संभोग से समाधि की ओर / ओशो / पृष्ठ 37

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जनसंख्‍या का विस्‍फोट-3

जीने का क्‍या अर्थ?

जीने का इतना ही अर्थ है कि ‘ईग्जस्ट’ करते है। हम दो रोटी खा लेते है, पानी पी लेते है। और कल तक के लिए जी लेते है। लेकिन जीना ठीक अर्थों में तभी उपलब्‍ध होता है जब हम ‘एफ्ल्‍युसन्‍स’ को, समृद्धि को उपलब्‍ध हो।

जीवन का अर्थ है ‘ओवर फ्लोइंग’ जीने का अर्थ है, कोई चीज हमारे ऊपर से बहने लगे।

एक फूल है। आपने कभी ख्‍याल किया है कि फूल कैसे खिलता है पौधे पर? अगर पौधे को खाद न मिले, ठीक पानी न मिले, तो पौधा जिंदा रहेगा, लेकिन फूल नहीं खिलायेगे। फूल ‘ओवर फ्लोइंग’ है। जब पौधे में इतनी शक्‍ति इकट्ठी हो जाती है कि अब पत्‍तों को, शाखाओं को, जड़ों को कोई आवश्‍यकता नहीं रह जाती है। तब पौधे के पास कुछ अतिरिक्‍त इकट्ठा हो जाता है। तब फूल खिलता है। फूल जो है, वह अतिरक्ति है, इसलिए फूल सुन्‍दर है। वह अतिरेक है। वह किसी चीज का बहुत हो जाने के बहाव से है।

जीवन में सभी सौंदर्य अतिरेक है। जीवन सौंदर्य ‘ओवर फ्लोइंग’ है, ऊपर से बह जाना है।

जीवन के सब आनंद भी अतिरेक है। जीवन में जो भी श्रेष्‍ठ है, वह सब ऊपर से बह जाता है।

महावीर और बुद्ध राजाओं के बेटे है, कृष्‍णा और राम राजाओं के बेटे है। ये ‘ओवर फ्लोइंग’ है। ये फूल जो खिले है गरीब के घर में नहीं खिल सकते थे। कोई महावीर गरीब के घर में पैदा नहीं होगा। कोई बुद्ध गरीब के घर में पैदा नहीं होगा। कोई राम और कोई कृष्‍ण भी नहीं।

गरीब के घर में ये फूल नहीं खिल सकते। गरीब सिर्फ जी सकता है, उसका जीना इतना न्‍यूनतम है कि उससे फूल खिलनें का कोई उपाय नहीं है। गरीब पौधा है, वह किसी तरह जी लेता है। किसी तरह उसके पत्‍ते भी हो जाते है, किसी तरह शाखाएं भी निकल आती है। लेकिन न तो वह पूरी ऊँचाई ग्रहण कर पाता है, न वह सूरज को छू पाता है। न आकाश की तरफ उठ पाता है। न उसमें फूल खिल पाते है। क्‍योंकि फूल तो तभी खिल सकते है, जब पौधे के पास जीने से अतिरिक्‍त शक्‍ति इकट्ठी हो जाय। जीने से अतिरिक्‍त जब इकट्ठा होता है, तभी फूल खिलते है।

ताज महल भी वैसा ही फूल हे। वह अतिरेक से निकला हुआ फूल है।

जगत में जो भी सुंदर है, साहित्‍य है, काव्‍य है, वे सब अतिरेक से निकले हुए फूल है।

गरीब की जिंदगी में फूल कैसे खिल सकते है?

लेकिन, हम रोज अपने को गरीब करने का उपाय करते चले जाते है? लेकिन ध्‍यान रहे, जीवन में जो सबसे बड़ा फूल है परमात्‍मा का….वह संगीत साहित्‍य, काव्‍य,चित्र और जीवन के छोटे-छोटे आनंद से भी ज्‍यादा शक्‍ति जब ऊपर इकट्ठी होती है, तब वह परम फूल खिलता है परमात्‍मा का।

लेकिन गरीब, समाज उस फूल के लिए कैसे उपयुक्‍त बन सकता है। गरीब समाज रोज दीन होता जाता है। रोज हीन होता चला जाता है। गरीब बाप जब दो बेटे पैदा करता है, तो अपने से दुगुने गरीब पैदा करता जाता है। जब वह अपने चार बेटों में संपति का विभाजन करता है तो उसकी संपति नहीं बँटती। संपति तो है ही नहीं। बाप ही गरीब था, बाप के पास ही कुछ नहीं था। तो बाप सिर्फ अपनी गरीबी बांट देता है। और चौगुना गरीब समाज में, अपने बच्‍चों को खड़ा कर जाता है।

हिंदुस्‍तान सैकड़ों सालों से अमीरी नही, सिर्फ गरीबी बांट रहा है।

हां, धर्म गुरु सिखाते है ब्रह्मचर्य। वे कहते है कि कम बच्‍चे पैदा करना हो तो ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। किन्‍तु गरीब आदमी के लिए मनोरंजन के सब साधन बंद है। और धर्म-गुरु कहते है कि वह ब्रह्मचर्य धारण करे। अर्थात जीवन में जो कुछ मनोरंजन का साधन उपलब्‍ध है। उसे भी ब्रह्मचर्य से बंद कर दे। तब तो गरीब आदमी मर ही गया। वह चित्र देखने जाता है तो रूपया खर्च होता है। किताब पढ़ने जाता है तो रूपया खर्च होता है। संगीत सुनने जाता है तो रूपया खर्च होता है। एक रास्‍ता और सुलभ साधन था, धर्म-गुरु कहता है कि ब्रह्मचर्य से उसे भी बंद कर दे। इसीलिए धर्म-गुरु की ब्रह्मचर्य की बात कोई नहीं सुनता, खुद धर्म गुरु ही नहीं सुनते अपनी बात। यह बकवास बहुत दिनों चल चुकी। उसका कोई लाभ नहीं हुआ। उससे कोई हित भी नहीं हुआ।

विज्ञान ने ब्रह्मचर्य की जगह एक नया उपाय दिया, जो सर्वसुलभ हो सकता है। वह है संतति नियमन के कृत्रिम साधन,जिससे व्‍यक्‍ति को ब्रह्मचर्य में बंधने की कोई जरूरत नहीं। जीवन के द्वार खुले रह सकत है, अपने को स्पेस, दमित करने की कोई जरूरत नहीं।

और यह भी ध्‍यान रहे कि जो व्‍यक्‍ति एक बार अपनी यौन प्रवृति को जोर से दबा देता है। वह व्‍यक्‍ति सदा के लिए किन्‍हीं अर्थों में रूग्‍ण हो जाता है। यौन की वृति से मुक्‍त हुआ जा सकता है। लेकिन यौन की वृत्‍ति को दबा कर कोई कभी मुक्‍त नहीं हो सकता। यौन की वृति से मुक्‍त हुआ जा सकता है। अगर यौन में निकलने वाली शक्‍ति किसी और आयाम में किसी और दिशा में प्रवाहित हो जाये, तो मुक्‍त हुआ जा सकता है।

एक वैज्ञानिक मुक्‍त हो जाता है। बिना किसी ब्रह्मचर्य के, बिना राम-राम का पाठ किये, बिना किसी हनुमान चालीसा पढ़ एक वैज्ञानिक मुक्‍त हो जाता है। एक संगीतज्ञ भी मुक्‍त हो सकता है। एक परमात्‍मा का खोजी भी मुक्‍त हो सकता है।

ध्‍यान रहे,लोग कहते है ब्रह्मचर्य जरूरी है, परमात्‍मा की खोज के लिए। मैं कहता हूं,यह बात गलत है। हां परमात्‍मा की खोज पर जाने वाला ब्रह्मचर्य को उपलब्‍ध हो जाता है। अगर कोई परमात्‍मा की खोज में पूरी तरह चला जाये, तो उसकी सारी शक्‍तियां इतनी लीन हो जाती है। कि उसके पास यौन कि दिशा में जाने के लिए न शक्‍ति का बहाव बचता है और न ही आकांशा।

ब्रह्मचर्य से कोई परमात्‍मा की तरफ नहीं जा सकता, लेकिन परमात्‍मा की तरफ जाने वाला ब्रह्मचर्य को उपलब्‍ध हो जात है।

लेकिन, अगर हम किसी से कहें कि वह बच्‍चे रोकने के लिए ब्रह्मचर्य का उपयोग करे, तो यह अव्‍यावहारिक है।

गांधी जी निरंतर यहीं कहते रहे, इस मुल्‍क के और भी महात्‍मा यहीं कहते है कि ब्रह्मचर्य का उपयोग करो। लेकिन, गांधी जैसे महान आदमी भी ठीक-ठीक अर्थों में ब्रह्मचर्य को कभी उपलब्‍ध नहीं हुए। वे भी कहते है कि मेरे स्‍वप्‍न में कामवासना उतर आती है। वे भी कहते है कि दिन में तो मैं संयम रख पाता हूं। पर स्‍वप्‍नों में सब संयम टूट जाता है। और जीवन के अंतिम दिनों में एक स्‍त्री को बिस्‍तर पर लेकर, सो कर वे प्रयोग करते थे कि अभी भी कहीं कामवासना शेष तो नहीं रह गयी। सत्‍तर साल की उम्र में एक युवती को रात में बिस्‍तर पर लेकर सोते थे, यह जानने के लिए कि कहीं काम-वासना शेष तो नहीं रह गई है। पता नहीं,क्‍या परिणाम हुआ। वे क्‍या जान पाये। लेकिन एक बात पक्‍की है कि उन्‍होंने सत्‍तर वर्ष की उम्र तक शक रहा होगा। कि ब्रह्मचर्य उपल्‍बध हुआ या नहीं। अन्‍यथा इस परीक्षा की क्‍या जरूरत थी।

ब्रह्मचर्य की बात एकदम अवैज्ञानिक और अव्‍यावहारिक है। कृत्रिम साधनों का उपयोग किया जा सकता है। और मनुष्‍य के चित पर बिना दबाव दिये उनका उपयोग किया जा सकता है।