श्री सुमित्रानंदन पंत को / अमृतलाल नागर

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चौक, लखनऊ-3

9-1-75

पूज्‍यवर,

सादर सविनय प्रणाम।

पत्र पाकर कृतार्थ हुआ। पत्र लिखने के मामले में मैं इतना आलसी हूँ कि अब क्षमा माँगना भी मुझे महज अपनी बेशर्मी का प्रदर्शनी करना ही लगता है। जो हो, यह चिर-अपराधी आपके सम्‍मुख सिर झुकाए खड़ा है, जो दंड आप देना चाहें वह मेरे लिए कम होगा। मानस का हंस पर आपका पत्र मुझे अवश्‍य मिला था, किंतु नेताजी को जो पत्र आपने उनकी पिछली वर्षगाँठ के अवसर पर लिखा था वह उन्‍हें नहीं मिला। नेताजी कल शाम मेरे साथ थे। आपका पत्र पढ़कर बोले : "खै़र, हम लिखेंगे। हमारा प्रणाम लिख देना।"

श्रीयुत् मयूरजी के काव्‍यग्रंथ पर पिछली स्थायी समिति की बैठक में विचार हुआ। सदस्‍यों का यह विचार है कि चूँकि काव्‍यग्रंथ अभी तक समिति ने प्रकाशित नहीं किए हैं, इसलिए नई परंपरा स्‍थापित करना अधिक उचित नहीं होगा। एक कविता पुस्‍तक छापने से फिर हम अनेक काव्‍यग्रंथ, उपन्‍यास, नाटक आदि प्रकाशित करने के लिए बाध्‍य हो जाएँगे, जो हिंदी समिति के 'स्‍कोप' में नही आता। आप श्री मयूरजी से कहें कि वह किसी ऐसे प्रकाशन को खोजें जो कि ऐसे साहित्‍य का ही प्रकाशन करता हो। मुझे आश्‍चर्य है कि समिति के कार्यालय ने अभी तक उन्‍हें यह सूचना नहीं दी। मैंने आज कार्यालय को नोट भेज कर श्री मयूरजी की सेवा में पत्र लिखने के लिए कहा है।

इलाहाबाद आकर एक दिन कुछ समय आपके साथ बिताने की बात प्रसंगवश दो बार हमारी और प्रतिभा की बातों के दौरान आ चुकी है। स्‍वयं प्रतिभा की इच्‍छा भी आपके दर्शन करने की बहुत है, पर वे मेरी दुश्‍मन इतनी मक्‍खीचूस है कि अभी तक अपने हिसाब का मीनमेख ही नहीं विचार पाई हैं। जो हो, राम चाहेंगे तो शीघ्र ही हमें आपके चरण स्‍पर्श करने का सौभाग्‍य प्राप्‍त होगा।

प्रिय शांता बेन को हमारे नमस्‍कार।

आयुष्‍मती बेटी को बहुत-बहुत प्‍यार


विनयावनत

अमृतलाल नागर