श्री हरिश्चन्द्र जयन्ती / रामचन्द्र शुक्ल

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गत भाद्रपद शुक्ल सप्तमी तारीख 31 अगस्त को सायंकाल काशी नागरीप्रचारिणी सभा भवन में भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्रजी की जयन्ती बड़े समारोह के साथ मनाई गई। गत साहित्य सम्मेलन की भाँति सभा के आगे का भाग सैकड़ों झंडियों से सुशोभित किया गया था। सभा का हाल अशोक पत्रों के बन्दनवार, फूलों के बड़ेबड़े गुच्छों, पुष्पमालाओं इत्यादि से अभूतपूर्व रूप से सजाया गया था। सभापति के बैठने के स्थान के ऊपर दीवार से भारतेन्दुजी का एक बहुत बड़ा तैलचित्र लगाया गया था जिसमें रंग बिरंगे फूलों और पत्तियों का आधा फुट चौड़ा चौखटा जड़ा था और ऊपर श्वेत पुष्पों का चन्द्र था जिसके भीतर रक्ताक्षरों में 'श्रीहरि:' बना था।

समय से पहले ही सभा का वृहत् हाल दर्शकों से भर गया। अगणित लोग स्थान के संकोच से दोनों ओर के बरामदों में तथा बाहर खडे रहे। सभापति का आसन काशी के सुप्रसिध्द ज्योतिर्विद पंडित अयोध्यानाथजी शर्मा (अवधोश) ने सुशोभित किया। दर्शकों में अनेक विद्वान, सभी काशीस्थ हिन्दी प्रेमी, अनेक रईस, वकील, अध्यापक, छात्रादि थे।

स्थानीय भारतेन्दु नाटक मंडली के द्वारा मंगलाचरण का मनोहर संगीत होने के उपरान्त राय कृष्णदासजी ने बाबू मैथिलीशरण गुप्तजी की रची 'श्री हरिश्चन्द्रपंचक' नामक कविता पढ़ी, जो पत्रिका के इसी अंक में अन्यत्र प्रकाशित की गई है। तत्पश्चात् 'ट्रिब्यून' के भूतपूर्व सम्पादक श्रीयुत कालीप्रसन्न चटर्जी का व्या ख्याोन हिन्दी में हुआ। आपने अपने व्याूख्या्न में बाबू हरिश्चन्द्र के उच्चकुल, विद्या प्रेम, सद्गुण, साहित्य सेवादि का वर्णन करते हुए वर्तमान समय के लोगों को उनका अनुकरण करने की सलाह दी। पश्चात् जैनमुनि विद्याविजय का व्या ख्यालन हुआ। उन्होंने बाबू हरिश्चन्द्र के साहित्यिक जीवन की आलोचना करते हुए कहा कि वे पूरे अहिंसक और दयालु थे। आपके बाद 'हरिश्चन्द्र स्कूल' के छात्रों ने कुछ कविताएँ पढ़ीं। फिर हिन्दू कॉलेज के विद्वान प्रोफेसर जे. एन. उनवाला महाशय ने गुजराती में व्या।ख्याखन दिया और बाबू हरिश्चन्द्र की सर्वजनप्रियता, साहित्यसेवा इत्यादि पर विचार करते हुए कहा कि भारतवर्ष में एक भाषा और एक लिपि के प्रचार का उद्योग प्रशंसनीय है और हिन्दी भाषा तथा नागरी लिपि सार्वजनिक बनाने के योग्य है। उन्होंने यह भी कहा कि मैं पारसी हूँ, मेरी भाषा गुजराती है, परन्तु हिन्दी से मुझको प्रेम है। इसके अनन्तर बाबू भूतनाथ चटर्जी ने बंगला में व्याभख्याजन दिया और श्रीमती बंग महिला की 'हरिश्चन्द्र' नामक बंगला कविता पढ़ी। तत्पश्चात् बाबू जयशंकर प्रसाद ने अपनी रची कविता पढ़ी जो प्रकाशित की गई है। फिर साहित्याचार्य पंडित रघुनाथ शर्मा ने संस्कृत की कविता पढ़ी। आपके बाद बाबू गंगाप्रसाद गुप्त ने अपनी रचित 'हरिश्चन्द्र स्मृति कला' नामक कविता पढ़ी जो इसी अंक में अन्यत्र प्रकाशित की गई है। फिर बाबू लक्ष्मीनारायण सिंह ने एक कविता पढ़ी। उनके बाद पं किशोरीलालजी गोस्वामी ने गद्य में लिख हुआ बाबू हरिश्चन्द्र सम्बन्धी एक लेख पढ़ा और एक कविता भी पढ़ी जिसमें भारतेन्दुजी के सब ग्रन्थों की नामावली आ गई थी (यह लेख तथा कविता मुझे नहीं मिली, गोस्वामीजी अपने साथ लेते चले गए, नहीं तो मैं इन्हें भी सहर्ष प्रकाशित करता) पश्चात् चम्पारन के पं. चन्द्रशेख्रधर मिश्र की ओर से एक महाशय ने कुछ कहा। अनन्तर पं. चन्द्रकान्तजी शर्मा का संस्कृत में और भारत जीवन सम्पादक

पं. लक्ष्मीनारायणजी त्रिपाठी, आवाज ए खल्क के एडीटर मुंशी गुलाबचन्द और बाबू लक्ष्मीचन्द एम. ए. के हिन्दी में व्याकख्याीन हुए। बड़े हर्ष की बात है, मुंशी गुलाब चन्द ने यह भी कहा कि अब से मैं अपने पत्र में हिन्दी के लेख भी एक दो कॉलम निकाला करूँगा। इसके उपरान्त पं. केदारनाथ पाठक ने पं. श्यामबिहारी मिश्र एम ए का लेख पढ़ा और लाला भगवानदीन की कविता का जिक्र किया। यह लेख तथा कविता भी अन्यत्र प्रकाशित हैं। फिर सभापति का अन्तिम भाषण हुआ जो अन्यत्र मुद्रित है। बाबू श्यामसुन्दर दास बी. ए., पं. श्यामबिहारी मिश्र एम. ए , पं. श्रीधर पाठक, पं. जगन्नाथ प्रसाद शुक्ल, पं. लक्ष्मीशंकर द्विवेदी और बाबू पुरुषोत्तामदास टंडन एम. ए., एल जी. के सहानुभूति सूचक पत्र और तार पढ़े गए। अन्त में भारतेन्दु नाटक मंडली द्वारा संगीत हुआ और सभापति को धन्यवाद देकर 10 बजे सभा विसर्जित हुई।

इसी दिन प्रयाग, कलकत्ता, छत्रापुर और आरा में भी हरिश्चन्द्र जयन्ती मनाई गई थी।

(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, अगस्त 1911 ई.)

[ चिन्तामणि: भाग-4]