शुकली / अंजू खरबंदा

Gadya Kosh से
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"तू शुकली की बेटी है ना! हूबहू वहीं शक्ल ... बङी-बङी आंखें, धुंधराले बाल...बस रंगत का फरक है। उसका रंग पक्का था और तेरा गेहुआं। पर एक ही नज़र में जान लिया कि तू छोटी शुकली है।"

कहते कहते पाली मासी ने अपना कंपकपाता हाथ मेरे सिर पर रखा। मन के तार-तार झनझना उठे। कितने अरसे बाद माँ का नाम सुना! रोम-रोम पाली मासी के श्रीमुख से माँ के बारे में जानने को उत्सुक हो उठा।

अंगीठी पर तवा चढ़ाते हुए पाली मासी पुरानी यादों के खूबसूरत शहर में पहुँच गई हो जैसे!

"हम गली की औरतें इकट्ठी होकर मेहंदी के गोदाम में मेहंदी पीसने जाया करती थीं। मुश्किल वक़्त था तो चार पैसे भी बन जाते और एक दूसरे का साथ होने से हंसी मखौल भी कर लेते।"

एक क्षण को रूकी फिर लंबी आह भरते हुए बताने लगी-"छोटी-सी थी तेरी माँ तब! चंचल हिरणी-सी! यहाँ से वहाँ फलांगे भरती उङती फिरती! वह भी हमारे साथ चलने को हरदम तैयार रहती और इतनी फुर्ती से मेहंदी पीसती कि हम देखते ही रह जाते!"

कहते कहते पाली मासी ने छाछ का गिलास और ख़ूब सारे सफेद मक्खन के साथ मक्की की रोटी मेरी ओर सरका दी।

मन भर आया! माँ की मीठी यादों से या पाली मासी के प्रेम पगे खाने के आग्रह से। जहाँ कोई दिखावा कोई दुराग्रह न था।

"छोटी उमर में ही शादी हो गयी और छोटी उमर में ही चल बसी बेचारी!" कहते हुए पाली मासी की आंखें बिन बादल बरसात की तरह बह निकली।

रह रहकर मन भर-भर आता, पर माँ के बारे में और ज़्यादा जानने की इच्छा अधिक बलवती होती जाती।

हाथों का कौर पाली मासी की ओर करते हुए मैंने कहा-"ये आपकी शुकली की तरफ़ से।" पाली मासी ने झट मुझे सीने से भींचा लिया...बरसों से बंधा सब्र का बाँध झटके से टूट गया जैसे! जाने कितनी देर आलिंगनबद्ध हम एक दूसरे को अश्रुजल से भिगोते रहे।

पाली मासी ने जैसे तैसे हिम्मत जुटा ख़ुद को व्यवस्थित किया और मुझे लाड से झिङकते हुए बोली-

"जल्दी से गरम-गरम खा ले, शुकली को ठंडी रोटी में रस नहीं आता था!"