सच के संस्कार / चंद्र रेखा ढडवाल

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सर्दियों की रात के करीब साढ़े नौ बज रहे थे और मिन्दी अभी तक घर नहीं लौटा था। पर पिता जी को बताते हुए मां बहुत तसल्ली में लगीं कि उसके किसी दोस्त की बहन की शादी है एक दो दिन में। सो वहीं अटका होगा तैयारियों के चलते। “तैयारियां तो उसके बस की नहीं पर मौज-मेले में ज़रूर साथ दे रहा होगा।” कहा तो उन्होंने रूखे पन से ही पर फिर सन्तुष्ट भाव से कुर्सी पर आ बैठे। मां दोस्त का नाम लेना जानबूझ कर टाल गईं। हालांकि सुबह मिन्दी कह कर गया था। पर दोस्त क्योंकि असलम था इसीलिए मां ने नाम नहीं लिया। पिता जी उसका घर आना और मिन्दी का उसके यहां जाना पसंद नहीं करते थे। उसके अभिवादन का उत्तर भी इधर-उधर देखते हुए बेमन से ही देते। उन्होंने कभी रूक कर उसका या उसके घर वालों का हाल नहीं पूछा। जैसा कि मिन्दी के बाकी दोस्तों से या मेरी सहेलियों से अक्सर पूछते हैं। एक बार उसे रसोई में खड़े-खड़े ही कड़ाही से उतरते गर्म-गर्म पकौड़े खाते देख कर रहे तो चुप ही पर उस शाम उन्होंने चाय नहीं पी। चाय की ट्रे मैंने जिस तरह मां के सामने पटकी, वह मेरी नाराज़गी समझ गईं। मुझे समझाते हुए धीमे स्वर में बोलीं, "छोटे से गांव के ठाकुरद्वारे के पुजारी थे तेरे दादा जी। उनसे भी ज्यादा ठाकुर जी की भक्त, नित-नियम निभाने वाली तेरी दादी, इससे-उससे पता नहीं किस-किस से परहेज़ करती थीं। उनकी छत्र-छाया में पले-बढ़े तेरे बाबू जी के हाव-भाव में तो शहर बस गया पर मन में आज भी वही घंटिया बजती हैं। वही नित-नियम उन्हें घेरते हैं बेटी।” सीधी सच्ची मेरी मां को इस तरह गोल-मोल बात कहना, कोई बहुत अच्छा नहीं लगा होगा। पर पिता जी के लिए, अपने लिए और शायद सब से ज्यादा आज रात के इस खाने के लिए, वह उनसे आंखें मिलाए बगैर मिन्दी के किसी दोस्त के साथ होने की बात कह गईं, और फिर कुछ ज़्यादा ही तत्परता से खाना परोसने लगीं। राई की झोंक लगी अरहर की दाल, मां ने चावलों पर डाली तो मुझे मिन्दी याद आ गया । बहुत पसंद है उसे यह। पता नहीं कहां होगा ? क्या खा रहा होगा ? खा भी रहा होगा कि नहीं।अपनी ही सोच पर काँप-काँप उठी। ऐसी क्यों हो रही हूं मैं । वह असलम के यहां ही रूका होगा, मां यदि सोच पा रहीं हैं तो मैं क्यों नहीं ? पर मेरी घबराहट तो बढ़ती ही जा रही थी । बहुत पहले कहीं पढ़ी हुई एक कविता का अंश मुझे याद ही नहीं आ गया बल्कि दिमाग में अटक कर ही तो रह गया। “घर से निकले कोई / तो छोड़ कर सारे ज़रूरी काम / देख लेना गौर से / उसकी कमीज़ का रंग / कफ़ लिंकस बाजुओं के / या किस्म जूतों की / क्या पता रात हुए या अगली सुबह / पहचानना हो उसे / इन्हीं में से किसी एक के ज़रिए।" फिर नींद कहां आने वाली थी।

रात, लगभग दो-ढाई का समय होगा कि किवाड़ ज़ोर-ज़ोर से भड़भड़ाए। क्योंकि वे खटखटाए नहीं जा रहे थे। धकियाए जा रहे थे। दरवाजा खुलते ही एक बोरे की तरह उन्होंने उसे भीतर धकेला और पलट गए। औंधे मुंह फर्श पर गिरा मिन्दी गिरा ही रह गया। मेरे पीछे-पीछे आई मां किनारे खड़ी पगलाई सी देखने लगीं । मैंने ही आगे बढ़ कर उसे उठाया पर चेहरा देख कर मेरी हालत भी मां जैसी हो गई। कब से मेरे भीतर फड़फड़ाता, परकटा डर, कई-कई पंख लगाए कमरे में घिर गई चमगादड़ सा मेरे सिर के इर्द-गिर्द बदहवास चक्कर लगाने लगा जिसके साथ-साथ घूमती मैं शायद एक अंधेरी गुहा में उतरती चली जाती पर सूजे हुए माथे और गालों की वजह से गड्डों जैसी दिखती मिन्दी की बेजान आंखों ने मुझे उबार लिया। हड़बड़ा कर उसे छाती से सटा लिया तो नज़र सिर के बीचों-बीच की खाली जगह पर पड़ी। बाल नहीं थे वहां। उनकी जगह खून फैल कर सूख गया था। हम तीनों चुप थे। अपनी-अपनी वजह से। इसलिए पिता जी नहीं जगे। फ्रिज से बर्फ़ निकाल कर मैंने रूमाल में बांधी और एक पोटली सी बना ली जिसे चेहरे पर घुमाने लगी। इससे पहले, दीवार के सहारे उसे बिठाकर, डिटोल से उसका सिर खूब अच्छी तरह से साफ करके बीटाडीन लगा दी थी। मिन्दी थोड़ा आश्वस्त और संयत हुआ तो उसने मेरी ओर देखा पर बोला कुछ नहीं। मां से वह भरसक नज़रें बचाता रहा। जो एक किनारे सुन्न खड़ी थीं। मैं यह-वह लाने के लिए रसोई या दूसरे कमरे में गई, तो मेरे लौटने तक भी उन्होंने आगे होकर सहेजा नहीं उसे। जो कुछ देर पहले तक बेहोश सा ही था लगभग। हां, वह मेरे काम में बाधा भी नहीं बनीं।

सुबह, बाबू जी के सामने आने से बचता रहा मिन्दी और आया भी तो क्रिकेट वाली टोपी पहन कर। पिता जी ने आदतन तिरछी नज़रों से उसे देखते हुए नाक-भौं सिकोड़ी। पर, उसने आम दिनों की तरह उन्हें कन्धे से घेर कर नाराज़गी की वजह नहीं पूछी। सोजिश पूरी तरह से नहीं उतरी थी और चेहरे पर मुक्कों के निशान निकट से पकड़ में आ सकते थे। चोट ऐसी नहीं थी कि वह पूरा दिन घर से बाहर नहीं निकलता। पर वह तो कई दिनों तक कमरे से भी कम ही बाहर आया। इस उम्र में जीवन को लेकर संजोए सुन्दर सपनों में सच्च के इस भयावह दखल ने उसके शरीर को जितनी तकलीफ पहुंचाई थी उससे ज्यादा दुःख मन को दिया था। आदमी की आदमी के प्रति नफरत और व्यवस्था की मक्कारी उसे एक साथ समझ में आ गई। - लोग ऐसे क्यों होते हैं दीदी ?” उसने पूछा तो उसके चेहरे को देखते मुझे लगा कि उस एक रात में पता नहीं वह कितनी उम्र फलांग गया। सातवें या आठवें दिन रात का खाना खाकर वह उठा तो पिता जी उसके पीछे-पीछे उसके कमरे तक पहुंच गये। उनके चेहरे को देखते मां रसोई का काम निबटाने का लालच छोड़ कर उनके साथ हो लीं और मैं तो भला हूं ही मां की पिछ-लग्गु। "तुझे हुआ क्या है ? तू यह टोपी क्यों पहने रखता है दिन-रात ?” जवाब देने की बजाए पिता जी के गले में बांहे डाल कर ज़ोर-ज़ोर से रो पड़ा वह। मैं उसके ज़ख्म पोंछते अपने आंसू रोकने की कोशिश में बेहाल हो रही थी। तब नज़रे फेरे रहा, पर रोया नहीं। मां उसके सामने पत्थर की मूरत बनी, पलक झपकाए बिना उसे देख रही थीं, तब भी नहीं रोया वह। मैं सोचती थी मां का दुलारा है। पिता जी भी दिन में एक बार तो उसकी जीवन शैली पर कुछ न कुछ कह ही देते। पर आज जाना कि वह क्या हैं इसके लिए - मैंने कुछ नहीं किया। (छुटपन में भी वह अपने बचाव में बोलता तो इसी वाक्य से शुरू कारता था) बस, असलम की बहन के निकाह के काम में उसके साथ-साथ इधर-उधर आ-जा रहा था कुछ दिनों से।” पिता जी बोले कुछ नहीं पर एक अजीब सी सख्त नज़र से उन्होंने मां को घूरा। हम भाई-बहन की कोई बात उन्हें बुरी लगे तो वह गुस्सा, मां पर ही उतारते हैं। मेरा मन मां के लिए खराब होने लगा। पर इस नज़र ने मिन्दी को नहीं रोका। भरा बैठा था वह, सो बोलता चला गया। - पिछली शाम को उसके घर पर काफी रिश्तेदार थे। पहले सलाह-मशवरा करते रहे। फिर गाना-बजाना शुरू हो गया। थोड़ी ही देर में उनकी गली के कोई दयानन्द मिश्रा जी आकर बोले कि शोर कम करिए। पड़ोस में भी लोग बसते हैं। असलम के अब्बु ने उन्हें बैठने को कहा और समझाते हुए कहने लगे कि खुशी का मौका है। बच्चे हंस-खेल रहे हैं। पर उनके छोटे भाई एकदम गुस्से में आ गये। - आपको तकलीफ क्या है ? बहू-बेटियां गा बजा रही है। कोई लाऊड स्पीकर तो लगाया नहीं हुआ हमने। हमारा घर है जो चाहेंगे, करेंगे। बेहतर है आप तशरीफ ले जाईए।” कहते-कहते उन्होंने उन्हें बांह से पकड़ कर दरवाजे से बाहर निकाल दिया। वह तो चले गए पर उसके बाद महफिल जमी नहीं। चाय-नाश्ता लेकर मैं वहां से निकल ही रहा था कि पांच-छः जवान होते हुए लड़के, माथे पर पटका बांधे और हाथों में लाठियां लिए भीतर घुसे। उनके सामने जो आया और जो कुछ आया उस पर अंधा-धुन्ध लाठियां चला कर भाग खड़े हुए। खिड़कियों के शीशे व सेंट्रल टेबल पर रखा फूलदान टूट गया, बैठक में कांच ही कांच बिखर गया। औरतों व बच्चों की चीख पुकार सुन कर मुहल्ले के लोग इकट्ठे हो गए। जिन्हें चोट आई थी उन्हें अस्पताल ले गए। अचानक हुए इस हमले से सब इतने भौचक्क थे कि अभी तक न घर वालों और न ही बाहर वालों में से किसी एक ने भी, मारपीट करने वालों या मिश्रा जी के सम्बन्ध में कुछ कहा था।”

"तू , यह ख़बर नवीसों की तरह बात घसीट क्यों रहा है ? सीधा यह क्यों नहीं बताता कि तेरे साथ यह सब कैसे हुआ ? - असल में पिता जी (मिन्दी हकलाने लगा था) मैं वहां से निकल ही रहा था कि पुलीस आ गई। सब को यही लगा कि उनकी हिफ़ाजत के लिए आए हैं ये पुलिस वाले। पर असलम के अब्बु, रूआंसे से होकर कुछ बताने को आगे हुए तो हवलदार ने बीच में ही रोक कर कहा कि घर के मर्द थाने चलें। वहीं चल कर कहें जो भी कहना हो। ”

"और तुम भी उनकी दुम बन कर पीछे-पीछे चले गए।” पिता जी का गुस्सा बढ़ता जा रहा था।

"मुझे जाना ही पड़ा। हवलदार कुछ सुनने को तैयार नहीं था। थाने में मिश्रा जी भी कुछ आदमियों के साथ मौजूद थे। उन्होंने रपट लिखाई कि दो अजीब से बदरंग हुलिया वाले आदमी असलम के घर की ओर जा रहे थे तो मिश्रा जी ने उनका पीछा किया। उन्होंने देखा कि पिछले दरवाजे से उन्हें भीतर कर लिया गया। मिश्रा जी ने जानना चाहा कि वे कौन हैं तो असलम के अब्बु व चचा गालियां देने लगे - आप कौन होते हैं हमारे घर में तांक-झांक करने वाले। देखते-देखते उन्होंने कमरा अस्त व्यस्त कर दिया। कांच तोड़ दिए और बोले कि जेल में सड़िए अब। हम कहेंगे कि यह सब आप का किया धरा है।”

"राम-राम। सिरे से ऐसा झूठ कैसे बोल सकता है कोई।” मां ने कहा तो आंखों-आंखों से ही, बरज दिया पिता जी ने।

"मां, असलम के चचा ने सच्चाई बताने की कोशिश की तो थानेदार बोला कि कौन सच्च बोल रहा है और कौन झूठ कह रहा है, यह तो कचहरी में ही पता चलेगा। हमारी सलाह तो यह है कि समझौता कर लीजिए। नहीं तो हमें, इनकी शिकायत पर आपको और आप की शिकायत पर इन्हें जेल में डालना पड़ेगा । आप के घर तो कल-परसों कुछ है भी शायद।” अब बात समझ में आने लगी थी साफ-साफ। असल में मिश्रा अपनी करतूत पर पर्दा डालने के लिए कर रहे थे यह सब। असलम ने तो कह ही दिया, आप करिए जो करना है। हम समझौता नहीं करेंगे। हां, इसे छोड़ दें। यह मेरा दोस्त है मोहन पंडित। हमारे घर का नहीं है यह।”

"तो तूं घर क्यों नहीं आ गया सीधा।” पिता जी उतावले हो रहे थे इतना कि मिन्दी की बात भी उन्होंने पूरी नहीं होने दी। पर मिन्दी अपेक्षाकृत ज्यादा ही धैर्य से बोला - मैं चला आया था वहां से। पर थाने से बाहर निकलते ही एक आदमी मुझे लगभग घसीट कर ही, पुलिस बैरक में ले गया। वहां दो आदमी पहले से ही थे। बिना कुछ पूछे बगैर उन्होंने लात-घूंसों से मुझे मारना शुरू कर दिया। फिर मेरा मुंह पानी से भरी हुई बाल्टी में डुबो दिया और तेज़ धार की उस्तरे जैसी किसी चीज़ से मेरे सिर के बीचों-बीच के बाल चमड़ी सहित उखाड़ दिए ।” मैं ऊंचे-ऊंचे रोते हुए मां से चिपट गई। जिन घावों पर मरहम लगा चुकी थी और जो लगभग भर चले थे अब। वे उधड़ गये जैसे। मैंने घबरा कर पिता को देखा, उनकी आंखों में वही घाव लाल खून होकर छलकने लगे थे। मिन्दी की आवाज मुझे फुसफुसाहट जैसी लगी , पानी की बाल्टी में सिर डुबोए आदमी की बहुत दूर से आती आवाज़।

“मुझे कुर्सी पर बिठा दिया उन्होंने और एक कागज व पैन मेरे सामने रख दिया फिर कहा, कबूल कर कि मैं भी मिश्रा जी के पीछे-पीछे था। मैंने देखा कि दोनों में से एक के पास पिस्तौल थी जो उसने घर के भीतर छिपा दी। मुझसे पहले वहां पहुंचे हुए मिश्रा जी ने उसके बारे में घर के लोगों से पूछा तो वे झगड़ा करने लगे। फिर पल भर में एक दूसरे को देखा और घर में हुड़दंग मचा दिया। घबराहट में घर की औरतें और बच्चे एक दूसरे पर गिरते पड़ते इधर-उधर भागने लगे।”

"तुमने कबूल कर लिया।” बाबू जी की आवाज़ ऐसी थी कि मैंने डर कर उन्हें देखा। उनका चेहरा लाल था और पल-पल जैसे बड़ा होता जा रहा था। वह इतने बेचैन दिखे मानों इस प्रश्न के उत्तर पर उनका बहुत कुछ दांव पर लगा हो या पता नहीं जीवन-मरण ही इस पर निर्भर करता हो। मुझे कुछ और नहीं सूझा तो मैंने मां को झिंझोड़ दिया। उस बुत में पहली बार कुछ हरकत हुई। आगे बढ़ कर उन्होंने मिन्दी का चेहरा हाथों में ले लिया और बड़बड़ाने लगीं - तू कबूल कर बेटा। कबलू कर ले। वे तालीबानी हैं, वे तुझे मार देंगे। तेरी कुर्सी के नीचे उन्होंने बम रखा है, तू कालिज कैसे जाएगा ? वे तेरी बस में बम रख देंगे, वे तुझे ...।” मां की ओर देखते, हैरान से खड़े मिन्दी को पिता जी ने दोनों कन्धों से पकड़ कर झिंझोड़ दिया और चीख कर बोले - तुमने कबूल कर लिया ?

"नहीं।” सीधा उनकी आंखों में देखते हुए उसने कहा और मां के हाथों को अपने चेहरे से हटाते हुए उन्हें बरबस पलंग पर बिठा कर उनके पांव के पास ज़मीन पर बैठ गया । मैं ठीक हूं मां। तालीबानी यहां, कहां से आएंगे। वे हमारे अपने लोग थे। उन्होंने मुझे छोड़ दिया । बहुत जोर की धूल भरी आंधी के बाद हुई बारिश ने पिताजी के मुंह पर पड़ी लाल राख धो दी। चेहरे के उभारों पर रूई के ठण्डे फ़ाहे होकर टिक गई बारिश। मां के पास आ गए वह। उन्हें पकड़ कर उठाया फिर कन्धों से घेर कर कमरे से बाहर ले जाते हुए बोले, " सच के संस्कार हैं तुम्हारे बेटे में और उन्हें निभाने की हिम्मत भी।” उनकी आवाज में रोज़-रोज़ कहे वाक्य ‘ओम-शान्ति-शान्ति-शान्ति’ का असर अपनी पराकाष्ठा पर था।

दीदी। पिता जी को असलम बुरा नहीं लगता और मैं इस बात को लेकर कितना नाराज़ था उनसे, मन ही मन। उसकी ओर देखते हुए एक पल के लिए तो मैंने चाहा कि यह खुशी रहने दूं उसके पास पर फिर कह ही दिया इस सब में पिता जी के सामने असलम तो कहीं था ही नहीं। उन्हें तसल्ली यही है कि तुम सच पर अड़े रह सके मिन्दी।” मेरी उम्मीद के विपरीत पहले से ज्यादा आश्वस्त स्वर में बोला वह, यह बहुत है दीदी कि उन्होंने सच को असलम से जुदा कर के देखा।


साभार - हिम दस्तक - जुलाई 2013