सईं कबीर और कंगना की जुगलबंदी / जयप्रकाश चौकसे

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सईं कबीर और कंगना की जुगलबंदी
प्रकाशन तिथि : 26 अप्रैल 2014


साईं कबीर की पहली फिल्म प्रदर्शित नहीं हो पाई, इसलिए 'रिवॉल्वर रानी' को ही पहली फिल्म मानना होगा और इस फिल्म से यह उम्मीद बंधती है कि सईं कबीर महत्वपूर्ण फिल्मकार के रूप में उभरेंगे। हिन्दुस्तानी सिनेमा में डाकुओं पर फिल्में प्राय: बनती रही हैं परंतु तिग्मांशु धूलिया की 'पान सिंह तोमर' और सईं कबीर की 'रिवॉल्वर रानी' समस्या की सतह के भीतर बहुत दूर तक जाती है और इस किवदंती की पोल खोल देती है कि मात्र सामाजिक अन्याय की कोख से दस्यु पैदा होते है। उन्हें तो बनाया जाता है एक वृहत बाजार की मांग पर गढ़ा जाता है और चंबल की राजनीति भी उसी व्यापार का हिस्सा है। इस फिल्म की नायिका का सबसे गहरा घाव उसे बांझ करार दिया जाना है और पुरुष कमतरी के परिणाम बांझ होने को ऐसा कलंक बना दिया गया है मानो वह चुड़ैल है। सामाजिक इतिहास भरा पड़ा है उन महिलाओं की बलि से जिन्हें बांझ करार दिया गया और इसे चरित्रहीन होने या वेश्या होने से भी बदतर बनाया गया है। किसी महिला के गर्भवती होने की क्षमता में सिमटा दिया गया है उसका औरत होना जबकि यह एक शारीरिक क्रिया है और प्राय: पुरुष की कमतरी का ही एक प्रमाण भी है।

एक तरफ उसके मां होने का गरिमामय केवल इसलिए बनाया है कि दूसरी तरफ उसके तथाकथित बांझपन का ढोल उसके गले में बांधा जा सके। इस तरह की लोकप्रिय बनाई गई धारणा के कारण इस फिल्म की नायिका बांझपन नामक मिथ्या रोग से इतनी ग्रसित कर दी गई है कि वह अपने गर्भवती होने को अपने वजूद की लड़ाई बना देती और उसके मामा ने उसके साहस की मदद से एक साम्राज्य खड़ा कर दिया था जिसका रक्षण वह तहखाने में सदियों से गढ़े खजाने की रक्षा करने वाले सांप की तरह करता है। इस खजाने की खातिर टकसाल तक को वह हानि पहुंचाना चाहता है। दरअसल औरत एक टकसाल की तरह ही समझी गई है कभी सिक्के देती है, कभी बच्चे देती है। उसके दिमाग में यह भी ठूंस दिया गया है कि वह कुरूप है। वह मात्र बच्चे को जन्म देना चाहती है, बच्चे को पढ़ाने जाती है, अपने काम पर जाने वाले पति को टिफन।सामंतवाद का एक चेहरा डकैत समस्या रही है और आजादी के बाद के वर्षों में सामंत घराने राजनीति में आए तो उन्होंने डकैत समस्या को भी राजनीति का हिस्सा बना लिया। बहरहाल सईं कबीर की फिल्म अनेक सतहों पर काम करती है और खबरी लोगों के कैमरे नामक बंदूक और उसके नए आखेट का भी इसमें समावेश है तथा विकास नामक व्यवसाय के भी संकेत है कि किस तरह धन लेकर जनजातियों की जमीन विषैले कारखानों के लिए आवंटित की जाती है और उन गरीबों को खदेड़ दिया जाता है।

'क्वीन' कंगना रनावत इस फिल्म की जान है और उसका अभिनय बरबस सोफिया लारेन की 'टू वीमैन' की याद ताजा कर देता है। कंगना अपनी भूमिका में पूरी तरह रम जाती है और इतनी बैखौफ दिलेर अभिनेत्री है कि उसे कुरुपता से भी भय नहीं लगता। एक दृश्य में वह स्वयं ही बेहोशी का इंजेक्शन ठोंक लेती है और उसके बाद उसके चलने का अंदाज उस दवा के प्रभाव को बखूबी प्रस्तुत करता है। अपने परिचय दृश्य में उसके चलने का अलग अंदाज देखिए। अपने बच्चे को जन्म की कल्पना में डूबी कंगना के चेहरे और पूरे शरीर को ममतामय बनते देखना एक आश्चर्य है। क्या कोई कलाकार इस तरह भूमिका से एक हो जाता है। कमाल की तन्मयता है।

गौरतलब है कि डाकुओं के क्षेत्र में भी सिनेमा की लोकप्रियता है। दशकों पूर्व मीना कुमारी का डाकुओं ने अपहरण किया था और सरदार उन्हें पहचान कर बाइज्जत सुरक्षित स्थान पर ले गया था। इस फिल्म का नायक भी फिल्मी कलाकार बनने के लिए 'रिवॉल्वर रानी'के साथ प्रेम का नाटक रचता है और सईं कबीर को सलाम की एक दृश्य में कंगना अपने प्रेमी को चंबल में उसके द्वारा बनाई गई फिल्म सिटी दिखाने ले जाती है। चंबल में फिल्म सिटी का पूरा दृश्य ही कमाल का है। यह फिल्म अत्यंत मनोरंजक और सार्थक है। इसका गीत संगीत भी मधुर है। गीतों में अंचल के साथ सार्वभौमिकता है। एक गीत में तेजाब की नदी की बात है।