श्रीमती टीना अंबानी का फिल्म उत्सव / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
श्रीमती टीना अंबानी का फिल्म उत्सव
प्रकाशन तिथि : 20 अक्तूबर 2012


चौदहवां मुंबई फिल्म समारोह शुक्रवार से प्रारंभ हो गया है और इसके आयोजन में रिलायंस कंपनी का सहयोग है। श्रीमती टीना अंबानी प्रारंभ से ही इसे प्रोत्साहित करती रही हैं और इस तरह उस उद्योग से संपर्क कायम किए हुए हैं, जिन्होंने उन्हें कभी सितारा हैसियत दी थी, जिसके कारण उनके लिए अनेक अवसर बने। गुजराती परिवार की इस संतान के जन्म का नाम निवृत्ति है और मुंबई के लोगों के लिए संस्कृतनिष्ठ नाम का उच्चारण कठिन था, इसलिए पुकारता नाम टीना मुनीम ही लोकप्रिय हुआ और देव आनंद की १९७८ में प्रदर्शित 'देस-परदेस' से उन्होंने अभिनय यात्रा प्रारंभ की। ज्ञातव्य है कि संत ज्ञानेश्वर की बहन का नाम निवृत्ति था। मुनीम परिवार भरा-पूरा रहा है और टीना को उन्होंने अपनी आखिरी संतान के रूप में जन्म दिया।

बहरहाल, श्रीमती टीना अंबानी आज के चलन के अनुरूप परदे पर वापसी का कोई इरादा नहीं रखतीं और उनके दोनों पुत्र भी अभिनय क्षेत्र में शायद आना पसंद नहीं करें, क्योंकि उन पर अपने औद्योगिक घराने की जवाबदारी रहेगी। उन्हें अगर अभिनय में रुचि हुई तो श्रीमती टीना के लिए उन्हें रोकना संभव नहीं होगा, क्योंकि वह स्वयं अभिनेत्री रही हैं। उनकी अंतरंग मित्र श्रीमती रीमा जैन का पुत्र सैफ अली खान की निर्माण संस्था द्वारा प्रस्तुत किया जाने वाला है। ज्ञातव्य है कि इस युवा के नाना राज कपूर थे। श्रीमती टीना अंबानी का कहना है कि इस वर्ष का उत्सव फिल्म शताब्दी वर्ष होने के कारण महत्वपूर्ण है। सिनेमा लोकप्रिय संस्कृति की नुमाइंदगी करते हुए कभी-कभी उसके प्रखर आलोचक के रूप में भी सामने आता है।

गुजश्ता सदी के दो सबसे अधिक व्यापक प्रभाव रखने वाली शक्तियां सिनेमा और गांधीजी रहे हैं। यह बात अलग है कि गांधीजी ने कभी फिल्म नहीं देखी। उनके 'रामराज्य' नामक फिल्म देखने की कोई प्रामाणिक पुष्टि नहीं मिलती, परंतु १९३१ में लंदन की डॉकयार्ड स्ट्रीट के एक मकान में चार्ली चैपलिन उनसे मुलाकात करने गए थे, जिसका विवरण उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है।

बहरहाल, आयोजन 'मुंबई एकेडमी ऑफ मूविंग इमेजेस' (मामी) करती है और रिलायंस इंटरटेनमेंट कंपनी का सहयोग इसे प्राप्त है। श्रीमती अंबानी का कथन है कि देश-विदेश की चुनिंदा फिल्मों के प्रदर्शन के कारण इस उत्सव को देश-विदेश में गंभीरता से लिया जाता है। ज्ञातव्य है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की पहल और प्रेरणा से पहला उत्सव वर्ष १९५१ में हुआ था और पहली बार भारतीय फिल्मकारों ने यूरोप का सिनेमा देखा तथा वित्तोरियो दे सिका के नवयथार्थवाद के प्रभाव में 'दो बीघा जमीन', 'बूट पॉलिश' जैसी अनेक फिल्में बनीं। इसके पूर्व हमारे फिल्मकारों की जानकारी हॉलीवुड तक ही थी। इस प्रथम उत्सव के बाद भारत के अलग-अलग शहरों में इसके आयोजन होते रहे हैं, परंतु विगत कुछ वर्षों से गोवा को इसका स्थायी केंद्र बना दिया गया है। 'मामी' गैरसरकारी आयोजन है और देश के कुछ शहरों में इस तरह के आयोजन होते हैं, परंतु मुंबई उत्सव को अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों की पेरिस स्थित संचालक समिति का अनुमोदन प्राप्त है।

श्रीमती अंबानी इसमें गहरी रुचि लेती हैं और समारोह में दिखाई जाने वाली फिल्म का अवलोकन करके सिफारिश भी करती हैं, मसलन इस वर्ष उनकी सिफारिश है 'सिल्वर लाइनिंग प्लेबुक', 'द एंजिल्स शेयर', 'द सफायर', 'अमोर', 'शिप ऑफ थीसियस' एवं 'अनादर वुमंस लाइफ'। स्पष्ट है कि वह सिर्फ इसमें धन नहीं लगातीं, वरन पूरी तरह सक्रिय भी हैं। प्राय: औद्योगिक घरानों की बहुएं इस तरह सक्रिय नहीं रहतीं, परंतु वे कोकिलाबेन अस्पताल के संचालन में तथा हारमनी आट्र्स नामक संस्था में भी वर्षों से सक्रिय हैं। उनका कथन है कि सिनेमा ने गुजश्ता सदी में बहुत-से परिवर्तन देखे हैं और आज तकनीकी पक्ष भी काफी सशक्त हो गया है तथा सार्थक फिल्में हर दशक में बनती रही हैं। नए प्रयोग इस माध्यम का स्थायी भाव है।

इस वर्ष के आयोजन में स्पेन की फिल्म 'डिले' में चालीस वर्षीय एक परिश्रमी परंतु अत्यंत गरीब महिला के संघर्ष की कहानी है, जिसे अपने कमजोर और बीमर पिता के साथ ही अपने बच्चों की परवरिश भी करनी है, परंतु अपने सीमित साधनों में वह केवल एक पक्ष ही बमुश्किल संभाल सकती है। उसके सामने कितनी विकट समस्या है- अपने जन्म देने वाले पिता का त्याग कर दे या अपने द्वारा जन्म दिए नन्हे शिशुओं को छोड़ दे। उस पर पिता का ऋण है तो शिशुओं को पालने का उत्तरदायित्व भी है, अर्थात यह द्वंद्व भावना बनाम कर्तव्य भी हो जाता है।

दूसरी तरह से देखें तो अतीत बनाम भविष्य हो जाता है। अगर संस्कार पिता के पक्ष में हैं तो संसार शिशुओं के पक्ष में है। एक तरफ अपने जीवन के उद्भव का प्रश्न है तो दूसरी ओर हृदयपिंड का सवाल है। फिल्म में वह महिला अब निर्णय को टाल नहीं सकती। भूख और मृत्यु दोनों उसकी दहलीज पर खड़ी हैं। पिता ने तो कई वर्ष जिया है, शिशुओं के सामने उम्र पड़ी है, अत: वह पिता को छोड़ देती है। विषम आर्थिक परिस्थितियां संस्कारों को पुन: परिभाषित करती हैं। याद कीजिए राजिंदर सिंह बेदी का उपन्यास 'एक चादर मैली सी'।

एक अत्यंत फूहड़-सा मजाक सदियों से प्रचलित है कि नाव में सवार एक व्यक्ति को नाव बचाने के लिए अपनी माता या पत्नी में से किसी एक को मझधार में फेंकना है। वह यह कहकर पत्नी को फेंकता है कि पत्नी दूसरी मिल जाएगी। दरअसल बेहूदे प्रसंग के व्यक्ति का यह सोच कि एक पत्नी गई तो दूसरी कर लूंगा, रेखांकित करता है कि उसके हृदय में नारी के लिए सम्मान नहीं है, अत: उसका मां को बचाना भी खोखला लगता है। इस बेहूदे मजाक को इस तरह पुन: कहा जाना चाहिए कि माता और पत्नी ने मिलकर उसे मझधार में फेंक दिया।

बहरहाल, श्रीमती टीना अंबानी को इस उत्सव के आयोजन के लिए बधाई और इस लेख के कुछ अंश सेरिना मेनन के प्रकाशित लेख से मिले हैं, इसलिए उन्हें धन्यवाद।