संगीतकार सज्जाद की पावन स्मृति / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
संगीतकार सज्जाद की पावन स्मृति
प्रकाशन तिथि :24 जुलाई 2017


बादल सरकार के नाटक 'बाकी इतिहास' में एक पत्रकार दंपती अपने पड़ोस में एक व्यक्ति द्वारा की गई आत्महत्या के कारणों पर विचार कर रहे हैं और उनमें कोई वैचारिक सहमति नहीं बनती परंतु नाटक के तीसरे अंक में आत्महत्या कर लेने वाला पात्र प्रवेश करता है और उन दोनों से कहता है कि उसकी आत्महत्या के कारणों पर विचार करने वाले पहले यह बताएं कि वे स्वयं आत्महत्या क्यों नहीं करते? इतिहास में योद्धाओं के विवरण तो हैं परंतु सामान्य सैनिक के बारे में वह खामोश है। इस तरह अनेक क्षेत्र हैं, जिनमें अनेक लोगों की उपेक्षा हो गई है।

अामिर खान और आशुतोष गोवारीकर की 'लगान' काल्पनिक रचना है परंतु इस तरह के कुछ प्रयास हुए भी हों तो वे इतिहास में दर्ज नहीं हैं। विधु विनोद चोपड़ा की '1942 ए लव स्टोरी' भी काल्पनिक है परंतु उस आंदोलन में अवाम की भूमिका पर प्रकाश तो डाला गया है। इसी तरह भारतीय फिल्म संगीत में सज्जाद भी उपेक्षित ही रहे हैं। यहां तक कि कुछ लोगों ने उन्हें सज्जाद हुसैन भी कह दिया है। बहरहाल, राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार पुणे उनकी स्मृति को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रहा है और हाल ही में इस संस्था ने हर्षवर्धन लाड को संगीतकार सज्जाद पर एक मोनोग्राफ लिखने के लिए अनुबंधित किया है। ज्ञातव्य है कि सज्जाद के जन्म को अब सौ वर्ष हो चुके हैं। एक भूले-बिसरे संगीतकार पर शोध करवाने की सराहना होनी चाहिए। अभिलेखागार के निदेशक हैं डॉक्टर प्रकाश मगदूम और संस्थान का कार्य डॉ. भूपेन्द्र कैन्थोला संभाल रहे हैं।

सज्जाद का जन्म मंदसौर के निकट सीतामऊ तहसील में 15 जून 1917 को हु्आ और मृत्यु 21 जुलाई 1995 को मुंबई में हुई। उन्होंने केवल 18 फिल्मों का संगीत रचा परंतु उनके संघर्ष काल में उनकी बनाई धुनों का प्रयोग अन्य संगीतकारों ने कर लिया। कॉपीराइट एक्ट के निर्माण के बाद भी यह कार्य हो रहा है तो हम उस दौर की कल्पना नहीं कर सकते, जिसमें सज्जाद साहब सक्रिय रहे।

सुरैया और पृथ्वीराज कपूर अभिनीत 'रुस्तम सोहराब' 1963 में प्रदर्शित हुई थी। इस फिल्म में सज्जाद ने माधुर्य रचा और कथा के अनुरूप अरेबियन संगीत का प्रभाव भी पैदा किया। लता मंगेशकर का गाया गीत 'एक दिलरूबा नज़रें मिला,' 'ए सनम फिर तुम्हारी याद आएगी,' 'यह कैसी अजब दास्तां हो गई है, जो छिपाते-छिपाते बयां हो गई है।' अरब देशों और भारत में रची गई ध्वनियों में गजब का साम्य है। अनेक संगीतकारों ने इन ध्वनियों का प्रयोग किया है। राहुल देव बर्मन ने भी 'शोले' में 'मेहबूबा ओ मेहबूबा' की प्रेरणा अरब के संगीत से ली है? 'अरेबियन नाइट्स' नामक फंतासी भी भारत में अत्यंत लोकप्रिय रही है। प्राय: संगीतकार अरेंजर की सेवाएं लेता है। संगीतकार की बनाई धुन की रिकॉर्डिंग के समय अरेंजर ही विभिन्न वाद्य यंत्रों का जमावट करता है। सज्जाद ने कभी किसी अरेंजर की सेवा नहीं ली। वे स्वयं ही सारा काम करते थे। वे कभी किसी संगीतकार के सहायक नहीं रहे और न ही उन्होंने कोई सहायक कभी लिया। दरअसल, इस एकाकी चलने में ही उनके मिज़ाज का रहस्य छिपा है। वे सृजन को टीमवर्क नहीं मानते थे गोयाकि एक व्यक्ति की प्रतिभा ही महत्वपूर्ण है उस प्रतिभा का लोहा मानने वाले लोग स्वयं ही साथ जुड़ जाते हैं। संगीत सृजन फुटबॉल, हॉकी या क्रिकेट से जुदा क्षेत्र है। इसे आप अन्य खेलों का सिंगल्स कह सकते हैं। सज्जाद साहब को अपनी प्रतिभा पर इतना अधिक विश्वास था कि उन्हें कोई सहयोग पसंद नहीं था। दरअसल वे मिलनसार व्यक्ति नहीं थे। गुस्सा नाक पर रहता था। एक बार लता मंगेशकर उनकी रचना गा रही थीं तो उन्होंने लता को सावधानी बरतने की हिदायत इस तरह दी, 'यह कोई नौशाद की रचना नहीं है, इसकी बुनावट की बारीकी का खयाल रहे।' स्वभाव में इसी अक्खड़पन के कारण ही उन्हें अधिक काम नहीं मिला और वे प्राय: नैराश्य से घिरे रहे। दरअसल, अनेक लोग अपनी मिलनसारिता के कारण अच्छे व्यक्ति मान लिए जाते हैं।

असाधारण प्रतिभा का धनी व्यक्ति मिलनसारिता में अपनी ऊर्जा नहीं लगाता। विलक्षण प्रतिभा की धनी लता मंगेशकर का इंदौर में जन्म होना सभी को ज्ञात है और कई लोग इस बात पर इतराते भ है। मंदसौर के सीतामऊ में सज्जाद के जन्म लेने को भी मध्यप्रदेश की जनता और सरकार को गर्व करना चाहिए। दरअसल गौरव गाथाओं के लिए यह आवश्यक है कि लोग शोध करें या कम से कम शोधकर्ता को सम्मान और सहयोग दें।

सज्जाद को वाद्ययंत्रों की गहरी जानकारी थी और मेंडोलिन बजाने में वे दक्ष थे। उनके लिए वाद्ययंत्र किसी जीवित व्यक्ति से कम नहीं थे। उनकी दिलचस्पी लोगों से हाथ मिलाने में नहीं थी। वरन अपने हाथ उन्हें वाद्ययंत्र पर रखना ही पसंद था। उनका जीवन और जीनियस एक अनरिकॉर्डेड गीत की तरह रहा।