शोषितों का महातांडव / महारुद्र का महातांडव / सहजानन्द सरस्वती

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लेकिन , एक बात अब सत्य है। समस्त समाज के सबसे निचले स्तर में आजादी की तड़प की यह आग पहुँचकर धू-धू जलने लगी है , निरंतर तेज होती जा रही है। यह कभी भड़केगी और बुरी तरह भड़केगी। गत गर्मियों में पटने में एक विराट किसान रैली हुई थी। कुछ चतुर जमींदारों ने उसमें एकत्रित किसानों को गौर से देखा था। दस साल पूर्व की रैलियों को भी उनने उसी तरह देखा था। इस बार उनका कहना था कि इसमें तो ज्यादातर भुक्खड़ किसान ही या खेत-मजदूर ही थे। इससे सिध्द है कि नीचे आग जा चुकी है , जो कभी-न-कभी विस्फोट लाएगी , ठीक वैसे ही , जैसे भूमि के नीचे की आग भूकंप लाती है। ये भुक्खड़ करवटें बदलेंगे और उनके ऊपर लदे सभी स्तर और इस प्रकार समस्त समाज ही उलट जाएगा , धँस जाएगा। यह अवश्यंभावी है , अनिवार्य है। यह चीज कार्य - कारणवश हो कर रहेगी , सो भी शीघ्र ही , 1957 तक जरूर ही , यदि उससे पूर्व न हुई। परिणाम में यह जीर्ण-शीर्ण और शोषण-चीत्कारों से पूर्ण समाज ध्वस्त हो कर उसके स्थान पर शोषणहीन समाज बनेगा और संसार-भारत मंगलमय होगा। आज की भाषा में शोषित-पीड़ित जनता के इसी करवट बदलने को विप्लव या क्रांति कहते हैं। हम इसे ही प्राचीन भाषा में महारुद्र का महातांडव नृत्य कहते हैं। कहते हैं कि जब महारुद्र व्यापक अन्याय-अत्याचारों एवं कर्णभेदी क्रंदनों से ऊबकर महातांडव नृत्य करते हैं , तो उनके पाँवों की चोटों से यह जमीन जहन्नुम जाने लगती , बाँहों की चपेटों से चाँद , सूरज और तारे कहाँ-के-कहाँ पड़ाक-पड़ाक जा गिरते , आकाश की धज्जियाँ उड़ जातीं और जटा की सटासट्ट मारों से स्वर्ग-बैकुंठ टूट-टाट के मिट्टी में मिलेंगे , ऐसा दीखता है। यद्यपि महारुद्र का यह तांडव उन्हीं अन्याय , अत्याचारों और क्रंदनों के मिटाने के लिए ही होता है , तथापि उसका प्रारंभिक परिणाम उल्टा ही दीखता है─

'मही पादाघाताद्व्रजति सहसा संशय पद्मद , पदंविष्णोर्भ्राम्याद्-भुजपरिघ-रुग्ण-ग्रहगणम्। मुहुर्द्यौ र्दौस्थ्यं यात्यनिभृत जटा ताडिततटा जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता। '

और , शायद उसी तांडव की तैयारी कराने के लिए ही , नहीं-नहीं , संभवत: उसी के साक्षात दर्शन के वास्ते ही मैं कोरे अध्यात्मवाद की निष्क्रिय दुनिया से भटक कर इस सक्रिय संसार , सक्रिय वेदांतवाद में आ फँसा हूँ , कौन कहे!