शारीरिक अवस्थाएँ / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल

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भाव
शारीरिक अवस्थाएँ / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल

शारीरिक अवस्थाओं के संबंध में कुछ विशेष नहीं कहना है। केवल इतनी बात फिर से कह देना चाहता हूँ कि भाव द्वारा समुपस्थित शारीरिक अवस्था का ग्रहण संचारियों के अंतर्गत इसलिए हुआ है कि उनसे भी भाव की तीव्रता या व्यापकता के अनुभव में सहायता मिलती है। जो शारीरिक अवस्था किसी भाव के प्रभाव से नहीं उपस्थित हुई यों ही अन्य प्राकृतिक कारणों से उपस्थित हुई है उसे भाव के संचारियों में नहीं ले सकते।

पहले 'श्रम' को लीजिए। 'श्रम' के दो अर्थ हो सकते हैं-एक तो व्यापाराधिक्य या किसी क्रिया का निरंतर साधन, दूसरा उससे उत्पन्न अग्लानि या थकावट। साहित्यदर्पण में दूसरा अर्थ ग्रहण किया गया है1 पर मैं उसे यहाँ पहले ही अर्थ में रखता हूँ। किसी के प्रेम में यदि कोई दौड़-धूप करे, विद्या की प्राप्ति के लिए रात-रात भर बैठकर पढ़ता रहे, गड़ा हुआ खजाना पाने के लिए दिन-भर मिट्टी खोदता रहे तो उसका यह दौड़ना धूपना, रात-भर बैठना या दिन-भर मिट्टी खोदना क्रमश: व्यक्ति, विद्या या धन के प्रति रति भाव का संचारी कहा जा सकता है। पर इस दौड़-धूप के कारण यदि कोई थककर बैठ जाय या रात-भर मेहनत करने से शिथिल हो जाय

1. खेदोरत्यधवगत्यादे: श्वासनिद्रादिकृच्छम:।

-साहित्यदर्पण 3-146।

तो यह थकना या शिथिल होना रति भाव से दूर पड़ जाने के कारण-क्रिया या व्यापार के व्यवधान से उसके साथ प्रत्यक्ष संबंध न रखने के कारण-संचारी नहीं कहा जा सकता।

तो क्या 'अंगग्लानि' को संचारियों में लेना ही न चाहिए? लेना चाहिए, पर वहाँ जहाँ उसका भाव के साथ सीधा संबंध हो। आरंभ ही में भाव का जो विश्लेीषण किया गया है उसके अनुसार भाव के स्वरूप के भीतर अंग रूप में अनुभाव भी आ जाते। कायिक अनुभाव शारीरिक क्रिया या व्यापार के रूप में ही होते हैं। अत: उनसे अंगग्लानि या थकावट उत्पन्न हो सकती है। इस प्रकार की थकावट संचारी के अंतर्गत कही जा सकती है। जैसे, बार-बार आलिंगन गर्जन-तर्जन या अस्त्राचालन इत्यादि से उत्पन्न थकावट। पर भाव स्थायी दशा में जो प्रयत्न किए जायँगे जैसे, मार्ग चलना आदि उनसे उत्पन्न थकावट संचारी नहीं होगी, केवल उक्त प्रयत्न या व्यापार संचारी होंगे, जैसा कि श्रम के प्रसंग में कहा जा चुका है। 'अंगग्लानि' या थकावट का स्वतंत्र (जो किसी का संचारी न हो) वर्णन भी सौकुमार्य आदि का सूचक होकर बहुत ही रोचक होता है। जैसे-

'जल को गए लक्खन, हैं लरिका, परिखो पिय छाँह घरीक ह्नै ठाढ़े।

पोंछि पसेउ बयारि करौं, अरु पायँ पखारिहौं भूभुरि डाढ़े।'

तुलसी रघुवीर प्रिया श्रम जानि कै, बैठि विलंब लौं कंटक काढ़े।

जानकी नाह को नेह लख्यो, पुलको तनु, बारि बिलोचन बाढ़े॥

-तुलसीकृत कवितावली, अयोध्यानकांड, 12।

निद्रा और विबोध दोनों का संबंध यद्यपि चेतना की प्रवृत्ति और निवृत्ति से है पर वे अधिकतर शरीर धर्म के रूप में ही दिखाई पड़ते हैं। इसी से उन्हें मानसिक अवस्था में न रखकर शारीरिक अवस्था में रखा है। प्रिय के ध्यान का सुख अनुभव करते-करते नायिका का सो जाना और विरह-वेदना से नींद न आना क्रमश: निद्रा और विबाध के उदाहरण होंगे! यों ही सोते हुए मनुष्य का जाग पड़ना 'विबोध' संचारी न होगा। इसी प्रकार मरण, व्याधि और अपस्मार भी तभी संचारी होंगे जब किसी भाव के कारण होंगे, अन्यथा नहीं।

संचारियों के रूप में जिन मानसिक अवस्थाओं और वेगों या भावों का उल्लेख हुआ है उनमें से बहुत से शीलदशा को प्राप्त या प्रकृतिस्थ देखे जाते हैं। इस रूप में उनका वर्णन पात्रों (आश्रय और आलम्बन) की गुण-योजना के प्रसंग में किया जायगा।

संचारियों के विषय के संबंध में दो-चार बातें कहकर अब इस प्रकरण को समाप्त करता हूँ। संचारियों में कुछ तो ऐसे हैं जिनके विषय होते ही नहीं केवल कारण होते हैं। जैसे, सब शारीरिक अवस्थाएँ; मद, जड़ता, मोह, उन्माद और ग्लानि ये मानसिक अवस्थाएँ और आवेग नामक वेग। भाव वर्ग के तीनों भावों (गर्व, लज्जा और असूया) को छोड़ और सब संचारियों के या तो प्रधान भाव के आलम्बन ही विषय होते हैं अथवा उनसे (आलम्बनों से) संबंध रखनेवाली वस्तुएँ। इस प्रकार कहीं-कहीं आलम्बन के रूप, गुण, चेष्टा आदि कारण ही संचारियों के विषय होते हैं। जिसके प्रति रति भाव है उसकी मुसकान देखकर या उसके वचन सुनकर भी हर्ष होता है और उसकी कोई वस्तु देखकर भी, जैसा कि नायक के उड़ाए हुए कबूतर को देखकर बिहारी की नायिका को हुआ है1। वचन श्रवण आदि के प्रति औत्सुक्य भी होता है। प्रिय के किसी अंग या चेष्टा मात्र से हर्ष का होना रति भाव का उत्कर्ष व्यंजित करता है। जिसके वचन मात्र सुनकर, जिसकी ऑंख या केश देखकर ही हर्ष होता है उसके पूर्ण समागम के आनंद का क्या कहना है? इसी प्रकार जिसका शोक होता है उसके किसी एक अंग, चेष्टा या गुण का स्मरण आने पर भी विषाद होता है उसके कपड़े-लत्तेी देखकर भी। मोटेतौर पर कहा जा सकता है कि प्राय: समस्त विषययुक्त संचारियों के विषय वे ही होते हैं जो या तो उनके प्रधान भावों के आलम्बन होते हैं या आलम्बनगत (जैसे, नायिका की चेष्टा आदि) उद्दीपन। आलम्बनबाह्य उद्दीपन केवल हर्ष और विषाद के विषय होते हैं-जैसे, रति भाव का हर्ष संचारी नायक के दर्शन स्पर्श से भी होता है, नायक का संवाद लाती हुई सखी आदि को देखकर भी तथा वन, उपवन, चंद्रिका आदि आलम्बनबाह्य विषयों को देखकर भी। पर इन आलम्बनबाह्य विषयों की ओर ध्यादन प्रधान रूप में नहीं रहता।

साहित्य के ग्रंथों में संचारियों के बाह्य चिन्ह् भी बताए गए हैं जो वास्तव में उनके अनुभव ही हैं। जैसे, गर्व में तनकर खड़ा होना, अवज्ञा करना, अँगूठा आदि दिखाना; अवहित्था में अनभीष्ट कार्य की ओर प्रवृत्ति दिखाना, दूसरी ओर देखना; चिंता में दीर्घनिश्वास लेना, सिर झुकाना, हाथ पर गाल रखना, माथा सुकोड़ना इत्यादि। इन बाह्य चिन्होंट का उपयोग पात्र या आश्रय के चित्रण में बहुत आवश्यक होता है जिसका विचार 'विभाव' के अंतर्गत किया जायगा। आश्रय द्वारा शब्दव्यंजना न होने पर भी कभी-कभी इनके द्वारा संचारी की व्यंजना हो जाती है। जैसे, किसी बात को सुनकर यदि कोई सिर झुकाकर और हाथ पर गाल रखकर बैठ जाय, उसके माथे पर बल आ जाय तो चट चिंता में पड़ना समझ लिया जा सकता है।

इन बाह्य चिन्हों को भिन्न-भिन्न भावों के अनुभावों के साथ मिलाने से इस बात का भी पता चलता है कि कौन-कौन संचारी किन-किन प्रधान भावों के अवयव होते हैं। संचारियों की सूची में पाँच ऐसे हैं जो किसी-न-किसी प्रधान भाव के अवयव भी हुआ करते हैं, अमर्ष, त्रास, विषाद, उग्रता और जड़ता। त्रास भय का, विषाद


1. ऊँचैं चितै सराहियतु गिरह कबूतरु लेतु।

झलकित दृग मुलकित बदनु, तनु पुलकित किहिं हेतु॥

-बिहारी रत्नाकर, 374।

शोक का, जड़ता आश्चर्य का तथा अमर्ष और उग्रता क्रोध के अवयव हैं। इन संचारियों के बाह्य चिन्हन वे ही हैं जो क्रोध, भय, शोक और आश्चर्य के अनुभाव कहे गए हैं-जो भाव और वेग आदि नियम संचारियों में रखे गए हैं वे कभी-कभी प्रधान होकर भी आते हैं। यह प्रधानता दो प्रकार की हो सकती है-

(1) वह प्रधानता जो किसी नियत प्रधान भाव के स्फुट न होने से प्रतीत हो।

(2) वह प्रधानता जो नियम प्रधान भाव के स्फुट होने पर भी उसके ऊपर प्राप्त हो।

साहित्य के ग्रंथों में जो उदाहरण मिलते हैं वे प्रथम प्रकार की प्रधानता के हैं। कोई भाव, वेग या मानसिक अवस्था इस प्रधानता को प्राप्त हो सकती है। यथा,

एवंवादिनि देवर्षो पार्श्वे पितुरधोमुखी।

लीलाकमलपत्राणि गणयाभास पार्वती।

-कुमारसंभव, छठाँ सर्ग, 84।

'पिता के पास बैठी हुई पार्वती के सामने जब सप्तर्षियों ने शिव के साथ उसके विवाह की चर्चा चलाई तब वह सिर नीचा किए लीलाकमल के दल गिनने लगीं।' इस पद्य में बाह्य चिन्होंव के कथन द्वारा अवहित्था की ही प्रधान रूप से व्यंजना हुई है, पार्वती का रति भाव स्फुट नहीं किया गया है।

पर संचारियों में रखा हुआ कोई 'भाव' ऐसी प्रधानता भी प्राप्त कर सकता है कि कोई नियत प्रधान भाव उसका संचारी होकर आए। जैसे, क्रोध असूया का संचारी होकर आ सकता है और जुगुप्सा गर्व का। जब मंथरा ने राम की धात्री से उनके यौवराज्य का संवाद पाया तब 'वह अत्यंत ईष्या से उस कैलास सदृश प्रासाद से उतरी, क्रोध से जलती हुई चली और रोती हुई कैकेयी के पास पहुँची।1'

यहाँ पर मंथरा का क्रोध प्रधान भाव नहीं है, प्रधान भाव है असूया। उसके कारण उत्पन्न होने से क्रोध उसका संचारी ही कहा जा सकता है। राम प्रधानत: उसकी ईष्या के आलम्बन हैं क्रोध के नहीं क्योंकि क्रोध अनिष्टकारी के प्रति होता है, पर राम ने मंथरा का कभी कोई अनिष्ट नहीं किया था।

मंथरा की यह ईष्या विलक्षण है। इसका उद्धाटन आदिकवि की ही प्रतिभा का काम था। ईष्या समकक्ष के प्रति होती है जिसकी बराबरी करना चाहते हैं पर


1. धात्रयास्तु वचनं श्रुत्वा कुब्जा क्षिप्रममर्षिता।

कैलासशिखराकारत्प्रासादादवरोहत॥

सा दह्यमाना क्रोधेन मन्थरा पापदर्शिनी।

शयानामेव कैकेयीमिदं वचनमब्रवीत्॥

-वाल्मीकीय रामायण, अयोध्यााकांड, सप्तम सर्ग, 2-13।

नहीं कर पाते। राजा से दरिद्रा दासी की क्या ईष्या? इस ईष्या का प्रवर्तक कैकेयी के प्रति मंथरा का अनन्य रति भाव है। जिस पर हमारा अनन्य प्रेम होता है उसके प्रतिद्वंद्वी के गुण मान की वृद्धि देख हमें भी प्राय: ईष्या होती है। जिसे हम एकमात्र 'महात्मा' समझते हैं उसके अतिरिक्त अन्य के महत्त्व की बात हमें प्राय: नहीं सुहाती। हमारे राग और द्वेष के आलम्बनों के संबंध से हमारे अनेक भावों के और और आलम्बन खड़े होते रहते हैं। जिससे हमें द्वेष होता है उसके साथ द्वेष रखनेवालों से प्रेम और प्रेम रखनेवालों से द्वेष प्राय: हमें भी हुआ करता है।

यहाँ तक तो नियत संचारियों की बात हुई। इनके अतिरिक्त प्रधानों में परिगणित कोई भाव भी दूसरे प्रधान भाव का संचारी होकर आ सकता है-जैसे रति और उत्साह में हास, युध्दोत्साह में क्रोध। पहले यह कहा जा चुका है कि प्रधान भावों में आलम्बनों की ओर ध्यारन मुख्यत: रहता है। अत: भिन्न आलम्बन रखनेवाला भाव संचारी नहीं हो सकता, क्योंकि एक ही अवसर पर ध्याचन मुख्य रूप से दो विषयों की ओर नहीं रह सकता। बात ठीक है, पर भिन्न विषय या आलम्बन की ओर ध्यानन स्थित होने से भी यदि प्रधान भाव की गतिप्रवृत्ति में कोई बाधा न पड़े और संचारी होकर आनेवाला भाव ऐसा हो कि उसका कोई रूप प्रधान भाव के साथ बराबर लगा रहता हो तो वह भाव संचारी हो सकता है। आलम्बन एक होने पर भी यदि दो भावों की गति और प्रवृत्ति परस्पर भिन्न है तो उनके बीच स्थायी संचारी का सम्बन्ध नहीं हो सकता। युध्दोत्साह के संचारी क्रोध को लीजिए। युध्दोत्साह और क्रोध दोनों की गति या प्रवृत्ति एक ही है। एक ही व्यापार द्वारा युध्दोत्साह और क्रोध दोनों के लक्ष्य का साधन हो जाता है। शस्त्र आदि चलाने से युद्धकर्म के प्रति उत्साह की भी तुष्टि होती है और अनिष्टकारी के नाश की इच्छा की भी। गति और प्रवृत्ति की भिन्नता न होने से क्रोध युध्दोत्साह का संचारी होकर आ सकता है। अत: यह स्थिर हुआ कि एक भाव दूसरे भाव का संचारी होकर तभी आ सकता है जब-

(1) उसका विषय वही हो जो प्रधान भाव का आलम्बन है और उसकी कोई अपनी गति या प्रवृत्ति न हो।

(2) आलम्बन से उसका विषय भिन्न हो उसकी कोई अपनी गति या प्रवृत्ति न हो, और वह स्वयं ऐसा हो कि प्रधान भाव के साथ उसका कोई रूपांतर लगा रहता हो।

(3) उसकी गति या प्रवृत्ति वही हो जो प्रधान भाव की है।

भावों का जो चक्र दिया जा चुका है उसमें दो भाव ऐसे मिलते हैं जिनमें कोई अपनी गति या प्रवृत्ति नहीं होती-हास और आश्चर्य। अत: ये दोनों भाव श्रृंगार के संचारी होकर आ सकते हैं। हास तो हर्ष के ही एक विशेष रूप का विकास है और हर्ष राग की भावदशा में बराबर रहता है। अत: नायक-नायिका चाहे एक-दूसरे को कीचड़ में ढकेलकर हँसें चाहे किसी दूसरे व्यक्ति को देखकर हँसें उनकी हँसी रति भाव की प्रवृत्ति से हटानेवाली न होगी। इसी प्रकार नायिका का असाधारण रूपसौंदर्य देख यदि नायक आश्चर्यचकित हो जाय तो भी रति की प्रवृत्ति में कोई बाधा नहीं पड़ेगी। पर आश्चर्य का विषय यदि रति भाव के आलम्बन से भिन्न कोई दूसरा होगा तो वह आश्चर्य श्रृंगार में संचारी न होगा क्योंकि वह ऐसा भाव नहीं है जिसका कोई रूप राग के साथ अंगरूप से लगा रहता हो।

स्थायी संचारी का प्रकृति रूप यही है जिसका वर्णन समाप्त हुआ और जो भावों का अधिष्ठान पात्र को मानने से निर्दिष्ट होता है। पर नाटक या काव्य को अधिष्ठान मानकर स्थायी संचारी का एक दूसरा अर्थ भी लिया जाता है। उसके अनुसार किसी काव्य में आदि से अंत तक जो भाव बराबर चला जाय, अन्य भावों के बीच-बीच में थोड़ी देर के लिए आ जाने से उच्छिन्न न हो, वह स्थायी भाव है और जिनका वर्णन बीच-बीच में थोड़ी देर के लिए आ जाय वे संचारी कहे जायँगे। जैसे महाभारत में 'शम' प्रधान है, मालतीमाधव में रति, अंधेरनगरी में हास, रामायण में शोक, सत्यहरिश्चंद्र में शोक इत्यादि। पर स्थायी संचारी का यह अर्थ गौण है। इसमें इस बात का विचार नहीं हो सकता कि कौन-कौन भाव या वेग किन-किन प्रधान भावों के संचारी हो सकते हैं। चाहे जो भाव ग्रन्थ में आदि से अंत तक पाया जाय उसे स्थायी और चाहे जो भाव या वेग बीच-बीच में आए हों उन्हें संचारी हम ऑंख मूँदकर कह सकते हैं, किसी प्रकार के विवेक की आवश्यकता नहीं। स्थायी संचारी का यह अत्यंत स्थूल रूप से ग्रहण है।