शिक्षा का प्रथम - I / गणेशशंकर विद्यार्थी

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शिक्षा के अधिक प्रचार से देश को जो बड़ा लाभ हो सकता है, उस पर कुछ कहना-सुनना मानी हुई बातों को दोहराना है। किसी भी उद्देश्‍य से हो, परंतु इस बात को स्‍वीकार करना पड़ेगा कि शासकों ने देश में शिक्षा के प्रचार के लिये बहुत कुछ यत्न किया। उनकी शिक्षा-पद्धति में भूलें निकाली गयीं और उसमें भलें हैं भी, परंतु इस बात पर दृष्टि रखते हुए कि हमारे शासक विदेशी हैं और इस देश में उनके सामने शासन की कितनी ही नयी कठिनाइयाँ पड़ती हैं, यह कहना उन पर अन्‍याय करना है कि उन्‍हें अपने काम में सफलता प्राप्‍त ही नहीं हुई। इसके लिये, यद्यपि यह नहीं कहा जा सकता कि और अवस्‍था में इससे अधिक या इतना ही शिक्षा-प्रचार नहीं होता, तो भी देश अंग्रेजी शासन का कृतज्ञ है। परंतु शासकों के उद्देश्‍य के पूरा पड़ने से देश का वह उद्देश्‍य जो उसने शिक्षा-प्रचार से स्थिर किया है, शतांश में भी पूरा नहीं होता। इसका कारण केवल यही है कि शासकों और शासितों का आदर्श एक नहीं है। शासक अब शिक्षा के फैलाव की परवाह नहीं करते, शिक्षा के भविष्‍य के विषय में उनकी दृष्टि अब उसी बात पर है कि चाहे थोड़े ही आदमी शिक्षा पावें, पर वे शिक्षा पावें अच्‍छी रीति से, अच्‍छे पाठशाला भवनों में और अच्‍छे 'बोर्डिंग हाउसों' में रहकर। पर, शासित समझते हैं कि इस प्रकार अधिक धन से थोड़े ही लड़कों की शिक्षा हो सकती है, साधारण आदमदनी के आदमी अपने लड़कों को उच्‍च शिक्षा न दिया सकेंगे और अच्‍छे बोर्डिंग हाउस और सुंदर स्‍कूल-भवन उस रुपये को खा जायेंगे, जिससे सैकड़ों और हजारों गाँव के बच्‍चों को बोलपुर विद्यालय की भाँति पीपल और बरगद के वृक्षों के नीचे प्रकृति की गोद में बिठाकर, कम-से-कम, अक्षरों से परिचय कराया जा सकता था। शासकों की नीति ने देश भर में एक विशेष प्रकार का हाहाकार मचा दिया है। दुर्भिक्ष के कंगालों का हाहाकार देखने का मौका शहर वालों को कम मिलता है, और रोग और भय के समय शहर वाले भागने वालों में सबसे आगे होते हैं, इसलिये, विधि-विडंबना से, इस हाहाकार का दृश्‍य शहर वालों की किस्‍मत में बदा था। किसी भी कस्‍बे या शहर में, शासकों की अच्‍छी शिक्षा-पद्धति के शिकार देखे जा सकते हैं। फेल होने वाले लड़के स्‍कूलों से निकाले जाते हैं। उन्‍हें कहीं ठिकाना नहीं मिलता। झुंड-के-झुंड इधर से उधर मारे-मारे फिरते हैं। यही क्‍यों, पास हो जाने वाले 'सौभाग्‍यवानों' में से भी स्‍कूल बदलने पर बहुतों की यही दुर्दशा होती है। किसी देश का दुर्भाग्‍य इससे बढ़कर क्‍या हो सकता है कि उसके हजारों नवयुवक अपनी हैसियत के अनुसार गाँठ में पैसा और अपनी शक्ति और श्रद्धा के अनुसार गाँठ में पैसा और अपनी शक्ति और श्रद्धा के अनुसार हृदय में विद्या का प्रेम रखते हुए ढूँढने पर भी सरस्‍वती का मंदिर न पावें, और पावें भी तो धक्‍के देकर दरवाजें ही पर से हटा दिये जायें? ऐसी अवस्‍था में क्‍या किया जा सकता है? देश में लोकमत ऐसा प्रबल नहीं कि उससे शासकों का मार्ग बदला जा सके। शिक्षा-प्रचार के काम में बहुत से देशवासियों की शक्तियाँ लगी हैं। वे शासकों से स्‍वतंत्र रहकर काम करते हैं। ऐसे सज्‍जन सच्‍चे देशभक्‍त हैं, वे आदरणीय हैं, वे अनुकरणीय हैं। आवश्‍यकता है कि शिक्षा का कार्य हमारे ही हा‍थों में हो। यह तभी हो सकता है कि जब हममें इसी प्रकार के लोग बढ़ते जायें। इन सज्‍जनों के उद्योग से ही देश को शिक्षा का वह रूप दिख पड़ेगा जिससे उदर-पोषण और चरित्र-गठन होगा। सरकार से हमारा इस प्रकार की शिक्षा की आशा करना कुछ व्‍यर्थ भी है। वह प्रारंभिक शिक्षा ही का प्रचार करे, जो उसका परम कर्तव्‍य है। पर इस बात के लिये हममें ऐसे कार्यशील सज्‍जन उत्‍पन्‍न हों, और आगे चकर हम शासकों पर इच्‍छानुसार लोकमत का पूरा प्रभाव छोड़ सकें। यह आवश्‍यक है कि हम लोगों के हृदय से उस भाव के निकालने का पूरा प्रयत्‍न करें, जिसके अनुसार वे इस समय शिक्षा के प्रश्‍न पर विचार करते हैं और जिसके कारण ही वे अपने बच्‍चों का स्‍कूलों में इधर-इधर ठोकर खाते फिरना गवारा करते हैं। उच्‍च शिक्षा इस समय केवल उदर-पोषण का उपाय समझी जाती है, और वह भी अध्‍यापकत्‍व, वकालत, डॉक्‍टरी, सरकारी नौकरी आदि कुछ थोड़े, पर बहुत ही भरे मार्गों से। शिक्षा के उच्‍च आशय को यदि अधिक आदमी न समझें तो कोई बात नहीं, पर वे उसके इस अर्थ को तो समझ लें कि व्‍यवसाय और व्‍यापार के अधिक धनवान बनाने वाले मार्ग भी उसी के प्रसाद से मिल सकते हैं, और आदमी में आदमीयत के साधारण भाव भी उसी से आते हैं। इस कार्य में हमें किसी धन की आवश्‍यकता नहीं, किसी सरकारी या गैर सरकारी सहायता की जरूरत नहीं, आवश्‍यकता है केवल थोड़ी-सी समझ की, और देश के भविष्‍य की चिंता की।