सच्चा समाजवादी — अशोक सेक्सरिया / विनोद दास

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हम ऐसी अनेक कथाएँ सुनते रहते हैं, जहाँ लोग अपनी सम्पत्ति त्यागकर साधु-सन्त का जीवन अपना लेते हैं। ऐसे भी अनेक प्रसंगों से हम परिचित रहे हैं जहाँ लोग ईश्वर की खोज में इस दुनिया के बन्धन काटकर संन्यासी या महन्थ बन जाते हैं और फिर एक नई दुनिया की सत्ता के मोहपाश में बँध जाते हैं। लेकिन ऐसे लोग कम मिलते हैं जो अपनी पैतृक सम्पत्ति-कारोबार को त्याग देते हों, लेकिन फिर भी उनके बीच नदी के टापू की तरह उससे निर्लिप्त होकर रहते हों। यह सबसे कठिन साधना है। ऐसे जीवन में आपके आसपास की भौतिक दुनिया एक ओर आपको लुभाती रहती है। दूसरी ओर,आप अपनी जीवन की वासनाओं पर संयम रखकर इस अपने पास आने से ठेलते रहते हैं। हिन्दी कथाकार,खेल पत्रकार और समाजवादी चिन्तक अशोक सेक्सरिया कुछ ऐसे ही थे।

मुसा-तुसा खादी का ढीला ढाला मटमैला कुरता-पैजामा, ऋषियों की तरह काली-सफ़ेद दाढ़ी, खोई-खोई बड़ी-बड़ी सजल आँखें, हाथ में मुड़ा हुआ अखबार या क़िताब या पनामा सिगरेट, पाँवों में सस्ती चप्पल पहने लार्ड सिन्हा रोड या शेक्सपियर सरणी (पुराना नाम थिएटर रोड) के आसपास अपनी अनूठी चाल से चलते हुए वह किसी को भी दिख जाते थे। कभी वह किसी दुकान पर सजे टीवी या रेडियो पर भीड़ में क्रिकेट की कमेण्टरी देख-सुन रहे होते, तो कभी ईंट पर बैठकर नाई से बाल कटवा रहे होते, तो कभी शेक्सपियर सरणी पर स्थित ब्रिटिश लाइब्रेरी से किताब ला रहे होते, तो कभी किसी गार्ड के पास खड़े होकर उसके सुख-दुख की कथा सुन रहे होते। आसपास के लोग और दुकानदार उनके फ़कीरी मिज़ाज़ को जानते थे। लेकिन जो उनसे परिचित नहीं होते, वे शायद भ्रमवश उनको फक्कड़ साधू सन्त समझ लेते रहे होंगे। किन्तु कम लोग जानते कि अशोक सेकसरिया सच्चे अर्थों में समाजवादी थे। यह जीवन उन्होंने सुविचारित संकल्प के साथ वरण किया था।

लेकिन कई बार में सोचता हूँ कि क्या अशोक जी अपनी कल्पनाशीलता, स्वप्न और आदर्शों का विरासत में मिली सम्पन्न स्थिति के साथ सामंजस्य न बिठा पाने के चलते अपने लिए जीवन के कठोर मूल्य निर्धारित किए थे? क्या वह अपने मन में सोचते थे कि विरासत में मिली सम्पन्नता को तुम ठुकरा सकते हो, लेकिन गरीब नहीं रह सकते? तुम गरीबी की जिल्लत नहीं भोग सकते तो इसे अपनाकर उसे महसूस करो। क्या उनको यह लगता था कि उनके पास जो भी मूलभूत सुविधाएं हैं,वह कमाई हुई नहीं हैं, पिता से विरासत में मिली हैं। उनकी बातों से कई बार ऐसा बोध होता था। जो चीज़ उनको सबसे अधिक यंत्रणा देती थी कि कोई उन पर अहसान करे। वह कहते थे कि बीमार पड़ जाऊँगा तो अस्पताल का इतना मंहगा खर्चा कौन उठाएगा, जबकि उनके अनुज कई बार उनके अस्पताल में जाने पर उनका पूरा ध्यान रखते थे। लेकिन उनका डर हमेशा बना रहता।

उनके पास ऐसे अनेक भय थे। बाज़ार का भय सबसे अधिक था। वह हमेशा बाज्रार की महँगाई और ठगे जाने के भय से त्रस्त रहते थे। अपने ज़्यादातर कपड़े और चप्पलें आदि अपनी बड़ी बहन की मदद से लेते थे।

अशोक सेकसरिया पर कोई भी लालसा पत्थर पर पानी की तरह फिसल जाती थी। किसी चीज़ की लालसा रत्ती भर उन्हें छू न गई थी। न पद-प्रतिष्ठा, न धन-दौलत, न खाना-पीना, न कपड़ा-लत्ता। लालसा उनके लिए ऐसी व्याधि थी, जिस पर वे विजय प्राप्त करने की हमेशा कोशिश में लगे रहते थे। काफ़ी हद तक उसमें सफल भी रहे थे। वह अपने लिए उतनी ही सुख-सुविधाएँ चाहते थे, जितना एक आम हिन्दुस्तानी को इस देश में आमतौर पर मुहैया हैं।

हालांकि वह कोलकाता स्थित 16 लार्ड सिन्हा रोड के विशालकाय भवन के दो बड़े कमरे के फ्लैट में रहते थे.यह भवन उनके गांधीवादी पिता और स्वाधीनता सेनानी सीताराम सेकसरिया का था.उनके छोटे भाई दिलीप नीचे रहते थे.वह कपड़ों को विदेश निर्यात करते थे.बड़ी बड़ी गांठे उनके घर आनेवालों का कई बार स्वागत करती रहती थीं.दरअसल अशोक सेक्सरिया कोलकाता के प्रख्यात व्यापारी,समाज सुधारक और राजनेता सीताराम सेक्सरिया के ज्येष्ठ पुत्र थे.कोलकाता के मारवाड़ी समाज में शिक्षा और प्रगतिशील चेतना के प्रचार-प्रसार में सीताराम सेक्सरिया जी की महती भूमिका थी.लड़कियों के लिए विद्यालय शिक्षायतन,भारतीय भाषाओं के साहित्य के विकास के लिए भारतीय भाषा परिषद और विश्वभारती के हिंदी भवन जैसी अनगिनत संस्थाओं के निर्माण मे उनका अमूल्य योगदान था.स्वाधीनता संग्राम में गांधी-नेहरू सरीखे बड़े नेताओं के साथ वह काम कर चुके थे.भारत सरकार ने सीताराम सेक्सरिया को उनके सामाजिक कार्यों के लिए पद्म भूषण सम्मान से नवाज़ा भी था.

अशोक जी का घर कोलकाता के पॉश इलाके में था लेकिन फ्लैट में प्रवेश करते ही कमरे की सादगी हर किसी को चौंका देती थी.एक बड़े से कमरे के बीच में लकड़ी की एक छोटे पाये वाली चौकी के आसपास बिखरे हुए मुड़े-तुड़े अखबार,बगल रखी ऐश ट्रे में जली सिगरेट की राख,ठुर्रे और बुझी हुई तीलियाँ.देश भर से उनके मित्रों और शुभचिंतकों की आयी हुई चिठ्ठियाँ.उनके उत्तर देने के लिए कुछ सादे पोस्टकार्ड-अंतर्देशीय पत्र.खिड़की के जाले पर रखी हुई कुछ किताबें.यही उनका संसार था.भारत के आम आदमी की तरह एकदम न्यूनतम सुविधा.जब मैं पहली बार उनसे मिला था तो उनकी रसोई में भी कोई सामान नहीं था.मेरे लिए चाय भी उन्होंने नीचे अपने छोटे भाई के घर से मंगायी थी.एक-दो बार नीचे से भोजन मंगाकर बेहद आग्रह से खिलाया भी था,उस थाली में तमाम कटोरियाँ होती थीं और अंत में पापड़ परोसा जाता था जो इस बात की सांकेतिक घोषणा होती थी कि यह भोजन की आख़िरी मद है.

अशोक जी से मेरी मुलाक़ात अक्टूबर 1982 की एक दोपहर में हुई थी.दिल्ली से बीएचईएल की नौकरी छोड़कर मैं उन दिनों बैंक ऑफ बड़ौदा पटना में काम कर रहा था.हर तिमाही में मुझे बैठक में हिस्सेदारी के लिए कोलकाता जाना पड़ता था.हिंदी कवि और कला समीक्षक प्रयाग शुक्ल जी ने मुझे कोलकाता में अपने मित्र अशोक सेकसरिया से मिलने का परामर्श दिया था.उनका पता भी दिया था.यही नहीं,प्रयाग जी ने ही मुझे सबसे पहले भारतीय भाषा परिषद के बारे में भी बताया था कि वहां लेखक अतिथि गृह भी है.उन दिनों भारतीय भाषा परिषद के निदेशक हिंदी के प्रख्यात लेखक और पहले तारसप्तक के कवि प्रभाकर माचवे निदेशक थे.हालांकि उन दिनों तक लेखक के रूप में मेरी कोई महत्वपूर्ण पहचान नहीं थी लेकिन कुछ अरसा दिल्ली में रहने के कारण लेखकों से परिचय का हवाला देकर और अपने पठन पाठन का मुजाहिरा करके मैंने प्रभाकर माचवे जी को अपने लेखक होने का सबूत दे दिया था.माचवे जी निदेशक फ्लैट में अकेले रहते थे.बतरसी थे.मेरी उनकी खूब बनती थी.मैं जब भी कोलकाता जाता था,अधिकतर भारतीय भाषा परिषद के अतिथि गृह में ही रुकता था.उन दिनों लेखक के लिए अतिथि गृह के कमरे का शुल्क एक दिन का दस रूपये था.सामान्य अतिथि को बीस रूपये देना पड़ता था.परिषद से मेरे बैंक का अंचल कार्यालय करीब था.पार्क स्ट्रीट भी जहाँ घूमना-फिरना मुझे प्रिय था.सबसे सुखद यह था कि अशोक जी का निवास भी यहाँ से निकट था जहाँ मैं कभी भी उनसे मिलने-जुलने जा सकता था.

पहली बार जब अशोक जी से विशाल भवन के ऊपर स्थित फ़्लैट में मिलने गया तो उनके कमरे का सामने कई जोड़े जूते ऐसे पड़े थे जैसे वे कमरे की रक्षा के लिए बाहर खड़े हुए सैनिक हों.मैंने बाहर लगी घंटी बजायी.वह भीतर से बोले, “ जूते उतारकर चले आइये,दरवाज़ा खुला है”.उनके घर का दरवाज़ा एक आश्रम की तरह सबके लिए खुला रहता था.एक बार मैंने विदेशी मामलों के जानकार,भोजन विशेषज्ञ पुष्पेश पन्त के जवाहरलाल नेहरु स्थित प्रोफेसर फ्लैट का दरवाज़ा भी इसी तरह सबके लिए खुला देखा था.

मैं कुछ क्षण स्तब्ध और संकोच से देहरी पर खड़ा रहा.सहमी चौंकी सी मेरी निगाहें भीतर की हर चीज़ को छूने लगीं.पहली नजर में लगा कि यह एक अलग दुनिया है.खाली-खाली सी.भीतर दो जन हैं.एक युवा और एक कुछ उम्रदराज़.सहसा आवाज़ आती है.”आइये.”उनके इस शब्द में एक भीगा स्नेह लिपटा हुआ था.कुरता-पैजामा और उनकी वय से अनुमान लगा लिया कि यह अशोक जी हैं.अपना नाम बताने के बाद जैसे ही मैंने प्रयाग शुक्ल जी का जिक्र किया,उनकी आँखें जगमगा उठीं.इस शब्द की उष्म छुवन से हमारे बीच अपरिचय की बर्फ़ पिघलने लगी.फिर तो उनके सवालों का सिलसिला शुरू हो गया.मैं कौन हूँ.क्या करता हूँ.कहाँ का रहनेवाला हूँ.जब मैंने बताया कि मैं बाराबंकी का हूँ.उनकी आँखों में चमक आ गयी, ‘आप दिग्विजय सिंह “बाबू” के जिले के हैं.अशोक जी बाबू के हॉकी के खेल के कौशल के बारे में ख़ास तौर से उनकी ड्रिब्लिंग के बारे में चर्चा करने लगे.जब वह बाबू की बाबू की ड्रिब्लिंग के बारे में बता रहे थे तो ऐसा सजीव वर्णन कर रहे थे गोया वह महाभारत के संजय की तरह आँखों देखा हाल बता रहे हों.1948 में “बाबू” हॉकी के जादूगर ध्यानचंद के साथ उप कप्तान थे.फिर १९५२ में ओलंपिक में स्वर्णपदक दिलाने में किस तरह योगदान किया था,उसके बारे में उत्साह से बताने लगे.मुझे अपने जिले के नायक के बारे में सुनना प्रीतकर लग रहा था.मुझे यह भी दिलचस्प लगा था कि मुझसे अशोक जी उस शख्स के बारे में पूछ रहे थे जिसके बारे में मुझसे ज्यादा जानते थे.इस तरह वह मुझे वह यह भी प्रेरित कर रहे थे कि मुझे अपने जिले के गौरव पुरुष के बारे में कुछ और ज्यादा जानना चाहिए.मैने उन्हें उत्साह से बताया कि जब मैं राजकीय इंटर कॉलेज में छठी कक्षा का छात्र था तो वार्षिक क्रीडा उत्सव में दिग्विजय सिंह बाबू मुख्य अतिथि के रूप में आये थे.बाबू इसी कॉलेज के छात्र भी रह चुके थे.मैंने उन्हें यह खबर भी दी कि लखनऊ में खेल स्टेडियम उनके नाम पर है.अशोक जी सिगरेट के धुएं को फेंकते हुए भारत में हॉकी के खेल के प्रति घटती लोकप्रियता पर अफ़सोस जताने लगे जैसे उनके भीतर हॉकी की स्टिक सूखी टहनियों की तरह जल रही हों.मुझे तब तक यह नहीं पता था कि वह लंबे अरसे तक दिल्ली में हिन्दुस्तान टाइम्स में खेल पत्रकार रह चुके थे.फिर एशियाड के समय उनका एक लेख भी पढ़ा जिसमें उन्होंने एशियाड के दौर में बने स्टेडियम के निर्माण में अपने जीवन की आहुति देनेवालों श्रमिकों का बहुत मार्मिकता से उल्लेख किया था.दिल्ली प्रवास के दौरान उनकी साहित्यिक मित्र मंडली भी थी.प्रयाग शुक्ल,महेंद्र भल्ला,अशोक वाजपेयी,कमलेश आदि थे.कवि श्रीकान्त वर्मा के वह काफी निकट थे.मुझे याद है कि श्रीकांत वर्मा रचनावली के लिए जब उनसे श्रीकांत जी के पत्रों की मांग की गयी तो उन्होंने देने से इनकार कर दिया.उन्होंने मुझे कहा कि,विनोद जी.अगर मैं उन्हें दे देता तो श्रीकान्त जी की निजता का हनन होता.उन पत्रों में अनेक बातें ऐसी थीं जो नितांत निजी थीं.

पहली मुलाकत के बाद जब भी मैं पटना से कोलकाता बैंक के कामकाज से जाता तो उनसे मुलाक़ात जरूर करता.एक बार जब कोलकाता गया तो बैंक की बैठक सुबह कुछ जल्दी खत्म हो गयी तो मेरे पांव अनायास उनके घर की तरफ मुड़ गये.वे हल्की ठण्ड के दिन थे.वह घर से बाहर निकल रहे थे.मुझे देखते हुए बोले,”मैं विक्टोरिया जा रहा हूँ.समय हो तो मेरे साथ चलिए.मैं सहर्ष उनके साथ जाने को तैयार हो गया.विक्टोरिया भवन के स्थापत्य के दर्पभरे आभिजात्य को बढ़ाती हुई वानस्पतिक हरीतमा तथा छितरे पेड़ों के सुंदर झुरमुट से घिरी यह जगह मुझे हमेशा कोलकाता की एक टापू सरीखी लगती रही है.विक्टोरिया मेमोरियल के उपवन में हरी घास पर पीले आलोक के साथ धूप की आँख मिचौली के साथ हम उस दिन तमाम विषयों पर ढली दोपहरी के एकांत में गुफ्तुगू करते रहे.उन्होंने मेरी शादी की बाबत पूछा.जब मैंने उनसे कहा कि मैं आपकी तरह अकेला रहना चाहता हूँ लेकिन मेरे पिता जी ने मेरी सगाई करा दी है.अगली फरवरी में विवाह है तो उनका चेहरा मोद से खिल उठा.उन्होंने कहा कि आपने बहुत अच्छा निर्णय लिया.उन्होंने यह भी कहा कि कई बार अब लगता है कि मुझे भी शादी करनी चाहिए थी.हालांकि अब बहुत देर हो चुकी है.जब मैंने कहा कि ऐसी देर नहीं हुई है तो उन्होंने पत्थर सी ख़ामोशी धारण कर ली.खामोशी अशोक जी का हमेशा अचूक अस्त्र होता था.

धूप तीखी हो गयी थी.हम एक ऊँचे पेड़ की छांह तले आ गये थे.धूप की खुमार भरी गरमाई हमें अब अच्छी लग रही थी.अचानक अशोक जी की नज़र एक हरी झाड़ी के पीछे प्रेमालिंगन करते हुए एक जोड़े पर टिक गयी.वह आँखों से इशारा करते हुए बोले.यह संसार का सबसे सुंदर दृश्य है.

कोलकाता से उन दिनों हिंदी साप्ताहिक रविवार निकलता था.तेजतर्रार पत्रकार सुरेन्द्र प्रताप सिंह उसके सम्पादक थे.विचार प्रधान दिनमान साप्ताहिक से कुछ अलग तेवर की यह पत्रिका उन दिनों अपने ज़मीनी रिपोर्टिंग के कारण चर्चा में थी.सुरेन्द्र प्रताप के आग्रह पर अशोक जी भी वहां काम करने लगे थे.एक बार अशोक जी ने कहा कि आप किसी दिन पत्रिका के दफ्तर आइये.सुरेन्द्र प्रताप सिंह से मिलिए.सुरेन्द्र प्रताप सिंह के बारे में मैंने सुन रखा था कि वह साहित्यकारों को ज्यादा पसंद नहीं करते थे.उनकी दृष्टि में साहित्यकार अच्छे पत्रकार नहीं होते.दरअसल मेरी उनसे मिलने की कोई इच्छा नहीं थी.लेकिन एक दिन कोलकाता में समय काटने के लिए और कुछ रविवार का दफ्तर देखने की उत्सुकता के साथ उनसे मिलने गया.अशोक जी अपनी डेस्क पर सिर झुकाए तल्लीनता से काम कर रहे थे.मुझे देखकर भी उन्होंने अपनी कलम को नहीं रोकी.बोले यह पूरा कर लूँ.फिर आपसे बात करता हूँ.अचानक सुरेन्द्र प्रताप सिंह उनकी डेस्क के पास आकर बगल वाली खाली डेस्क पर बैठ गये.दुबले पतले सांवले.उम्र इतनी कम थी कि लगता नहीं था कि इतनी बड़ी पत्रिका के संपादक हैं.अशोक जी ने मेरा उनसे परिचय एक कवि के रूप में कराया.सुरेन्द्र जी ने अनदेखा करते हुए उनसे किसी खबर के बारे में चर्चा करते रहे.वह काफी देर वहां रहे लेकिन मुझसे कोई बात नहीं की.सच है कि उस दिन मुझे लगा,सुरेन्द्र प्रताप सिंह के बारे में जो सुना था,वह भ्रामक नहीं था.

बैंक ऑफ़ बड़ौदा की नौकरी छोड़कर नाबार्ड की सेवा में आने के बाद कोलकाता जाना नहीं हुआ.कुछ साल लखनऊ में रहने के बाद जयपुर तबादला हो गया.हालांकि अशोक जी से संपर्क का सिलसिला मेरी पत्रिका “अंतर्दृष्टि” के जरिये बना रहा.पत्रिका पर उनकी पोस्टकार्ड पर लिखी टिप्पणी भी मिलती थी.जयपुर राज्य संसाधन केंद्र में भारत सरकार ने मुझे लेखक प्रतिनिधि के रूप में मनोनीत किया था.इसी सिलसिले में लगभग दस साल बाद मुझे एक गोष्ठी में भाग लेने के लिए कोलकाता जाने का अवसर मिला.कोलकाता में उन दिनों एकमात्र वही परिचित थे.उनसे मिलने गया तो बेहद खुश हुए.मेरे परिवार और जयपुर के बारे में उत्साह से कोंच-कोंच कर जानकारी लेते रहे.जब मैं उनसे विदा लेनेवाला ही था कि सहसा मेरे मुंह से निकल गया कि इस बार कोलकाता के मिष्ठी दही का स्वाद नहीं ले पाया.यह सुनते ही वह बिजली की गति से उठे और बोले आप रुकिए.मैं अभी आता हूँ.मुझे जाने की जल्दी थी.लेकिन उनके आदेश की अवमानना करने का साहस नहीं था.थोड़ी देर मैं बैठा अखबार के पन्ने पलटता रहा.कुछ ही देर में वह एक बड़े से कुल्हड़ के साथ नमूदार हुए.पाव भर दही था.उन्होंने मुझे पूरा कुल्हड़ थमा दिया.अक्सर मैं मिष्ठी दही सौ ग्राम के कसोरे में खाता था.मैंने उनसे उसमें साझा करने के लिए निवेदन किया.लेकिन उनका हठ था कि मैं पूरा दही खाऊं.मैं धीरे-धीरे दही जीमने लगा.वह मुझे ऐसे देख रहे थे जैसे उनकी आँखों में कोई पिता आकर बैठ गया हो.स्नेह जल से भरे वत्सल.दही तो खत्म हो गया लेकिन उसकी मिठास पूरी जयपुर यात्रा तक ही नहीं,आज तक जीभ पर बसी हुई है.जब भी मैं मिष्ठी दही खाता हूँ,लगता है कि उनकी वत्सल आँखें उल्लास से देख रही हैं.

फिर समय का पहिया ऐसा घूमा कि मेरे बैंक ने मेरा तबादला कोलकाता कर दिया.तबादले में सबसे पीड़ा दायक जहाँ उखड़ना लगता था तो सबसे बड़ा सिरदर्द बच्चों को स्कूल में दाख़िला कराना होता था.हमारे बैंक में तबादले की सूची निकलते और कार्यमुक्त होते-होते इतनी देर हो जाती थी कि स्कूलों में दाखिलों की प्रक्रिया बंद हो जाती थी.इस बार भी यही हुआ था. जून का महीना था.मैं कोलकाता की चिपचिपी गर्मी में दाखिले के लिए स्कूलों के चक्कर लगा रहा था.कहीं भी आशा की किरण नहीं दिख रही थी.एक दोपहर मैं थक-हार कर अशोक जी से मिलने चला गया.अशोक जी के घर में अब गृहस्थी के लक्षण दिखने लगे थे.रसोईं में खाना बनने लगा था.पता चला कि उनके साथ बिहार के बालेश्वर राय रहते हैं जो उनकी रसोई में मदद करते हैं.वह भारतीय भाषा परिषद में काम करते हैं.बातचीत के क्रम में जब उस दिन अशोक जी ने बच्चों के दाखिले के बारे में पूछा तो मेरा उतरा चेहरा देखकर वह कुछ चिंतित हो गये.बालेश्वर कई दिनों से देख रहा था कि जब भी मैं मिलने आता था तो दाखिले का दुखड़ा अशोक जी से बयान करता था.उस दिन उसने अशोक जी से उसने कहा कि आप विनोद जी की मदद क्यों नहीं करते.अशोक जी के साथ रहते हुए बालेश्वर उनका स्वभाव जान गया था कि वह अपने परिचितों के अनाहुति अभिभावक बन जाते हैं.कोई गरीब बीमार है तो उसका अस्पताल का खर्चा कैसे चलेगा तो वह व्याकुल हो जाते.उनको उसकी चिंता में ठीक से नींद तक नहीं आती,अपनी सीमित बचत से उसको कुछ मदद कर आते.किसी की नौकरी छूट गयी तो उसे कहाँ और किस तरह बिना उसके स्वाभिमान को ठेस लगाये दिलायी जा सकती है,इसके लिए कोशिश करते रहते थे.गरीबों के लिए तो उनके ह्रदय में अपार करुणा थी.संपन्न लोगों के प्रति वह प्रायः निरपेक्ष रहते थे.मुझे भी शायद सुविधाभोगी समझते थे लिहाज़ा मेरी समस्या को वह धैर्य सुनते थे.उसे लेकर चिंता भी थी लेकिन उसके हल के लिए तत्पर नहीं थे.लेकिन बालेन्दु के कहने से उस दिन उनका मन थोड़ा पिघल गया.वह बोले कि पास में एक स्कूल है लेकिन उसकी पढ़ाई अच्छी नही है.आप चाहे तो वहां मैं बात कर सकता हूँ.”हाँ” कहने के अलावा मेरे पास कोई विकल्प नहीं था.वह फौरन उठे और सीआईडी के दफ़्तर के छोटे से रास्ते से स्कूल पहुंच गये.स्कूल के प्रबंध का काम ताई देखती थीं जो कला और संगीत मर्मज्ञ मुकुंद लाठ की माँ थी.मुकुंद लाठ से मेरा परिचय भी था.उनके जयपुर स्थित घर कई बार जा चुका था.उनके आवास का निर्माण प्रख्यात वास्तुकार चार्ल्स कोरिया ने किया था.घर का सबसे नवोन्मेषी और आकर्षक हिस्सा मुझे उनका पुस्तकालय लगा था जहाँ हजारों किताबें मौजूद थीं.अशोक जी को स्कूल का अनुचर पहचानता था.उन्होंने ताई के बारे में पूछा.अनुचर की हाँ कहने पर वह धड़धड़ाते हुए उनके कमरे में प्रवेश कर गये.ताई अशोक जी को देखकर खुश हो गयीं.अशोक जी ने सामने रखी कुर्सी खींची और बैठ गये.ताई अशोक जी को उलाहना देने लगीं कि तुम कभी यहाँ आते नहीं हो.अशोक जी सीधे दाखिले के मुद्दे पर आ गये.ताई ने कहा कि दाखिले तो बंद हो चुके हैं लेकिन तुम आये हो तो समझो काम हो गया.फिर भी मैं स्कूल की प्रिंसिपल से पूछ लेती हूँ.उन्होंने प्रिंसिपल को फोन किया.प्रिंसिपल ने कहा कि दोनों बच्चों को टेस्ट देना होगा.पास होने पर दाखिला हो जाएगा.मुझे इतना यकीन था कि बच्चे टेस्ट में पास हो जायेंगे.बहरहाल इस तरह मेरे दोनों बच्चों अंतरा का नवीं और कार्तिकेय का तीसरी कक्षा में दाखिला हो गया.

अभी चंद ही दिन बीते थे कि अचानक एक दोपहर में मेरी बेटी अन्तरा का स्कूल से फोन आया.वह सुबकते हुए बता रही थी कि उसका भाई कार्तिकेय स्कूल की छुट्टी के बाद मिल नहीं रहा हैं.मेरा दिल से धक् से रह गया.टैक्सी लेकर स्कूल पहुंचा.प्रिंसिपल और स्कूल की टीचर सभी के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थी.बेटी अंतरा की आँखें डबडबाई हुई थीं.छोटी कक्षा में होने के कारण पहले कार्तिकेय की क्लास छूटती थी,फिर कुछ अंतराल पर अंतरा की.अंतरा ने उसे स्कूल मुख्य द्वार पर एक जगह इंतज़ार करने के लिए तय कर रखा था.वह वहीं खड़ा रहता था लेकिन उस दिन वह कुछ देर से निकली और वह अपनी तयशुदा जगह पर मौजूद नहीं था.पूरा स्कूल खाली हो जाने के बाद जब वह नहीं मिला तो अंतरा ने प्रिंसिपल के पास जाकर समस्या बतायी.विशेष परिस्थितियों में दाखिला होने के फलस्वरूप प्रिंसिपल उसे और मुझे पहचानती थीं.मैंने टॉयलेट में होने की आशंका जतायी.लेकिन उसकी खोज वहां हो चुकी थी.पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट करने की सोच ही रहा था कि अचानक मैंने सोचा कि अशोक सेकसरिया जी के यहाँ देख लूं.बेटी को स्कूल छोड़कर मैं शार्टकट से अशोक जी के घर आया.शेक्सपियर सरणी से उनके घर आने के शार्ट कट के लिए उनके घर के निकट स्थित गुप्तचर कार्यालय होकर आना पड़ता था जो आम रास्ता नहीं था.लेकिन अशोक जी को सब वहां पहचानते थे.मैं भी उस रास्ते से आने जाने लगा था.अशोक जी कमरे की बाहर कुंडी लगी थी.खतरे की सांकल अब मेरे भीतर और तेज बजने लगी.चिंतित मैं उलटे पांव स्कूल की तरफ चल पड़ा.मुझे लगा कि अब तो पुलिस स्टेशन जाना ही पड़ेगा.अभी कुछ ही कदम चला था कि घुटनों तक झूलते हुए कुरता पैजामा पहने अशोक जी दिखायी दिये.उनके हाथ में दो मोटी किताबें थीं.मुझे देखकर उनके चेहरे पर छोटी सी मुस्कान चमक गयी.लेकिन जब मैंने उन्हें हाल बताया तो उनका चेहरा फ़क सा हो गया.वह बोले घर में किताब रखकर पुलिस स्टेशन चलते हैं.जब हम उनके कमरे की सीढ़ियां चढ़ने जा रहे थे,उनके छोटे भाई की पत्नी बाहर निकली और अशोक जी से बोलीं,”एक लड़का आपको पूछते हुए रो रहा था.कार्तिकेय को फोन नंबर याद था.वह अपनी माँ को फोन करने के लिए उनके पास मदद के लिए गया था.उनकी छोटी भाभी ने उसकी माँ को फोन लगाकर उनसे बात कराई.उसे खाना भी खिलाया.दरअसल कार्तिकेय-अंतरा के दाखिले के बाद जब मैं अशोक जी से उन्हें मिलाने ले गया था तो कह दिया था कि जब भी स्कूल में कोई समस्या हो तो अशोक अंकल के पास आ जाना.उस शार्ट कट से कार्तिकेय एक ही बार अशोक जी के घर आया था.बहरहाल हम कार्तिकेय को लेकर स्कूल पहुंचे.उसे देखकर अंतरा और स्कूल प्रशासन को गहरी राहत मिली.

अशोक जी कार्तिकेय को राजकुमार कहकर पुकारते थे और अंतरा को गुड़िया.जब भी मैं मिलने जाता,उन दोनों के बारे में ज़रूर पूछते.अपनी निश्छलता के चलते बच्चों के साथ घुल मिल जाने में उन्हें तनिक भी देर नहीं लगती थी.

अशोक जी को मैं अक्सर अपने बिस्तर पर बैठकर किसी का लेख संपादित करते हुए या प्रूफ देखते हुए देखता था.किसी साधारण लेख को अपने संपादन से उत्कृष्ट बनाने का उनमें अद्भुत परिष्कार कौशल था.वह जन,चौरंगी वार्ता और सामयिक वार्ता के संपादक मंडल में थे. उनके सत्संग में अनेक लेखक बन गये.उनके सहचर बालेन्दु राय से लेखक-संपादक राजकिशोर जी ने उनसे कई लेख अपने द्वारा संपादित पुस्तकों के लिए लिखवाये थे.किशन पटनायक की महत्त्वपूर्ण किताब “विकल्प नहीं है दुनिया” का संपादन उन्होंने बड़े श्रम से किया था.समकालीन वार्ता के लिए अनुवाद करते हुए या उसका प्रूफ देखते हुए हम उन्हें अक्सर दीखते.बेबी हालदार को उन्होंने लिखने के लिए प्रेरित किया.उनकी आत्मकथा “आलो अंधारि” को लोकप्रिय बनाने में उनका योगदान बहुत बड़ा था.बेबी हालदार अशोक जी के मित्र और प्रेमचंद के नाती कथाकार प्रबोध कुमार के घर में काम करती थी.वह परित्यक्ता थी.प्रबोध जी ने उसे पढ़ाया-लिखाया.यही नहीं,उसे अपनी आत्म कथा लिखने के लिए प्रेरित किया.बेबी हालदार को अशोक जी नियमित पत्र लिखकर प्रेरित करते थे.बेबी हालदार अशोक जी को जेठू कहती थी.”आलो अंधारि” किताब का अंग्रेज़ी में अनुवाद प्रबोध कुमार जी ने किया था. उसके बांग्ला संस्करण की भूमिका बांग्ला के प्रख्यात कवि शंख घोष ने लिखी थी.सिर्फ यही नहीं.अशोक जी ने अपने साथ पुत्रवत रहनेवाले बालेश्वर राय की पत्नी सुशीला राय को भी आत्मकथा लिखने को प्रेरित किया था.वह पिछड़ी जाति की अनपढ़ थी.उसके श्याम वर्ण के कारण उनके पति शादी के बाद गौना नहीं लाये थे.पति से वह दस साल विलग रहीं.गाँव में बाँझ कही जाती रही.जब वह गाँव में थी,अशोक जी उसे पत्र लिखकर दिलासा देते थे कि एक दिन तुम माँ बनोगी और अपने पति के संग रहोगी.बाद में यही हुआ.वह अशोक जी के घर में अपने शौहर बालेन्दु के साथ रही.उनके बच्चे हुए.मैं जब जाता,अशोक जी अपने बेटे की तरह बालेश्वर -सुशीला के बच्चों से खेलते-.पढाते दिखते थे जैसे वह उनके दादा हों.

कहना न होगा कि अशोक जी दूसरों के लेखन के प्रति ज्यादा संवेदन शील थे.किसी का कोई अच्छी किताब आती तो सबको पढने के लिए उकसाते.किसी का लेख आता तो पत्रिका पढ़ने के लिए दे देते.एक बार कवि कथाकार ज्योत्स्ना मिलन की किताब उन्होंने मुझे दी और कहा कि यह विनीता जी के लिए है.वह दूसरों के तरह-तरह के काम करते रहते.कभी धर्मयुग के संपादक रहे गणेश मंत्री का लेख पुस्तकालय में खोजने जाते तो कभी ओम प्रकाश दीपक के “जन” में छपे किसी लेख की नकल बनाते रहते.अशोक जी अपने लेखन से अत्यंत निस्पृह थे.कोई उनकी कहानियों का जिक्र भी करता तो वह उसे मुस्कराकर टाल जाते.निस्पृहता का आलम यह था कि एक समय वह छद्म नाम गुणेंद्र सिंह कंपानी या राम फ़ज़ल से लेखन करते थे.उनकी कहानियों का एक संग्रह “लेखिकी” नाम से वाग्देवी प्रकाशन से आया था.यह पुस्तक भी उनके मित्रों ने अपने प्रयासों से प्रकाशित की थी जिसकी खबर उन्हें छपने के बाद लगी थी.दरअसल इस संग्रह में संकलित उनकी कहानी “लेखिकी” के कथा नायक की दुविधा अशोक सेक्सरिया से मिलती-जुलती है.कहानी का कथानायक अपने दफ्तर से छुट्टी लेकर नैनीताल साहित्य रचने की कामना से जाता है.वहां के प्राकृतिक परिवेश में रहते हुए वह जो कुछ लिखता है,उसे घिसा-पिटा पुराना लगता है,उससे उसे रचनात्मक संतुष्टि नहीं मिलती.कुछ नया और सार्थक न लिख पाने पर कथा नायक को अपना लिखना व्यर्थ लगने लगता है.आखिरकार वह नैनीताल से अपने भांजे को बोर्डिंग स्कूल से लेकर घर वापस आ जाता है.मुझे लगता है कि उस कहानी के कथा नायक स्वयं अशोक सेक्सरिया हैं और परवर्ती जीवन में उनके न लिखने के पीछे भी शायद ऐसी कुछ कशमकश रही होगी.

भारतीय भाषा परिषद की स्थापना में उनके पिता सीताराम सेक्सरिया और उनके अभिन्न मित्र भागीरथ कानोडिया की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। लेकिन मैंने देखा था कि उसके प्रबन्धन से उनकी पटरी नहीं बैठती थी। वह अक्सर वहाँ जाने से बचते थे। वहाँ के पुस्तकालय से बालेन्दु राय से पत्र-पत्रिकाएँ या किताबें मँगा लेते थे। कोई उनका प्रिय परिषद के किसी कार्यक्रम में भाग लेने के लिए आता, तो उससे मिलने के लिए परिषद के दरवाज़े पर पहले खड़े होकर इन्तज़ार करते रहते। प्रभाकर श्रोत्रिय जब भारतीय भाषा परिषद छोड़कर भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक बन कर चले गए थे और मैंने वागर्थ का संपादन शुरू किया तो वह बेहद खुश थे। उसके कई अंकों की उन्होंने प्रशंसा भी की थी। लेकिन इसी बीच परिषद के कर्मचारियों की मांगों के समर्थन में उनके यहाँ एक बैठक भी हुई थी, जिसमें मैं भी शामिल हुआ था। समाज का कोई भी कमज़ोर तबका हो, अशोक जी उसके समर्थन में रहते थे। 2005 में मुम्बई आने के बाद अशोक जी से सिर्फ़ एक बार मुलाक़ात हुई, जब भारतीय भाषा परिषद् के एक कार्यक्रम में कोलकाता जाना हुआ था।

अब अशोक जी का पार्थिव शरीर नहीं है। उनके जैसा परदुख कातर और करुणा से आप्लावित मन आज के स्वार्थ-केन्द्रित समय में दुर्लभ है। कोलकाता में अब ऐसा दरवाज़ा कहाँ होगा, जहाँ ताला न लगता हो। कोई भी निःसंकोच जा सकता हो। अपनी व्यथा कथा कह सकता हो, जिसे कोई कान करुणा और धैर्य से सुनता हो, उसकी मदद के लिए बेचैन इधर-उधर हाथ पाँव मारता हो। जहाँ मदद मिले, मदद की डुगडुगी न बजे।

वह दरवाज़ा, बस, अशोक सेकसरिया का ही हो सकता था, जो अब सिर्फ़ हमारी स्मृति में है।