संगमरमर की सड़क पर / मुक्ता

Gadya Kosh से
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श्वेत परिधान में लिपटी हिलती–डुलती आकृति मुझे उद्विग्न कर रही थी। वह घुटनों के बल झुकती, कुछ बुदबुदाती उँगलियों से अस्पष्ट रेखाएँ खींचती, फिर खड़े हो शून्य में निहारती। सीने पर हाथों से हल्के स्पर्श से क्रास का निशान बनाती, पुनः सिर झुकाकर ध्यानमग्न हो जाती। मोमबत्तियों की उजास चारों ओर फैली थी। एक–एक क्षण परीक्षा की घड़ी जैसा बीत रहा था। कद, काठी कभी–कभी पीठ से झलक मारता उसका चेहरा मुझे रोमांचित कर रहा था।

...कहीं यह वही तो नहीं?”

एक–एक पल युगों –सा बीत रहा था। काश ! दीवारें आईना बन जाएँ। उसका बिम्ब दीवारों में छप जाय या पूरा परिदृश्य जलमग्न हो जाय। सभी रहस्य अनावृत हो जाएँ।

विनी बेचैनी से मेरी ओर मुड़ी। उसका धैर्य चुकाने लगा।

“अब चलो भी दीदी। यहाँ तो सेंट जेवियर्स का शव कहीं दिखाई नहीं दे रहा है...”

“बस विनी, थोड़ी देर और...”

मेरी जिज्ञासा समाधान तक पहुँचना चाहती थी। पैर जैसे धरती से चिपक गए थे। विनी अशांत हो उठी।

“सिस्टर आप बताएँगी सेंट जेवियर्स की डेड बोडी कहाँ रखी है?”

इतने उघड़े शब्दों में सन्त के मृत शरीर को सम्बोधित करना मुझे अच्छा नहीं लगा। मैं कुछ कहूँ इसके पहले ही मौन भंग हुआ,” इन दिनों में सन्त के दर्शन नहीं हो सकते, एक महीने बाद ही सम्भव होगा।”

श्वेतांगिनी मुड़ी। मैं अचंभित थी। मानो धरती–आकाश दोनों ठहर गये हों। पूरे वातावरण में अनचाहा विस्फोट हो गया हो। मेरा अनुमान सही निकला। ‘नन ‘ के रूप में श्वेतांगिनी जेनी ही थी। दृष्टि मिलते ही शब्द फूट पड़े,” जेनी ! तुम?”

क्षण–भर को वह भी अव्यवस्थित हुई लेकिन जल्दी ही क्षीण मुस्कान फैल गयी। होंठ हिले –” कैसी हो?”

मेरा पोर–पोर व्याकुल था। मैं उससे लिपट जाना चाहती थी। वह संतुलित थी। उसके वस्त्र एवं सम्पूर्ण व्यक्तित्व में गहरा निषेध था।

“गॉड ब्लेस यू” कहती हुई वह आगे बढ़ गयी। मेरा रोम –रोम चिल्ला उठा,” नहीं जेनी, आज मैं तुम्हें ऐसे नहीं जाने दूँगी। सभी प्रश्न हल करने होंगे तुम्हें...।” लेकिन आज मैं काठ के जैसी खड़ी थी, केवल अस्फुट स्वर निकले,” जेनी ! मुझे कुछ कहना है।”

उसकी घनी बरौनियाँ उठीं,” कहो।”

अपरिचय और भी घना हो गया। मैं आहत हो उठी,” नहीं यहाँ ऐसे नहीं। मुझे समय चाहिए।”

“ठीक है, चर्च के सामने मेरे हॉस्टल का गेट है वहीं कल इसी समय मिलूँगी। परम पिता के हाथ को कन्धे पर महसूस करो। प्रश्न अपने-आप ही हल हो जायेंगे।” विनी की ओर देखकर वह मुस्कुरायी, “तुम्हारी बहन है? स्वीट है।”

वह आगे बढ़ गयी। एक लंबी कहानी पीछे रह गयी जिसकी शुरुआत वर्षों पहले हुई थी। जेनी मेरी रुम पार्टनर बनकर हॉस्टल में रहने आयी थी।

“तुम ऐसे...बिना कपड़ों के...वार्डन ने देख लिया तो....जो तौलिया तुमने सिर पर लपेट रखा है, उसे ही लपेट लो...।”

“क्यों, मैंने अंडरगारमेंट्स तो पहने हैं, फिर बिना कपड़ों के कैसे? क्या मैं खूबसूरत नहीं हूँ?”

“नहीं...जेनी तुम बहुत खूबसूरत हो लेकिन...”

सच तो यह था कि मैं अचंभित थी। निर्वस्त्र नारी देह का अबूझ सौन्दर्य मेरे समक्ष था। मैं सम्मोहित थी। वह क्षण इस अहसास से परे था कि मैं स्वयं नारी हूँ। मेरी दृष्टि उसके संतुलित अंगों पर टिकी थी। तराशी हुई देह, गंदुमी रंग, ऊँचा कद, चमकीली हिरनी जैसी आँखें, नीचे की ओर झुके आमंत्रित करते होंठ, उसके सलोने मुख को खास आकर्षण दे रहे थे। अजन्ता के भित्ति–चित्रों जैसा मादक सौन्दर्य, उसके अनावृत्त अंगों में न जाने कितने रहस्य लय थे।

“श्रुति ! तुमने कभी शीशे में खुद को देखा है? शरीर के साथ मन को तुमने गहरे अंधकार से ढँक लिया है। चारों ओर बन्द कमरे हैं...सच। मेरा तो जी घुटता है। तुम मुझसे ज्यादा खूबसूरत हो। क्या तुम्हें मालूम है?”

मैं झेंप गयी। कुछ लज्जित भी हुई जैसे जेनी ने मुझे निर्वस्त्र देख लिया हो। मैंने सहज होने का प्रयत्न किया,” यहाँ हॉस्टल में मेरी जैसी ही लड़कियाँ हैं...और वार्डन का कड़ा अनुशासन...तुम्हें तो थोड़े ही दिन यहाँ रहना है, एडजस्ट कर लो...।”

मेरे कहने का असर हुआ। जेनी ने तौलिया कन्धे से लपेट लिया। मासूम–सी मुस्कान उसके चेहरे पर फैली,” पता नहीं, वैसे इस कबूतरखाने में मैं नहीं रह सकती। जल्दी ही कुछ इंतजाम करना होगा। पीटर की पढ़ाई पूरी होने के बाद मैंने मेम्बे के साथ कमरा शेयर किया था। वह एक अड़ियल बद–दिमाग इन्सान निकला...अब किसी और को ढूंढूंगी...मैं इन्टरनेशनल हाउस में शिफ्ट करना चाहती हूँ, लेकिन वहाँ मुझे जगह नहीं मिल सकती क्योंकि मेरे पिता भारतीय हैं...ये नियम...ये कानून...आई हेट दिस सिली रूल्स रेगुलेशन्स...पता नहीं क्यों माँ को भारत से बहुत लगाव था...खास तौर पर गंगा से, वैसे वे भी मौरीशस की थीं। गंगा का आकर्षण उन्हें इण्डिया ले आया। वे यहीं की होकर रह गयीं। डैड म्यूजिक–टीचर थे। पहले वे उनकी शागिर्द रहीं, बाद में हमसफर बन गयीं...छोड़ो मैं भी कहाँ बोर करने लगी तुम्हें...अभी कल ही परिचय हुआ और आज मैं अपनी किताब खोलकर बैठ गयी...”

“नहीं, ऐसा नहीं है जेनी ! तुम अपनी बात कहो...मैं सुनना चाहती हूँ। लेकिन पहले कपड़े पहन लो।” जेनी अभी भी तौलिये में लिपटी थी। गनीमत यह थी कि वह कमरे के अंदर थी। उसने बेझिझक मेरे सामने ही ब्लू जींस और हल्के पीले रंग का टॉप पहना। मैं सम्मोहित –सी उसे देख रही थी। उसने मुस्कुराकर कुछ इस अंदाज में मुझे पुचकारा जैसे मैं भोली बच्ची हूँ।

“क्या मैं तुम्हें सुंदर लग रही हूँ?”

“बहुत सुंदर...”

“कैसी? किसकी तरह लग रही हूँ? कोई इमेज?”

“हाँ...अमृता शेरगिल की सेल्फ पोट्रेट जैसी।”

“रियली ! हम दोनों अच्छे दोस्त बन सकते हैं। आओ ब्रेकफ़ास्ट ले लें।”

जेनी पूरी तरह से मेरे ऊपर हावी थी। मैंने आज्ञाकारी बच्चे की तरह सिर हिलाया।

जेनी की अधूरी कहानी के कुछ शब्द मेरे मस्तिष्क में अंटक गए थे। झटकने की कोशिश के बावजूद वे मुझे चौंका रहे थे। मैं चाहती थी पहल जेनी ही करे लेकिन वह निर्लिप्त बनी रही। कुछ घण्टे जिसमे हम अंतरंग हो उठे थे, बीती घटना जैसे हो गये थे। सुबह से रात तक वह अपने को व्यस्त रखती। उसकी वायलिन की क्लास शाम को होती, लेकिन वह प्रातः नाश्ता करने के बाद ही छात्रावास छोड़ देती। रात, अक्सर वह बाहर खाना खाकर आती। कभी–कभी रात के खाने में हमारा साथ होता। उस समय भी वह खोयी रहती। उसका अंग–अंग थिरकता, गुनगुनाहट होठों पर तैरती। उन्मुक्त मछली-सी वह नदी में तैरती। मैं तट पर खड़ी निहारा करती।

एक दिन मैंने जानने का प्रयत्न किया वह कहाँ जा रही है। उसने रुखाई से उत्तर दिया,” माइंड योर ओन बिजनेस”, मैंने किताब में आँख गड़ा दी। मस्तिष्क में हथौड़े बजने लगे। रात जेनी के आने के पहले ही मैंने भोजन कर लिया। वह समझ गयी। रात्रि भोजन के पश्चात उसने आकर पीछे से अपनी बाहें मेरे गले में डाल दीं। मैं पढ़ने का अभिनय करती रही।

“तुम तो साहित्य की स्टुडेन्ट हो, तुम्हें मालूम होगा तालस्टाय की राय औरतों के बारे में बहुत अच्छी नहीं थी, वैसे मैक्सिम गोर्की को उनकी यह बात नापसन्द थी। शायद मैं भी एक ऐसी औरत हूँ जिसे कोई पसन्द नहीं करता।”

जेनी का स्वर उदास था। वह पिघलने लगी।”...तुम अभी भी नाराज हो? तुम मुझे समझ नहीं सकती हो। मुझे हैरानी होती है। तुम्हारी उम्र इक्कीस वर्ष है और अभी किसी पुरुष ने तुम्हें छुआ तक नहीं...”

मेरा मौन भंग हुआ। नसें तनने लगीं।

“भला...इसमें हैरानी की क्या बात है? यहाँ भारत में अधिकतर लड़कियाँ मेरी ही तरह हैं।”

“इण्डिया में तो मैं भी हूँ, लेकिन आधी–अधूरी...” अचानक वह कठोर हो उठी। उसके स्वर में उत्तेजना थी,” तुम्हें कुछ नहीं मालूम या तुम भोली बनाने की कोशिश कर रही हो। इण्डिया में बड़ी संख्या में बलात्कार होते हैं। बलात्कार करने वाले रिश्तेदार होते हैं। अपने ही सगे–सम्बन्धी...। बस फर्क इतना है कि यहाँ लड़कियाँ चुप रह जाती हैं। उनमें इतना साहस नहीं है कि मुँह खोलें। पता चलने पर भी घर की बात घर में ही दबा दी जाती है। मैं डंके की चोट पर साइमन, पीटर मेम्बे के साथ रही हूँ। मैंने अपनी इच्छा से शारीरिक सम्बंध बनाए हैं, किसकी हिम्मत है जो मुझसे बलात्कार करता? तुम लोग अपने कौमार्य को ग्लोरीफाई करती हो। आखिर इसमें इतना गर्व करने वाली कौन -सी बात है? बोलो...चुप क्यों हो?”

जेनी की आँखें उबल रही थीं। चेहरा तमतमा रहा था। वह रणचंडी बनी हुई थी।

मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। बस एक चीख थी जो अन्दर तक घुट रही थी। मैंने सामने से हट जाना ही उचित समझा। जाते–जाते इतना अवश्य कहा,” जेनी पहले तुम खुद को समझने की कोशिश करो। तुम चाहती क्या हो? तुम्हारा प्रश्न क्या है?”

रात मैंने अपनी एक सहेली के कमरे में बितायी। सुबह कमरे में घुसते ही जेनी मुझसे लिपट गयी। उसका स्वर भीगा हुआ था।” तुम मुझे छोड़कर कहाँ चली गयी थी? मैं तुम्हें अच्छी नहीं लगती हूँ तो साफ–साफ कह दो, मैं कमरा बदल दूँगी या किसी और लड़की के साथ रह लूँगी।”

मैंने मुसकुराते हुए उसे छेड़ा,” लड़की के साथ या लड़के के साथ। तुम तो शहर में कमरा ढूँढ रही हो।”

उसने मेरे गालों को चूमते हुए कहा,” नहीं–मैं तुम्हें छोड़कर नहीं जाऊँगी। तुम मेरी सब बातें बर्दाश्त करती हो। तुम वास्तव में दयालु हो। जीसस ने कहा है दयालु लोग ही स्वर्ग के सच्चे अधिकारी हैं। ...सच बताओ श्रुति। तुम्हें मुझसे नफरत तो नहीं है...यहाँ की लड़कियां मुझे बर्दाश्त नहीं कर पातीं। हॉस्टल की सभी लड़कियां मुझे अजीब नजरों से घूरती हैं। मेरी अच्छी दोस्त, जिस दिन तुम्हें नफरत हो बता देना। मैं चली जाऊँगी। मैं तुम्हारी नफरत बर्दाश्त नहीं कर सकती हूँ।”

जेनी की बाहें मेरे गले में थीं। मैं उसके नर्म बालों को सहला रही थी। उसने सिर मेरे कंधे पर टिका दिया। उसके गर्म आँसुओं को मैं कंधे पर गिरते हुए महसूस कर रही थी।

तुर्गनेव की जिनाइदा मेरे सामने साकार हो उठी। जिनाइदा जिसके सजीव और सुंदर व्यक्तित्व में चालाकी और लापरवाही, कृत्रिमता और सादगी, शांति तथा चंचलता का विशेष मेल था। वह जो कुछ भी करती, जो कुछ भी कहती, उसकी हर गतिविधि में सूक्ष्म और हल्का–हल्का सजीलापन होता, हर चीज में अनूठी, खिलवाड़ करती शक्ति की झलक मिलती। निरंतर रंग बदलता हुआ उसका चेहरा भी खिलवाड़ करता। वह लगभग एक ही समय उपहास, गहरी सोच और भावावेश को अभिव्यक्ति देता।

जिनाइदा की याद आते ही मैं अन्यमनस्क हो उठी। अन्त में जिनाइदा को मरना पड़ा। चीख मेरे अन्दर घुट रही थी …. नहीं जेनी, जिनाइदा नहीं हो सकती...नहीं हो सकती। यह बात मेरे मन में आयी कैसे? जेनी और जिनाइदा नाम की एकरूपता ने भी मुझे चौंकाया। कहीं वह भविष्य का पूर्वाभास तो नहीं? आशंका मुझे विचलित कर रही थी।

“जेनी, कल मंदिर चलेंगे या चर्च, जैसा तुम कहो।”

“नहीं...जैसा तुम ठीक समझो...” जेनी ने आज्ञाकारी बच्चे की तरह सिर हिलाया और खिलखिला पड़ी।

वह कल कभी नहीं आया। दूसरे दिन सुबह फोन पर ही उसका कार्यक्रम तय हो गया। रात वह देर से लौटी। मेस बन्द हो चुका था। आधी रात अचानक मेरी नींद खुली। दूसरा तख्त खाली था। जेनी वहाँ नहीं थी। मैं परेशान –सी बाहर आयी, लाउंज की सीढ़ियों पर बैठी जेनी दिखाई पड़ी।

“क्या बात है?” मैंने उसके कन्धे पर हाथ रखते हुए पूछा।

“यहाँ एक भी पीला गुलाब नहीं है। सभी लाल हैं। लाल सुर्ख...प्यार का रंग लाल होता है न...।”

“इतनी रात गये तुम यही रिसर्च कर रही हो?”

मुझे उम्मीद थी अपनी आदत के अनुसार वह खिलखिला पड़ेगी, लेकिन उसके चेहरे पर मुस्कान की क्षीण रेखा भी न उभरी।

“जानती हो आज पहली बार किसी ने मुझे थप्पड़ मारा और मेरा मन हुआ, मैं उसके हाथों को चूम लूँ। पहली बार ऐसी हलचल...आगे बढ़कर मैंने आज तक कभी किसी को नहीं चूमा। कभी पहल नहीं की। पीटर, साइमन, मेम्बे के साथ मैं दूर तक गयी। लेकिन...बस...कुछ समय तक ही मैं वह सब झेल पायी। लगता था जैसे सब कुछ मैकेनिकल है...यान्त्रिक है...अन्दर से कुछ भी अंकुरित नहीं हो रहा...न राग...न विराग...फिर मैं भागने लगी। वे भी कब तक पीछा करते। डैड से भी मैंने कभी जुड़ाव नहीं महसूस किया। उनका जीवन किताबों और संगीत को ही समर्पित रहा। मेरा बचपन बिलकुल अकेला था। मुझे तितलियों के पंख इकठ्ठा करने का शौक था। तुम्हें हैरानी होगी मैं तितलियों को मसलकर उनके पंख अलग कर देती थी। इस क्रूर खेल में मुझे बहुत मजा आता था। तड़पती, पंख फड़फड़ाती तितलियों को देखने में मुझे बहुत रोमांचक सुख मिलता था। एक दिन डैड ने देख लिया। वे बहुत दुखी हुए। मुझे ममा की कब्र के पास ले गये और घण्टों उदास बैठे रहे। वहीं सौगन्ध दी कि मैं अब यह खेल न खेलूँ। तितली के पंख से मुझे बहुत लगाव था लेकिन तितली से नहीं...कैसी अजीब बात है...लेकिन आज मैं यह सब क्यों कह रही हूँ। आज की घटना से इन बातों का क्या रिश्ता...लेकिन शायद हो...क्या मालूम...।”

“जेनी ! आज क्या हुआ?” मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। कालखंड पिघल रहा था। जेनी टुकड़ों को समेटती, डूबती, उतराती तैर रही थी। व्यवधान उसे आहत करता था। अक्सर पूर्ण विराम की स्थिति बन जाती थी लेकिन मैं अपनी उत्सुकता के वशीभूत थी। जेनी, जल प्लावित गगन जैसी तटस्थ शान्त दिख रही थी। मेरे आग्रह पर उसने शुरुआत की,” हम लोगों का गंगा के बीच बजड़े पर स्मोकिंग का प्रोग्राम था। नवीन आज पहली बार हमारे ग्रुप में शामिल हुआ था। नवीन एल. एल. बी. के साथ बाँसुरी में बी. म्यूज. फाइनल कर रहा है। वह घबड़ाया हुआ, परेशान था और खुद को हमारे बीच अजनबी महसूस कर रहा था। वह अपनी बाँसुरी साथ लाया था और बार–बार पूछ रहा था,” तुम लोगों के वाद्य कहाँ हैं?” गंगा के बीच संगीत का कार्यक्रम है और वाद्य के बिना कार्यक्रम कैसे होगा? हमारे साथी सब उसे छेड़ रहे थे, यहीं बजड़े पर सब मिलेगा। गंगा के बीच पहुँचते ही नवीन भाँप गया। उसकी आँखों से अंगारे बरसने लगे, तुम लोगों ने मुझे धोखा दिया है। तुम लोग इतना गिर सकते हो, मुझे उम्मीद नहीं थी। नताशा, डेविड, शंकर ने बारी-बारी चिलम से कश लिया फिर मेरी बारी थी। मैंने चरस का नशा केवल एक बार किया था। मैं झिझक रही थी। नवीन चुप बैठा आग्नेय दृष्टि से मुझे देख रहा था। हाथ में चिलम पकड़ते ही वह चिल्ला उठा,” नहीं...तुम्हें नहीं पीना है। मैं तुम्हें नहीं पीने दूँगा। वैसे भी तुम्हें आदत नहीं है, यह तुम्हारा चेहरा बता रहा है। अपनी आदत के अनुसार मैंने उसे झिड़का,” माइंड योर ओन बिजनेस”, मैं कश लेने की कोशिश करने लगी। मैं संभलू तब तक उसका हाथ छूट चुका था। मैं अवाक थी।” आई एम सॉरी” कहकर वह शांत हो गया। मुझे...मुझे चिल्लाना था। उसके शरीर को खरोंचों से भर देना था, लेकिन मैं बुत बनी रही, अजीब –सा अहसास मेरा पीछा कर रहा था...आगे बढ़कर उसके हाथो को चूम लूँ...चूमती ही रहूँ...यह पल ठिठक जाय...मैं लय हो जाऊँ कपूर की तरह।

नवीन की आँखों में हताशा थी। वह बार–बार दोहरा रहा था,” आई एम सॉरी।” भरी महफिल छोड़कर हम दोनों नाव से किनारे आये। ऊपर से वह शान्त था, लेकिन अंदर से बेचैन। यही दशा मेरी भी थी। हमने ढाबे में खाना खाया। वह अपने बचपन के किस्से सुनाता रहा। बचपन में उसे दौड़ना–भागना अच्छा नहीं लगता था। डूबते सूर्य को देखना सबसे प्रिय खेल था। उसने मुझसे किसी दिन वायलिन सुनाने का आग्रह किया। गेट पर छोड़ते समय पुनः मिलने की इच्छा जतायी।”

जेनी ने चौंककर मेरी ओर देखा, जैसे तंद्रा भंग हुई हो...” ओह बहुत रात हो गयी...सुबह तुमको क्लास अटेण्ड करना है।”

“जेनी, मुझे वायलिन कब सुनाओगी?”

“अपनी शादी में मेरा प्रोग्राम रखना। मैं जरूर बजाऊँगी।”

जेनी को मालूम था, परीक्षा के बाद मेरा विवाह तय है।

“लेकिन तुम्हारे जाने के बाद...” वह फिर उदास हो गयी।

सुबह से ही कबूतर की तरह चहकने वाली जेनी दूसरे दिन बिस्तर छोड़ने का नाम नहीं ले रही थी। सुबह के नाश्ते का समय हो चुका था। मैंने टोस्ट–चाय उसके सिरहाने रख दिया था। दो बार उसके कानों के पास अलार्म भी बजा चुकी थी। सुंदरी ‘ स्वप्न लोक ‘ में विचरती बेसुध थी।

शाम, डिपार्टमेन्ट से लौटने पर गेट के बाहर वाली पुलिया पर जेनी एक सुदर्शन युवक के साथ बैठी दिखाई दी। जेनी ने नवीन से मेरा परिचय कराया। मेरे ‘हॅलो ‘ का उत्तर उसने हाथ जोड़ कर दिया। मैंने मुआयना किया। वह ऊँचे कद, गेहूँए रंग वाला आकर्षक नौजवान था। उसकी आवाज वजनदार थी, लेकिन वह नपे–तुले शब्द ही बोल रहा था।

छः बजने वाले थे। दोनों को ही संगीतालय पहुंचना था। मैंने हैरानी से देखा जेनी उचककर उसकी साइकिल के कैरियर पर बैठ गयी। उन्हें साथ–साथ जाते देखना भला लगा...नंगे तन। हम चलते हैं। संगमरमर की सड़क पर...लम्हों के बीच। हम भोगते हैं, पूरा विश्व...।

सूर्य के साथ ही उड़ने वाली जेनी अब हॉस्टल में ही रहती। अक्सर वह किताबों में खोयी रहती। अभिसारिका नायिका–सी वह पाठ निहारती, आहट से चौंक उठती। आते–जाते वह नवीन के साथ दिखाई देती।

बिखरे बालों और बदहवास चेहरे वाली जेनी की मित्र मंडली अब उसके इर्द–गिर्द नहीं मंडराती।

“मुझे साड़ी चाहिए” वह जैसे मुझे आदेश दे रही थी। जींस के अतिरिक्त जिसे मैंने सलवार–कुर्ते में भी नहीं देखा, वह जेनी साड़ी की फरमाइश कर रही थी। मैंने भी व्यंग से कहा–

“पहले मुझसे साड़ी बाँधने की दीक्षा तो लो। केवल सीखने में ही एक वर्ष लग जाएगा।”

“तुम मुझे चैलेंज कर रही हो। शर्त लगाओ।” मैंने भी एक लिपिस्टिक की शर्त लगा ली। दूसरे दिन वह पीली नाभिदर्शना साड़ी में मेरे सामने उपस्थित थी। मैंने आनाकानी की,” मेरी ही साड़ी और लिपिस्टिक भी मैं दूँ?”

“टाल–मटोल करने से काम नहीं चलेगा डीयर, रातभर जागकर मैंने साड़ी बाँधने की प्रैक्टिस की है।”

“लेकिन जाना कहाँ है?”

“आज अस्सी घाट पर नवीन मुझे बांसुरी सुनाएगा। उसकी जिद थी, मैं साड़ी पहनूँ।”

जेनी का अंग–अंग थिरक रहा था। चम्पा के ताजे फूल जैसी गमकती हुई वह चली गयी। रविवार का दिन था। मैं भी सहेलियों के साथ घूमने निकल गयी। रात का खाना बाहर खाया। कमरे में घुसते ही मैं हतप्रभ रह गयी। जेनी अस्त–व्यस्त–सी औंधे मुँह बिस्तर पर सिसक रही थी। बहुत पूछने पर उसने एक चिट मेरी ओर बढ़ा दी,

देव-प्रतिमा सी तुम

महाआकाश से उतरी

आयी मधु भार लिये,

क्या नाम दूँ मरियम, महालया,

कात्यायनी या जयिनी

मेरा नीरव मन बढ़ चला

पुण्य पथ की ओर शनैः शनैः


“वाह ! बहुत सुन्दर ! अद्भुत अभिव्यक्ति है। इसमें रोने की क्या बात है?”

“श्रुति ! तुम नहीं समझ सकोगी, नवीन मुझमें देवात्माओं की छवियाँ देखता है। उसके लिये कभी मैं राधा हूँ, कभी मरियम, कभी दुर्गा हूँ। उसके प्रेम को झेल पाना मेरे लिये सम्भव नहीं है। वह मुझे मन्दिर...चर्च...में ले...जाता है....गंगा के पानी में उसे मेरी छवि दिखती है...उसे क्या...मालूम मैं...तो जेनी भी नहीं रह गयी हूँ।”

“प्रेम मनुष्य को रूपांतरित कर देता है जेनी। आज सुबह तुम्हारे मुख पर दैवी आभा थी, मुझे शब्द नहीं मिल रहे थे...नवीन ने शब्द ढूँढे...तुम उसका प्रेम हो...मुक्त–मन से प्रेम स्वीकार करो।”

“यह कैसे सम्भव है...कैसे सम्भव है यह?”

“शरीर की पवित्रता को इतना तूल देना। मन को नकारना...यह तो प्रेम का, देवत्व का अपमान है जेनी...तुम तो खुली खिड़की की बातें करती थीं। अब अपनी कारा में स्वयं कैसे कैद हो गयी?”

जेनी मौन रही। निःशब्द ज्वार–भाटा उसके अन्दर उमड़ता रहा। वह बुझी–बुझी रहती। हमारे बीच संवाद लगभग समाप्त हो गया। नवीन से वह कटने लगी।

एक दिन नवीन मुझे गेट पर मिला। उसके साथ मेरा सहपाठी शान्तनु भी था। नवीन ने जेनी से मुलाक़ात का अनुरोध किया। जेनी मेरा आग्रह टाल न सकी। वह नवीन से मिली लेकिन कोई ज्वार था जो उसे लहूलुहान कर रहा था। उसकी घुटन चेहरे पर साफ थी। आँखों के नीचे काली गोलाइयाँ उभरने लगी थीं। मैंने पुनः समझाने का प्रयत्न किया लेकिन वह अपनी कारा में कैद रही।

पिता की बीमारी के कारण उसे जाना पड़ा। वे दिल के मरीज थे। परीक्षा के बाद ही मेरा विवाह हो गया। जेनी मेरे विवाह में सम्मिलित नहीं हुई।

जेनी की कहानी की इति श्री हो जानी थी। पंद्रह वर्ष बहुत होते हैं। एक कालखण्ड था जमा हुआ, आँच पाते ही पिघलने लगा। मैं जेनी को कभी भूल न सकी। जब भी मेरी छोटी बेटी तितलियों के पीछे भागती, मन आशंका से भर उठता। एक सेमिनार के सिलसिले में बम्बई आना हुआ। बम्बई में छोटी बहन विनी का घर है। आने के दूसरे दिन ही चर्चगेट पर शान्तनु मिला। औपचारिकता निभाने के बाद उसने बात आगे बढ़ायी–

“तुम्हारी सहेली जेनी कहाँ है?”

“पता नहीं, कुछ मालूम नहीं।”

“कहीं ऐश कर रही होगी। शी वाज ए बिग फ़्लर्ट।”

“चुप रहो...” मैं चीख पड़ी।

“क्यों चुप रहूँ? तुम्हें मालूम है मेरे दोस्त नवीन का क्या हुआ?”

“नहीं, वह कहाँ है?” मेरे स्वर में उत्सुकता थी।

“वह मर गया...मौत हो गयी उसकी...और उसे स्लो प्यायजनिंग करने वाली तुम्हारी सहेली जेनी थी...।”

“क्या बक रहे हो?”

“ठीक ही कह रहा हूँ...उसके गम में नवीन रात-दिन नशे में डूबा रहता...लीवर सिरोसिस से मरा वह....”

मन आहत हो उठा। सेमिनार समाप्त होने के बाद विनी की जिद के कारण गोवा आना पड़ा।

जगह–जगह नारियल के बिखरे झुरमुट में पूरा शहर धीरे–धीरे साँस लेता है। गोवा की यह खासियत है। यह शहर चौंकाता नहीं, वरन धीरे–धीरे रगों में प्रवेश करता है। आदमी इस शहर का एक हिस्सा बन जाता है। गोवा की खूबसूरती मुझे बाँध नहीं पा रही थी। मन भटक रहा था। जेनी का चेहरा आँखों के आगे घूम रहा था।

चर्च की इमारत बहुत पुरानी थी। जेनी के हॉस्टल की इमारत नयी थी। आज मैं अकेली थी। विनी को मैंने बाजार भेज दिया था। मुलाक़ात कक्ष में भीड़ नहीं थी। मैं नियत समय पर उपस्थित थी। सामने वृक्षों की हरीतिमा आकर्षित कर रही थी। सुन्दर गोल रक्ताभ फल पर कटोरी–जैसा जमा काजू लुभा रहा था।

“हैलो !” जेनी की आवाज गूँजी।

“हैलो...” मैंने धीरे-से कहा। जेनी कुर्सी खींचकर बैठ गयी।

“यहाँ घूमने आयी हो?”

“हाँ”

“कितने बच्चे हैं? जेनी ने प्रश्न किया।

“दो–एक बेटा एक बेटी” मेरा धैर्य चुक गया। मैंने प्रतिप्रश्न किया,” जेनी ! तुम...तुम...यहाँ इस वेश में कैसे?”

“जीसस की यही इच्छा थी, यहाँ शांति है।”

“...लेकिन नवीन? उसके विषय में भी कभी सोचा?”

“रात–दिन...केवल उसके बारे में ही सोचा है श्रुति। तुम ही बताओ, विवाह के प्रस्ताव को मैं कैसे स्वीकार करती?” जेनी का स्वर भीगा हुआ था। जेनी के अन्दर छुपी जिनाइदा बाहर आ चुकी थी।

“...मैं बार–बार सोचती रही नवीन किसी और रूप में मुझे स्वीकार ले। मैं मछली बन जाऊँ, वह समुद्र...मैं नन्ही तितली, वह छायादार वृक्ष...मैं प्यासी कबूतरी, वह आकाश...प्रकृति का कोई भी बिम्ब मुझमें साकार हो जाए, बस जेनी न रहूँ। प्रतिपल मैंने नवीन में लय होना चाहा, लेकिन यह शरीर बाधा बना रहा... अब तो यही संतोष है वह सुखी रहे...प्रभु यीशु का आशीर्वाद उसे प्राप्त हो। उसका परिवार उन्नति करे, कभी मिले तो मेरा सन्देश पहुँचा देना। ...अब मैं चलूँ, प्रार्थना का समय हो रहा है।”

जेनी चली गयी। मैं कह न सकी, उसका सन्देश कभी पहुँचा न सकूँगी। मृतात्माओं को किसी के सन्देश की प्रतीक्षा नहीं रहती...लेकिन नवीन ने प्रेम किया है। वह चिर–प्रतीक्षित है। नंगे तन हम चलते है, संगमरमर की सड़क पर। मंदिर तक, चरागाह की नर्म दूब पर सो रही है, वह अभी भी मेरी बाहों में...।