सच्ची सभ्यता कौन सी? / हिंद स्वराज / महात्मा गांधी

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पाठक : आपने रेल को रद कर दिया, वकीलों की निंदा की, डॉक्‍टरों को दबा दिया। तमाम कलकाम को भी आप नुकसानदेह मानेंगे, ऐसा मैं देख सकता हूँ। तब सभ्‍यता कहें तो किसे कहें?

संपादक : इस सवाल का जवाब मुश्किल नहीं है। मैं मानता हूँ कि जो सभ्‍यता हिंदुस्तान ने दिखाई है, उसको दुनिया में कोई नहीं पहुँचा सकता। जो बीज हमारे पुरखों ने बोए हैं, उनकी बराबरी कर सके ऐसी कोई चीज देखने में नहीं आई। रोम मिट्टी में मिल गया, ग्रीस का सिर्फ नाम ही रह गया, मिस्र की बादशाही चली गई, जापान पश्चिम के शिकंजे में फँस गया और चीन का कुछ भी कहा नहीं जा सकता। लेकिन गिरा-टूटा जैसा भी हो, हिंदुस्तान आज भी अपनी बुनियाद में मजबूत है।

जो रोम और ग्रीस गिर चुके हैं, उनकी किताबों से यूरोप के लोग सीखते हैं। उनकी गलतियाँ वे नहीं करेंगे ऐसा गुमान रखते हैं। ऐसी उनकी कंगाल हालत है, जब कि हिंदुस्तान अचल है, अडिग है। यही उसका भूषण है। हिंदुस्तान पर आरोप लगाया जाता है कि वह ऐसा जंगली, ऐसी अज्ञान है कि उससे जीवन में कुछ फेरबदल कराए ही नहीं जा सकते। यह आरोप हमारा गुण है, दोष नहीं। अनुभव से जो हमें ठीक लगा है, उसे हम क्यों बदलेंगे? बहुत से अकल देने वाले आते जाते रहतें हैं, पर हिंदुस्तान अडिग रहता है। यह उसकी खूबी है, यह उसका लंगर है।

सभ्‍यता वह आचरण है जिससे आदमी अपना फर्ज अदा करता है। फर्ज अदा करने के मानी है नीति का पालन करना। नीति के पालन का मतलब है अपने मन और इंद्रियों को बस में रखना। ऐसा करते हुए हम अपने को (अपनी असलियत को) पहचानते हैं। यही सभ्‍यता है। इससे जो उलटा है वह बिगाड़ करनेवाला है।

बहुत से अंग्रेज लेखक लिख गए हैं कि ऊपर की व्‍याख्‍या के मुताबिक हिंदुस्तान को कुछ भी सीखना बाकी नहीं रहता।

यह बात ठीक है। हमने देखा कि मनुष्‍य की वृत्तियाँ चंचल हैं। उसका मन बेकार की दौड़धूप किया करता है। उसका शरीर जैसे-जैसे ज्‍यादा दिया जाया वैसे-वैसे ज्‍यादा माँगता है। ज्‍यादा लेकर भी वह सुखी नहीं होता। भोग भोगने से भोग की इच्‍छा बढ़ती जाती है। इसलिए हमारे पुरखों ने भोग की हद बाँध दी। बहुत सोचकर उन्‍होंने देखा कि सुख-दुख तो मन के कारण हैं। अमीर अपनी अमीरी की वजह से सुखी नहीं हैं, गरीब अपनी गरीबी के कारण दुखी नहीं है। अमीर दुखी देखने में आता है और गरीब सुखी देखने में आता है। करोड़ों लोग तो गरीब ही रहेंगे। ऐसा देखकर उन्‍होंने भोग की वासना छुड़वाई। हजारों साल पहले जो हल काम में लिया जाता था, उससे हमने हजारों साल पहले जैसी हमारी शिक्षा थी वही चलती आई। हमने नाशकारक होड़ को समाज में जगह नहीं दी; सब अपना-अपना धंधा करते रहे। उसमें उन्‍होंने दस्‍तूर के मुताबिक दाम लिए। ऐसा नहीं था कि हमें यंत्र वगैरा की खोज करना ही नहीं आता था। लेकिन हमारे पूर्वजों ने देखा कि लोग अगर यंत्र वगैरा की झंझट में पड़ेंगे, तो गुलाम बनेंगे और अपनी नीति को छोड़ देंगे। उन्‍होंने सोच-समझकर कहा कि हमें अपने हाथ-पैरों से जो काम हो सके वही करना चाहिए। हाथ-पैरों का इस्‍तेमाल करने में ही सच्‍चा सुख है, उसी में तंदुरुस्‍ती है।

उन्‍होंने सोचा कि बड़े शहर खड़े करना बेकार की झंझट है। उनमें लोग सुखी नहीं होंगे। उनमें धूर्तों की टोलियाँ और वेश्याओं की गलियाँ पैदा होंगी; गरीब अमीरों से लूटे जाएँगे। इसलिए उन्‍होंने छोटे देहातों से संतोष माना।

उन्‍होंने देखा कि राजाओं और उनकी तलबार के बनिस्‍बत नीतिका बल ज्‍यादा बलवान है। इसलिए उन्‍होंने राजाओं को नीतिवान पुरुषों - ऋषियों और फकीरों - से कम दर्जे का माना।

ऐसा जिस राष्‍ट्र की गठन है कि वह राष्‍ट्र दूसरों को सिखाने लायक है; वह दूसरों से सीखने लायक नहीं है।

इस राष्‍ट्र में अदालतें थीं, वकील थे, डॉक्‍टर-वैद्य थे। लेकिन वे सब ठीक ढंग से नियम के मुताबिक चलते थे। सब जानते थे कि ये धंधे बड़े नहीं हैं। और वकील, डॉक्‍टर वगैरा लोगों में लूट नहीं चलाते थे; वे तो लोगों पर आश्रित थे। वे लोगों के मालिक बनकर नहीं रहते थे। इंसाफ काफी अच्‍छा होता था। अदालतों में न जाना, यह लोगों का ध्‍येय था। उन्हें भरमाने वाले स्‍वार्थी लोग नहीं थे। इतनी सड़न भी सिर्फ राजा और राजधानी के आसपास ही थी। उसके पास सच्‍चा स्वराज था।

और जहाँ यह चांडाल सभ्‍यता नहीं पहुँची है, वहाँ हिंदुस्तान आज भी वैसा ही है। उसके समाने आप अपने नए ढोंगों की बात करेंगे, तो वह आप की हँसी उड़ाएगा। उस पर न तो अंग्रेज राज करते हैं, न आप कर सकेंगे।

जिन लोगों के नाम पर हम बात करते हैं, उन्हें हम पहचानते नहीं हैं, न वे हमें पहचानते हैं। आपको और दूसरों को, जिनमें देश प्रेम है, मेरी सलाह है कि आप देश में - जहाँ रेल की बाढ़ नहीं फैली है उस भाग में - छह माह के लिए घूम आएँ और बाद में देश की लगन लगाएँ, बाद में स्वराज की बात करें।

अब आपने देखा कि सच्‍ची सभ्‍यता मैं किस चीज को कहता हूँ। ऊपर मैंने जो तस्‍वीर खींची है वैसा हिंदुस्तान जहाँ हो वहाँ जो आदमी फेरफार करेगा उसे आप दुश्‍मन समझिए। वह मनुष्‍य पापी है।

पाठक : आपने जैसा बताया वैसा ही हिंदुस्तान होता तब तो ठीक था। लेकिन जिस देश में हजारों बाल-विधवाएँ हैं, जिस देश में दो बरस की बच्‍ची की शादी हो जाती है, जिस देश में बारह साल की उम्र के लड़के-लड़कियाँ घर-संसार चलाते हैं, जिस देश में स्‍त्री एक से ज्‍यादा पति करती है, जिस देश में नियोग की प्रथा है, जिस देश में धर्म के नाम पर कुमारिकाएँ बेसवाएँ बन‍ती हैं, जिस देश में धर्म के नाम पर पाड़ों और बकरों की हत्‍या होती है, वह देश भी हिंदुस्तान ही है। ऐसा होने पर भी आपने जो बताया यह क्‍या सभ्‍यता का लक्षण है?

संपादक : आप भूलते हैं। आपने जो दोष बताए वे तो सचमुच दोष ही हैं। उन्हें कोई सभ्‍यता नहीं कहता। वे दोष सभ्‍यता के बावजूद कायम रहे हैं। उन्हें दूर करने के प्रयत्‍न हमेशा हुए हैं, और होते ही रहेंगे। हममें जो नया जोश पैदा हुआ है, उसका उपयोग हम इन दोषों को दूर करने में कर सकते हैं।

मैंने आपको आज की सभ्‍यता की जो निशानी बताई, उसे इस सभ्‍यता के हिमायती खुद बताते हैं। मैंने हिंदुस्तान की सभ्‍यता का जो वर्णन किया, वह वर्णन नई सभ्‍यता के हिमायतियों ने किया है।

किसी भी देश में किसी भी सभ्‍यता के मातहत सभी लोग संपूर्णता तक नहीं पहुँच पाए हैं। हिंदुस्तान की सभ्‍यता का झुकाव नीति को मजबूत करने की ओर है; पश्चिम की सभ्‍यता का झुकाव अनीति को मजबूत करने की ओर है। इसलिए मैंने उसे हानिकारक कहा है। पश्चिम की सभ्‍यता निरीश्‍वरवादी है, हिंदुस्तान की सभ्‍यता ईश्‍वर को माननेवाली है।

यों समझकर, ऐसी श्रद्धा रखकर, हिंदुस्तान के हितचिंतकों को चाहिए कि वे हिंदुस्तान की सभ्‍यता से, बच्‍चा जैसे माँ से चिपटा रहता है वैसे, चिपट रहें।