शून्यबोध / अशोक शाह

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शुरू में ही व्यक्त कर देना चाहता हूँ कि मैं कोई वैज्ञानिक, दार्शनिक, आलोचक, समीक्षक या किसी भी प्रकार का कोई वादी नहीं हूँ। एक इंसान होने के नाते कुछ सोचता और देखता रहता हूँ। निरीक्षण मेरी स्वाभाविक प्रवृत्ति है। इसलिए मैं सही प्रश्न की खोज में रहता हूँ; क्योंकि यह तो स्पष्ट है कि ग़लत प्रश्न के उत्तर हमेशा ही ग़लत होते हैं।

धरती पर मानव-सभ्यता के विकास की गाथा बहुत पुरानी नहीं है। समय इतना लम्बा नहीं, हमने ही समय को अपनी समझ से बहुत बड़ा मान लिया है । इसलिए बहुत सोचने की जद्दोजहद से खुद को बचा लिया है और मात्र विश्वास करने का सबसे आसान तरीका भी निकाल लिया है। हम ऐसा सोचते हैं कि विश्वास और श्रद्धा करने से जीवन शान्ति और सुखपूर्वक बीत जाएगा, परन्तु ऐसा है नहीं। अनभिज्ञता एवं अज्ञानता से जीवन उलझता है और अंधकार एवं भ्रम की फुसफुसाहट से बेचैन अकुलाहट भरी रहती है। जीवन और सभ्यता का विकास तो सत्य जानने से होता है।

हमारा जानने का क्षेत्र अप्रतिम ढंग से निरन्तर विस्तारित हो रहा है। कल का जाना गया तथ्य आज अप्रासंगिक निकल आता है। एनाक्सीमेडंर ने धरती के उस आधार को हटा दिया जिस पर वह टिकी मानी जाती थी जैसे कि कछुए की पीठ। उसके बाद कोपरनिकस ने उसे आकाश में घूमा दिया। आर्इंस्टिन ने देशकाल (spacetime) की द्वैयता को समाप्त कर दिया। डार्विन ने अन्य जीवन की तुलना में मनुष्य के अलग अस्तित्व को नकार दिया। तबसे यह दुनिया नित्य नए रूप अंगीकार करती जा रही है। बस हमे सत्य को स्वीकार करने का साहस होना चाहिए। आज विज्ञान यहाँ तक पहुँच चुका है कि यह दुनिया परस्पर संबंधों के कारण अस्तित्व में है। प्रेमचंद का किसान साहूकार से राशि उधार लेकर बीज खरीदता है; केंचुओं से भरे अपने खेत को बैलों से जोतता है; चिड़ियाँ उड़ती आती हैं; केंचुएँ एवं कीड़ों को खाती हैं; फसल हरी होती है, धरती गद्गद हो जाती है; आसमान मुस्कुराता है; कोमलकान्त पदावाली के रचयिता सुमित्रानंदन पंत छायावाद में प्रकृति के अपूर्व सौन्दर्य का बखान करते हैं; फसल पकती है; साहूकार और जमींदार उसे उठा ले जाते हैं; उस फसल को खाकर जमींदार का बेटा विदेश पढ़ने जाता है; अंग्रेज दोगुना लगान वसूलकर लंदन में अकूत दौलत इकट्ठा करते हैं; उस किसान की जमीन बिक जाती है और उसका स्वयं का पुत्र शहर की ओर भागता है जहाँ मजदूरी की तलाश में विकास की चौंधियाती रोशनी में गुम हो जाता है; भारतेंदु का भारत रोता है और हमारी धरती से सोन चिरैया, कौएँ, गौरैया, साँवा-टाँगुन गायब हो जाते हैं- ये सब कुछ एक दूसरे जुड़े हुए हैं।

कहने का अर्थ यह कि सत्य कोई ठोस और स्थायी वस्तु या विचार नहीं है। यह नित्य नया होता रहता है इसलिए हमारा मानसिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक विकास सिर्फ़ उसे जानने में है जो नूतन है, नया है, अभी-अभी हो रहा है। वही सत्य का अविभाज्य सम्पर्क है। जान ली गई कोई अनुभूति या विचारधारा सत्य नहीं है। सत्य जान लेने की परिधि से बाहर है। सत्य हमेशा के लिए स्थायी नहीं होता। नया जानते रहने के लिए अनवरत हमें भीतर से खाली भी होते रहना होगा। समझदारी और साक्षात्कार विकसित करने के लिए उन सबका त्याग करना जरूरी है, जिन्हें हम जानते हैं कि वे हीरे की तरह ठोस हैं और दिन की तरह साफ हैं। अपने सर्वाधिक प्रिय विश्वास को भी छोड़ना होगा जिससे हमारे विचार, मन, संस्कार का ढाँचा निर्मित हुआ हैं। यहाँ तक कि ‘मैं‘ का भी परित्याग अनिवार्य है। यह ‘मैं‘ भी मैं नहीं हूँ। अनेकानेक अंतर्बोधों, क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं से गढ़ा हुआ है ‘मैं‘ जो भीतर-बाहर से उधार स्वरूप प्राप्त हुआ है। इसके अतिरिक्त ‘मैं’ है भी क्या जो निरन्तर परिवर्तनशील है। ज़िन्दगी और विज्ञान के उफ़क़ पर अविरल बनती-बिगड़ती तस्वीर है ‘मैं’। विश्वास की, निष्कर्ष की हर वस्तु त्याज्य है, यदि हमें कुछ नया जानना है अन्यथा हम एक डाली से टूटकर दूसरी डाली पर अटके हुए पत्ते भर रह जाएँगे। हो सकता है वास्तविकता उससे बिल्कुल विपरीत हो जिसकी कल्पना करते आएँ हैं।

आज विश्व के वैज्ञानिक वही कहते हैं जो कभी कबीर और नागार्जुन ने अनुभूत किया था । कबीर ने तो पूरे जनमानस को ललकार कर चुनौती दे डाली थी कि यदि आप वास्तव में सत्य के प्रति गंभीर और समर्पित हैं तो सब कुछ छोड़कर बिना किसी भय के बाहर निकलें-

कबीरा खड़ा बाज़ार में लिये लुकाठी हाथ

जो घर जारे आपना चलो हमारे साथ


कबीर की यह देहाती सधुक्कड़ी भाषा वस्तुतः विज्ञान की प्रांज्जल भाषा है। कबीर, बुद्ध, नागार्जुन सदृश निष्णात वैज्ञानिक जिन्हें हम दार्शनिक भी कहते हैं बहुत कम और विरले होते हैं। जिसने सूक्ष्मतम वस्तु देखी हो वही विराट का प्रसार भी देख सकता है; लेकिन वास्तव में अपनी आँखों से कुछ देख भी पाते हैं या सिर्फ मान लेते हैं ?

यह देखना किस प्रकार होता है, इसे थोड़ा-सा जानना जरूरी तो है। ऐसा सोचना क्या पर्याप्त है कि किसी वस्तु से प्रकाश चलकर हमारी आँखों की रेटिना पर पड़ता है, इस सूचना को एक संकेत में परिवर्तित कर मस्तिष्क में भेज दिया जाता है? मस्तिष्क न्यूरोन द्वारा इस सूचना की जटिल व्याख्या कर अतीत की संग्रहित तस्वीरों के माध्यम से वस्तु की पहचान करता है। लेकिन न्यूरो विज्ञान के अद्यतन विकास के आधार पर पाया गया है कि मस्तिष्क इस ढंग से काम नहीं करता बल्कि ठीक इसके विपरीत है देखने का मैकेनिज्म। अधिकांश सूचनाएँ आँखों से मस्तिष्क की यात्रा नहीं करती अपितु वे मस्तिष्क से आँखों को जाती है। होता यह कि मस्तिष्क स्वयं पूर्व संकलित सूचनाओं के आधार पर देखने का प्रयत्न करता है। मस्तिष्क उस तस्वीर को विस्तारित करता है जिसे आँखों को देखना चाहिए। यह सूचना अंतरालों में आँखों को मस्तिष्क के द्वारा भेजी जाती रहती हैं। यदि मस्तिष्क एवं आँखों के निष्कर्ष में कोई विसंगति उत्पन्न होती है तब स्नायुतंत्र द्वारा मस्तिष्क को सूचना भेजी जाती है।इस प्रकार तस्वीरों की यात्रा आँखों से मस्तिष्क की ओर नहीं होती है अपितु इसके ठीक विपरीत मस्तिष्क से आँखों की ओर होती है। यही सूचना के आदान-प्रदान का सबसे कुशल एवं आसान तरीका है।

इससे यह तो जाहिर है कि हम अपने आसपास प्रकृति का निरीक्षण करते ही नहीं है, अपितु उस तस्वीर की कल्पना कर लेते हैं जिसे अपने पूर्वग्रहों के आधार पर पहले से संचित कर लिया है। इसलिए बाह्य जगत को हमारा देखना सम्भव ही नहीं होता। हम केवल उसे अर्थ प्रदान करने की कोशिश करते हैं जो हमारी आँखों की पुतलियों से छनकर आता है। हमारी चेतना मस्तिष्क की वह अनवरत गतिविधि है जो निरन्तर परिवर्तनशील इस दुनिया की सूचनाओं की व्याख्या करने में लगी रहती है। विसंगतियों का विश्लेषण निरन्तर जारी रहता है। वस्तुतः देखना, जानना और समझना त्रिस्तरीय प्रक्रिया नहीं है। यदि देखने का कार्य प्रथम स्तर पर ही पूर्ण कर लिया जाए तो जानने और समझने की आवश्यकता नहीं रह जाती। और यदि देखने का कार्य द्वितीय स्तर तक भी पूरा नहीं किया जाता है तो समझना फिर भी बाकी रह जाता है।

तथ्य को जानने के तीन मार्ग हो सकते हैं। एक दार्शनिक अत्यंत सूक्ष्म स्तर पर अपने ही भीतर शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं का उपयोग सत्य जानने की कोशिश में करता है। वह आत्म निरीक्षण करता है किन्तु शरीर एवं मन के अलावा किसी तीसरी वस्तु का सहारा नहीं लेता । एक साहित्यकार का कार्यक्षेत्र दार्शनिक और वैज्ञानिक के बीच रहते हुए सत्य जानने का है। वह रूपतत्व (Form) का उपयोग कर अभिव्यक्ति को हृदय के धरातल पर ले आता है। वस्तुओं के अन्तर्संबंध के माध्यम से सत्य जानने की कोशिश करता है। किसी भी वस्तु का अस्तित्व अंतर्संबंधों ; (Interactions पर ही आधारित है। चाँद, सूरज, नदियाँ, आकाश, वृक्ष और तितली अनेक रूप हैं। इनका अस्तित्व अलग-अलग नहीं एक-दूसरे के कारण हैं। एक है तो दूसरा है। प्रगाढ़ अन्योन्याश्रित संबंधों से बँधा है यह पूरा अस्तित्व । जब एक साहित्यकार टुकड़ों-टुकड़ों में न देखकर एक साथ देखता है तो वह सत्य के अत्यन्त निकट हो जाता है। वैज्ञानिक प्रयोग करके देखता है, वह पदार्थ की स्थूलता से अतरंगता स्थापित कर इंद्रियों से अनुभूत करता है, उसका सारा प्रयोग वस्तुत्व (Content )पर है। धरती, आकाश, ग्रह, नक्षत्र, जीव-जन्तु, पेड़-पौधों से वैज्ञानिक यात्रा प्रारंभ कर समय और अंतरिक्ष के कैनवास पर सत्य को उकेरकर देखना चाहता है। इस इन्द्रियानुभूत आयाम में ज्ञान निरन्तर अपना रूप बदल रहा होता है। कल जो सत्य लगता था आज वह सत्य नहीं है। वैज्ञानिक खोजें निरन्तर खुद को ही गलत साबित करते हुए आगे के सफ़र पर गतिशील हैं और यह सफ़र पदार्थ के स्थूल रूप से सूक्ष्मता की ओर जारी है। दुनिया का व्याकरण वैज्ञानिक को कभी स्पष्ट नजर आता है, कभी अगले ही पल धुँधला हो जाता है। पदार्थ और कणों को जानकर एक बार ऐसा लगा था कि सबकुछ जान लिया गया और माया से परदा उठा दिया है, पर ऐसा नहीं है। दुनिया का कोई भी पदार्थ ठोस नहीं है। इलेक्ट्रान, प्रोटोन, न्यूट्रोन भी अब टूट गये हैं। अब तो यह भी जान लिया गया है कि प्रत्येक कण का एंटी कण (Antiparticles)भी हैं और बहुत सारी ऊर्जा भी हैं। इतना ही नहीं, आगे की क्वांटम मेकानिक्स खोजों ने यह भी साबित कर दिया है कि प्रत्येक कण का एक आभासी कण (Virtual particle) भी मौजूद है जो अकल्पनीय ऊर्जा का भण्डार है। विस्तार, समय और अंतरिक्ष की प्रकृति नहीं हंै। कुछ समय के लिए दुनिया की सारी वस्तुएँ कणमय लगती थीं। विज्ञान ने जब अगला कदम उनकी ओर बढ़ाया तो वे तरंगमय हो गईं और जब उस तरंग को छूने की काशिश की तो वे अब अदृश्य हो गयीं। अगले मोड़ पर ये फिर यह संभाव्यता (probability में तब्दिल हो जाती हैं, कभी होती हैं, कभी नहीं होती हैं।

हमने अधिकतर लोगों को यह कहते हुए सुना है कि नियति न जाने क्या-क्या खेल खेलती है या ईश्वर को क्या मंजूर है, कौन जानता है । तुलसीदास तो यह कहकर विराम लगा देते है –

होइंहे सोई जो राम रचि राखा

 का करि तर्क बढावहिं साखा 

तुलसीदास के ऐसा कहने में आत्मसमर्पण को भावना झलकती है जबकि यही बात जब आर्इंस्टिन कहते हैं- Does God Play Dice? तो लगता कि वे जानने की चुनौती पेश कर रहे हैं, दूसरे शब्दो में कहें तो ‘क्या प्रकृति के नियम निष्कर्षों से परे हैं?‘ यह एक विचारणीय प्रश्न है। इसी प्रश्न का उत्तर जानने के लिए हाईजेनबर्ग और श्रोडिंगर ने विज्ञान को क्वाटंम से आगे पहुँचाया। श्रोडिंगर ने Waave function (Ψ) को ईजाद किया जो किसी वस्तु के होने की महज संभावना व्यक्त करता है। श्रोडिंगर के अनुसार जब हम इलेक्ट्रान को देखने की कोशिश करते हैं तो यह विलुप्त हो जाता है मानो उसे देखना ही गुनाह हो और अपनी वास्तविकता बदल लेता है। लेकिन जब हम उसे नहीं देखते हैं तब वह कहाँ होता हैं, क्या करता है, हमें कुछ भी नहीं पता। विज्ञान में इस तथ्य को Superposition कहा जाता है अर्थात एक वस्तु यहाँ हो सकती है और उसी समय वह दूसरी जगह भी हो सकती है।

इसका सुंदर उदाहरण हिन्दू मिथक से दिया जा सकता है। गोपियों के संग नृत्य करते कृष्ण एक ही समय में हरेक गोपी के साथ होते हैं। प्रत्येक गोप कन्या को लगता है कि कृष्ण सिर्फ़ उसके साथ हैं। भारतीय ऋषिमुनि इसे सिद्धि कहते हैं। यह सिद्धि तत्समय किसी विरले को ही प्राप्त हो पाती थी । लेकिन कृष्ण के इस Supesrposition को गोपियाँ कभी समझ नहीं पाईं। यदि बाहर से कोई दृश्य देखे तो लगेगा कि एक कृष्ण सारी गोपियों के साथ अलग-अलग हैं जैसा कि साहित्यकार ने महाभारत में लिखा है। किन्तु यदि कोई देखने वाला न हो तो राधा को यही लगेगा कि कृष्ण सिर्फ़ उन्हीं के साथ रासलीला कर रहे हैं और बाकी गोपियाँ महज उसमें शामिल है। यही बात आज का विज्ञान क्वांटम मेकानिक्स कहता है। तथ्य यह है कि अभी कोई भी समूची (पूर्ण) चीज नहीं जानता। वस्तुतः हर व्यक्ति की एक से अधिक विभक्त दुनिया है जिसमें वह अपने अंतर्संबंधों के साथ जीता है। अतः यह संसार एक नहीं अनेक है। हम सब कुछ इसलिए नहीं जान सकते कि नीचे बहुत कुछ भीतर छिपा हुआ है। उसका स्वरूप अनजान है। विज्ञान आज यहीं पर संघर्षशील है। यदि हम इलेक्ट्रान का स्थान और Wave Function (Ψ) को जान लेते हैं तो हर चीज़ की भविष्यवाणी की जा सकती है परंतु दिक्कत यह है कि उन तरंगों ( Wave( के क्रियाकलाप को बिल्कुल नहीं जानते क्योंकि उसे देख नहीं पाते हैं। हमें तो केवल संसार की वस्तुएँ माया रूपों में दिखाई देती हैं लेकिन उनका वास्तविक अस्तित्व अज्ञात रह जाता है।

ऐसा क्यों होता है कि जब हम कुछ जानने की कोशिश करते हैं तो वह बदल जाता है। हमारे पास एक ही उपलब्ध माध्यम मस्तिष्क है जिसके सहारे दुनिया को जानने की कोशिश की जाती हैं। इसका कार्य है हमें वह बताना जो हम जानते हैं। लेकिन जब हम निरीक्षण करते हैं तो हमारी जानकारी, हमारा ज्ञान बढ़ जाता है। यही कारण है Ψ भी परिवर्तित हो जाता है। इसलिए नहीं कि बाह्य जगत में कुछ नया हो जाता है बल्कि इसलिए कि जो ज्ञान अभी तक हमारे पास उपलब्ध था, वह बदल जाता है। उदाहरण के लिए ज्योंहि हम दबावमापक यंत्र को देखते हैं मौसम की भविष्यवाणी बदल जाती है इसलिए नहीं कि मौसम को कुछ हो गया बल्कि इसलिए कि हमने कुछ नया जान लिया (तत्क्षण का वायुमंडल का दाब) जो पहले नहीं जानते थे। इसी तरह एक कविता भी बदल जाती है जब उसका अर्थ जान लिया जाए। लेकिन यह जानना हर पाठक के लिए अलग-अलग हो सकता है। एक ही कविता अलग-अलग पाठक को एक से अधिक रूपों में व्यक्त हो सकती है।

सबसे बड़ा प्रश्न यह अनुत्तरित रह जाता है कि वह कौन है जो जानता है और ज्ञान को अपने पास रखता है? और वह सूचना क्या है जो कत्र्ता के पास है? और वह सब क्या है जिसका पर्यवेक्षण वह कत्र्ता करता है? क्या वह प्रकृति के नियमों की परिधि से बाहर है या वह भी इसके नियंत्रणधीन है ? फिर कर्ता में विशेष क्या है?

आज यह बात गले के नीचे नहीं उतरती कि ईश्वर ने इस संसार को बनाया। भौतिकी ने इतनी धुंध तो हटा ही दी है कि वास्तविकता थोड़ी-थोड़ी साफ दिखने लगी है- एक विस्तृत अंतरिक्ष जो पदार्थ के कण दौड़ते-भागते एक बल के अधीन है। फैराडे एवं मैक्सवेल ने उसके विद्युत चुम्बकीय फील्ड की खोज कर दिखाया कि अंतरिक्ष में दूरस्थ पिण्ड फिल्ड के माध्यम से एक-दूसरे के सम्पर्क में हैं और आईंस्टिन ने गुरूत्व को भी इसी फिल्ड से संचालित होना पाया। यह पूरा ब्रह्माण्ड इसी फिल्ड की ज्यामिति से बुना गया फिलहाल लगता है। यथार्थ अत्यन्त आकर्षक एवं सुन्दर है। इसके बारे में जानना कभी समाप्त नहीं हो सकता। यही इसकी खूबसूरती भी है।

आज का विज्ञान यही कहता है। वस्तुएँ एक दूसरे के अन्तर्संबंधों के कारण अस्तित्व में है और प्रत्येक वस्तु का गुण-धर्म उत्पन्न होने का यही कारण है। यह लगभग असम्भव है कि किसी वस्तु के गुण उसके दूसरे वस्तु से अंतर्संबंधों संबंध से अलग कर दिया जाए। इसलिए एक इलेक्ट्रान किसी खास कक्षा ;वतइपजद्ध में नहीं होता (जैसा कि हमने स्कूल की कक्षाओं में पढ़ा था) क्योंकि इसका भौतिक गुण केवल इतना ही कि वह दूसरो को किस प्रकार प्रभावित करता है। यदि वह किसी वस्तु से संवाद नहीं करें तो उसका कोई गुण दिखाई नहीं देता। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि प्रत्येक वस्तु केवल इतना ही भर है कि वह किस प्रकार दूसरे को प्रभावित करती है। इस दुनिया के तथ्य एक-दूसरे से संबंधों पर आधारित हैं। यह जरूरी नहीं कि किसी एक वस्तु के सापेक्ष किसी वस्तु का तथ्य दूसरे वस्तु के सापेक्ष भी वही हो। दुष्यन्त का उछाला गया पत्थर का कोई अर्थ नहीं जब तक वह आसमान में सूराख नहीं करता। प्रसाद का नीला अम्बर नीला नहीं है तबतक जबतक कि पाठक की आँखे उसे देख न लें। आकाश में टिमटिमाता सितारा स्वचालित नहीं है अपितु यह कई आकाशगंगाओ के अंतर्संबंधो का सन्धि बिन्दु (Node) है। इलेक्ट्रान का जीवन अंतरिक्ष में एक सीधी लाइन नहीं है अपितु घटनाओं का बिन्दुकृत विन्यास है। कोई भी वस्तु एक नहीं, हजारों -हजार है। किसी भी वस्तु का गुण उसके भीतर नहीं होता, बल्कि वह वस्तुओं के बीच का सेतु है। कोई वस्तु ऐसा इसलिए है कि वह एक दूसरे के सापेक्ष ऐसा देखती है।

यह पूरा जगत् परिप्रेक्ष्यात्मक है, एक दूसरे की परावर्तित तस्वीर हैं। इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं। विज्ञान का इसके आगे का कदम सूचना का उपयोग है। सूचना के बारे में दो बाते महत्वपूर्ण हैं। पहली तो यह कि किसी भी वस्तु के बारे में प्रासंगिक (contextual) ज्ञान सीमित है तथा दूसरी यह कि इस बात की हमेशा सम्भावना बनी रहती है कि उस वस्तु के बारे हमेशा नयी प्रासंगिक सूचना हासिल की जा सकती हैं। इसका तात्पर्य यह है कि संसार का भविष्य अतीत के द्वारा निर्धारित नहीं है। संसार हमेशा नया और नया संभावित है। हाइजेनबर्ग का अनिश्चितता का सिद्धान्त यही कहता है कि किसी भी वस्तु का स्थान और उसकी गति को एक साथ निर्धारित नहीं किया जा सकता। इसकी एक सीमा है। साथ ही किसी वस्तु के मापने के क्रम का अपना महत्व है। किसी वस्तु की मात्रा और गति के नापने के क्रम के अनुसार उसके गुण में अन्तर पड़ता है। अतः दुनिया में किसी भी वस्तु का एकांगी अस्तित्व होना दिखाई नहीं पड़ता। वस्तुओं का अस्तित्व सांदर्भिक (contextual) है। एकाकी नहीं। किसी भी वस्तु के अलग अस्तित्व की गणना संभव नहीं है। यह जगत उस पदार्थ से बना है जो लाक्षणिक है एक दूसरे के परिप्रेक्ष्य में उसका अस्तित्व है। यही लाक्षणिकता प्रसाद की काव्य शैली का एक खास वैशिष्टय है।

यह सारा ज्ञान जिसे आज की क्वांटम भौतिकी जान सकी है, भारतीय दार्शनिक नागार्जुन ने दूसरी शताब्दी में ही प्रतिपादित कर दिया था। नागार्जुन के अनुसार कुछ भी ऐसा नहीं जो स्वयं में अस्तित्व रखता है। किसी और चीज से अलग। दार्शनिक हमेशा दुनिया से अलग दुनिया को जानने के लिए अपने मौलिक चिन्तन का उपयोग करते हैं। नागार्जुन के अनुसार सबकुछ शून्य है। यहाँ तक कि शून्य के भीतर भी कुछ नहीं हैं, खालीपन है। खालीपन भी खाली है। उदाहरण के लिए मेरा क्या अस्तित्व है? मैं सुबह-सुबह कश्मीर घाटी की सुन्दरता निहार रहा हूँ। क्या मेरा कोई अस्तित्व है? नहीं। तो घाटी को कौन निहार रहा है? नागार्जुन कहते हैं, कोई नहीं। घाटी को देखना उस अंर्तसंबंध का एक अवयव है जिसे मैं अपना सेल्फ मानता हूँ। ‘‘लेकिन भाषा के माध्यम से व्यक्त तथ्य का कोई अस्तित्व नहीं।’’ विचारों की शृंखला का अस्तित्व नहीं है, ऐसा कोई रहस्यात्मक तत्व नहीं है जिसे समझना शेष हो जो हमारा आत्मिक तत्व हो। ‘मैं’ असंख्य परस्पर जुड़ी परिघटनाओं (phenomena) के समुच्चय के अतिरिक्त कुछ नहीं है। प्रत्येक घटना किसी दूसरे पर अवलम्बित है। जे कृष्णमूर्ति के अनुसार चेतना का वस्तुतत्व चेतना है। नागार्जुन यहीं नहीं रुकते। नागार्जुन के अनुसार संसार और निर्वाण एक ही है। दोनों का ही कोई अस्तित्व नहीं है। यह शून्यता भी यथार्थ नहीं है। प्रत्येक अस्तित्व किसी दूसरे पर निर्भर है, कोई अद्वितीय या परम यथार्थ नहीं है। शून्यता में कोई भौतिक तत्व मौजूद नहीं है विज्ञान की अनवरत खोजें पदार्थ, अणु, परमाणु, फील्ड्स, प्रारांभिक कण, सब आकर यहाँ धराशायी हो जाते हैं। कोई परम तत्व है नहीं। क्वाटंम मेकानिक्स का यह प्रस्तावित हल हो सकता है।

नागार्जुन की शून्यता का नैतिक महत्व भी है। चूकि हमारा कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, यह जानना मोह से, दुःख से मुक्ति दिला सकता है; क्योकि हर वस्तु अनित्य है, संवेदनाएँ अनित्य हैं, कोई आखिरी सत्य नहीं है। इसलिए हमारा वर्तमान ही बहुमूल्य एवं अर्थपूर्ण है।

तो हमारा अगला कदम क्या होना चाहिए? शायद हमें भीतर से देखने की शुरूआत करनी होगी। हमारा आत्मस्वरूप ही दुनिया का इंजन है। यदि हम सोचते हैं कि दुनिया को सम्पूर्णता में बाहर से देख सकते हैं तो यह हमारी भूल होगी। बाहर का अस्तित्व ही नहीं है। समूचा निरीक्षण भीतर रहकर भीतर से ही करना होगा जैसे कि विपश्यना। विज्ञान भी बाहर से देखी हुई चीज नहीं है। विज्ञान मेरा वर्णन है। मेरे ही परिप्रेक्ष्य में। ‘मैं’ कोई अलग व्यक्तित्व नहीं है बल्कि यह भी एक प्रक्रिया है। पारस्परिक संबंध ही ‘मैं’ का निर्माण करते हैं जिसमें हमारा सामाजिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एवं राजनीतिक जीवन समाहित है।