शेष प्रश्न / सुकेश साहनी

Gadya Kosh से
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सड़क के दोनों ओर कोठों से वेश्याएँ राह चलते लोगों पर आवाजें कस रही थीं। कुछ भद्दे, अश्लील संकेत भी कर रही थीं। तभी मेरी निगाह उस पर पड़ी। मैं चैंक पड़ा, इसे कहीं देखा है...लेकिन कहाँ? दिमाग में उथल-पुथल मच गई. वह उन सब में बिल्कुल अलग दिखाई दे रही थी, चुपचाप खड़ी हुई...पाषाण प्रतिमा की तरह।

मुझे बिल्कुल याद नहीं आ रहा था कि इसे पहले कहाँ देखा है। फिर भी यह एहसास हो रहा था कि इसे काफी नजदीक से कहीं देखा है, बातें भी की हैं। सोचते-सोचते मैं अपने गंतव्य तक पहंुँच गया था। यहाँ मुझे अपनी घड़ी बनने के लिए देनी थी घड़ीसाज की दुकान बंद थी। मैं लौट पड़ा।

इस बार वहाँ कोई नहीं था। शायद उनको ग्राहक मिल गए थे। मेरी नजरें उसे ही ढूँढ रही थीं कि दोबारा ध्यान से देखने से शायद कुछ याद आ जाए.

तभी महसूस हुआ था कि कोई मुझे बड़े ध्यान से देख रहा है। वह एक मोटा पहलवाननुमा आदमी था। उसने तहमद और आधी बांह का कुरता पहन रखा था। मुझे अपनी ओर देखता पाकर वह मेरे पास आ गया।

"सेठ, चलोगे...?" उस ने पूछा।

मैं बुरी तरह हड़बड़ा गया। वह बेशर्मी से मुसकरा रहा था।

"हर उम्र की ...हसीन चीज!" उसने कहा।

"नहीं..." मैंने गुस्से से कहा और आगे बढ़ गया। वह मेरे साथ-साथ चलने लगा। मैं पसीने से भीगने लगा था। उसका इस प्रकार मेरे साथ चलना मुझे गंदा-सा लग रहा था।

"सेठ, दाम बहुत ही कम हैं...बहुत आराम से बैठाती हैं, ...पूरे मुल्क का माल है। नौ...दस साल की।" वह ऐसे बोल रहा था जैसे किसी ढाबे में छोकरा मीनू बताता है।

"नेपाल का एक बढ़िया माल भी है।" वह मेरे बिलकुल पास आकर फुसफुसाया।

"नेपाल," मैं चैंका... मेरी आंखों के आगे कोठे पर खड़ी वह लड़की घूम गई. बहुत से दृश्य आंखों के आगे से फड़फड़ाते हुए गुजर गए. उस लड़की की पहचान दिमाग में कोैद्द गई-रत्नमाया!

हाँ, वह रत्नमाया ही थी। भीमफेदी की रत्नमाया। पहाड़ी नदी-सी चंचल और पवित्र रत्नमाया। वह अब भी मेरे कानों में कुछ फुसफुसा रहा था लेकिन अब मैं कुछ भी नहीं सुन पा रहा था। मैं उससे पीछा छुड़ाने के लिए एक रेस्टोरेंट में घुस गया।

रत्नमाया कोठे पर! दिल में एक हेक-सी उठ रही थी, चार वर्ष पहले की अपनी नेपाल-यात्रा का एक-एक दृश्य आँखों के आगे सजीव हो उठा।

मैं बहादुर के पीछे-पीछे प्राकृतिक दृश्यों का आनंद लेता हुआ चल रहा था।

"दाज्यू कहाँ से?" अचरज मुझे देखते हुए कोई बहादुर से पूछ लेता था।

"लखनऊ से, साहब साथ।" अपनी पीठ पर सामान कसे बहादुर हर बार यही चार शब्द दोहरा देता था।

वीरगंज से हैटोंडा तक तो बस द्वारा पहुंच गए थे, पर हैटोंडा से काठमांडू तक पदयात्रा ही करनी थी। नदियों में बाढ़ के कारण मुख्य सड़क मार्ग अवरुद्ध था। सूर्योदय के साथ ही हमने हैटोंडा से यात्रा आरंभ कर दी थी। ज्यों-ज्यों हम आगे बढ़ते जा रहे थे, प्रकृति के सौंदर्य का जादू बिखरता जा रहा था। चारों ओर पहाड़, पगडंडियों और साथ ही पहाड़ी नदियों की कलकल धारा अपने सुमधुर संगीत से आत्मविभोर-कर रही थी।

अचानक किसी पहाड़ की पगडंडी पर लड़कियों की कतार दिखाई दे जाती, सिरों पर फलों से भरी टोकरियाँ, लोकगीतों के मिलेजुले स्वर।

उस समय हम ग्राम भैंसिया से गुजर रहे थे। हम एक घर के सामने चाय पीने के लिए रुके. तभी मुझे बड़ी विचित्र अनुभूति हुई, जैसे कोई मुझे घूर रहा है। मैंने उधर देखा वह एक नेपाली युवक था, जो बड़ी हिंसक दृष्टि से मुझे ही घूर रहा था। उसका एक हाथ कमर से बँधी खुखरी पर टिका था।

मुझ से नजर मिलते ही उसने विषैले अंदाज में कुछ कहा और फिर घृणा से जमीन पर थूक कर घाटी की तरफ उतर गया। मैं आश्चर्यचकित-सा उस स्थान को घूर रहा था, जहाँ थोड़ी देर पहले वह खड़ा था। बहादुर गाँव के छोटे बच्चों से हँस बोल रहा था। शायद इस घटना को अन्य किसी ने नहीं देखा था।

चाय आदि पीने के बाद हम भैंसिया से चल पड़े थे। उस अजनबी नेपाली का हिंसक चेहरा बार-बार मेरी आँखों के आगे घूम जाता था। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि उस युवक का मेरे प्रति हिंसक रुख किसलिए था।

शाम का धुंधलका धीरे-धीरे नीचे उतर कर चारों ओर छाता जा रहा था। कहीं से किसी चक्की की अनवरत पुकपुक सुनाई दे रही थी। थोड़ी ही देर में रात्रि का अंधकार छा गया। हम भीमफेदी गाँव के समीप पहुंच गए थे। घरों से हल्का पीला प्रकाश बाहर झाँक रहा था। हमने रात इसी गाँव में बिताने का निश्चय किया, गाँव में प्रवेश करते ही बहादुर ने एक ग्रामवासी से इस विषय में पूछा।

उस ग्रामवासी युवक ने मुझे ध्यान से देखने के पश्चात एक घर की ओर संकेत किया। घर का प्रवेशद्वार काफी नीचा था। ठिगने कद का बहादुर आसानी से भीतर चला गया, पर काफी झुक कर भीतर घुसते हुए भी मेरा सिर दरवाजे की चैखट से टकरा गया। हल्की हँसी सुनाई दी।

कमरे में लालटेन का पीला प्रकाश फैला हुआ था। उस पीले प्रकाश में मैंने एक लड़की को हँसते हुए सीढ़ियों की दिशा में जाते देखा। घर में एक बूढ़ी औरत चूल्हे के पास व्यस्त थी। एक वृद्ध, जो निश्चित रूप से गृहस्वामी था, चिलम लिए लाल-लाल अधमंुदी आँखों से मुझे देख रहा था। हमें भीतर प्रवेश करते देख उसकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई. बूढ़ी औरत एवं बहादुर में नेपाली भाषा में बातें हुई और फिर औरत ने हाथ के इशारे से सीढ़ियों की ओर जाने के लिए संकेत किया।

मैं और बहादुर सीढ़ियों तय कर मकान के ऊपरी भाग में पहुँच गए. मेरा सिर दरवाजे से टकराते देख, हँस कर ऊपर भाग जाने वाली वह नेपाली लड़की भी वही थी। उसने काले रंग का मैक्सी जैसा ही कोई वस्त्र पहना हुआ था। वह हम लोगों के लिए लकड़ी के फर्श पर चटाई आदि बिछा रही थी।

हमें ऊपर आया देख पहले तो वह शरमा गई, फिर बिल्कुल अपनत्व भरे अंदाज में हमसे हमारी ज़रूरतों के विषय में पूछने लगी। उस का व्यवहार ऐसा था, जैसे हम उसी घर के सदस्य हों और एक लंबे समय से वही रह रहे हों। वह हमारे भोजन आदि के प्रबंध में जुटी हुई थी।

खाना आदि खिला चुकने के बाद वह जाने को हुई.

"तिमारो नाम के हो?" मैं टूटी-फूटी नेपाली बोलने लगा था।

"रत्नमाया!" उसने हँसते हुए बताया था।

तभी रत्नमाया के चेहरे पर आश्चर्य के भाव फैल गए. वह कुछ सुनने का प्रयास करने लगी। लकड़ी की सीढ़ियों पर असंतुलित कदमों की धमक सुनाई दे रही थी। ऐसा आभास हो रहा था, जैसे अत्यधिक नशे में धुत्त कोई व्यक्ति सीढ़ियाँ चढ़ रहा हो। एकाएक कमरे के पीले प्रकाश में आगंतुक सशरीर दिखाई दिया। वह भैंसिया मं मुझे घृणा भरी नजरों से घूरने वाला नेपाली युवक था। उसकी लाल-लाल आंँखें मुझ पर स्थिर थीं और हाथ में गंड़ासा चमक रहा था।

"हराम की औलाद! क्या यहाँ मरने आया है?" वह चिल्लाया और फिर गंड़ासे को तलवार की तरह हिलाते हुए मेरी ओर बढ़ने लगा।

मेरे हाथ-पैर ठंडे पड़ गए थे। उन भयानक क्षणों में भी कुछ प्रश्न मेरे दिमाग मं तेजी से नाचते फिर रहे थे। मैंने इसका क्या बिगाड़ा है? कहीं यह किसी गलतफहमी का शिकार तो नहीं? इसी बीच बहादुर ने उस युवक के पैर पकड़ लिए थे और नेपाली भाषा में बड़ी जल्दी-जल्दी कुछ समझाने का प्रयास कर रहा था। रत्नमाया उस युवक का गंडासे वाला हाथ पकड़े, "नहीं, सीबन नहीं, नहीं," की रट लगाए थी।

सीबन मुझे एकटक घूरता हुआ ऊँची आवाज में चिल्ला रहा था, "हरामी, कुत्ता शाला! यहाँ क्या करने आया है? काट के दफन कर देगा यहीं, क्या किया मेरा बहनी का? शाला उसे कोठे पर बिठा दिया..."

तभी गृहस्वामी के साथ दो युवक ऊपर आए और सीबन को जबरदस्ती नीचें खींच कर ले गए.

कमरे में हम तीनों पाषाण प्रतिमा बने खड़े थे। वातावरण काफी भारी हो गया था। रत्नमाया हमें आराम से सो जाने और किसी भी प्रकार की चिंता न करने का निर्देश दे कर नीचे चली गई थी। सीबन की नफरत का कारण समझते ही मन खराब हो गया था। मैं उस व्यक्ति की हृदयहीनता के विषय में सोचने लगा था, जिसने सीबन की बहन को वेश्या बना दिया था। बहादुर सो चुका था। नींद मुझसे कोसों दूर थी। बार-बार महसूस होता था जै से अभी भी सीबन कमरे में खड़ा चिल्ला रहा है।

रत्नमाया सुबह जल्दी ही चाय दे गई थी। सूर्योदय से पहले ही हम निकल लेना चाहते थे। अपनत्व भरी मुस्कराहटों के साथ हमें विदा किया गया। रत्नमाया के व्यवहार ने हमारा मन मोह लिया। वह हमें गाँव के बाहर तक छोड़ने आई और तब तक खड़ी अपना नन्हा हाथ हिलाती रही, जब तक हम उसकी नजरों से ओझल नहीं हो गए.

रात की धटना से मन उचाट था। यह भी डर बना हुआ था कि कहीं सीबन फिर न मिल जाए. फिर चीशापानी गढ़ी में जो कुछ भी देखा, उससे यात्रा का रहा सहा उत्साह भी समाप्त हो गया। गाँव से गुजरते हुए एक घर के सामने काफी भीड़ दिखाई दी। पास जाने पर एक भारतीय युवक को नेपाली दूल्हे की वेशभूषा में देखा, एक नेपाली दुल्हन, जिसकी आंखें रोते-रोते लाल हो रही थीं। बार-बार अपने माँ-बाप से लिपट कर रो पड़ती थी। बिल्कुल अपने यहाँ के वधू की विदाई के समय का-सा दृश्य था।

"जो कुछ मेरी धन संपत्ति है, यही है, तुम्हें सौंप रहा हूँ।" लड़की का पिता नेपाली भाषा में बार-बार यही शब्द दोहरा रहा था। उसे और कुछ सूझ ही नहीं रहा था।

"दुख न करें, अब आप की लड़की मेरी धर्मपत्नी है।" भारतीय युवक टूटी-फूटी नेपाली में कह रहा था। उसके चेहरे पर इस प्रकार के भाव थे, जैसे लड़की के माँ-बाप का दुख उससे देखा नहीं जा रहा हो।

अपने देश से दूर, इस रूप में किसी देशवासी के मिलने पर मैंने उसे समीप जाकर बधाई दी। जवाब में उसने मेरे बिल्कुल करीब आकर बाईं आँख दबाई और बेशर्मी से मुस्कराने लगा। उसने शायद मुझे भी अपने जैसा समझा होगा।

अब वह फिर अपने चेहरे पर दुख पीड़ा के भाव लाकर लड़की के माँ-बाप के पास पहुंच गया था। लगभग रोने का-सा अभिनय करता हुआ कह रहा था, "दुखी मत होइए. आप की लड़की मुझे प्राणों से भी प्यारी रहेगी।"

मैं उस का नीच अभिनय देख कर दंग था। भीड़ धीरे-धीरे गाँव के बाहर की तरफ बढ़ रही थी। मैं जड़वत् खड़ा था। अचानक मुझे बहुत कमजोरी महसूस होने लगी थी, मैं अपनी कायरता पर खुद को ही धिक्कारने लगा था।

इस घटना के बाद मेरी यात्रा बड़ी नीरस रही थी। भारत लौटने पर कई महीनों तक वह घटना मेरे दिलोदिमाग में कहीं गहरे तक अंकित हो गई थी। इसीलिए आज कोठे पर रत्नमाया देख कर दिमाग में उथल-पुथल मच गई थी।

रत्नमाया के प्रति कुछ करने की भावना बलवती होने लगी। मन में दलालों के प्रति क्रोध-सा उठने लगा था जो इन लड़कियों के जरिए बिना पूंजी का व्यापार करते है, लड़कियों की मजबूरी का फायदा उठाते हैं या फिर नकली शादी, फ़िल्मों का प्रलोभन, प्रेम का झाँसा या नौकरी का वादा कर इन्हें कोठों और होटलों में बिठा देते हैं, मुझे रत्नमाया से मिलना चाहिए, उसकी मदद करनी चाहिए. इन्हीं विचारों के साथ मुझे जोश आने लगा। मैं बिल चुका कर बाहर आ गया।

बाहर काफी चहल पहल थी। रात के साढ़े सात बज रहे थे। कोठों से झाँकने वाली वेश्याओं की संख्या में काफी वृद्धि हो गई थी। मैं रत्नमाया वाले कोठे की तरफ बढ़ रहा था। दिल बहुत जोर-जोर से धड़क रहा था। एक-एक कदम के साथ पैरों की ताकत जैसे समाप्त होती जा रही थी। कैसे चढ़ूँगा ऊपर? किसी जान पहचान वाले ने देख लिया तो? रत्नमाया मुझे पहचान लेगी? मैं क्या कर सकता हूँ उसके लिए? इन प्रश्नों के साथ ही पैरों का भारीपन बढ़ता जा रहा था और उत्साह घटता जा रहा था। उस कोठे से थोड़ा पहले ही मैं अनिश्चित-सा खड़ा हो गया।

"सोचता क्या है, सेठ?" एकाएक अँधेरे कोने से निकल कर वह दलाल फिर मेरे सामने आ गया और बिल्कुल नजदीक आकर बोला, "पैसा ज़्यादा थोड़े ही है, केवल दस रुपया।"

"वह नेपाली ..." न जाने कैसे मेरे मुँह से निकल पड़ा।

उसने मेरे टूटे-फूटे शब्द तुरन्त पकड़ लिए थे, ' हाँ...हाँ वह भी मिल जाएगी, पर उसके पंद्रह रुपए पड़ेगे। " वह अपनी सफलता पर उत्साह से भर उठा था। चलो उसने मेरा बर्फ-सा ठंडा हाथ पकड़ लिया था। मैं किसी बेजान बोरे की तरह उस के पीछे घिसट रहा था। कोठे की सीढ़ियाँ आते ही वह ऊपर चढ़ने लगा था। न जाने किस शक्ति के पराभूत मैं उसके पीछे खिंचा जा रहा था। शायद उन्होंने हमें ऊपर से ही देख लिया था, क्योंकि वे सब ऊपर दरवाजे पर ही इकट्ठी थीं और चिल्ला रही थीं।

"आओ सेठ!"

"वाह, बिल्कुल हीरो माफिक।"

"हाय रे,"

उनमें आपस में होड़ मची थी।

"हटो, हटो जे जमना का गिराक है।" मेरे साथ का दलाल चिल्लाया और वे सब काई की तरह फट गईं। मेरी टाँगें रबड़ जैसी हो रही थी। आँखें रत्नमाया को खोज रही थीं। वह पीछे एक बुढ़िया के पास खड़ी थी। शायद उसका नाम इन लोगों ने जमना रख दिया था। मुझे देख कर उसके चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई.

"सेठ को उधर वाले में ले जा," बूढ़ी औरत बैठे-बैठे बोली।

मैं रत्नमाया के पीछे-पीछे चलने लगा। हम एक छोटे से कमरे में आ गए, जो एक गंदे परदे से दो भागों में विभाजित किया गया था। वहाँ एक चारपाई पड़ी थी।

रत्नमाया किसी मशीन की तरह काम कर रही थी। वह चारपाई पर लेट गई.

"तुमने मुझे पहचाना नहीं?" मैंने धड़कते दिल से पूछा।

"हम किसी को नहीं पहचानतीं, जल्दी से निबट लो!" उस का चेहरा भावशून्य था।

"रत्नमाया, मैं चार साल पहले तुम्हारे गाँव में रुका था।" इस बार वह चौंकी, उठकर बैठ गई. उसने ठंडी साँस ली। शायद अपना असली नाम सुनकर।

"मैं तो ...केवल तुमसे मिलने आया हूँ। तुम्हें नीचे से देखा।" मुझे लगा जैसे मैं यहाँ अनावश्यक हूँ और मेरे खोखले शब्दों की यहाँ कोई आवश्यकता नहीं हैं।

"मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकता हूँ।"

"नई," उसके चेहरे पर ऊब के गहरे लक्षण थे।

"तुमने अपने लिए क्या सोचा है?"

" हम कुछ नई सोचती? '

"क्यों?"

"वैसे ही?"

"मैं तुम्हें यहाँ से निकालने में मदद कर सकता हूँ।" मैंने फिर कोशिश की, जबकि खुद को लगा कि मैं झूठ बोल रहा हूँ।

"कोई ज़रूरत नई."

"इसका मतलब तुम यहाँ, खुश हो।"

"नई" 

"तो फिर...?"

"देखो, मैं सब कर के देख चुकी। तीन बरस से देख रई. पहले भागी...एक आदमी के साथ। वह फिर कोठा पर पौंचा दिया। दूसरा बार भागी...सरकारी आदमी के पास। वे सब भी वई किया...फिर पौंचा दिया मौसी के पास, किदर जाए? अब इदरई ठीक है। इदर जो भी आता है...खुल्ला आता। बाहर तो पताई नई चलता, कौन आदमी...कौन भेड़िया।"

"आगे क्या सोचा है?"

"पहले सोचती थी...अब नई सोचती। सचाई मालूम है। वह उदर गली के मोड़ पर जो भीख मँगती हैं...कबी इदरई कोठे पर बैठती थीं। मैं भी बेकार होगी तो उदरई बेठूँगी, सच्ची बात!"

रत्नमाया ने कटु सत्य मेरे मुँह पर उछाल दिया था। मैं निरुत्तर हो गया।

"तो मैं चलूँगा।" मैंने कहा।

"कुछ नई हो सकता। साला, सब गड़बड़ बाहर तुमारेई तरफ है। उधर ठीक होता तो हम इदर कैसे आता...बोलो?"

अब और कहने सुनने को बाकी नहीं था। मैंने बीस का एक नोट उसे पकड़ाया और बिना उससे आँख मिलाए बाहर आ गया। बाहर कोठे की मालकिन बड़ी खूँखार नजरों से मुझे घूर रही थीं। मुझे डर-सा लगा। मैं लगभग दौड़ते हुए सीढ़ियाँ उतरा और सड़क पर आ गया।

कुछ दुकानें बंद होने लगी थी। चहल-पहल भी पहले से काफी कम हो गयी थी। मेरे कानों में रत्नमाया का प्रश्न अभी तक गूँज रहा था, "साला, सब गड़बड़ तो बाहर तुमारेई तरफ है...उदर ठीक होता तो हम इदर कैसे आता, बोलो?"

(वीरगंज से काठमांडू की पैदल यात्रा पर आधारित) 

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