह पीढ़े पर बैठी किसी लकड़ी से अपनी पीठ खुजला रही थी।

कुछ कोढ़ी और कुछ मिर्गी के मरीज कमरे में बैठे बुढ़िया को निहार रहे थे। इक्का-दुक्का बच्चे भी अभिभावकों के साथ आए थे। सब बुढ़िया को बुढ़िया कह रहे थे। गोया बुढ़िया को यह सम्बोधन बहुत पसंद था।

पीठ खुजला चुकने के बाद बुढ़िया ने पानी पिया। फिर वह गुनगुनाने लगी। किसी पुराने लोकगीत की धुन थी।

प्रमोद वर्मा ने आवाज दी, "बुढ़ियाजी, नमस्कार।"

बुढ़िया ने हिकारत से कहा, "जा...जा... उस कोने में बैठ।"

थोड़ी देर बाद वह पीढ़े से उठी। कमर कमान जैसी झुकी थी। वह एक-एक के पास जा रही थी। उसका सिर सहला रही थी। स्पर्श कराने के बाद लोग बाहर हो जा रहे थे। आखिर में सिर्फ़ वह बचा। बुढ़िया उसके पास आई, "बोल, तुझे कोढ़ है कि मिर्गी?"

प्रमोद वर्मा घबड़ाया, "मुझे न कोढ़ है, न मिर्गी। मुझे फिश्चुला है। पर मैं यहाँ इलाज कराने नहीं, कुछ पूछने आया हूँ।"

वह कमर पर हाथ रखकर सिर हिलाने लगी। जाकर फिर पीढ़े पर बैठ गई और हाँफने लगी। हाँफ चुकने के बाद गरजी, "बोल, क्या पूछता है?"

"बुढ़िया, मैं सुखी नहीं हूँ। किसी चीज में मन नहीं लगता। भटकता रहता है मन। हमेशा खाली-खाली महसूस करता हूँ। उदास रहता हूँ। बुढ़िया, मैं बहुत परेशान हूँ। कई महीनों से सुख खोज रहा हूँ। जगह-जगह ढूँढ़ा। भाँति-भाँति से ढूँढ़ा, पर वह मिल नहीं रहा है। बता बुढ़िया, मैं सुखी कैसे हूँगा?"

बुढ़िया बड़ी देर सोचती रही। सोचती रही और आँखें मुलमुलाती रही। अचानक तमतमाकर खड़ी हो गई, "हुँह, बड़ा चला है सुखी होने। बोल बेवकूफ, कभी तू दुखी हुआ है? बोल, कभी सच्चे मन से दुखी हुआ है?"

प्रमोद वर्मा को लगा, बेहोश हो जाएगा। हथेलियों में सिर थामकर बैठ गया।

"मैं आज तक दुखी नहीं हुआ।" वह पसीना-पसीना हो गया। हल्का-हल्का काँप भी रहा था।

"दुख का मतलब जानता है मूरख। फोड़ा-फुंसी, बुखार बेरागी, या बीवी-बच्चों को डाँट देने से होनेवाला दुख नहीं, हमेशा चौबीस घंटों का दुख। हमेशा आत्मा को मथते रहनेवाला दुख। सुख को खोजेगा तो अपने को छलेगा। दुखी बन।"

वह बाहर आया। बीहड़ बरसात हो रही थी। बादल बिजली की चमक के साथ गरज रहे थे। तेज हवा थी। पेड़-पौधे जोर-जोर से झूम रहे थे। वह भीगते हुए चल पड़ा।

वह जल्दी-से-जल्दी दुखी होने का यत्न कर रहा था। वह गरीबों की बस्ती में गया, अस्पताल, अनाथालय गया और विधवाश्रम भी हो आया। पथरीली जमीनवाले इलाके़ में अकाल का हाहाकार था, वहाँ भी पहुँचा था। सब जगह दुख था। महँगाई, दंगा, बेटे की नौकरी, बेटी के ब्याह के चंगुल में फँसे लोगों का वह गौर से मुआयना करता था। लेकिन वह हतप्रभ था कि उसे कुछ होता ही नहीं था। वह अपनी ही निगाहों में गिरने लगा। इस बीच उसे बुखार ने भी दबोच लिया था।

बुखार के कारण उसका शरीर तप रहा था। रात उसे कई छींकें आईं और नाक सुड़सुड़ाने लगी। थोड़ी देर बाद बुखार से वह जलने लगा था।

सरोज वर्मा उजली के साथ दवा खरीदने गई थी। वह कंबल ओढ़कर लेटा था। उसकी नाक सुड़सुड़ाने लगी। अभी वह लगातार कई बार उठ-उठकर नाक छिनक चुका था। अतः इस बार भीतर-ही-भीतर सुड़क डाला वह बहुत अकेला पा रहा था। लग रहा था जैसे कोई भारी आवरण उसे घर रहा है। उसकी पलकें भारी-सी होने लगीं। वह बुदबुदाया, 'मैं कभी दुखी नहीं हो सकूँगा, न सुखी।' उसने सोचा, 'कितने साल हो गए होंगे, मुझे कभी पश्चात्ताप नहीं हुआ।' वह नींद और जागने के बीच की स्थिति में था। वह स्वप्न और यथार्थ की मिली-जुली अवस्था में था। धुँधला-धुँधला-सा सोच रहा था, 'मेरे पास आँसू भी नहीं बचे। बचपन के बाद मैं रोया ही नहीं।' वह उद्विग्न था, 'क्या जमाना आ गया है, लोग न रोते हैं, न पश्चात्ताप करते हैं।'

सरोज वर्मा दवा लेकर आ गई. रास्ते में पत्रिका कार्यालय फोन कर दिया था पति की छुट्टी के लिए. उसने दवा की गोलियाँ पति को दीं। प्रमोद वर्मा उन्हें गटक गया। देर तक लेटे-लेटे वह ऊब गया था। वहीं बिस्तर पर उकड़ूँ बैठ गया।

सरोज वर्मा ने सुझाव दिया, "ऐसे मत बैठिए, फिश्चुला दर्द करने लगेगा।"

वह उसी तरह बैठा रहा। नामालूम क्या सोचता रहा कि रुआँसा हो गया, "सरोज... सरोज... मैं क्या करूँ, मुझे कुछ अच्छा नहीं लगता। कुछ सुंदर नहीं लगता।"

सरोज वर्मा ने उसकी गरदन में बाँहें डाल दीं। प्रमोद वर्मा का सिर छोटे बच्चे की तरह अपने वक्ष से लगा लिया और सहलाने लगी, "क्या होता जा रहा है आपको... क्या होता जा रहा है... मैं फिर कहती हूँ कि आपको मेरी, उजली की रत्ती-भर परवाह नहीं है..."

उजली अपने नाम का जिक्र सुनकर उत्साहित हो गई, "पापा...पापा... आप कब दुखी होंगे?"

"कभी नहीं बिटिया।"

"ऐसा न बोलिए." सरोज वर्मा ने भारतीय नारी की तरह इतराते हुए धीरज बँधाना शुरू किया, "आप चिंता मत करिए. आप एक दिन ज़रूर दुखी होंगे। ईश्वर के घर में देर है मगर अंधेर नहीं है। वह आपको ज़रूर दुखी बनाएगा। मैं सोमवार का व्रत रखूँगी। शंकर जी से माँगूँगी कि आपको दुखी बनाएँ।"

"कोई फायदा नहीं। किसी भी तरह मेरा दुखी होना, यानी कि मेरा सुखी हो सकना किसी भी तरह मुमकिन नहीं है।" वह पुनः उकड़ूँ बैठ गया, "क्योंकि मेरी आत्मा खो गई है। मुझे यह पता भी नहीं कि वह कहाँ खोई. पहले मैं अक्सर उसे निकालकर रख देता था, इसी में वह कहीं खो गई. लोकनिर्माण विभाग के दफ्तर में, सड़क पर या किसी यात्रा में, पता नहीं कहाँ मैंने उसे अपने से अलग रखा और वह खो गई..." उसकी आँखों के सामने अँधेरा छाता जा रहा था। सब कुछ डूबता हुआ-सा लग रहा था।

अचानक उसके फिश्चुला में जोरों का दर्द हुआ। उससे सँभल पाता कि मितली आने लगी। वह ओ...ओ... करके उठा। भागते हुए बाशबेसिन तक गया और उलटी करने लगा। दुर्गन्ध से भरी हुई ढेर सारी उलटी.

प्रमोद वर्मा के मित्र हैरत में थे कि कोई सस्पैंडेड मुलाजिम इतना प्रसन्न कैसे रह सकता है। जबकि सरोज वर्मा समझती थी कि यह प्रसन्नता नौकरी से मुक्ति पाने की आत्मिक संतुष्टि का द्योतक है। सरोज वर्मा को यह भी अच्छा लगता था कि पतिजी ने पिछले दिनों नियमित दंडबैठकों के माध्यम से तोंद पिचका ली थी और क्रोध कम करते थे। कुल मिलाकर सब कुछ प्रफुल्ल ढंग से व्यतीत हो रहा था। लग रहा था कि प्रमोद वर्मा पत्नी सरोज वर्मा की आँख में इसी प्रकार धूल झोंकता हुआ अनवरत प्रसन्न बना रहेगा लेकिन एक दिन मामला हत्थे से उखड़ गया।

हुआ यह कि छुट्टी की दोपहर थी और उसने चावल ज़्यादा खा लिया था। उसके हाथ-पाँव सुस्त पड़ने लगे। शरीर भारी हो गया और नींद आ गई. सोकर उठा तो पाया कि चावल पच गए हैं और उसे जुकाम हो गया है। घिनौने रूपवाला प्रगाढ़ जुकाम नहीं, बल्कि एकदम शुरू का मद्धिम और उदात्त जुकाम, जो मनुष्य को विकट त्यागी तथा गुरुगंभीर बना देता है उसमें दुख, प्रसन्नता, जीवन के प्रति दार्शनिक भाव पैदा करता है। ऐसे ही जुकाम के कारण धीरोदात्त बना, वह पैर हिलाते हुए सोच रहा था। सोचते-सोचते वह लड़की के बारे में सोच बैठा। लड़की के विषय में चिंतन की प्रक्रिया के दौरान ही उसमें आत्मभर्त्सना का सोता फूट पड़ा, 'मैं इस चक्कर में पड़कर हास्यास्पद होने के लिए क्यों आमादा हूँ। उम्र के इस पड़ाव पर मैं छिछोरेपन की हरकतें कर रहा हूँ।' उसने थोड़ी देर पाँव हिलाए, 'मैं भी कैसा मनुष्य हूँ, लड़की के इतराने पर, प्रेम-भरी आँखें नचाने पर, बात-बात पर धत् जाओ मैं नहीं बोलती, कहने पर, गाना गाने पर मुझे हँसी आनी चाहिए किंतु मैं मोहित होता हूँ।'

वह बेचैनी से टहलने लगा, 'मुझमें तो इस लड़की के लिए वात्सल्य उमड़-घुमड़ पड़ना चाहिए था लेकिन मैं शृंगार की डफली बजा रहा था। पके बाल, उन्नत तोंद, कठोर कब्ज, अपरंपार वायु विकार लिए हुए जब मैंने प्रणय निवेदन किया होगा तो कितना बड़ा मूर्ख और विदूषक लगा हूँगा।' उसका मन प्रेम से उचाट होने लगा। कठोर कब्ज के स्मरण से उसे इन दिनों तेजी से सिर उठा रहे अपने फिश्चुला का स्मरण हो आया। वह कराह उठा, 'यह फिश्चुला भी कितना मजाकिया रोग है। किसी को बताने में लज्जा आती है।' वह पीड़ा से बिलबिलाया, 'कितना कष्टकारी, घृणित और हँसोड़ रोग।' वह हँसने लगा। वह अपने रोग पर हँसा और उसमें साहस पैदा होने लगा। उसने रीढ़ सीधी करके स्वयं से कहा, 'मैं अब हिम्मत से काम लूँगा। प्रेम को समाप्त करूँगा और लोगों को अपने फिश्चुला का परिचय दूँगा।' वह बाहर निकल गया। पड़ोस के चाचाजी दिखे, जो धार्मिक व्यक्ति थे, हमेशा बुझे-बुझे रहते थे। उसने चाचाजी से कहा, "नमस्कार, मुझे फिश्चुला हो गया है।"

"ये क्या होता है बेटा?"

"इसे हिन्दी में भगंदर कहते हैं लेकिन दरअसल यह गुदा रोग है। इसमें मलद्वार के पास फोड़ा हो जाता है।"

चाचाजी बेसाख्ता हँसने लगे।

उसने कुछ दूसरे परिचितों को बतलाया कि उसको फिश्चुला है, तो वे भी दिल खोलकर हँसे। उसे आश्चर्य हुआ कि ये हमेशा मुँह लटकाए रखनेवाले संतप्त लोग थे, इतना हँस कैसे रहे हैं। उसको अपने फिश्चुला पर गर्व महसूस हुआ। यह दुखी, पीड़ितों, रो रहे लोगों को हँसा सकता है। उसने निश्चय किया कि वह इस मूल्यवान फिश्चुला को परेशान समुदाय को हँसाने का माध्यम बनाएगा। वह थोड़ी देर के लिए ही सही, लोगों को फिश्चुला के जरिए, खुशी प्रदान करेगा।

घर में आकर पत्नी से बोला, "मुझे फिश्चुला है भई."

"तो कौन-सी नई बात है। वह तो है ही।"

"वही तो मैं भी कह रहा हूँ कि मुझे फिश्चुला है।" वह गुनगुनाने लगा, "मुझे फिश्चुला है, फिश्चुला है...फिश्चुला है।"

सरोज वर्मा भी हँसने लगी। पत्नी के चेहरे पर यह हँसी उसे बड़ी ही पवित्र तथा मनोरम लगी। वह उसके प्रति असीम करुणा से भर उठा।

अगले दिन उसने ऑफिस फोन कर दिया कि वह देर से पहुँचेगा। उसके बाद वह अपने पुराने ठिकाने लोकनिर्माण विभाग पहुँच गया। वह वहाँ बहुत दिन बाद गया था, सहकर्मी पूछने लगे, "क्या हाल हैं वर्माजी."

"मजे में हूँ। फिश्चुला हो गया है, आराम से दिन कट रहे हैं।"

"ये फिश्चुला क्या बला है?"

"हिंदी में इसे भगंदर कहते हैं लेकिन दरअसल यह गुदा रोग है..."

सब हो...हो...हो... कर हँसने लगे। उसे संतोष हुआ और अपने कमरे में आया, जहाँ वह बैठता था। उसकी कुर्सी खाली थी। उसे उसने विरक्ति से देखा 'इसी पर मैं इतने वर्षों से बैठ रहा था और मुझे फिश्चुला हो गया। मेरे फिश्चुला की जननी है यह कुर्सी.' उसे तकलीफ हुई और दीवार पर टेक लगाकर झुक गया। बरदाश्त नहीं हुआ तो ट्वायलेट में घुसा और तकलीफ से ऐंठ गया। वह बाहर निकला तो इग्जीक्यूटिव इंजीनियर चरन साहब आते दिखे। उन्होंने पूछा, "कहो वर्मा, कैसे हो?"

"बस साहब ठीक हूँ। आजकल फिश्चुला हो गया है।" साहब मुस्करा उठे।

संपूर्ण लोकनिर्माण विभाग का वातावरण मनोरंजनमय हो गया था। लेन-देन, बेईमानी-चोरी के अहर्निश चक्कर में कुटिल बन गए वहाँ के कर्मियों के चेहरों पर फिश्चुला ने सहज हास ला दिया था। अर्से बाद इस महकमे में लोग निःस्वार्थ भाव से खुश हुए थे।

जब वह पत्रिका के दफ्तर पहुँचा तो दोपहर हो चुकी थी और संपादक लंच कर रहा था। वह उसके सामने खड़ा हो गया।

संपादक ने सिर उठाया और खाते-खाते पूछा, "कुछ काम है क्या प्रमोद?"

"जी हाँ, बात दरअसल यह है कि मैं रिपोर्टिंग में काम करना चाहता हूँ। अब डेस्क के काम से मुक्त करिए मुझको।"

"क्यों?"

"इसलिए कि मुझको फिश्चुला हो गया है जिससे बैठने में मुझे दिक्कत होती है।"

वह साथियों के बीच हाजिर हुआ। सब कम वेतन, असुरक्षित भविष्य के शिकंजे में जकड़े दीनहीन, धकियाए हुए, मुरझाए व्यक्तित्व थे। लंच में रोटी-सब्जी खाकर इस प्रतीक्षा में शांत बैठे थे कि कहीं से चाय की व्यवस्था हो जाती।

प्रमोद वर्मा ने घोषणा की कि वह सबको चाय पिलाना चाहता है।

"क्यों भई, नौकरी बहाल हो गई है क्या?"

"नहीं, फिर भी यदि वैसा हुआ तो वह मेरे लिए हर्ष नहीं विषाद का विषय होगा, मैं नौकरी में अठावन साल बाद एक्सटेंशन तो चाहता हूँ लेकिन हमेशा सस्पैंड बने रहने की कामना है मेरी। इस परिस्थिति में एक अप्रतिम आनंद है।"

"फिर क्या बात है, जो इतना चहक रहे हो?"

"मुझे फिश्चुला हो गया है। हिन्दी में इसे भगंदर कहते हैं लेकिन दरअसल यह गुदा रोग है..."

हँसते-हँसते लोट-पोट हो गए सब। उन्हें मजा लेने का एक शस्त्रा मिल गया।

लोग उससे पूछते, "कहिए प्रमोदजी, आपके फिश्चुला का क्या हाल-चाल है?"

वह कहता, "बढ़िया है... बढ़िया है... मजे में है वह।"

उसने संपादक से फिर कहा था कि बैठने से फिश्चुला दब जाता है और असह्य वेदना होने लगती है, इसलिए उसे रिपोर्टिंग में लगा दिया जाए.

संपादक ने ठहाका लगाते हुए कहा था, "विचार करूँगा।"

वह मन मसोसकर बैठा था कि जाने कब विचार का क्रियान्वयन होगा। वह फिर संपादक के कमरे में गया, "मेरा फिश्चुला दर्द कर रहा है। मुझे छुट्टी दे दीजिए आज की।"

वह बाहर सड़क पर खड़ा रिक्शे का इंतजार करने लगा। दूसरी दिशा से एक रिक्शा आकर खड़ा हुआ। उसमें से लड़की उतरने लगी। उसने उससे वहीं रहने का इशारा किया और खुद उसकी बगल में जा बैठा।

रिक्शे ने दोनों को एक रेस्तराँ के सामने उतार दिया। वे कोने की टेबल घेरकर आमने-सामने बैठे। प्रमोद वर्मा ने लड़को को देखा। लड़की आज चुस्त और चमकदार कपड़े नहने थी। उसके उभरे हुए प्रकट वक्ष मन-विचलनकारी लग रहे थे। कसी हुई जाँघों ने भी उसे डाँवाडोल बनाया। वह खड़ा हो गया, "मैं आपकी बगल में बैठना चाहता हूँ।" जाकर बैठ गया। लड़की थोड़ा दूर खिसकी। वह पास खिसका। उसने लड़की के हाथ देखे। वे खुले थे, गोरे थे, पर उन पर अवांछित बाल थे। उसे शंका हुई कहीं लड़की के मूँछें तो नहीं हैं हल्की-फुल्की। उसने सोचा, 'हो सकता है लड़की के पेट और पीठ पर बाल उगे हों।' वह वितृष्णा से भर उठा, 'मैं जहाँ बैठा था, वहीं बैठूँगा।' वह सामने जाकर बैठ गया। खुद को धिक्कारा ' आज कामदेव ने अपना बाण चला दिया था, किस तरह बच सका हूँ। उसमें लड़की के मामले में दुबारा आत्म-भर्त्सना तथा आत्म-व्यंग्य की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई. अंततः वह लड़की को लेकर मजाकिया भावों से सराबोर हो गया। लड़की की कुछ हरकतों की कल्पना की और हँस पड़ा।

"आप हँस क्यों रहे हैं?"

"कुछ नहीं, बस ऐसे ही।"

"अपना हाथ लाइए, मैं ज्योतिष से बता दूँगी, क्यों हँसे?"

लड़की ने हाथ पकड़कर नाटकीय ढंग से कहा, "इसलिए हँसे जनाब कि आपका वेतन बढ़नेवाला है।"

"बहुत सही बताया आपने।"

"और कुछ पूछना हो तो पूछ लीजिए."

"पूछूँ?"

"हाँ...हाँ..."

"तो बतलाइए." वह फिर हँसा, "मेरा फिश्चुला कब ठीक होगा?"

"ये क्या होता है?"

"फिश्चुला को हिन्दी में भगंदर कहते हैं। दरअसल यह गुदा रोग है। इसमें मलद्वार पर फोड़ा..."

"बस...बस...करिए..." लड़की खिसिया गई.

"इसमें शर्माने की कोई बात नहीं है। मल-मूत्र विसजन समाज के सभी प्राणी करते हैं। आप यकीन मानिए, मुझे फिश्चुला हो गया है। यह कोई खतरनाक बीमारी नहीं है पर इसमें दर्द बहुत होता है। खासकर बैठते समय। बैठने में भी दीर्घ शंका समाधान के साथ ज्यादा। फिश्चुला की एक विशेषता यह होती है कि यह आपरेशन के उपरांत ठीक हो जाता है किंतु अमूमन यह कुछ दिनों बाद फिर हो उठता है। कभी-कभी तो आपरेशन के बावजूद इनसान जीवन-भर फिश्चुला का शिकार बनकर तड़पता रहता है। हाँ तो अपनी ज्योतिष विद्या के आधार पर बतलाइए कि मेरा फिश्चुला कब ठीक होगा? और ठीक होने के बाद फिर तो नहीं उभर आएगा?"

लड़की ने कानों में उँगली ठूँस रखी थीं। चेहरा घबराहट और शर्म से बेहाल था। उसे प्रमोद वर्मा फूहड़ तथा क्रूर लग रहा था। वह रुआँसी हो गई. रोते हुए उठी। पर्स लेकर तेजी से भाग गई. वह मुस्कराया पर अचानक बुझ गया। वह उदास हो चला। उचाट आँखों से आसपास को देखा। पैसा चुकाकर बाहर निकल आया।

घर आते-आते वह असहनीय कष्ट से घिर गया था। फिश्चुला मर्मान्तक हो चला था। लगता था कि इस यातना से बेहतर प्राण त्याग देना होगा। वह चारपाई पर गिर पड़ा। उसके होंठ भिंचे हुए थे। शरीर की समस्त शक्ति दर्द को बरदाश्त करने में खर्च हो रही थी। वह काला पड़ता जा रहा था। सरोज वर्मा धीरे-धीरे उसका सिर सहला रही थी। वह लाश की तरह लेट गया और हाँफने लगा। सरोज वर्मा उसकी पैंट का बैल्ट खोलने लगी। पैंट उतारकर उसको लुंगी पहनाई.

"दवा लगा दो।" प्रमोद वर्मा कराहा।

सरोज वर्मा ट्यूब से मलहम निकालकर उसके फिश्चुला पर आहिस्ता-आहिस्ता मलने लगी।

प्रमोद वर्मा ने कराहते हुए निराशा से कहा, "आपरेशन कराना ही पड़ेगा।"

आपरेशन के बाद फिश्चुला फिर उदित हो गया था। पूर्व फिश्चुला की तरह ही नृशंस था यह। प्रमोद वर्मा तकलीफ, जुगुप्सा और डर की भावनाओं से घिरा हुआ था। उसे यह दुख भी था कि फिश्चुला मनोरंजक नहीं रह गया था। उसके जिक्र पर लोग अब हँसते नहीं थे। लोग उसकी बीमारी पर न सहानुभूति प्रकट करते थे, न हँसते थे। दरअसल फिश्चुला अपनी सृजनात्मकता खो चुका था।

प्रमोद वर्मा अब फिर पहले जैसा हो गया था। घर में पैर हिलाते हुए शून्य में ताका करता था अथवा ऊटपटाँग हरकतों में लिप्त रहता था। उसे इस बात का अफसोस था कि इतने दिनों के बाद भी गाड़ी वहीं-की-वहीं है। वही क्षोभ और ऊब, वही नीरस और बेस्वाद जिंदगी। सुख की शाश्वत अनुभूति तो दूर, उसकी झलक-भर से वह वंचित था। वह अपने बाल नोचता, 'कैसे मैं सुखी हूँगा?' हताशा से भर जाता था, 'क्या मैं कभी सुखी नहीं हो सकूँगा।'

सरोज वर्मा जीवनसाथी के अजीबोगरीब कारनामों का अवलोकन कर रही थी। वह डरी हुई थी कि सुख की तलाश में उसका पति पागल न हो जाए या वैराग्य न धारण कर ले, वरना उसकी भरी जवानी का क्या होगा। बच्ची का क्या होगा!

प्रमोद वर्मा एक दिन नहाकर निकला तो सरोज वर्मा नाश्ता लगाकर इंतजार करने लगी। देर तक न आने पर वह दूसरे कमरे में घुसी. देखा, वह एक चटाई पर पालथी मारकर आँखें मूँदे बैठा है। नाश्ता ठंडा होकर ऐंठ गया, तब वह खड़ा हुआ, "इसे ध्यान कहते हैं, इसके समुचित ढंग से करने पर सांसारिक विषयों का शमन हो जाता है और मनुष्य को सुख से भी बढ़कर 'आनंद' की अवस्था प्राप्त होती है।"

सांसारिक विषयों से पीछा छुड़ाने की बात पर सरोज वर्मा को पुनः अपनी भरी जवानी का खयाल आया। उसने उसे बाँहों में जकड़ लिया और चुंबनों की बौछार करते हुए अपने वक्ष के मीठे दबाव से उसके वस्त्रहीन बदन को धकेलते हुए शयनकक्ष में ले गई...

शयनकक्ष में प्रमोद वर्मा का तौलिया अकेला, निस्सहाय, परित्यक्त पड़ा हुआ था और प्रमोद वर्मा को लग रहा था... यही सुख है... आनंद है... इससे बड़ा... इसके अलावा दूसरा कुछ भी नहीं है...

थोड़ी देर की खामोशी के बाद सरोज वर्मा पलटी. उसको अपनी तरफ खींचा। उसकी छाती पर सिर रखकर सुबकने लगी। फिर अचानक उसे झिंझोड़ने लगी। पल-भर भी न बीता होगा, वह बेतहाशा चूम रही थी, "क्या अभी-अभी जो था, वह सुख नहीं था... सुख नहीं था... बोलो..."

"सुख नहीं था। वस्तुतः वह सुख नहीं था, सुख का छलावा था। यह कितना पल-भर के लिए था। सुख या आनंद क्षणभंगुर नहीं होता है। संभोग के सुख से अधिक स्थायित्व तो पूर्व फिश्चुला की दशा में था।"

लेकिन इस विवाद ने प्रमोद वर्मा में नामालूम कैसी रासायनिक क्रिया कर दी कि अगले दिन से जब भी वह ध्यान के लिए बैठता, उसको संभोग-सुख की याद आने लगती। रति क्रिया के विभिन्न बिंब उसके ध्यान का पटरा कर देते। थककर उसने निर्णय लिया, भोग में ही वास्तविक सुख है। बिना विलंब किए बैंक से धन निकाला और अनाप-शनाप खर्च करने लगा। वह बेमतलब दो महानगरों की यात्राएँ कर आया, जहाँ उसने कैबरे देखा था और जुआ खेला था। लोकमनिर्माण विभागवाले उससे तीन महँगी दावतें पाकर हतप्रभ थे। सहायक अभियंता तिवारी का कथन था कि उसकी ज़रूर कोई लाटरी निकली है। जबकि बड़े साहब चरन साहब का मत था कि वह किसी बड़े तस्कर गिरोह का सदस्य बन गया है। ठेकेदारों की सामूहिक राय थी कि उसको अथाह गढ़ा धन हासिल हुआ है। वह इन टिप्पणियों से बेपरवाह पैसे लुटा-लुटाकर गुलछर्रे उड़ा रहा था और बिला नागा प्रतिदिन सरोज वर्मा के साथ सहवास कर रहा था।

सरोज वर्मा उस समय सन्नाटे में आ गई, जब प्रमोद वर्मा ने उससे आग्रह किया, "चलो नाचा जाए." जबकि नृत्य कला में दोनों ही अज्ञानी थे।

प्रमोद वर्मा नाचने के नाम पर बस अपने हिप हिला रहा था और सरोज वर्मा राजाओं को हवा देनेवाले चँवर की तरह टुटरूँ-टूँ डोल रही थी।

नाचते हुए प्रमोद वर्मा को महसूस हुआ, "मैं क्या चुतियापा कर रहा हूँ। ' वह कुर्सी पर बैठकर हाँफने लगा," नहीं...नहीं...इन सबमें सुख नहीं है..."

"मैं भी सोचती थी कि जब नाचना आता ही नहीं तो फिर नाचने में सुख कैसा।"

प्रमोद वर्मा ने विरक्ति से देखा, "मैं केवल नाचने की बात नहीं कह रहा हूँ। मैं कह रहा हूँ कि भोग में सुख नहीं है।"

"तब किसमें है?" सरोज वर्मा झुँझला गई.

"शायद त्याग में।"

"तो अपना फिश्चुला क्यों नहीं त्याग देते।" वह चिढ़कर बोली।

"फिश्चुला को त्याग सकना मेरे वश में नहीं है, लेकिन तुम्हें त्याग सकना मेरे वश में अवश्य है।"

सरोज वर्मा की रूह फना हो गई. वह सो रही उजली को छाती से लगाकर एकांत में देर तक रुदन करती रही। असुरक्षा-बोध ने उसे इतना जकड़ा कि वह गंडे-ताबीज के चक्कर में फँसने का निश्चय कर बैठी।

लेकिन प्रमोद वर्मा पर किसी चीज का असर नहीं हो रहा था। हाँ, 'त्याग' से जल्दी ही उसकी आस्था उखड़ गई थी, किंतु वह एकांतवास और मौन पर अटक गया था। वह कहता, "शब्द में ऊर्जा है। मौन अनंत ऊर्जा का भंडारण करता है। जब भंडारण यथोचित हो चलेगा तो सुख-ही-सुख होगा।"

बाद में 'मौन' से भी नाउम्मीद होकर वह वाचालता और मिलनसारी में रम गया था। उसका तर्क था, 'ये इनसान क्या हैं, ईश्वर की संतानें हैं। इन्हीं में घुलने-मिलने से सुख की उपलब्धि होगी!' अब वह घर से जल्दी निकल जाता और देर से आता। पत्रिका कार्यालय में वह मौका मिलते ही लोगों से गप्प लड़ाने लगता था। पत्रिका कार्यालय बंद होने के बाद वह लोगों से मुलाकात करने निकल पड़ता था। कभी किसी के घर, कभी किसी के घर। नतीजतन उसका दांपत्य जीवन विस्फोटक होने लगा था। भोगवाले दिनों की समाप्ति के पश्चात् सरोज वर्मा पति के साथ घूमने नहीं निकल पाई थी। उजली भी पापा के साथ घूमने के लिए ठान बैठी थी। अतः सरोज वर्मा ने तय किया कि वह पति से दुखड़ा कहकर रहेगी। कोई तुक होती है घर से बाहर रहने की।

मगर उस दिन अप्रत्याशित रूप से प्रमोद वर्मा पत्रिका कार्यालय से सीधा घर आ गया। थका-बुझा सा... हारा...हारा-सा।

"क्या बात है?" सरोज वर्मा उसके बालों को दुलारने लगी।

"देखो, मेरे बाल मत खींचो। ये वैसे ही बुरी तरह टूट रहे हैं। वैसे भी जानती हो कि मुझको प्यार-मोहब्बत के ये चोंचले अच्छे नहीं लगते हैं। रही बात कि बात क्या है तो मैं क्या बताऊँ कि बात क्या है।"

रात को बताई उसने बात। खाने की मेज पर उसने कहा, "सरोज, मेरा खाने का मन नहीं है।"

"थोड़ा-सा खा लो पापा।" उजली ने भी आग्रह किया।

"नहीं बेटे, मन नहीं है।"

मेज पर बड़ी देर तक मौन बैठा रहा।

प्रमोद वर्मा बोला, "सरोज, मैं क्या करूँ। मेरा मन नहीं लगता किसी चीज में, मुझे लगता है कि मुझे कुछ चाहिए. क्या है वह जो मुझे चाहिए, यह मुझे पता नहीं है। सरोज, मैं सुखी नहीं हूँ। मेरी आत्मा अक्सर मुझको मथती हैं और मैं परेशान हो जाता हूँ। वाकई मैं सुखी नहीं हूँ। मैं क्या करूँ सरोज!"

सरोज वर्मा ने सोच-विचार के बाद कहा, "किसी बूढ़े-बुजुर्ग से पूछो।"

वह खुश हुआ, "वाह सरोज!" वह उजली को उछालने लगा, "मुझे पहले क्यों न सूझी, बिटिया।"

अगले दिन पत्रिका कार्यालय में घुसते ही संपादक के पास पहुँचा, "एक काम था।" संपादक बोला, "छुट्टी चाहिए न, फिश्चुला बढ़ गया क्या?"

"नहीं, मुझे यह जानकारी चाहिए कि इस शहर में सबसे अधिक उम्र का व्यक्ति कौन है?"

"वाह! इस शहर में सबसे अधिक उम्र की एक बुढ़िया है, जो एक सौ बारह साल की है। वह नदी-किनारे रहती है और उसके दाँत अभी टूटे नहीं हैं। लोग कहते हैं कि वह बच्चों का टोना उतारती है। कोढ़, मिर्गी के मरीजों को छू देती है तो वे ठीक हो जाते हैं। अर्धरात्रि में उसके श्मशान घाट जाने के बारे में भी बताया जाता है।"

"एक निवेदन और मझे आज की छुट्टी दे दीजिए."

"क्यों, तुम्हारा फिश्चुला तो बढ़ा नहीं?"

"फिश्चुला की बात नहीं है। मुझे एक सौ बारह साल की बुढ़िया से मिलना है, जो नदी-किनारे रहती है और जिसके दाँत अभी टूटे नहीं हैं।"

वह बुढ़िया से मिलने चला जा रहा था, तभी यकायक, कई दिनों बाद लड़की टकरा गई. दोनों इस तरह आमने-सामने हुए कि कतराने का विकल्प बचता ही नहीं था।

"कहाँ जा रहे हैं आप इतनी तेजी में?" लड़की ने ही शुरुआत की।

"मैं एक सौ बारह साल की बुढ़िया से मिलने जा रहा हूँ।"

"अब बुढ़िया से ही मिलना रह गया है।"

"मैं तुम्हारी इस बात का जवाब देता, पर ज़रा जल्दी में हूँ।"

"और आपकी तबीयत कैसी है।" लड़की ग़लत सवाल कर बैठी।

"आपरेशन के बाद फिर उभर आया है फिश्चुला।" वह मुस्कराया, "यह आपको मालूम ही होगा कि इसे हिन्दी में भगंदर कहते हैं। यह गुदा रोग है..."

लड़की शर्म से पसीना-पसीना हो गई.

"तबियत के बारे में पूछने के लिए धन्यवाद।" वह एक सौ बारह साल की बुढ़िया से मिलने के लिए आगे बढ़ गया, जो नदी-किनारे रहती थी और जिसके दाँत अभी टूटे नहीं थे।

बुढ़िया नदी-किनारे रहती थी और सचमुच उसके दाँत टूटे नहीं थे। सबसे बड़ी बात उसके हाथों में ताकत और आँखों में रोशनी थी। वह पीढ़े पर बैठी किसी लकड़ी से अपनी पीठ खुजला रही थी।

कुछ कोढ़ी और कुछ मिर्गी के मरीज कमरे में बैठे बुढ़िया को निहार रहे थे। इक्का-दुक्का बच्चे भी अभिभावकों के साथ आए थे। सब बुढ़िया को बुढ़िया कह रहे थे। गोया बुढ़िया को यह सम्बोधन बहुत पसंद था।

पीठ खुजला चुकने के बाद बुढ़िया ने पानी पिया। फिर वह गुनगुनाने लगी। किसी पुराने लोकगीत की धुन थी।

प्रमोद वर्मा ने आवाज दी, "बुढ़ियाजी, नमस्कार।"

बुढ़िया ने हिकारत से कहा, "जा...जा... उस कोने में बैठ।"

थोड़ी देर बाद वह पीढ़े से उठी। कमर कमान जैसी झुकी थी। वह एक-एक के पास जा रही थी। उसका सिर सहला रही थी। स्पर्श कराने के बाद लोग बाहर हो जा रहे थे। आखिर में सिर्फ़ वह बचा। बुढ़िया उसके पास आई, "बोल, तुझे कोढ़ है कि मिर्गी?"

प्रमोद वर्मा घबड़ाया, "मुझे न कोढ़ है, न मिर्गी। मुझे फिश्चुला है। पर मैं यहाँ इलाज कराने नहीं, कुछ पूछने आया हूँ।"

वह कमर पर हाथ रखकर सिर हिलाने लगी। जाकर फिर पीढ़े पर बैठ गई और हाँफने लगी। हाँफ चुकने के बाद गरजी, "बोल, क्या पूछता है?"

"बुढ़िया, मैं सुखी नहीं हूँ। किसी चीज में मन नहीं लगता। भटकता रहता है मन। हमेशा खाली-खाली महसूस करता हूँ। उदास रहता हूँ। बुढ़िया, मैं बहुत परेशान हूँ। कई महीनों से सुख खोज रहा हूँ। जगह-जगह ढूँढ़ा। भाँति-भाँति से ढूँढ़ा, पर वह मिल नहीं रहा है। बता बुढ़िया, मैं सुखी कैसे हूँगा?"

बुढ़िया बड़ी देर सोचती रही। सोचती रही और आँखें मुलमुलाती रही। अचानक तमतमाकर खड़ी हो गई, "हुँह, बड़ा चला है सुखी होने। बोल बेवकूफ, कभी तू दुखी हुआ है? बोल, कभी सच्चे मन से दुखी हुआ है?"

प्रमोद वर्मा को लगा, बेहोश हो जाएगा। हथेलियों में सिर थामकर बैठ गया।

"मैं आज तक दुखी नहीं हुआ।" वह पसीना-पसीना हो गया। हल्का-हल्का काँप भी रहा था।

"दुख का मतलब जानता है मूरख। फोड़ा-फुंसी, बुखार बेरागी, या बीवी-बच्चों को डाँट देने से होनेवाला दुख नहीं, हमेशा चौबीस घंटों का दुख। हमेशा आत्मा को मथते रहनेवाला दुख। सुख को खोजेगा तो अपने को छलेगा। दुखी बन।"

वह बाहर आया। बीहड़ बरसात हो रही थी। बादल बिजली की चमक के साथ गरज रहे थे। तेज हवा थी। पेड़-पौधे जोर-जोर से झूम रहे थे। वह भीगते हुए चल पड़ा।

वह जल्दी-से-जल्दी दुखी होने का यत्न कर रहा था। वह गरीबों की बस्ती में गया, अस्पताल, अनाथालय गया और विधवाश्रम भी हो आया। पथरीली जमीनवाले इलाके़ में अकाल का हाहाकार था, वहाँ भी पहुँचा था। सब जगह दुख था। महँगाई, दंगा, बेटे की नौकरी, बेटी के ब्याह के चंगुल में फँसे लोगों का वह गौर से मुआयना करता था। लेकिन वह हतप्रभ था कि उसे कुछ होता ही नहीं था। वह अपनी ही निगाहों में गिरने लगा। इस बीच उसे बुखार ने भी दबोच लिया था।

बुखार के कारण उसका शरीर तप रहा था। रात उसे कई छींकें आईं और नाक सुड़सुड़ाने लगी। थोड़ी देर बाद बुखार से वह जलने लगा था।

सरोज वर्मा उजली के साथ दवा खरीदने गई थी। वह कंबल ओढ़कर लेटा था। उसकी नाक सुड़सुड़ाने लगी। अभी वह लगातार कई बार उठ-उठकर नाक छिनक चुका था। अतः इस बार भीतर-ही-भीतर सुड़क डाला वह बहुत अकेला पा रहा था। लग रहा था जैसे कोई भारी आवरण उसे घर रहा है। उसकी पलकें भारी-सी होने लगीं। वह बुदबुदाया, 'मैं कभी दुखी नहीं हो सकूँगा, न सुखी।' उसने सोचा, 'कितने साल हो गए होंगे, मुझे कभी पश्चात्ताप नहीं हुआ।' वह नींद और जागने के बीच की स्थिति में था। वह स्वप्न और यथार्थ की मिली-जुली अवस्था में था। धुँधला-धुँधला-सा सोच रहा था, 'मेरे पास आँसू भी नहीं बचे। बचपन के बाद मैं रोया ही नहीं।' वह उद्विग्न था, 'क्या जमाना आ गया है, लोग न रोते हैं, न पश्चात्ताप करते हैं।'

सरोज वर्मा दवा लेकर आ गई. रास्ते में पत्रिका कार्यालय फोन कर दिया था पति की छुट्टी के लिए. उसने दवा की गोलियाँ पति को दीं। प्रमोद वर्मा उन्हें गटक गया। देर तक लेटे-लेटे वह ऊब गया था। वहीं बिस्तर पर उकड़ूँ बैठ गया।

सरोज वर्मा ने सुझाव दिया, "ऐसे मत बैठिए, फिश्चुला दर्द करने लगेगा।"

वह उसी तरह बैठा रहा। नामालूम क्या सोचता रहा कि रुआँसा हो गया, "सरोज... सरोज... मैं क्या करूँ, मुझे कुछ अच्छा नहीं लगता। कुछ सुंदर नहीं लगता।"

सरोज वर्मा ने उसकी गरदन में बाँहें डाल दीं। प्रमोद वर्मा का सिर छोटे बच्चे की तरह अपने वक्ष से लगा लिया और सहलाने लगी, "क्या होता जा रहा है आपको... क्या होता जा रहा है... मैं फिर कहती हूँ कि आपको मेरी, उजली की रत्ती-भर परवाह नहीं है..."

उजली अपने नाम का जिक्र सुनकर उत्साहित हो गई, "पापा...पापा... आप कब दुखी होंगे?"

"कभी नहीं बिटिया।"

"ऐसा न बोलिए." सरोज वर्मा ने भारतीय नारी की तरह इतराते हुए धीरज बँधाना शुरू किया, "आप चिंता मत करिए. आप एक दिन ज़रूर दुखी होंगे। ईश्वर के घर में देर है मगर अंधेर नहीं है। वह आपको ज़रूर दुखी बनाएगा। मैं सोमवार का व्रत रखूँगी। शंकर जी से माँगूँगी कि आपको दुखी बनाएँ।"

"कोई फायदा नहीं। किसी भी तरह मेरा दुखी होना, यानी कि मेरा सुखी हो सकना किसी भी तरह मुमकिन नहीं है।" वह पुनः उकड़ूँ बैठ गया, "क्योंकि मेरी आत्मा खो गई है। मुझे यह पता भी नहीं कि वह कहाँ खोई. पहले मैं अक्सर उसे निकालकर रख देता था, इसी में वह कहीं खो गई. लोकनिर्माण विभाग के दफ्तर में, सड़क पर या किसी यात्रा में, पता नहीं कहाँ मैंने उसे अपने से अलग रखा और वह खो गई..." उसकी आँखों के सामने अँधेरा छाता जा रहा था। सब कुछ डूबता हुआ-सा लग रहा था।

अचानक उसके फिश्चुला में जोरों का दर्द हुआ। उससे सँभल पाता कि मितली आने लगी। वह ओ...ओ... करके उठा। भागते हुए बाशबेसिन तक गया और उलटी करने लगा। दुर्गन्ध से भरी हुई ढेर सारी उलटी.