सगुण धारा: कृष्णभक्ति शाखा / भक्तिकाल / शुक्ल

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पूर्व मध्यकाल: भक्तिकाल (संवत् 1375 - 1700) / प्रकरण 5 - सगुण धारा: कृष्णभक्ति शाखा

श्रीबल्लभाचार्य जी: पहले कहा जा चुका है कि विक्रम की पंद्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी में वैष्णव धर्म का जो आंदोलन देश के एक छोर से दूसरे छोर तक रहा उसके श्री बल्लभाचार्य जी प्रधान प्रवर्तकों में से थे। आचार्य जी का जन्म संवत् 1535, वैशाख कृष्ण 11 को और गोलोकवास संवत् 1587, आषाढ़ शुक्ल 3 को हुआ। ये वेदशास्त्र में पारंगत धुरंधर विद्वान थे।

रामानुज से लेकर बल्लभाचार्य तक जितने भक्त दार्शनिक या आचार्य हुए हैं, सबका लक्ष्य शंकराचार्य के मायावाद और वृत्तिवाद से पीछा छुड़ाना था जिसके अनुसार भक्ति अविद्या या भ्रांति ही ठहरती है। शंकर ने केवल निरुपाधि निर्गुण ब्रह्म की ही परमार्थिक सत्ता स्वीकार की थी। बल्लभ ने ब्रह्म में सब धर्म माने। सारी सृष्टि को उन्होंने लीला के लिए ब्रह्म की आत्मकृति कहा। अपने को अंशरूप जीवों में बिखराना ब्रह्म की लीलामात्र है। अक्षर ब्रह्म अपनी आविर्भाव तिरोभाव की अचिंत्य शक्ति से जगत् के रूप में परिणत भी होता है और उसके परे भी रहता है। वह अपने सत्, चित् और आनंद, इन तीनों स्वरूपों का आविर्भाव और तिरोभाव करता रहता है। जीव में सत् और चित् का आविर्भाव रहता है, पर आनंद का तिरोभाव। जड़ में केवल सत् का आविर्भाव रहता है, चित् और आनंद दोनों का तिरोभाव। माया कोई वस्तु नहीं।

श्रीकृष्ण ही परब्रह्म हैं जो दिव्य गुणों से सम्पन्न होकर 'पुरुषोत्तम' कहलाते हैं। आनंद का पूर्ण आविर्भाव इसी पुरुषोत्तम रूप में रहता है, अत: यही श्रेष्ठ रूप है। पुरुषोत्तम कृष्ण की सब लीलाएँ नित्य हैं। वे अपने भक्तों के लिए 'व्यापी वैकुंठ* मं। (जो विष्णु के वैकुंठ से ऊपर है) अनेक प्रकार की क्रीड़ाएँ करते रहते हैं। गोलोक इसी व्यापी वैकुंठ का एक खंड है जिसमें नित्य रूप में यमुना, वृंदावन, निकुंज इत्यादि सब कुछ है। भगवान की इस 'नित्यलीला सृष्टि' में प्रवेश करना ही जीव की सबसे उत्तम गति है।

शंकर ने निर्गुण को ही ब्रह्म का परमार्थिक या असली रूप कहा था और सगुण को व्यावहारिक या मायिक। बल्लभाचार्य ने बात उलटकर सगुण रूप को ही असली परमार्थिक रूप बताया और निर्गुण को उसका अंशत: तिरोहित रूप कहा। भक्ति की साधना के लिए बल्लभ ने उसके 'श्रध्दा' के अवयव को छोड़कर, जो महत्व की भावना में मग्न करता है, केवल 'प्रेम' लिया। प्रेमलक्षणा भक्ति ही उन्होंने ग्रहण की। 'चौरासी वैष्णवों की वार्ता' में सूरदास की एक वार्ता के अंतर्गत प्रेम को ही मुख्य और श्रध्दा या पूज्यबुद्धि को ही आनुषंगिक या सहायक कहा गया है

“श्री आचार्य जी, महाप्रभु के मार्ग को कहा स्वरूप है? माहात्म्य ज्ञानपूर्वक सुदृढ़ स्नेह तो पराकाष्ठा है। स्नेह आगे भगवान को रहत नाहीं ताते भगवान बेर बेर माहात्म्य जनावत हैं। इन ब्रजभक्तन को स्नेह परम काष्ठापन्न है। ताहि समय तो माहात्म्य रहे, पीछे विस्मृत होय जाय।”

प्रेमसाधना में बल्लभ ने लोकमर्यादा और वेदमर्यादा दोनों का त्याग विधेय ठहराया। इस प्रेमलक्षणा भक्ति की ओर जीव की प्रवृत्ति तभी होती है जब भगवान का अनुग्रह होता है जिसे 'पोषण' या पुष्टि कहते हैं। इसी से बल्लभाचार्य जी ने अपने मार्ग का नाम 'पुष्टिमार्ग' रखा है।

उन्होंने जीव तीन प्रकार के माने हैं 1. पुष्टि जीव, जो भगवान के अनुग्रह का ही भरोसा रखते हैं और 'नित्यलीला' में प्रवेश पाते हैं। 2. मर्यादा जीव, जो वेद की विधियों का अनुसरण करते हैं और स्वर्ग आदि लोक प्राप्त करते हैं, और 3. प्रवाह जीव, जो संसार के प्रवाह में पड़े सांसारिक सुखों की प्राप्ति में ही लगे रहते हैं।

'कृष्णाश्रय' नामक एक 'प्रकरण ग्रंथ' में बल्लभाचार्य ने अपने समय की अत्यंत विपरीत दशा का वर्णन किया है जिसमें उन्हें वेदमार्ग या मर्यादामार्ग का अनुसरण अत्यंत कठिन दिखाई पड़ा है। देश में मुसलमानी साम्राज्य अच्छी तरह दृढ़ हो चुका था। हिंदुओं का एक मात्र स्वतंत्र और प्रभावशाली राज्य दक्षिण का विजयनगर राज्य रह गया था, पर बहमनी सुलतानों के पड़ोस में रहने के कारण उसके दिन भी गिने हुए दिखाई पड़ते थे। इसलामी संस्कार धीरे धीरे जमते जा रहे थे। सूफी पीरों के द्वारा सूफी पद्ध ति की प्रेमलक्षणा भक्ति का प्रचारकार्य धूम से चल रहा था। एक ओर 'निर्गुण पंथ' के संत लोग वेदशास्त्र की विधियों पर से जनता की आस्था हटाने में जुटे हुए थे। अत: बल्लभाचार्य ने अपने 'पुष्टिमार्ग' का प्रवर्तन बहुत कुछ देशकाल देखकर किया।

बल्लभाचार्य जी के मुख्य ग्रंथ ये हैं

1. पूर्वमीमांसा भाष्य। 2. उत्तर मीमांसा या ब्रह्मसूत्र भाष्य जो अणुभाष्य के नाम से प्रसिद्ध है। इनके शुध्दाद्वैतवाद का प्रतिपादक यही प्रधान दार्शनिक ग्रंथ है। 3. श्रीमद्भागवत् की सूक्ष्म टीका तथा सुबोधिनी टीका। 4. तत्वदीप निबंध तथा 5. सोलह छोटे छोटे प्रकरण ग्रंथ। इनमें से पूर्वमीमांसा भाष्य का बहुत थोड़ा सा अंश मिलता है। 'अणुभाष्य' आचार्य जी पूरी न कर सके थे। अत: अंत के डेढ़ अध्याय उनके पुत्र गोसाईं विट्ठलनाथ ने लिखकर ग्रंथ पूरा किया। भागवत की सूक्ष्म टीका नहीं मिलती, सुबोधिनी का भी कुछ ही अंश मिलता है। प्रकरण ग्रंथों में 'पुष्टिप्रवाहमर्यादा' नाम की पुस्तक मूलचंद तुलसीदास तेलीवाला ने संपादित करके प्रकाशित कराई है।

रामानुजाचार्य के समान बल्लभाचार्य ने भी भारत के बहुत से भागों में पर्यटन और विद्वानों से शास्त्रार्थ करके अपने मत का प्रचार किया था। अंत में अपने उपास्य श्रीकृष्ण की जन्मभूमि में जाकर उन्होंने अपनी गद्दी स्थापित की और अपने शिष्य पूरनमल खत्री द्वारा गोवर्ध्दन पर्वत पर श्रीनाथ जी का बड़ा भारी मंदिर निर्माण कराया तथा सेवा का बड़ा भारी मंडन बाँधा। बल्लभ संप्रदाय में जो उपासना पद्ध ति या सेवा पद्ध ति ग्रहण की गई उसमें भोग, राग तथा विलास की प्रभूत सामग्री के प्रदर्शन की प्रधानता रही। मंदिरों की प्रशंसा 'केसर की चक्कियाँ चलै हैं' कहकर होने लगी। भोगविलास के इस आकर्षण का प्रभाव सेवक सेविकाओं पर कहाँ तक अच्छा पड़ सकता था। जनता पर चाहे जो प्रभाव पड़ा हो पर उक्त गद्दी के भक्त शिष्यों ने सुंदर सुंदर पदों द्वारा जो मनोहर प्रेम संगीत धारा बहाई उसने मुरझाते हुए हिंदू जीवन को सरस और प्रफुल्ल किया। इस संगीत धारा में दूसरे संप्रदायों के कृष्णभक्तों ने भी पूरा योग दिया।

सब संप्रदायों के कृष्णभक्त भागवत् में वर्णित कृष्ण की ब्रजलीला को ही लेकर चले क्योंकि उन्होंने अपनी प्रेमलक्षणा भक्ति के लिए कृष्ण का मधुर रूप ही पर्याप्त समझा। महत्व की भावना से उत्पन्न श्रध्दा या पूज्यबुद्धि का अवयव छोड़ देने के कारण कृष्ण के लोकरक्षक और धर्म संस्थापक स्वरूप को सामने रखने की आवश्यकता उन्होंने न समझी। भगवान के धर्मस्वरूप को इस प्रकार किनारे रख देने से उसकी ओर आकर्षित होने और आकर्षित करने की प्रवृत्ति का विकास कृष्णभक्तों में न हो पाया। फल यह हुआ कि कृष्णभक्त कवि अधिकतर फुटकल श्रृंगारी पदों की रचना में ही लगे रहे। उनकी रचनाओं में न तो जीवन के अनेक गंभीर पक्षों के मार्मिक रूप स्फुरित हुए, न अनेकरूपता आई। श्रीकृष्ण का इतना चरित ही उन्होंने न लिया जो खंडकाव्य, महाकाव्य आदि के लिए पर्याप्त होता। राधाकृष्ण की प्रेम लीला ही सबने गाई।

भागवत् धर्म का उदय यद्यपि महाभारत काल में ही हो चुका था और अवतारों की भावना देश में बहुत प्राचीन काल से चली आती थी, पर वैष्णव धर्म के सांप्रदायिक स्वरूप का संघटन दक्षिण में ही हुआ। वैदिक परंपरा के अनुकरण पर अनेक संहिताएँ, उपनिषद्, सूत्रग्रंथ इत्यादि तैयार हुए। श्रीमद्भागवत् में श्रीकृष्ण के मधुर रूप का विशेष वर्णन होने से भक्तिक्षेत्र में गोपियों के ढंग के प्रेम का माधुर्य भाव का रास्ता खुला। इसके प्रचार में दक्षिण के मंदिरों की देवदासी प्रथा विशेष रूप में सहायक हुई। माता-पिता मंदिरों में लड़कियों को चढ़ा आते थे जहाँ उनका विवाह भी ठाकुर जी के साथ हो जाता था। उनके लिए मंदिर में प्रतिष्ठित भगवान की उपासना पतिरूप में विधेय थी। इन्हीं देवदासियों में कुछ प्रसिद्ध भक्तिनें भी हो गई हैं।

दक्षिण में अंदाल इसी प्रकार की एक प्रसिद्ध भक्तिन हो गई हैं जिनका जन्म संवत् 773 में हुआ था। अंदाल के पद द्रविड़ भाषा में 'तिरुप्पावइ' नामक पुस्तक में मिलते हैं। अंदाल एक स्थल पर कहती है, 'अब मैं पूर्ण यौवन को प्राप्त हूँ और स्वामी कृष्ण के अतिरिक्त और किसी को अपना पति नहीं बना सकती।' इस भाव की उपासना यदि कुछ दिन चले तो उसमें गुह्य और रहस्य की प्रवृत्ति हो ही जाएगी। रहस्यवादी सूफियों का उल्लेख ऊपर हो चुका है जिनकी उपासना भी 'माधुर्य भाव' की थी। मुसलमानी जमाने में इन सूफियों का प्रभाव देश की भक्तिभावना के स्वरूप पर बहुत कुछ पड़ा। 'माधुर्य भाव' को प्रोत्साहन मिला। माधुर्य भाव की जो उपासना चली आ रही थी उसमें सूफियों के प्रभाव से 'आभ्यंतर मिलन', 'मूर्छा', 'उन्माद' आदि की भी रहस्यमयी योजना हुई। मीराबाई और चैतन्य महाप्रभु दोनों पर सूफियों का प्रभाव पाया जाता है।

1. सूरदास जी का वृत्त 'चौरासी वैष्णवों की वार्ता' में केवल इतना ज्ञात होता है कि ये पहले गऊघाट (आगरे तथा मथुरा के बीच) पर एक साधु या स्वामी के रूप में रहा करते थे और भजन किया करते थे। गोवर्ध्दन पर श्रीनाथजी का मंदिर बन जाने के पीछे एक बार बल्लभाचार्य जी गऊघाट पर उतरे तब सूरदास उनके दर्शन को आए और उन्हें अपना बनाया एक पद गाकर सुनाया। आचार्य जी ने उन्हें अपना शिष्य बना लिया और भागवत की कथाओं को गाने योग्य पदों में करने का आदेश दिया। उनकी सच्ची भक्ति और पद रचना की निपुणता देख बल्लभाचार्य जी ने उन्हें श्रीनाथजी के मंदिर की कीर्तन सेवा सौंपी। इस मंदिर को पूरनमल खत्री ने गोवर्ध्दन पर्वत पर संवत् 1576 में पूरा बनवाकर खड़ा किया था। मंदिर पूरा होने के 11 वर्ष पीछे अर्थात् संवत् 1587 में बल्लभाचार्य जी की मृत्यु हुई।

श्रीनाथजी के मंदिर निर्माण के थोड़ा ही पीछे सूरदास जी बल्लभ संप्रदाय में आए, यह 'चौरासी वैष्णवों की वार्ता' के इन शब्दों से स्पष्ट हो जाता है

"औरहु पद गाए तब श्री महाप्रभुजी अपने मन में विचारे जो श्रीनाथजी के यहाँ और तो सब सेवा को मंडन भयो है, पर कीर्तन को मंडन नाहीं कियो है; तातें अब सूरदास को दीजिए।"

अत: संवत् 1580 के आसपास सूरदास जी बल्लभाचार्य जी के शिष्य हुए होंगे और शिष्य होने के कुछ ही पीछे उन्हें कीर्तन सेवा मिली होगी। तब से वे बराबर गोवर्ध्दन पर्वत पर ही मंदिर की सेवा करते थे, इसका स्पष्ट आभास 'सूरसारावली' के भीतर मौजूद है। तुलसीदास के प्रसंग में हम कह आए हैं कि भक्त लोग कभी कभी किसी ढंग से अपने को इष्टदेव की कथा के भीतर डालकर उनके चरणों तक पहुँचने की भावना करते हैं। तुलसी ने तो अपने कुछ प्रच्छन्न रूप में पहुँचाया है, पर सूर ने प्रकट रूप में। कृष्ण जन्म के उपरांत नंद के घर बराबर आनंदोत्सव हो रहे हैं। उसी बीच एक ढाढ़ी आकर कहता है

नंद जू मेरे मन आनंद भयो, हौं गोवर्ध्दन तें आयो।

तुम्हरे पुत्र भयो, मैं सुनि कै अति आतुर उठि धायो

जब तुम मदन मोहन करि टेरौं, यह सुनि कै घर जाऊँ।

हौं तौ तेरे घर को ढाढ़ी, सूरदास मेरो नाऊँ

बल्लभाचार्य जी के पुत्र गोसाईं विट्ठलनाथ के सामने गोवर्ध्दन की तलहटी के पारसोली ग्राम में सूरदास की मृत्यु हुई, इसका पता भी उक्त 'वार्ता' से लगता है। गोसाईं विट्ठलनाथ की मृत्यु सं. 1642 में हुई। इसके कितने पहले सूरदास का परलोकवास हुआ, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता।

'सूरसागर' समाप्त करने पर सूर ने जो 'सूरसारावली' लिखी है उसमें अपनी अवस्था 67 वर्ष की कही है

गुरु परसाद होत यह दरसन सरसठ बरस प्रवीन

तात्पर्य यह कि 67 वर्ष के पहले वे 'सूरसागर' समाप्त कर चुके थे। सूरसागर समाप्त होने के थोड़ा ही पीछे उन्होंने 'सारावली' लिखी होगी। एक और ग्रंथ सूरदास का 'साहित्यलहरी' है, जिसमें अलंकारों और नायिका भेदों के उदाहरण प्रस्तुत करने वाले कूट पद हैं। इसका रचनाकाल सूर ने इस प्रकार व्यक्त किया है

मुनि सुनि रसन के रस लेख।

दसन गौरीनंद को लिखि सुबल संवत पेख।

इसके अनुसार संवत् 1607 में 'साहित्यलहरी' समाप्त हुई। यह तो मानना ही पड़ेगा कि साहित्य क्रीड़ा का यह ग्रंथ 'सूरसागर' से छुट्टी पाकर ही सूर ने संकलित किया होगा। उसके 2 वर्ष पहले यदि 'सूरसारावली' की रचना हुई, तो कह सकते हैं कि संवत् 1605 में सूरदास जी 67 वर्ष के थे। अब यदि उनकी आयु 80 या 82 वर्ष की मानें तो उनका जन्मकाल संवत् 1540 के आसपास तथा मृत्युकाल संवत् 1620 के आसपास ही अनुमित होता है।

'साहित्यलहरी' के अंत में एक पद है जिसमें सूर अपनी वंश परंपरा देते हैं। उस पद के अनुसार सूर पृथ्वीराज के कवि चंदबरदाई के वंशज ब्रह्मभट्ट थे। चंद कवि के कुल में हरिचंद हुए जिनके 7 पुत्रों में सबसे छोटे सूरजदास या सूरदास थे। 1 शेष 6 भाई मुसलमानों से युद्ध करते हुए मारे गए तब अंधे सूरदास बहुत दिनों इधर उधर भटकते रहे। एक दिन वे कुएँ में गिर पड़े और 6 दिन उसी में पड़े रहे। सातवें दिन कृष्ण भगवान उनके सामने प्रकट हुए और उन्हें दृष्टि देकर अपना दर्शन दिया। भगवान ने कहा कि दक्षिण के प्रबल ब्राह्मण कुल द्वारा शत्रुओं का नाश होगा और तू सब विद्याओं में निपुण होगा। इस पर सूरदास ने वर माँगा कि जिन ऑंखों से मैंने आपका दर्शन किया उनसे अब और कुछ न देख्रू और सदा आपका भजन करूँ। कुएँ से जब भगवान ने उन्हें बाहर निकाला तब वे ज्यों के त्यों अंधे हो गए और ब्रज में आकर भजन करने लगे। वहाँ गोसाईंजी ने उन्हें 'अष्टछाप' में लिया।

हमारा अनुमान है कि 'साहित्यलहरी' में यह पद पीछे किसी भाट के द्वारा जोड़ा गया है। यह पंक्ति है

प्रबल दच्छिन बिप्रकुल तें सत्रु ह्वैहै नास।

इसे सूर के बहुत पीछे की रचना बता रही है। 'प्रबल दच्छिन विप्रकुल' से साफ पेशवाओं की ओर संकेत है। इसे खींचकर अध्यात्म पक्ष की ओर मोड़ने का प्रयत्न व्यर्थ है।

सारांश यह है कि हमें सूरदास का जो थोड़ा सा वृत्त 'चौरासी वैष्णवों की वार्ता' में मिलता है उसी पर संतोष करना पड़ता है। यह 'वार्ता' भी यद्यपि बल्लभाचार्य जी के पौत्र गोकुलनाथजी की कही जाती है, पर उनकी लिखी नहीं जान पड़ती। इसमें कई जगह गोकुलनाथ जी के श्रीमुख से कही हुई बातों का बड़े आदर और सम्मान के शब्दों में उल्लेख है और बल्लभाचार्य जी की शिष्या न होने कारण मीराबाई को बहुत बुरा भला कहा गया है, और गालियाँ तक दी गई हैं। रंग ढंग से यह वार्ता गोकुलनाथ जी के पीछे उनके किसी गुजराती शिष्य की रचना जान पड़ती है।

'भक्तमाल' में सूरदास के संबंध में केवल एक यही छप्पय मिलता है

उक्ति चोज अनुप्रास बरन अस्थिति अति भारी।

बचन प्रीति निर्वाह अर्थ अद्भुत तुक धारी

प्रतिबिंबित दिवि दिष्टि, हृदय हरिलीला भासी।

जनम करम गुन रूप सबै रसना परकासी

बिमल बुद्धि गुन और की जो यह गुन श्रवननि धारै।

सूर कवित सुनि कौन कवि जो नहिं सिर चालन करै

इस छप्पय में सूर के अंधे होने भर का संकेत है जो परंपरा से प्रसिद्ध चला आता है। जीवन का कोई विशेष प्रामाणिक वृत्त न पाकर इधर कुछ लोगों ने सूर के समय के आसपास के किसी ऐतिहासिक लेख में जहाँ कहीं सूरदास नाम मिला है वहीं का वृत्त प्रसिद्ध सूरदास पर घटाने का प्रयत्न किया है। ऐसे दो उल्लेख लोगों को मिले हैं

1. 'आईने अकबरी' में अकबर के दरबार में नौकर, गवैयों बीनकरों आदि कलावंतों की जो फेहरिस्त है उसमें बाबा रामदास और उनके बेटे सूरदास दोनों के नाम दर्ज हैं। उसी ग्रंथ में यह भी लिखा है कि सब कलावंतों की सात मंडलियाँ बना दी गई थीं। प्रत्येक मंडली सप्ताह में एक बार दरबार में हाजिर होकर बादशाह का मनोरंजन करती थी। अकबर संवत् 1613 में गद्दी पर बैठा। हमारे सूरदास संवत् 1580 के आसपास ही बल्लभाचार्य जी के शिष्य हो गए और उनके पहले भी विरक्त साधु के रूप में गऊघाट पर रहा करते थे। इस दशा में संवत् 1613 के बहुत बाद दरबारी नौकरी करने कैसे पहुँचे? अत: 'आईने अकबरी' के सूरदास और सूरसागर के सूरदास एक ही व्यक्ति नहीं ठहरते।

2. 'मुंशियात् अबुल फजल' नामक अबुल फजल के पत्रों का एक संग्रह है जिसमें बनारस के किसी संत सूरदास के नाम अबुल फजल का एक पत्र है। बनारस का कराड़ी इन सूरदास के साथ अच्छा बरताव नहीं करता था इससे उसकी शिकायत लिखकर इन्होंने शाही दरबार में भेजी थी। उसी के उत्तर में अबुल फजल का पत्र है। बनारस के सूरदास बादशाह से इलाहाबाद में मिलने के लिए इस तरह बुलाए गए हैं

'हजरत बादशाह इलाहाबाद में तशरीफ लाएँगे। उम्मीद है कि आप भी शर्फ मुलाजमात से मुशर्रफ होकर मुरीद हकीकी होंगे और खुदा का शुक्र है कि हजरत भी आपको हकशिनास जानकर दोस्त रखते हैं।' (फारसी का अनुवाद)

इन शब्दों से ऐसी ध्वनि निकलती है कि ये कोई ऐसे संत थे जिनके अकबर के 'दीन इलाही' में दीक्षित होने की संभावना अबुल फजल समझता था। संभव है कि ये कबीर के अनुयायी कोई संत हों। अकबर का दो बार इलाहाबाद जाना पाया जाता है। एक तो संवत् 1640 में फिर 1661 में। पहली यात्रा के समय का लिखा हुआ भी यदि इस पत्र को मानें तो भी उस समय हमारे सूर का गोलोकवास हो चुका था। यदि उन्हें तब तक जीवित मानें तो वे 100 वर्ष के ऊपर रहे होंगे। मृत्यु के इतने समीप आकर वे इन सब झमेलों में क्यों पड़ने जायंगे, या उनके 'दीनइलाही' में दीक्षित होने की आशा कैसे की जाएगी?

श्री बल्लभाचार्य जी के पीछे उनके पुत्र गोसाईं विट्ठलनाथ जी गद्दी पर बैठे। उस समय तक पुष्टिमार्गी कई कवि सुंदर से सुंदर पदों की रचना कर चुके थे। इससे गोसाईं विट्ठलनाथ जी ने उनमें से आठ सर्वोत्तम कवियों को चुनकर 'अष्टछाप' की प्रतिष्ठा की। 'अष्टछाप' के आठ कवि हैं सूरदास, कुंभनदास, परमानंददास, कृष्णदास, छीतस्वामी, गोविंदस्वामी, चतुर्भुजदास और नंददास।

कृष्णभक्ति परंपरा में श्रीकृष्ण की प्रेममयी मूर्ति को ही लेकर प्रेमतत्व की बड़े विस्तार के साथ व्यंजना हुई है, उनके लोकपक्ष का समावेश उसमें नहीं है। इन कृष्णभक्तों के कृष्ण प्रेमोन्मत्त गोपिकाओं से घिरे हुए गोकुल के श्रीकृष्ण हैं, बड़े बड़े भूपालों के बीच लोकव्यवस्था की रक्षा करते हुए द्वारका के श्रीकृष्ण नहीं हैं। कृष्ण के जिस मधुर रूप को लेकर ये भक्त कवि चले हैं वह हास विलास की तरंगों से परिपूर्ण अनंत सौंदर्य का समुद्र है। उस सार्वभौम प्रेमालंबन के सम्मुख मनुष्य का हृदय निराले प्रेमलोक में फूला फूला फिरता है। अत: इन कृष्ण भक्त कवियों के संबंध में यह कह देना आवश्यक है कि वे अपने रंग में मस्त रहने वाले जीव थे, तुलसीदास जी के समान लोकसंग्रह का भाव इनमें न था। समाज किधर जा रहा है, इस बात की परवा ये नहीं रखते थे, यहाँ तक कि अपने भगवत्प्रेम की पुष्टि के लिए जिस श्रृंगारमयी लोकोत्तर छटा और आत्मोत्सर्ग की अभिव्यंजना से इन्होंने जनता को रसोन्मत्त किया, उसका लौकिक स्थूल दृष्टि रखनेवाले विषय वासनापूर्ण जीवों पर कैसा प्रभाव पड़ेगा, इसकी ओर इन्होंने ध्यान न दिया। जिस राधा और कृष्ण के प्रेम को इन भक्तों ने अपनी गूढ़ातिगूढ़ चरम भक्ति का व्यंजक बनाया उसको लेकर आगे के कवियों ने श्रृंगार की उन्मादकारिणी उक्तियों से हिन्दी काव्य को भर दिया।

कृष्णचरित के गान में गीतकाव्य की जो धारा पूरब में जयदेव और विद्यापति ने बहाई, उसी का अवलंबन ब्रज के भक्त कवियों ने भी किया। आगे चलकर अलंकारकाल के कवियों ने अपनी श्रृंगारमयी मुक्तक कविता के लिए राधा और कृष्ण का ही प्रेम लिया। इस प्रकार कृष्ण संबंधि कविता का स्फुरण मुक्तक के क्षेत्र में ही हुआ, प्रबंध क्षेत्र में नहीं। बहुत पीछे संवत् 1809 में ब्रजवासीदास ने रामचरितमानस के ढंग पर दोहों, चौपाइयों में प्रबंधकाव्य के रूप में कृष्णचरित का वर्णन किया, पर ग्रंथ बहुत साधारण कोटि का हुआ और उसका वैसा प्रसार न हो सका। कारण स्पष्ट है। कृष्णभक्त कवियों ने श्रीकृष्ण भगवान के चरित का जितना अंश लिया वह एक अच्छे प्रबंधकाव्य के लिए पर्याप्त न था। उनमें मानव जीवन की वह अनेकरूपता न थी जो एक अच्छे प्रबंधकाव्य के लिए आवश्यक है। कृष्णभक्त कवियों की परंपरा अपने इष्टदेव की केवल बाललीला और यौवन लीला लेकर ही अग्रसर हुई जो गीत और मुक्तक के लिए ही उपयुक्त थी। मुक्तक के क्षेत्र में कृष्णभक्त कवियों तथा आलंकारिक कवियों ने श्रृंगार और वात्सल्य रसों को पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया, इसमें कोई संदेह नहीं।

पहले कहा गया है कि श्री बल्लभाचार्य जी की आज्ञा से सूरदास जी ने श्रीमद्भागवत् की कथा को पदों में गाया। इनके सूरसागर में वास्तव में भागवत के दशम स्कंध की कथा संक्षेपत: इतिवृत्त के रूप में थोड़े से पदों में कह दी गई है। सूरसागर में कृष्ण जन्म से लेकर श्रीकृष्ण के मथुरा जाने तक की कथा अत्यंत विस्तार से फुटकल पदों में गाई गई है। भिन्न भिन्न लीलाओं के प्रसंग को लेकर इस सच्चे रसमग्न कवि ने अत्यंत मधुर और मनोहर पदों की झड़ी सी बाँध दी है। इन पदों के संबंध में सबसे पहली बात ध्यान देने की यह है कि चलती हुई ब्रजभाषा में सबसे पहली साहित्य रचना होने पर भी ये इतने सुडौल और परिमार्जित हैं। यह रचना इतनी प्रगल्भ और काव्यपूर्ण है कि आगे होनेवाले कवियों की श्रृंगार और वात्सल्य की उक्तियाँ सूर की जूठी सी जान पड़ती हैं। अत: सूरसागर किसी चली आती हुई गीतकाव्य परंपरा का चाहे वह मौखिक ही रही हो पूर्ण विकास सा प्रतीत होता है।

गीतों की परंपरा तो सभ्य असभ्य सब जातियों में अत्यंत प्राचीनकाल से चली आ रही है। सभ्य जातियों ने लिखित साहित्य के भीतर भी उनका समावेश किया है। लिखित रूप में आकर उनका रूप पंडितों की काव्यपरंपरा की रूढ़ियों के अनुसार बहुत कुछ बदल जाता है। इससे जीवन के कैसे कैसे योग सामान्य जनता का मर्म स्पर्श करते आए हैं और भाषा की किन किन पद्ध तियों पर वे अपने गहरे भावों की व्यंजना करते आए हैं, इसका ठीक पता हमें बहुत काल से चले आते हुए मौखिक गीतों से ही लग सकता है। किसी देश की काव्यधारा के मूल प्राकृतिक स्वरूप का परिचय हमें चिरकाल से चले आते हुए इन्हीं गीतों से मिल सकता है। घर घर प्रचलित स्त्रियों के घरेलू गीतों में श्रृंगार और करुण दोनों का बहुत स्वाभाविक विकास हम पाएँगे। इसी प्रकार आल्हा, कड़खा, आदिपुरुषों के गीतों में वीरता की व्यंजना की सरल स्वाभाविक पद्ध ति मिलेगी। देश की अंतर्वर्तिनी मूल भावधारा के स्वरूप के ठीक ठीक परिचय के लिए ऐसे गीतों का पूर्ण संग्रह बहुत आवश्यक है। पर इस संग्रह कार्य में उन्हीं का हाथ लगाना ठीक है जिन्हें भारतीय संस्कृति के मार्मिक स्वरूप की परख हो जिनमें पूरी ऐतिहासिक दृष्टि हो।

स्त्रियों के बीच चले आते हुए बहुत पुराने गीतों को ध्यान से देखने पर पता लगेगा कि उनमें स्वकीया के ही प्रेम की सरल गंभीर व्यंजना है। परकीया प्रेम के जो गीत हैं वे कृष्ण और गोपिकाओं की प्रेमलीला को ही लेकर चले हैं, इससे उन पर भक्ति या धर्म का भी कुछ रंग चढ़ा रहता है। इस प्रकार के मौखिक गीत देश के प्राय: सब भागों में गाए जाते थे। मैथिल कवि विद्यापति (संवत् 1460) की पदावली में हमें उनका साहित्यिक रूप मिलता है। जैसा कि हम पहले कह आए हैं, सूर के श्रृंगारी पदों की रचना बहुत कुछ विद्यापति की पद्ध ति पर हुई है। कुछ पदों के तो भाव भी बिल्कुल मिलते हैं, जैसे

अनुखन माधव माधव सुमिरइत सुंदरी भेलि मधाई।

ओ निज भाव सुभावहि बिसरल अपने गुन लुबधाई

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भोरहि सहचरि कातर दिठि हेरि छल छल लोचन पानि।

अनुखन राधा राधा रटइत आधा आधा बानि

राधा सयँ जब पनितहि माधव माधव सयँ जब राधा

दारुन प्रेम तबहि नहिं टूटत बाढ़त बिरह क बाधा

दुहुँ दिसि दारु दहन जइसे दगधाइ आकुल कीट परान।

ऐसन बल्लभ हेरि सुधामुखि कवि विद्यापति भान

इस पद का भावार्थ यह है कि प्रतिक्षण कृष्ण का स्मरण करते करते राधा कृष्ण रूप हो जाती हैं और अपने को कृष्ण समझकर राधा के वियोग में 'राधा राधा' रटने लगती हैं। फिर जब होश में आती हैं तब कृष्ण के विरह में संतप्त होकर फिर 'कृष्ण कृष्ण' करने लगती हैं। इस प्रकार अपनी सुध में रहती हैं तब भी, नहीं रहती हैं तब भी दोनों अवस्थाओं में उन्हें विरह का ताप सहना पड़ता है। उनकी दशा उस लकड़ी के भीतर के कीड़े सी रहती है जिसके दोनों छोरों पर आग लगी हो। अब इसी भाव का सूर का यह पद देखिए

सुनौ स्याम! यह बात और कोउ क्यों समुझायकहै।

दुहुँ दिसि की रति बिरह बिरहिनी कैसे कै जो सहै

जब राधो, तब ही मुख 'माधौ माधौ' रटति रहै।

जब माधौ ह्वै जाति सकल तनु राधा बिरह दहै

उभय अग्र दव दारुकीट ज्यों सीतलताहि चहै।

सूरदास अति विकल बिरहिनी कैसेहु सुख न लहै।

(सूरदास, पृ. 564 वेंकटेश्वर)

'सूरसागर' में जगह जगह दृष्टिकूट वाले पद मिलते हैं। यह भी विद्यापति का अनुकरण है। 'सारंग' शब्द को लेकर सूर ने कई जगह कूट पद कहे हैं। विद्यापति की पदावली में इसी प्रकार का एक कूट देखिए

सारंग नयन, बयन पुनि सारंग, सारंग तसु समधाने।

सारंग उपर उगल दस सारंग केलि करथि मधु पाने

पच्छिमी हिन्दी बोलने वाले सारे प्रदेशों में गीतों की भाषा ब्रज ही थी। दिल्ली के आसपास भी गीत ब्रजभाषा में ही गाए जाते थे, यह हम खुसरो (संवत् 1340) के गीतों में दिखा आए हैं। कबीर (संवत् 1560) के प्रसंग में कहा जा चुका है कि उनकी साखी की भाषा तो 'सधुक्कड़ी' है, पर पदों की भाषा काव्य में प्रचलित ब्रजभाषा है। यह एक पद तो कबीर और सूर दोनों की रचनाओं के भीतर ज्यों का त्यों मिलता है

है हरिभजन को परवान।

नीच पावै ऊँच पदवी, बाजते नीसान।

भजन को परताप ऐसो तिरे जल पाषान।

अधम भील, अजाति गनिका चढ़े जात बिवाँन।

नवलख तारा चलै मंडल, चलै ससहर भान।

दास धू कौ अटल पदवी राम को दीवान।

निगम जाकी साखि बोलैं कथैं संत सुजान।

जन कबीर तेरो सरनि आयो, राखि लेहु भगवान

(कबीर ग्रंथावली, पृ. 190)

है हरि भजन को परमान।

नीच पावै ऊँच पदवी, बाजते नीसान।

भजन को परताप ऐसों जल तरै पाषान।

अजामिल अरु भील गनिका चढ़े जात विमान।

चलत तारे सकल मंडल, चलत ससि अरु भान।

भक्त धारुव को अटल पदवी राम को दीवान।

निगम जाको सुजस गावत, सुनत संत सुजान।

सूर हरि की सरन आयौ, राखि ले भगवान

(सूरसागर, पृ. 564, वेंकटेश्वर)

कबीर की सबसे प्राचीन प्रति में भी यह पद मिलता है इससे नहीं कहा जा सकता कि सूर की रचनाओं के भीतर यह कैसे पहुँच गया।

राधाकृष्ण की प्रेमलीला के गीत सूर के पहले से चले आते थे, यह तो कहा ही जा चुका है। बैजू बावरा एक प्रसिद्ध गवैया हो गया है जिसकी ख्याति तानसेन के पहले देश में फैली हुई थी। उसका एक पद देखिए

मुरली बजाय रिझाय लई मुख मोहन तें।

गोपी रीझि रही रसतानन सों सुधबुध सब बिसराई।

धुनि सुनि मन मोहे, मगन भई देखत हरि आनन।

जीव जंतु पसु पंछी सुर नर मुनि मोहे, हरे सब के प्रानन।

बैजू बनवारी बंसी अधार धारि वृंदावनचंद बस किए सुनत ही कानन

जिस प्रकार रामचरित का गान करने वाले कवियों में गोस्वामी तुलसीदास जी का स्थान सर्वश्रेष्ठ है उसी प्रकार कृष्णचरित गानेवाले भक्त कवियों में महात्मा सूरदास जी का। वास्तव में ये हिन्दी काव्य गगन के सूर्य और चंद्र हैं। जो तन्मयता इन दोनों भक्त शिरोमणि कवियों की वाणी में पाई जाती है वह अन्य कवियों में कहाँ? हिन्दी काव्य इन्हीं के प्रभाव से अमर हुआ, इन्हीं की सरसता से उसका स्रोत सूखने न पाया। सूर की स्तुति में, एक संस्कृत श्लोक के भाव को लेकर यह दोहा कहा गया है

उत्तम पद कवि गंग के, कविता को बल वीर।

केशव अर्थ गँभीर को, सूर तीन गुन धीर

इसी प्रकार यह दोहा भी बहुत प्रसिद्ध है

किधौं सूर को सर लग्यो, किधौं सूर को पीर।

किधौं सूर को पद लग्यो, बेधयो सकल सरीर

यद्यपि तुलसी के समान सूर का काव्यक्षेत्र इतना व्यापक नहीं कि उसमें जीवन की भिन्न भिन्न दशाओं का समावेश हो पर जिस परिमित पुण्यभूमि में उनकी वाणी ने संचरण किया उसका कोई कोना अछूता न छूटा। श्रृंगार और वात्सल्य के क्षेत्र में जहाँ तक इनकी दृष्टि पहुँची वहाँ तक और कोई किसी कवि की नहीं। इन दोनों क्षेत्रों में तो इस महाकवि ने मानो औरों के लिए कुछ छोड़ा ही नहीं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने गीतावली में बाललीला को इनकी देखादेखी बहुत अधिक विस्तार दिया सही, पर उसमें बालसुलभ भावों और चेष्टाओं की वह प्रचुरता नहीं आई, उसमें रूप वर्णन की ही प्रचुरता रही। बाल चेष्टा के स्वाभाविक मनोहर चित्रों का इतना बड़ा भंडार और कहीं नहीं। दो-चार चित्र देखिए

1. काहे को आरि करत मेरे मोहन! यों तुम ऑंगन लोटी?

जो माँगहु सो देहुँ मनोहर, यहै बात तेरी खोटी।

सूरदास को ठाकुर ठाढ़ो हाथ लकुट लिए छोटी

2. सोभित कर नवनीत लिए।

घुटुरुन चलन रेनु तन मंडित, मुख दधि लेप किए

3. सिखवति चलन जसोदा मैया।

अरबराय कर पानि गहावति, डगमगाय धारै पैयाँ

4. पाहुनि करि दै तनक मह्यौ।

आरि करै मनमोहन मेरो, अंचल आनि गह्यो

व्याकुल मथत मथनियाँ रीती, दधि भ्वैं ढरकि रह्यौ

बालकों के स्वाभाविक भावों की व्यंजना के न जाने कितने सुंदर पद भरे पड़े हैं। 'स्पर्धा' का कैसा सुंदर भाव इस प्रसिद्ध पद में आया है

मैया कबहिं बढ़ैगी चोटी!

कितिक बार मोहिं दूध पियत भइ, यह अजहूँ है छोटी।

तू जो कहति 'बल' की बेनी ज्यों ह्वैहै लाँबी मोटी

इसी प्रकार बालकों के क्षोभ के ये वचन देखिए

खेलत में को काको गुसैयाँ?

जाति पाँति हम तें कछु नाहीं, नाहिंन बसत तुम्हारी छैयाँ।

अति अधिकार जनावत यातें, अधिक तुम्हारे हैं कछु गैयाँ

वात्सल्य के समान ही श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का इतना प्रचुर विस्तार और किसी कवि में नहीं। गोकुल में जब तक श्रीकृष्ण रहे तब तक का उनका सारा जीवन ही संयोगपक्ष है। दानलीला, माखनलीला, चीरहरणलीला, रासलीला आदि न जाने कितनी लीलाओं पर सहस्रों पद भरे पड़े हैं। राधाकृष्ण के प्रेम के प्रादुर्भाव में कैसी स्वाभाविक परिस्थियों का चित्रण हुआ है, यही देखिए

(क) करि ल्यौ न्यारी, हरि आपनि गैयाँ।

नहिं न बसात लाल कछु तुमसों सबै ग्वाल इक ठैयाँ

(ख) धोनु दुहत अति ही रति बाढ़ी।

एक धार दोहनि पहुँचावत, एक धार जहँ प्यारी ठाढ़ी।

मोहन कर तें धार चलति पय मोहनि मुख अति ही छबि बाढ़ी

श्रृंगार के अंतर्गत भावपक्ष और विभावपक्ष दोनों के अत्यंत विस्तृत और अनूठे वर्णन इस सागर के भीतर लहरें मार रहे हैं। राधाकृष्ण के रूपवर्णन में ही सैकड़ों पद कहे गए हैं जिनमें उपमा, रूपक और उत्प्रेक्षा आदि की प्रचुरता है। ऑंख पर ही न जाने कितनी उक्तियाँ हैं, जैसे

देखि री! हरि के चंचल नैन।

खंजन मीन, मृगज चपलाई, नहिं पटतर एक सैन।

राजिवदल इंदीवर, शतदल, कमल, कुशेशय जाति।

निसि मुद्रित प्रातहि वै बिगसत, ये बिगसे दिन राति

अरुन असित सित झलक पलक प्रति, को बरनै उपमाय।

मानो सरस्वति गंग जमुन मिलि आगम कीन्हों आय

नेत्रों के प्रति उपालंभ भी कहीं कहीं बड़े मनोहर हैं

मेरे नैना बिरह की बेल बई।

सींचत नैन नीर के, सजनी! मूल पताल गई।

बिगसति लता सुभाय आपने छाया सघन भई

अब कैसे निरुवारौं, सजनी! सब तन पसरि गई

ऑंख तो ऑंख, कृष्ण की मुरली तक में प्रेम के प्रभाव से गोपियों की ऐसी सजीवता दिखाई पड़ती है कि वे अपनी सारी प्रगल्भता उसे कोसने में खर्च कर देती हैं

मुरली तऊ गोपालहि भावति।

सुन री सखी! जदपि नँदनंदहि नाना भाँति नचावति

राखति एक पाँय ठाढ़े करि, अति अधिकार जनावति।

आपुनि पौढ़ि अधार सज्जा पर करपल्लव सों पद पलुटावति

भृकुटी कुटिल कोप नासापुट हम पर कोपि कोपावति।

कालिंदी के कूल पर शरत् की चाँदनी में होने वाले रास की शोभा का क्या कहना है, जिसे देखने के लिए सारे देवता आकर इकट्ठे हो जाते थे। सूर ने एक न्यारे प्रेमलोक की आनंद छटा अपने बंद नेत्रों से देखी है। कृष्ण के मथुरा चले जाने पर गोपियों का जो विरहसागर उमड़ा है उसमें मग्न होने पर तो पाठकों को वार पार नहीं मिलता। वियोग की जितने प्रकार की दशाएँ हो सकती हैं सबका समावेश उसके भीतर है। कभी तो गोपियों को संध्या होने पर यह स्मरण आता है

एहि बेरियाँ बन तें चलि आवते।

दूरहिं ते वह बेनु, अधार धारि बारम्बार बजावते

कभी वे अपने उजड़े हुए नीरस जीवन के मेल में न होने के कारण वृंदावन के हरे भरे पेड़ों को कोसती हैं

मधुबन तुम कत रहत हरे?

बिरह बियोग स्यामसुंदर के ठाढ़े क्यों न जरे?

तुम हौ निलज, लाज नहिं तुमको, फिर सिर पुहुप धरे

ससा स्यार औ बन के पखेरू धिक धिक सबन करे।

कौन काज ठाढ़े रहे वन में, काहे न उकठि परे

परंपरा से चले आते हुए चंद्रोपालंभ आदि सब विषयों का विधान सूर के वियोगवर्णन के भीतर है, कोई बात छूटी नहीं है।

सूर की बड़ी भारी विशेषता है नवीन प्रसंगों की उद्भावना। प्रसंगोद्भावना करने वाली ऐसी प्रतिभा हम तुलसी में नहीं पाते। बाललीला और प्रेमलीला दोनों के अंतर्गत कुछ दूर तक चलने वाले न जाने कितने छोटे छोटे मनोरंजक वृत्तों की कल्पना सूर ने की है। जीवन के एक क्षेत्र के भीतर कथावस्तु की यह रमणीय कल्पना ध्यान देने योग्य है।

राधाकृष्ण के प्रेम को लेकर कृष्णभक्ति की जो काव्यधारा चली उसमें लीलापक्ष अर्थात् बाह्यार्थविधान की प्रधानता रही है। उसमें केलि, विलास, रास, छेड़छाड़, मिलन की युक्तियों आदि बाहरी बातों का ही विशेष वर्णन है। प्रेमलीन हृदय की नाना अनुभूतियों की व्यंजना कम है। वियोग वर्णन में कुछ संचारियों का समावेश मिलता है पर वे रूढ़ और परंपरागत है उनमें उद्भावना बहुत थोड़ी पाई जाती है। भ्रमरगीत के अंतर्गत अलबत्ता सूर ने आभ्यंतर पक्ष का भी विस्तृत उद्धाटन किया है। प्रेमदशा के भीतर की न जाने कितनी मनोवृत्तियों की व्यंजना गोपियों के वचनों द्वारा होती है।

सूरसागर का सबसे मर्मस्पर्शी और वाग्वैदग्धपूर्ण अंश 'भ्रमरगीत' है जिसमें गोपियों की वचनवक्रता अत्यंत मनोहारिणी है। ऐसा सुंदर उपालंभ काव्य और कहीं नहीं मिलता। उद्ध व तो अपने निर्गुण ब्रह्मज्ञान और योगकथा द्वारा गोपियों को प्रेम से विरत करना चाहते हैं और गोपियाँ उन्हें कभी पेट भर बनाती हैं, कभी उनसे अपनी विवशता और दीनता का निवेदन करती हैं। उद्ध व के बहुत बकने पर वे कहतीहैं

ऊधौ! तुम अपनो जतन करौ।

हित की कहत कुहित की लागै, किन बेकाज ररौ

जाय करौ उपचार आपनो, हम जो कहति हैं जी की।

कछू कहत कछुवै कहि डारत, धुन देखियत नहिं नीकी

इस भ्रमरगीत का महत्व एक बात से और बढ़ गया है। भक्तशिरोमणि सूर ने इसमें सगुणोपासना का निरूपण बड़े ही मार्मिक ढंग से हृदय की अनुभूति के आधार पर, तर्क पद्ध ति पर नहीं किया है। सगुण निर्गुण का यह प्रसंग सूर अपनी ओर से लाए हैं जिससे संवाद में बहुत रोचकता आ गई है। भागवत में यह प्रसंग नहीं है। सूर के समय में निर्गुण संत संप्रदाय की बातें जोर शोर से चल रही थीं। इसी से उपयुक्त स्थल देखकर सूर ने इस प्रसंग का समावेश कर दिया। जब उद्ध व बहुत सा वाग्विस्तार करके निर्गुण ब्रह्म की उपासना का उपदेश बराबर देते चले जाते हैं तब गोपियाँ बीच में रोककर इस प्रकार पूछती हैं

निर्गुन कौन देस को वासी?

मधुकर हँसि समुझाय, सौंह दै बूझति साँच, न झाँसी।

और कहती हैं कि चारों ओर भासित इस सगुणसत्ता का निषेध करके तू क्यों व्यर्थ उसके अव्यक्त और अनिर्दिष्ट पक्ष को लेकर यों ही बक बक करता है

सुनिहै कथा कौन निर्गुन की, रचि पचि बात बनावत।

सगुन सुमेरु प्रगट देखियत, तुम तृन की ओट दुरावत

उस निर्गुण और अव्यक्त का मानव हृदय के साथ भी कोई संबंध हो सकता है, यह तो बताओ

रेख न रूप, बरन जाके नहि ताको हमैं बतावत।

अपनी कहौं, दरस ऐसो को तुम कबहूँ हौ पावत?

मुरली अधर धरत है सो, पुनि गोधन बन बन चारत?

नैन बिसाल, भौंह बंकट करि देख्यौ कबहूँ निहारत?

तन त्रिभंग करि, नटवर वपु धारि, पीतांबर तेहि सोहत?

सूर स्याम ज्यौं देत हमैं सुख त्यौं तुमको सोउ मोहत?

अंत में वे यह कहकर बात समाप्त करती हैं कि तुम्हारे निर्गुण से तो हमें कृष्ण के अवगुणों में ही अधिक रस जान पड़ता है

ऊनो कर्म कियो मातुल बधि, मदिरा मत्ता प्रमाद।

सूर स्याम एते अवगुन में निर्गुन तें अति स्वाद

2. नंददास ये सूरदास जी के प्राय: समकालीन थे और उनकी गणना अष्टछाप में है। इनका कविताकाल सूरदास जी की मृत्यु के पीछे संवत् 1625 में या उसके और आगे तक माना जा सकता है। इनका जीवनवृत्त पूरा पूरा और ठीक ठीक नहीं मिलता। नाभा जी के भक्तमाल में इन पर जो छप्पय है उसमें जीवन के संबंध में इतना ही है

चंद्रहास अग्रज सुहृद परम प्रेम पथ में पगे।

इससे इतना ही सूचित होता है कि इनके भाई का नाम चंद्रहास था। इनके गोलोकवास के बहुत दिनों पीछे गोस्वामी विट्ठलनाथ जी के पुत्र गोकुलनाथ जी के नाम से जो 'दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता' लिखी गई उसमें इनका थोड़ा-सा वृत्त दिया गया है। उक्त वार्ता में नंददास जी तुलसीदास जी के भाई कहे गए हैं। गोकुलनाथ जी का अभिप्राय प्रसिद्ध गोस्वामी तुलसीदास जी से ही है, यह पूरी वार्ता पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है। उसमें स्पष्ट लिखा है कि नंददास जी का कृष्णोपासक होना राम के अनन्य भक्त उनके भाई तुलसीदास जी को अच्छा नहीं लगा और उन्होंने उलाहना लिखकर भेजा। यह वाक्य भी उसमें आया है 'सो एक दिन नंददास जी के मन में ऐसी आई। जैसे तुलसीदास जी ने रामायण भाषा करी है सो हम हूँ श्रीमद्भागवत भाषा करें।' गोस्वामी जी का नंददास के साथ वृंदावन जाना और वहाँ 'तुलसी मस्तक तब नवै धानुष बान लेव हाथ' वाली घटना भी उक्त वार्ता में ही लिखी है। पर गोस्वामी जी का नंददास जी से कोई संबंध न था, यह बात पूर्णतया सिद्ध हो चुकी है। अत: उक्त वार्ता की बातों को, जो वास्तव में भक्तों का गौरव प्रचलित करने और बल्लभाचार्य जी की गद्दी की महिमा करने के लिए पीछे से लिखी गई है, प्रमाण कोटि में नहीं ले सकते।

उसी वार्ता में यह भी लिखा है कि द्वारका जाते हुए नंददास जी सिंधुनद ग्राम में एक रूपवती खत्रानी पर आसक्त हो गए। ये उस स्त्री के घर के चारों ओर चक्कर लगाया करते थे। घर वाले हैरान होकर कुछ दिनों के लिए गोकुल चले गए। वहाँ भी वे जा पहुँचे। अंत में वहीं पर गोसाईं विट्ठलनाथ जी के सदुपदेश से इनका मोह छूटा और ये अनन्य भक्त हो गए। इस कथा में ऐतिहासिक तथ्य केवल इतना ही है कि इन्होंने गोसाईं विट्ठलनाथ जी से दीक्षा ली। धारुवदासजी ने भी अपनी 'भक्तनामावली' में इनकी भक्ति की प्रशंसा के अतिरिक्त और कुछ नहीं लिखा है।

अष्टछाप में सूरदास जी के पीछे इन्हीं का नाम लेना पड़ता है। इनकी रचना भी बड़ी सरस और मधुर है। इनके संबंध में यह कहावत प्रसिद्ध है कि 'और कवि गढ़िया, नंददास जड़िया।' इनकी सबसे प्रसिद्ध पुस्तक 'रासपंचाध्यायी' है जो रोला छंदों में लिखी गई है। इसमें जैसा कि नाम से ही प्रकट है, कृष्ण की रासलीला का अनुप्रासादियुक्त साहित्यिक भाषा में विस्तार के साथ वर्णन है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, सूर ने स्वाभाविक चलती भाषा का ही अधिक आश्रय लिया है, अनुप्रास और चुने हुए संस्कृत पदविन्यास आदि की ओर प्रवृत्ति नहीं दिखाई है, पर नंददास जी में ये बातें पूर्ण रूप से पाई जाती हैं। 'रासपंचाध्यायी' के अतिरिक्त इन्होंने ये पुस्तकें लिखी हैं

भागवत दशम स्कंध, रुक्मिणीमंगल, सिध्दांत पंचाध्यायी, रूपमंजरी, रसमंजरी, मानमंजरी, विरहमंजरी, नामचिंतामणिमाला, अनेकार्थनाममाला (कोश), दानलीला, मानलीला, अनेकार्थमंजरी, ज्ञानमंजरी, श्यामसगाई, भ्रमरगीत और सुदामाचरित्र। दो ग्रंथ इनके लिखे और कहे जाते हैं हितोपदेश और नासिकेतपुराण (गद्य में)। दो सौ से ऊपर इनके फुटकल पद भी मिले हैं। जहाँ तक ज्ञात है, इनकी चार पुस्तकें ही अब तक प्रकाशित हुई हैं रासपंचध्यायी, भ्रमरगीत, अनेकार्थमंजरी और अनेकार्थनाममाला। इनमें रासपंचाध्यायी और भ्रमरगीत ही प्रसिद्ध हैं, अत: उनसे कुछ अवतरण नीचे दिए जाते हैं

(रासपंचाध्यायी से)

ताही छिन उडुराज उदित रस रास सहायक।

कुंकुम मंडित बदन प्रिया जनु नागरि नायक

कोमल किरन अरुन मानो बन ब्यापि रही यों।

मनसिज खेल्यौ फाग घुमड़ि घुरि रह्यो गुलाल ज्यों।

फटिक छटा सी किरन कुजरंधा्रन जब आई।

मानहुँ बितत बितान सुदेस तनाव तनाई

तब लीनो कर कमल योगमाला सी मुरली।

अघटित घटना चतुर बहुरि अधारन सुर जुरली

(भ्रमरगीत से)

कहन स्याम संदेस एक मैं तुम पै आयो।

कहन समय संकेत कहूँ अवसर नहिं पायो

सोचत ही मन में रह्यो, कब पाऊँ इक ठाउँ।

कहि सँदेस नँदलाल को, बहुरि मधुपुरी जाउँ

सुनौ ब्रजनागरी।

जौ उनके गुन होय, वेद क्यों नेति बखानै।

निरगुन सगुन आतमा रुचि ऊपर सुख सानै

वेद पुराननि खोजि कै पायो कतहुँ न एक।

गुन ही के गुन होहि तुम, कहो अकासहि टेक

सुनौ ब्रजनागरी।

जौं उनके गुन नाहिं और गुन भए कहाँ ते।

बीज बिना तरु जमै मोहिं तुम कहौ कहाँ ते

वा गुन की परछाँह री माया दरपन बीच।

गुन तें गुन न्यारे भए, अमल वारि जल कीच

सखा सुनु श्याम के।

3. कृष्णदास ये भी बल्लभाचार्य जी के शिष्य और अष्टछाप में थे। यद्यपि ये शूद्र थे पर आचार्य जी के बड़े कृपापात्र और मंदिर के प्रधान मुखिया हो गए थे। 'चौरासी वैष्णवों की वार्ता' में इनका कुछ वृत्त दिया हुआ है। एक बार गोसाईं विट्ठलनाथ जी से किसी बात पर अप्रसन्न होकर इन्होंने उनकी डयोढ़ी बंद कर दी। इस पर गोसाईं विट्ठलनाथ जी के कृपापात्र महाराज बीरबल ने इन्हें कैद कर लिया। पीछे गोसाईं जी इस बात से बड़े दुखी हुए और इनको कारागार से मुक्त कराके प्रधान के पद पर फिर ज्यों का त्यों प्रतिष्ठित कर दिया। इन्होंने भी और सब कृष्णभक्तों के समान राधाकृष्ण के प्रेम को लेकर श्रृंगार रस के ही पद गाए हैं। 'जुगलमान चरित्र' नामक इनका एक छोटा सा ग्रंथ मिलता है। इसके अतिरिक्त इनके बनाए दो ग्रंथ और कहे जाते हैं भ्रमरगीत और प्रेमतत्वनिरूपण। फुटकल पदों के संग्रह इधर उधर मिलते हैं। सूरदास और नंददास के सामने इनकी कविता साधारण कोटि की है। इनके कुछ पद नीचे दिए जाते हैं

तरनि तनया तट आवत है प्रात समय,

कंदुक खेलत देख्यो आनंद को कँदवा

नूपुर पद कुनित, पीतांबर कटि बाँधो,

लाल उपरना, सिर मोरन के चँदवा


कंचन मनि मरकत रस ओपी।

नंदसुवन के संगम सुखकर अधिक विराजति गोपी

मनहुँ विधाता गिरिधर पिय हित सुरतधुजा सुख रोपी।

बदन कांति कै सुनु री भामिनी! सघन चंदश्री लोपी

प्राननाथ के चित चोरन को भौंह भुजंगम कोपी।

कृष्णदास स्वामी बस कीन्हें, प्रेमपुंज को चोपी


मो मन गिरधार छवि पै अटक्यो।

ललित त्रिभंग चाल पै चलि कै, चिबुक चारि गड़ि ठटक्यो।

सजल स्याम घन बरन लीन ह्वै, फिरि चित अनत न भटक्यो।

कृष्णदास किए प्रान निछावर, यह तन जग सिर पटक्यो

कहते हैं कि इसी अंतिम पद को गाकर कृष्णदासजी ने शरीर छोड़ा था। इनका कविता काल संवत् 1600 के आगे पीछे माना जा सकता है।

4. परमानंददास यह भी बल्लभाचार्य जी के शिष्य और अष्टछाप में थे। ये संवत् 1606 के आसपास वर्तमान थे। इनका निवास स्थान कन्नौज था। इसी से ये कान्यकुब्ज अनुमान किए जाते हैं। ये अत्यंत तन्मयता के साथ बड़ी ही सरल कविता करते थे। कहते हैं कि इनके किसी एक पद को सुनकर आचार्य जी कई दिनों तक तन बदन की सुध भूले रहे। इनके फुटकल पद कृष्णभक्तों के मुँह से प्राय: सुनने में आते हैं। इनके 835 पद 'परमानंदसागर' में हैं। दो पद देखिए

कहा करौ बैकुंठहि जाय?

जहँ नहिं नंद, जहाँ न जसोदा, नहिं जहँ गोपी ग्वाल न गाय।

जहँ नहिं जल जमुना को निर्मल और नहीं कदमन की छायँ।

परमानंद प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तजि मेरी जाय बलाय


राधो जू हारावलि टूटी।

उरज कमलदल माल मरगजी, बाम कपोल अलक लट छूटी

बर उर उरज करज बिच अंकित, बाहु जुगल बलयावलि फूटी।

कंचुकि चीर बिबिधा रंग रंजित, गिरधार अधार माधुरी घूँटी

आलस बलित नैन अनियारे, अरुन उनींदे रजनी खूटी।

परमानंद प्रभु सुरति समय रस मदन नृपति की सेना लूटी

5. कुंभनदास ये भी अष्टछाप के एक कवि थे और परमानंद जी के ही समकालीन थे। वे पूरे विरक्त और धान, मान मर्यादा की इच्छा से कोसों दूर थे। एक बार अकबर बादशाह के बुलाने पर इन्हें फतेहपुर सीकरी जाना पड़ा जहाँ इनका बड़ा सम्मान हुआ। पर इसका इन्हें बराबर खेद ही रहा, जैसा कि इस पद से व्यंजित होता है

संतन को कहा सीकरी सों काम?

आवत जात पहनियाँ टूटी, बिसरि गयो हरि नाम

जिनको मुख देखे दुख उपजत, तिनको करिबे परी सलाम।

कुंभनदास लाल गिरिधर बिनु और सबै बेकाम

इनका कोई ग्रंथ न तो प्रसिद्ध है और न अब तक मिला है। फुटकल पद अवश्य मिलते हैं। विषय वही कृष्ण की बाललीला और प्रेमलीला है

तुम नीके दुहि जानत गैया।

चलिए कुँवर रसिक मनमोहन लागौं तिहारे पैयाँ

तुमहिं जानि करि कनक दोहनी घर तें पठई मैया।

निकटहि है यह खरिक हमारो, नागर लेहुँ बलैया

देखियत परम सुदेस लरिकई चित चहुँटयो सुंदरैया।

कुंभनदास प्रभु मानि लई रति गिरि गोबरधान रैया

6. चतुर्भुजदास ये कुंभनदासजी के पुत्र और गोसाईं विट्ठलनाथ जी के शिष्य थे। ये भी अष्टछाप के कवियों में हैं। इनकी भाषा चलती और सुव्यवस्थित है। इनके बनाए तीन ग्रंथ मिले हैं द्वादशयश, भक्तिप्रताप तथा हितजू को मंगल।

इनके अतिरिक्त फुटकल पदों के संग्रह भी इधर उधर पाए जाते हैं। एक पद नीचे दिया जाता है

जसोदा! कहा कहौं हौं बात।

तुम्हरे सुत के करतब मो पै कहत कहे नहिं जात

भाजन फोरि, ढारि सब गोरस, लै माखन दधि खात।

जौ बरजौं तौ ऑंखि दिखावै, रंचहु नाहिं सकात

और अटपटी कहँ लौ बरनौं, छुवत पानि सों गात।

दास चतुर्भुज गिरिधर गुन हौं कहति कहति सकुचात

7. छीतस्वामी ये विट्ठलनाथ जी के शिष्य और अष्टछाप के अंतर्गत थे। पहले ये मथुरा के एक सुसंपन्न पंडा थे और राजा बीरबल ऐसे लोग इनके जजमान थे। पंडा होने के कारण ये पहले बड़े अक्खड़ और उद्दंड थे, पीछे गोस्वामी विट्ठलनाथ जी से दीक्षा लेकर परम शांत भक्त हो गए और श्रीकृष्ण का गुणानुवाद करने लगे। इनकी रचनाओं का समय संवत् 1612 के इधर मान सकते हैं। इनके फुटकल पद ही लोगों के मुँह से सुने जाते हैं या इधर उधर संग्रहीत मिलते हैं। इनके पदों में श्रृंगार के अतिरिक्त ब्रजभूमि के प्रति प्रेमव्यंजना भी अच्छी पाई जाती है। 'हे विधाना तोसों अंचरा पसारि माँगौं जनम जनम दीजो याही ब्रज बसिबो' पद इन्हीं का है। अष्टछाप के और कवियों की सी मधुरता और सरसता इनके पदों में भी पाई जाती है, देखिए

भोर भए नवकुंज सदन तें, आवत लाल गोवर्ध्दनधारी।

लटपट पाग मरगजी माला, सिथिल अंग डगमग गति न्यारी

बिनु गुन माल बिराजति उर पर, नखछत द्वैज चंद अनुहारी।

छीतस्वामी जब चितए मो तन, तब हौं निरखि गई बलिहारी

8. गोविंदस्वामी ये अंतरी के रहनेवाले सनाढय ब्राह्मण थे जो विरक्त की भाँति आकर महावन में रहने लगे थे। पीछे गोस्वामी विट्ठलनाथ जी के शिष्य हुए जिन्होंने इनके रचे पदों से प्रसन्न होकर इन्हें अष्टछाप में लिया। ये गोवर्ध्दन पर्वत पर रहते थे और उसके पास ही इन्होंने कदंबों का एक अच्छा उपवन लगाया था जो अब तक 'गोविंदस्वामी की कदंबखंडी' कहलाता है। इनका रचनाकाल संवत् 1600 और 1625 के भीतर ही माना जा सकता है। ये कवि होने के अतिरिक्त बड़े पक्के गवैये थे। तानसेन कभी कभी इनका गाना सुनने के लिए आया करते थे। इनका बनाया एक पद दिया जाता है

प्रात समय उठि जसुमति जननी गिरिधर सुत को उबटि न्हवावति।

करि सिंगार बसन भूषन सजि फूलन रचि रचि पाग बनावति।

छुटे बंद बागे अति सोभित, बिच बिच चोव अरगजा लावति।

सूथन लाल फूँदना सोभित, आजु कि छबि कछु कहति न आवति

बिबिधा कुसुम की माला उर धारि श्री कर मुरली बेंत गहावति।

लै दरपन देखे श्रीमुख को, गोविंद प्रभु चरननि सिर नावति

9. हितहरिवंश राधाबल्लभी संप्रदाय के प्रवर्तक गोसाईं हितहरिवंश का जन्म संवत् 1559 में मथुरा से 4 मील दक्षिण बादगाँव में हुआ था। राधाबल्लभी संप्रदाय के पं. गोपालप्रसाद शर्मा ने इनका जन्म संवत् 1530 माना है, जो सब घटनाओं पर विचार करने से ठीक नहीं जान पड़ता। ओरछानरेश महाराज मधुकरशाह के राजगुरु श्री हरिराम व्यास जी संवत् 1622 के लगभग आपके शिष्य हुए थे। हितहरिवंश जी गौड़ ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम केशवदास मिश्र और माता का नाम तारावती था।

कहते हैं कि हितहरिवंश जी पहले माधवानुयायी गोपाल भट्ट के शिष्य थे। पीछे इन्हें स्वप्न में राधिका जी ने मंत्र दिया और इन्होंने अपना एक अलग संप्रदाय चलाया। अत: हित संप्रदाय को माधव संप्रदाय के अंतर्गत मान सकते हैं। हितहरिवंश जी के चार पुत्र और एक कन्या हुई। पुत्रों के नाम वनचंद्र, कृष्णचंद्र, गोपीनाथ और मोहनलाल थे। गोसाईं जी ने संवत् 1582 में श्री राधाबल्लभ जी की मूर्ति वृंदावन में स्थापित की और वहीं विरक्त भाव से रहने लगे। ये संस्कृत के अच्छे विद्वान और भाषा काव्य के अच्छे मर्मज्ञ थे। 170 श्लोकों का 'राधासुधानिधि' आप ही का रचा कहा जाता है। ब्रजभाषा की रचना आपकी यद्यपि बहुत विस्तृत नहीं है, तथापि है बड़ी सरस और हृदयग्राहिणी। आपके पदों का संग्रह 'हित चौरासी' के नाम से प्रसिद्ध है क्योंकि उसमें 84 पद हैं। प्रेमदास की लिखी इस ग्रंथ की एक बहुत बड़ी टीका (500 पृष्ठों की) ब्रजभाषा गद्य में है।

इनके द्वारा ब्रजभाषा की काव्यश्री के प्रसार में बड़ी सहायता पहुँची। इनके कई शिष्य अच्छे अच्छे कवि हुए हैं। हरिराम व्यास ने इनके गोलोकवास पर बड़े चुभते पद कहे हैं। सेवक जी, ध्रुवदास आदि इनके शिष्य बड़ी सुंदर रचना कर गए हैं। अपनी रचना की मधुरता के कारण हितहरिवंश जी श्रीकृष्ण की वंशी के अवतार कहे जाते हैं। इनका रचनाकाल संवत् 1600 से संवत् 1640 तक माना जा सकता है। 'हित चौरासी' के अतिरिक्त इनकी फुटकल बानी भी मिलती है जिसमें सिध्दांत संबंधी पद हैं। इनके 'हित चौरासी' पर लोकनाथ कवि ने एक टीका लिखी है। वृंदावन ने इनकी स्तुति और वंदना में 'हितजी की सहस्रनामावली' और चतुर्भुजदास ने 'हितजू को मंगल' लिखा है। इसी प्रकार हितपरमानंद जी और ब्रजजीवनदास ने इनकी जन्म बधाइयाँ लिखी हैं। हितहरिवंश की रचना के कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते हैं जिनसे इनकी वर्णन प्रचुरता का परिचय मिलेगाए

(सिध्दांत संबंधी कुछ फुटकल पदों से)

रहौ कोउ काहू मनहिं दिए।

मेरे प्राननाथ श्री स्यामा सपथ करौं तिन छिए

जो अवतार कदंब भजत हैं धारि दृढ़ ब्रत जु हिए।

तेऊ उमगि तजत मर्यादा बन बिहार रस पिए

खोए रतन फिरत जो घर घर कौन काज इमि जिए ?

हितहरिबंस अनत सचु नाहीं बिन या रसहिं पिए

(हित चौरासी से)

ब्रज नव तरुनि कदंब मुकुटमनि स्यामा आजु बनी।

नख सिख लौं अंग अंग माधुरी मोहे स्याम धानी

यों राजति कबरी गूथित कच कनक कंज बदनी।

चिकुर चंद्रिकन बीच अधार बिधु मानौ ग्रसित फनी॥

सौभग रस सिर स्रवत पनारी पिय सीमंत ठनी।

भ्रृकुटि काम कोदंड, नैन सर, कज्जल रेख अनी

भाल तिलक, ताटंक गंड पर, नासा जलज मनी।

दसन कुंद, सरसाधार पल्लव, पीतम मन समनी

हितहरिबंस प्रसंसित स्यामा कीरति बिसद घनी।

गावत श्रवननि सुनत सुखाकर विश्व दुरित दवनी


बिपिन घन कुंज रति केलि भुज मेलि रुचि

स्याम स्यामा मिले सरद की जामिनी।

हृदय अति फूल, रसमूल पिय नागरी

कर निकर मत्ता मनु बिबिधा गुन रागिनी

सरस गति हास परिहास आवेस बस

दलित दल मदन बल कोक रस कामिनी।

हितहरिबंस सुनि लाल लावन्य भिदे

प्रिया अति सूर सुख सूरत संग्रामिनी

10. गदाधर भट्ट ये दक्षिणी ब्राह्मण थे। इनके जन्म संवत् आदि का ठीक ठीक पता नहीं। पर यह बात प्रसिद्ध है कि ये श्री चैतन्य महाप्रभु को भागवत सुनाया करते थे। इसका समर्थन भक्तमाल की इन पंक्तियों से भी होता है

भागवत सुधा बरखै बदन, काहू को नाहिंन दुखद।

गुणनिकर गदाधार भट्ट अति सबहिन को लागै सुखद

श्री चैतन्य महाप्रभु का आविर्भाव संवत् 1542 में और गोलोकवास 1584 में माना जाता है। अत: संवत् 1584 के भीतर ही आपने श्री महाप्रभु से दीक्षा ली होगी। महाप्रभु के जिन छह विद्वान शिष्यों ने गौड़ीय संप्रदाय के मूल संस्कृत ग्रन्थों की रचना की थी उनमें जीव गोस्वामी भी थे। ये वृंदावन में रहते थे। एक दिन दो साधुओं ने जीव गोस्वामी के सामने गदाधार भट्टजी का यह पद सुनाया

सखी हौं स्याम रंग रँगी।

देखि बिकाय गई वह मूरति, सूरत माँहि पगी

संग हुतो अपनो सपनो सो सोइ रही रस खोई।

जागेहु आगे दृष्टि परै, सखि, नेकु न न्यारो होई

एक जु मेरी अंखियन में निसि द्यौस रह्यो करि भौन।

गाय चरावन जात सुन्यो, सखि सो धौं कन्हैया कौन?

कासौं कहौं कौन पतियावै कौन करे बकवाद?

कैसे कै कहि जाति गदाधार, गूँगे ते गुर स्वाद?

इस पद को सुन जीव गोस्वामी ने भट्टजी के पास यह श्लोक लिख भेजाए

अनाराधय राधापदाम्भोजयुग्ममाश्रित्य वृन्दाटवीं तत्पदा(म्।

असम्भाष्य तद्भावगम्भीरचित्तान कुत:श्यामासिन्धो: रहस्यावगाह:

यह श्लोक पढ़कर भट्ट जी मूर्छित हो गए फिर सुध आने पर सीधे वृंदावन में जाकर चैतन्य महाप्रभु के शिष्य हुए। इस वृत्तांत को यदि ठीक मानें तो इनकी रचनाओं का आरंभ 1580 से मानना पड़ता है और अंत संवत् 1600 के पीछे। इस हिसाब से इनकी रचना का प्रादुर्भाव सूरदास जी के रचनाकाल के साथ साथ अथवा उससे भी कुछ पहले से मानना होगा।

संस्कृत के चूड़ांत पंडित होने के कारण शब्दों पर इनका बहुत विस्तृत अधिकार था। इनका पदविन्यास बहुत ही सुंदर है। गोस्वामी तुलसीदास जी के समान इन्होंने संस्कृत पदों के अतिरिक्त संस्कृतगर्भित भाषा कविता भी की है। नीचे कुछ उदाहरण दिए जाते हैं

जयति श्री राधिके, सकल सुख साधिके,

तरुनि मनि नित्य नव तन किसोरी।

कृष्ण तन लीन मन, रूप की चातकी,

कृष्ण मुख हिम किरन की चकोरी

कृष्ण दृग भृंग विश्राम हित पद्मिनी,

कृष्ण दृग मृगज बंधान सुडोरी।

कृष्ण अनुराग मकरंद की मधुकरी,

कृष्ण गुन गान रससिंधु बोरी

विमुख पर चित्त तें चित्त जाको सदा,

करति निज नाह कै चित्त चोरी।

प्रकृति यह गदाधार कहत कैसे बने,

अमित महिमा, इतै बुद्धि थोरी

झूलति नागरि नागर लाल।

मंद मंद सब सखी झुलावति, गावति गीत रसाल

फरहरात पट पीत नील के, अंचल चंचल चाल।

मनहुँ परस्पर उमगि ध्यान छबि, प्रगट भई तिहि काल

सिलसिलात अति प्रिया सीस तें, लटकति बेनी भाल।

जन प्रिय मुकुट बरहि भ्रम बस तहँ ब्याली बिकल बिहाल

मल्लीमाल प्रिया के उर की, पिय तुलसीदल माल।

जनु सुरसरि रवितनया मिलिकै सोभित श्रेनि मराल

स्यामल गौर परस्पर प्रति छबि, सोभा बिसद विसाल।

निरखि गदाधार रसिक कुँवरि मन परयो सुरस जंजाल

11. मीराबाई ये मेड़तिया के राठौर रत्नसिंह की पुत्री, राव दूदाजी की पौत्री और जोधपुर के बसाने वाले प्रसिद्ध राव जोधा जी की प्रपौत्री थीं। इनका जन्म संवत् 1573 में चोकड़ी नाम के एक गाँव में हुआ था और विवाह उदयपुर के महाराणा कुमार भोजराज जी के साथ हुआ था। ये आरंभ से ही कृष्णभक्ति में लीन रहा करती थीं। विवाह के उपरांत थोड़े दिनों में इनके पति का परलोकवास हो गया। ये प्राय: मंदिर में जाकर उपस्थित भक्तों और संतों के बीच श्रीकृष्ण भगवान की मूर्ति के सामने आनंदमग्न होकर नाचती और गाती थीं। कहते हैं कि इनके इस राजकुलविरुद्ध आचरण से इनके स्वजन लोकनिंदा के भय से रुष्ट रहा करते थे। यहाँ तक कहा जाता है कि इन्हें कई बार विष देने का प्रयत्न किया गया, पर भगवत् कृपा से विष का कोई प्रभाव इन पर न हुआ। घर वालों के व्यवहार से खिन्न होकर ये द्वारका और वृंदावन के मंदिरों में घूम-घूमकर भजन सुनाया करती थीं। जहाँ जातीं वहाँ इनका देवियों का सा सम्मान होता। ऐसा प्रसिद्ध है कि घरवालों से तंग आकर इन्होंने गोस्वामी तुलसीदास जी को यह पद लिखकर भेजा थाए

स्वस्ति श्री तुलसी कुल भूषन दूषन हरन गोसाईं।

बारहिं बार प्रनाम करहुँ, अब हरहु सोक समुदाई

घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढ़ाई।

साधु संग अरु भजन करत मोहिं देत कलेस महाई

मेरे मात पिता के सम हौ, हरिभक्तन्ह सुखदाई।

हमको कहा उचित करिबो है, सो लिखिए समझाई

इस पर गोस्वामी जी ने विनयपत्रिका का यह पद लिखकर भेजा था

जाके प्रिय न राम बैदेही।

सो नर तजिय कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही

× × × ×

नाते सबै राम के मनियत सुहृद सुसेव्य जहाँ लौं।

अंजन कहा ऑंखि जौ फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं

पर मीराबाई की मृत्यु द्वारका में संवत् 1603 में हो चुकी थी। अत: यह जनश्रुति किसी की कल्पना के आधार पर ही चल पड़ी।

मीराबाई की उपासना 'माधुर्यभाव' की थी अर्थात् वे अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण की भावना प्रियतम या पति के रूप में करती थीं। पहले यह कहा जा चुका है कि इस भाव की उपासना में रहस्य का समावेश अनिवार्य है। 2 इसी ढंग की उपासना का प्रचार सूफी भी कर रहे थे अत: उनका संस्कार भी इन पर अवश्य कुछ पड़ा। जब लोग इन्हें खुले मैदान मंदिरों में पुरुषों के सामने जाने से मना करते तब वे कहतीं कि 'कृष्ण के अतिरिक्त और पुरुष है कौन जिसके सामने लज्जा करूँ?' मीराबाई का नाम भारत के प्रधान भक्तों में है और इनका गुणगान नाभाजी, ध्रुवदास, व्यास जी, मलूकदास आदि सब भक्तों ने किया है। इनके पद कुछ तो राजस्थानी मिश्रित भाषा में हैं और कुछ विशुद्ध साहित्यिक ब्रजभाषा में। पर सबमें प्रेम की तल्लीनता समान रूप से पाई जाती है। इनके बनाए चार ग्रंथ कहे जाते हैं नरसीजी का मायरा, गीतगोविंद टीका, राग गोविंद, राग सोरठ के पद।

इनके दो पद नीचे दिए जाते हैं

बसो मेरे नैनन में नंदलाल।

मोहनि मूरति, साँवरि सूरति, नैना बने रसाल।

मोर मुकुट मकराकृत कुंडल, अरुन तिलक दिए भाल

अधार सुधारस मुरली राजति, उर बैजंती माल

छुद्रघंटिका कटि तट सोभित, नूपुर शब्द रसाल

मीरा प्रभु संतन सुखदाई, भक्तबछल गोपाल


मन रे परसि हरि के चरन।

सुभग सीतल कमल कोमल त्रिविधा ज्वाला हरन

जो चरन प्रहलाद परसे इंद्र पदवी हरन।

जिन चरन धु्रव अटल कीन्हौं राखि अपनी सरन

जिन चरन ब्रह्मांड भेटयो नखसिखौ श्री भरन।

जिन चरन प्रभु परस लीन्हें तरी गौतम घरनि

जिन चरन धारयो गोबरधान गरब-मघवा-हरन।

दासि मीरा लाल गिरधार अगम तारन तरन

12. स्वामी हरिदास ये महात्मा वृंदावन में निंबार्क मतांतर्गत टट्टी संप्रदाय के संस्थापक थे और अकबर के समय में एक सिद्ध भक्त और संगीत कला कोविद माने जाते थे। कविताकाल संवत् 1600 से 1617 ठहरता है। प्रसिद्ध गायनाचार्य तानसेन इनका गुरुवत् सम्मान करते थे। यह प्रसिद्ध है कि अकबर बादशाह साधु के वेश में तानसेन के साथ इनका गाना सुनने के लिए गया था। कहते हैं कि तानसेन इनके सामने गाने लगे और उन्होंने जान बूझकर गाने में कुछ भूल कर दी। इस पर स्वामी हरिदास ने उसी गान को शुद्ध करके गाया। इस युक्ति से अकबर को इनका गाना सुनने का सौभाग्य प्राप्त हो गया। पीछे अकबर ने बहुत कुछ पूजा चढ़ानी चाही, पर इन्होंने स्वीकृत न की। इनका जन्म संवत् आदि कुछ ज्ञात नहीं, पर इतना निश्चित है कि ये सनाढय ब्राह्मण थे जैसा कि सहचरि सरनदास जी ने, जो इनकी शिष्य परंपरा में थे, लिखा है। वृंदावन से उठकर स्वामी हरिदास जी कुछ दिन निधुवन में रहे थे। इनके पद कठिन राग रागिनियों में गाने योग्य हैं। पढ़ने में कुछ ऊबड़ खाबड़ लगते हैं। पदविन्यास भी और कवियों के समान सर्वत्र मधुर और कोमल नहीं हैं, पर भाव उत्कृष्ट हैं। इनके पदों के तीन चार संग्रह 'हरिदास जी के ग्रंथ', 'स्वामी हरिदास जी के पद' 'हरिदास जी की बानी' आदि नामों से मिलते हैं। एक पद देखिए

ज्यों ही ज्यों ही तुम राखत हौं, त्यों ही त्यों ही रहियत हौं, हे हरि!

और अपरचै पाय धारौं सुतौं कहौं कौन के पैड भरि

जदपि हौं अपनो भायो कियो चाहौं, कैसे करि सकौं जो तुम राखौ पकरि।

कहै हरिदास पिंजरा के जनावर लौं तरफराय रह्यौ उड़िबे को कितोऊ करि

13. सूरदास मदनमोहन ये अकबर के समय में संडीले के अमीन थे। जाति के ब्राह्मण और गौड़ीय संप्रदाय के वैष्णव थे। ये जो कुछ पास में आता प्राय: सब साधुओं की सेवा में लगा दिया करते थे। कहते हैं कि एक बार संडीले तहसील की मालगुजारी के कई लाख रुपये सरकारी खजाने में आए थे। इन्होंने सबका सब साधुओं को खिला पिला दिया और शाही खजाने में कंकड़ पत्थरों से भरे संदूक भेज दिए जिनके भीतर कागज के चिट यह लिखकर रख दिए

तेरह लाख सँडीले आए, सब साधुन मिलि गटके।

सूरदास मदनमोहन आधी रातहिं सटके

और आधी रात को उठकर कहीं भाग गए। बादशाह ने इनका अपराध क्षमा करके इन्हें फिर बुलाया, पर ये विरक्त होकर वृंदावन में रहने लगे। इनकी कविता इतनी सरस होती थी कि इनके बनाए बहुत से पद सूरसागर में मिल गए। इनकी कोई पुस्तक प्रसिद्ध नहीं। कुछ फुटकल पद लोगों के पास मिलते हैं। इनका रचनाकाल संवत् 1590 और 1600 के बीच अनुमान किया जाता है। इनके दो पद नीचे दिए जाते हैं

मधु के मतवारे स्याम! खोलौ प्यारे पलकैं।

सीस मुकुट लटा छुटी और छुटी अलकै

सुर नर मुनि द्वार ठाढ़े, दरस हेतु कलकैं।

नासिका के मोती सोहै बीच लाल ललकैं

कटि पीतांबर मुरली कर श्रवन कुंडल झलकै।

सूरदास मदनमोहन दरस दैहौं भलकै


नवल किसोर नवल नागरिया।

अपनी भुजा स्याम भुज ऊपर, स्याम भुजा अपने उर धारिया

करत विनोद तरनि तनया तट, स्यामा स्याम उमगि रस भरिया।

यौं लपटाइ रहे उर अंतर मरकत मनि कंचन ज्यों जरिया

उपमा को घन दामिनी नाहीं, कँदरप कोटि वारने करिया।

सूर मदनमोहन बलि जोरी नंदनंदन बृषभानु दुलरिया

14. श्रीभट्ट ये निंबार्क संप्रदाय के प्रसिद्ध विद्वान केशव कश्मीरी के प्रधान शिष्य थे। इनका जन्म संवत् 1595 में अनुमान किया जाता है अत: इनका कविताकाल संवत् 1625 या उसके कुछ आगे तक माना जा सकता है। इनकी कविता सीधी सादी और चलती भाषा में है। पद भी प्राय: छोटे छोटे हैं। इनकी कृति भी अधिक विस्तृत नहीं है पर 'युगल शतक' नाम का इनका 100 पदों का एक ग्रंथ कृष्णभक्तों में बहुत आदर की दृष्टि से देखा जाता है। 'युगल शतक' के अतिरिक्त इनकी एक छोटी सी पुस्तक 'आदि वाणी' भी मिलती है। ऐसा प्रसिद्ध है कि जब ये तन्मय होकर अपने पद गाने लगते थे तब कभी कभी उस पद के ध्यानानुरूप इन्हें भगवान की झलक प्रत्यक्ष मिल जाती थी। एक बार वे यह मलार गा रहे थे

भीजत कब देखौं इन नैना।

स्यामाजू की सुरँग चूनरी, मोहन को उपरैना

कहते हैं कि राधाकृष्ण इसी रूप में इन्हें दिखाई पड़ गए और इन्होंने पद इस प्रकार पूरा किया

स्यामा स्याम कुंजतर ठाढ़े, जतन कियो कछु मैं ना।

श्रीभट उमड़ि घटा चहुँ दिसि से घिरि आई जल सेना

इनके 'युगल शतक' से दो पद उध्दृत किए जाते हैं

ब्रजभूमि मोहनि मैं जानी।

मोहन कुंज, मोहन वृंदावन, मोहन जमुना पानी

मोहन नारि सकल गोकुल की बोलति अमरित बानी।

श्रीभट्ट के प्रभु मोहन नागर, 'मोहनि राधा रानी'


बसौ मेरे नैननि में दोउ चंद।

गोर बदनि बृषभानु नंदिनी, स्यामबरन नँदनंद

गोलक रहे लुभाय रूप में निरखत आनंदकंद।

जय श्रीभट्ट प्रेमरस बंधान, क्यों छूटै दृढ़ फंद

15. व्यास जी इनका पूरा नाम हरीराम व्यास था और ये ओरछा के रहनेवाले सनाढय शुक्ल ब्राह्मण थे। ओरछानरेश मधुकरशाह के ये राजगुरु थे। पहले ये गौड़ संप्रदाय के वैष्णव थे, पीछे हितहरिवंश जी के शिष्य होकर राधावल्लभी हो गए। इनका काल संवत् 1620 के आसपास है। पहले ये संस्कृत के शास्त्रार्थी पंडित थे औरसदा शास्त्रार्थ करने के लिए तैयार रहते थे। एक बार वृंदावन में जाकर गोस्वामीहितहरिवंश जी को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा। गोसाईं जी ने नम्र भाव से यह पद कहा

यह जो एक मन बहुत ठौर करि कहि कौनै सचु पायो।

जहँ तहँ बिपति जार जुवती ज्यों प्रगट पिंगला गायो

यह पद सुनकर व्यास जी चेत गए और हितहरिवंश जी के अनन्य भक्त हो गए। उनकी मृत्यु पर इन्होंने इस प्रकार अपना शोक प्रकट किया

हुतो रस रसिकन को आधार।

बिन हरिबंसहि सरस रीति को कापै चलिहै भार?

को राधा दुलरावै गावै, बचन सुनावै कौन उचार?

वृंदावन की सहज माधुरी, कहिहै कौन उदार?

पद रचना अब कापै ह्वैहै? निरस भयो संसार।

बड़ो अभाग अनन्य सभा को, उठिगो ठाट सिंगार

जिन बिन दिन छिन जुग सम बीतत सहज रूप आगार।

व्यास एक कुल कुमुद चंद बिनु उडुगन जूठी थार

जब हितहरिवंश जी से दीक्षा लेकर व्यास जी वृंदावन में ही रह गए तब महाराज मधुकर साह इन्हें ओरछा ले जाने के लिए आए, पर ये वृंदावन छोड़कर न गए और अधीर होकर इन्होंने यह पद कहाए

वृंदावन के रूख हमारे माता पिता सुत बंधा।

गुरु गोविंद साधुगति मति सुख, फल फूलन की गंधा

इनहिं पीठि दै अनत डीठि करै सो अंधान में अंधा।

व्यास इनहिं छोड़ै और छुड़ावै ताको परियो कंधा

इनकी रचना परिमाण में भी बहुत विस्तृत है और विषयभेद के विचार से भी अधिकांश कृष्णभक्तों की अपेक्षा व्यापक है। ये श्रीकृष्ण की बाललीला और श्रृंगारलीला में लीन रहने पर भी बीच बीच में संसार पर भी दृष्टि डाला करते थे। इन्होंने तुलसीदास जी के समान खलों, पाखंडियों आदि का भी स्मरण किया है और रसगान के अतिरिक्त तत्वनिरूपण में भी ये प्रवृत्त हुए हैं। प्रेम को इन्होंने शरीर व्यवहार से अलग 'अतन' अर्थात् मानसिक या आध्यात्मिक वस्तु कहा है। ज्ञान, वैराग्य और भक्ति तीनों पर बहुत से पद और साखियाँ इनकी मिलती हैं। इन्होंने एक 'रासपंचाध्यायी' भी लिखी है, जिसे लोगों ने भूल से सूरसागर में मिला लिया है। इनकी रचना के थोड़े से उदाहरण यहाँ दिए जाते हैं

आज कछु कुंजन में बरषा सी।

बादल दल में देखि सखी री! चमकति है चपला सी।

नान्हीं नान्हीं बूँदन कछु धुरवा से, पवन बहै सुखरासी

मंद मंद गरजनि सी सुनियतु, नाचति मोरसभा सी।

इंद्रधानुष बगपंगति डोलति, बोलति कोककला सी

इंद्रबधाू छबि छाइ रही मनु, गिरि पर अरुनघटा सी

उमगि महीरुह स्यों महि फूली, भूली मृगमाला सी।

रटति प्यास चातक ज्यों रसना, रस पीवत हू प्यासी


सुघर राधिाका प्रवीन बीना, वर रास रच्यो,

स्याम संग वर सुढंग तरनि तनया तीरे।

आनंदकंद वृंदावन सरद मंद मंद पवन,

कुसुमपुंज तापदवन, धुनित कल कुटीरे

रुनित किंकनी सुचारु, नूपुर तिमि बलय हारु,

अंग बर मृदंग ताल तरल रंग भीरे

गावत अति रंग रह्यो, मोपै नहिं जात कह्यो,

व्यास रसप्रवाह बह्यो निरखि नैन सीरे

(साखी)

व्यास न कथनी काम की , करनी है इक सार।

भक्ति बिना पंडित वृथा , ज्यों खर चंदन भार

अपने अपने मत लगे , बादि मचावत सोर।

ज्यों त्यों सबको सेइबो , एकै नंदकिसोर

प्रेम अतन या जगत में , जानै बिरला कोय।

व्यास सतन क्यों परसि है , पचि हारयो जग रोय

सती, सूरमा संत जन , इन समान नहिं और।

आगम पंथ पै पग धारै , डिगे न पावैं ठौर

16. रसखानब ये दिल्ली के एक पठान सरदार थे। इन्होंने 'प्रेमवाटिका' में अपने को शाही खानदान का कहा है

देखि गदर हित साहिबी, दिल्ली नगर मसान।

छिनहिं बादसा बंस की, ठसक छाँड़ि रसखान

संभव है पठान बादशाहों की कुल परंपरा से इनका संबंध रहा हो। ये बड़े भारी कृष्णभक्त और गोस्वामी विट्ठलनाथ जी के बड़े कृपापात्र शिष्य थे। 'दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता' में इनका वृत्तांत आया है। उक्त वार्ता के अनुसार ये पहले एक बनिए के लड़के पर आसक्त थे। एक दिन इन्होंने किसी को कहते हुए सुना कि भगवान से ऐसा प्रेम करना चाहिए जैसे रसखान का उस बनिए के लड़के पर है। इस बात से मर्माहत होकर ये श्रीनाथजी को ढूँढ़ते ढूँढ़ते गोकुल आए और वहाँ गोसाईं विट्ठलनाथ जी से दीक्षा ली। यही आख्यायिका एक दूसरे रूप में भी प्रसिद्ध है। कहते हैं जिस स्त्री पर ये आसक्त थे वह बहुत मानवती थी और इनका अनादर किया करती थी। एक दिन ये श्रीमद्भागवत का फारसी तर्जुमा पढ़ रहेथे। उसमें गोपियों के अनन्य और अलौकिक प्रेम को पढ़ इन्हें ध्यान हुआ कि उसीमें क्यों न मन लगाया जाय जिस पर इतनी गोपियाँ मरती थीं। इसी बात पर ये वृंदावन चले आए। 'प्रेमवाटिका' के इस दोहे का संकेत लोग इस घटना की ओर बतातेहैं

तोरि मानिनी तें हियो फोरि मोहनी मान।

प्रेमदेव की छबिहि लखि भए मियाँ रसखान

इन प्रवादों से कम-से-कम इतना अवश्य सूचित होता है कि आरंभ से ही ये बड़े प्रेमी जीव थे। वही प्रेम अत्यंत गूढ़ भगवद्भक्ति में परिणत हुआ। प्रेम के ऐसे सुंदर उद्गार इनके सवैयों में निकले कि जनसाधारण प्रेम या श्रृंगार संबंधी कवित्त सवैयों को ही 'रसखान' कहने लगेएजैसे 'कोई रसखान सुनाओ।' इनकी भाषा बहुत चलती सरल और शब्दाडंबरमुक्त होती थी। शुद्ध ब्रजभाषा का जो चलतापन और सफाई इनकी और घनानंद की रचनाओं में है वह अन्यत्रा दुर्लभ है। इनका रचनाकाल संवत् 1640 के उपरांत ही माना जा सकता है क्योंकि गोसाईं विट्ठलनाथ जी का गोलोकवास संवत् 1643 में हुआ था। प्रेमवाटिका का रचनाकाल संवत् 1671 है। अत: उनके शिष्य होने के उपरांत ही इनकी मधुर वाणी स्फुरित हुई होगी। इनकी कृति परिमाण में तो बहुत अधिक नहीं हैं पर जो है वह प्रेमियों के मर्म को स्पर्श करनेवाली है। इनकी दो छोटी छोटी पुस्तकें अब तक प्रकाशित हुई हैंप्रेमवाटिका (दोहे) और सुजान रसखान (कवित्त सवैया)। और कृष्णभक्तों के समान इन्होंने 'गीतकाव्य' का आश्रय न लेकर कवित्त सवैयों में अपने सच्चे प्रेम की व्यंजना की है। ब्रजभूमि के सच्चे प्रेम से परिपूर्ण ये दो सवैये अत्यंत प्रसिद्ध हैं

मानुष हों तो वही रसखान बसौं सँग गोकुल गाँव के ग्वारन।

जौ पसु हों तो कहा बसु मेरो चरौं नित नंद की धोनु मझारन

पाहन हों तो वही गिरि को जो कियो हरि छत्रा पुरंदर धारन।

जौ खग हों तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी कूल कदंब की डारन


या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।

आठहु सिद्धि नवौ निधि के सुख नंद की गाय चराय बिसारौं

नैनन सों रसखान सबै ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।

केतक ही कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर वारौं

अनुप्रास की सुंदर छटा होते हुए भी भाषा की चुस्ती और सफाई कहीं नहीं जाने पाई है। बीच बीच में भावों की बड़ी सुंदर व्यंजना है। लीलापक्ष को लेकर इन्होंने बड़ी रंजनकारिणी रचनाएँ की हैं।

भगवान प्रेम के वशीभूत हैं, जहाँ प्रेम है वहीं प्रिय है, इस बात को रसखान यों कहते हैं

ब्रह्म मैं ढँढयो पुरानन गानन, वेदरिचा सुनी चौगुने चायन।

देख्यो सुन्यो कबहूँ न कहूँ वह कैसे सरूप और कैसे सुभायन

टेरत हेरत हारि परयो रसखान बतायो न लोग लुगायन।

देख्यो दुरो वह कुंज कुटीर में बैठो पलोटत राधिाका पाँयन

कुछ और नमूने देखिए

मोर पखा सिर ऊपर राखिहौ, गुंज की माल गले पहिरौंगी।

ओढ़ि पितांबर लै लकुटी बन गोधान ग्वालन संग फिरौंगी

भावतो सोई मेरो रसखान सो तेरे कहै सब स्वाँग करौंगी।

या मुरली मुरलीधार की अधारान धारी अधारा न धारौंगी

सेस महेस गनेस दिनेस सुरेसहु जाहिं निरंतर गावैं।

जाहि अनादि अनंत अखंड अछेद अभेद सुवेद बतावैं

नारद से सुक व्यास रटैं पचि हारे तऊ पुनि पार न पावैं।

ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भर छाछ पै नाच नचावैं

(प्रेमवाटिका से)

जेहि बिनु जाने कछुहि नहिं जान्यों जात बिसेस।

सोइ प्रेम जेहि जान कै रहि न जात कछु सेस

प्रेमफाँस सो फँसि मरै सोई जियै सदाहि।

प्रेम मरम जाने बिना मरि कोउ जीवत नाहिं

17. ध्रुवदास ये श्री हितहरिवंश जी के शिष्य स्वप्न में हुए थे। इसके अतिरिक्त इनका कुछ जीवनवृत्त नहीं प्राप्त हुआ है। ये अधिकतर वृंदावन ही में रहा करते थे। इनकी रचना बहुत ही विस्तृत है और इन्होंने पदों के अतिरिक्त दोहे, चौपाई, कवित्त, सवैये आदि अनेक छंदों में भक्ति और प्रेमतत्व का वर्णन किया है। छोटे मोटे सब मिलाकर इनके लगभग चालीस ग्रंथ मिले हैं जिनके नाम ये हैं

वृंदावनसत, सिंगारसत, रसरत्नावली, नेहमंजरी, रहस्यमंजरी, सुखमंजरी, रतिमंजरी, वनविहार, रंगविहार, रसविहार, आनंददसाविनोद, रंगविनोद, नृत्यविलास, रंगहुलास, मानरसलीला, रहसलता, प्रेमलता, प्रेमावली, भजनकुंडलिया, भक्तनामावली, मनसिंगार, भजनसत, प्रीतिचौवनी, रसमुक्तावली, बामन बृहत् पुराण की भाषा, सभा मंडली, रसानंदलीला, सिध्दांतविचार, रसहीरावली, हित सिंगार लीला, ब्रजलीला, आनंदलता, अनुरागलता, जीवदशा, वैद्यलीला, दानलीला, व्याहलो।

नाभा जी के भक्तमाल के अनुकरण पर इन्होंने 'भक्तनामावली' लिखी है जिसमें अपने समय तक के भक्तों का उल्लेख किया है। इनकी कई पुस्तकों में संवत् दिए हैं जैसे सभामंडली 1681, वृंदावनसत 1686 और रसमंजरी 1698। अत: इनका रचनाकाल संवत् 1660 से 1700 तक माना जा सकता है। इनकी रचना के कुछ नमूने नीचे दिए जाते हैं

('सिंगारसत' से)

रूपजल उठत तरंग हैं कटाछन के,

अंग अंग भौंरन की अति गहराई है।

नैनन को प्रतिबिंब परयो है कपोलन में,

तेई भए मीन तहाँ, ऐसी उर आई है

अरुन कमल मुसुकान मानो फबि रही,

थिरकन बेसरि के मोती की सुहाई है।

भयो है मुदित सखी लाल को मराल मन,

जीवन जुगल ध्रुव एक ठाँव पाई है

('नेहमंजरी' से)

प्रेम बात कछु कहि नहिं जाई । उलटी चाल तहाँ सब भाई

प्रेम बात सुनि बौरो होई। तहाँ सयान रहै नहिं कोई

तन मन प्रान तिही छिनहारे । भली बुरी कछुवै न विचारे

ऐसो प्रेम उपजिहै जबहीं । हित ध्रुव बात बनैगी तबहीं

('भजनसत' से)

बहु बीती थोरी रही, सोऊ बीती जाय।

हित ध्रुव बेगि बिचारि कै बसि वृंदावन आय

बसि वृंदावन आय त्यागि लाजहि अभिमानहि।

प्रेमलीन ह्वै दीन आपको तृन सम जानहि

सकल सार कौ सार, भजन तू करि रस रीती।

रे मन सोच विचार, रही थोरी, बहु बीती

कृष्णोपासक भक्त कवियों की परंपरा अब यहीं समाप्त की जाती है। पर इसका अभिप्राय यह नहीं कि ऐसे भक्त कवि आगे और नहीं हुए। कृष्णगढ़ नरेश महाराज नागरीदासजी, अलबेली अलिजी, चाचा हितवृंदावनदासजी, भगवत रसिक आदि अनेक पहुँचे हुए भक्त बराबर होते गए हैं जिन्होंने बड़ी सुंदर रचनाएँ की हैं। पर पूर्वोक्तकाल के भीतर ऐसे भक्त कवियों की जितनी प्रचुरता रही है उतनी आगे चलकर नहीं। वे कुछ अधिक अंतर देकर हुए हैं। ये कृष्णभक्त कवि हमारे साहित्य में प्रेममाधुर्य का जो सुधा स्रोत बहा गए हैं, उसके प्रभाव से हमारे काव्यक्षेत्र में सरसता और प्रफुल्लता बराबर बनी रहेगी। 'दु:खवाद' की छाया आ आकर भी टिकने न पाएगी। इन भक्तों का हमारे साहित्य पर बड़ा भारी उपकार है।

संदर्भ

1. देखो, पृ. 45-46 पर चंद का वंशवृक्ष।

2. देखो, पृ. 129-130।