श्याम बेनेगल, स्मिता आैर शैलेंद्र / जयप्रकाश चौकसे

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श्याम बेनेगल, स्मिता आैर शैलेंद्र
प्रकाशन तिथि : 16 दिसम्बर 2014


चौदह दिसंबर को श्याम बेनेगल अस्सी वर्ष के हो गए आैर बहुत कम ध्यान मीडिया ने इस बात पर दिया क्योंकि श्याम बेनेगल उनके लिए सितारा नहींं। चौदह दिसंबर चार घटनाआें के लिए महत्वपूर्ण है, राजकपूर आैर श्याम बेनेगल का जन्म दिन एवं शैलेंद्र तथा स्मिता पाटिल की मृत्यु के कारण। इन चारों ने ही भारतीय सिनेमा एवं समाज के लिए बहुत कुछ किया आैर श्याम बेनेगल तो आज भी सक्रिय हैं। श्याम बेनेगल ने ही स्मिता पाटिल को निशांत, मंथन, भूमिका आैर मंडी में लिया था। उन्होंने स्मिता पाटिल को न्यूज पढ़ते देखा था। वे एक गरिमामय राजनीतिक परिवार की पुत्री थीं आैर उनके चयन पर लोग उनके शबाना आजमी चयन से ज्यादा चौंके थे क्योंकि वे सांवली साधारण सी दिखने वाली लड़की थी। यह इत्तेफाक भी गौरतलब है कि श्याम बेनेगल के निकट रिश्तेदार गुरुदत्त ने भी साधारण सी दिखने वाली वहीदा रहमान का चयन किया जबकि उनके सारे सहयोगी इस चयन के खिलाफ थे। गुणवंत फिल्मकार किस तरह प्रतिभा को पहचान लेते हैं, यह बताना कठिन है। मेहबूब खान द्वारा अस्वीकृत निम्मी तो घर लौट रही थीं जब राजकपूर उन्हें रेलवे स्टेशन से वापस ले आए आैर 'बरसात' में समानांतर नायिका की भूमिका दी।

बहरहाल दो फिल्मकार भले ही उनका जन्म दिन समान हो, के बीच तुलना नहीं की जा सकती। सच तो यह है कि नजदीकी रिश्तेदार श्याम बेनेगल आैर गुरुदत्त की भी तुलना नहीं की जा सकती। सबके अपने-अपने सिनेमाई स्कूल हैं परंतु यह समानता है कि असमान समाज में उनके पात्रों के दर्द समान हैं क्योंकि अंकुर में शोषित स्त्री का बच्चा जमींदार के हवेली पर पत्थर फेंकता है तो दर्शक की आंख वैसे ही नम होती है जैसे राजकपूर की प्रेमरोग का अनाथ नायक सामंतवादी जमींदार को चुनौति देता है आैर अवाम को अच्छा लगता है। जब हम 'प्यासा' में शायर नायक को तवायफों की गलियों में उन शोषित महिलाआें पर दु:ख प्रगट करते देखते हैं तो श्याम बेनेगल की 'मंडी' में तवायफों को शहर बदर करने की हिमाकत का दृश्य याद आता है। मुझे इस बात के लिए क्षमा मांगना है कि कई बार मैंने 'मंडी' को सआदत हुसैन मंटो की कथा लिखने की भूल की है जबकि यह कथा साहित्यकार गुलाम अब्बास की 'आनंदी' नामक कहानी थी। लाख बचाने पर भी दिमाग कभी-कभी फॉर्मूला हो जाता है कि तवायफ माने मंटो की रचना।

श्याम बेनेगल ने विगत लगभग आधी सदी में अपने मिजाज की निष्ठावान फिल्में गढ़ी आैर कभी कोई समझौता नहीं किया। उनकी प्रतिभा व्यापक आैर विलक्षण है कि वे 'सूरज का सातवां घोड़ा' पर फिल्म बनाते हैं तो पंडित नेहरु की 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' पर विश्वसनीय सीरियल सीमित बजट में रचते हैं। वे शशीकपूर के लिए 'जुनून' बनाते हैं तो दूध सहकारी संगठन के सदस्यों के चंदे से 'मंथन' रचते हैं। उन्होंने विविध फिल्में बनाते समय नए कलाकारों को अवसर दिया जो सब सितारा बन गए जैसे अमरीश पुरी, नसीरुद्दीन शाह, आेमपुरी, कुलभूषण खरबंदा, शबाना, स्मिता, अन्नू कपूर इत्यादि दर्जनों लोग हैं। उम्र के इस मोड़ पर भी वे प्रतिदिन तारदेव की एवरेस्ट इमारत के अपने दफ्तर में आते हैं आैर काम करते हैं। उन्होंने इस मिथ को ही ध्वस्त कर दिया कि बाजार की मांग पर अपने अस्तित्व को बचाने के झूठे बहाने के आधार पर गुणवत्ता से समझौता करते हैं।

एक तथ्यों को मरोड़ने वाले व्यक्ति ने यह भरम फैलाने की कोशिश की है कि शैलेंद्र के मरने के पीछे राजकपूर का हाथ है। शैलेंद्र की मृत्यु के प्रमाण-पत्र पर लीवर सिरोसिस कारण दर्ज है। राजकपूर क्यों अपने दिल के एक महत्वपूर्ण हिस्से को मारेंगे? राजकपूर के किवदंती बनने में शैलेंद्र का बहुत योगदान है। शैलेंद्र ने फिल्म जगत में आने के पूर्व 56 कविताएं लिखी थी जिनका संकलन इसी नाम से प्रकाशित हुआ आैर उनमें अधिकांश कविताएं डायरेक्टिक है अर्थात समाजवादी विचारधारा का प्रचार है। उनकी प्रतिभा का पूरा प्रस्फुरन तो फिल्मी गीतों में हुआ। उन्होंने फिल्म गीतों को साहित्य की ऊंचाई दी। स्मिता पाटिल का भी बहुत योगदान है। पीपर निर्देशित 'वारिस' स्मिता पाटिल की 'मदर इंडिया' है।

बहरहाल चौदह दिसंबर से जुड़े इन चार लोगों की प्रतिभा के साथ कैसे कोई सीमित कॉलम में न्याय करे?