सच / गोवर्धन यादव

Gadya Kosh से
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कलाकार अपनी किस्मत आजमाने के लिए बंबई की ओर भागता है, तो बंबई का ही होकर रह जाता है। जब कोई साहित्यकार प्रसिद्धि पा जाता है तो वह दिल्ली की ओर कूच करता है और वहीं बस जाता है। मेरे साथ ठीक इससे उल्टा हुआ। दिल्ली का रहने वाला था। बंबई में नौकरी करता था। सेना में कमीशन्ड आफिसर था। पिताजी का साया सिर पर से उठ जाने के बाद नौकरी छोडक़र वापस दिल्ली आना पड़ा। जब तक बंबई में रहा, गीत-गजलें खूब लिखता रहा। अच्छा खासा नाम कमाया। फिल्मों के लिए भी कई गीत लिखे।

दिल्ली में, नई सडक़ पर मेरा पुश्तैनी मकान है। समय पास करने के लिए एक प्रेस डाल दिया। सारे साहित्यकारों से भेंट होती रहती। उनके उपन्यास, कविता संग्रह सब मेरी ही प्रेस में छपा करते थे।

शाम को फुर्सत में बैठा था। दूर एक बहरूपिया दिखाई दिया। वैसे दिल्ली में बहरूपियों की कोई कमी नहीं। धीरे-धीरे वह इसी ओर आ रहा था। मेरी प्रेस के सामने आकर रुका। मैंने देखा उसने अपने सिर पर मुकुट धारण किया हुआ था और कपड़े भी उसके राजसी ठाठ के थे। पैरों की जूतियां घिस गई थीं। दाढ़ी बढ़ी हुई थी। पथराई आँखों से मेरी तरफ देख रहा था। ऐसा लग रहा था कि वह कई दिन से सोया भी नहीं है।

मैंने इशारे से उसे बुलाया, और बैठने का इशारा किया। वह हाथ बाँधे कुर्सी पर बैठ गया। मैंने उससे कुछ पूछना चाहा पर चाहकर भी नहीं पूछ पाया। उसका चेहरा इस बात की गवाही दे रहा था कि वह सचमुच में कुछ कहने-सुनने लायक नहीं है। मैंने अपने नौकर को बुलाया और चाय के साथ कुछ नाश्ता वगैरह लाने के लिए कहा। नौकर चाय नाश्ता लेकर आ गया। मैंने गरमा-गरम समोसे उसके सामने रखे। उसने लपक कर समोसे उठा लिए और जल्दी-जल्दी खाने लगा। गिलास से पानी पीने के बजाय उसने भरा लोटा उठाया और गटागट पी गया। पानी पीने के बाद मैंने उसे चाय देनी चाही पर उसने सिर हिलाकर मना कर दिया। अपने मुंह को हाथों से पोंछते हुए उसने धीरे से कहा— “बाबूजी हम चाय नहीं पीते।”

अब वह सामान्य सा होने लगा था।

मैंने धीरे से पूछा— “भाई, क्या नाम है तुम्हारा? कहाँ के रहने वाले हो? ये बहरूपिये का काम कब से कर रहे हो?”

थूक से गले को गीला करते हुए उसने कहा— “भाईसाहब, मैं बहरूपिया नहीं हूं और न ही मैंने कोई स्वांग रचा रखा है। मैं इसी दिल्ली का रहने वाला हूं। बाबूजी, आप विश्वास नहीं करेंगे।” उसने कहा।

“कैसा विश्वास... कैसा विश्वास... सच-सच बताओ।” मैंने बात आगे बढ़ाई।

“भाईसाहब, मैं सच ही बोलता आया हूं। मैंने आज तक कभी भी झूठ नहीं बोला। सच ही बोलता रहा हूं परंतु आप सहज ही विश्वास करने वाले नहीं हो। मैंने सारी दुनिया को अपनी हकीकत बतलाई पर किसी ने भी मेरा विश्वास नहीं किया। शायद आप भी नहीं कर पाएँगे।” उसने कहा।

“अरे भाई, तुम बताओगे ही नहीं तो मैं कैसे विश्वास अथवा अविश्वास करूंगा। सच क्या है मुझ पर उजागर तो करो।” मैंने कहा।

“भाईसाहब, मेरा नाम युधिष्ठिर है। मैं ही चक्रवर्ती सम्राट हूं। इसी दिल्ली पर एक दिन मेरा राज्य था। मंत्री, महामंत्री, नौकर-चाकर, धन-दौलत, हीरा-मोती, क्या नहीं था मेरे पास।”

“तुम ... और युधिष्ठिर .... ऐसा नहीं हो सकता। उसे मरे-खपे तो बरसों हो गए। मैं नहीं मानता...।” मैंने कहा।

“बाबूजी, मैं मरा ही कब था। आपने व्यासजी का महाभारत तो पढ़ा ही होगा न। अपना राजपाट अपने पुत्रों को सौंप कर हिमालय पर पाँचों भाई एवं द्रौपदी तपस्या के लिए निकल पड़े थे। भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव एवं सबसे अंत में द्रौपदी का प्राणांत हुआ। मैं और मेरा कुत्ता दोनों आगे बढ़ते हुए चले जा रहे थे तभी देवराज इन्द्र अपना रथ लेकर वहाँ उपस्थित हुए। देवराज ने मुझे स्वर्ग चलने को कहा। पर कुत्ते को लेकर काफी तर्क-वितर्क हुए। अंत में मैं और मेरा वफादार कुत्ता सशरीर स्वर्ग चले गए थे। आपको नहीं मालूम स्वर्ग में जब तक पुण्य क्षीण नहीं हो जाते, तब तक वह स्वर्ग का उपभोग करता है और पुण्य जब समाप्त हो जाते हैं तो उसे फिर मृत्युलोक में भेज दिया जाता है। जब तक आदमी स्वर्ग में रहता है, वहाँ भोगविलास में व्यस्त हो जाता है। अप्सराएँ मुझे जानबूझकर छेड़ा करती थीं। और अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए तरह-तरह के षड्ïयंत्र रचती थीं। मैंने उनका प्रणय-निवेदन सहर्ष ठुकरा दिया। उन्होंने मुझे श्राप दे दिया और शापित होकर मैं पुन: धरती पर धकेल दिया गया। तब से लेकर आज तक मैं यहाँ-वहाँ भटक रहा हूं। मैं पूछने पर, लोगों को बताता भी हूं कि युधिष्ठिर हूं पर कोई मेरी बात पर विश्वास नहीं करता। आप एक बड़े साहित्यकार हैं और मेरी बात पर विश्वास कर रहे हैं।”

मैंने उससे प्रार्थना की कि वह मेरे पास रह जाए। सुबह शाम खाना मिलेगा और रहने को जगह। वह सहर्ष तैयार हो गया। मैंने उससे सारे आभूषण एवं कपड़े उतार कर रख देने को कहा और एक धोती और कुर्ता दे दिया कि इन्हें पहना करे। हज्जाम को बुलवाकर उसकी दाढ़ी वाढ़ी साफ करवाया।

वह दिन भर प्रेस में रहता। छोटे-मोटे कामों में स्वयं रुचि लेता। प्रेस के अन्य कर्मचारियों से भी वह हिल-मिल गया था। जब वह प्रेस में उपस्थित नहीं था, तब मैंने उसके आभूषणों की जांच गुप्त रूप से करवाया और पाया कि वे सब शुद्ध सोने के बने हैं। हीरे-जवाहरात की मालाएँ भी ओरिजनल थीं। अभी लौट कर आता हूं, कहकर वह एक दिन अलस्सुबह से निकला। शाम होने को आई पर वह नहीं लौटा। मुझे चिंता सताने लगी कि आखिर वह गया कहाँ होगा। यहाँ वहाँ खूब ढूंढ़ा पर वह मिला नहीं। पुरानी दिल्ली पर स्थित टूटे-फूटे किले के पास से लौट रहा था तो देखा श्रीमान वहाँ एक शिला पर बैठे ध्यानमग्न होकर किले को निहार रहे थे। मैंने उसे आवाज दी पर वह तो अतीत में खोया हुआ सा बैठा था। जाकर हिलाया तो चेतना में लौटते हुए उसने बतलाया कि यह उसका किला है। काफी दिनों के बाद मैं उसे घर लिवा ले गया। डरते-डरते मैंने अपनी पत्नी पर रहस्य खोला। वह भी सकते में आ गयी पर उसने तनिक भी विश्वास नहीं किया। उल्टे मुझे खरा-खोटा कह सुनाया। मेरे बच्चे उससे काफी प्रभावित हुए थे। सहज बुद्धि के जो थे। जब भी वह घर जाता, बच्चे उसे घेर लेते। वह कहानियां सुनाता अपने जमाने की। बच्चों को उसकी कहानी अच्छी लगती। और ज्यादा कहानियां सुनाने को वे जिद करते रहते। अब वह परिवार से भी ज्यादा घुल-मिल गया था। परिवार का एक सदस्य जो बन गया था। दुर्भाग्य से प्रेस में और घर में चोरी हो गयी। पत्नी ने पूरा घर सिर पर उठा लिया। और अंट-शंट बकने लगी। उसकी शक की सुई इसी पर घूम कर रुक जाती। मैंने लाख समझाया पर वह मानती तब न। उल्टे तरह-तरह के आरोप मुझ पर ही गढ़ दिए। श्रीमानजी दो तीन दिन से गोल भी थे। मेरे मन में भी अब शंका का बीज उग आया था कि हो न हो इसमें उसी का हाथ है। घर में अच्छा खासा हंगामा मचा हुआ था। उस पर तरह-तरह के आरोप लगाए जा रहे थे। पता नहीं, वह कहाँ से आ टपका। जब उसने सुना तो दोहरे आँसू रोने लगा। उसने तरह-तरह की कसमें खाई पर विनाशकाले विपरीत बुद्धि। विश्वास की बजाय अविश्वास ही बढ़ता चला गया। खैर थाने में रपट दर्ज करवाई गई।

लौट कर देखा, वह फिर से गायब था। मुझे मालूम था कि इस समय वह कहाँ होगा। मैंने स्कूटर उठाया और पुराने किले के खंडहरों की ओर बढ़ गया। रास्ते में देखता हूं यातायात रुका पड़ा है। बहुत भीड़ वहाँ उपस्थित थी। माजरा समझ में नहीं आ रहा था। स्कूटर को एक तरफ खड़ा कर मैं भीड़ को चीरकर केंद्र में पहुंचने का उपक्रम करता हूं, पास जाकर देखता हंू, एक व्यक्ति औंधा पड़ा है चारों तरफ खून ही खून बिखरा पड़ा है। मैंने उसे पलटकर देखा वह और कोई नहीं हमारा युधिष्ठिर ही था। कोई अज्ञात वाहन उसे कुचलकर आगे बढ़ गया था। काफी दूर तक खून से सने टॉयर के निशान दिखलाई दिए। मैंने उन निशानों पर बारीकी से गौर किया खून के धब्बो में ‘सच’ ‘सच’ ‘सच’ लिखा हुआ था।