शीत का प्रकोप अौर फुटपाथ पर पलता, ठिठुरता भारत / जयप्रकाश चौकसे

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शीत का प्रकोप अौर फुटपाथ पर पलता, ठिठुरता भारत
प्रकाशन तिथि :01 फरवरी 2016


प्रबल शीत लहर का भयावह प्रभाव महानगरों के फुटपाथ पर जीवन व्यतीत करने वाले असंख्य लोगों पर पड़ता है। महानगरों में कुछ भवन आश्रय के लिए बनाए गए हैं परंतु वे नाकाफी हैं और वहां भी कुछ दादा, लोगों से पैसे वसूलते हैं जो सरकारी कोष में नहीं जाता। हमारे यहां इस तरह के जाने कितने अवैध तरीकों से धन एकत्रित होता है, जो कभी कोषालय नहीं जाता। फुटपाथ पर बसे लोग जगह-जगह अलाव जलाकर शीत से लड़ते हैं। महानगर के अनेक धनाढ्य व्यक्ति बहुत दान-धर्म भी करते हैं परंतु वे संगठित होकर इस धन से एक कमरे व किचन के घरों के बहुमंजिला नहीं बनाते और हर वर्ष फुटपाथ पर जीवन बसर करने वालों की संख्या बढ़ जाती है। किसी विदेशी मेहमान के आगमन पर चंद घंटों के लिए फुटपाथ पर घर के नाम पर टाट के परदों के घर नष्ट कर दिए जाते है। इन टाट के परदों के भीतर बसे संसार पर 'टाट के परदे' नामक सआदत हुसैन मंटो की कहानी पढ़िए। कुछ फिल्मों में फुटपाथ पर पसरे जीवन की झलकियां देखने को मिलती है।

राज कपूर के 'श्री 420' में इलाहाबाद से आया एक बेरोजगार युवा फुटपाथ पर रात गुजारना चाहता है तो फुटपाथ के स्वयंभू मालिक उससे पैसा मांगते हैं और नहीं दे पाने पर पिटाई करते हैं। इस फिल्म में सेठ सोनाचंद धरमानंद की कोठी के सामने बने फुटपाथ पर अनेक दृश्य और गीत फिल्माएं गए हैं। एक पात्र कहता है कि इस फुटपाथ पर सोने का भाड़ा डबल है, क्योंकि सेठजी की कोठी पर पकाए जाते पकवानों की खुशबू आती है। हर काल खंड में हमारा अवाम यह खुशबू भरपेट सूंघकर ही बड़ा हुआ है। 'भूख ने इन्हें बड़े प्यार से है पाला।' इसी फुटपाथ पर बसे भारत में गीत गाए जाते हैं और आवाज से सेठजी का अमन भंग होता है तो वे पुलिस को फोन करते हैं और उसी समय गीत की पंक्ति है, 'बिन मौसम मल्हार न गाना वरना पकड़ लेगा पुलिस वाला।' यह फिल्म आजादी के सातवें वर्ष में प्रदर्शित हुई थी और उस समय सेठ सोनाचंद धरमानंद मात्र लखपति थे और आज वे करोड़पति हैं। वह 'इंडिया' है और फुटपाथ पर पलता 'भारत' अब और अधिक गरीब है। तमाम सरकारें सेठ सोनाचंद धरमानंद की मुट्‌ठी में रही हैं और आज भी उस लौहपाश से मुक्त नहीं है। वह उस गुदगुदी और गर्म मुट्‌ठी से मुक्त ही नहीं होना चाहता और हर वर्ष शीत ऋतु में फुटपाथ पर सोने वालों में मृतकों की संख्या बढ़ती जा रही है। उन बदनसीबों को केवल चिता में ताप मिलता है और जीवन भर की ठिठुरन समाप्त होती है। बस वह इस लम्हे के लिए तो जी रहा था। रमेश सहगल की राज कपूर अभिनीत 'फिर सुबह होगी' में अनेक दृश्य और गीत फुटपाथ पर रचे गए हैं। इसके एक गीत की पंक्तियां हैं 'जेब है अपनी खाली, वरना क्यों देता गाली वह पासबां हमारा, वह संतरी हमारा।' 'जागते रहो' का प्रारंभ ही एक सामंतवादी सेठ के शराब के नशे में फुटपाथ पर लहराने से शुरू होता है और वह फुटपाथ पर सो रहे भिखारी के मुंह में शराब की चंद बूंदें डालता है और इस प्रक्रिया में एक-दो बूंदें फुटपाथ पर गिर जाती हैं। तब शैलेंद्र की पंक्तियां हैं, 'मय का एक कतरा पत्थर के होठों पर पड़ा और उसने भी कहा जिंदगी एक ख्वाब है।'

जिया सरहदी की 'अवाज' और दिलीप कुमार अभिनीत 'फुटपाथ' में भी भारत के विरोधाभास और विसंगतियों को प्रस्तुत किया गया है। 'फुटपाथ' का बेरोजगार नायक सेठ सोनाचंद धरमानंद की मिलावट करके दवा बनाने के कारखाने में नौकरी करता है और हजारों मौतों के बाद अदालत के कटघरे में खड़े होकर कहता है, 'मुझे अपनी सांसों में सैकड़ो मुरदों की दुर्गध महसूस होती है।' दिलीप कुमार ने यह संवाद भावना की इतनी तीव्रता से अभिव्यक्त किया था कि मरघट-सा सिन्नटा सिनेमा हॉल में छा जाता था। गौरतलब है कि नकली दवाओं के उत्पादन पर ऋषिकेश मुखर्जी की राज कपूर-नूतन अभिनीत 'अनाड़ी' भी बनी थी। जहां यथार्थवादी 'फुटपाथ' असफल हुई, वहां 'अनाड़ी' सफल रही, क्योंकि इसे शकर में लिपटी कुनैन की तरह बनाया गया था और इसका गीत-संगीत मधुर था। शंकर-जयकिशन और शैलेंद्र, हसरत ही वह दीवार है जो दोनों फिल्मों का अंतर है। 'अनाड़ी' के गीत है 'किसी की मुस्कराहट पर हो निसार, ले सके तो ले किसी का दर्द उधार, मरकर भी याद आएंगे, किसी के आंसुओं में मुस्कराएंगे और 'सब कुछ सीखा हमने ना सीखी होशयारी, सच है दुनिया वालों कि हम हैं अनाड़ी।' दोनों कालखंड में अंतर यह है कि आज 'होशियारों' की संख्या बढ़ गई है और 'अनाड़ी' घट गए हैं। निदा फाजली ने लिखा है 'सोच समझ वालों को मौला थोड़ी नादानी दे, बच्चों को गुड़-धानी दे। भारत बनाम इंडिया की जंग जारी है और आज इंडिया की चकाचौंध में भारत सिकुड़ता हुआ नजर आ रहा है। शीघ्र ही वह अदृश्य होने वाला 'मि. इंडिया' बन सकता है।