सगुन चिरैया / गोवर्धन यादव

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आकाश सेट्ठे उतरकर अंधेरा, ऊंचे-ऊंचे दरख्तों की शाखों पर झूल रहा था। पास ही के पेड़ पर पक्षी कलरव कर रहे थे, शायद वे संध्या-गान गा रहे थे। दिन भर से अपने कमरे में कैद स्वामीजी अलसाया मन लेकर अपने आश्रम से निकले, पुरानी आदत के मुताबिक उन्होंने एक मटके में से मुट्ठी भर अनाज निकाला और पास ही बने चबूतरे पर बैठ गए। उनकी नजर पेड़ के आस-पास उड़ रहे पखेरुओं पर पड़ी। दूर-ऊंचाईयों पर श्वेत कबूतर हवाई करतब दिखा रहे थे। स्वामी जी ने उन्हें बड़े-लाड-प्यार से पाला था। दाना जमीन पर बिखेरते हुए वे कबूतरों को दाना चुगाने के लिए आमंत्रण दे रहे थे। ऑव-ऑव की शब्द-ध्वनि उनके मुंह से बराबर निकल रही थी। कबूतरों का झुण्ड अपनी मस्ती में मस्त था। बार-बार बुलाने पर भी एक भी कबूतर ने जमीन की ओर रुख नहीं किया। पता नहीं उन्हें आज क्या हो गया था। अन्यथा वे स्वामीजी को बाहर निकलता देख, कंधों पर आकर बैठ जाया करते थे। कभी-कभी तो वे सिर पर भी आकर बैठ जाया करते थे।

बुत बने स्वामीजी के अंदर अचानक एक विशाल वृक्ष उग आया और उस पर बैठे यादों के पखेरू फडफ़ड़ाकर अतीत के आकाश में चक्कर लगाने लगे।

एक मरियल पिद्दी सा लौण्डा, जिसकी पीले पके आम की तरह सूरत लटकी हुई थी, आँखें अंदर तक धंसी हुई थीं। जिस्म के मामले में वह नीरा हड्डियों का ढांचा मात्र था। लडख़ड़ाती चाल चलता हुआ वह, कलेक्ट्रोरेट की ओर जा रहा था।

जब वह वापस लौटा तो उसकी चाल में एक अजीब सा दीवानापन था। उतार में उतरता हुआ वह, डाकघर की ओर बढ़ रहा था। जब वह लौटा तो उसके हाथ में सौ-सौ के नोट थे। वह नोटों को बार-बार गिनता, तह में जमाता और फिर गिनने लग जाता। न जाने कितनी ही बार वह नोटों को गिन चुका था।

अब वह फुर्ती से चलता हुआ बीकानेर मिष्ठान की सीढिय़ां चढ़ गया। वहाँ जाकर उसने मिठाईयां खाईं और नीचे उतरते हुए सीधे पान के ठेले की ओर बढ़ गया। अनगढ़ हनुमान मंदिर के समीप ही एक पान का ठेला है। मुन्नाभाई बड़ा गजब का पान लपेटते हैं। उसने पान मुंह के हवाले किया। फिर सिगरेट लेकर ओठों में दबाया, तीली चमकाया और सिगरेट जलाकर गहरे कश लगाते हुए धुआँ उगलने लगा। सिगरेट के धुएँ को उड़ाता हुआ वह मस्त चाल में चला जा रहा था। उसकी चाल-ढाल और सिगरेट के धुएँ के छल्ले बनाने की स्टाईल देव आनन्द की-सी लग रही थी। शायद उसके ओठों पर वही पुराना चिर-परिचित गीत ‘हर गम को धुएँ में उड़ाता चला गया’ खेल रहा था।

भूख से गल चुके सिद्धार्थ ने जब कटोरी भर खीर का स्वाद चखा तो उनके अंदर सोया हुआ बुद्ध जाग गया था ठीक इसी तरह, तरह-तरह की मिठाईयां जब उसके पेट में पहुंचीं तो उसे भी बुद्ध ज्ञान प्राप्त हुआ और उसने तत्क्षण निर्णय लिया कि नारकीय जीवन से छुटकारा पाकर ही रहेगा।

तेजी से चलता हुआ वह शर्मा भोजनालय पहुंचा। भरपेट खाना खाकर फिर वह हनुमान मंदिर के बाजू वाले रास्ते से चलता हुआ एक सिंधी की दुकान पर पहुंचा। वहाँ से 10-15 हाथ का एक मजबूत रस्सा खरीदा और बंडल बगल में दबाते हुए नागपुर रोड पर बढ़ चला।

चार-छ: फर्लांग चलने के बाद वह बोदरी नदी के किनारे-किनारे चलने लगा। टेढ़े-मेढ़े रास्तों से गुजरते हुए उसने एक सुनसान जगह पा ही लिया। ऊंचे पेड़ की मजबूत शाखा पर उसने फंदा बनाया और दो पत्थरों का सहारा लेकर वह फंदे के पास पहुंचा और फन्दा गले में डालकर झूलने ही वाला था कि किसी के गाने की आवाज सुनकर वह अंदर तक कांप गया। फंदे को गले से उतारकर उन पत्थरों पर आ बैठा जिनके सहारे अभी-अभी वह फंदे तक पहुंचा था।

एक पारधी पहाड़ी गीत गाता हुआ उछलता-कूदता पहाड़ से उतर रहा था। उसके गले में लोच था। अत: गीत में माधुर्य छलक उठता था। गीत तो उसका अपनी पहाड़ी भाषा में था।

जब वह साँझ ढले पहाड़ उतर रहा होता है तभी एक सगुन चिरैया शाख पर बैठी दिखाई दी। उसने फुर्ती से लपककर चिडिय़ा को पकड़ लिया। रंग-बिरंगी चिडिय़ा को पाकर वह बहुत खुश हुआ। उसने ईश्वर को लाख-लाख धन्यवाद दिया और फिर उसी अक्खड़ चाल से कूदता-फांदता पहाड़ उतरने लगा।

एक अजनबी को सुनसान जगह में बैठा पाकर उसके पैरों में अचानक ब्रेक लग आए। सरसरी निगाह डालते ही उसकी समझ में सारा माजरा आ गया। उस अजनबी को लगभग झकझोरते हुए उसने कडक़ आवाज में पूछा कि वह यहाँ किस प्रयोजन से आया है। जिंदगी से निराश, परेशान व्यक्ति ने बहेलिए की कडक़दार आवाज सुनी तो वह अंदर तक कांप उठा। और दहाड़ मारकर रोने लगा। काफी देर तक रो चुकने के बाद अब वह नार्मल हो चला था।

पारधी ने बड़े प्यार से उसके सिरपर हाथ फिराते हुए और लगभग पुचकारते हुए कहा, ‘बेटा, मैं समझ चुका हूं कि तू यहाँ क्या करने आया है। तू आत्महत्या करना चाह रहा था न? क्या मिलेगा तुझे आत्महत्या करने पर। अरे ये मानव तन बड़ी मुश्किल से मिलता है। अत: इसका उपयोग सही दिशा में करना चाहिए। जितना भी हो सके किसी का भला करने की सोचते रहना चाहिए। मन की आदत है कि वह न तो स्वयं सीधा बैठता है और न ही आदमी को बैठने देता है। बड़ा फितरती होता है मन। मन की आदत है कि वह यहाँ-वहाँ भटकता रहता है। और मौका मिलने पर अनर्थ ही करवाने लगता है। अत: इसे ईश्वर के श्रीचरणों से जोडक़र रखना चाहिए। यदि वह परमात्मा से जुड़ जाता है तो बुद्धि भी निर्मल होने लगती है। आदमी अच्छा खासा कार्य करने लग जाता है। एक ईश्वर ही तो है जो सबकी सुनता है... तेरी भी सुनेगा। ईश्वर चाहे तो रंक को राजा और राजा को पल भर में कंगाल बना सकता है। उसने करोड़ों, खरबों जीव बनाए हैं उसे सभी की चिंता है।’

उस पारधी के साँत्वना भरे शब्दों को सुनकर अब वह चैतन्य हो चला था। वह बतलाने लगा, ‘भैया गरीबी से तंग आकर वह आत्महत्या करने के उद्देश्य से वहाँ आया था।’ उसके शब्दों को बीच में ही काटते हुए पारधी ने कहा, ‘देख, मेरी तरफ देख, क्या तुझे मैं धन्ना सेठ लगता हूं? शरीर पर कपड़े के नाम पर मात्र एक लंगोटी है। सिर ढकने को एक फटा गमछा है। रहने को न कहीं ठौर न ठिकाना। जहाँ रात हुई वहीं सो लिए और पौ फटते ही निकल पड़े जंगल में। सुबह से ही जंगल-जंगल भटकता रहता हूं। कोई न कोई शिकार हाथ लग ही जाता है। कभी खाने को मिला तो ठीक अन्यथा दिन ऐसे ही गुजर जाता है। जहाँ तक मैं समझता हूं तू अकेला साँड है। फिर मेरे तो लुगाई लडक़ा भी है। गरीबी से तंग आकर, मेरे मन में कभी भी ख्याल नहीं आया कि आत्महत्या कर लूं। ध्यान से सुन जब तक जीना है तब तक सीना है। अत: मर्द बन और अपनी जिंदगी जी। अरे हाँ-मैंने ये सगुन चिरैया पकड़ी है। यह आदमियों की तरह बोलती-बतियाती है, भूत, भविष्य, वर्तमान सब कुछ बताती है तू चाहे तो इसे ले ले। लोगों के भूत-भविष्य बाँचना। दो जून की रोटी का इन्तजाम हो जायेगा। मैं अगर चाहूं तो यह धंधा कर सकता हूं। पर मुझे जंगल ही प्रिय है। मैं इसी में पैदा हुआ और इसी में मर जाना चाहूंगा। तू चाहे तो इसे खरीद ले।’ इतना कहते हुए पारधी ने अपना हाथ आगे बढ़ाया।

चिडिय़ा को आदमी की तरह बात करता देखकर उसे कौतुहल होने लगा। उसकी जेब में अब भी कुछ रुपए पड़े थे। उसने एक सौ का नोट पारधी की ओर बढ़ाया और चिडिय़ा लेकर शहर की ओर लौट पड़ा।

बुधवारी बाजार पहुंचकर उसने एक पिंजरा खरीदा। चिडिय़ा को पिंजरे में डालने के बाद वह पेन्टर जी.एच. अली की दुकान पर जा पहुंचा और भविष्य बाँचने वाला एक बोर्ड बनवाया और म्युनिसिपल कार्यालय के सामने फुटपाथ पर बैठ गया। कभी वह प्रमुख डाकघर के सामने भी बैठ जाता।

जब भी कोई अपना भविष्य जानने के लिए आता, पाँच-दस का नोट जेब के हवाले करते हुए वह चिडिय़ा से उसका भविष्य जानता। चिडिय़ा जिस गूढ़ भाषा का प्रयोग करती उस गूढ़ भाषा का वह अकेला जानकार जो था। वह उसका तर्जुमा कर सुना देता। बात सौ आना खरी उतरती। देखते ही देखते वह एक नामी-गिरामी भविष्यवक्ता बन गया।

जब भी कोई व्यक्ति बड़ा बन जाता है तो वह किसी महानगर की ओर जाने की सोचने लगता है। काफी सोच समझकर उसने दिल्ली जाने का मन बनाया। दिल्ली एक ऐसा शहर है जहाँ सफल होने पर कोई कवि अथवा लेखक अथवा नेता पहुंचना चाहता है। फिर वहाँ जाकर अपने पैर फैलाता है? और फिर शेष भारत पर अपना शासन चलाता है। अपना बोरिया बिस्तर बाँधकर वह दिल्ली की ओर कूच करता है। दिल्ली उसका दिलोजान से स्वागत करती है।

उसके वहाँ पहुंचते ही लोकसभा के चुनाव होना घोषित हो गया। अब उसके पास अपना भविष्य जानने राव, उमराव, नेता, अभिनेता, अरबपति, करोड़पति आने लगे। वे मुंहमाँगी रकम देते और अपना भविष्य जानते।

चुनाव का मौसम बीतते ही उसने अपना एक विशालकाय-सुसज्जित आश्रम यमुना के किनारे बनवाना शुरू कर दिया। आश्रम के चारों ओर लॉन समेत आलीशान बगीचा, चलित फव्वारे, स्वीमिंग पुल, इंगलिश स्टाईल के काटेजेस, गाडिय़ां पार्क करने के लिए भी अच्छी व्यवस्थाएँ कीं। कामकाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए उसने पर्सनल-असिस्टेंट भी नियुक्ति किए। कई रूपसियों को भी उसने आश्रम में जगह दी जो विदेशियों का मन मोह सकें।

अब देश-विदेश से लोग स्वामी जी के पास आने लगे। वे अपनी समस्याओं का तत्क्षण निराकरण करवाते और बदले में मनचाही दक्षिणा अर्पण कर जाते। अब तो स्थिति यहाँ तक आन पड़ी थी कि लोगों को अपना भविष्य जानने के लिए महीनों ही नहीं, वर्षों तक वेटिंग लिस्ट में डाले रहना होता था।

दिन भर की चख-चख से थककर चूर हो चुके स्वामी जी पलंग पर आकर पसर गए। पूरा शरीर दर्द के मारे जकड़ सा गया था। उन्होंने वहीं से पसरे-पसरे अपने सेवकों को आवाज दी। पल भर में कई दास-दासियां इक_ट्ठे हो गए। कोई तलवे सहलाता, तो कोई पिण्डलियां दबाता, तो कोई सिर में मसाज करने लग गया। वे जानते थे, इन सबसे कुछ नहीं होगा। फिर उन्होंने अपने नीति सेवक से कहा कि वह चिलम भर लाए। पलंग से लगभग टिके हुए उन्होंने दस पाँच गहरे कश खींचे और बकबक करके धुआँ उगलने लगे। बीच-बीच में वे बम-बम महादेव भी चिल्लाते जाते। गाँजे की कली अब सिर पर चढक़र बोलने लगी थी। तभी एक असिस्टेंट ने आकर सूचना दी एक विदेशी आया हुआ है और आप से अभी और इसी वक्त मिलना चाहता है। उसने तो यह भी कह भेजा है कि वो अपना काम हो जाने पर एक करोड़ तक सहर्ष देने को तैयार है।

‘जाओ... जाओ... उसे तत्काल ले आओ।’ स्वामीजी ने आदेश दिया।

एक सूटेड-बूटेड विदेशी नमस्ते-नमस्ते कहता हुआ स्वामीजी के चरणों में आकर लोटने लगा। स्वामी जी ने आँखों से इशारा किया। कमरा अब पूरी तरह से खाली हो चुका था। सभी सेवक कमरे से बाहर जा चुके थे। स्वामीजी ने सगुन चिरैया से भविष्य बतलाने को कहा, परन्तु चिडिय़ा कुछ नहीं बोली, बार-बार मिन्नतें करने के बाद भी जब चिडिय़ा नहीं बोली तो भूल समझ में आई। नशे के चलते आज वह गलती हो गई जिसे नहीं होनी चाहिए थी।

विदेशी को फिर कभी आने का कहकर उन्होंने उसे चलता किया। दरवाजे की चटखनी चढ़ाकर लौटे और चिडिय़ा के आगे मिन्नतें माँगते रहे, गिड़गिड़ाते रहे। अब तो वे फफककर रोने भी लगे थे।

चिडिय़ा ने अंतिम बार बोलते हुए कहा, ‘रे मूर्ख, तू भूल गया कि हमारे बीच कुछ शर्तें हुई थीं। तुमने सभी शर्तों का उल्लंघन किया है। मैंने तुम्हें पहले ही बतलाया था कि मुझे तीखी गंध से सख्त परहेज है और दूसरी मुझे लफ्फाजी बिल्कुल भी पसंद नहीं है। बोलो, कहा था न? गाँजे के नशे में तुम इतने धुत्त थे कि जब सर्वोदयी नेता प्रमोद उपाध्याय आए तो तूने समझा कि कादर खान आए हैं और जब बंबई से शक्ति कपूर आए थे तो तुम उन्हें कमलनाथ समझकर पकपक करते रहे। और जब एक चिम्पाजी अपना भविष्य जानने आया तो तुम उसे राव साहब समझने लगे। इस तरह तुमने नशे की हालत में मेरा उपहास ही करवाया है और तुमने इस तरह सभी शर्तों का घोर उल्लंघन किया है। अत: आज से मैं मौन धारण कर रही हूं।’

इतना कहकर चिडिय़ा खामोश हो गई। चिडिय़ा के खामोश हो जाने के बाद स्वामी जी अनमने से बैठे रहे और फिर बाहर आकर चबूतरे पर बैठ गए।

साँझ का अंधियारा आकाश में लटक रहा था। धीरे से उतरकर वह शाखों पर आकर झूलने लगा। स्वामीजी ने तनिक गर्दन ऊपर करके देखा। कबूतर अपनी मस्ती में मस्त थे। रोजमर्रा की तरह उन्होंने मटके में से अनाज निकाला और ऑव-ऑव की आवाज निकालते हुए उन्हें बुलाना शुरू किया। काफी मिन्नतें करने के बाद एक भी चबूतरे के नीचे नहीं उतरा।

अंधियारा अब जमीन पर आकर लोटने लगा और देखते ही देखते पूरा शहर अंधकार में डूब चुका था।