शैलेंद्र की स्मृति में उनके जन्म दिवस पर / जयप्रकाश चौकसे

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शैलेंद्र की स्मृति में उनके जन्म दिवस पर
प्रकाशन तिथि :31 अगस्त 2016


राज कपूर अपना जन्मदिन 14 दिसंबर अपने स्टूडियो में कामगार दिवस के रूप में मनाते थे। उस दिन सारे कर्मचारी खेलते-गाते थे और राज कपूर उन्हें एक माह का वेतन बोनस के रूप में देते थे। उस रात उनके घर शानदार दावत होती थी, जिसमें सितारे शिरकत करते थे। 1968 के जन्मदिवस पर भी राज कपूर स्टूडियो गए परंतु शैलेंद्र के निधन का समाचार सुनकर सारा जश्न निरस्त कर दिया गया और सभी लोग शैलेंद्र के खार स्थित बंगले 'रिमझिम' पहुंचे। इंडियन पीपल्स थिएटर के सारे सदस्य भी वहां पहुंच चुके थे। उस दौर में उनकी 'मेरा नाम जोकर' बनाई जा रही थी, जिसके एक गीत के लिए राज कपूर शैलेंद्र को अपनी पटकथा सुना रहे थे। पटकथा सुनाकर वॉशरूम गए और जब लौटे तो सिगरेट पैकेट पर शैलेंद्र ये पंक्तियां लिखकर जा चुके थे, 'जीना यहां, मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां।' राज कपूर के सिनेमा को शैलेंद्र इतनी अच्छी तरह जानते थे कि उन्होंने फिल्म के नायक के व्यक्तित्व का सार सरल भाषा में लिख दिया। राज कपूर और उनके सभी सहयोगियों की चिंता का केंद्र आम आदमी रहा और इसी तरंग से उनके हृदय झंकृत थे गोयाकि राज कपूर सिम्फनी के कंडक्टर की तरह थे और उनके बैटन पर सारे साथी साजिंदों की तरह आम आदमी का जीवन राग प्रस्तुत करते थे। राज कपूर का जीवन और सिनेमा एक ऑपेरा की तरह था और अवाम का दर्द ही इस ऑपेरा का मोटिफ अर्थात केंद्रीय विचार था। शैलेंद्र इस टीम के चिंतक सदस्य थे और उनके कबीर प्रभाव से पूरी टीम संचालित थी। जुलाहे कबीर की चदरिया की तरह था राज कपूर का सिनेमा। स्मरण आता है राज कपूर की 'जागते रहो' में गीत, 'जिंदगी ख्वाब है और ख्वाब में भला सच है क्या, झूठ है क्या।' इस गीत के दृश्य में जगह-जगह कबीर के चित्र लगे थे।

शैलेंद्र ने इस टीम के बाहर जाकर भी अपना लालित्य बिखेरा था। ऋषिकेश मुखर्जी की 'अनुराधा' के संगीतकार रविशंकर थे और उनके लिए शैलेंद्र ने लिखा, 'जाने कैसे सपनों में खो गईं अंखियां, मैं तो हूं जागी, मोरी सो गईं अंखियां।' सत्यजीत राय अपनी बंगाली फिल्म 'गोपी गायने बाघा बायने' को हिंदी में बनाने का विचार कर रहे थे परंतु शैलेंद्र की मृत्यु के बाद उन्होंने इस विचार को ही रद्द कर दिया। शैलेंद्र का जन्म तो रावलपिंडी में हुआ परंतु उनके पिता और दादा का जन्म बिहार में हुआ था। शैलेंद्र का बिहार के प्रति गहरा लगाव था और बिहार के फणीश्वरनाथ 'रेणु' की कथा 'तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम' से वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उस पर फिल्म बनाने का निर्णय लिया। बिमल रॉय की 'मधुमति' के लिए वे गीत लिख चुके थे और उनके सहायक तथा बाद में दामाद बने बासु भट्टाचार्य के साथ उन्होंने 'तीसरी कसम' के निर्माण का निश्चय किया। नवेंदु घोष ने पटकथा लिखी और क्या खूब लिखी कि तीस पृष्ठ की कहानी पर ही तीन घंटे की फिल्म बनी। मूलकथा की हर पंक्ति एक दृश्य में बदली गई। साहित्य आधारित सिनेमा का श्रेष्ठतम उदाहरण है यह फिल्म।

'तीसरी कसम' नौटंकी कलाकार हीराबाई और बैलगाड़ी हांकने वाले हीरामन की प्रेमकथा है और उनका अलग हो जाना हृदय को मथ देता है। देवदास और पारो की प्रेमकथा से गहरी वेदना यह कथा जगाती है, क्योंकि विलग होकर जीना, प्रेम में मर जाने से अधिक कठिन है। हीराबाई गांव दर गांव नौटंकी कर रही है और हीरामन लीक से हटकर अपनी बैलगाड़ी हांक रहा है। अब उसे हीराबाई-सी सवारी नहीं मिलेगी, अब तो सरकस के बाघ को ही लादकर ले जाना होगा, क्योंकि दिल्ली में बैठा रिंग मास्टर यही चाहता है। आज बाजारवाद के दिनों में जो हालात बने हैं वे नैराश्य पैदा करते हैं। शैंलेंद्र ने हमारे इस नैराश्य को पहले ही पढ़ लिया था और वे जानते थे कि हीरामन व हीराबाई भविष्य में अदृश्य हो सकते हैं परंतु उनकी कसक भरी याद सेल्युलाइड पर शैलेंद्र अंकित कर गए हैं। शैलेंद्र को अपने जीवन-मूल्य, जिन पर गांधी और नेहरू का प्रभाव था, तीसरी कसम की कहानी में दिखे और उनके मन में उन दिनों यह भाव था कि अगर यह फिल्म नहीं बनाई तो जीवन ही नष्ट कर दिया। इस तरह की शहादत से जन्मी है 'तीसरी कसम।' फणीश्वरनाथ रेणु और शैलेंद्र के सपने, आदर्श और जीवन-संग्राम समान थे। रेणु की पीड़ा और प्रार्थना महाकाव्य की तरह थी और शैलेंद्र का परयास सोनेट की तरह, जिसमें सिर्फ चौदह पंक्तियां होती हैं परंतु दोनों में अनुभूति की तीव्रता समान थी। यह अजूबा देखिए कि रेणु उस समय शैलेंद्र से परिचित नहीं थे जब उन्होंने हीरामन रचा परंतु हीरामन में शैलेंद्र मौजूद थे और आज भी है।

बाजार की ताकतें और उनसे शासित सरकारें भारत की पुनर्रचना नितांत, गैर-भारतीय ढंग से कर रही है और ऐसे में 'तीसरी कसम' हमें भोले और मासूम भारत की याद हमेशा दिलाती रहेगी। शैलेंद्र ने हमें पहली ही आगाह किया था, 'किरण परी गगरी छलकाए ज्योत का प्यासा प्यास बुझाए, मत रहना अंखियो के सहारे।