सतीमैया का चौरा-9 / भैरवप्रसाद गुप्त

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रात काफ़ी बीत चुकी थी। बच्चे सो गये थे। महशर उसके सिर में तेल लगाकर उठी, तो बोली-नमाज़ का वक़्त हो गया।

मन्ने भी उठ गया। बोला-इस वक़्त मेरा मन मस्जिद में जाकर नमाज़ पढऩे को हो रहा है। तुम कहो...

-जाओ जी, इसमें पूछने की क्या बात है?

-तो मेरी टोपी उठा दो।

मन्ने बाहर आया, तो चाँदनी छिटकी थी। वह थोड़ी देर तक दरवाज़े की आड़ में खड़ा रहा कि कहीं महशर देखने न आयी हो। फिर निश्चिन्त होकर तेज़ कदमों से खण्ड की ओर चल पड़ा। उसे विश्वास था कि अगर बसमतिया ने उसे बुलाया है, तो वह ज़रूर उसका इन्तज़ार कर रही होगी। ...कभी उसने भी उसका इन्तज़ार किया था और वह झूठ नहीं बोलेगा, बसमतिया ने कभी भी अपना वादा नहीं तोड़ा। ...कई बार बारिश में भींगती हुई भी वह आयी थी। बल्कि किसी कठिन परिस्थिति में वह आती, तो वह और भी अधिक ख़ुशी होती। ...मन्ने उसके साहस का बखान करता, तो उसकी आँखों में एक अद्भुत ख़ुशी चमक उठती। ...आज इन्तज़ार करने की बसमतिया की बारी थी। वह ज़रूर इन्तज़ार कर रही होगी। ...सोच रही होगी कि यह कैसे मुमकिन है कि कहकर मियाँ न आएँ?

खण्ड का दरवाज़ा भिड़ा हुआ था। बाहर की जंजीर झूल रही थी। मन्ने ने समझ लिया कि ज़रूर कोई अन्दर है, वर्ना बाहर ताला लगा रहता। उसने पल्ला ठेला तो मालूम हुआ कि अन्दर से कुण्डी लगी है। ...मन्ने की छाती ज़ोर से धडक़ उठी, जैसे आज पहली बार किसी पराई औरत से मिलने जा रहा हो। उसने साँस रोककर धीरे से पल्ले पर अँगुली बजायी, तो टन्न-से अन्दर से आवाज़ आयी-के ह ऽ ?

यह बसमतिया की ठनकती आवाज़ थी! मन्ने का कलेजा जैसे दहल उठा। सच ही बसमतिया उसका इन्तज़ार कर रही है! पहले के दिन होते, तो मन्ने को ख़ुशी होती। इस तरह वह घबराता नहीं। लेकिन आज उसे लग रहा था कि दरअसल वह कोई ग़लत काम करने जा रहा है। ग़लत रास्ते से अपने को हटाकर, सही रास्ता पकड़ने के बाद फिर वह भटकने जा रहा है। महशर नमाज़ पढ़ रही होगी, और वह मसजिद जाने का बहाना करके इस कूचे में आ गया है!

बुझे गले से बोला-मैं हूँ।

उसकी आवाज निकलनी थी कि अन्दर कुण्डी खुलकर झन्न-से बज उठी और एक पल्ला खुल गया!

-अब आने का बखत हुआ है? दुलहिन छोड़ नहीं रही थीं का? कब की कसर निकाल रहे हो, मियाँ?-मन्ने के अन्दर आते ही दरवाज़ा बन्द करती हुई बसमतिया बोली।

मन्ने बिना कुछ बोले, कमरा पार करके आँगन में आ गया।

आँगन में चाँदनी बिछी थी। ठीक बीच में एक चारपाई पड़ी थी। मन्ने बैठ गया।

सामने आकर, खड़ी हो बसमतिया बोली-कबहू हमारी बारी, कबहू तुम्हारी बारी, चलो भाई, पारापारी! है न ? कभी आप मेरे पीछे पड़े थे, अब हम आपको सता रहे हैं। ...सच बताओ, मियाँ, अब हममें कीड़ा पड़ गया है न?

मन्ने ने आँखें उठाकर उसकी ओर देखा। चाँदनी में जैसे उसकी साफ़ धोती ही झलमला रही हो और उसकी काली देह ग़ायब हो गयी हो। कील का नन्हा-सा हीरा चमक रहा था...शिशु के एक दाँत की तरह! ...और अचानक ही मन्ने को ख़याल आया कि काश, वह यह कील न लाया होता! ...हैरान हो उठा कि यह कैसी बात उसके अन्दर एक हलचल मचा रही है कि जी में आता है कि बसमतिया को खींचकर अपने कलेजे में भींच ले! ...यह बसमतिया! ...जैसे इसकी देह की तेज़ गन्ध मन्ने के नथुनों में आज भी बसी हुई है। इस गन्ध को पास पाकर मन्ने कभी उसी तरह पागल हो जाता था, जैसे रजनीगन्धा से साँप, और वह उसे दबोच लेने को विवश हो जाता था। ...मन्ने झूठ नहीं बोलेगा, इस बसमतिया से जो आनन्द उसे मिला है, वह भुलाया नहीं जा सकता! ...लेकिन इस समय तो वह सिर्फ़ एक राज़ मालूम करने आया है। वह अपने पर क़ाबू रखेगा। उसे जल्दी ही लौट जाना है, वर्ना महशर...उसका क्या ठिकाना, हो सकता है, सन्देह होने पर यहाँ भी धमक पड़े। ...मन्ने का डर आज इतना असाधारण क्यों हो उठा है? क्या इसलिए कि कील का हीरा एक शिशु के दाँत की तरह चमक रहा है? शायद...शायद...

वह बोला-तेरी माई...

-वो तो कब की चली गयी। ...बड़ी देर हो गयी और आप नहीं आये, तो चलने के लिए कहने लगी। लेकिन हम कैसे जा सकते थे? फिर वह झगड़ा करके चली गयी। कहती गयी कि वो मक्कार नहीं आएगा, नहीं आएगा! अगर वो आ गया तो हम अपना सिर मुड़वा लेंगे!-बसमतिया खिलखिलाकर हँसती हुई बोली-अब कल, मियाँ, हमको आप एक छुरा दीजिएगा, उसका सिर जरूर मूँड़ेंगे! उसे का मालूम कि लागी इस तरह नहीं छूटती! और वह गुनगुना उठी :

लागी नाही छूटे राम चाहे जिया जाय

मन्ने को लगा कि चाँदनी से नहाये हुए सरोवर में अनगिनत कुमुदिनी के फूल खिल उठें हों! फिर भी सहमकर बोला-तू इस तरह हँसेगी?

-अब काहे का डर है, मियाँ!-उसके पास चारपाई पर बैठती हुई बसमतिया बोली-तुम्हारा बच्चा हमारे पेट में है? अब इस बन्धन से न तुम छूट सकते हो, न हम!- और उसने अपनी बाँह मन्ने के गले में डाल दी।

मन्ने के गले पर जैसे आरा फिर रहा हो! उसके दिल की धडक़न ही जैसे बन्द हो गयी हो! फिर भी जैसे उस बाँह को हटाना उसके बस का न था। काँपती आवाज़ में बोला-क्या यह सच है?

-हाँ! सफ़ेद दाँत चमकाती हुई बसमतिया बोली और मन्ने का हाथ पकडक़र, अपनी नाभि के नीचे ले जा, उसकी अँगुलियाँ वहाँ दबाती हुई बोली-यहाँ कड़ा-कड़ा लग रहा है न? ...पिछले महीने नहीं आया था। माई को चरका दे गये! जब उलटी होने लगी तो कैसे छुपाते? ...तीसरा महीना चल रहा है!

मन्ने की तो जैसे बची-खुची जान भी सूख गयी। उसने हाथ खींचते हुए कहा-पहले ही तूने क्यों न बताया?

-पहले ही का बताते? सखी कहती थी, कभी-कभी यों भी चढ़ जाता है। अब डोलन की बीमारी हुई तो बात पक्की हुई!

-तुझे डर नहीं लगता? तेरी माई कहती थी, तू डर के मारे माँड़ हो रही है?

-डर काहे का? हमें तो ख़ुशी है कि आपका बच्चा हमारे पेट में आया! माई बड़ी लोभिन है। हमें सिखाती है कि मियाँ के सामने खूब रोना। कहना, हाय, अब हम का करें, कोई पूछे तो का कहें? कैसे दुनिया को मुँह दिखाएँ! कहती है, ऐसा कहने-करने से मियाँ बहुत रुपया देंगे!

-हूँ!-मन्ने कुछ गुनता हुआ बोला-ठीक ही तो कहती है तेरी माई, कोई पूछेगा तो तू क्या कहेगी?

हुलसकर बसमतिया बोली-कह देंगे मियाँ का है!

-बाप रे!-मन्ने सहमकर बोला-तू तो मेरी नाक कटवाने पर तुली है!

-काहे!-इसमें कोई झूठ है का?-तुनककर बसमतिया बोली-नाक कटने का डर था, ता काहे को आपने आसनाई की?

-कौन जाने मेरा ही है या...

-मियाँ! ऐसी बात मुँह से न निकालना!-उठकर खड़ी होती हुई बसमतिया बोली-चाम की जबान पर लगाम रखो! ऊपर भगवान है, वो तो जानता है कि बसमतिया कैसी है! तुम्हें डर लगता हो, तुम्हारी नाक कटती हो, तो लो, कान पकड़ती हूँ कि कभी तुम्हारा नाम लिया, तो माई का मरा मुँह देखें। ...हम पर जो बीतेगी, छाती पर सह लेंगे, कभी तुम्हारा मुँह न जोहेंगे! का समझ रखा है तुमने? एक पानी पर जिन्दा रहनेवाले हैं हम! जिसने माथ में सेनुर डाला, वो तो पाया नहीं हमें, और तुम कहते हो...-बसमतिया फफककर रो उठी-हमारा करम ही जला है, नहीं तो तुम काहे को ऐसा कहते! जिसके लिए हमने घर छोड़ा, भतार छोड़ा, नेम छोड़ा, धरम छोड़ा, तुरुक के मुँह से मुँह सटाया, वही आज कहता है...राम-राम! तुम सब हयासरम घोलके पी गये हो का, मियाँ? भूल गये वो बातें...बसमतिया, हम तुझे गहनों से लाद देंगे। ...बसमतिया, हम तुझे जिनगी-भर अपना बनाकर रखेंगे! ...बसमतिया, हम तुझे रानी की तरह रखेंगे! ...मेरे रहते तुझे कभी कोई तकलीफ़ न होगी! ...छि: छि:! तुम आदमी हो, मियाँ, कि सैतान?-और बसमतिया आँचल से मुँह-आँख ढँककर बिलख पड़ी।

मन्ने की चोट की ही जगह पर जैसे किसी ने खींचकर एक कोड़ा लगा दिया हो! वह तिलमिला उठा। ...तुम इन्सान हो कि सूअर? ...तुम आदमी हो कि आदमी की पूँछ...और अब...उसके जी में आया कि इस सूअर की बच्ची का मुँह नोंच ले और दो थप्पड़ लगाकर दरवाज़े से बाहर कर दे! ...लेकिन वह तड़पकर ही रह गया।

आख़िर ज़ोर से बोला-चुप रह! कोई सुनेगा...

-इसी का डर रहता, मियाँ, तो हम तुम्हारे पास काहे को आते?-मुँह से आँचल हटाकर बसमतिया बोली-तुम समझते हो, मियाँ, कि कोई जानता ही नहीं? ...तुमसे भले कोई न कहे, हमसे किसने नहीं कहा है कि इसे कटा ही पसन्द है! ...डरो तुम, तुम्हारी बहुत लम्बी नाक है! हमें कभी किसी का डर नहीं रहा, न कभी रहेगा! जिसको डर हो, वह काहे को किसी से दिल लगाये?

-तू तो पागल हो गयी है, बसमतिया। कोई बात ही नहीं समझती!

-हाँ, पागल हम नहीं होंगे, तो का तुम होगे! चले हैं समझाने! ककवा को समझाया है न कि उसका पेट गिरवा दे या उसे ससुराल भेजवा दे? कह रहा था माई से। लेकिन तुम मुँह धो डालो! अपना सारा सिंगार उतार देंगे, माई को भी छोड़ देंगे, लेकिन अपने बच्चे पर कोई जरब न आने देंगे। ...और ससुराल से अब हमारा का सरोकार है? तुम्हारे पास बहुत फालतू रुपया है, तो माई और ककवा को दो, लेकिन ये जान रखो कि वो हमसे कुछ भी नहीं करवा सकते!

-बड़ी मुसीबत है...

-तुम्हारी का मुसीबत है, मियाँ? मुसीबत जिसकी है उसी की रहने दो! अब तुम्हें सब सूझेगी, पहले तो बस एक ही बात सूझती थी! ...जाने दो, अब बहस से का फ़ायदा? जब बात ही उठ गयी तो बात बढ़ाना फ़िजूल। हम जाते हैं। समझ लेंगे कि जिस पर नाचते थे, उसी ने सिर पर भउर उझिल दिया! वही मसल हुआ, मियाँ, कि बुलवलस रे बजना बजाय, खेदलस रे गड़लकड़ा लगाय! ...जाओ, तुम जानो और तुम्हारा भगवान्!- फफककर बसमतिया बोली और उमड़ती रुलाई को मुँह में लुग्गा ठूॅँसकर रोकती हुई, पलटकर, पाँव पटकती हुई चल पड़ी।

मन्ने के मन में आया कि उसे रोके। लेकिन वह उसे जाते देखता रहा और उसकी ज़बान न खुली।

बसमतिया चली गयी और मन्ने पर जैसे सैकड़ों घड़े का पानी डाल गयी। अपढ़, गँवार, देहातिन, नीच, नादान लडक़ी बसमतिया...और युनिवर्सिटी का पढ़ा, साहित्य-राजनीति का जानकार, समझ-बूझ का पक्का, ख़ानदानी घराने का मन्ने! ...मन्ने को वह कहाँ का छोड़ गयी? मन्ने का मन लानत मलामत करने लगा। इन्सानियत से इस क़दर गिरना भी क्या? ओह, वह कितना नीच, कमीना, दुष्ट, लम्पट, झूठा और मतलबी हो गया है? उसके लिए नैतिकता, सचाई, ईमानदारी, कत्र्तव्य, मानवीयता, आचार-विचार का कोई भी मूल्य नहीं रह गया है। वह आदमखोर बन गया है। किसी के भी जीवन और प्रेम का अर्थ उसके समक्ष कुछ भी नहीं। उससे बदतर इन्सान भी क्या कोई दुनियाँ में होगा? ...वह क्या था, क्या बनना चाहता था और क्या बन गया? ...यही खण्ड है...यही खण्ड है दादा...फिर अब्बा...इसी खण्ड में कभी एक कैलसिया आयी थी, जो आज तक अब्बा का नाम जपती है...और आज बसमतिया उसके मुँह पर थूककर चली गयी! ओह, मन्ने ने अपने बाप-दादा का नाम डुबो दिया, इस खण्ड को अपवित्र कर दिया। ...कहीं दादा और अब्बा की रूह...और मन्ने का रोम-रोम कण्टकित हो उठा।

बादल का कोई टुकड़ा चाँद को ढँक गया। आँगन की चाँदनी अचानक लुप्त हो गयी। मन्ने डर के मारे उठ खड़ा हुआ और भागता हुआ-सा खण्ड के बाहर हो गया। उसे दरवाज़ा बन्द करने का होश भी न रहा।

वह गली से मुड़ा ही था कि पहरुआ ठनका-जागते रहो-ओ-ओ-ओ हो!

मन्ने ठिठक गया।

बूढ़ा चन्नन उसके पीछे से बोला-के ह...-फिर ख़ुद ही जैसे अन्दाज़ से पहचानकर बोला-सरकार हैं? सलाम!

मन्ने बिना बोले ही तेज़ चलने लगा, तो मन-ही-मन विहसकर चन्नन बोला-खण्ड से आ रहे होंगे। ...पहर बुरा चढ़ा है, बाबू, सर-सबेरे घर-दुआर पकड़ लेना चाहिए। रात-बिरात बड़े आदमियों का निकलना आजकल ठीक नहीं।

मन्ने अनसुना करेक चलता रहा।

चन्नन फिर खाँसकर बोला-बसमतिया उधर रोती हुई जा रही थी, सरकार। जाने कहाँ से इस बेरा आ रही थी।

स्साला! मन्ने के मुँह में गाली भर आयी। बड़ा तीसमार खाँ बनता है! राधे बाबू सरपंच क्या हो गये थे, सलाम करना भी छोड़ दिया था! ...आज सरकार-बाबू कहकर जताना चाहता है कि हमें बसमतिया के बारे में सब मालूम है! ...मालूम है, स्साले तो क्या कर लेगा? वे भेंड़ें दूसरी होती हैं, जिन्हें तू चराया करता है! यहाँ तेरी माया चलने वाली नहीं!

चन्नन उसके पीछे-पीछे, उस की चाल से चलता हुआ बोलता जा रहा था-बाबू तो कोई आवाज़ ही नहीं देते...

-अपना काम कर!-गुस्से से चीखकर मन्ने बोला।

-सो ही तो कर रहे हैं, सरकार। ...सरकार को बुरा लग रहा है, तो कुछ न बोलेंगे। एक बीड़ी होगी, बाबू?

-नहीं!

-अच्छा, अच्छा,-कहकर चन्नन हँसा और दूसरी गली में यह कहता हुआ मुड़ गया-इस साल होली में कोई नाच भी नहीं आया इस गाँव में...रईसी ख़तम हो गयी! ...ह-ह! ...

मन्ने ज़नाने के सहन में पहुँचा, तो देखा बाहर के बरामदे में महशर लालटेन लिये खड़ी है।

-इतनी देर कहाँ लगा दी?-मन्ने को देखते ही महशर बोली।

-चलो-चलो, तुम बाहर क्यों आ गयी?-दरवाज़ें में घुसते हुए मन्ने बोला।

पीछे-पीछे चलती महशर बोली-मैं समझती थी कि दरवाज़े की मसजिद में नामज़ पढ़ रहे होंगे। जुम्मा मसजिद चले गये थे क्या?

मन्ने के जी में आया कि सब सच-बता दे। लेकिन ज़रा देर चुप रहने के बाद बोला-हाँ, वहाँ कई लोग आ गये थे। ज़रा बात होने लगी।

पलंग पर पड़ा, तो महशर ने कई बार कोई बात छेड़ी, कई बार उसे खोदा, लेकिन मन्ने ने कोई उत्साह नहीं दिखाया। बोला-बड़ी रात हो गयी है। अब चुप-चाप सो जाओ। योंही रोज़-रोज़ तुम्हारा सर दर्द करता रहता है।

दूसरे दिन बैठक में भिखरिया आया। बोला-सरकार, चन्नना मुनेसरी के दरवाज़े पर धरना देकर बैठा है? अन्धा कुत्ता बतासे भूँके। कहता है, बसमतिया को थाने में ले जाएँगे!

मन्ने ज़रा देर के लिए सन्नाटे में आ गया। बोला-मैं खण्ड में चलता हूँ। उससे बोलो, मैं बुला रहा हूँ।

-सरकार, मालूम होता है कि उसे महाजन लोगों ने भडक़ाया है।-भिखरिया बोला।

-लेकिन उन्हें क्या मालूम कि...

-औरतों की बात कहीं छुपती है, बाबू?-भिखरिया बोला-कैलास बाबू ने मुनेसरी को बुलाया था।

-ओह! तो क्या मुनेसरी ने...

-नहीं-नहीं, वो तो लड़ के आयी है। कहती थी, कैलास बाबू कह रहे हैं कि बसमतिया से थाने पर बयान दिलवा दे।

-हूँ! ...अच्छा, तू उसे खण्ड पर बुला! मैं चलता हूँ।-और मन्ने उठ खड़ा हुआ।

एक जाल और तैयार हो गया था। लेकिन मन्ने को विश्वास था कि बसमतिया उसका नाम नहीं लेगी। डर उसे मुनेसरी की ओर से था, इस मौक़े से भी वह अपना उल्लू सीधा करने की कोशिश करेगी।

चन्नन ने आकर सलाम किया और हाथ की लाठी फ़र्श पर खड़ी किये हुए बैठ गया।

उसे उस रूप में बैठते देखकर मन्ने का चेहरा सख़्त पड़ गया। बोला-क्या बात है, चन्नन?

-सुना है, बाबू...

-कहाँ से सुना है?-मन्ने ने उसे बीच ही में दबोच लिया-तुम्हें मालूम है, वे हमारे आदमी हैं?

-सरकार, हम तो हुकुम के बन्दे हैं! आप लोगों की हुकूमत आयी थी, तो आप लोगों का हुकुम बजाया और अब महाजन लोगों की हुकूम आयी, तो...

-किसने यह हुक्म दिया है तुम्हें?

-अब नाम जानकर आप का करेंगे? हमारा कहना तो ये है कि जब कोई बात ही नहीं, तो थाने में...

-चन्नन! यह तीन-पाँच हमारे यहाँ नहीं चलेगा! जानते हो न हमें?

-अरे सरकार, आप ये का कहते हैं? आप लोगन का हमने नमक खाया है, ख़ुद कुछ करना भी नहीं चाहते, मगर...

-अगर-मगर कुछ नहीं! सीधी राह से अपने घर चला जा! वर्ना थाने में बसमतिया नहीं, हम चलेंगे।

-सरकार चलें तो फिर का बात है!-ख़ुश होकर खुर्राट चन्नन बोला।

-अच्छा, तो यह बात है!-मन्ने ने आँख निकालकर कहा-तुम्हारी नज़र काफ़ी ऊँ चे है। लेकिन, चन्नन! अगर तुमने कोई बदमाशी की, तो समझ रखना तुम्हें चौकीदारी से हाथ धोना पड़ेगा!

-अब बुढ़ौती आयी, सरकार, चौकीदारी तो यों भी जाने ही वाली है। लेकिन...

-मालूम होता है काफ़ी तरी में हो।

-कहाँ सरकार, अभी तो बोहनी भी नहीं हुई!

-तो जा, तुझे जो करना है कर ले! वो कहीं नहीं आती-जाती!

-यह तो सरासर आपकी जियादती है! सरकार...

-वही समझो!

-हम तो सोचते थे, सरकार, यहीं से मामला रफा-दफा हो जायगा। लेकिन आप चाहते हैं कि दरोगाजी...

-चल, निकल यहाँ से!-मन्ने चिल्लाया-भिखरिया! यह साला अब जाय मुनेसरी के दरवाजे पर, तो तू इसकी टाँगे तोड़ दे! हम देख लेंग! दारोग़ाजी इसके दामाद लगते हैं!

चन्नन वहाँ से निकल भागा।

मन्ने ने भिखरिया से कहा-अभी जाकर जलेसर को तो बुला ला!

मन्ने का दिमाग़ अब शैतान की तरह काम करने लगा था। ज़रा देर में ही उसके दिमाग़ में पूरा नक्शा तैयार हो गया कि उसे इस मामले में क्या-क्या, कैसे-कैसे करना है।

जलेसर आकर तख़्त पर बैठ गया, तो चारपाई से उतरकर मन्ने उसके पास आ, बैठकर बोला-आपने कुछ सुना है?

-हाँ, कैलास बाबू, जयराम बाबू, रामसागर बाबू और समरनाथ बाबू हमारे पास आये थे। ...हमने तो कह दिया, पहले आप लोगन अपना-अपना दामन देखिए, फिर दूसरे पर कीचड़ उछालिएगा! अरे, साहब, हमसे कुछ छुपा है? ...ई रमसगरा। ...ससुरे की सारी जिनगी बीत गयी घठियाई में! ...और कैलास तो डूबके पानी पीता है, डूबके! ...

ख़ैर, उन लोगों ने चौकीदार को भेजा था। मैंने उसको डाँटकर भगा दिया है। अब शायद वे लोग उसे थाने भेजें।

-यह कांग्रेसियों की कौम बड़ी बद हो गयी है! हुकूमत की बू आ गयी है इन लोगन में। आप लोगन से बदला लेने के लिए ये हमेशा कमर कसे रहते हैं।

-पता नहीं, मैंने इनका क्या बिगाड़ा है? जिसने जि़न्दगी-भर इनकी मुख़ालिफ़त की, वह दोस्त बना है...

-दोस्त नहीं बना है! आप जानते नहीं, आपको मार गिराने के लिए दोस्त बनाया गया है! ...एक-एक करके सबको पाकिस्तान भेज देने का इन लोगन ने नक्सा तैयार किया है। हमको सब मालूम है। राधे बाबू जब से चले गये हैं और मैं सभापति हो गया हूँ, इन लोगन की अलग पंचायत बैठती है। मुझे लोग लाँघ जाने की कोसिस में हैं।

-आप चौकस रहिए और जमकर काम कीजिए! इनकी मैं एक न चलने दूँगा! ...फ़िलहाल यह जो मामला पड़ गया है, इसे कैसे सलटाया जाय, यह बताइए।

मन्ने जानता था कि उसे क्या करना है, लेकिन जलेसर का मान रखने के लिए पहले उसी से कहलाना ठीक समझता था। जलेसर बहुत ही कम पढ़ा-लिखा आदमी था, लेकिन था एक नम्बर का चतुर, पार्टीबाज और पालिसीवाला। अपनी बिरादरी और दक्खिन के मोहल्लेवालों का वह नेता था। अपने बल पर वह उपसभापति चुना गया था। राधे बाबू जानते थे कि उसे लेना ज़रूरी है, नहीं तो वह लेंगा लगा देगा।

कुछ सोचकर, गम्भीर होकर जलेसर बोला-आप पुलिस को सम्हाल लीजिए। पंचायत में कुछ आया, तो मैं सम्हाल लूँगा। लेकिन मुनेसरी और बसमतिया को टैट रखिए! ऐसा न हो कि वही फूट जायँ और आपका नाम ले लें।

-ऐसा नहीं होगा!

-बस तो ठीक है! बल्कि हम तो कहेंगे, ऐसी नौबत आये, तो बसमतिया को गाँठकर आप उससे इन्हीं में किसी का नाम कहलवा दें! फिर देखें तमासा! इन्हीं की लाठी, इन्हीं का सिर, वह लबेदा घूमे कि बेटा लोगन याद करें!

मन्ने तो इस आदमी की बुद्घि से दंग रह गया। यहाँ तक तो उसका भी दिमाग़ न पहुँचा था। बोला-देखा जायगा! ...अच्छा, अब आप जाइए! ज़रा हवा लेते रहिएगा। कोई बात हो, तो तुरन्त बताइएगा। मैं थाने जा रहा हूँ।

मन्ने थाने पर पहुँचा तो, देखा, फाटक के चबूतरे पर चन्नन कुत्ते की तरह टाही लगाये बैठा था। उसकी तरफ बिना देखे ही मन्ने अन्दर घुस गया।

वह नायब से मिला। नायब मुसलमान था। गाँवदारी की सब बातें समझाकर मन्ने ने उसके दिमाग़ में यह बात बैठा दी कि महाजन लोग उसे मुसलमान होने की वजह से पीसना चाहते हैं और उसने उसके हाथ में पचास रुपये रख दिये।

नायब बोला-मैं सब समझ गया। आप घबराइए नहीं। जब तक मैं यहाँ हूँ, वे लोग आपका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते! हाँ, यह बताइये, इनमें से किसी के पास कुछ माल-मता है?

मन्ने ने कहा-नहीं, सबकी हालत ख़राब है।

-फिर तो जाने दीजिए। वर्ना मैं चाहता था कि आप हमारे यहाँ एक रपट लिखा देते कि उसे इन्हीं में से किसी से है। फिर हम चखाते उन्हें मज़ा।

-नहीं, आपके हाथ कुछ लगेगा नहीं। बेचारे सभी को घुन लग गया है। बस, दिमाग़ ख़राब है। ...हाँ, हमारे यहाँ का चौकीदार भी आया है। बाहर बैठा है। वह उन्हीं लोगों का आदमी है। मुझे बहुत परेशान...

-उसकी ऐसी-की-तैसी! बाहर बैठा है वह?

-जी।

चलिए, आपके सामने ही साले को वह लात जमाता हूँ कि याद रखेगा!

वे दोनों बाहर आये।

चन्नन ने उठकर सलाम किया ही था कि नायब उस पर बरस पड़ा-साले! हरामखोर! हिन्दुओं का भूत चढ़ा है तेरे सिर पर! मार जूतों के दिमाग ठण्डा कर दूँगा! भाग जा यहाँ से! फिर सुना कुछ तो वर्दी छिनवा लूँगा!

बुड्ढा सिर झुकाये, चण्डूल सामने किये इस तरह खड़ा था, जैसे कह रहा हो, सरकार, जितना चाहें, इस पर लगा लीजिए, कोई असर होनेवाला नहीं है। ये बाल ऐसे ही थोड़े उड़े हैं!

मन्ने की ओर मुडक़र नायब बोला-अच्छा, अब आप जाइए। मैं उधर निगाह रखूँगा।

मन्ने वहाँ से चला, तो निश्चिन्त हो गया था। इस समय रह-रहकर उसके दिमाग़ में चन्नन की ही बात उठ रही थी। साला कैसे सिर झुकाकर खड़ा हुआ था! ...इतनी उम्र हो गयी, लेकिन इसकी देह पर कोई असर ही नहीं मालूम पड़ता। उसे बचपन से ही इसी रूप में यह दिखाई देता आ रहा है। मूँछे कैसी छँटवाके रखता है, जैसे जवानी का शौक अभी तक नहीं गया! सुनने में आता है, चमरटोलिया के चमारों और दुसाधों की लड़कियों...आँख नहीं देखते साले की! छोटी-छोटी कुचकुची तो हैं, लेकिन काजल लगाये बिना साला कभी नहीं रहता! सुना है, रोज़ क़स्बे से कलिया लाता है। लोगों को मूसना और खाना, दो ही तो काम है इसके...

उँह! यह मन्ने को क्या हो गया है? आप बुरा, जग बुरा! इस वक़्त उसे सारी दुनियाँ ही वैसी लग रही है। यह उसकी आँखों को क्या हो गया है कि सबकी कमज़ोरी पर ही उसकी दृष्टि जा रही है? क्या अपनी कमज़ोरी को ढँकने के लिए, उसे सर्वसाधारण बनाने के लिए? ...अगर ऐसा है, तो सर्वसाधारण में और उसमें क्या फ़र्क़ है? उसके इतने पढऩे-लिखने का, इतने समझदार होने का, राजनीति और साहित्य का मर्मज्ञ होने का क्या अर्थ हुआ? क्या सच ही वह गाँव के गँवार लोगों के स्तर पर ही आ गया है? उन्हीं की तरह रहना-सहना, उन्हीं की तरह दाँव-पेच, उन्हीं की तरह सोचना-समझना...नहीं, यहाँ ज़रूर एक अन्तर है, उसके सोचने-समझने का स्तर अवश्य भिन्न और ऊँचा है। ...वह अपनी कमज़ोरियों से अवगत है, उनकी आलोचना कर सकता है, पश्चात्ताप भी...अभी उसमें कुछ अवश्य जि़न्दा है, जो उसे कोंचता रहता है। ...लेकिन इससे क्या होता है? काम तो वह...और मन्ने सोचने लगा, अगर यह, जो उसके अन्दर अभी जि़न्दा है, मर गया, तो? नहीं-नहीं, वह इसे मरने नहीं देगा! ...

मन्ने की अब यह भी एक आदत हो गयी है। वह मन-ही-मन पश्चात्ताप करता है, लेकिन फिर-फिर किसी-न-किसी कमज़ोरी का शिकार हो ही जाता है और फिर उसे वह-सब करना पड़ता है, जो वह कभी भी नहीं चाहता। ...क्या करे, गाँव में रहकर गाँवदारी के कीचड़ से वह अपने को कैसे बचाये? अगर वह उससे बचाने की भी कोशिश करे, तो क्या गाँव उसे छोड़ देगा? अगर वह एक बार भी दब जाय? तो शायद गाँव उसे चटनी बनाकर चट जाय, उसका अस्तित्व ही ख़तरे में पड़ जाय, खेतों पर लोग हल्ला बोल दें और मारकर उसे पाकिस्तान भगा दें। ...रोज़गार कोई वह कर नहीं पाता, ये खेत ही तो उसके सहारा रह गये हैं, ये भी चले जायँ, तो उसकी क्या हालत हो। ...एक बार भी, एक मामले में भी अगर वह मात खा जाय, तो समझ लो, गया! आज जिन्हें उसने अपना बना लिया है, वे भी उसका साथ छोड़ देंगे। यहाँ कमज़ोर को, मात खाये हुए को कौन पूछता है? सब ताक़त के ही साथी हैं, जानते हैं कि ताक़तवर के साथ रहने से उनका भी भला होगा, उन पर कोई मौक़ा पड़ेगा, तो वह निबाह देगा, उनके काम आएगा। यहाँ यह सवाल नहीं है कि कौन किसे किस तरह मात देता है, किस चाल से, किन तिकड़मों से, किन झूठ-फ़रेबों से, रसूख़-रिश्वतों से; यहाँ तो यही देखा जाता है कि मात तो दे देता है? ...आज गाँव में उसकी इज़्ज़त है, उसके हिमायती हैं, प्रशंसक हैं, इसीलिए न कि वह मात खाना नहीं जानता, दुश्मनों की हर चाल का उसके पास जवाब है उल्टे वह दुश्मनों को मिट्टी सुँघा देता है। ...आज लोग बात करते हैं तो कहते हैं, कि मन्ने एक ही दिमाग़वाला है। गाँव में बत्तीस दाँतों के बीच जीभ की तरह रहता है, फिर भी मजाल है कि कोई कहीं से उसे ज़रब पहुँचा दे! ...सच, वह कितना अकेला है! गाँव में उसके हमख़याल कुछ और लोग होते, तो वह गाँव का नक्शा ही बदल देता। इतने पढ़े-लिखे युवक हैं इस गाँव में, लेकिन उनकी ज़ेहनियत देखकर रोना आता है। काश, यह साम्प्रदायिकता का भूत उनके सिर पर सवार न होता; वे मिल जुलकर गाँव की भलाई की बात सोचते; आपस की बेकार की लड़ाई में धन और शक्ति का अपव्यय न कर, उसे गाँव के निर्माण में खर्च करते! तब इस पंचायत से कितना काम बनता! ...जगह-जगह स्कूल खुल रहे हैं, कुएँ ख़ुद रहे हैं, कम्पोस्ट बनाये जा रहे हैं, सडक़ें बन रही हैं, सहकारी समितियाँ स्थापित हो रही हैं, छोटे-छोटे उद्योग स्थापित हो रहे हैं और यहाँ कुछ नहीं हो रहा है। यहाँ भी स्कूल के नाम पर, कुएँ और कम्पोस्ट के नाम पर जाने कितने लोगों को रुपये मिले, लेकिन बनी एक चीज़ भी नहीं, रुपये हड़प लिये गये। और साला पंचायत सिक्रेटरी अपनी जेब गर्म कर झूठी रिपोर्ट दे देता है। गाँव की हालत बदतर होती जा रही है। अभी तक पंचायत का मकान भी नहीं बना। ...मुन्नी ने कितनी बार कहा कि वह क्यों नहीं दिलचस्पी लेता? लेकिन उसे गाँव की स्थिति का क्या ज्ञान है? वह क्या जानता है कि गाँव की इस स्थिति में कोई भी काम करना कितना कठिन है? ...यह ठीक है कि पहले उसने गाँव के मामले में कोई दिलचस्पी नहीं ली, क्योंकि वह सोचता था कि गाँव में उसे रहना ही नहीं। लेकिन अब तो वह दिलचस्पी लेना चाहता है। कितनी बार उसने कैलास, समरनाथ वग़ैरा से गाँव की उन्नति के लिए कोई योजना बनाने की बात की, लेकिन वे उसकी किसी बात पर कोई ध्यान ही नहीं देते, जैसे इसमें उसी का कोई स्वार्थ हो। उल्टे वे लोग उसे कोई-न-कोई बात उठाकर परेशान करना शुरू कर देते हैं। बी.एस-सी. इंजनियरिंग पास करके कैलास बेकार पड़ा हुआ है। समरनाथ एम.एस-सी. अधूरा छोडक़र कई साल इधर-उधर चक्कर लगाकर गाँव में आया है और अब क़स्बे के स्कूल में काम पाने की कोशिश में है...जयराम भी इण्टर करके क़स्बे के स्कूल का चक्कर लगा रहा है...क़मबख़्त क़स्बे में जाकर यही काम करेंगे, लेकिन गाँव में एक हाईस्कूल खोलने की योजना बनायी जाती है, तो उस पर कोई ध्यान नहीं देते...

होली में मुन्नी आया, तो उसे ताज्जुब हुआ कि मन्ने ने खण्ड क्यों छोड़ दिया। उसने सबसे पहले मन्ने से यही बात पूछी, तो उसने पूरी कहानी उसे सुनाई। सुनकर मुन्नी बड़ी देर तक ख़ामोश बना रहा।

सिर गड़ाये हुए मन्ने ने कहा-तुम ख़ामोश क्यों हो गये? मैं बहुत बुरा आदमी हूँ न!

-नहीं, मुझे दुख इस बात का है,-मुन्नी ने ज़रा रुककर कहा-कि तुम गाँव में रहकर भी कुछ नहीं कर रहे। पहले तो यह बहाना था कि गाँव में तुम्हें रहना नहीं, लेकिन अब देखता हूँ कि यह गाँव तुम्हें छोड़नेवाला नहीं। फिर भी तुम इन बेकार की बातें में...

-यहाँ कुछ करना असम्भव है, मैं कई बार बातें करके हार मान गया हूँ।

-किनसे बातें की हैं तुमने?

-कैलास...

-हूँ!-मुँह बिचकाकर मुन्नी बोला-उन लोगों से तुम बात ही क्यों करते हो? उनके बस की कोई बात होती, तो वे ख़ुद अपनी एँडिय़ाँ क्यों रगड़ते? फिर उन्हें गाँव की तरक्क़ी की क्या ज़रूरत है? उन्हें गाँव में क्यों कोई दिलचस्पी हो? वे हमेशा शहरों में व्यापार करते रहे हैं। उन्हें खेती-गृहस्थी से कोई मतलब नहीं। ...क़स्बे और शहर के स्कूलों में अपने लडक़ों को भेजने के लिए उनके पास पैसे हैं। ...समझते हो कि नहीं? ...अरे, तुम उन लोगों से बात करो, जिनकी जड़ें गाँव में गड़ी हुई हैं, जिनकी जि़न्दगी और मौत का सम्बन्ध इस गाँव से है, जिनके लडक़ों ने आज तक खडिय़ा पकडऩा न जाना, जिनके पास दो जून खाने को अन्न नहीं, तन ढँकने को कपड़े नहीं, जो खेत की उपज बढ़ाने के लिए सदा प्रयत्नशील रहते हैं, लेकिन बेचारे कुछ कर नहीं पाते, क्योंकि उनके पास न पर्याप्त साधन हैं, न सुविधा, न...

-जब पढ़े-लिखे युवक ही...-बीच में ही मन्ने बोल पड़ा।

-उनकी बात मत करो!-मुन्नी ने उसे रोककर कहा-मेरी पूरी बात तो सुनो! ये पढ़े-लिखे तो तुम्हारी ही तरह नौकरी के सपने लेते हैं और सोचते हैं कि एक-न-एक दिन कहीं चले जाएँगे। ...तुम मेरी बात मानो, तुम इनको छोड़ दो। तुम यहाँ के लोगों से कहो, बल्कि आगे बढक़र कोई काम शुरू करो, फिर देखो, ये तुम्हारा साथ देते हैं या नहीं, तुम जानते नहीं, कि इनकी कोरी आत्माएँ हर चीज़ के लिए कितनी भूखी हैं! ...तुम याद करो, बचपन से ही जिस रूप में अपने इस गाँव को हम देखते आये हैं, क्या उसमें आज भी कोई परिवर्तन आया है? ...कभी कोई परिवर्तन आया भी है तो वह ज़मींदारों और महाजनों की आर्थिक स्थिति तक ही सीमित रहा है। ...ज़मींदार ख़तम हो गये, महाजन टूट गये, लेकिन गाँव के किसानों और मजदूरों में क्या कोई भी परिवर्तन आया है? ज़मींदार जब तक रहे, उन्हें पीसते रहे। ज़मींदारी जब टूटी, तो उन्होंने उसके टूटने के पहले ही अपने खेत बेंच दिये या झूठे सहकारी फ़ारम खोल लिये या अपने रिश्तेदारों के नाम खेत लिख दिये। तुम्हीं बताओ, तुम्हारे गाँव में कितने भूमिधर बने हैं? ज़मींदारी जिस तरह टूटी है, उससे किसानों को सही माने में क्या फ़ायदा हुआ है, उनके जीवन में क्या परिवर्तन आया है? आज़ादी के बाद जो उम्मीदें वे बाँधे हुए थे, उनमें क्या एक भी पूरी हुई है? उनकी हालत क्या किसी भी रूप में सुधरी है? कितने ही किसान तो ज़मींदारों के खेत निकाल लेने के कारण अब मजूर बन गये हैं और यहाँ-वहाँ मजूरी की खोज में भटक रहे हैं। तुम किसी भी किसान या मजूर को ले लो, उसके घर को जाकर देखो, उसके तन के कपड़े को देखो, उससे पूछकर समझो कि उसमें क्या परिवर्तन आया है? ज़मींदार न रहे, तो अब स्थानीय कांग्रेसी नेताओं ने उनकी जगह ले ली है, और किसानों पर वे उन्हीं की तरह हुकूमत करते हैं। ...यह स्थिति कैसी भयावनी है, क्या तुम इसका अन्दाज़ा नहीं लगा पाते? किसान अपनी मुक्ति के लिए, अपनी उन्नति के लिए जाने कितनी पुश्तों से छटपटा रहा है? ...तुम इनके लिए कोई काम शुरू करके देखो, कि ये किस तरह आगे बढ़ते हैं। एक बार ये जाग जायँ, अपनी ताक़त को समझ जायँ, तो फिर अपना रास्ता ये स्वयं बना लेंगे और अपने कन्धों से उन सारी ताक़तों को झिझोडक़र फेंक देंगे, जो आज तक उन्हें दबाती आयी हैं! तुम कुछ करके तो देखो, ज़रा आगे बढक़र तो देखो।।

-एक बात तुम भूल जाते हो कि मैं मुसलमान हूँ। यहाँ साम्प्रदायिकता का विष...

-साम्प्रदायिकता से छुटकारा पाने का भी यही एक रास्ता है। साम्प्रदायिकता दूर करने के लिए हमारे यहाँ बड़ी-बड़ी कोशिशें की गयी हैं, लेकिन ये सभी कोशिशें सुधारवादी ढंग की थीं और इनका जो परिणाम हुआ हमारी तुम्हारी आँखों के सामने है। हिन्दू-मुसलिम एकता के मसीहा, महात्मा गाँधी, स्वयं इस आग को बुझाते-बुझाते, इसी आग की भेंट हो गये। ...पाकिस्तान बन गया, लेकिन अब भी हमारे समाज से यह विष न गया और अगर इसी तरह चलता रहा, तो कभी भी न जायगा और यह लड़ाई हमारे समाज को हमेशा खोखला करती रहेगी, उसकी शक्ति का ह्रास करती रहेगी। ...तुम अपने गाँव को ही देखो। तुम लोग इसी साम्प्रदायिकता के चक्कर में पडक़र कितना धन, शक्ति और समय बरबाद करते हो? ...और सोचो, अगर यह ऐसे ही चलता रहा, तो तुम लोग और क्या कर सकते हो? ...असल में यह लड़ाई ऊपर के तबकों की है और यह हमारे देश को सामन्तवाद की देन है। इसका इतिहास बहुत पुराना है, लेकिन इसके रूप में कभी भी कोई परिवर्तन नहीं आया। पहले यह हिन्दू राजाओं और मुसलमान राजाओं की लड़ाई थी, अंग्रेजों के आने के बाद यह हिन्दू सामन्तों और पूँजीपतियों और मुसलमान सामन्तों और पूँजीपतियों की लड़ाई बनी। इन लड़ाइयों से केवल हिन्दू या मुसलमान राजाओं, सामन्तों और पूँजीपतियों का ही लाभ हुआ। आम जनता चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान हमेशा ही पिसती रही, गोकि सामन्त धर्म के नाम पर जनता को अपना मुहरा बनाये रहे, उन्हें ही लड़ाते रहे, उन्हें ही मरवाते और कटवाते रहे, पहले युद्घ-भूमि में, बाद में दंगों में। ये लड़ाइयाँ हमेशा ही सामन्त या ऊँचे तबक़े के लोगों द्वारा चलायी गयीं, चाहे वह अकबर या औरंगजेब हो, महाराणा प्रताप या शिवाजी हो, या कांग्रेस या मुसलिम लीग हो, और उनका उद्देश्य सदा केवल एक रहा, सत्ता हस्तगत करना, अपनी स्वार्थ-सिद्घि के लिए हुकूमत की बागडोर अपने हाथ में रखना। ...इतिहास की बात छोड़ो, आज हिन्दुस्तान और पाकिस्तान को देखो। देखो कि आज वहाँ या यहाँ किसकी हुकूमत है और उससे किसको लाभ है? क्या पाकिस्तान में आम जनता को कुछ मिला है? क्या हिन्दुस्तान में आम जनता को कुछ मिला है? दोनों देशों में पूँजीपतियों और सामन्तों का बोलबाला है और आम जनता पहले ही की तरह उनकी चक्की में पिसी जा रही है। और कमाल की बात यह है कि जिस साम्प्रदायिकता की समस्या को हल करने के लिए देश का बँटवारा किया गया, वह अपनी जगह पर क़ायम है। इसकी भयंकरता में जो कमी दिखाई दे रही है, उसका कारण यह है कि मुस्लिम सामन्त और पूँजीपति अधिकतर पाकिस्तान चले गये हैं, यह नहीं कि यह दुर्भावना ही कमज़ोर पड़ गयी है। यह निश्चित है कि जब तक सामन्तवाद और पूँजीवाद जीवित रहेगा, तब तक वह दुर्भावना मिट नहीं सकती! यह किसी-न-किसी रूप में जीवित रहेगी। किसी भी सुधारवादी ढंग से इसे समाप्त नहीं किया जा सकता। इसका इलाज केवल एक है, और वह है जनता में वर्ग-चेतना पैदा करना, जनता की मुक्ति की लड़ाई को वर्ग-संघर्ष के स्तर पर ले आना। मुस्लिम जनता और हिन्दू जनता में जैसे ही वर्ग-चेतना का प्रादुर्भाव होगा, उन्हें धर्म के नाम पर कोई सामन्त या पूँजीपति भडक़ा नहीं सकेगा। वर्ग-चेतना धर्मों की दीवार को हमेशा के लिए गिरा देगी। ...क्या तुमने कभी सुना है कि किसी मिल के सचेत हिन्दू-मुसलमान मज़दूरों के बीच कभी कोई दंगा हुआ है? ...इसलिए मैं चाहता हूँ कि तुम अपने गाँव में भी इस मसले को इसी रूप में देखो और इसी तरह आम जनता को आगे लाकर इस समस्या का हल निकालो। ...अपनी बुद्घिमानी और कूटनीति और चालों से भले ही तुम यहाँ के महाजनों को मात देते जाओ, लेकिन इससे कोई निर्णयकारी परिणाम निकलनेवाला नहीं है, यह याद रखो!

-लेकिन यहाँ तो हिन्दू बहुत अधिक हैं और मुसलमान...

-इसका कोई सवाल ही नहीं है। मुझे यह पक्का विश्वास है कि अगर तुम जनता के लिए कुछ करोगे, जनता में चेतना का संचार करोगे, तो तुम्हारे मुसलमान होने के बावजूद, जनता तुम्हारा साथ देगी, महाजनों की साम्प्रदायिकता से तुम्हारी रक्षा करेगी!

-मेरी समझ में यह बात नहीं आती,-सशोपंज में पडक़र मन्ने बोला-किसी भी सार्वजनिक काम के लिए पैसों की ज़रूरत पड़ेगी और पैसा यहाँ के महाजनों के ही पास है।

-पैसे की ज़रूरत किसलिए पड़ती है? ... ख़ैर, छोड़ो यह बहस? ...मुझे यहाँ सात दिन रहना है और मैं यहाँ एक जूनियर स्कूल खोलकर तुम्हें दिखाता हूँ कि देखो, कैसे काम होता है। कल होली है, कल ही इसकी नींव पड़ेगी। जुलाई के पहले ही कम-से-कम तीन झोपडिय़ाँ खड़ी कर दी जाएँगी और जुलाई से बाकायदा स्कूल चालू हो जायगा।

-असम्भव!

-तुम मेरे साथ रहकर देखो! तुम राय दो कि यह स्कूल कहाँ बनवाया जाय?

-पहले तो तुम्हें ज़मीन ही नहीं मिलेगी।

-फिर तो तुमसे बात ही करना बेकार है। तुम भी उसी थैली के चट्टे-बट्टे हो! ...तुम बस देखते रहो!

-नहीं-नहीं, मैं तुम्हारा पूरा साथ दूँगा! मेरी बातों का बुरा न मानो! मुझे इन कामों का कोई अनुभव नहीं। मैं सच ही जानना चाहता हूँ, सीखना चाहता हूँ। गाँव में कुछ करना चाहता हूँ !

-अच्छा, तो यह बताओ, तुम्हारे भट्ठे में कितनी टूटी-फूटी और बेकार ईंटें पड़ी हैं?

-बहुत सारी हैं। कहोगे तो कुछ अच्छी ईंटें भी मैं दूँगा। अब तो नया भठ्ठा लगाने का वक़्त आया।

-तो ईंटें तुम गिरवा सकते हो?

-कहाँ?

-ज़रा देर सोचकर मुन्नी बोला-गाँव के दक्खिन, परती पर। वहाँ से कई गाँव नज़दीक पडेंग़े, उन सभी गाँवों से लडक़े पढऩे आएँगे, उन सभी गाँवों से हमें मदद मिलेगी। साथ ही वहाँ बहुत बड़ी जगह है, स्कूल के विस्तार में आगे कोई कठिनाई नहीं पड़ेगी! ...हाई स्कूल...कालेज...

-लेकिन वह जगह तो पंचायत की है, शायद...

-और पंचायत किसकी है?

-गाँव की।

-और स्कूल किसका होगा?

-तुम इतना नादान मुझे मत समझा! तुम जानते नहीं कि पंचायत में कैसे-कैसे लोग हैं!

-मैं सब जानता हूँ! तुम इसकी फ़िक्र मत करो! कल सुबह गाड़ी से या गधों से तुम परती पर ईंटें गिरवा दो। फिर देखो, कल क्या होता है!

-बहुत अच्छा, मैं अभी गाड़ीवानों को बुलाकर इसका इन्तज़ाम करता हूँ। कल होली है, फिर भी गाड़ीवान सुबह-सुबह दो-चार खेप तो गिरा ही देंगे।

दूसरे दिन सुबह मन्ने और मुन्नी परती पर पहुँचे और बड़े चटियल मैदान में स्कूल के लिए जगह तजवीज़ करने लगे।

जो भी उधर से गुजरा, उसने पूछा-यहाँ परती पर आप लोग क्या कर रहे हैं?

मुन्नी ने जवाब दिया-स्कूल बनेगा न! जगह तज़वीज़ कर रहे हैं। ज़रा आप भी चुनने में मदद दें, किस ओर बनाया जाय?

देखते-देखते वहाँ दर्जनों आदमी जमा हो गये और मन्ने और मुन्नी के साथ परती में घूम-घूमकर जगह देखने और अपनी राय देने लगे। आदमियों की ख़ुशी और उत्सुकता की कोई सीमा न थी। सभी इस पर एकमत थे कि यह बहुत ही अच्छा और ज़रूरी काम है। क़स्बे में कितने लोग अपने लडक़ों को भेज पाते हैं। यहाँ स्कूल खुल जायगा तो पढ़ाई की बहुत बड़ी सुविधा हो जायगी।

इतने में चार ईंटों से लदी गाडिय़ाँ वहाँ आकर खड़ी हो गयीं। ईंटें कहाँ गिरायी जायँ, गाड़ीवान पूछने लगे।

परती के उत्तर, जहाँ से खेत शुरू होते थे, वहाँ सिंचाई के लिए एक इनारा बना था। सबकी राय हुई कि इनारे के नजदीक ही स्कूल बनाया जाय, पानी का आराम रहेगा।

ईंटें गिरा दी गयीं।

मन्ने और मुन्नी वहाँ से गाँव में आने लगे, तो मन्ने को आश्चर्य हुआ कि रास्ते में जो भी मिला, उसी ने पूछा-क्या स्कूल बनने जा रहा है? ...बड़ी ख़ुशी की बात है, लडक़ों को पढऩे का आराम हो जायगा। ...चलो, परती का भाग्य खुला! बड़ी एकान्त जगह है! ...इससे अच्छा उसका दूसरा उपयोग हो ही नहीं सकता था। ...कोई काम पड़े तो हमसे भी कहिएगा!

और मुन्नी कहता-आप ही लोगों को तो यह स्कूल बनाना और चलाना है। शाम को बड़े दरवाज़े पर एक मीटिंग होगी, ज़रूर आइएगा और अपनी राय दीजिएगा कि कैसे काम शुरू किया जाय।

गाँव में आने के बाद मुन्नी ने पहला काम यह किया कि अपने पड़ोस के दो लडक़ों को पकड़ा और उनसे कहा कि गोपालदास की मठिया से घडिय़ाल लेकर वे सारे गाँव में यह ऐलान कर आएँ कि आज शाम को बड़े दरवाजे पर स्कूल के बारे में सब लोगों की एक मीटिंग होगी। रंग-गुलाल खेलने के बाद सब लोग वहाँ इकट्ठा हो जायँ। लडक़े जाने लगे, तो कई और लडक़े उनके साथ हो लिये। उनके लिए घडिय़ाल बजाना तो एक तमाशा ही था।

नये या धुले, तरह-तरह के रंगों के छींटों से भरे हुए कपड़े पहने और मुँह, माथे और सिर पर गुलाल मले हुए लोग बड़े दरवाज़े पर इकठ्ठा हुए, तो लोगों को सन् इक्कीस के दिन याद आ गये। इतनी बड़ी मीटिंग तो आज़ादी के दिन भी नहीं हुई थी। हर बिरादरी के लडक़े, जवान और बूढ़े जमा हुए थे। कितनी ही औरतें गोद में बच्चे लिये हुए एक ओर आ खड़ी हुई थीं। गुलाल की तहों के ऊपर से ख़ुशी की आभा सबके चेहरे और आँखों में चमक रही थी। सब हँस-बोल रहे थे। आज होली के रंग ने जैसे सब के दुख-दारिद्र्य को ढँक दिया था।

मुन्नी ने उठकर गाँव के सबसे बूढ़े किसान हीरा कोइरी का नाम सभापति के लिए पेश किया, तो सब लोग चिहा-चिहाकर उसकी ओर देखने लगे। महाजन बिरादरी को ही नहीं, जलेसर लोहार को भी इससे कोई साधारण धक्का न लगा। ग्राम-पंचायत का स्थानापन्न सभापति होने के नाते, राधे बाबू की अनुपस्थिति में, वह गाँव की किसी भी सभा-सोसाइटी का अपने को स्वभावत: सभापति समझता था। उसने अपने सूखे हुए मुँह के साथ मन्ने की ओर देखा, तो मन्ने ने उठकर कहा-हमारे घरों में यह परिपाटी चली आती है कि जब कोई शुभ काम पड़ता है, तो घर के सबसे बड़े बूढ़े आगे-आगे रहते हैं और उन्हीं की राय के मुताबिक़ सब काम होता है। स्कूल का काम किसी एक घर या बिरादरी का नहीं है, पूरे गाँव का है। इसलिए मुन्नी बाबू ने जो हीरा भगत को इस काम में अगुआ बनाया है, वह मुनासिब ही है। हीरा भगत गाँव के सबसे बड़े-बूढ़े आदमी हैं। इनके बारे में आप सभी जानते हैं कि ये कितने ईमानदार और भगत क़िस्म के आदमी हैं। इनकी अगुवाई और इनके आशीर्वाद से हमारा यह काम ज़रूर सुफल होगा।

अब सब लोगों की निगाहें हीरा भगत की ओर थीं। कई लोगों की आवाज़ भी आयी कि यह बिल्कुल ठीक हो रहा है। लेकिन हीरा भगत की हालत बहुत ख़राब थी। अपनी बिरादरी के वे मुखिया थे, किन्तु उन पर इस प्रकार का संकट जीवन में पहली ही बार पड़ा था। उनका सिर झुका हुआ था और गुलाल से लाल उनकी बेबाल की खोपड़ी चाँदनी में चमक रही थी। लाग़र जिस्म पर गाढ़े की धुली नीमस्तीन के बटन खुले हुए थे और छाती के सफ़ेद बाल साफ़ दिखाई दे रहे थे। बड़ी देर तक उन्होंने गर्दन न उठायी, तो मुन्नी उनके पास जाकर बोला-बाबा? सब लोग आपका मुँह ताक रहे हैं। अब काम आगे बढा़इए!

बड़ा ज़ोर लगाकर जैसे हीरा भगत ने अपना सिर उठाया, लेकिन उनकी चुचके आम के छिलके की तरह पपनियाँ उठ ही न रही थीं। आँखें मूँदे ही वे आद्र्र कण्ठ से बोले-ए उमिर में हमसे आप लोगन का चाहते हैं :

थाकलि उमरि गोन भई भारी

अब का लदब....ए ब्यौपारी

आ-रे भाई, अब आप लोगन का जमाना है,-भगत खाँसकर बोले-आगे बढक़े ई भार उठाओ सब लोगन मिलके। गाँव में इतने जन हैं, एक-एक तिनका उठाके दे देंगे, तो इस्कूल खड़ा हो जायगा। ...इस्कूल के बारे में सुनके...हम का बताएँ कि हमारे मन में का उठा। ...जब हम लरिके थे, तब तो पोखरेवाला छोटा इस्कूल भी नहीं था। अब तो आप लोगन बड़ा इस्कूल बनाने जा रहे हैं। हमारे मन में यही आता है कि काहे नहीं आज हम लरिका हुए! ...-और भगत ने जो आँखें खोलीं, तो उनमें पानी चमक उठा। बोले-अब मन्ने बाबू और मुन्नी बाबू ने ये जग रोपा है, तो पूरे गाँव का यह फरज है कि सब लोगन मिलके इस जग को पूरा करें। कोई भी इससे अंग न चुराए। जिससे जो बन पड़े, उठा न रखे। हम और का कहें।-और उन्होंने अपना सिर पुन: झुका लिया।

अब मुन्नी उठकर बोला-बाबा ने जो कहा है, उसके बाद कुछ कहने की ज़रूरत नहीं रह जाती। ...फ़िलहाल ६-७-८ तीन दर्जों के लिए तीन झोपडिय़ाँ खड़ी की जाएँगी। ईंट मिल गयी है। खम्भे खड़े करके ताड़ की धरन और तडक़ लगाकर बाँस की कोरई पर पतलो का पलान डाल देना है। इन सामानों में जो जितना दे सके, दे और जो जो भी काम कर सके, करे। राज, लोहार और मिस्त्री लोग मजूर और नोनिया लोग अपना एक-एक दिन भी दे देंगे, तो यह काम पूरा हो जायगा। जो काम न कर सकें, एक-एक मजूर का एक-एक दिन का ख़र्चा दे दें। ...झोपडिय़ाँ बन जाने के बाद स्कूल के इन्तजाम के लिए एक कमेटी भी बनानी पड़ेगी।

कैलास उठकर बोला-कमेटी भी आज ही बना दी जाय।

मुन्नी बोला-कमेटी बनाना अभी ठीक नहीं। स्कूल बनाने में जो लोग काम करेंगे, उन्हें देखकर ही कमेटी का चुनाव करना ठीक होगा। इस वक़्त तो सारा गाँव ही कमेटी है।

-हाँ-हाँ,-चारों ओर से आवाज़ आयी-अभी इस्कूल तो बन जाय!

मुन्नी ने काग़ज़-पेन्सिल निकालकर कहा-तो कल के लिए दस-बारह आदमी अपना नाम दे दें। कल हमें ताड़ और बाँस काटना है और उसे ढोकर परती पर पहुँचाना है। सब सामान वहाँ इकट्ठा हो जायगा, तब झोपडिय़ाँ उठाने का काम शुरू किया जायगा।

पटापट नाम आने लगे। बारह नाम आ गये, तो मुन्नी बोला-अब परसों के लिए दो मिस्त्री, तीन नोनिये और छै मजूरों के नाम चाहिए।

इसी तरह एक हफ्ते के लिए नाम आ गये, तो उसने कहा-अब चन्दे के लिए घूमनेवालों के नाम चाहिए, हर बिरादरी से कम-से-कम एक-एक आदमी।

यह भी सूची बन गयी ,तो मुन्नी बोला-इन नामों के अलावा जो लोग बच गये हैं, उन्हें जब भी फ़ुर्सत मिले, परती पर पहुँचे और जो भी काम उनसे हो सके करें।

-और का?-हीरा भगत बोले-यह पंचऊ काम है, बिना कहे भी ख़ुद आगे बढक़े सबको काम करना चाहिए। ...कोई न-नुकुर न करे।

सभा विसॢजत हुई। वहाँ से चले, तो मन्ने बोला-सच ही अब तो स्कूल बन गया लगता है। इतनी जल्दी और आसानी से यह काम हो जायगा, मुझे उम्मीद न थी।

-इन कोरे इन्सानों को तुम क्या समझते हो? इनकी शक्ति का करिश्मा रूस में देखो, चीन में देखो। चींटियाँ मिलकर जैसे बड़े-बड़े कीड़ों को टाँग ले जाती हैं, वैसे ही रूसी और चीनी जनता ऐसे बड़े-बड़े काम कर रही है कि सुनकर आश्चर्य होता है!

हमारे यहाँ यह अपार शक्ति अभी तक सोयी पड़ी हुई हैं, इसे जगाने के लिए रूसी और चीनी नेताओं की तरह के आदमियों की ज़रूरत है। हमारे यहाँ के सफ़ेदपोश नेताओं और अफ़सरों को प्रलय तक इसकी समझ न आएगी! ...कल तुम परती पर इन लोगों को देखना! तुम हमारे साथ ताड़ और बाँस काटने चलोगे न?

-कहाँ से काटोगे?

-जहाँ भी दिखाई देगा।

-कोई रोकेगा नहीं?

-कल देखना!

दूसरे दिन चार आदमियों, दो टाँगों और दो आरियों के साथ मन्ने और मुन्नी निकल पड़े। तालाब के पास पहली बँसवारी में, एक कोठे के एक बाँस की जड़ में जैसे ही एक आदमी ने आरी लगायी कि दूर से आती हुई एक पुकार कान में पड़ी-केवन ह...रे, बाँस काऽता?

सबने आवाज़ की ओर देखा, खेतों के पार, दूर गाँव के उत्तर सीवाने से एक आदमी हाँक लगाता दौड़ा आ रहा था। आरी थथमी, तो मुन्नी बोला-तुम अपना हाथ मत रोको!

मन्ने बोल-उस आदमी को तो आ जाने दो।

एक आदमी बोला-वह लछना है, उसी की यह बँसवारी है।

-आने दो, लेकिन आरी रोकने की कोई ज़रूरत नहीं है।-मुन्नी बोला।

तेज़ दौड़ता हुआ लछना पास आया, तो उसके पाँव शिथिल हो गये। सिर झुकाकर बोला-आप लोगन हैं? ...हम समझे...कितने बाँस लगे हैं, हमारे जिम्मे

-तुम जितने दे सको,-मुस्कराकर उसके कन्धे पर हाथ रखते हुए मुन्नी बोला।

-अभी हर कोठे से एक-एक ले लें। बाद में...

-ठीक है। और भी तो बँसवारियाँ हैं।

-देखके पके-पके बाँस ही कटवाएँ।

-तुम भी ज़रा मदद कर दो।

-बहुत अच्छा।

बाँस वहीं गिराकर, ताड़ के बग़ात में पहुँचे और सब ताड़ों को देखकर, तीन पुराने ताड़ काटने के लिए चुन लिये गये।

एक ताड़ पर टाँगे पड़ने लगे और ठाँ-ठाँ की आवाज़ें चारों ओर गूँजने लगीं। ...आधा कट चुका, तो फिर एक बौखलायी हुई पुकार गाँव की ओर से आती सुनाई पड़ी।

उधर देखकर मन्ने बोला-ये मोअज़्ज़म अली हैं। उन्हीं का यह ताड़ है।

-आने दो, अब तो कट ही गया।-लापरवाही से मुन्नी बोला।

पुराने, पोढ़े और नाटे मोअज़्ज़म अली! ज़बान ऐसी फ़सीह कि मुँह देखिए!

बोले-ए! टाँगा रोको!-फिर मुन्नी की ओर मुडक़र बोले-ये क्या बात है , साहब? आप लोगों की हुकूमत है, तो क्या इसके यह मानी होते हैं कि...

-देखिए, आप एक ग़लत बात से अपना बयान शुरू कर रहे हैं...

-अरे चच्चा,-मन्ने बोला-ये तो कम्युनिस्ट हैं!

-तब तो इनपर दुहरा जुर्म आयद होता है, एक ग़रीब इन्सान...

-चच्चा, उस लछना ने अभी तेरह बाँस दिये हैं, आप...

-लेकिन यहाँ औरों के भी तो ताड़ हैं, मेरे ही ताड़...

-औरों के भी काटे जाएँगे, हमें पाँच ताड़ों की ज़रूरत है। तीन यहाँ से काटेंगे, दो दूसरे बग़ात से।

-लेकिन बग़ैर इजाज़त...

-देखिए मोअज़्ज़म अली साहब,-मुन्नी बोला-आप ही कहिए, आप गाँव के बुज़ुर्ग और दानिशमन्द आदमी हैं, अगर घर-घर घूमकर हम इजाज़त लेने लगें, तो उसी के होकर रह जायँ कि नहीं? फिर आप जानते हैं...

-तो क्या आप ज़बरदस्ती...

-देखिए, हम कोई अपना घर छाने के लिए तो ताड़ काट नहीं रहे हैं। गाँव के काम के लिए, गाँव की कोई चीज़ लेना कोई ज़बरदस्ती नहीं है।

-और अगर मैं न दूँ?

-ताड़ तो आधा कट चुका है।

-यही तो ज़्यादती है आप लोगों की! ... ख़ैर, मुझे इसकी एक रसीद दे दें।

-स्कूल की कमेटी बन जायगी, तो रसीद...

-चच्चा, आप रसीद क्या करेंगे?

-इससे कम-से-कम मेरे पास एक सबूत तो रहेगा कि मैंने एक ताड़ स्कूल को ख़ैरात दे दिया। कोई यह तो नहीं कहेगा कि मुझे दबाकर मेरा ताड़ काट लिया गया। फिर मेरे लडक़े की फ़ीस...

-रसीद मिल जायगी, साहब,-मुन्नी टाँगेवालों की ओर मुडक़र बोला-जल्दी गिराओ, जी!

मोअज़्ज़म अली ताड़ की ओर एक बार देखकर चले गये, तो मुन्नी बोला-यह मध्यम वर्ग है!

-न काटने देते तो तुम क्या करते?

-तो ज़बरदस्ती काटते। वह कर ही क्या सकते थे? ज़रा शोर मचाते, गाँव जुटता और सभी उन्हीं की लानत-मलामत करते। हम कोई अपने लिए थोड़े काट रहे हैं। यह तो महज़ वे हमारे ऊपर रोब जमा रहे थे, विरोध में उनके पाँव देर तक नहीं टिकते। ...

मुसलमानों में विरोध करने का दम नहीं रहा, शायद इसीलिए तुम ऐसा कह रहे हो।

-नहीं, इसलिए नहीं कहता। मैं किसी मसले को उस नज़र से देखता ही नहीं। मेरे देखने में वह नज़र ही ग़लत है। गाँव की भलाई के काम में कोई हिस्सा न ले, मदद न करे, उलटे अड़चन डाले, तो उसके साथ क्या व्यवहार किया जाय, सवाल यह है। लछना जिस बात को समझता है, उसे मोअज़्ज़म अली न समझें, यह तो बात नहीं। लेकिन फिर भी मोअज़्ज़म अली समझने से इनकार करते हैं, तो उनकी दवा क्या है? गाँधीवादी बताएँगे कि ऐसे आदमी को समझाओ-बुझाओ, फिर भी वह राह पर न आये, तो उसे उसके हाल पर छोड़ दो। एक-दो हों, तो उन्हें उनके हाल पर छोड़ा भी जा सकता है, लेकिन तुम देखोगे, ऐसे लोग इसी गाँव में कितने ही मिलेंगे, और एक को तुम उसके हाल पर छोड़ दोगे, तो सबके साथ भी ऐसा ही करना होगा। और फिर यह बीमारी फैल भी सकती है। देखा-देखी और लोग भी उसी रास्ते पर जा सकते हैं, अपनी चीज़, अपनी मेहनत का मोह किसे नहीं होता? इसलिए सही तरीक़ा यही है कि ऐसे लोगों की स्वेच्छा को पूरे गाँव की भलाई के लिए, जरूरत पड़े तो ज़ोर से भी, दबा ही दिया जाय। कुछेक की स्वेच्छा के लिए पूरे गाँव की भलाई खतरे में पड़े, यह बरदाश्त करना ठीक नहीं। सर्वसाधारण की भलाई के लिए कुछेक को दबाने की जरूरत पड़े, तो इसमें बुराई क्या है? ...अभी तो शुरूआत है, तुम देखोगे कि इसमें कैसी-कैसी दिक्क़तें पेश आती हैं। और हर समय सर्वसाधारण की भलाई को यदि अपनी दृष्टि में न रखा गया, तो इसके खटाई में पड़ जाने की भी पूरी आशंका बनी रहेगी। लेकिन सर्वसाधारण लोग तुम्हारे साथ हैं, तो घबराने की कोई बात ही नहीं, तुम्हारी ताक़त का कोई मुक़ाबिला नहीं कर सकता, उसके सामने सबको झुकना ही पड़ेगा। ...हिन्दू मुसलमान की बात कभी भी अपने दिमाग़ में उठने ही न दो, यह समस्या धार्मिक नहीं, राजनीतिक है और सही राजनीति ही साम्प्रदायिकता का अन्त कर सकती है।

-काश, तुम यहीं रहते!-मन्ने ने ठण्डी साँस लेकर कहा।

-बेकार की बात मत करो। अब आगे बढक़र काम करो। काम और यहाँ के सर्वसाधारण लोग ही तुम्हें रास्ता दिखाएँगे। अपनी तुमने बहुत की, अब ज़रा मेरी भी करके देखो। ...हो सकता है, इसी में तुम्हें सुख-शान्ति मिले, शक्ति और साहस भी मिले। काम की यहाँ कमी नहीं है। तुम लगे रहे, तो हमारा यह गाँव दूसरे गाँवों को भी रास्ता दिखाएगा।

मुन्नी को अपनी छुट्टी चार दिन और बढ़ानी पड़ी। परती पर तीन नहीं, चार झोपडिय़ाँ खड़ी हो गयीं, तीन कक्षाओं के लिए और एक आफ़िस के लिए। साथ ही करीब तीन सौ रुपये और पच्चीस मन गल्ला हाथ में लगा। स्कूल खुलने में अभी तीन महीने की देर थी, इस बीच कागज़ी कार्रवाई, मेज़-कुर्सियाँ और बोर्ड बनवाना, मास्टरों की तैनाती, स्कूल का प्रचार आदि काम थे, जिन्हें पूरा करना था। सबको समझा-बुझाकर जुलाई में आने का वादा कर मुन्नी चलने लगा, तो मन्ने के साथ कितने ही लोग उसे क़स्बे तक मोटर पर छोड़ने आये।

मन्ने बड़ी लगन से काम में जुट गया। शीशम के पेड़ माँग-माँगकर उसने मेज़ वगैरा ज़रूरी फर्नीचर बनवाये। कई आदमियों को साथ लेकर गाँव-गाँव में घूमकर सबसे मिला और उन्हें अपने लडक़ों को इसी स्कूल में भेजने को कहा। नोटिसें छपवाकर गाँव-गाँव में बँटवायीं। इन्स्पेक्टर से मिलकर ज़रूरी मालूमात हासिल किये। आफ़िस के लिए ज़रूरी रजिस्टर और दूसरे सामान वग़ैरा मुहय्या किये।

और जुलाई में स्कूल खुला, तो तीनों दर्जों में इतने लडक़े आये कि कोई हिसाब नहीं। उन्होंने सोचा था कि फ़िलहाल एक-एक सेक्शन चलेगा, लेकिन यहाँ दो-दो सेक्शन से भी अधिक लडक़े हो गये। परती पर जैसे सारा जवार ही टूट पड़ा था, एक मेले-सा लग गया था। सुनकर गाँव के नमकीन और मिठाई के दो-दो खोमचेवाले भी आ गये और उनकी अच्छी दुकानदारी हो रही थी।

प्रवेश लेनेवालों की संख्या जब तीन सौ पहुँच गयी, तो मुन्नी और मन्ने ने अपनी-अपनी क़लमें रोक लीं। अब भी बहुत-सारे विद्यार्थी और उनके अभिभावक खड़े थे, उन्हें कल आने के लिए कहकर वे उठ खड़े हुए।

इतनी भीड़ के कई कारण थे। इस गाँव के दो कोस इर्द-गिर्द कोई जूनियर हाईस्कूल न था। क़स्बे में दो जूनियर हाईस्कूल थे, एक डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का और दूसरा प्राइवेट, जो इधर के गाँवों से काफ़ी दूर पड़ते थे। क़स्बे के स्कूलों में इन कक्षाओं की फ़ीसें सब मिलाकर क्रमश: ढाई रुपये, साढ़े तीन रुपये और चार रुपये थीं, लेकिन यहाँ आठ आने, बारह आने, और एक रुपया रखी गयी थीं। उस पर यह आश्वासन दिया गया था कि जिसके पास कम-से-कम एक बैल की खेती नहीं है, उसके घर के किसी भी लडक़े से फ़ीस नहीं ली जायगी। इसका यह नतीजा हुआ कि क़स्बे के पास के गाँवों से भी बहुत-सारे लडक़े आये। और तो और, दो-तीन साल से पढ़ाई छोड़नेवाले लडक़े भी एक बड़ी संख्या में फिर अपने आगे की पढ़ाई जारी करने आये थे।

शाम को गाँव में सभा हुई और मुन्नी ने स्कूल में स्थान की कमी की समस्या सभा के सामने रखी, तो यह तै हुआ कि यह स्कूल अब इसी गाँव का नहीं रहा, आस-पास के सभी गाँवों से इसमें हिस्सा लेना चाहिए। अगले दिन शाम को परती पर उन सभी गाँवों के प्रतिनिधियों की एक सभा बुलायी जाय, जहाँ-जहाँ से लडक़े आये हैं और सबके सामने यह समस्या रखी जाय।

वही हुआ और बड़ी खुशी से दूसरे गाँववालों ने मिलकर तीन और झोपडिय़ाँ बनवाने का जि़म्मा ले लिया। उसी अवसर पर स्कूल की इक्कीस सदस्यों की कमेटी भी बना दी गयी और पदाधिकारियों का चुनाव भी कर लिया गया। सभी काम सर्वसम्मपति से हुए। मन्ने मन्त्री चुन लिया गया और विधान बनाने का काम भी उसे ही सौंप दिया गया। मास्टरों की नियुक्ति के लिए एक तीन सदस्यों की समिति बना दी गयी। इस समिति को साल-भर का बजट बनाने का काम भी सौंप दिया गया।

मन्ने को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि कैलास ने भी उसके पास मास्टरी के लिए अर्ज़ी भेजी है। एक इंजीनियर कभी इस स्थिति को प्राप्त होगा, यह कौन सोच सकता था। मन्ने को बड़ा दुख हुआ और उसने उसकी नियुक्ति के लिए कमेटी के सामने विशेष रूप से सिफ़ारिश की। उसका ख़याल था कि कैलास के स्कूल में रहने से महाजनों की भी सहानुभूति स्कूल को प्राप्त हो सकती है।

स्कूल फ़र्राटे से चल पड़ा और यही बात क़स्बे के स्कूलों के अधिकारियों को न सुहायी। उन्होंने इन्सपेक्टर को रिपोर्ट कर दी कि सरकारी नियमों के विरुद्घ यहाँ फ़ीस कम ही नहीं ली जाती, बल्कि अधिक फ़ीसदी लडक़ों की फ़ीस भी माफ़ की गयी है और इसका परिणाम यह हुआ कि क़स्बे के स्कूलों में विद्यार्थियों की संख्या कम हो गयी है। समरनाथ ने गाँव में यह अफ़वाह उड़ा दी कि यह स्कूल बन्द करवा दिया जायगा। मन्ने को यह ख़बर मिली, तो उसका माथा ठनका कि कहीं फिर लड़ाई शुरू न हो जाय।

लेकिन अब वह इन बातों से बौखलानेवाला न था। उसे जनता की शक्ति का ज्ञान हो गया था। उसके यहाँ जो भी पूछने आया, उसे उसने समझा दिया कि हमारा यह स्कूल न डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का है, न सरकार का। अगले वर्ष जब नयी कक्षा खुलेगी और रिकगनिशन का सवाल उठेगा, तो देखा जायगा। उसने शाम को स्कूल में लडक़ों और मास्टरों की मीटिंग की और उन्हें भी समझा दिया कि घबराने की कोई बात नहीं, स्कूल किसी भी हालत में बन्द नहीं हो सकता। और दूसरे दिन वह सीधे इन्सपेक्टर से मिलने जि़ले पर जा पहुँचा। स्कूल का विधान और वर्ष का बजट उनके हाथ में देकर वह बोला-क्या आपके यहाँ हमारे स्कूल के खिलाफ़ कोई शिकायत आयी है?

इन्स्पेक्टर ने विधान और बजट देखकर कहा-शिकायतें तो कई आयीं हैं। ...ये दोनों चीज़ें आप मेरे पास छोड़ जाइए, इन्हें अच्छी तरह देखकर ही मैं किसी नतीजे पर पहुँच सकूँगा। लेकिन एक बात है कि आप लोगों ने फ़ीस की दर नियम से कम रखी है। इसके विषय में तो मुझे कुछ करना ही पड़ेगा।

-इन्स्पेक्टर साहब, आप देहात के आम लोगों की माली हाल से तो वाक़िफ़ होंगे ही। साथ ही क्या सरकार की यह नीति नहीं कि धीरे-धीरे शिक्षा नि:शुल्क कर दी जाय?-मन्ने ने कहा।

इन्स्पेक्टर साहब थोड़ी देर के लिए चुप होकर सिर हिलाते रहे। फिर बोले-यह तो ठीक है, लेकिन इस विषय में सरकार ने अभी कुछ किया तो नहीं है। तब तक क्या नियम का पालन करना आवश्यक नहीं? आख़िर इतनी फ़ीस से आप लोग स्कूल का ख़र्चा कैसे चलाएँगे?

-आपने शायद बजट ध्यान से नहीं देखा। हमारे स्कूल में बारह गाँवों के विद्यार्थी आये हैं और इन सभी गाँवों की पंचायतों ने हर साल स्कूल को सौ रुपये देने का वादा किया है। फिर हमने यह भी तै किया है कि स्कूल की साधारण समिति के लिए कम-से-कम दो हज़ार सदस्य बनाएँगे और उनके चन्दे से स्कूल को पाँच सौ रुपये हर साल मिलेंगे। इसके अलावा हर घर में चुटकी के लिए हाँडी रखी गयी है। इस तरह हमारा ख़र्चा आसानी से चल जायगा। फिर फ़ीस बढ़ाने की क्या ज़रूरत है?

-यह तो आप लोग बहुत अच्छा कर रहे हैं, लेकिन...जाने दीजिए, मैं एक राय देता हूँ, वैसा कीजिए। ...आप ऐसा क्यों नहीं करते कि रजिस्टर पर नियमानुकूल ही फ़ीस दिखाएँ, भले विद्यार्थियों से कम लें। ऐसा करने से कम-से-कम किसी ने शिकायत की, तो मेरे लिए तो बचने की एक जगह बनी रहेगी।

-इन्स्पेक्टर साहब, झूठा हिसाब-किताब...

-आप बात नहीं समझते। असल बात यह है कि आपके स्कूल में बहुत-से बड़-बड़े लोग भी दिलचस्पी रखने लगे हैं। जिला-कांग्रेस के सभापति और एक कांग्रेसी एम.एल.ए. भी इस बात को लेकर मुझसे मिल चुके हैं।-रुककर इन्स्पेक्टर साहब धीरे से बोले-आपसे क्या छुपाना, इन लोगों का कहना है कि अगर यह स्कूल चला, तो वह पूरा जवार कम्युनिस्ट हो जायगा!

सुनकर मन्ने हँस पड़ा। बोला-अभी तक तो हमने राजनीति का कहीं नाम भी नहीं लिया है। इस वहम का क्या इलाज है?

-जो हो, उन लोगों का ख़याल सही है। और आप जानते हैं कि मैं सरकारी नौकर हूँ और सरकार इनकी है। फिर...

मन्ने उनका मुँह ताकने लगा, तो वे बोले-आप घबराइए नहीं। इतना अच्छा एक स्कूल आप लोगों ने खोला है, तो उसे मैं बन्द न होने दूँगा। लेकिन मेरे ऊपर भी अफ़सर हैं, और आप जानते हैं, इन लोगों की पहुँच कहाँ तक है। इसलिए मैंने जैसा कहा है, वैसा ही कीजिए। आप लोग एक मत रहेंगे, तो हिसाब किसी भी तरह रखने से क्या बनता है? स्कूल पर कोई क़ानूनी कार्रवाई न हो सके, इसका आप लोग पूरा ध्यान रखें। फिर तो सब ठीक रहेगा। मामला आगे भी बढ़ा, तो रिपोर्ट तो मुझसे ही माँगी जायगी।-कहकर उन्होंने बजट की प्रति वापस कर दी और कहा-इसमें फ़ीस की मद में जमा रक़म ठीक करके हमारे कार्यालय में भेज दें और विधान रजिस्टर्ड करवा लें। इसमें देर नहीं होनी चाहिए। हो सकता है कि उसी बीच मैं आप लोगों के यहाँ स्कूल देखने आऊँ।

-आप जरूर आइए!-मन्ने ने कहा-हिसाब के बारे में मैं कार्यकारिणी की राय लूँगा।

-तो ऐसा कीजिए कि जब सब रजिस्टर और हिसाब वग़ैरा दुरुस्त हो जायँ, तो मुझे इत्तिला दें, मैं आ जाऊँगा।

-बहुत अच्छा,-कहकर मन्ने कुछ उदास-सा हो, उठ खड़ा हुआ।

-आप घबराइए नहीं। मैं स्कूल बन्द नहीं होने दूँगा।-इन्स्पेक्टर साहब ने भी उठकर मन्ने से हाथ मिलाते हुए कहा-आप लोग अपने गाँव में एक सरकारी लड़कियों का स्कूल भी क्यों नहीं खोलते? मैं सब मदद करूँगा। इमारत के लिए एक हज़ार रुपया भी मिलता है। आपके यहाँ का कोई रामसागर जि़ला कांग्रेस के सभापति के साथ आया था और लड़कियों का स्कूल खोलने का जि़म्मा ले रहा था। आप ही क्यों नहीं यह काम भी कर डालते? गाँव के अन्दर कोई जगह हासिल करके एक अर्जी दे दें, तो मैं रुपये आपको दे दूँ।

-मैं बात करके इस विषय में भी आपको सूचना दूँगा,-मन्ने बोला-लेकिन रामसागर भी तो यह काम कर सकता है?

-आपसे क्या बताऊँ, कई लोगों के हाथ मैं धोखा खा चुका हूँ। रुपया मिल रहा है, यह जानकर लोग नेताओं की सिफ़ारिश लेकर चले आते हैं। कई लोग रुपया ले जाकर खा गये और स्कूल की इमारत का कहीं पता नहीं। आप उत्साही और ईमानदार आदमी मालूम होते हैं, आप ज़रूर एक लड़कियों का भी स्कूल अपने गाँव में खोलें। इसमें तो गाँव का कोई ख़र्च भी नहीं है। मास्टरनियों की तनख़ाह भी सरकार देगी।

-मैं लोगों से राय लेकर बताऊँगा।

-लेकिन देर न हो, वर्ना मजबूर होकर मुझे...यहाँ का कोटा जल्दी ही पूरा करना है।

-मैं जल्दी ही बताऊँगा।

मन्ने वहाँ से चला, तो उसे यह समझते देर न लगी कि महाजन लोगों की प्रतिद्वन्द्विता शुरू हो गयी है। लड़कियों का स्कूल खोलकर वे लोग भी कुछ श्रेय लेना चाहते हैं। अगर वे लोग सचमुच यह स्कूल खोलना चाहते हैं, तो इसमें बुराई क्या है? चलकर देखना चाहिए।

दूसरे दिन वह गाँव में लौटा, तो बसमतिया का मामला फिर उठ खड़ा हुआ था। भिखरिया से मालूम हुआ कैलास बाबू वग़ैरा मुनेसरी को भडक़ा रहे हैं कि वह मन्ने पर मुकद्दमा चलाये और बसमतिया के खर्चे का दावा करे। मुनेसरी तैयार है, लेकिन बसमतिया मन्ने का नाम लेने के लिए तैयार नहीं। मुनेसरी ने उसे बड़ी मार मारी है। वह कल से ही काम पर नहीं आ रही, बड़े-बड़े सपने ले रही है। भिखरिया ने मना किया, तो उसे भी गाली-गुफ्ता देने लगी।

मन्ने का मन स्कूल में रम गया था। यह वाक़या सुनकर वह फिर परेशान हो उठा। उसे बसमतिया पर विश्वास था, लेकिन धूर्त, चालाक और लोभिन मुनेसरी को भी वह जानता था। साथ ही अपने विरोधियों की शक्ति का भी उसे ज्ञान था। अगर सच की कुछ हो गया, तो वह कहीं का भी न रहेगा, लोगों का विश्वास तो उसके ऊपर से उठ ही जायगा, स्कूल भी मिट्टी में मिल जायगा। यही तो वे लोग चाहते हैं, वर्ना दबे हुए मामले को फिर क्यों उभारा जाता? उसने एक काम भी शुरू किया तो उसमें भी अडंग़े खड़े होने लगे। शायद कभी ये लोग उसे शान्तिपूर्वक नहीं रहने देंगे और न कुछ करने ही देंगे। वह कितना चाहता है कि अब तो उसे उसके हाल पर छोड़ दिया जाय, लेकिन यह क्यों होने लगा? जाने कब यह वैमनस्य दूर होगा, जाने कब इस गाँव का यह ज़हर उतरेगा!

कमेटी की मीटिंग ज़रूरी थी, लेकिन पेरशानी में मन्ने कुछ करना न चाहता था। वह पहले बसमतिया के मामले को दफ़ना देना चाहता था, ताकि उससे छुट्टी पाकर वह शान्ति से स्कूल का काम कर सके। इधर भदई की बोआई का समय भी सिर पर था। बारिश का इन्तज़ार था। फिर तो दस-पन्द्रह दिन सिर उठाने की भी किसी को फ़ुरसत न रहेगी।

उसने मुनेसरी को बुलाकर सीधे पूछा-आख़िर तुम क्या चाहती हो?

मुनेसरी ने भी सीधे आँख मिलाकर कहा-बसमतिया के लिए आपके घर में जगह और आपकी जमीन-जायदाद में आधा हिस्सा।

सुनकर मन्ने का तो जैसे दिमाग़ ही उड़ गया! आँखें निकालकर बोला-यह तो नहीं होगा!

-फिर का होगा?-भौंहें चढ़ाकर मुनेसरी बोली।

-मेरे यहाँ काम करती रहो और खाना लेती रहो, बस!

-इससे अब हमारा पेट नहीं भरेगा, बाबू! आप ऐसे नहीं देंगे तो वैसे तो देंगे! ...वह मलजादिन हमारी बात नहीं सुनती, नही तो सीधे कचहरी में हम आपसे बात करते! फिर भी आप बचके कहाँ जाएँगे? हम गरीबिन का भी कोई तरफदार है!

-सो तो मुझे मालूम है। उन्हें देखते ही मेरी जि़न्दगी बीत गयी, तुझे तो अभी देखना है! उनकी ही ताक़त पर तो तू फुदक रही है, वर्ना तेरी मजाल थी कि मुझसे अँाख मिलाती? ...तो तुझे काम नहीं करना है?

-करना काहे नहीं है? बाकी हमारी बात भी तो कुछ रहना चाहिए।

-अच्छा, तो जा, पहले तू अपने तरफ़दारों का ही ज़ोर देख ले। फिर तुझसे बात करेंगे। अभी तेरा दिमाग़ बहुत ऊँचाई पर है!

मुनेसरी भनभनाती हुई चली गयी।

मन्ने के दिमाग़ ने फिर काम करना शुरू किया। वह सीधे रामसागर के पास पहुँचा। बोला-हम जि़ले पर गये थे।

-मालूम है। क्या हुआ?-रामसागर कुटिलता के साथ बोला-सुना है, परती पर का स्कूल टूटनेवाला है। इन्स्पेक्टर साहब कह रहे थे...

-मैं भी उनसे मिला था। वे तो मुझे लड़कियों के स्कूल के लिए भी एक हज़ार रुपया दे रहे हैं।-मन्ने ने भी उसी कुटिलता के साथ मुस्कराकर कहा।

-क्या?-रामसागर बोला-उसके लिए तो मैं कोशिश कर रहा हूँ ।

-लेकिन मिलेगा मुझे!

रामसागर थोड़ी देर के लिए चुप हो गया। फिर जैसे हारकर बोला-यह स्कूल आप हमको ही बनवाने दें। आप लोगों ने बड़ा स्कूल तो बनवा ही लिया है।

-क्यों? जब इन्स्पेक्टर साहब ख़ुद ही दे रहे हैं, तो मैं इनकार क्यों करूँ? मन्ने ज़रा तैश में आकर बोला-उन्हें आप पर विश्वास नहीं! मैंने तो स्कूल के लिए जगह भी तजवीज़ कर ली है। कल रजिस्टरी कराने तहसील जा रहा हूँ, वहीं से सीधे जि़ले जाऊँगा।

-मेरा कहना तो यही है कि आप यह स्कूल हमें बनवाने दीजिए,-मुँह लटकाकर रामसागर बोला।

-आख़िर क्यों?-भौंहे उठाकर मन्ने बोला

-अब क्या बताऊँ?-उसी तरह सिर झुकाकर रामसागर बोला-इतना एहसान आप मुझ पर कर दें।

-ख़ूब! आप लोग मेरी नाक में दम किये रहें, और मैं एहसान करता फिरूँ! बड़ा अच्छा कहते हैं!

-क्या हुआ? हमने क्या किया?-भोला बनकर रामसागर बोला।

-मुनेसरी को हवा के घोड़े पर किसने चढ़ाया है?

-ओह! आपका इशारा उधर था?-रामसागर उत्साहित होकर बोला-अच्छा, तो यह काम मैं आपका करा दूँगा। आप उधर से बेफ़िक्र रहें। लेकिन स्कूल...

-आप विश्वास दिलाते हैं?

-हाँ, आप विश्वास करें!

-तो ठीक है, रुपया अपने नाम पर लाकर मैं आपको दे दूँगा। आप ही स्कूल बनवाइए।

-आपकी बड़ी मेहरबानी होगी। ...बाप-दादा पोखरा और मन्दिर बनवा गये, मैं एक स्कूल तो बनवा दूँ।

-लेकिन मेरी बात याद रखिएगा!

-उसकी अब आप कोई चिन्ता न कीजिए। अब सब शान्त हो जायगा।

सच ही दो दिन बाद शाम को मन्ने ने देखा कि मुनेसरी खण्ड में सिर झुकाये बैठी कुट्टी कर रही है।

इधर से निश्चिन्त होकर मन्ने फिर स्कूल के काम में लग गया। उसने कमेटी की मीटिंग बुलायी और इन्स्पेक्टर से हुई सारी बातें उसके सामने रखीं और राय माँगी कि क्या किया जाय? सबने एक मत होकर कहा कि आम खाने से मतलब है कि पेड़ गिनने से? जैसा इन्स्पेक्टर साहब कहते हैं, रजिस्टर मुरत्तब कर दिये जायँ।

सब ठीक-ठाक करके मन्ने ने इन्स्पेक्टर को निमन्त्रित किया, साथ ही उनसे उसने यह भी प्रार्थना की कि स्कूल के पुस्तकालय का शिलान्यास वह अपने कर-कमलों द्वारा करने की कृपा करें!

उनके स्वागत की ख़ूब तैयारी की गयी। स्कूल को झण्डे-पताकाओं से सजाया गया, एक बहुत बड़ा स्वागत-द्वार बनाया गया और सभी गाँवों के लोगों को जलसे में शामिल होने का निमन्त्रण दिया गया।

परती पर उस शाम एक मेला-सा लग गया। इन्स्पेक्टर इस शानदार स्वागत से अभिभूत हो गये। कक्षाओं का निरीक्षण करने और क़ाग़ज-पत्र देखने के बाद उन्होंने स्कूल के अधिकारियों की भूरि-भूरि प्रशंसा की और उनसे अपील की कि अगले साल नवीं कक्षा अवश्य खोली जाय! उन्होंने वादा किया कि अपनी ओर से वे हर सहायता इस स्कूल को देंगे। पुस्तकालय के लिए उन्होंने दो सौ रुपये के अनुदान की भी घोषणा कर दी।

ये बातें जब क़स्बे में पहुँचीं, तो सब चकित रह गये। कहाँ उन लोगों का यह ख़याल था कि इन्स्पेक्टर साहब स्कूल देखने के बाद तुरन्त उसे बन्द करने का हुक्मनामा जारी कर देंगे और कहाँ ये बातें! जि़ले तक फिर दौड़ शुरू हुई। ...इधर कैलास और समरनाथ गाँव की हवा बिगाड़ने लगे कि इतने हिन्दुओं के रहते स्कूल का सेक्रेटरी एक मुसलमान हो, यह लज्जा की बात है! सबको मिलकर कमेटी का चुनाव फिर से कराने की माँग करनी चाहिए और जैसे भी हो, इसे निकाल फेंकना चाहिए। लेकिन यह काम अब आसान न था। मन्ने की धाक जम गयी थी, उसके बहुत-सारे प्रशंसक पैदा हो गये थे। फिर भी पास-पड़ोस के गाँवों के कुछ धनी-मानी लोग उनके बहकावे में आने से न रहे। एक नये तरह के द्वेष का बीजारोपण होने लगा।

स्कूल आगे बढ़ता रहा। अगले वर्ष नवीं कक्षा खुल गयी और फिर अगले वर्ष दसवीं। दो कमरे स्कूल में और जुड़ गये। इन्स्पेक्टर की रिपोर्ट और सिफ़ारिश से दसवीं कक्षा खुलते ही रिकगनिशन और डेढ़ हज़ार का सरकारी अनुदान भी प्राप्त हो गया। इस साल साठ विद्यार्थी हाईस्कूल की परीक्षा के लिए तैयार हो रहे थे। अब स्कूल इस स्थिति में आ गया था कि बिना किसी रुकावट के अपने पाँवों पर ही चल सकता था। अब नुक़सान नहीं, यह एक फ़ायदे का सौदा था।

फिर क्या था, कितनों के ही दाँत इस पर लग गये। क़स्बे और आस-पास के गाँवों के कांग्रेसी नेता खुले आम मैदान में आने लगे। ...दूसरे आम चुनाव का समय नज़दीक आ रहा था। छ: सौ विद्यार्थियों की ताक़त कोई कम नहीं होती।

कई लोग मन्ने के पास आये और कमेटी के नये चुनाव के लिए आग्रह किया। विधानानुसार कमेटी का चुनाव हर साल होता था। पिछले वर्षों जो चुनाव हुए थे, उनमें कार्यकारिणी में कोई भी परिवर्तन नहीं हुआ था। स्कूल ठीक से चल रहा था, इसलिए कार्यकारिणी को बदलने की किसी ने भी इच्छा प्रकट नहीं की थी। मार्च के महीने में एक आम जलसा होता था और फिर उसी कार्यकारिणी को बहाल कर दिया जाता था।

विरोधियों की चुनाव-सम्बन्धी माँग बहुत बढ़ गयी, तो मन्ने ने कार्यकारिणी की मीटिंग बुलायी। केवल चुनाव का ही विषय कार्यक्रम पर रखा गया। मन्ने ने बताया कि अबकी चुनाव में काफ़ी तलखी आने की उम्मीद है। एक विरोधी दल तैयार हो रहा है। चुनाव हो, इसमें हमें क्या आपत्ति हो सकती है, लेकिन जिस तरह के चुनाव की इस बार सम्भावना है, उससे यह सन्देह होना स्वाभाविक है कि उससे स्कूल के प्रबन्ध में गड़बड़ी भी हो सकती है। इससे स्कूल की पढ़ाई पर भी बुरा असर पड़ सकता है। इसलिए मेरी तजवीज़ यह है कि अबकी चुनाव मार्च के महीने में न होकर जून के महीने में हो, तब तक विद्यार्थियों की परीक्षाएँ समाप्त हो चुकी होंगी। सबने उसकी तजवीज़ मान ली। एक प्रस्ताव पास करके उसकी एक प्रति इन्स्पेक्टर के पास भेज दी गयी।

विरोधियों को जब यह मालूम हुआ, तो उनका दिमाग़ ख़राब हो गया। इन्स्पेक्टर पर उन्होंने हर तरह से ज़ोर डाला कि चुनाव हमेशा की तरह इस साल भी मार्च के महीनें में ही हो। लेकिन इन्सपेक्टर ने उनकी बात न मानी। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि कार्यकारिणी ने बिलकुल ठीक किया है। विद्यार्थियों की परीक्षा के पहले चुनाव कराना बिलकुल उचित नहीं। फिर इस वर्ष तो हाई स्कूल की परीक्षा में भी वहाँ के विद्यार्थियों को बैठना है। चुनाव के कारण विद्यार्थियों की परीक्षा में किसी प्रकार का भी ख़लल पडऩा ठीक नहीं। वे तो स्वयं भी यही चाहते थे।

जिला-कांग्रेस सभापति, कई एम.एल.ए. उनसे कहकर हार गये, लेकिन इन्स्पेक्टर टस-से-मस न हुए। उन्होंने कहा कि विद्यार्थियों की भलाई देखना उनका पहला कत्र्तव्य है। इस पर उन्हें यह भी धमकी दी गयी कि उन्हें या तो मुअत्तल करा दिया जायगा या उनका तबादला हो जायगा। फिर भी इन्स्पेक्टर अपनी बात पर अड़े रहे।

अब विरोधी लोग सारी नैतिकता को ताक पर रखकर षड्यन्त्र पर उतर आये। उन्होंने स्कूल की जाली रसीदें छपवायीं, स्कूल की जाली मुहर बनवायी और एक हज़ार से अधिक स्कूल के जाली सदस्य बनाकर मय शुल्क रसीदों की किताबें इन्स्पेक्टर के पास जमा कर दीं। फिर पाँच सौ जाली सदस्यों के हस्ताक्षर के साथ एक माँग-पत्र भी इन्स्पेक्टर के पास पहुँचा कि चुनाव जल्द-से-जल्द कराने का आदेश मन्त्री को दिया जाय, वर्ना इस नोटिस के पन्द्रह दिन बाद वे स्वयं चुनाव कर लेंगे। पत्र में मन्ने पर ग़बन का भी आरोप लगाया गया था।

इन्स्पेक्टर को यह-सब देखकर बड़ा दुख हुआ, लेकिन साथ ही उन्हें ग़ुस्सा भी कम न आया। उन्होंने मन्ने को बुलाकर स्वयं ही समझाया कि उसे अब क्या करना चाहिए। अधिक फ़ीस की काग़ज़ी रक़म को बराबर करने के लिए उन्होंने राय दी कि इसी समय विज्ञान और कृषि विषय अगले साल तक खोलने की वे लोग घोषणा कर दें। विज्ञान के लिए एक कमरे का निर्माण शुरू करें और उसी में उस क़ागज़ी रक़म को भी ख़र्चे में दिखाकर हिसाब बराबर करा लें। उन्होंने आश्वासन दिया कि वे चाहे जहाँ भी रहें, इस स्कूल की बराबर मदद करते रहेंगे। उन्हें तबादले की कोई परवाह नहीं। मुअत्तली ये लोग क्या खाकर करा पाएँगे! उन्होंने कोई ज़ुर्म तो किया नहीं है।

-ये लोग आख़िर क्या चाहते हैं?-मन्ने ने परेशान होकर कहा।

-स्कूल को ये हथियाना चाहते हैं अपने राजनीतिक उद्देश्यों के लिए। ये किसी भी हरकत से बाज़ नहीं आएँगे।

-लेकिन आप विश्वास कीजिए, इन्स्पेक्टर साहब, हमारा इसमें कोई भी राजनीतिक उद्देश्य नहीं है। क़सम है कि मैंने या मुन्नी ने स्कूल को लेकर कभी भी एक राजनीतिक बात किसी से कही हो! ...इन्स्पेक्टर साहब, क्यों न चुनाव करा ही दिया जाय?

-इस स्थिति में चुनाव का मतलब सिर्फ़ दंगा-फ़साद है। आप लोगों के विरोध में काफ़ी मातबर लोग हैं, कांग्रेसी नेता हैं। पुलिस उनके इशारे पर चलती है। फिर वे चाहेंगे कि उनके जाली सदस्य भी चुनाव में हिस्सा लें। मैं अपने रहते यह नहीं होने दूँगा। ...मैं उनकी रसीदों की किताबें और रुपये लौटाने जा रहा हूँ । ...आप लोग सावधान रहें। पुलिस में रिपोर्ट करा दें कि फलाँ-फलाँ लोग स्कूल की जाली रसीदें छपवाकर, जाली मुहर बनाकर जाली सदस्य बनवा रहे हैं। उनसे स्कूल को ख़तरा है, दंगा-फ़साद का डर है। पेशबन्दी कर देना अच्छा होगा। चाहें, तो दस-बीस आदमियों पर धोखा-धड़ी का मुक़द्दमा भी चला सकते हैं। उस हालत में ये रसीदों की किताबें अपने पास ही रखना ठीक होगा। जो हो, आप लोग तै करके मुझे सूचना दें, ताकि मैं आगे की कार्रवाई करूँ।

-अगर उनसे मिलकर हम बात करें, तो? ...बात यह है कि हम लोग यह नहीं चाहते कि स्कूल झगड़े का अखाड़ा बने। उस हालत में स्कूल क्या चलेगा?

-चाहिए तो देख लीजिए यह भी करके। लेकिन वे लोग मानेंगे, ऐसा मैं नहीं सोचता। जो हो, एक हफ्ते के अन्दर मुझे आप लोगों का फैसला मालूम हो जाना चाहिए।

मन्ने ने कार्यकारिणी की मीटिंग बुलायी और सारी बातें विस्तार से सबके सामने रखीं। यह तै हो गया कि विज्ञान और कृषि की कक्षाएँ अगले साल से अवश्य खोली जायँ, दो कमरे भी बनवा लिये जायँ और इन्स्पेक्टर साहब के आदेशानुसार हिसाब ठीक कर लिया जाय। लेकिन चुनाव के मामले में झुकने को कोई तैयार नहीं हुआ। उनका कहना था कि पेड़ हम लगाएँ और फल कोई और खाये, यह बरदाश्त के बाहर की बात है। कोई दंगा करने पर उतारू है, तो हम भी देख लेंगे! जालसाज़ी करके हमें कोई झुका नहीं सकता! अगर उन लोगों ने एक हज़ार सदस्य बनाये हैं, तो हम लोग दो हज़ार बनाएँगे। वे लोग चुनाव में आकर मुक़ाबिला कर लें। लड़ाई-झगड़े से घबराकर कोई अपना हक़ थोड़े ही छोड़ देता है!

आख़िर थाने में रिपोर्ट कर दी गयी, लेकिन मुक़द्दमा चलाना ठीक नहीं समझा गया।

इन्स्पेक्टर ने रसीदों की किताबें और पैसे यह कहकर वापस कर दिये कि रसीदों पर स्कूल के मन्त्री के हस्ताक्षर नहीं है, इन्हें वे वैधानिक नहीं मानते।

इन्स्पेक्टर की इस कार्रवाई से वे लोग बौखला उठे। और उन्होंने वही कर डाला, जिसकी उन्होंने धमकी दी थी। हुकूमत का नशा मामूली नहीं होता। उन्हें अपनी अन्तिम विजय पर पूरा भरोसा था। ...पन्द्रह दिन बीतते-न-बीतते इन्स्पेक्टर के यहाँ यह सूचना पहुँच गयी कि स्कूल की नयी कार्यकारिणी का चुनाव हो गया, उसके सदस्यों की सूची साथ में नत्थी थी। साथ ही इन्स्पेक्टर से निवेदन किया गया था कि वे स्कूल का चार्ज नये मन्त्री, अवधेश प्रसादजी, को दिलाने का प्रबन्ध कराएँ, क्योंकि पुराने मन्त्री ज़बरदस्ती स्कूल पर क़ब्ज़ा किये हुए हैं। पन्द्रह दिन के अन्दर यदि नये मन्त्री को स्कूल का चार्ज नहीं मिल गया; तो वे क़ानूनी कार्रवाई करने के लिए बाध्य होंगे।

हेड मास्टर हाई स्कूल के परीक्षार्थियों को लेकर परीक्षा-केन्द्र चले गये थे। उनकी जगह पर काम करनेवाले सेकण्ड मास्टर बौखलाये हुए नये मन्त्री का आदेश लेकर मन्ने के पास पहुँचे, तो आदेश देखकर मन्ने जैसे सकते में आ गया। थोड़ी देर तक उसके मुँह से कोई बात ही नहीं निकली। फिर सम्हलकर बोला-यह मीटिंग कहाँ हुई थी, किसी को मालूम है?

-नहीं, साहब, किसी को कुछ नहीं मालूम-मास्टर बोले-हम तो ख़ुद ही हैरान हैं कि यह क्या हो गया!

-अच्छा, आप स्कूल पर जाइए। घबराने की कोई बात नहीं। आफ़िस में ताला लगाकर चाभी मेरे पास भेजवा दें। अवधेश प्रसाद या उनका कोई भी आदमी स्कूल पर आये, तो मुझे तुरन्त इत्तिला दें। जाइए जल्दी!

मास्टर चले गये, तो मन्ने हाथ पर सिर रखे सन्नाटे में बड़ी देर तक बैठा रहा। तो लड़ाई का ऐलान इन लोगों ने कर दिया! अब? शायद वे लोग ज़बरदस्ती स्कूल पर क़ब्ज़ा करेंगे।

फिर उससे बैठा न गया। वह नये मन्त्री के आदेश की कापी लिये उसी दम, उन्हीं कपड़ों में चल पड़ा। गाँव के अपने सभी आदमियों से मिला और दूसरे गाँवों के आदमियों के पास आदमी दौड़ाये कि तुरन्त सब लोग स्कूल पर जमा हों और ख़ुद स्कूल पर जा हाजि़र हुआ।

मास्टरों की मीटिंग करके उन्हें समझाया कि वे शान्ति से अपना काम जारी रखें। विद्यार्थियों का कोई नुक़सान न हो। जो भुगतना होगा, कार्यकारिणी भुगतेगी। इस लड़ाई में मास्टरों और विद्यार्थियों के पड़ने की कोई ज़रूरत नहीं।

धीरे-धीरे लोगों की भीड़ इकठ्ठी होने लगी। सभी चकित, व्याकुल और क्षुब्ध। जमावड़ा हो गया, तो मन्ने ने स्थिति स्पष्ट की और स्कूल की सुरक्षा के लिए ज़रूरी क़दम उठाने का प्रस्ताव रखा। यह तै हुआ कि कम-से-कम पचास आदमी हर घड़ी स्कूल की रक्षा के लिए यहाँ तैनात रहें जब तक कि पुलिस यह मामला हाथ में नहीं ले लेती या कचहरी का कोई आदेश जारी नहीं हो जाता।

इन्स्पेक्टर से मिलने जाने के पहले मन्ने ने कार्यालय के सभी क़ाग़ज़ात हटाकर अपने घर मँगवा लिये और थाने में स्कूल पर हमले के अन्देशे की रिपोर्ट कर दी।

इन्स्पेक्टर ने मिलते ही कहा-आप लोगों ने पहले ही मुक़द्दमा न चलाकर बड़ी ग़लती की। ये लोग माननेवाले नहीं हैं। अब देखिए, क्या होता है। स्कूल पर वे लोग ज़बरदस्ती क़ब्ज़ा तो नहीं कर सकते?

-हमारी कोशिश तो यही होगी।

-फिर तो वे लोग कचहरी में जाएँगे। हो सकता है, फैसला होने तक रिसीवर की माँग करें। यह अवधेश प्रसाद इस मामले में कहाँ से टपक पड़ा? जि़ले के आदमी को गाँव के स्कूल से क्या मतलब?

-मतलब है। आप नहीं जानते, इसके बाप-दादा हमारे ही गाँव के थे। गाँव में एक समय इनका ज़माना था। बहुत बड़े रईस माने जाते थे। फिर हालत ख़राब हो गयी, तो इसी अवधेश ने जि़ले पर दुकान खोली। सब यहीं आ गये। लड़ाई के ज़माने में फिर इनका भाग्य पलटा। अब जि़ले के रईस हैं। सुना है, हमारे ही क्षेत्र से अगले चुनाव में खड़े होने का इरादा है। कैलास के ही बिरादरी के हैं।

-समझा!-इन्स्पेक्टर बोले-फिर तो मामला संगीन हो गया। आप लोग इससे कैसे लड़ेंगे? यह सुप्रीम कोर्ट तक भी जा सकता है।

-लड़ेंगे, इन्स्पेक्टर साहब!-मन्ने दृढ़ स्वर में बोला-पहले तो हम सोचते थे, सर-समझौते से सब तै हो जायगा, लेकिन आप ठीक कहते थे, ये लोग ज़ोर-ज़बरदस्ती से सब-कुछ कर लेना चाहते हैं। हमें भी अब जि़द हो गयी है। हम यों छोड़ने वाले नहीं! आपकी मदद रही...

-वह कहने की जरूरत नहीं। मैं हमेशा आप लोगों के साथ हूँ। ...लेकिन...मुझे अफ़सोस है कि आप लोगों का स्कूल अब चौपट हो जायगा। मैं तो सोचता था कि आप लोगों का स्कूल डिग्री तक पहुँचेगा, लेकिन अब देखता हूँ...

-स्कूल पर हम लोग कोई आँच न आने देंगे!

-आपको अभी इसका तजुर्बा नहीं। इस तरह के दर्जनों स्कूलों को बरबाद होते मैं देख चुका हूँ। ख़ैर! ...

मुक़द्दमा उन्हीं लोगों की ओर से चला। रिसीवर की उनकी माँग स्वीकार हो गयी और स्कूल का दुर्भाग्य कि रिसीवर अवधेश का ही एक सम्बन्धी वकील तैनात हो गया। मन्ने वग़ैरा ने इसका बहुत विरोध किया, लेकिन नतीजा कुछ न निकला।

पूरे एक साल मुक़द्दमा चलता रहा। मन्ने का अपना भी बहुत-सारा पैसा ख़र्च हो गया। वह कहाँ तक हर तारीख़ पर चन्दा वसूल करता! जो परेशानी हुई, सो अलग। इस दौरान में कई बार उसके जी में आया कि वह समझौता कर ले। स्कूल तो चल ही पड़ा है, कोई भी प्रबन्ध करे, इससे क्या अन्तर पड़ता है। ...इस स्कूल ने उसका कितना समय, कितनी शक्ति, कितना धन ले लिया! आख़िर उसकी भी अपनी घरेलू जि़म्मेदारियाँ हैं, इतना बड़ा ख़र्च है, सिर्फ़ खेती से क्या बनता है। जमा हुई रक़म भी धीरे-धीरे खिसकी जा रही है। ...लडक़ी सयानी हुई, उसकी शादी सिर पर है, उसमें भी ख़र्चा होगा। अगर उसने कुछ काम न शुरू किया, तो कैसे इज़्ज़त रहेगी? अभी इतना-सब है, तब ये लोग उसे एक पल को चैन से रहने नहीं देते, हालत ख़राब होगी, तब ये कैसे पेश आएँगे? ...यह स्कूल क्या सोचकर उन्होंने बनवाया था और अब इसको लेकर क्या हो रहा है? मुन्नी कहता था, गाँव के लिए कुछ करो। उसे क्या मालूम कि यहाँ उसके विरोधी उसे कुछ भी नहीं करने देंगे। हर बात में अड़ंगा लगाएँगे, उसे बदनाम करेंगे, दुख पहुँचाएँगे, हर तरह से सताएँगे...कांग्रेस सरकार चीख़-चीख़ राष्ट्र-निर्माण में भाग लेने के लिए, आगे बढक़र काम करने के लिए लोगों को पुकार रही है और ये कांग्रेसी राष्ट्र-निर्माण के हर काम में ख़ुद अड़ंगा लगाते हैं; कोई कुछ करने के लिए आगे बढ़ता है, तो उसकी टाँग पकडक़र पीछे खींचने लगते हैं; कोई कुछ करता है, तो उसका सारा श्रेय स्वयं हड़प लेना चाहते हैं। कोई क्या करे, कैसे किसी को कुछ करने का हौसला हो? ...इतने दिनों से पंचायत यहाँ क़ायम हुई है, उसने गाँव के लिए क्या किया? कुएँ बनवाने के लिए कितना रुपया मिला इस गाँव को, लेकिन क्या एक भी कुआँ बना? बीज मिलता है, लेकिन वह खेत में न जाकर स्वार्थियों के पेट में चला जाता है। सभापति के घर पर रेडियो बजता है, रोज़ पंचायत का कार्यक्रम चलता है, लेकिन कोई उसे सुनने-सुनानेवाला नहीं। गली के नुक्कड़ों पर कण्डीलें गाड़ दी गयी हैं, लेकिन उनमें से किसी में आज तक रोशनी नहीं हुई। ...अख़बार और न जाने कितना साहित्य आता है, लेकिन उसे पढऩे-पढ़ानेवाला कोई नहीं। पंचायत सेक्रेटरी बटोरकर बनिये के यहाँ बेंच आता है। ...और उन लोगों ने एक स्कूल खोला, उसे चलाया, तो उस पर भी उनकी शनि-दृष्टि पड़ गयी। न ख़ुद कुछ करेंगे, न किसी को करने देंगे, और अगर कोई कुछ करेगा तो उसे बिगाडक़र दम लेंगे। पिछले साल कितना अच्छा नतीजा रहा इस स्कूल का, साठ प्रतिशत विद्यार्थी उत्तीर्ण हुए हाई स्कूल की परीक्षा में, जि़ले में दूसरा नम्बर रहा और इस साल तेईस प्रतिशत परीक्षा-फल रहा है। एक ही वर्ष में स्कूल की क्या दशा हो गयी! ...मन्ने को बहुत दुख हो रहा था। क्या उनकी इतनी-सारी मेहनत का यही नतीजा होनेवाला था? और अगर यही नतीजा होनेवाला था, तो इतनी मेहनत करने की ज़रूरत ही क्या थी? ...शायद अब स्कूल टूट ही जाय...इतने-सारे विद्यार्थी फिर गाँवों में मारे-मारे फिरने लगें, इतने-सारे लोगों का जोश फिर ठण्डा हो जाय और वे फिर कोई काम करने का कदाचित् ही साहस करें। चन्द धनी-मानी लोग और कांग्रेसी नेता जैसे सभी को अपनी अँगुली पर नचा रहे हैं। गाँवों के भाग्य-विधान को मुट्ठी में दबोचे रखना चाहते हैं। ...यह कब तक चलेगा? अगर ऐसे ही चलता रहा, तो आज़ादी के क्या माने होंगे? राष्ट्र-निर्माण का क्या मतलब होगा?

मन्ने का मन खट्टा होता जा रहा था। उसकी समझ में न आ रहा था कि वह क्या करे। फिर भी क़दम पीछे न हटाता था। तारीख़ पड़ने पर कचहरी जाता था और मुक़द्दमे की पैरवी करता था। लौटकर आता, तो लोग इकठ्ठा होते और उससे सब बातें पूछते, स्कूल को लेकर अपनी चिन्ता और उत्सुकता व्यक्त करते। मन्ने उन्हें देखता, उनके दुख और ग़ुस्से को समझता और उन्हें आश्वासन देता-न्याय हमारे पक्ष में है, हमें घबराने की कोई ज़रूरत नहीं!

लोग कहते-नियाव इस सरकार में कहाँ है, बाबू...लेकिन एक बात हम कहे देते हैं, अगर किसी तरह उन लोगों ने इस्कूल पर कब्जा कर भी लिया, तो उन्हें इस्कूल के पास हम फटकने नहीं देंगे! चाहे इसके लिए ख़ून ही क्यों न हो जाय!

मन्ने उन्हें समझाता और फैसले का इन्तज़ार करने के लिए कहता।

आख़िर फैसले की तारीख़ पड़ी। उस दिन मन्ने अकेले कचहरी नहीं गया, उसके साथ-साथ सत्तू बाँधकर बीस आदमी और कचहरी पहुँचे और उनकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा, जब फैसला उनके हक़ में हुआ और पुरानी कमेटी बहाल कर दी गयी।

रिसीवर से चार्ज लेकर मन्ने को कोई ख़ुशी न हुई। अब वह स्कूल कहाँ रह गया था, वे मास्टर और विद्यार्थी कहाँ थे! वह जोश कहीं दिखाई न दे रहा था। एक वर्ष में ही जैसे सब-कुछ बदल गया था। ...वह स्कूल में गया, तो कुछ विद्यार्थियों ने इस फैसले के विरोध में प्रदर्शन भी किया और हड़ताल के नारे के साथ मन्ने को बेईमान और झूठा भी कहा। रिसीवर के माध्यम से अवधेश ने स्कूल में जो विष बोया था, वह मन्ने के सामने था। उस दिन सिर गड़ाये चुपचाप वह स्कूल से चला आया।

दोपहर को हेड मास्टर ने आकर पूरी कहानी सुनाई। अध्यापकों में दो दल हो गये थे, एक दल कैलास के नेतृत्व में अवधेश का पक्ष ले रहा था और दूसरा मन्ने का। व्यवस्था की राजनीति स्कूल के अध्यापकों में भी पहुँच गयी थी।

-लेकिन विद्यार्थियों को यह क्या हुआ, हेड मास्टर साहब?-मन्ने ने पूछा।

-वही जो अध्यापको को हुआ है। आप क्या यह नहीं जानते कि अध्यापकों का प्रभाव विद्यार्थियों पर, विशेषकर निचले दर्जे के विद्यार्थियों पर, माँ-बाप से भी अधिक पड़ता है? ...आप ख़ैरियत चाहते हैं, तो जिन-जिन मास्टरों का मैं नाम बताता हूँ, उन्हें तुरन्त निकालिए। इनके कारण स्कूल का अनुशासन चौपट हो गया है। ...अगर उन लोगों ने मुक़द्दमा जीता होता, तो वे भी यही करते, वे हम लोगों को अवश्य निकाल देते!

-हड़ताल का जो नारा दिया था, उसके विषय में आपका क्या ख्य़ाल है?

-अवधेश बाबू गाँव में आये हुए हैं, शायद कुछ विद्यार्थी हड़ताल करें। सुना है, अवधेश बाबू अपने टूटे फूटे, पुराने घर की मरम्मत करवाएँगे और अकसर यहाँ आया जाया करेंगे।

-हूँ!- थोड़ी देर ख़ामोश रहकर बोला-क्या किया जाय? आपकी क्या राय है?

-अपने लोगों को आप कहें कि वे गाँवों में विद्यार्थियों के अभिभावकों से मिलें और उन्हें समझाएँ। मैं ऐसे विद्यार्थियों की सूची दे सकता हूँ। वे बकहाये गये हैं, उनके अभिभावकों को उनके बारे में कुछ मालूम नहीं है। थोड़े-से बनियों और कांग्रेसियों के लडक़े रह जाएँगे, लेकिन उनके किये कुछ होने का नहीं। नब्बे फ़ीसदी लडक़े तो आप ही लोगों के हैं।

-ठीक है,-ज़रा देर सोचकर मन्ने बोला-अगर स्कूल दो-चार दिन के लिए बन्द कर दिया जाय, तो कैसा? इस बीच हम लोग गाँव-गाँव में घूम लेंगे और अभिभावकों और विद्यार्थियों को भी समझा-बुझा देंगे।

-ठीक है। लेकिन अवधेश बाबू और उनके दल के अध्यापक और दूसरे लोग क्या इस बीच ख़ामोश बैठे रहेंगे? वे भी तो अपना काम करेंगे।

-हूँ! ...अच्छा, आप एक काम कीजिए! कल की छुट्टी की तो आप घोषणा कर ही दें। नोटिस निकाल दें कि मुक़द्दमे की जीत के उपलक्ष में कल स्कूल बन्द रहेगा। फिर परसों देखा जायगा।

-कम-से-कम इंजीनियर को तो निकाल ही देना चाहिए।

-फ़िलहाल चलने दीजिए। अपनी ओर से उन्हें शिकायत का कोई मौक़ा हम क्यों दें?

हेड मास्टर चले गये, तो मन्ने ने पहला काम मुन्नी को चिठ्ठी लिखने का किया। मुन्नी इधर बहुत दिनों से नहीं आया था। उसके पत्र बराबर आते थे। स्कूल के विषय में उसकी गहरी दिलचस्पी थी। हर चिठ्ठी में वह ताक़ीद करता था कि मन्ने स्कूल के मुक़द्दमे में किसी प्रकार की शिथिलता न दिखाये। संघर्ष से पीछे न हटे, उसकी अन्तिम विजय निश्चित है। किन्तु आज जो स्थिति मन्ने के सामने थी, वह बेहद घबरा गया था। उसकी समझ में न आ रहा था कि वह क्या करे। मुक़द्दमा हारकर विरोधी लोग जिस स्तर पर उतर आये थे, उसकी कल्पना उसने कभी भी न की थी। ...यह तो सीधे लड़ाई का ऐलान था, विद्यार्थियों-विद्यार्थियों के बीच, अध्यापकों-अध्यापकों के बीच और लोगों और लोगों के बीच। इस स्थिति को सम्हालने में वह अपने को बिलकुल असमर्थ पा रहा था। जाने यह लड़ाई कौन रूप ले। इसे साम्प्रदायिकता का भी रंग दिया जा सकता है, इसमें लाठियाँ भी चल सकती हैं। आख़िर स्कूल पर ज़ोर-ज़बरदस्ती से कोई क़ब्जा कर ले, इसे वे कैसे बरदाश्त कर सकते हैं?

मन्ने ने मुन्नी को सारी परिस्थिति समझाकर तुरन्त आने के लिए लिखा और लोगों से मिलने के लिए निकल पड़ा।

दूसरी सुबह वह अपने घर से निकला, तो उसकी निगाह सामने के घर की दीवार पर पड़ी, उस पर खडिय़े से लिखा था, ग़द्दार मन्ने को स्कूल से निकालो! यह देखकर मन्ने का होश उड़ गया। वह अभी आँखें झपका ही रहा था कि जुब्ली की आवाज़ आयी-यह क्या देख रहे हो, आगे जाकर देखो! गाँव के सारे घरों की दीवारें रँग गयी हैं!

मन्ने सिर झुकाकर आगे बढऩे लगा, तो जुब्ली बोला-सुनो! तुम अपने साथ-साथ हमारी भी शामत क्यों बुला रहे हो?

मन्ने तो जैसे फुँक ही गया। बोला-आपकी शामत क्यों आएगी? आप तो, सुना है, रात अवधेश बाबू की मीटिंग में गये थे!

-जाऊँ नहीं तो क्या अपना सिर कटवाऊँ ?

-नहीं, जाकर चूड़ी पहनिए और चुहानी बैठिए!

-तुम तो कोई बात ही नहीं समझते...

-सब समझता हूँ, लेकिन आपकी तरह ख़ुद्दारी को बेंचकर जि़न्दा नहीं रहना चाहता! मैं आख़िरी दम तक लड़ूँगा, आपकी तरह गीदड़ नहीं बनूँगा!

-तुम तो मौक़ा भी नहीं देखते! ...अरे भाई, जब हमारा ज़माना था, हमने हुकूमत की, अब ये हाकिम हैं और हम महकूम। हमें...

-चुप रहिए! यहाँ कोई हाकिम-महकूम नहीं है! यहाँ हर शख़्स का बराबर हक़ है! जो भी हमारा यह हक़ छीनना चाहता है, उससे लडऩा हमारा फ़र्ज़ है! आपके लिए आज मुसलमान होना गुनाह है, इसलिए सारी ख़ुद्दारी को ताक पर रखकर आप कांग्रेसियों के पीछे पूँछ हिलाते फिर रहे हैं। लेकिन मेरे लिए ऐसी बात नहीं है। आप जानते हैं कि कभी भी मैं कोई मज़हबी आदमी नहीं रहा। आपकी तरह लीग का झण्डा कभी बुलन्द नहीं किया, फिर भी मुसलमान होकर भी, हिन्दुस्तान के नागरिक की हैसियत से मैं एक ख़ुद्दारी, इज़्ज़त, आज़ादी और बराबरी की जि़न्दगी बसर करना चाहता हूँ। मेरा दिमाग़ इस बात को क़ुबूल नहीं कर सकता कि हिन्दुस्तान में हम बहुत थोड़े रह गये हैं, हमारी कोई ताक़त नहीं रह गयी है, तो हम अपने को कांग्रेसियों या हिन्दुओं का ग़ुलाम समझकर, उनकी मर्ज़ी पर ज़लालत की जि़न्दगी बसर करने लगें। ...जी नहीं, यहाँ हिन्दू-मुसलमान का मेरे सामने कोई सवाल ही नहीं है। लेकिन अगर कोई हिन्दू यह समझता है कि आज उसकी हुकूमत है और वह मुसलमानों के साथ जैसा चाहे व्यवहार कर सकता है, तो सिर्फ़ एक मुसलमान होने के नाते ही नहीं, हिन्दुस्तान का एक नागरिक होने की हैसियत से भी मैं अपना यह फ़र्ज़ समझता हूँ कि उसका मुक़ाबिला करूँ। किसी भी हिन्दू की यह ज़ेहनियत उतनी ही ग़लत और ख़तरनाक है, जितनी आपकी यह ज़ेहनियत कि हिन्दू हाकिम हैं और मुसलमान महकूम, हिन्दू ताक़तवर हैं और मुसलमान कमज़ोर। ये दोनों ज़ेहनियतें एक ही फ़िरक़ापरस्ती की पैदावार हैं और हिन्दुस्तान के लिए ख़तरनाक हैं!

-अच्छा अब तुम अपना लेक्चर बन्द करो!-जुब्ली खिजलाकर बोला-तुम्हारा दिमाग़ ख़राब हो गया है! तुम समझो और तुम्हारा काम!

-वह तो मैं समझूँगा ही!-कहकर मन्ने आगे गली में बढ़ा, तो एक ओर दीवार पर पढ़ा, बेईमान मन्ने स्कूल का रुपया हजम कर गया! और दूसरी ओर दीवार पर लिखा था, मक्कार मन्ने से होशियार! ...और मन्ने मन-ही-मन हँस पड़ा।

वह सिर झुकाये, तेज़ कदमों से चलने लगा। ...हुँ:! इसमें परेशान होने की क्या बात है? यह तो होना ही था! ...मन्ने ने जो बात अभी-अभी जुब्ली से कही थी, उसका प्रभाव स्वयं उस पर बड़ा गहरा पड़ा था। उसका साहस बढ़ गया था, उसके अन्दर जैसे एक जि़द जाग रही थी।

आगे धोबी के लडक़े को उसने दीवार पर लिखे एक वाक्य को मिटाते हुए देखा, तो वह ठिठक गया। बोला-यह तुम क्या कर रहे हो? छोड़ दो!

लडक़े ने अपनी आँखें उसकी ओर उठायीं, तो उसे देखकर शरमा गया। फिर दूसरे ही क्षण उसके चेहरे पर नफ़रत और ग़ुस्सा उभर आया। हाथ से मिटाते हुए बोला-हरामियों ने चोरों की तरह रात में लिखा है! हिम्मत है, तो सबके सामने लिखें न!

-तो मिटाने से क्या फ़ायदा? रहने दो, यह तो सनद है, लोग देखें तो सही!

लडक़ा उसका मुँह ताकने लगा। बोला-यह-सब अवधेसवा की करनी है!

मन्ने चकित होकर उसे देखता रह गया। ये बातें किस गहराई तक उतर गयी हैं! बोला-तुम किस दर्जे में पढ़ते हो?

-छठे में।

-तुम्हारी उम्र तो काफ़ी मालूम पड़ती है।

-प्राइमरी पास करके कई साल तक बैठे रहे।

-अच्छा, अब जाओ तुम अपने घर।

-नहीं, हम लोग सब मिटाएँगें! बहुत-से लडक़े मिटा रहे हैं। आज रात को पहरा देंगे। जो भी लिखते पकड़ा जायगा, उसकी खूब कुटम्मस करेंगे!

-यह करने के लिए तुम लोंगों से किसने कहा है?

-किसी ने नहीं, हम ख़ुद कर रहे हैं।-और लडक़ा सीना ताने दूसरी गली की ओर चला गया।

तीसरे दिन स्कूल खुला, तो लडक़ों के साथ बहुत-से बड़े लोग भी स्कूल पर पहुँचे। चालीस-पचास महाजनों और आस-पास के गाँवों के ठाकुरों के लडक़े मैदान में खड़े-खड़े हो-हल्ला मचा रहे थे और मन्ने और पुरानी कार्यकारिणी के विरुद्ध नारे लगा रहे थे। लोग स्कूल के सामने खड़े होकर हँस रहे थे। शेष विद्यार्थी और अध्यापक स्कूल के अन्दर बैठे थे।

उन चालीस-पचास लडक़ों का गिरोह नारे लगाते हुए गाँव की ओर चला गया, तो पढ़ाई शुरु हो गयी।

कार्यालय में मन्ने के साथ बैठे हुए कार्यकारिणी के सदस्यों से हेड मास्टर ने कहा-उन लडक़ों के साथ क्या कार्रवाई की जाय, इसके बारे में आप लोग मुझे राय दीजिए।

थोड़ी देर तक कोई नहीं बोला, सब मन्ने का मुँह ताकते रहे।

मन्ने ज़रा देर सोचकर बोला-मेरी राय तो यह है कि अभी कुछ भी न किया जाय।

-ऐसा न करने से तो स्कूल का अनुशासन ढीला हो जायगा,-हेडमास्टर ने कहा- इनका मन और भी बढ़ जायगा और हो सकता है, इसका प्रभाव दूसरे लडक़ों पर भी पड़े। इसलिए कुछ-न-कुछ तो करना चाहिए।

-नहीं, यह आग में घी डालने के समान होगा,-मन्ने बोला-इससे विरोधियों को हल्ला मचाने के लिए एक और बात भी मिल जायगी। दो-चार दिन और देख लीजिए। हो सकता है कि धीरे-धीरे आप ही यह मामला शान्त हो जाय।

-बहुत अच्छा, देख लीजिए।-हेड मास्टर ने कहा।

दो दिन तक चलकर सच ही मामला शान्त हो गया। लेकिन तीसरे दिन खबर मिली कि अवधेश ने मन्ने पर स्कूल की रक़म गबन करने का मुक़द्दमा दायर कर दिया है और इन्स्पेक्टर के यहाँ नया चुनाव तुरन्त कराने की माँग की गयी है।

मुन्नी आ गया, तो कार्यकारिणी की मीटिंग बुलायी गयी और तय हुआ कि मन्ने के खिलाफ़ जो मुकद्दमा दायर किया गया है, उसकी डटकर पैरवी की जाय और नये चुनाव की नोटिस साधारण सदस्यों को भेज दी जाय।

मन्ने इस बार मन्त्री बनने के लिए तैयार न था। वह हताश हो गया हो, यह बात न थी, लेकिन उसका कहना यह था कि जब तक उस पर मुक़द्दमा चल रहा है, वह स्वयं स्कूल के रुपये-पैसे के प्रबन्ध से अलग रहना चाहता है, और काम वह करता रहेगा।

मुन्नी का कहना यह था कि अगर वह चुन लिया जाता है, तो उसे अस्वीकार नहीं करना चाहिए। उस पर लोगों का विश्वास है, तो मुकद्दमें से क्या होता है? यह कौन नहीं जानता कि उस पर झूठा मुक़द्दमा चलाया गया है और मुक़द्दमे का उद्देश्य केवल उसे तंग करना है, ताकि वह मन्त्री-पद से इस्तीफ़ा दे दे।

मन्ने ने कहा-नैतिक उत्तरदायित्व भी कुछ होता हैं?

-जरूर होता है,-मुन्नी ने कहा-लेकिन किसी झूठे आरोप के समक्ष झुकना भी कोई साधारण नैतिक दुर्बलता नहीं है। इस बात को मत भूलो कि तुम्हारे इस निर्णय से हमारी सारी योजना खटाई में पड़ जायगी। स्कूल तो केवल एक माध्यम है, जिसके कारण यह संघर्ष तीव्र हो उठा है। यह संघर्ष स्कूल के पहले भी था, लेकिन उसका रूप दूसरा था। अब संघर्ष का नक्शा साफ़ हो गया है, गाँव के महाजन ही नहीं और भी आस-पास के धनी-मानी लोग और कांगे्रसी नेता इस संघर्ष में उतर आये हैं, अब यह एक राजनीतिक रूप लेने लगा है। तुम मुसलमान हो, यह कहकर ही लोग अब हिन्दुओं को तुम्हारे खिलाफ़ भडक़ाने में सफल नहीं हो पाते, यह तुम देख चुके हो। जि़ले का सेठ यहाँ विरोधियों का संगठन कर रहा है, उसके बारे में लोगों का जो विचार है, वह तुम बराबर सुन रहे हो। इसलिए यह आवश्यक है कि तुम यह मोर्चा मत छोड़ो इसे और आगे बढ़ाओ। पंचायत का चुनाव आ रहा है, तुम उसमें भाग लो और यह कोशिश करो कि पंचायत में जनता के सच्चे प्रतिनिधि चुने जायँ, ताकि गाँव की आगे की तरक्क़ी का रास्ता खुले।

-मुझे यह ठीक नहीं लग रहा है, मेरी कम बदनामी नहीं हुई है...

-वह तो होगी ही। और उन्हें मालूम हो जाय कि तुम इससे परेशान होते हो तो और भी होगी। लेकिन अगर तुम सच्चे हो, ईमानदार हो, जनता और गाँव की भलाई तुम्हारा उद्देश्य है, तो इसमें घबराने की कोई बात नहीं, बल्कि इसे बेपर्द करके लोगों को समझाने की ज़रूरत है कि स्वार्थ-सिद्धि के लिए बेईमान लोग किस स्तर तक उतर आते हैं। ...चीनी कम्युनिस्टों के विषय में तुमने क्या अख़बारों में नहीं पढ़ा था कि वे चोर हैं, डाकू हैं, लुटेरे हैं, क़ातिल हैं? लेकिन इससे क्या वे बदनाम हो गये? नहीं बदनाम वे हुए, जो आज फ़ारमूसा में हैं, बदनाम वह अमरीका हुआ, जो उन्हें बदनाम कर रहा था। सो, तुम सामन्ती नैतिकता के चक्कर में मत पड़ो, आज उसका कोई भी मूल्य या महत्व नहीं रह गया है। असल बात तो यह है कि आम जनता तुम्हें कैसा समझती है। अगर उसने अब तक तुम्हारा साथ दिया है, तो अब उसे छोडऩा अनैतिकता ही नहीं गद्दारी होगी। ...माफ़ करना, अभी तुम्हारे संस्कार तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ रहे हैं। तुम और भी गहराई, और भी निकटता से अपने को जनता के साथ जोड़ो। यहाँ नेतृत्व का प्रश्न नहीं है, साथ देने और कन्धे-से-कन्धा मिलाकर काम करने का सवाल है! ...पंचायत तुम सीधे राजनीतिक सवालों को लेकर लड़ो। अब लोहा गरम हो रहा है, इसे रूप देने के लिए अपने को तैयार करो!

-अभी तो कार्यकारिणी का चुनाव होगा,-मन्ने ने यह बहस ख़त्म करने की ग़रज़ से कहा-फिर देखा जायगा। ...लेकिन एक बात समझ रखो, यह चुनाव शान्ति से होनेवाला नहीं है। संघर्ष की पूरी सम्भावना है। उधर पूरी तैयारी हो रही है। तुम्हे उस वक़्त तक रहना होगा।

-रहूँगा, अवश्य रहूँगा! संघर्ष की सम्भावना मैं भी देख रहा हूँ। हमें भी इसके लिए पूरी तैयारी करनी चाहिए। अगली पंचायत का फैसला स्कूल का यह चुनाव ही करेगा। स्कूल गाँव की ज़िन्दगी में समा चुका है। इसका राजनीतिक महत्व मैं कम करके नहीं आँकता। कल से हम गाँवों में घूमेंगे और सीधी राजनीति की बात करेंगे। भूमि अब तैयार हो गयी है। जनता में चेतना फूँके बिना गाँवों की मुक्ति कहाँ!

-एक यह भी आरोप लगाया गया था कि हम कम्युनिस्ट...

-इसे आरोप तुम क्यों समझते हो? और अगर यह आरोप है, तो क्या यही आरोप हम कांगे्रसियों पर नहीं लगा सकते? आज सभी टूटे हुए ज़मींदार और महाजन कांग्रेसी क्यों हो गये हैं? रूप बदलकर वे समाज में अपना अनाचार पहले ही की तरह करते जा रहे हैं। इस अनाचार का विरोध करना क्या हम इसीलिए छोड़ देंगे कि कोई हम पर यह आरोप लगाता है कि ऐसा करने में हमारा राजनीतिक उद्देश्य है और हम कम्युनिस्ट पार्टी की ताक़त बढ़ा रहे हैं? तो फिर क्या यह सवाल नहीं उठता कि आख़िर वे क्या करते हैं? हमारे इस स्कूल को हथियाने में क्या उनका राजनीतिक उद्देश्य नहीं है, तुम्ही बताओ?

-है, इसे तो मैं समझ गया हूँ!

-फिर ? बेटा हो तो मेरा और बेटी हो तो तेरी? हुँ! वे कोई और स्कूल क्यों नहीं खोल लेते? अवधेश के पास क्या रुपये की कमी है? या हमारे देश में स्कूलों के लिए जगह की कमी है? नहीं, पका-पकाया खाने को मिल जाय, तो खाना कौन-सा मुश्किल काम है?

लगातार पन्द्रह दिनों तक दोनों दलों के लोग गाँवों में घूमते रहे। सभाएँ, हुई, प्रचार हुए। कई जगहों पर मुठभेड़ होते-होते बची। और आख़िर में परती पर निश्चित तिथि और समय पर दंगल जुड़ा। बाक़ायदे दो दलों में बँटकर लोग बैठे थे, बीच में इन्स्पेक्टर साहब थे। वातावरण में उत्तेजना थी, गर्मी थी।

कार्रवाई शुरू हुई, तो विरोधी दल में से एक वृद्ध, पुराने ज़मींदार उठकर बोले-मैं बूढ़ा हूँ, आशा है, आप लोग मेरी बात ध्यान से सुनेंगे। इस लड़ाई -झगड़े से क्या फ़ायदा? स्कूल सबका है, सब मिलकर चलाएँ। हमारी राय है कि इस तनातनी में चुनाव न कराया जाय, बल्कि मिल-जुलकर कार्यकारिणी की आधी-आधी सीटें दोनोंं दलों में बाँट ली जायँ और अवधेश बाबू को मन्त्री चुन लिया जाय। इस गाँव के वे पुराने बाशिन्दे हैं, उनके पास रुपया है, वे लगन के आदमी हैं, वे स्कूल में रुपया लगाना चाहते हैं, काम करना चाहते हैं। ...इन्स्पेक्टर साहब से हमारा निवेदन है कि वे समझौता कराने का प्रयत्न करें!

इस पर हीरा भगत ने इधर से उठकर कहा-ठाकुर साहब से हम उमिर में कम नहीं, और सब बातों में भले कम हों। एक बात हमें भी कहनी है। ठाकुर साहब ने जो बात कही है, वाजिब ही है। लेकिन अवधेस बाबू का नाम जो उन्होंने मन्तरी के लिए लिया है, वह ठीक नहीं। इस्कूल को लेकर अवधेस बाबू ने जो-जो काम किया है, वह किसी से छुपा नहीं है। इस बखत भी वो मन्ने बाबू पर मुकद्दमा चला रहे हैं। मन्ने बाबू जैसे हीरा आदमी के साथ जो आदमी ऐसा बेवहार कर रहा है,उसे का कहा जाय?

बूढ़े ठाकुर उठकर बोले-वे मुक़द्दमा उठा लेने के लिए तैयार हैं और मन्ने बाबू को जो हर्जा-खर्चा हुआ है, उसे भी पूरा कर देंगे।

इन्स्पेक्टर ने कहा-अगर आप लोग समझौता करके, एक राय होकर चुनाव करना चाहते हैं, तो मैं हर मदद देने को तैयार हूँ। आप लोग चाहें, तो दोनों ओर से दो-दो, चार-चार, आदमी अलग जाकर बात कर सकते हैं। अगर कोई समझौता हो जाय, तो इससे अच्छा क्या होगा!

बूढ़े ठाकुर ने इन्स्पेक्टर के रुझान से फ़ायदा उठाते हुए कहा-हम लोग तो आपको ही मध्यस्थ मानने के लिए तैयार हैं। आप ही फैसला कर दें कि जो सुझाव हमने दिया है, वह ठीक है, या नहीं?

पहले इन्स्पेक्टर का तबादला हो गया था, उसकी जगह पर यह मुसलमान इन्स्पेक्टर आये थे। जान-बूझकर ही कांग्रेसी नेताओं ने उन्हें बुलाया था। उन लोगों का ख़याल था कि मुसलमान इन्स्पेक्टर स्वाभावत: उनसे डरेगा और उनके कहे में रहेगा। लेकिन ये इन्स्पेक्टर बड़े तेज थे अैर अन्दर-ही अन्दर मुसलमानों के पक्षपाती भी। मन्ने को बुलाकर वे मिल चुके थे ओर उसे आश्वासन भी दिया था कि वे हमेशा उसका साथ देंगे, लेकिन ढंग से, साँप मारा जाय और लाठी भी न टूटे।

इन्स्पेक्टर कुछ कहें-कहें कि मुन्नी ने खड़े होकर कहा-हमारे बुजुर्गों ने जो बात उठायी है, उसकी हम क़द्र करते हैं। लेकिन ऊपर के दो-चार आदमियों को ही मिल-जुलकर सब करना था, तो आज इतने आदमियों को यहाँ इकठ्ठा करने की क्या जरूरत थी? मेरा ख़याल है कि चुनाव सबका मत लेकर ही होना चाहिए, जनवादी ढंग से। इन्स्पेक्टर साहब सरकारी आदमी हैं, उनका काम यहाँ सिर्फ़ यह है कि वे देखें कि चुनाव नियमानुकूल हो रहा है। स्कूल के विधान में यह नियम है कि स्कूल के सभी साधारण सदस्य मिलकर कार्यकारिणी का चुनाव करेंगे। यहाँ जितने सदस्य उपस्थित हैं, उनका ही यह अधिकार है कि वे एक मत से चुनाव करें या वोट देकर? यह सवाल मैं सभी के सामने रखता हूँ। यह निर्णय हो जाय, तो आगे बढ़ा जाय।

इन्स्पेक्टर ने इस पर कहा-इसके लिए जरूरी है कि सभा में केवल मेम्बर ही बैठें और दूसरे लोग अलग हट जायँ।

बहुत-से लोग एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे, तो मन्ने ने सदस्यों का रजिस्टर खोलते हुए कहा-मैं सदस्यों के नाम पढ़ रहा हूँ। जिनका नाम मैं लूँ, वे कृपा करके इस ओर आ जायँ। जिनका नाम इस रजिस्टर में नहीं है, वे मेहरबानी करके अलग हो जाएँ, ताकि चुनाव का काम नियामनुकूल हो सके।

सूची अभी पूरी भी न हुई थी कि कैलास क्षुब्ध होकर उठ खड़ा हुआ। बोला-यह सूची गलत है! ...

इन्स्पेक्टर ने कहा-पहले पूरी फ़ेहरिस्त तो सुन लीजिए। बाद में आपको जो कहना...

-बाद में क्या कहेंगे?-समरनाथ ने उठकर, आँखें लाल करके कहा-यह सूची आदि से अन्त तक गलत है! हम इस सूची को मानते ही नहीं! यहाँ जितने लोग इकठ्ठे हुए हैं, सभी मिलकर चुनाव करेंगे!

-यह कैसे हो सकता है? विधान के अनुसार...

-विधान -विधान हम कुछ नहीं मानते!-जयराम ने उठकर कहा-स्कूल सबका है!-और उसने लपकर, मन्ने के पास पहुँच रजिस्टर की ओर हाथ बढ़ाया कि उसके पास बैठे कई लोगों ने हें-हें करते हुए जयराम का हाथ पकड़ लिया।

फिर क्या था, जैसे सभा में चारों ओर ले-दे मच गयी! ...किसका घूँसा किसके सिर पर पड़ रहा था, कोई हिसाब नहींं। फिर लाठियाँ खडक़ उठीं।

थोड़ी ही देर में देखा गया कि अवधेश का दल भागा जा रहा है। उनमें लाठियाँ चलाने वाले कम थे, जो थे, वे दूर-दराज़ के गाँवों से बुलाये गये थे और जानते थे कि भागे नहीं, तो यहाँ कोई पानी देनेवाला भी नहीं मिलेगा!

इधर के लोगों ने उन्हें लखेदना चाहा, तो मन्ने और मुन्नी ने मिलकर उन्हें रोक दिया-नहीं, किसी को मारना हमारा उद्देश्य नहीं है! ...

मैदान साफ़ हो गया, तो मन्ने ने इन्स्पेक्टर से कहा-अब क्या किया जाय?

इन्स्पेक्टर के तो होश ही फ़ाख़्ता हो गये थे। साँस सम पर आयी, तो बोले-बाप रे! वे लोग तो कहाँ समझौते की बात कर रहे थे और कहाँ...

-समझते थे, जबरदस्ती जो चाहेंगे, मनवा लेंगे,-मुन्नी बोला-आप ही कहिए, ज़्यादती किसकी ओर से हुई?

-सरासर उनकी ज्यादती थी, साहब! मैं तो देख ही रहा था, भला ऐसा भी कहीं होता है!

-अब किया क्या जाय, यह बताइए!-मन्ने ने कहा।

गोजी कन्धों पर डाले, आँखो से ख़ून टपकाते हुए-से अहीर बोले-चुनाव कराइए आप लोगन! असली मेम्बर तो सब यहाँ हैं ही। ...बाप रे बाप! अगर हम लोगन के पास लाठी न होती, तब तो आन गाँव के ये दोगले यहाँ आकर आज गाँव का पानी उतार जाते न!

-हाँ, साहब,-इन्स्पेक्टर बोले-आप लोग बाक़ायदा चुनाव कराएँ। जो भाग गये, उनकी क्या गिनती!

सर्वसम्मति से पुरानी कमेटी फिर बहाल कर दी गयी। काग़जों पर इन्स्पेक्टर के हस्ताक्षर ले लिये गये।

कमेटी की तुरन्त बैठक हुई और मन्ने को फिर मन्त्री चुन लिया गया। मन्ने के लिए अब भागने का रास्ता कहाँ था!

तीसरे दिन ख़बर मिली कि कमेटी के सभी सदस्यों पर अवधेश बग़ैरा ने फौजदारी चला दी है। ...सात दिन बाद एक सुबह स्कूल के चौकीदार ने हाँफते हुए आकर मन्ने को बताया कि रात आफ़िस का ताला टूट गया।

ताला टूटने से कोई नुक़सान नहीं हुआ था, क्योंकि स्कूल के सभी काग़जात मन्ने अपने घर पर ही रखे हुए था। लेकिन चुनाव के समय के दृश्य और अब ताला टूटने से एक बात तो स्पष्ट हो ही गयी थी कि वे लोग बदमाशी पर उतर आये हैं। मन्ने फिर परेशान हो उठा। उसने मुन्नी से साफ़-साफ़ कहा-इतना-सब झेलना मेरे लिए मुश्किल है! अकेला आदमी मैं क्या-क्या करूँ? घर की चिन्ता ही मेरे लिए जरूरत से ज्यादा है। ऊपर से यह स्कूल का जंजाल मैं कब तक सम्हाल पाऊँगा? एक मुक़द्दमा ख़त्म हुआ, तो अब दूसरा चालू होने जा रहा है। पहले ही मेरा काफ़ी ख़र्च हो चुका है। अब रुपया भी मेरे पास नहीं रहा। कमाई-धमाई का हाल देख ही रहे हो। लडक़ी अब सयानी हो चुकी है। क्या करूँ, कुछ समझ में नहीं आता। अजीब गोरखधन्धे में मैं फँस गया।-कहकर मन्ने ने सिर झुका लिया।

मुन्नी थोड़ी देर तक ख़ामोश बना रहा। मन्ने की समस्या कोई साधारण न थी। फिर भी बोला-तुम्हारे साथ मेरी पूरी हमदर्दी है। लेकिन जो स्थिति-सामने है, उसका मुक़ाबिला करने के सिवा चारा ही क्या है? स्कूल अब तुम्हारे ही लिए नहीं, पूरे गाँव और आस-पास के गाँवों के लिए जि़न्दगी और मौत का सवाल बन चुका है। ...इस स्कूल के साथ ही तुम लोगों को डूबना और उतराना है। यह स्कूल गया, तो तुम लोग बच नही सकते, खासकर तुम्हारी ये लोग क्या हालत करेंगे, इसकी कल्पना भी इस समय नहीं की जा सकती। ...फिर गाँव की तरक्क़ी भी शायद बहुत दिनों के लिए घपले में पड़ जाय। इसलिए मैं तो यही कहूँगा कि तुम घबराकर अपना क़दम पीछे न हटाओ। डटकर लड़ो। रुपये की समस्या ज़रूर कठिन है लेकिन तुम अकेले ही मुक़द्दमे का ख़र्चा क्यों करो? तुम सबसे सहायता लो और इसके लिये एक कोष बनाओ, जिसमें नियमित रूप से हर आदमी से हर महीने जो भी वह देने लायक़ हो, लेकर जमा करो। सार्वजनिक कार्यो का ख़र्चा इसी तरह चलाया जाता है। लोग ग़रीब हैं, लेकिन इसके लिए कोई इनकार नहीं करेगा। करना तुम्हें यह है कि लोग सही तरीक़े पर यह समझ जायँ कि जो तुम कर रहे हो उन्हीं की भलाई के लिए है, इसमें तुम्हारा कोई अपना ही स्वार्थ नहीं है। लोगों ने अब तक तुम्हारा साथ दिया है, तो कोई वजह नहीं, जो वे तुम्हीं पर मुक़द्दमे के ख़र्चे का सारा भार लाद देंगें। अब तो हर गाँव में हमारे कई-कई कार्यकर्ता भी पैदा हो गये हैं। वे तुम्हारी मदद करेंगे।

-मालूम होता है, तुम मुझे बिलकुल फ़क़ीर ही बनाकर दम लोगे!-मन्ने ने झुँझलाकर कहा-मेरी परेशानी तुम नहीं समझ रहे!

मुन्नी हँसकर बोला-इस जमाने में मालदार बनने से कोई बड़ा गुनाह नहीं! और मुझे उस आदमी से अभी मिलना है, जो बिना गुनाह किये अपनी ज़िन्दगी में ‘कामयाब’ हो गया हो! कोई आदमी जब अपनी ‘कामयाबी’ की कहानी सुनाता है, तो मुझे लगता है कि वह इन्सानियत की तौहीनी की कहानी सुना रहा हो! सच, आज के ज़माने में इससे बढक़र इन्सान की कोई दूसरी तौहीन नहीं! ...तुमने उस रेड इण्डियन की कहानी सुनी है, जिससे एक बार एक बड़ा ही ‘कामयाब’ और धनवान आदमी मिला था? ...धनवान जंगल में शिकार खेलने गया था। वहाँ एक रेड इण्डियन एक पेड़ का सहारा लिये आराम कर रहा था। उसके पास धनवान जाकर बोला, तुम इस तरह क्यों पड़े हो? उसने कहा, फिर क्या करूँ? धनवान ने कहा, कुछ काम करो। उसने कहा, काम करने से क्या होगा? धनवान ने कहा, धन मिलेगा। उसने पूछा, धन से क्या होगा? धनवान ने कहा, धीरे-धीरे तुम बड़े आदमी हो सकते हो। उसने पूछा, फिर क्या होगा? धनवान ने कहा, फिर तुम्हारे पास अच्छा मकान होगा, खाने-पीने के लिए अच्छी चीजें मिलेंगी, पहनने के लिए अच्छे कपड़े मिलेंगे। उसने पूछा, फिर क्या होगा? धनवान ने कहा फिर तुम्हारे पास बहुत बड़ा काम-धाम होगा, मोटर होगी, नौकर-चाकर होंगे, तुम्हारी लोग इज्ज़त करेंगे, तुम्हारा बड़ा नाम होगा, जैसे आज मेरा है उसने कहा, फिर? धनवान बोला, फिर जब तुम्हारे पास बहुत हो जायगा, ज़रूरत की सब चीजें हो जाएँगी, तो तुम निश्चिन्त होकर आराम कर सकते हो। इस पर रेड इण्डियन ने कहा कि अन्त में जब यही होना है, तो इसके लिए इतनी परेशानी क्यों उठायी जाय, आराम तो मैं इस वक़्त भी कर रहा हूँ!

मुन्नी अपने काम पर चला गया। लेकिन मन्ने अपने को सन्तुलित न कर पा रहा था। स्कूल का काम वह करता रहा, मुक़द्दमा वह लड़ता रहा, अपना काम भी करता रहा, लेकिन एक बात उसके दिल में चुभती रही कि वह बरबाद हो रहा है, जाने इस-सबका नतीजा क्या हो। सच पूछा जाय, तो इस मुसलसल लड़ाई से वह ऊब गया था। फिर हाल में इस लड़ाई का अन्त भी दिखाई न दे रहा था। उसके विरोधी साधारण लोग न थे, पैसे की उनके पास कमी न थी, हुकूमत उनकी थी। कभी-कभी यह सोचकर उसे आश्चर्य होता कि यह लड़ाई इतनी देर तक, इतनी कामयाबी के साथ उसने कैसे लड़ी? ...और तब उसे अहसास होता कि आम जनता की जो ताक़त उसके साथ है, वह भी कोई साधारण नहीं। ...फिर उसका साथ छोडक़र बीच में ही अलग हो जाना उसे उचित न लगता। वह सोचता, यह तो सरासर ग़द्दारी होगी। जब ओखल में सिर दिया है, तो मूसलों की चिन्ता करने से कैसे काम चलेगा? फिर उसे गाँव में रहना है, तो इससे निजात कहाँ? चलने दो, जब तक चलता है।

ग़बन के मुक़द्दमे में वह बरी हो गया, तो फौजदारी में समझौता कर लेने की बात अवधेश की ओर से आने लगी। पहले तो मन्ने के मन में आया कि वह समझौता कर ले, लेकिन उधर से जो शर्तें आयीं, वे हारे हुए लोगों की न होकर जीतने वालों की थीं। कमेटी ने उन शर्तों पर समझौता करना अस्वीकार कर दिया। सदस्यों का कहना था कि अवधेश को मन्त्री मान लेने से बेहतर तो यह है कि हमारी सजा ही हो जाय। जब यही होना था, तो इतनी परेशानी उठाने की क्या ज़रूरत थी? यह तो वही मसल हुआ कि फिर बैतलवा डाल-के-डाल!

फिर पंचायत के चुनाव का समय आ गया।