शिक्षा में बढ़ती व्यवसायिकता उसके परिणाम और सुझाव / सपना मांगलिक

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मैकाले ने कहा था- "मैंने भारत के कोने-कोने में भ्रमण किया है, पर वहाँ मैंने एक भी भिखारी, चोर या असभ्य नहीं देखा। भारतीय बहुत ही उच्च नैतिक मूल्य और प्रतिभा रखते हैं। मैं नहीं सोचता कि हम तब तक भारतीयों को गुलाम बना सकते हैं जब तक इस राष्ट्र की रीढ़ की हड्डी नहीं तोड़ देते, और वह रीढ़ की हड्डी है आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत, इसलिए मैं यह सुझाव देता हूँ कि भारत में ऐसी शिक्षा पद्धति लागू की जाए जिससे भारतीय यह सोचने लगें कि जो कुछ भी विदेशी है, इंग्लैण्ड का है वही सबसे अच्छा है। इस तरह भारत के लोग अपनी विरासत आदि से दूर हो जाएंगे और तभी हम उन्हें पूरी तरह नियंत्रित कर सकेंगे"। मैकाले ने हम भारतियों की शिक्षा पद्धति में बदलाव का जो सुझाव दिया उसका असर आज हमारे यहाँ के स्कूलों और नौनिहालों में दिख रहा है स्कूलों में प्रार्थना के वक्त माँ शारदे की जगह ओ गोड करके जाने क्या बच्चे बिना लय सुर के बडबडाते हैं, हिन्दी में की गयी गलती पर कोई ध्यान नहीं देता अंग्रेजी की वर्तनी में अशुद्धियाँ पकड़ी जाती हैं। स्कूल परिसरों में हिन्दी यानी अपनी मातृभाषा बोलने पर जुर्माना लगाया जाता है। यूँ तो हमारे देश में शिक्षा के क्षेत्र में अनेक निजी एवं सरकारी संस्थाएँ कार्यरत हैं। मगर आज भी हमारे देश में अशिक्षा का अँधेरा गहराया हुआ है। कहते हैं कि धन की गरीबी से ज्ञान की गरीबी का विशेष सम्बंध है। ग्रामीण दूरस्थ अँचलों में ज्ञान की गरीबी पसरी हुई है। जानकारी के अभाव में वहाँ के शिक्षण संस्थान संसाधनों का उपयोग नहीं कर पाते। अनेक परियोजनाओं जिनमे बारहवीं तक की निशुल्क शिक्षा, निशुल्क कितावें, मिड डे मील एवं गणवेश प्रदान करने के वावजूद भी प्राथमिक शिक्षा से भी बच्चे वंचित हैं। जबकि ज़रूरी यह है कि शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के लिए लागू परियोजनाओं को व्यवस्थित ढ़ंग से किसी सुनिश्चित क्षेत्र में लागू कर परिणामों की समीक्षा की जाए। अच्छे परिणाम आने पर उन्हें पूरे देश भर में लागू किया जाए, जिससे कि भारत वर्ष अपने संसाधनों और मानवीय क्षमताओं का बेहतर उपयोग कर सकेंगे जिससे शिक्षा के गुणात्मक विकास की संभावनाएँ तो बढ़ेंगीं ही अपितु देश से बाहर पलायन करने वाली प्रतिभाएं देश में ही रहकर देश का विकास और मान बढाने में भी अपना योगदान प्रदान करेंगी।

वास्तव में हमारी शिक्षा व्यवस्था ज़ंग लगे चाक़ू की तरह हो गयी है जिसे कितना भी चलाओ मगर वह अशिक्षा अज्ञानता के कपड़े को काट ही नहीं पा रहा है और काट भी रहा है तो भोंडा और बेतरतीव जिससे काटने के बाद यह कपड़ा किसी उपयोग का नहीं रह जाता। जब भी बात शिक्षा की आती है सबसे पहला आरोप यहाँ के शिक्षकों पर ही लगाया जाता है कि शिक्षक अपना काम ठीक तरह से नहीं करते लेकिन यह विचार कोई नहीं करता कि उन्हें पढ़ाने क्यों नहीं दिया जाता? शिक्षकों को आए दिन गैर-शैक्षिक कार्यों में इस्तेमाल करता प्रशासन, शिक्षकों की शैक्षिक सोच को, शैक्षिक कार्यक्रमों को पूरी तरह ध्वस्त कर देता है। प्रशासनिक कार्यालय और अधिकारीगण शिक्षा और शिक्षकों की लगातार उपेक्षा करते हैं। उन्हें काम भी नहीं करने देते। इसी कारण स्कूली शिक्षा में अपेक्षित सुधार सम्भव नहीं हो पा रहा है। अक्सर परिषदीय स्कूलों को कार्यालय समझकर, शिक्षकों को प्रतिदिन अनेक प्रकार की डाक बनाने और आँकड़े देने के लिए मजबूर किया जाता है। इससे बच्चों की पढ़ाई में व्यवधान होता रहता है। बच्चे अपने शिक्षकों से सतत् जुड़े रहना चाहते हैं, विशेषकर प्राथमिक स्तर पर। अत: स्कूलों को कार्यालयी कामकाज से वास्तव में मुक्त कर प्रभावी शिक्षण संस्थान बनाया जाना चाहिए। बच्चों को पढ़ाना-सिखाना सरल नहीं होता और न ही बच्चे फाईल होते हैं जिनमे कुछ भी काट छंट कर दराज में फैंक दिया जाए या धुल से अटी पटी अलमारियों में सजा दिया जाए। बच्चों को पढ़ाना कोई आसान काम नहीं होता। विदेशों में शिक्षक को vip का दर्जा प्राप्त होता है और प्राथमिक शिक्षकों को सबसे ज़्यादा वेतन दिया जाता है क्योंकि राष्ट्र की भावी पीढ़ी कोरी स्लेट होती है जिस पर प्राथमिक शिक्षक अपने श्रम और ज्ञान से राष्ट्र के विकास की इबारत लिखते हैं। एक ही विद्यालय में अनेक प्रकार के शिक्षकों के पदस्थ रहते सभी के मन में घोषित-अघोषित तनावों के कारण पढ़ाई में व्यवधान हो रहा है और लोगों के मन में प्राथमिक शिक्षक के लिए ज़्यादा सम्मान भी नहीं बन पाया है। दूसरी तरफ शिक्षक भी पर्याप्त सम्मान और वेतन न मिलने से असंतुष्ट रहते हैं जिससे उनकी कार्य क्षमता और उद्देश्य पर असर पड़ना स्वाभाविक है। इस समस्या से निजात पाने का एकमात्र उपाय यह है कि श्रेष्ठतम शैक्षिक कार्यकर्ताओं की नियुक्ति उनकी योग्यतानुसार मानदेय के साथ की जानी चाहिए। यह भी ज़रूरी है कि शिक्षकों को उनके व्यक्तित्व विकास की प्रक्रियाओं सहित ऐसे प्रशिक्षण संस्थानों में भेजा जाए जहाँ उन्हें अपने अन्दर झाँकने, कुछ बेहतर कर गुजरने की प्रेरणा मिल सके। हमारे आँगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को, बैठे-बैठे तनख्वाह पाने की मानसिकता से निकाल, शिक्षक और सतत शिक्षा केन्द्रों के प्रेरक को एक साथ मिल-बैठकर कार्य करने के लिए तैयार किया जाए। अधिकांश परिषदीय स्कूल अन्य सरकारी कार्यालयों की तर्ज पर 10 से 5 की अवधि में ही खुलते हैं। इस कारण से रोजगार में जुटे परिवारों के बच्चों के लिए वे अनुपयोगी सिध्द हो रहे हैं। स्कूल की समयावधि सरकारी नियंत्रण में होने के कारण बच्चों की उपस्थिति और सीखने का समय कमतर होता जा रहा है। स्कूली उम्र पार कर चुके किशोरों, युवाओं, महिलाओं और कामकाजी लोगों के लिए स्कूल के दरवाजे एक तरह से बन्द ही हैं। विद्यालय समाज की लघुतम इकाई के रूप में सामाजिक शिक्षण केन्द्र के रूप में कार्य कर सकते हैं। इस परिकल्पना को साकार करने की दिशा में पहल किए जाने का दायित्व स्थानीय पालक शिक्षक संघ पूरा कर सकते हैं। अगर समाज की ज़रूरत के चलते चिकित्सालय और थाने दिन-रात खुले रह सकते हैं, तो यह भी उतना ही आवश्यक है कि विद्यालय भी उसी तर्ज पर खुलने चाहियें क्योंकि शिक्षा का अधिकार सबको है और वक्त व् ज़रूरत के हिसाब से सभी को शिक्षा मुहैय्या कराई जानी चाहिए। परिषदीय विद्यालयों में शिक्षक तो एक है मगर छात्र अनेक होते हैं, ऐसे में शिक्षक बच्चों को पढ़ा भी पाएँ, इस हेतु शिक्षक-छात्र अनुपात को व्यवहारिक बनाना होगा। स्कूली शिक्षा में सुधार के लिए शिक्षण विधियों, प्रशिक्षण और परीक्षण की विधियों में भी सुधार करने की ज़रूरत है। कंप्यूटर और अंग्रेजी का ज्ञान वर्तमान समय में बहुत ज़रूरी हो चूका है। शिक्षा के साथ खेल और अन्य गतिविधियों में भी आगे आने की ज़रूरत होती है जिससे कि बच्चों को उनकी काबिलियत और इच्छा के अनुसार क्षेत्र चयन करने के लिए मार्गदर्शन एवं प्रोत्साहान दिया जा सके। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो बच्चों को शुरू से ही किसी क्षेत्र विशेष में आजीविका और रोजगार प्राप्त करने में बच्चों को मदद करे, कहते हैं न कि भूखे पेट भजन न होय गोसाईं उसी तरह जो शिक्षा बच्चों को रट्टू तोता या किताबी कीड़ा बनाकर छोड़ दे उसका क्या महत्त्व। गरीब मजदूरों और कामगारों के बच्चे यह जानकार क्या करेंगे कि सिकंदर ने कहाँ-कहाँ युद्ध कर किस किसको हराया हाँ मगर उन्हें बताया जाए कि जिस जगह वह रह रहे हैं वहाँ कच्चे माल के रूप में कौन कौन-सी चीजें सहज और कम दामों पर उपलब्ध है और उनसे क्या क्या सामान और कैसे बनाया जा सकता है तो निश्चित ही यह शिक्षा उनके जीवन के लिए और उनके परिवार के लिए काफी उपयोगी सिद्ध होगी। स्कूली शिक्षा, महज परीक्षा पास करने या नौकरी / रोजगार पाने का साधन नहीं है। शिक्षा विद्यार्थियों के व्यक्तित्व विकास, अन्तर्निहित क्षमताओं के विकास करने और स्वथ्य जीवन निर्माण के लिए भी ज़रूरी है। शिक्षा प्रत्येक बच्चे को श्रेष्ठ इंसान बनने की ओर प्रवृत्त करे, तभी वह सार्थक सिध्द हो सकती है। तबाही की बाकी कसर हमारा सदियों से चला आ रहा एकरस, उबाऊ पाठयक्रम पूरा कर देता है।आज भी हमारे पाठ्यक्रमों में जितना गांधी जी को पढ़ाया जाता है उतना लाल बहादुर शाष्त्री, भीमराव आंबेडकर और लोहिया को नहीं पढ़ाया जाता है। हमारा पाठ्यक्रम अगर सभी महान विभूतियों के पाठ एक जितने पेज में बिना भेदभाव के दिए जाने चाहियें। गांधी जी के अलावा भी बहुत से वीरों ने भारत को आजादी दिलाने और देश के लिए प्राण न्योछावर करने में कोई कोर कसार नहीं छोड़ी थी। मैंने इन्टरनेट पर शिक्षा व्यवस्था पर एक आलेख पढ़ा जो वर्तमान शिक्षा व्यवस्था पर एक करारा तमाचा है ज़रा उसका एक उद्धरण तो देखिये –"एनसीईआरटी द्वारा तैयार कक्षा तीन की रिमझिम के पाठ-सात 'टिपटिपवा'में एक चित्र है जिसमें एक 'धोबी' एक ब्राह्मण के घर जाकर पोथी बांचकर अपने गधे के बारे में पता करने के लिए कहता है। उस तस्वीर में यह साफ दिखाया गया है कि कैसे धोबी, ब्राह्मण के घर में पैर नहीं रख सकता। इसके अलावा पाठ के अंत में प्रश्नोत्तर में प्रश्न डाला गया है कि 'जरा पोथी बांच कर बताइए कि वह कहाँ है? अपने शब्दों में लिखिए. इस तरह के अंधविश्वास को तीसरी कक्षा के बच्चों को अपने शब्दों में व्यक्त करना सिखाया जाता है"। हमारे प्राथमिक शिक्षकों को धर्म-निरपेक्ष होना ज़रूरी है जबकि ऐसा होता नहीं है। हमारे शिक्षक स्वंय बने धार्मिक मूल्यों को तोड़ते हैं और न ही धर्मनिरपेक्षता को उनके आचरण का हिस्सा बनाते है। इसकी वजह यह है कि वह शिक्षक स्वयं एक समाजीकरण की प्रक्रिया से होकर गुजरा है जो कि एक खास समुदाय, जाति, धर्म, लिंग से संबंधित है। जिससे होता यह है कि शिक्षक पाठ के बतौर तो वैज्ञानिक विचार विद्यार्थियों के सामने रखता है लेकिन अपने व्यवहार में उसके उलट चीजें करता है। वह विद्यार्थियों को भौतिकवादी परिस्थितियों के बारे में पढ़ाएगा लेकिन स्वयं व्रत रखेगा, तिलक लगाएगा, हाथों में मन्नत का कलावा बांधेगा। कोई भी व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से धर्म में आस्था रख सकता है, लेकिन एक शिक्षक विद्यार्थियों के सामने एक आदर्श भी प्रस्तुत करता है। उसका व्यवहार अप्रत्यक्ष पाठ्यक्रम का हिस्सा होता है, जिसे विद्यार्थी लगातार देखते हैं और उससे प्रभावित होते हैं। इसका प्रभाव यह होता है कि बच्चे ने अपने परिवार से जो मूल्य और परंपराएं सीखी हैं, विद्यालय में भी वे उसी रूप में बनी रहती हैं। स्कूल में आम तौर पर मुस्लिम और दलित बच्चे दूसरे बच्चों के साथ अपना खाना आसानी से बांट कर नहीं खा पाते। कभी-कभी तो उन्हें खुद अन्य बच्चों से छुप कर खाना खाना पड़ता है। हमारे यहाँ के विद्यालय अगर मदरसे हैं तो वहाँ नमाज पढवाई जायेगी, स्कूल इसाई है तो चर्च में प्रार्थना के साथ उन्हें गॉड और जीसस पर असंख्य सवाल और उनके जवाब रटाये जायेंगे। बाकी स्कूलों में तो योग के बजाय सुबह प्रार्थना करना ज़्यादा ज़रूरी समझा जाता ही है। भले ही विद्यालय में निश्चित लिखित पाठ्यक्रम हो, जिसमें छात्र / छात्राओं को समान बताया और दिखाया गया हो, लेकिन विद्यालय के कुछ अप्रत्यक्ष पाठ्यक्रम होते हैं। विद्यालय में किया जाने वाला व्यवहार, वहाँ होने वाली गतिविधियां, वहाँ का परिवेश, यह सभी अप्रत्यक्ष पाठ्यक्रम का हिस्सा होते हैं। इसे बच्चे लगातार देखते हैं और सीखते हैं। स्कूलों में अक्सर जाति, वर्ग, रंग और जेंडर आदि के आधार पर भेदभाव किया जाता है। दलित जातियों के बच्चों के साथ प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों तरह से भेदभाव किया जाता है। उन्हें साफ-सफाई की जिम्मेदारी अधिक दी जाती है। ज़रूरी है कि आज के बच्चों में वैज्ञानिक, आलोचनात्क दृष्टि का विकास करने के लिए स्त्री-पुरुष समानता को उदाहरणों और चित्रों के माध्यम से विद्यार्थियों के मन में चित्रित करने का यथोचित प्रयत्न किया जाना चाहिए तथा समाज में श्रम और लिंग के आधार पर होने वाले भेदभाव को दर्शाती सामग्री पर रोक लगानी चाहिए। हमें यह समझना होगा कि वैज्ञानिक चेतना को बढ़ावा देने का काम सिर्फ विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों पर नहीं छोड़ा जा सकता। पहली बात तो यह है कि वैज्ञानिक चेतना को विकसित करने का काम साहित्य और समाज से सीधे-सीधे जुड़े विषय जितनी बखूबी कर सकते हैं, विज्ञान का विषय नहीं क्योंकि दूसरे विषयों से बच्चे भावनात्मक रूप से जुड़ पाते हैं और उनमें निहित संदेशों, प्रतीकों और चिंतन पद्धतियों को स्वाभाविक रूप से अधिक आसानी से ग्रहण करते हैं। जबकि विज्ञान जैसे विषय ज्यादातर अमूर्त और नीरस होने के कारण कम आकर्षित करते हैं और बच्चे उनसे सीधे-सीधे बहुत आसानी से नहीं जुड़ पाते।

हमारा पाठ्यक्रम बच्चों को मानव संसाधन की तरह इस्तेमाल किया जाता है। बच्चे सिर्फ संसाधन बन जाते हैं। उन्हें अलग-अलग उत्पादन क्षेत्रों के अनुसार तैयार किया जाता है। आजकल व्यावसायिक शिक्षा का इतना चलन है जिसमें विद्यालय केवल मशीनें चलाने वाले वर्ग या कर्मचारी को पैदा करता है। वह ऐसे ज्ञान का निर्माण नहीं करती जिससे वह अपने समाज के प्रति सचेत व्यक्ति बना सके। यही कारण है कि हमें ऐसे कई विज्ञान के विद्यार्थी मिल जाएंगे जो विज्ञान की शिक्षा पाकर डॉक्टर या इंजीनियर तो बन जाते है लेकिन उनकी जीवनशैली उतनी ही अवैज्ञानिक और पोंगापंथी होती है। वह दूसरों जितने ही धार्मिक और अंधविश्वासी होते हैं। हम अपने देश के संदर्भ में इस खतरे को पूरा होते हुए देख भी रहे हैं, कि कैसे आईआईटी और वैज्ञानिक तथा तकनीकी शिक्षा संस्थान ब्राह्मणवादी, सामंती और धार्मिक मूल्यों और राजनीतिक नजरिए के गढ़ बने हुए हैं। राजेन्द्र पचौरी, स्पेस में जाने वाली 'सुनीता विलियम्स', रेसलर खली जैसे बड़े नामों का जिक्र हम गर्व से करते हैं और प्रसन्न हो लेते हैं कि ये सभी भारतीय हैं, लेकिन क्या उनकी सफलताओं में भारत का योगदान है? बात साफ़ है कि योग्य विद्यार्थियों के लिए भारत में कोई जगह नहीं यहाँ बड़ी बड़ी प्रतियोगी परीक्षाएं आयोजित तो होती हैं मगर संस्थान में प्रवेश औसत अंकों वाले आरक्षण कोटे के विद्यार्थी पाते हैं। हमारे भारत में इन दिनों जगह-जगह पर लुभावने विज्ञापनों और बोर्ड टांगने वाले, कुकुरमुत्ते की तरह बढ़ते हुए प्राइवेट कालेज भी एक समस्या बने हुए हैं लेकिन सरकार से मान्यता प्राप्त न होने या फिर मान्यता के समाप्त हो जाने के कारण भी यहाँ से शिक्षित विद्यार्थी अपनी डिग्री लिए दरदर भटकते मिलते हैं। जो एक गहरे असंतोष को जन्म दे रहा है और ये ज़हीन तथा मासूम विद्यार्थी अपनी योग्यता, क्षमता से बहुत कम में ही काम करके गुजारा कर रहे हैं। इस तरह से प्रतिभा का हनन भी हो रहा है और हमारे देश की प्रतिभाओं का विदेश में पलायन भी हो रहा है?

अंत में शिक्षा में सुधार की आवश्यकता तो बहुत है पर इस दिशा में सिर्फ विचार और कागजी कार्यवाही ही हो रही है, सरकारी स्कूलो में शिक्षा का स्तर घटिया है और प्राइवेट में फीस महँगी। नतीजा या तो आपको कुछ नहीं मिलेगा या सब कुछ मिलेगा। वैसे अब हमारे देश में शैक्षणिक शिक्षा के साथ साथ व्यवसायिक शिक्षा को अत्याधिक महत्त्व दिया जाना चाहिए। फिर भी हमारी शैक्षणिक शिक्षा प्रणाली में काफी खामियां हैं जिन्हें विदेशों की तर्ज पर सुधारे जाने की आवश्यकता है। भारतीय शिक्षा जब तक मैकाले-काल में ही जीती रहेगी, दोगली ही रहेगी! अंगेजी की पूछँ पकड़कर हम जहाँ भी जायेंगे, पिछ्ल्ग्गू ही कहलायें जायेंगे।अभी जो सुधार की बातें प्रशासन कर रहा है वह महज एक पैबंद है और यह तो सब जानते हैं कि फटी चीज उतनी बुरी नहीं लगती जितना कि पैबंद, आवश्यकता है कि देश में ऐसे सरकारी स्कूल हों जिनमे आई.ए.एस अधिकारी, क्लर्क और चपरासी सबके बच्चे एक साथ एक छत के नीचे पड़ सकें। एक-सी किताबे हों, एक-सी पोशाक, एक से अध्यापक। तभी देश सबके साथ सबका विकास कर पायेगा। देश के नेता और मानव संसाधन मंत्री चाहे कितना ही शिक्षा पद्धति में बदलाब लाने की बात क्यों न करें मगर ज़रूरत है कि जो प्रचलित पद्धति है उसे ही सही ढंग से क्रियान्वित किया जाए। पद्धति चाहे कितनी भी सही क्योँ न बना दी जाये जब तक उसका क्रियान्वयन सही ढंग से नहीं होगा तब तक निश्चित सफलता प्राप्त नहीं कि जा सकती।