संस्मरण / ज्ञानरंजन

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ज्ञानरंजन से जुडा संस्मरण
लेखक: मनोहर बिल्लोरे,जबलपुर

ज्ञानरंजन, 101, रामनगर, अधारताल, जबलपुर. घर के पास ही संजीवन अस्पताल. यह 'घर पूरे देश और विदेश का भी - सांस्कृतिक केन्द्र है. यहाँ ग्रह-उपग्रह से जुड़ा कोई भारी उपकरण नहीं, टीवी, मोबाइल के सिवाय. पर खबरें... खबरें यहाँ पैदल, सार्इकिल, रिक्शे लेकर इन्टरनेट तक के माध्यम से हड़बड़ाती दौड़ती-भागती चली आती हैं और हवा में पंख लगाकर जबलपुर की फिज़ा में उड़ने लगती हैं.

हम रोज मंदिर की सुबह-शाम या एक बार यहाँ भले न जायें, पर हफ़्ते में दो तीन बार जाये बिना चैन से रह नहीं सकते. और यदि कतिपय कारणों से न जा पायें तो ज्ञान जी का फोन आ जायेगा - 'क्यों क्या बात है - आ जाओ जरा. और हम दौड़ते-भागते 101 नम्बर रामनगर हबड़-दबड़ पहुँच जाते हैं. - 'क्यों कोर्इ खास बात, कहाँ थे, क्या कहीं बाहर चले गये थे.

मेरी पहली मुलाकात कथाकार, पत्रकार, पर्यावरण कर्मी, सक्रियतावादी और अब अनुवादक भी - राजेन्द चन्द्रकांत राय, के साथ उनके अग्रवाल कालोनी वाले दूसरे तल पर बने उस छोटे से आयताकार आश्रम में - जिसमें नीचे एक मोटा किंतु खूब मुलायम गद्दा बिछा रहता और दो ओर पुस्तकों से भरी पूरी सिर की ऊँचाई तक पुस्तकों से अटी खुली अलमारी एक ओर टिकने की दीवार और चौथी ओर घर में भीतर की ओर खुलने वाला दरवाजा था. पत्रिकाओं-पुस्तकों के यहाँ-वहाँ लगे ढेर अलग. यहाँ-वहाँ बिखरे रहते. मैं जाता और चुपचाप बैठा लुभाता, पुस्तकों के नाम पढ़ता रहता. जब कभी कोई पत्रिका या पुस्तक ले आता और पढ़कर लौटा देता. सिलसिला चल निकला. वहीं पर दानी जी और इंद्रमणि जी से पहली मुलाकात हुर्इ और बाद में मुलाकातों का सिलसिला चल निकला, जो आज तक मुसलसल जारी है.

उन दिनों रचनात्मकता का भूत सा मुझ पर सवार था. जो लिखता वह मुझे सर्वश्रेष्ठ लगता. एक गलतफहमी अंदर भर गई थी कि जो मैं लिख रहा हूँ वह मुझे नामवर बना देगा. पर उसमें भावुकता बहुत भरी थी - इसका मुझे बहुत धीमे-धीमे कई सालों में अहसास हुआ. उसी समय मैंने गीता का अपने ही भावुक छंद में हिंदी में काव्यानुवाद सा किया था. मैंने उसके दूसरे अध्याय की एक-एक फोटोकापी ज्ञानजी और इन्द्रमणि जी को दी थी - उसी आयताकार छोटे कमरे में - जिसे देखकर उन्होंने चुपचाप रख लिया था. इंद्रमणि जी ने ज़रूर गीता पर अपनी कुछ टिप्पणियाँ दी थीं, अनुवाद पर नहीं. फिर मैंने भी कभी उस बावत बात नहीं की. इससे पहले मैं किसी ठीक-ठाक ठिये की तलाश में भटक रहा था जो सामूहिक रचनात्मकता का केन्द्र हो. चंद्रकांत जी तो साथ थे ही, पर वे मजमा नहीं रचाते थे. हाँ निरंतर लिखने-पढ़ने रहते. उस समय उनका राजनीति के प्रति रुझान भी बड़ा गहरा था जो उनके लेखन की गति को अवरुद्ध किये रहता था. मैंने देखा कि शहर में हर साहित्यिक केन्द्र पर गंडा-ताबीज बांधन-बंधवाने, का रिवाज सा था. 'जब तक गंडा बंधवाकर पट और आज्ञाकारी शिष्य न बन जाओ और आज्ञाकारी की तरह दिया गया काम न करो आपकी किसी भी बात पर ध्यान नहीं दिया जायेगा और तब तक आपके लिखे-सुनाये पर वाह तो क्या आह भी नहीं निकलेगी, हाँ तुम्हारी कमियाँ और कमजोरियाँ खोद-खोद कर संकेतों-सूत्रों में आपके सामने पेश की जाती रहेंगी.

बहरहाल भटकाव जारी रहा. इनमें से कुछ अडडे तो ऐसे थे कि उन पर मौजूद चेहरे ही वितृ्ष्णा पैदा करते थे. उनसे विद्वता तो बिल्कुल भी नहीं शातिरपन रिसता-टपकता रहता था और समर्पण करने से रोकता-टोकता रहता था. इतनी महत्वाकांक्षा खुद में कभी नहीं रही और आत्मसम्मान इतना तो हमेशा बना रहा कि कुछ प्राप्ति के लिये मन के विपरीत साष्टांग लेट सकूं. हाँ, अग्रज होने और उसमें भी विद्वता की खातिर किसी के भी पैर छुए जा सकते हैं. पर वह भी तब जब निस्वार्थता और गहरी आत्मीयता महसूस हो तब.

बहरहाल, चंद्रकांत जी किशोरावस्था से ही स्तरीय पढ़ने और सक्रिय विधार्थी जीवन जी रहे थे अत: उनके अनुभव ज़मीनी थे और उन्होंने कम उम्र में ही मुख्य धारा को समझने और उस ओर रुख करने का सहूर और सलीका आ गया था जो मुझमें बहुत बाद में बहुत धीरे-धीरे आया पर अब भी पूरी तरह नहीं आया है. स्वभाव का भी फर्क रहा. वे बहिर्मुखी अधिक रहे और मेरी अंतर्मुखता अभी तक मेरा पीछा नहीं छोड़ पा रही. धीरे-धीरे वे मेरे 'भैया बन गये. उनसे मुझे हमेशा आत्मीयता का भाव मिलता रहा है. मनमुटाव कभी नहीं हुआ, हाँ जब कभी हल्के-दुबले मतभेद किसी मुद्दे को लेकर ज़रूर रहे पर वे भी बहुत जल्दी उनकी या मेरी पहल पर कपूर की तरह काफूर हो गये. अब तक मैं तीस से अधिक वसंत पार कर चुका था और भावुकता से लबालब भरा था. चंद्रकांत जी को जब भी मैं कुछ लिखकर दिखाता या सुनाता तो कोई विपरीत टिप्पणी नहीं करते, 'ठीक है, या इसे एकाध बार और लिखो. कहकर आगे बढ़ जाते.

यह सन 91-92 के आसपास की बात है. मैंने एक कविता लिखी, और जैसा कि अमूमन होता था, कुछ भी लिख लेने के बाद चंद्रकांत जी को लिखी गयी कविता सुनाने का मन हुआ अत: उनके घर - जो पास ही था, चला गया. नीचे दरी पर बैठे अधलेटे वे कुछ पढ़ रहे थे. संबोधित हुए तो मैंने एक कविता पूरी करने की बात कही. उन्होंने सुनाने की बात कही और बैठ गये. मैंने कविता सुनार्इ तो उन्होंने कहा - 'यह तो बहुत अच्छी कविता है. इसे एकाध बार और लिखोगे तो यह संवर जायेगी. हम बात कर ही रहे थे कि फोन की घंटी बजी. उस समय मोबाइल नहीं टिनटिनाते थे. चंद्रकांत जी ने बातचीत के दौरान ज्ञान जी के पूछने पर कि 'क्या कर रहे हो? - बताया - 'बिल्लौरे जी ने एक बहुत बढि़या कविता लिखी है, वही सुन रहा था. तो ज्ञान जी का उत्तर था - 'यहीं चले आओ हम भी सुनेंगे. कहकर फोन रख दिया. हम दोनों आनन-फानन में जेपीनगर से ज्ञान जी के घर 101 रामनगर पहुँच गये. उन्होंने वह कविता सुनी नहीं, लिखी हुई कविता ली और उलट-पलट कर देखी. पहले अंतिम भाग पढ़ा, फिर ऊपर, फिर बीच में देखकर एक बार फिर शुरू से आखीर तक पुन: नज़र दौड़ाई और बोले - 'यह तो पहल में छपेगी. कहकर उन्होंने पन्ना लौटा दिया और कहा - 'तीन चार कविताएं और इसके साथ दे देना अगले अंक के लिये. और वह कविता तीन और कविताओं के साथ पहल के 46 वें अंक में सन 92 में प्रकाशित हुर्इ. यह मेरा किसी भी साहित्यिक-पत्रिका में छपने का पहला अवसर था. और षायद मेरे साहित्यिक जीवन की शुरूआत भी यहीं से मुझे मानना चाहिये. इसक पहले तो बस लपड़-धों-धों थी. मेरी रचनात्मक प्यास ने तब फिर कभी नहीं सताया. बस एक और दूसरी प्यास और भूख भी जागने लगी - अच्छा पढ़ने और उसे पाने की, जो अब तक मुसलसल जारी है और मिटती नहीं, बढ़ती ही जाती है, जितना खाओ-पीओ या कहें पीओ-खाओ. एक और बात थी ज्ञान जी के यहाँ निर्द्वंद्व जाने की. भाभीजी की स्वागत मुस्कान और आगत चाय-पकवान तथा पाशा-बुलबुल का स्नेह. उनकी सहज सरलता, अपनत्व और वहाँ आने जाने वाले स्तरीय लोगों से मेल मुलाकात तब मिलता रहा. यह सिलसिला अब तक जारी है और ताजिंदगी रहेगा ऐसा मेरा प्लेटिनिक-विश्वास कहता है.

पाशा अब नागपुर में हैं और बुलबुल विदेश में. पाशा तो आते जाते रहते हैं और उनसे मेल-मुलाकात और फोन से बातचीत होती रहती है. कुछ काम-धाम की बातें भी. पर बुलबुल, बुलबुल का दरस-परस दुर्लभ हो गया है. अब तो एक और छोटी बुलबुल उनके पास आ गयी है. पिछली बार जब बुलबुल अमरीका से अल्पकाल के लिये आयी थी तो मेरे और मेरे घर के लिये भी चाकलेटों के दो बडे़ से पैकेट और पल्लव(बेटे) के लिये एक बहुत सुन्दर किताब भेंट में दी थी. जिसे अब तक सहेजकर मैंने अपने पास रखा है.

ज्ञान जी की एक खास आदत ने भी मुझे उनकी ओर गहरे आकर्षित किया. वे न तो फालतू बातें कभी करते हैं और न ही उनमें उन्हें सुनने रुचि या क्षमता. वे काम और उसमें भी मुद्दे की बात वे करते सुनते हैं. बकवाद में उनकी रुचि बिल्कुल नहीं. हमेशा सजग, सतर्क और तत्पर ज्ञानेनिद्रयाँ. अतार्किक और अवैज्ञानिक तथ्य पर धारदार हमला, और अपने मिलने-जुलने वालों के भीतरी संसार की नियमित स्केनिंग उनके द्वारा होती रहती और नकारात्मक सोच देख सुन कर बराबर सचेत करते रहने का उनका उपक्रम कभी नहीं रुका, और अब तक जारी है. मुसलसल...

एक खास बात और - मैं उनके साथ पहल-सम्मानों के दौरान देष के छोरों तक के कई शहरों में गया हूँ. हर जगह उन्हें खूब प्यार और दुलार देने वाले लोगों का समूह है. उनके हमउम्र, उनसे वरिष्ट तो उनसे प्रभावित रहते ही हैं, पर खास बात यह कि युवा लोंगों का स्नेह और प्यार उन्हें बेइंतहा मिलता है. कार्यक्रम की जिम्मेदारी स्थानीय टीम इतनी तत्परता और जिम्मेदारी से करती कि हम जबलपुर से पहुंचे कार्यकर्ताओं को अधिक दौड़धूप और मशक्कत नहीं करना पड़ती, बलिक मेहमान की तरह हमारा स्वागत और देखभाल की जाती. देश के हर शहर, कस्बे और गाँवों में तक ज्ञान जी का आंतरिक सम्मान और आदर करने और उनके इषारों को समझने और उन पर तत्परता से अमल करने वाले मिल जायेंगे. यह मैंने उनके साथ अपनी यात्राओं के दौरान महसूस किया.

और इस संस्मरण के अंत में इतना और कहने की गहरी इच्द्दा है कि मेरे साहित्यिक जीवन को दिषा देने वालों में राजेन्द्र चंद्रकांत राय के बाद यदि प्रमुखता से किसी और का नाम जुड़ता है तो वह है - ज्ञानरंजन. उनके दिशा-निर्देशों के बिना शायद में आज यह सब लिखने के काबिल न हो पाता और यह साहस भी न कर पाता.

लेखक : मनोहर बिल्लौरे, 1225, जेपीनगर, अधारताल,जबलपुर 482004 (म.प्र.)