शिक्षा का प्रथम -I I / गणेशशंकर विद्यार्थी

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वैसे तो हमारा देश-भर शिक्षा में, मनुष्‍य की बाहरी उन्‍नति के इस परमावश्‍यक साधन के विषय में, संसार-भर के सभ्‍य देशों से बहुत पिछड़ा हुआ है, परंतु देश में भी हमारा प्रांत इस विषय में जितना नीचे गिरा हुआ है, उस पर विचार करने से हमें इस बात पर लज्‍जा आती है कि यह वही भूमि है, जिसके विद्या‍पीठों की सर्वत्र धूम थी, काशी और प्रयाग के विद्या‍मंदिरों में देश के कोने-कोने से लोग ज्ञान-पिपासा शांत करने आते थे। लखनऊ इल्‍मेअदब का मर्कज था और इस विषय में जितना वैभव हमारा था, जितनी संपत्ति हमारे यहाँ थी, वह देश में किसी की नहीं थी और कहीं नहीं थी। आज यहाँ ऐसे आदमियों तक की संख्‍या, जो किसी भाषा के अक्षरों ही से परिचित हों, टूटे-फूटे ढंग से अपने हस्‍ताक्षर ही कर लेते हों या गलत-सलत पत्र लिख सकते हों, इतनी भी नहीं, जितनी कि हमारे देश के अन्‍य प्रांतों में है। अज्ञान के इस अंधकार को मिटाने का यत्‍न क्‍या हो रहा है? कोई भी ऐसा यत्‍न नहीं जिस पर संतोष किया जा सके। प्रजा में प्रारंभिक शिक्षा का प्रचार करना गवर्नमेंट का कर्तव्‍य है, परंतु इस कर्तव्‍य का जिस ढंग से पालन हो रहा है, वह गवर्नमेंट की दृष्टि में बहुत अच्‍छा होते हुए भी कम-से-कम ऐसा नहीं है कि उससे उद्देश्‍य की सिद्धि हो सके। कुछ काल से गवर्नमेंट ने दो बातों को गाँठ में कसकर बाँध लिया है। वह उन्हें कभी बिसराने के लिये तैयार नहीं। एक तो शिक्षा की उत्‍तमता-शिक्षा अच्‍छे ढंग से दी जाय। यह अच्‍छा ढंग इसके सिवा और कुछ नहीं कि क्‍लासों में लड़कों की संख्‍या कम कर दी गयी। एक क्‍लास में 33 लड़कों से अधिक नहीं होने पाते, क्‍योंकि कहा जाता है कि अध्‍यापक इससे अधिक लड़कों को एक समय उत्‍तम रीति से नहीं पढ़ा सकता। उत्‍तम रीति की पढ़ाई का दूसरा फल यह हुआ कि लड़कों को सदा नयी-नयी वस्‍तुएँ, किताबें, कापियाँ, पेंसिल आदि खरीदने की जरूरत बनी रहती है और इस प्रकार अब छोटी-छोटी क्‍लासों तक में पढ़ाई का खर्च पहले से दुगुना हो गया है। खर्च का यह बोझ गरीब माता-पिता के कष्‍ट को और भी बढ़ा देता है। दूसरी बात यह कि स्‍कूल भवन अच्‍छा हो, उसमें जी खोलकर रुपया खर्च किया जाय। जिस देश में शिक्षा का देना और लेना सरलता और सादगी के नियमों के भीतर संचालित होता रहा हो, जहाँ पीपलों और वटों की छाया के तले, मंदिर और मस्जिदों में, सादगी और सहिष्‍णुता की गोद में पढ़-पढ़ कर शंकर और माधव, रामानुज और तुलसी, रामदास और चैतन्‍य, टोडरमल और फैजी, अबुलफज्‍ल और चिश्‍ती आदि महापुरुष उत्‍पन्‍न हुए हों और जहाँ आधुनिक स्‍कूलों और कालेजों के डेढ़-डेढ़ सौ और दो-दो सौ लड़कों की क्‍लास में पुराने और अति उत्‍तम ढंग और साधारण विद्यालय भवनों में पढ़कर रानाडे और गोखले, मेहता और मालवीय, सतीश और सप्रू, बनर्जी, जगदीशचंद्र बोस और पी.सी. राय, गणेशप्रसाद, गंगानाथ झा और जियाउद्दीन, गुरुदास बनर्जी, आशुतोष मुकर्जी और सर रासबिहारी घोष इत्‍यादि ऐसे सैकड़ों विद्वान निकले हों, वहाँ इसके बिना कि उस भूमि ने अपना स्‍थान बदल दिया हो, उसने अपना जलवायु बदल लिया हो, उसके मनुष्‍यों का रंगरूप और मिजाज बदल गया हो, अपनी इन दो उपजों से शिक्षा के मार्ग में इन रुकावटों को पैदा करके गवर्नमेंट कहाँ तक बुद्धिमत्‍ता से काम कर रही है? यह बात इस प्रांत के प्रत्‍येक उस गरीब माता-पिता से पूछी जा सकती है, जो लड़कों के स्‍कूली खर्च से परेशान रहते हैं और तो भी बहुधा उनके बच्‍चों को शिक्षा के लिये एक स्‍कूल से दूसरे स्‍कूल के दरवाजे की ठोकरें खानी पड़ती हैं। फिर आगे की कठिनाइयाँ भी सुनिए! लड़का फेल हो तो दोगुनी फीस लगे। दो बार से अधिक फेल हो जाय तो उस बेचारे का किसी भी स्‍कूल में ठिकाना न लगे, और यदि मैट्रिक्‍युलेशन पास कर ले तो स्‍कूल-लीविंग परीक्षा पास के मुकाबले में उसकी कोई गिनती ही न हो! और ये सब कठिनायाँ इसी प्रांत में हैं, जो शिक्षा में सबसे पिछड़ा हुआ है। संतोष की बात यह है कि अन्‍य प्रांतों में अभी यह रोग नहीं फैला है। स्‍कूलों से कालेजों की और भी बुरी दशा है। प्रति वर्ष सैकड़ों युवकों को स्‍थान नहीं मिलता। फिर इस प्रांत के कालेजों के लड़के अन्‍य प्रांतों के लड़कों की अपेक्षा परीक्षा में अधिक फेल होते हैं। कारण केवल यही हो सकता है कि या तो इन प्रांतों के आदमियों के दिमाग इतने अच्‍छे नहीं जितने कि अन्‍य प्रांतों के आदमियों के या प्रयाग विश्‍वविद्यलाय के परीक्षकों का दिमाग उतना ठंडा नहीं, जितना अन्य विश्‍वविद्यालय के परीक्षकों का। कालेजों पर खास तरह की सख्‍ती है। बड़ी मुश्किल से विश्‍वविद्यालय से उनका संबंध होने पाता है और फिर सदा उनके सर पर बाल से बँधी हुई लज्‍जाद की तलवार लटकी रहती है। तनिक आँख चूकी और सिर पर गिरी। प्रयाग के कायस्‍थ पाठशाला कालेज में एफ.ए. तक शिक्षा होती थी। बी.ए. तक शिक्षा देने के लिए उसे लंबी-चौड़ी भूमि की फिक्र करनी पड़ी और अब भूमि मिली तो 5 लाख रुपये और चाहिये, कुछ आलीशान भवन के लिये और कुछ अन्‍य टीमटाम के लिये। यही हालत अन्‍य गैर-सरकारी कालेजों की है। और फिर विश्‍वविद्यालय के नियम शिक्षा विभाग की मीठी मर्जी के विरुद्ध तनिक भी चलें, तो खैर नहीं। पढ़ने के लिये किताबों की पसंद करने वाली जो कमेटी है, वह अपने ढंग की निराली चीज है। नजर में जँचे हुए लोगों की बन आती है और वे दोनों हाथों से पब्लिक के ज्ञान और धन को लूटते हैं। हिंदी संसार जानता है कि 'राम कहानी' ऐसी रद्दी पुस्‍तकें तक, लड़कों का दिमाग, बिगाड़ने और अभिभावकों का रुपया लूटने के लिये इस कमेटी से पास हो जाती है। एक 'राम कहानी' की कौन कहे, यहाँ आँखें बंद कर अनेक 'राम कहानियाँ' कभी किसी की मुहब्‍बत से और कभी किसी की खुशामद से पाठ्य पुस्‍तकों में शामिल हो जाती हैं। अंग्रेजी की पुस्‍तकों का ठेका मैकमिलन-लांगमैन आदि अंग्रेजी प्रकाशकों ने ले रक्‍खा है। स्‍त्री-शिक्षा प्रचार का अत्‍यंत बुरा हाल है। ये सब इस प्रांत की बातें हैं, परंतु अन्‍य प्रांतों की दशा भी मिलती-जुलती-सी है। एक कष्‍ट सब जगह के लिये है और वह है कि देश से जो विद्यार्थी विलायत पढ़ने जाते हैं, वे वहाँ बड़ी ही मुश्किल से कालेजों में प्रविष्‍ट हो सकते हैं। इंग्‍लैंड में भारतीय विद्यार्थियों के संरक्षण के लिये एक सरकारी विभाग है। उनका काम उन्‍हें मदद देना है, परंतु इसे मदद कह लो, चाहे जासूसी, बात एक है। विलायत में जो भारतीय छात्र हैं, वे स्‍पष्‍ट रूप से कहते हैं कि इस विभाग के लोग भारतीय छात्रों की बातों को उसी ढंग से लुके-छुपे और अन्‍य प्रकार से ताका-झाँका और देखा करते हैं जिस प्रकार पुलिस का जाजूस संदिग्‍ध आदमी को। इतना ही नहीं, इंग्‍लैंड से लौटे हुए छात्रों का तो यहाँ तक कहना है कि हमारे ये हितैषी यहाँ तक नीचता करते हैं कि इनके कारण हम अमुक कालेज में दाखिल नहीं होने पाये। परमात्‍मा ऐसे संरक्षकों से रक्षा करे!

इन कठिनाइयों पर और इसी प्रकार की अन्‍य बातों पर विचार करने के लिये गत मंगलवार को पं. मदनमोहन मालवीय के सभापतित्‍व में लखनऊ में शिक्षा कान्‍फ्रेंस हुई थी। उसने अनेक प्रस्‍ताव पास किये और अब एक कमेटी बन गयी है, जिसके चेयरमैन डॉ. तेज बहादुर सप्रू और मंत्री मि. सेमउल्‍लाह बेग और प्रिंसिपल संजीव राव हैं, और जो प्रस्‍तावों के अनुसार काम करने की पूरी चेष्‍टा करेगी। हम हृदय से चाहते हैं कि कमेटी को सफलता मिले।