शीतल पेय, क्रिकेट और अवैध आवास / जयप्रकाश चौकसे

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शीतल पेय, क्रिकेट और अवैध आवास
प्रकाशन तिथि : 15 नवम्बर 2013


आज मुंबई सचिनमय है और संजय लीला भंसाली भी प्रसन्न हैं कि उनकी 'राम लीला' से कानूनी प्रतिबंध हट गया है। इसके साथ ही मुंबई के श्रेष्ठि वर्ग के कैंपाकोला कंपाउंड के वे पैंतीस ?लैट मालिक भी प्रसन्न हैं कि अदालत ने उन्हें कुछ मोहलत और रियायत दी है। अत: मुंबई का फिल्म जगत, खेल जगत और श्रेष्ठि वर्ग तीनों ही प्रसन्न हैं। और झोपड़पट्टी में रहने वाले हर हाल में खुश रहते ही हैं। विराट मध्यम वर्ग की खुशी में हमेशा रंज की छाया होती है और गम में हमेशा खुशी की संभावना छुपी होती है। इस वर्ग की दुविधा, विरोधाभास और विसंगतियां हमेशा कायम रहने वाली हैं। गौरतलब यह भी है कि यह सब पंडित जवाहरलाल नेहरू के जन्म दिन पर हो रहा है। भारत में आधुनिकता की नींव रखने वाले इस महान व्यक्ति की छवि पर कीचड़ उछालने का काम तो आर्थिक उदारवाद से ही प्रारंभ हो गया था। मानो इस उदारवाद को स्थापित करने के लिए गुजश्ता मिश्रित आर्थिक नीति पर कीचड़ उछालना अनिवार्य हो। वे कब कहां गए, नहीं गए इसके हिसाब पूछे जा रहे हैं। मूर्तियां स्थापित करने से ज्यादा आनंद हमें मूर्तियां खंडित करने में मिलता है। राजनैतिक दल सारा वर्ष ही होली खेलते हैं और चुनाव का मौसम तो उसके लिए बहार का मौसम है।

संजय लीला भंसाली 'राम लीला' से अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा अर्जित करना चाहते हैं और विघ्न संतोषी लोगों ने उनकी फिल्म को रोकना चाहा परंतु न्यायालय ने उन्हें अवसर उपलब्ध करा दिया है। और न्यायालय ने ही कैंपाकोला कंपाउंड के अवैध फ्लैटों के धनाढ्य मालिकों को राहत दी और आज इस कंपाउंड में दीवाली मनाई जा रही है। ये तमाम रहवासी वे लोग हैं जिन्होंने कभी कैंपाकोला नहीं पिया। ये पेप्सी और कोकाकोला पसंद करने वाले लोग हैं और इन्होंने करोड़ों का फ्लैट लेते समय भी ओक्यूपेशन सर्टिफिकेट नहीं देखा। बिजली और जल विभाग ने निगम के कागज देखे बिना इन्हें बिजली-पानी मुहैया कराया। किसी बिल्डर या अधिकारी पर अवैध काम करने का कोई दंड नहीं है।

तीन दिन पूर्व टाईम्स के टेलीविजन चैनल पर इन धनाढ्य अवैध घरों में रहनेवालों का तथाकथित दारुण विलाप घंटों तक चला। इन महानुभावों ने इंटरनेट से ऑल्टरनेट दुनिया में खूब शोर मचाया था। आज नया व्यवसाय शुरू हो गया है, पैसा लेकर मनगढ़ंत बातें इस माध्यम द्वारा जारी की जाती हैं।

सब मिलाकर ऐसा वातावरण बनाया गया मानो इन पैंतीस लोगों को न्याय नहीं मिलने से दुनिया बदल जाएगी। और यही व्यावसायिक शोर मचाने वालों ने गरीबों की झोपडिय़ों पर बुलडोजर चलते समय कोई आवाज नहीं उठाई। अगर कैंपाकोला वालों का वर्षों से रहना कोई दलील है तो झोपड़पट्टी वाले पचास वर्षों से वहां रह रहे थे। सारांश यह है कि आज के भारत महान में न्याय के मानदंड अलग हैं।

कैंपाकोला के अमीर का दर्द दर्द है और झोपड़पट्टी का ढोंग है, जबकि दोनों ही पक्ष अवैध जगह रह रहे हैं। गोयाकि भारत में गुनाह और दंड सभी वर्गों के लिए समान नहीं है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने अवैध भवन के हटाए जाने की प्रक्रिया को अपनी सत्ता से रोकने की कोशिश नहीं की, परंतु इस सच्चे काम की अब निंदा की जा रही है।

मध्यम वर्ग और मीडिया अन्यायपूर्ण व्यवस्था पर मगरमच्छ के आंसू बहाते हैं परंतु कैंपाकोला कंपाउंड के मामले में यह इकट्ठा हो गए। सिनेमा में कलाकार आंसू बहाने के दृश्य के पूर्व आंख में ग्लिसरीन लगाता है, मध्यम वर्ग किसी नापसंद व्यक्ति की मौत पर प्याज के रस से आंसू बहाता है। खेल तमाशे के आंसू व्यावसायिक आवश्यकता है पर रिश्तों के नकली आंसू सांस्कृतिक खोखलापन है।

यह भी गौरतलब है कि कैंपाकोला शीतल पेय लोकप्रिय रहा परंतु आर्थिक उदारवाद ने विदेशी शीतल पेय की आमद शुरू की और अपने डॉलर बल से उन्होंने देशी कैंपा को व्यवसाय से बाहर कर दिया। यही विदेशी शीतल पेय क्रिकेट और सिनेमा के सबसे बड़े प्रायोजक हैं और ऐसे मुर्गे हैं कि बांग न दें तो सत्य का सूर्य न उदय हो।