संथाल और उनकी दुनिया / कमल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये उन लोगों की बात है जिनके बारे में प्रारंभिक जानकारियां बताती हैं कि आर्यों ने अपने अभियानों के दौरान उन पर आक्रमण ही नहीं किये, बल्कि उन्हें खदेड़ कर दूसरी जगहों पर जाने और बसने के लिए मजबूर किया। उनके जल, जंगल और जमीन पर नैसर्गिक व सामूहिक अधिकार की मूल अवधारणा को भंग किया। पौराणिक संदर्भों में देखें तो सतयुग, त्रेता व द्वापर युग आदि कालों में आदिवासियों को राक्षस, प्रेत, दैत्य, दानव, असुर आदि संज्ञाओं से संबोधित कर उन्हें मनुष्य होने से ही नकारने का दुष्चक्र रचा जाता रहा है। और आधुनिक युग की विडंबना यह कि शब्दों के हेर-फेर के क्रम में आज उनके अस्तित्व को भी नकारने की जुगत भिड़ाई जा रही है। कोई उनके लिए जनजाति तो कोई उनके लिए वनवासी शब्द गढ़ता फिर रहा है। लेकिन आदिवासी से बढ़ कर कोई दूसरा शब्द हो ही नहीं सकता जो उनके लिए उपयुक्त हो या उन्हें ठीक-ठीक परिभाषित कर सके। इस शब्द के साथ ऐसे लोगों का बोध होता है जिनका बोलना ही प्रकृति का गीत है और जिनका चलना ही प्रकृति का नृत्य। जिनकी संस्कृति और समूचा जीवन दर्शन अपनी प्रकृति के साथ सामंजस्य की अदभुत मिसाल है।

ऐसा नहीं है कि वे लोग आक्रमणकारियों का मुकाबला नहीं कर सकते थे सच तो यह है कि जंगलों और पहाड़ों में रहने वाले ये लोग, बर्बर आर्य आक्रमणकारियों से कहीं ज्यादा सभ्य माने जाने चाहिए, क्योंकि उन्होंने युद्ध की बर्बरता से ज्यादा महत्व शांति को दिया था। भले ही इसके लिए उन्हें पलायन का विकल्प चुनना पड़ा। गैर-आदिवासियों से हार कर भी आदिवासियों का जुझारूपन कभी खत्म नहीं हुआ और उन्होने निरंतर जंगलों को काट कर नये-नये गाँव बसाये, कृषि-योग्य नयी भूमि तैयार की। सामने से आने वाले दुश्मन का तो वे सामना कर सकते थे लेकिन जो दुश्मन उनके अपने बन कर उनके साथ रहने लगे थे, उनका सामना करने में सीधी-सादी जिंदगी जीने वाले संताल असमर्थ थे। आने वाला काल राजतंत्र, जमींदारी-प्रथा एवं महाजनी व्यवस्था का होता चला गया।

छोटानागपुर, पोड़ाहाट, सराईकेला-खरसावाँ, धालभूम में राजवंशों की नींव मजबूत पड़ते ही आदिवासी ग्राम-प्रशासन व्यवस्था नष्ट होती चली गई।

विश्व के प्राचीनतम गोंडवाना पठार का कुल 7971400 हेक्टेयर उत्तरी-पूर्वी भूखंड है झारखंड। भूगोलशास्त्रियों के अनुसार इसकी आयु डेढ़ से तीन अरब वर्ष है। प्रशासनिक दृष्टि से झारखंड राज्य को संताल परगना, उत्तरी छोटानागपुर, दक्षिणी छोटानागपुर, पलामू और कोलहान पाँच प्रमंडलों में बांटा गया है। 15 नवंबर 2000, भगवान बिरसा जयन्ती के पूर्व का बिहार और अब के झारखंड में आदिवासियों की आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा संताल आदिवासी हैं। अकेले उनकी जनसंख्या उराँव, मुंडा और हो की कुल जनसंख्या के बराबर है। पूरे देश की बात की जाए तो लगभग पचास लाख संताली झारखंड, उड़ीसा और प. बंगाल के विस्तृत क्षेत्र में फैले हुए हैं। लेकिन इसके साथ ही यह निराशाजनक तथ्य भी जुड़ा हुआ है कि प्रति हजार निरक्षरता की दर सबसे ज्यादा, 872 उनकी ही है।

वसंत पंचमी को बाहा पोरोब (फूलों का त्योहार) मनाने वाले संताल कई मायनों में राज्य के अन्य आदिवासियों से भिन्न हैं। ‘होरकोरेन मारे हपरमको रियाक’ (गुरू कोलियन) की कथा का ध्यान रखा जाए तो प्राचीन एवं मध्यकालीन भारत में हो रहे राजनैतिक एवं सांस्कृतिक द्वंदों के काल में संताल आदिवासी छोटानागपुर के हज़ारीबाग, सिंहभूम एवं मानभूम जिलों में फैले। आगे चल कर वे लोग बंगाल के बीरभूम, बांकुड़ा एवं मेदिनीपुर आदि इलाकों में बसते चले गये। यह सही है कि संताल 19 वीं सदी के बाद जबरदस्त सांस्कृतिक दबावों का सामना कर रहे हैं और गैर-आदिवासी समाज का वर्चस्व लगातार बढ़ता जा रहा है। अभी मोटे तौर पर संताल आदिवासियों की दो तरह की बसाहटें हैं। पहली गैर-आदिवासी जन जीवन के बीच बिखरी हुई। इस तरह की बिखरी हुई बसाहट खासतौर पर उस इलाके में है जहां जंगल पूरी तरह नष्ट हो चुके हैं और पहाड़ नहीं हैं। दूसरी है आदिवासी जनजीवन की निरंतरता वाली बसाहट जहां अभी भी आदिवासी बाहुल्य है या हाल तक रहा है। झारखंड के संताल परगना में निरंतर व बिखरी हुई दोनों तरह की बसाहटें मिलती हैं।

संताली गीतों व गाथाओं में इनकी उत्पत्ति के बारे में एक पौराणिक गीत हैः

‘आमगे बाबा प्रभू ईश्वर कुश काराम सिरोम रेहेत रिन …. पिचालू हाड़ाम पिचलू बूड़ही दो’

अर्थात् हे पिता परमेश्वर! तुमने कुश करम सिरम पेड़ की जड़ों से हंस-हंसिनी का जोड़ा बनाया था। उन दोनों ने अतल समुद्र के मध्य स्थित करम पेड़ की डाली पर घोंसला बनाया था और उसमें दो अंडे दिये थे। हे पिता परमेश्वर! तुम्हारे आदेश से उन अंडों से दो मानव शिशुओं ने जन्म लिया था। तुम्हारे ही आदेश से दोनों ने हिहिड़ी-पिपिड़ी इलाके से कंटीली घास ला कर उन दोनों शिशुओं की रक्षा की थी। नौ दिनों के बाद अर्जुन के पत्तों में लिटा कर उनकी छट्टी की गई और उन दोनों मानव शिशुओं का नाम रखा गया था- पिचलू हाड़ाम बूढ़ा (पुरूष) और पिचलू बूढ़ी (स्त्री)। हम संताल उन्हीं दोनों की मानव संतान हैं।

1760 में संथाल परगना क्षेत्र में ईस्ट-इंडिया कंपनी के पाँव पसारते ही संतालों की स्वशासी व्यवस्था टूटने लगी। मगर आदिवासी इलाकों में बढ़ते अंग्रेजों के कदमों के साथ-साथ उनके विरुद्ध विद्रोहों का सिलसिला भी बढ़ता गया। पहाडि़या विद्रोह (1788-90), चुआड़ विद्रोह (1798), चेरो विद्रोह (1800)। इन विद्रोहों का झंडा झुका नहीं तो इसका एकमात्र कारण था कि संताल औरतें पीठ पर बच्चा बांधकर पुरुषों का साथ दे रही थीं।

गैर-आदिवासी ठेकेदारों के हाथों अपनी जमीनें गंवाने के साथ-साथ संताल पुनः विस्थापित होने लगे, उनकी आर्थिक स्थिति दयनीय होने लगी। गरीबी और भुखमरी ने उनको महाजनों के चंगुल में जा पटका। महाजनों और सामंतों के शोषण ने उनकी जिंदगी नारकीय बना दी। जिसके खिलाफ संतालों का गुस्सा 1854 में मोरगो मांझी और बीर सिंह मांझी का दिकू लोगों के विरुद्ध अंदोलन और 1855 में महान संताल विद्रोह के रूप में सामने आया।

शोषण का वह दौर अभी भी थमता नहीं दिखता, शायद इसीलिए यहां झारखंड राज्य गठन के बाद अब तक पंचायत सक्षम नहीं हुए हैं। अपनी जमीनों को बचाने के लिए उनको हमेशा ही संघर्ष करने पड़े हैं। आज भी भारत सरकार जल, जंगल, जमीन और विस्थापन संबंधी नीतियों के मामले में अंग्रेजों की राह पर चल रही है, जो नीतियाँ कभी भी आदिवासियों की हितैषी नहीं रहीं। संताल परगना टीनेंसी एक्ट-1949 उनके ऐसे ही संघर्ष का परिणाम था। लेकिन इस एक्ट के तहत अंग्रेजों की सामंती व्यवस्था ने महिलाओं को सत्ता-संसाधनों के मालिकाना हक से दरकिनार कर दिया।

जैसे मुंबइया फिल्मों ने भाई शब्द का अर्थ बदल दिया है। पहले जहाँ इसका अर्थ आदरणीय बड़ा भाई या प्यारा छोटा भाई होता था वहाँ अब इसका नया अर्थ अपराधी, गुंडा या मवाली हो गया है। वैसे ही आज आदिवासियों के लिए विकास शब्द का अर्थ बदल चुका है। अब यह शब्द उनमें खुशी की जगह भय पैदा करता है। क्योंकि इसके नाम पर उनका विकास तो नहीं हुआ अलबत्ता विस्थापन और स्थानांतरण ही अधिक हुआ है। यदि ऐसा न हुआ होता, तब क्या कारण है कि उनकी वर्तमान स्थिति और उस दिन की स्थिति (जब उनके लिए विकास योजनाओं का प्रारंभ किया गया था) में कोई भी उल्लेखनीय अंतर नहीं दिखता, सच तो यह है कि आदिवासियों के विकास के नाम पर किये गये कार्यों से चंद आदिवासी (क्रीमी लेयर) और प्रभावशाली गैर-आदिवासियों का ही विकास हुआ है। उनके विकास की बात करने के लिए संतालियों के अतीत और वर्तमान की चर्चा मात्र ही नहीं होनी चाहिए वरन् हर स्तर पर (चाहे पंचायत हो या विधायिका, कार्यपालिका हो या न्यायपालिका) उनकी सीधी और सच्ची भागीदारी जरूरी है वर्ना उनके विकास की बात बेमानी होगी, जैसा कि अब तक होता आया है।

निश्चय ही हिन्दु लुटेरों, शोषकों के साथ-साथ ब्रिटिश शासन अथवा ईस्ट-इंडिया कंपनी के विरुद्ध 1855 का संताल विद्रोह ही था जिसने विदेशी मिशनरियों में संताली भाषा के प्रति दिलचस्पी जगाई। संताली ‘आस्ट्रियक भाषा समूह’ की एक प्रमुख भाषा है। “एन इंट्रोडक्शन टू संताल लैंग्वेज” (रेवरेंड डॉ. जे फिलिप्स, सन् 1852 में प्रकाशित) संताली भाषा साहित्य की पहली पुस्तक मानी जा सकती है।

इतर साहित्यों की तरह संताली साहित्य भी काफी प्राचीन व विकसित है। लगभग सवा सौ साल (सन् 1880) पहले प्रकाशित कवि रामदास टुडू का महाकाव्य ‘खेरवाड़ बोंशा धोरोम पुथी’ एक महत्वपूर्ण रचना है। इसे ही प्रकाशित संताली साहित्य का प्रारंभ माना जाता है। यह बंग्ला लिपि में प्रकाशित हुई थी।

संताली भाषा के साथ एक बड़ी ही दिलचस्प बात यह है कि इसकी रचनाएं बंग्ला, ओडि़या, रोमन और नागरी लिपि सभी में लिखी जाती रही हैं। इधर संताली के लिए ‘ओलचिकि’ लिपि को समृद्ध और विकसित करने के प्रयास हो रहे हैं। नागरी लिपि में संताल लेखन, प्रकाशन बहुत बाद में प्रारंभ हुआ जबकि रोमन लिपि में कहानियाँ व कहानी संकलन दशकों पूर्व से प्रकाशित होते रहे हैं।

हृदय नारायण मंडल ‘अधीर’ की कहानी ‘बापुडि़चूकिन’ को नागरी लिपि में प्रकाशित पहली संताली कहानी माना जाता है। संताली भाषा-साहित्य में संताली और असंताली-भाषी दोनों तरह के लेखकों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। संताली में कविता की पहली किताब पूर्व लोकसभा सदस्य पाऊल जुझार सोरेन की ‘ओनोड़हें बाहा डालवा’ (फूलों की डाली) है जो रोमन लिपि में सन् 1936 में प्रकाशित हुई थी। उसमें राष्ट्रनिर्माण, ग्रामोद्धार, प्रेम और सौंदर्य के शाश्वत भावों से ओतप्रोत 17 कविताएं हैं।

उसके लगभग छः वर्षों बाद संताली में एक पत्रिका ‘मारसाल’ (प्रकाश) के माध्यम से संताली कविताएं लिपिबद्ध हुईं। उसके संपादक श्री सिहरी मुरमू उर्फ ‘चंपई’ थे। सन् 1942 में प्रकाशित ‘मारसाल’ का पहला अंक हस्तलिखित था, दूसरा अंक भवानी प्रेस गालूडीह से बंग्ला लिपि में छपा था।

इसके बाद अनेक लोक कवियों ने संताली लोक गीतों का संकलन एवं प्रकाशन किया है। इनमें पं. रघुनाथ मुरमू का ‘होर सेरेज’ (1936) डहर गीत, डब्लूण् जार्ज आर्चर का ‘होड़ सेरेज’ (1945) लोक गीत एवं ‘दोङ सेरेज’ विवाह गीत (1945), नायके मुगल चंद्र सोरेन का ‘दसाय-सोहराय-करम गीत’ (1945), भागवत मुरमू ठाकुर का ‘दोङ सेरेज’ (1963) विवाह गीत, गोमस्ता प्रसाद सोरेन का ‘अखाड़ा थुती’ (1965) लांगड़े गीत, नुनकू सोरेन का ‘कारम सेरेज’ (1980) करम गीत, केवल राम सोरेन का ‘माँझी छटका’ (1981) लांगड़े गीत, मलिंद्र नाथ हंसदा का ‘देवी देसाय’ (1982) हरिहर हंसदा एवं बिरबल हेमब्रम का ‘संताली लोक गीतों का संग्रह’ (1985) आदि कई महत्वपूर्ण कृतियां हैं। संताली कविवर स्व. साधू रामचांद मुरमू की जन्म शताब्दी वर्ष 1997 पर श्री प्रसाद दासगुप्त ने उनकी रचनावली ‘साधू रामचांद ओनोलमाला’ की अधिकांश रचनाओं का बंग्ला में अनुवाद किया है। उनकी प्रसिद्ध कविता ‘देबोन तेंगोन आदिबली वीर’ तो अब संताली राष्ट्रीयता का गीत बन चुकी है।

गीत-संगीत हमेशा से इनके सुख-चैन की जीवंत अभिव्यक्ति का मधुर माध्यम रहा है। अलग-अलग मौसमों और त्योहारों के अवसरों पर गाये जाने वाले इन विभिन्न गीतों और नृत्यों में ये अपने सारे दुख-दर्द भूल कर कुछ ऐसे खो जाते हैं मानों प्रकृति ने दुनियाँ भर की खुशियां इनकी झोली में भर दी हों। प्राचीन संताली काव्य में पर्व-त्योहार, विवाह, प्रकृति, प्रेम के गीत हैं, वहीं आधुनिक काव्य में देश-भक्ति, हास्य, गीतिकाव्य प्रकृति-प्रेम आदि कई रस पाये जाते हैं।

संताली कविता ने पद्य से छंदमुक्त होने तक का सफर सफलतापूर्वक पूरा किया है। आधुनिक संताली कविता में पाऊल जुझार सोरेनए पंचानन मरांडी, नारायण सोरेन, रघुनाथ टुडू, हरिहर हंसदा, साद्दु रामचांद मुर्मू, कृष्ण चंद्र टुडू, साकिल सोरेन, डोमन हंसदा, काजली सोरेन, डोमन साहू समीर, बासुदेव बेसरा, अमृत हंसदा, सुरूजमुनी मरांडी, कर्नलियस मुरमु, विभा हंसदा, नली सिरंजन मुरमु निर्मला पुतुल आदि के साथ-साथ कई कवि उल्लेखनीय योगदान कर रहे हैं।

दुनियाँ के अन्य समाजों की तरह आदिवासी समाज की रचना में भी महिलाओं एवं पुरुषों की साझेदारी रही है। यदि आक्रमणों व शोषण के विरूद्ध सिद्धो-कानो जैसे पुरुषों ने संघर्ष किया तो संताल विद्रोह के समय फूलो-झानों के रूप में महिलाओं ने भी उनके साथ कंधे से कंधा मिला कर संघर्ष किया था। जहाँ तक संताल समाज की मूलभूत संरचना का प्रश्न है आदिवासी महिलाओं का योगदान पुरुषों से कई गुना ज्यादा है। वे अपने समाज की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। खेत-खलिहान, जंगल-पहाड़, हाट-बाजार उन्हें हर जगह मेहनत-मजदूरी करते देखा जा सकता है। लेकिन कमाई के पैसों को खर्च करने में उनके अपने निर्णय नहीं होते। परिवार के काहिल पुरुषों का खर्चा-पानी के अलावा उनके लिए दारू-ताड़ी आदि का प्रबंध करना भी उनके ही जिम्मे होता है। लेकिन अफसोस की बात यह है कि आज संताली समाज में स्त्री-पुरुष समानता भी एक एतिहासिक सत्य बन कर रह गई है। अपने समाज में ही संताल आधी आबादी बुरी तरह उपेक्षित है। संताल समाज में भी जन्म के साथ ही मादा शिशु को ले कर भेद-भाव शुरू हो जाता है। बेटा पैदा होने पर जिस दाई माँ को दो मन धान दिया जाता है वहीं बेटी पैदा होने पर उसका मेहनताना घट कर आधा हो जाता है। क्या बेटी पैदा होने पर दाई माँ को आधी मेहनत करनी पड़ती है ?

एक तरफ आदिवासी प्रथागत नियम कानून में संताली औरतों के लिए कहीं कोई व्यवहारिक व्यवस्था नहीं है, तो दूसरी तरफ संवैधानिक व्यवस्था को भी लकवा मार गया है। वह भी आदिवासी पुरुष-सत्ता और प्रधानी व्यवस्था को बनाए रखने के पक्ष में खड़ी है। ‘ट्राइबल ला एण्ड जस्टिस’ (डब्ल्यू.आर्चर) के अध्याय- ‘द राइट्स आफ संताल वुमेन’ (पृष्ठ-187-201) के अनुसार संताल औरत ने अपनी श्रम-शक्ति और उपादेयता के कारण परिवार में भले ही निर्णयात्मक स्थान ग्रहण कर लिया हो सिद्धांततः उन्हें समाज में पुरुष की तुलना में दोयम दर्जा ही हासिल है। वह जब तक कुंवारी है अपने पिता-भाई की, विवाहोपरांत पति और वृद्धावस्था में पुत्र की जिम्मेदारी मानी जाती है। उसने अगर किसी सामाजिक नियम का उल्लंघन किया है तो ग्राम के पंच उसकी अवस्था अनुसार उस पर जुर्माना लगाते हैं और उम्मीद करते हैं कि उसके पति, पिता-भाई या पुत्र उसे चुकाएंगे। बहुत सारी सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों, जैसे-छप्पर छाना, तीर-धनुष चलाना, उस्तरे का उपयोग, हल चलाना, खेत को समतल करना, बरमा से छेद करना, कुल्हाड़ी चलाना, बंशी-काँटा से मछली पकड़ना, कपड़ा-खटिया आदि बुनना आदि, से महिलाओं को वंचित कर दिया गया है। वे पुरुषों का वस्त्र धारण नहीं कर सकतीं, ना उनके उपकरणों का उपयोग ही कर सकती हैं। संताली स्त्रियों को सम्पति पर कोई अधिकार नहीं है। सम्पति पर अधिकार ना रहने के कारण ही समाज में शादी करके छोड़ने एवं डायन बता कर मार डालने की घटनाएं आम होती रहती र्हैं। डायन घोषित करने के पीछे मूलतः स्त्रियों को सम्पति के अधिकार से वंचित करना है। परंपरागत न्याय व्यवस्था में महिलाओं के लिए कोई जगह नहीं है। यदि किसी स्त्री की समस्या को लेकर पंचायत होती है तो उस पंचायत में वह स्त्री सीधे जा कर अपनी बात नहीं कह सकती। उसे किसी पुरुष के माध्यम से ही अपनी बात पंचायत में पहुँचानी पड़ती है। इससे संताल औरतों की उनके अपने समाज में स्थिति का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।

संताल समाज में ऐसा अंधविश्वास है कि चूँकि महिलाएं ही डायन बन सकती हैं इसलिए न तो वे शव के साथ अंतिम यात्रा में भाग ले सकती हैं, न ही मांझीथान (धार्मिक-स्थल) में नगाड़ा बजा सकती हैं। इन सब से यही प्रमाणित होता है कि अन्य समाजों की तरह ही संताल समाज ने भी स्त्री को प्रतिष्ठा और शान के रूप में ‘संपत्ति’ मात्र ही बना कर रखा है।

यह बात कम पीड़ादायक नहीं कि संतालों ही नहीं सारे आदिवासियों के बुनियादी अस्तित्व को नष्ट करने के प्रयत्न लगातार हो रहे हैं। जिसका आधार यह लंगड़ा तर्क है कि उनके विकास व संवर्धन के लिए उन्हें समाज की मुख्य धारा में जोड़ना नितांत आवश्यक है। इस मुख्य धारा के छद्म का ताजा उदाहरण तो द्वीपों पर बसने वाली वे जनजातियां हैं जो सुनामी के प्रकोप से जीवित बच गईं। जबकि तथाकथित मुख्य धारा के सभ्य लोगों का हाल सारी दुनिया जानती है।

… तो आजकल आदिवासियों को हिन्दू साबित करने का फैशन कुछ ज्यादा ही जोर पकड़ता जा रहा है। संघ कार्यकर्ता आदिवासियों को समझाते हैं कि तुम हिन्दू हो, हनुमान तुम्हारे पुराने देवता हैं। आदिवासियों से बजरंगबली के झंडे का जुलूस हथियारों और नगाड़ों के साथ निकलवाया जाता है। सरल और धार्मिक दृष्टि से बिल्कुल उदार आदिवासी इसे भी हडि़या पीने और नाचने-गाने का एक अवसर मानकर जश्न मना लेते हैं।

जबकि वास्तविकता यह है कि सहिष्णुता पर आधारित उनका अपना विशिष्ट, प्रकृतिवादी धर्म-दर्शन है जिसे ‘आदि-धर्म या सरना’ कहा जाता है। सरना आदिवासियों की धार्मिक आस्थाओं का वह मूल स्वरुप है जिसे प्रकारांतर में एनिमिज्म, एनिमिस्टिक रिलीजन, प्रिमिटिविज्म, प्रिमिटिव रिलीजन, बोंगाइज्म आदि नामों से जाना गया है। लेकिन इन सब के बावजूद संविधान में उनकी कोई स्वतंत्र धार्मिक पहचान नहीं है। जनगणना में इसके लिए उन्हें ‘अन्य’ के विकल्प में रखा जाता है। अतः जो आदिवासी स्वयं को ईसाई, मुसलमान या बौद्ध नहीं बताते, वे हिन्दू के अंतर्गत ही चिन्हित होने को विवश हैं और हिन्दू धर्म की इस उदारता में उनकी जगह सबसे नीचे (हरिजन से भी नीचे) होती है। आदिवासियों के लिए इस तथाकथित उदारता के आगे नतमस्तक होना अनंत काल के लिए गुलामी स्वीकार करना ही होगा।

आधुनिक युग में संताल भी अन्य आदिवासियों की तरह अपने आप को दोराहे पर पाता है। पहले उनका जीवन सीधा, सरल, निश्छल होता था। वे लोग अपनी खुशी के लिए प्रकृतिक माहौल में नृत्य करते और गीत गाते थे, अब बाहर वालों की खुशी के लिए बाहरी कृत्रिम माहौल में वैसा नृत्य-संगीत करते हैं … और किस कीमत पर ?

उनकी समझ में नहीं आता कि औद्योगिक संस्थानों, परियोजनाओं और बाँध-निर्माण आदि विकास कार्यों के लिए उन्हें क्यों विस्थापित किया जा रहा है ?

कई वर्ष पूर्व लिखी गई रेड इंडियन आदिवासी कवि ‘सीएंथल’ की कविता ‘प्रमुख’ के नाम पत्र’ आज भी कितनी प्रासंगिक है (उसकी कुछ पंक्तियां)---

इस जमीन का एक-एक कण हमें पूज्य है।
पेड़ों का एक-एक पत्ता, हरेक रेतीला तट,
शाम के कोहरे से ढंका हुआ जंगल,
सपाट मैदान और भौरों का गुंजन,
ये सभी पवित्र हैं, पूज्य हैं।
हम आदिवासियों की यादों और जीवन से बंधे हैं।
ये पेड़ अपनी रगों में
हमारी अतीत की यादें संजोए हुए हैं।
यहाँ के सुगंधित फूल हमारे भाई बहन हैं।
ये हिरण, ये घोड़े, ये विशाल पक्षी
सब हमारे भाई हैं।
गोरे भूल जाते हैं मरने के बाद अपनी जन्मभूमि
लेकिन हम नहीं भूलते अपनी मिट्टी, मरने पर भी...