श्रीरुक्मिणीरमणो विजयते / अध्याय 4 / 'हरिऔध'

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तृतीयांक

(स्थान-गृहान्तर्गत एक पुष्पोद्यान)

(महारानी रुक्मिणी चिन्तान्वित सिंहासन पर एक कुंज में विराजमान अनामा और अनाभिधाना दो सखियों का प्रवेश)

अनामा- सखी अनाभिधाने! वसन्तागम से इस उद्यान की कैसी शोभा है, रसाल के नवदलों में उसकी नूतन मंजरियाँ कैसी शोभा दे रही हैं, कोकिला की वाणी कैसी सुहावनी लगती है, पाटल के सरस सुमनों के मकरन्दों को पान कर भ्रमरगण कैसा शब्द कर रहे हैं, नवीन अथच हरित पत्रों से मूल से आशिखर सज्जित पादपगण कैसे सुन्दर जान पड़ते हैं। उनके उन हरित पत्रों के मध्य सुललित कुसुमचय की कैसी शोभा हो रही है। ऐसा ज्ञात होता है, मानो भगवान कुसुमायुध ने निज हरित वितानों को विविध रंग के अनुपम चित्रों से चित्रित किया है। पुष्पसुरभि सौरभित वायु के मन्द-मन्द चलने से चित्त कैसा प्रफुल्लित होता है, रसालमंजरीमद निष्कासित सुगन्धि द्वारा उद्यान कैसा सुगन्धमय हो गया है, सरों में विकसित सरसिज कुसुमों की कैसी छवि है। जान पड़ता है इस मनोहर उद्यान की शोभा देखने के लिए सर ने अनेक नैन धारण किए हैं। (चकित सी होकर) प्रिय सखी! उस (तर्जनी द्वारा लक्ष्य करती है) मालती के सघन कुंज में जहाँ सूर्य की किरणें कठिनता से गमन करती हैं, प्रकाश कैसा हो रहा है? ऐसा ज्ञात होता है कि किसी ने निबिड़ अन्धकाराच्छन्नभवन को एक उज्ज्वल दीप्तिमान मणि द्वारा प्रकाशित किया है।

अनाभिधाना- (कुछ काल तक देखकर आश्चर्य से) अनामे! यद्यपि मैं बहुत विचारती हूँ कि उस कुंज में इतना प्रकाश होने का क्या कारण है, तथापि मेरे ध्यान में कोई बात नहीं आती। क्या इस उपवन को नन्दन वन से अनुत्तम अवलोकन कर देवराज शचीपति ने सस्त्रीक उस स्थान को शोभित तो नहीं किया है। अथवा निज प्रिय मित्र ऋतुनायक वसन्त के साथ भगवान कुसुमायुध ने उस सघन कुंज की शोभा को द्विगुणित बनाया है। या भगवान दिवाकर ने अरुण को अपना प्रतिनिधि स्थापन कर शीतल होने की कामना से उस क्रीडास्थल को विश्रामस्थल कर रक्खा है। किम्वा छपानाथ ने निज प्रिया रजनी के विरह से कातर हो अन्वेषण करते-करते उस कुंज में उसके होने की आशंका करके उसमें पयान किया है। वा कश्चित देवबधू किम्वा किसी अप्सरा ने उपवन शोभा अवलोकनोपरान्त उस एकान्त स्थल को अपने तेजोमय आभूषणों और शरीर द्वारा आरंजित करना चाहा है। ( सूँघना नाटय करती है)अहा! समझ गयी। जान पड़ता है राजनन्दिनी रुक्मिणी उस निकुंज में विराजमान हैं क्योंकि यह वायु जो उस ओर से आ रही है, वैसी ही सुगन्धित है जैसी राजकिशोरी के शरीर की सुवास है।

अनामा- सत्य है! चलो अब हम दोनों भी वहीं चलैं और जैसे जनकनन्दिनी को उनकी सखियों ने मर्यादापुरुषोत्तम भगवान रामचन्द्र का परिचय देकर उनको आनन्दित किया था, वैसे ही हम दोनों भी राजतनया को शिशुपाल का परिचय देकर (जिसके यहाँ रुक्म ने आज टीका भेजा है) आनन्दित करें।

अना.- हाँ! चलो! (जाती हैं)

श्रीरु.- (ठण्डी साँस भरकर स्वगत) हे मन! तू ही धन्य है! जो इस प्रकार प्राणनाथ श्रीकृष्ण के पादारविन्द का मिलिन्द हो रहा है, कि नाना विघ्नों, तीव्र कंटकों की आशंका होने पर भी उसके ध्यानानन्द मधुपान से विरक्त नहीं है। शरीर का क्या, आज रहा कल न रहा। मुझको तो तभी इससे निराशा हो गयी, जब मेरे कानों ने इस असह्य रोमांचकर समाचार को सुना कि “रुक्म ने आज शिशुपाल के यहाँ टीका भेज दिया।” पर हाय! ए नैन जो सर्वदा प्राणनाथ की अलौकिक छवि अवलोकन करने के लिए चकोरवत् उत्सुक रहे! ए कर, जिनको प्रभुपादारविन्द सेवन की बड़ी उत्कण्ठा है! ए श्रवण, जिनको प्रियतम के कोमल मधुर अथच मेघगम्भीर भाषण सुनने की बड़ी कामना है! ए नासाछिद्र, जिनको प्राणपति के अतसीकुसुमोपमेय कान्ति सम्पन्न शरीर की सुगन्धि घ्राण की एकान्त इच्छा है। यह अंक जिसको प्राण धन जीवन को भर अंक भरने का परम अनुराग और घनी लिप्सा है। क्या अब अपनी अभिलाषा को न पूरी कर सकेंगे? क्या इन अभिलाषाओं की विशद बेलि जो हृदयालवाल में भली-भाँति फैली हुई है, अब उस घनश्याम की कृपावारि से सिंचित न होकर सूख जाएगी? विधाता! तू बड़ा कठोर है! जो पहले मन को प्रियतम प्रीति से संलग्न कर, अब उसको वियोग का फल चखाया चाहता है। और उसकी इतनी विकलता देखकर भी तेरा हृदय नहीं द्रवता। हे अपटु! यद्यपि तेरी अपटुता अप्रगट नहीं। क्योंकि तेरी ही कुमति का यह फल है कि जगन्नैनोत्सव निसाकर असित लाँछन द्वारा लाँछनित है! जगज्जीव आशा पात्र उदधि लवण है! कुसुमकुलशिरोमणि पाटल की शाखा कण्टकाकीर्णहै! चतुराकर असतंस, गुणगणैकनिलय, मनुष्य जाति मृत्युभय संचसित है। तथापि कहीं-कहीं वह अतिसय खेदजनक होती है। ब्रह्मा! क्या तू ऐसे-ऐसे कामों को करके सुखी रहेगा? कदापि नहीं! अवश्य कोई वह दिन भी होगा, जिस दिन निज सताए हुए लोगों की पुकार से विकल होकर तुझको भी अप्रिय कर्म का फल भोगना पड़ेगा। हा! कहाँ इस बात की अभिलाषा थी कि एक वह दिन होगा जिस दिन मैं प्राण प्यारे की दासी करके संसार में प्रख्यात हूँगी, और अपने को कृतकृत्य मानूँगी। कहाँ अब इस बात की चिन्ता है कि किस दिन इस शरीर को त्याग उस अधर्मी शिशुपाल का मुख देखूँगी, और अपना धर्म निबाहूँगी। हाय! क्या सचमुच अब प्राणनाथ के दर्शन से ए नैन सफल न होंगे? क्या वास्तव में ए पापी प्राण प्राणनाथ के संयोग सुख का अनुभव न कर सकेंगे? हा! निर्दयी दैव! न जाने तुझको ऐसा करने में क्या लाभ है!!! (मूच्छित होकर गिरना चाहती हैं, गिरते देख दूर से दौड़कर अनामा उनको पकड़ लेती है साथ ही अनाभिधाना भी दौड़ आती है)

अनामा- (व्याकुल होकर) सखी अनाभिधाने! देख! राजकुमारी की इस समय कैसी दशा हो रही है, मुख प्रात:कालीन मयंक समान पीतवर्ण हो गया है। नेत्रों से अश्रुबिन्दु मुक्ता समान गिरे जाते हैं, हृदय बार-बार कंपित हो उठता है, सम्पूर्ण अंग शिथिल हुआ जाता है, शरीर में इतनी ज्वलन है कि उसकी ऑंच से समीप खड़े रहना कठिन है, सकल आभूषण इतस्तत: हो गये हैं, संज्ञा नष्टप्राय है, क्या तुम इसका कारण बतला सकती हो?

अना.- “सखी! इस समय कारण जानने के लिए अधिक विचार करना व्यर्थ है। वरन राजनन्दिनी को सुधि में लाने का प्रयत्न करना अत्यन्त उचित जान पड़ता है। क्योंकि सुधि हुए पीछे सब कारण आप ही ज्ञात हो जावेंगे। दीपक द्वारा भवनान्धकार विदूरित होने के उपरान्त उसमें की सब वस्तु आप ही दीखने लगती हैं ( अंचल द्वारा वायु करती है)।

श्रीरु.- (सुधि में आकर) अरे मन! तू इतना क्यों आकुल होता है, ईश्वर बड़ा विलक्षण है! उसके सन्मुख कोई भी विषय असाध्य है नहीं, क्या आश्चर्य है जो उसकी कृपा से तेरी कामना पूरी होवे। क्या दमयन्ती को कभी आशा थी कि नल के मुखचन्द्र दर्शन से उसका हृत्कुमुद फिर विकसित होगा पर उस करुणालय जगदीश की कृपा से उसकी अभिलाषा पूर्ण ही हुई।

अनामा- राजतनये! यद्यपि कोई भेद तुमारा ऐसा नहीं है, जो हम लोगों पर अप्रगट होवे, तथापि जिस कारण से तुमारी आज यह दशा है, उससे हम सब सर्वथा अनभिज्ञ हैं। आज मन तुमारे विवाह के मंगल समाचार को सुनकर बड़ा आनन्दित था, उस मंगलमय दिवस की परिगणना बड़ी उत्सुकता के साथ करता रहा, पर इस काल तुमारी ऐसी शोचनीया अवस्था देखकर उसका वह आनन्द ऐसे उड़ गया, जैसे पारा अग्नि संपर्क से उड़ जाता है, क्या किसी रोग करके तुमारी यह दशा है अथवा कोई दूसरा कारण है? प्यारी! शीघ्र बताओ, जिससे हम लोग उसके निवारण का तत्काल प्रयत्न करें, क्योंकि तुमारी यह दशा देखकर मन ऐसा उद्विग्न है, जैसे मणि खो जाने की आशंका से सर्प विकल होवे।

श्रीरु.- सखी अनामे! अब क्या प्रयत्न हो सकता है, जो होना था सो तो हो ही गया। अब क्या सम्भव है कि रुक्म अपने प्रण को त्याग देगा, जब उसने शिशुपाल के यहाँ टीका ही भेज दिया तो अब त्यागने की कौन आशा है। पर क्या भागीरथी के प्रवाह को रत्नाकर की ओर से बलात रोककर कोई किसी अपूर्ण सरोवर की ओर कर सकता है? अथवा वसुन्धरा का सूर्य के आसपास का भ्रमण करना अवरोध होकर किसी छुद्र ग्रह के आसपास हो सकता है? ऐसे ही जिस मनमयंक ने अपने को श्रीकृष्ण पादरज दर्शनभानु से प्रकाशित करने की अभिलाषा की है, भला यह कैसे हो सकता है कि अब वह शिशुपाल से खद्योतसम का आश्रय करके अपने को कलंकित करेगा।

अनामा- मन में अकस्मात बिना बिचारे ऐसी भावना कैसे कर ली, यद्यपि चन्द्रमा सूर्य के ही प्रकाश से प्रकाशित है, किन्तु चन्द्रमा के हत प्रकाश होने का कारण भी तो सूर्य ही है। फिर जिससे उपकार के साथ अपकार की भी आशंका है, और जिस कार्य के होने की कदापि सम्भावना नहीं, उसके लिए आग्रह के वशीभूत होना अयुक्ति छोड़ और क्या हो सकता है।

श्रीरु.- फिर मन क्या स्ववश है! यदि इसको युक्ति ही सूझती और अपने हानि-लाभ का ही विचार होता तो ऐसा क्यों करता? इसके अतिरिक्त जिसने प्रेम मार्ग में पैर रखा है, उसको हानि-लाभ से क्या प्रयोजन। उपलभ्य से चातकी स्वाति घन की आशा त्याग किसी छुद्र सरोवरादि की आशा कर सकती है? अथवा कंटक विद्ध होने की आशंका से चंचरीकपाटल प्रसून से विरत हो निर्गंधि जवासपुष्प से प्रीत हो सकती है? कदापि नहीं? फिर मैं कब प्राणभय से भगवान वासुदेव के पादारविन्दसेवन से विरक्त हो सकती हूँ।

अनामा- राजनन्दिनी! प्रीति वही उत्तम होती है, जो परस्पर हो, एक ओर तो प्रीति का प्रवाह उमड़ता हो और दूसरी ओर उसके जाने के लिए मार्ग भी न हो तो ऐसी प्रीति किस काम की। पतंग का दीपक का भाव जाने बिना उससे प्रीत होने का कैसा भयंकर परिणाम होता है।

श्रीरु.- प्रीति तो बड़ी प्रशंसनीय होती है, जो निस्स्वार्थ हो, किसी उपकार अथवा उत्तमता की आशा से प्रीति करना प्रेम का निकृष्ट मार्ग है। निज प्रीति पात्र के अनजान में और उससे अपमानित होने पर जो प्रेम ध्रुव समान अटल रहता है, विबुधों की दृष्टि में वही उत्तम और उत्कृष्ट गिना जाता है। जैसा माननीया जनकराजदुहिता का भगवान रामचन्द्र के साथ था, अथवा श्रध्दास्पदा वृषभानुनन्दिनी और प्रात:स्मरणीया गोपीजन का श्रीगोपीबल्लभ के साथ है।

अनामा- जैसे प्रचण्ड केहरी के सुतीक्षण नखों का व्रण मेघगम्भीर स्वन श्रवण कर विदीर्ण होने लगता है। वैसे ही तुमारे शोक से आहतमन का संताप कुमार रुक्म के राजसभा में तरजने का समाचार स्मरण कर अधिक हो जाता है। पर हाय! क्या महात्मा जनक के आग्रह को कोई निवारण कर सकता था, यदि श्रीजनकनन्दिनी के सौभाग्यबल से पुरुषोत्तम भगवान रामचन्द्र द्वारा धनुषभंग न होता।

श्रीरु.- सखी अनामे! रुक्म अपना हठ भले ही निबाहे मुझको इस में कुछ कथन की कोई आवश्यकता नहीं। पर मेरे हृदय का भाव ब्रह्मा के लेख की भाँति किसी प्रकार भी नहीं पलट सकता। वायु अपने प्रचण्ड वेग से घनपटल को निवारण कर ही देती है, पर इससे चाहे चात्रिक के भाव में कुछ अन्तर होता हो, कदापि नहीं होता।

पद

कहा लाभ बहु कहे सुने मैं।

दुखी भये मन सोक बढ़ाए बिबिध तर्क हिय माहिं गुने मैं।

त्यागि कृष्णपदकंज प्रीति छन आन ध्यान नहिं होत हिये मैं।

भलो होत जिय एक आस विस्वास एक इक ओट किये मैं।

बसो आनि हिय धाम स्याम छबि रोम-रोम अरु नैन दोऊ मैं।

दियो छोरि कुल नीति रीति रति चहौं नाहिें अब भूलि सोऊ मैं।

परो लाज पै गाज जाहि ते अन्तर होय सुरारि प्रेम मैं।

कहा लाभ प्रभु बिमुख जोग विज्ञान ज्ञान धारु किये नेम मैं।

अहै हानि हरिऔध नाथ तजि आन माहिं निज चित्त दिये मैं।

दीप्तिमान मनि त्याग काँच को कहा लाभ व्यवसाय किये मैं।

अनामा- राजकन्यके! तुमारा व्रत बड़ा कठोर है, परमात्मा तुमको इस व्रत के उद्यापन में कृतकार्य करे। (ऊपर देखकर) क्या अब संध्या समय समीप है? तो अभी कहिए यह कार्यों का परिशोध करना भी अवशेष है। राजात्मजे! चलो राजमन्दिर को चलैं।

अनामा- सखी अनामे! सत्य है। दिनमणि, जिसने अपनी प्राणप्यारी छाया के अन्वेषण में बड़ा परिश्रम किया था, उसको न पाकर, वियोगी पुरुषों की भाँति अब उसके वियोग से कैसा मलीन और निस्तेज हो रहा है। अधिक परिश्रम करने से उसका मुख कैसा अरुण हो गया है। पादपगण जिन्होंने छाया को अपने अधोभाग में शरण दिया था, अब अपनी विजय समझ कैसे हरित और प्रफुल्लित हो रहे हैं। पक्षिगण जो इतस्तत: कलरव करते वृक्षों की ओर आते दृष्टिगत होते हैं, उनको और वृक्ष के पत्रों का संचालित होना देखकर ऐसी प्रतीति होती है, मानो पादपगण पक्षिसमूह को अपने विजय का शुभ समाचार सुनाने के लिए संकेत द्वारा निकट बुला रहे हैं, किन्तु वह पहले ही इस विजय समाचार से अभिज्ञ होकर उन को जीत की बधाई दे रहे हैं। (इधर उधर देखकर) अहा! अब तो सूर्य का कुछ प्रकाश शेष न रहा, शीतलमंद सुगंध विविध वायु चलने से संसार का चित्त हरा हो रहा है, किन्तु प्यारी रुक्मिणी के दु:ख से हम लोगों का मन मलीन और अनुत्साह है। सन्ध्या समय की सुख सामग्री आज हम लोगों के उपयुक्त नहीं है।

श्रीरु.- सखियो! क्यों वृथा तुम सब भी मेरे साथ दु:खिनी बनती हो, चलो चलैं।

अनामा- राजनन्दिनी की जैसी आज्ञा।

(सब जाती हैं)