शिक्षा / हिंद स्वराज / महात्मा गांधी

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पाठक : अपने इतना सारा कहा, परंतु उसमें कहीं भी शिक्षा-तालीम की जरूरत तो बताई ही नहीं। हम शिक्षा की हमेशा शिकायत करते रहते हैं। लाजिमी तालीम देने का आंदोलन हम सारे देश में देखते हैं। महाराजा गायकवाड़ ने (अपने राज्‍य में) लाजिमी शिक्षा शुरू की है। उसकी ओर सबका ध्यान गया है। हम उन्हें धन्‍यवाद देते हैं। यह सारी कोशिश क्‍या बेकार ही समझनी चाहिए?

संपादक : अगर हम अपनी सभ्‍यता (तहजीब) को सबसे अच्‍छी मानते हैं, तब तो मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ेगा कि वह कोशिश ज्‍यादातर बेकार ही है। महाराजा साहब और हमार दूसरे धुरंधर नेता सबको तालीम देने की जो कोशिश कर रहे हैं, उसमें उनका हेतु निर्मल है। इसलिए उन्हें धन्‍यवाद ही देना चाहिए। लेकिन उनके हेतु का जो नतीजा आने की संभावना है, उसे हम छिपा नहीं सकते।

शिक्षा : तालीम का अर्थ क्‍या है? अगर उसका अर्थ सिर्फ अक्षरज्ञान ही हो, तो वह तो एक साधन जैसी ही हुई। उसका अच्‍छा उपयोग भी हो सकता है और बुरा उपयोग भी हो सकता है। एक शस्‍त्र से ची-फाड़ करके बीमार को अच्‍छा किया जा सकता है और वही शस्‍त्र किसी की जान लेने के लिए भी काम में लाया जा सकता है। अक्षर-ज्ञान का भी ऐसा ही है। बहुत से लोग उसका बुरा उपयोग करते हैं। यह तो हम देखते ही हैं। उसका अच्‍छा उपयोग प्रमाण में कम ही लोग करते हैं। यह बात अगर ठीक है तो उससे यह सबित होता है कि अक्षर-ज्ञान से दुनिया को फायदे के बदले नुकसान ही हुआ है।

शिक्षा का साधारण अर्थ अक्षर-ज्ञान ही होता है। लोगों को लिखना, पढ़ना और हिसाब करना सिखाना बुनियादी या प्राथमिक - प्रायमरी - शिक्षा कहलाती है। एक किसान ईमानदारी से खुद खेती करके रोटी कमाता है। उसे मामूली तौर पर दुनियावी ज्ञान है। अपने माँ-बाप के साथ कैसे बरतना, अपनी स्‍त्री के साथ कैसे बरतना, बच्‍चों से कैसे पेश आना, जिसे देहात में वह बसा हुआ है वहाँ उसकी चाल-ढाल कैसी होनी चाहिए, इन सबका उसे काफी ज्ञान है। वह नीति के नियम समझता है और उनका पालन करता है। लेकिन वह अपने दस्‍तखत करना नहीं जानता। इस आदमी को आप अक्षर-ज्ञान देकर क्‍या करना चाहते है? क्‍या उसकी झोंपड़ी या उसकी हालत के बारे में आप उसके मन में असंतोष पैदा करना चाहते हैं। पश्चिम के असर के नीचे आकर हमने यह बात चलाई है कि लोगों को शिक्षा देनी चाहिए। लेकिन उसके बारे में हम आगे-पीछे की बात सोचते ही नहीं।

अब ऊँची शिक्षा को लें। मैं भूगोल-विद्या सीखा, खगोल-विद्या (आकाश के तारों की विद्या) सीखा, बीजगणित (एलजब्रा) भी मुझे आ गया, रेखागणित (ज्‍यॉमेट्री) का ज्ञान भी मैंने हासिल किया, भूगर्भ-विद्या को भी मैं पी गया। लेकिन उससे क्‍या? उससे मैंने अपना कौन-सा भला किया? अपने आस-पास के लोगों का क्‍या भला किया? किस मकसद से मैंने वह ज्ञान हासिल किया? उससे मुझे क्‍या फयादा हुआ? एक अँग्रेज विद्वान (हक्‍सली) ने शिक्षा के बारे में यों कहा है : 'उस आदमी ने सच्‍ची शिक्षा पाई है, जिसके शरीर को ऐसी आदत डाली गई है कि वह उसके बस में रहता है, जिसका शरीर चैन से और आसानी से सौंपा हुआ काम करता है। उसने सच्‍ची शिक्षा पाई है, जिसकी बुद्ध शुद्ध, शांत और न्‍यायदर्शी है। उसने सच्‍ची शिक्षा पाई है, जिसका मन कुदरती कानूनों से भरा है और जिसकी इंद्रियाँ उसके बस में हैं, जिसके मन की भावनाएँ बिलकुल शुद्ध हैं, जिसे नीच कामों से नफरत है और जो दूसरों को अपने जैसा मानता है। ऐसा आदमी ही सच्‍चा शिक्षित (तालीमशुदा) माना जाएगा, क्‍योंकि वह कुदरत के कानून के मुताबिक चलता है। कुदरत उसका अच्‍छा उपयोग करेगी और वह कुदरत का अच्‍छा उपयोग करेगा।' अगर यही सच्‍ची शिक्षा हो तो मैं कसम खाकर कहूँगा कि ऊपर जो शास्‍त्र मैंने गिनाए हैं उनका उपयोग मेरे शरीर या मेरी इंद्रियों को बस में करने के लिए मुझे नहीं करना पड़ा। इसलिए प्रायमरी - प्राथमिक शिक्षा को लीजिए या ऊँची शिक्षा को लीजिए, उसका उपयोग मुख्‍य बात में नहीं होता उससे हम मनुष्‍य नहीं बनते - उससे हम अपना कर्तव्‍य नहीं जान सकते।

पाठक : अगर ऐसा ही है, तो मैं आपसे एक सवाल करूँगा। आप ये जो सारी बातें कह रहे हैं, वह किसकी बदौलत कह रहे हैं? अगर आपने अक्षर-ज्ञान और ऊँची शिक्षा नहीं पाई होती, तो ये सब बातें आप मुझे कैसे समझा पाते?

संपादक : आपने अच्‍छी सुनाई। लेकिन आपके सवाल का मेरा जवाब भी सीधा ही है। अगर मैंने ऊँची या नीची शिक्षा नहीं पाई होती, तो मैं नहीं मानता कि मैं निकम्‍मा आदमी हो जाता। अब ये बातें कहकर मैं उपयोगी बनने की इच्‍छा रखता हूँ। ऐसा करते हुए जो कुछ मैंने पढ़ा उसे मैं काम में लाता हूँ; और उसका उपयोग, अगर वह उपयोग हो तो, मैं अपने करोड़ों भाइयों के लिए नहीं कर सकता, सिर्फ आप जैसे पढ़े-लिखों के लिए ही कर सकता हूँ। इससे भी मेरी ही बात का समर्थन होता है। मैं और आप दोनों गलत शिक्षा के पंजे में फँस गए थे। उसमें से मैं अपने को मुक्‍त हुआ मानता हूँ। अब वह अनुभव मैं आपको देता हूँ और उसे देते समय ली हुई शिक्षा का उपयोग करके उसमें हो रही सड़न मैं आपको दिखाता हूँ।

इसके सिवा, आपने जो बात मुझे सुनाई उसमें आप गलती खा गए, क्‍योंकि मैंने अक्षर-ज्ञान को (हर हालत में) बुरा नहीं कहा है। मैंने तो इतना ही कहा है कि उस ज्ञान की हमें मुर्ति की तरह पूजा नहीं करनी चाहिए। वह हमारी कामधेनु नहीं है। वह अपनी जगह पर शोभा दे सकता है। और वह जगह यह है : जब मैंने और आपने अपनी इंद्रियों को बस में कर लिया हो, जब हमने नीति की नींव मजबूत बना ली हो, तो उसे पाकर हम उसका अच्‍छा उपयोग कर सकते हैं। वह शिक्षा आभूषण के रूप में अच्‍छी लग सकती है। लेकिन अक्षर-ज्ञान को अगर आभूषण के तौर पर ही उपयोग हो, तो ऐसी शिक्षा को लाजिमी करने की हमें जरूरत नहीं। हमारे पुराने स्‍कूल ही काफी हैं। वहाँ नीति को पहला स्‍थान दिया जाता है। वह सच्‍ची प्राथमिक शिक्षा है। उस पर हम जो इमारत खड़ी करेंगे वह टिक सकेगी।

पाठक : तब क्‍या मेरा यह समझना ठीक है कि आप स्वराज के लिए अँग्रेजी शिक्षा का कोई उपयोग नहीं मानते?

संपादक : मेरा जवाब 'हाँ' और 'नहीं' दोनों है। करोडो़ं लोगों को अँग्रेजी की शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। मेकोले ने शिक्षा की जो बुनियाद डाली, वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी। उसने इसी इरादे से अपनी योजना बनाई थी, ऐसा मैं नहीं सुझाना चाहता। लेकिन उसके काम का नतीजा यही निकला है। यह कितने दुख की बात है कि हम स्वराज की बात भी पराई भाषा में करते है।

जिस शिक्षा को अँग्रेजों ने ठुकरा दिया है वह हमारा सिंगार बनती है, यह जानने लायक है। उन्‍होंने विद्वान कहते रहते हैं कि उसमें यह अच्‍छा नहीं है, वह अच्‍छा नहीं है। वे जिसे भूल-से गए हैं, उसी से हम अपने अज्ञान के कारण चिपके रहते हैं। उनमें अपनी-अपनी भाषा की उन्‍नति करने की कोशिश चल रही है। वेल्‍स इंग्लैंड का एक छोटा सा परगना है; उसकी भाषा धूल जैसी नगण्‍य है। ऐसी भाषा का अब जीर्णोंद्वार हो रहा है।

वेल्‍स के बच्‍चे वेल्‍श भाषा में ही बोलें, ऐसी कोशिश वहाँ चल रही है। इसमें इंग्‍लैंड के खजांची लॉयड जॉर्ज बड़ा हिस्‍सा लेते हैं। और हमारी दशा कैसी है? हम एक-दूसरे को पत्र लिखते हैं तब गलत अँग्रेजी में लिखते हैं। एक साधारण एम.ए. पास आदमी भी ऐसी गलत अँग्रेजी से बचा नहीं होता। हमारे बच्‍चे से अच्‍छे विचार प्रगट करने का जरिया है अँग्रेजी; हमारी कांग्रेस का कारोबार भी अँग्रेजी में चलता है। अगर ऐसा लंबे अरसे तक चला, तो मेरा मानना है कि आनेवाली पीढ़ी हमारा तिरस्‍कार करेगी और उसका शाप हमारी आत्म को लगेगा।

आपको समझना चाहिए कि अँग्रेजी शिक्षा को लेकर हमने अपने राष्‍ट्र को गुलाम बनाया है। अँग्रेजी शिक्षा से दंभ, राग, जुल्‍म बगैरा बढ़े हैं। अँग्रेजी शिक्षा पाए हुए लोगों ने प्रजा को ठगने में, उसे परेशान करने में कुछ भी उठा नहीं रखा है। अब अगर हम अँग्रेजी शिक्षा पाए हुए लोग उसके लिए कुछ करते हैं, तो उसका हम पर जो कर्ज चढ़ा हुआ है उसका कुछ हिस्‍सा ही हम अदा करते हैं।

यह क्‍या कम जुल्‍म की बात है कि अपने देश में अगर मुझे इंसाफ पाना हैं। तो मुझे अँग्रेजी भाषा का उपयोग करना चाहिए। बैरिस्‍टर होने पर मैं स्‍वभाषा में बोल ही नहीं सकता! दूसरे आदमी को मेरे लिए तरजुमा कर देना चाहिए! यह कुछ कम दंभ है? यह गुलामी की हद नहीं तो और क्‍या है? इसमें मैं अँग्रेजों का दोष निकालूँ या अपना? हिंदुस्तान को गुलाम बनानेवाले तो हम अँग्रेजी जाननेवाले लोग ही हैं। राष्‍ट्र की हाय अँग्रेजों पर नहीं पड़ेगी, बल्कि हम पर पड़ेगी।

लेकिन मैंने आपसे कहा की मेरा जवाब 'हाँ' और 'ना' दोनों है। 'हाँ' कैसे सो मैंने आपको समझाया।

अब 'ना' कैसे यह बताता हूँ। हम सभ्‍यता के रोग में ऐसे फँस गए हैं कि अँग्रेजी शिक्षा बिलकुल लिए बिना अपना काम चला सकें ऐसा समय अब नहीं रहा। जिसने वह शिक्षा पाई है, वह उसका अच्‍छा उपयोग करे। अँग्रेज के साथ के व्‍यवहार में, ऐसे हिंदुस्तानियों के साथ के व्‍यवहार में जिनकी भाषा हम समझ न सकते हों और अँग्रेज खुद अपनी सभ्‍यता से कैसे परेशान हो गए हैं यह समझने के लिए अँग्रेजी का उपयोग किया जाए। जो लोग अँग्रेजी पढ़े हुए हैं उनकी संतानों की पहले तो नीति सिखानी चाहिए, उनकी मातृभाषा सिखानी चाहिए और हिंदुस्तान की एक दूसरी भाषा सिखानी चाहिए। बालक जब पुख्‍ता (पक्‍की) उम्र के हो जाए तब भले ही वे अँग्रेजी शिक्षा पाएँ, और वह भी उसे मिटाने के इरादे से, न कि उसके जरिए पैसे कमाने के इरादे से। ऐसा करते हुए भी हमें यह सोचना होगा कि अँग्रेजी में क्‍या सीखना चाहिए और क्‍या नहीं सीखना चाहिए। कौन से शास्‍त्र पढ़ने चाहिए, यह भी हमें सोचना होगा। थोड़ा विचार करने से ही हमारी समझ में आ जाएगा कि अगर अँग्रेजी डिग्री लेना हम बंद कर दें, तो अँग्रेज हकिम चौंकेंगे।

पाठक : तब कैसी शिक्षा दी जाए?

संपादक : उसका जवाब ऊपर कुछ हद तक आ गया है। फिर भी इस सवाल पर हम और विचार करें। मुझे तो लगता है कि हमें अपनी सभी भाषाओं को उज्‍जवल - शानदार बनाना चहिए। हमें अपनी भाषा में ही शिक्षा लेनी चाहिए - इसके क्‍या मानी है, इसे ज्‍यादा समझाने का यह स्‍थान नहीं है। जो अंग्रजी पुस्‍तकें काम की हैं, उनका हमें अपनी भाषा में अनुवाद करना होगा। बहुत से शास्‍त्र सीखने का दंभ और वहम हमें छोड़ना होगा। सबसे पहले तो धर्म की शिक्षा पा नीति की शिक्षा दी जानी चाहिए। हरएक पढ़े-लिखे हिंदुस्‍तानी को अपनी भाषा का, हिंदू को संस्‍कृत का, मुसलमान को अरबी का, पारसी को फारसी का और सबको हिंदी का ज्ञान होना चाहिए। कुछ हिंदुओं को अरबी और कुछ मुसलमानों और परसियों को संस्‍कृत सीखनी चाहिए। उत्‍तरी और पश्चिमी हिंदुस्तान के लोगों को तामिल सीखनी चाहिए। सारे हिंदुस्तान के लिए जो भाषा चहिए, वह तो हिंदी ही होनी चाहिए। उसे उर्दू या नागरी लिपि में लिखने की छूट रहनी चाहिए। हिंदू-मुसलमानों के संबंध ठीक रहें, इसलिए बहुत से हिंदुस्‍तानियों का इन दोनों लिपियों को जान लेना जरूरी है। ऐसा होने से हम आपस के व्‍यवहार में अँग्रेजी को निकाल सकेंगे।

और यह सब किसके लिए जरूरी है? हम जो गुलाम बन गए हैं उनके लिए। हमारी गुलामी की वजह से देश की प्रजा गुलाम बनी है। अगर हम गुलामी से छूट जाए, तो प्रजा तो छूट ही जाएगी।

पाठक : अपने जो धर्म की शिक्षा की बात कही वह बड़ी कठिन है।

संपादक : फिर भी उसके बिना हमारा काम नहीं चल सकता। हिंदुस्तान कभी नास्तिक नहीं बनेगा। हिंदुस्तान की भूमि में नास्तिक फल-फूल नहीं पकते। बेशक, यह काम मुश्किल है। धर्म की शिक्षा का ख्याल करते ही सिर चकराने लगता है। धर्म के आचार्य दंभी और स्‍वार्थी मालूम होते हैं। उनके पास पहुँचकर हमें नम्र भाव से उन्हें समझाना होगा। उसकी कुंजी मुल्‍लों, दस्‍तूरों और ब्राह्मणों के हाथ में है। लेकिन उनमें अगर सदबुद्धि पैदा ने हो, तो अँग्रेजी शिक्षा के कारण हममें जो जोश पैदा हुआ है उसका उपयोग करके हम लोगों को नीति की शिक्षा दे सकते हैं। यह कोई बहुत मुश्किल बात नहीं है। हिंदुस्‍तानी सागर के किनारे पर ही मैल जमा है। उस मैल से जो गंदे हो गए हैं उन्हें साफ होना है। हम लोग ऐसे ही हैं और खुद ही बहुत कुछ साफ हो सकते हैं। मेरी यह टीका करोंड़ों लोगो के बारे में नहीं है। हिंदुस्‍तान को असली रास्‍ते पर लाने के लिए हमें ही असली रास्‍ते पर आना होगा। बाकी करोड़ो लोग तो असली रास्‍ते पर ही हैं। उसमें सुधार, बिगाड़, उन्‍नति, अवनति समय के अनुसार होते ही रहेंगे। पश्‍चिम की सभ्‍यता को निकाल बाहर करने की ही हमें कोशिश करनी चाहिए। दूसरा सब अपने-आप ठीक हो जाएगा।