शून्य का बोझ / कृष्णा वर्मा

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प्रकाश की पत्नी का असमय देहांत हो गया। पत्नी से अगाध प्रेम करने वाले प्रकाश ने कभी दूसरी शादी करने का सोचा तक नहीं। नन्हे आशीष को माँ और बाप दोनों का प्यार देकर पाला-पोसा।

प्रकाश की छोटी-सी प्राइवेट नौकरी थी, मगर बेटे के लिए सपने बड़े-बड़े सजाए थे। अपनी अथाह लगन और मेहनत से उसे ख़ूब पढ़ाया-लिखाया।

पढ़-लिखकर बेटे को बड़े शहर की बड़ी कंपनी में नौकरी मिल गई. जाते हुए बेटा बोला, " पापा जल्दी ही मैं आपको अपने पास ले जाऊँगा। यह सुन कर प्रकाश ने सुख की साँस ली और बाकी बची ज़िंदगी आराम से बेटे के साथ काटने के सुखद सपने लेने लगा।

उधर बेटा नई नौकरी और बड़े शहर के सुख आनन्द में ऐसा मस्त हुआ कि पिता को ले जाना जैसे भूल ही गया। इधर प्रकाश इंतज़ार में दिनों-दिन सूखता गया।

एक दिन आशीष के मित्र राघव ने उसे अपने पिता की रिटायरमेंट की कुछ तस्वीरें दिखाईं तो आशीष को याद आया कि उसके पिता तो पिछले कई महीनों से रिटायर हो गए होंगे। परेशान—सा हुआ सोचने लगा मुझे तो उन्हें लेने जाना था। इतनी बड़ी भूल कैसे हो गई मुझसे। पापा तो जाने क्या-क्या सोच बैठे होंगे। अगले ही दिन वह पिता को अपने साथ लिवाने के लिए घर रवाना हो गया।

पिता की ख़स्ता हालत देखकर हैरान होता हुआ बोला, "क्या हुआ पापा! आप इतने कमज़ोर कैसे हो गए. आपने अपना ज़रा भी ख़्याल नहीं रखा। देखो तो कंधे कितने झुक गए हैं और आपसे तो ठीक से चला भी नहीं जा रहा।"

"लेकिन एक बात बताओ, आजकल तो आप रिटायर भी हो गए हैं, फिर ऐसा कौन-सा काम करते रहे कि सेहत इतनी गिर गई."

बेटे की बात सुन कर धीरे से प्रकाश कुर्सी से उठा और अपनी पतलून की दोनों ख़ाली जेबों को बाहर निकाल कर उसे दिखाते हुए शिथिल आवाज़ में बोला, "तुम्हारा इंतज़ार बेटा!"

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