सत्ता और साहित्यकार / प्रताप सहगल

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विश्व के इतिहास में सत्ता के नियंत्रण में इतने लोग कभी भी नहीं रहे, जितने आज हैं। आने वाले कल में यह संख्या और भी बढ़ेगी। फिलहाल वर्तमान की बात करें तो यह भी निश्चित है कि इतने बड़े पैमाने पर सत्ता का शिकंजा कभी भी इतना मज़बूत नहीं रहा, जितना आज है। इसलिए साहित्यकार के सामने ख़तरे पहले से कहीं ज़्यादा और तेज़ हैं।

सत्ता के स्वार्थ-रूप भले ही बदले हों, लेकिन मूल रूप से स्वार्थ भाव पहले से कहीं ज़्यादा हुआ है। सत्ता आज पहले से कहीं ज़्यादा चालाक हुई है और साहित्यकार अपनी तमाम प्रतिभा के बावजूद उसके सामने छोटा साबित हो रहा है। सत्ता साहित्यकार को बेहद सूक्ष्म तरीकों से भ्रष्ट करने में लगी है और साहित्यकार या तो भ्रष्ट हो रहा है या फिर किनाराकशी करके यूटोपिया में जी रहा है।

सत्ता के नियंत्रण में संचार और प्रचार माध्यम साहित्यकार को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। वे बुलाते हैं 'आओ अपनी बात कहो' लेकिन सत्य यह है कि इन माध्यमों से वही बात प्रसारित / प्रचारित हो सकती है, जो सत्ता चाहती है। सत्ता साहित्यकारों की विरोधी मुद्राओं को तभी तक स्वीकार करती है, जब तक वे मुद्राएँ उसके लिए ख़तरा नहीं बनतीं। किसी भी दिशा से आने वाली चुनौतियों को सत्ता बर्दाश्त नहीं करती। साहित्यकार में चुनौती देने की क्षमता है, वह चुनौती देता भी है, लेकिन आज कोई बड़ी चुनौती भी साहित्यकार के माध्यम से नहीं आ रही। वह भी तब जबकि सत्ता के स्वार्थ बेपर्दा हैं, वे साफ़-साफ़ नज़र आते हैं। सत्ता और साहित्यकार के बीच की लड़ाई मूल्यों को लेकर शुरू होती है और किसी बिंदु पर वह समझौतों में बदल जाती है।

आज सत्ता आज़ादी की बात करती है। जबकि साहित्यकार आज़ादी के साथ समानता कि बात करता है। बल्कि वह समानता पर आज़ादी से ज़्यादा ज़ोर देता है। सत्ता समानता से अधिक ज़ोर स्वतंत्रता पर देती है, क्योंकि स्वतंत्रता का एक मिथ है। पूर्ण समानता भी मिथ ही है, लेकिन असमानता कि खाइयों को कम ज़रूर किया जा सकता है। साहित्यकार अपनी तमाम कमियों के बावजूद समानता के लिए लड़ता है। सत्ता के लिए स्वतंत्रता और समानता मात्र नारे हैं, जबकि साहित्यकार के लिए यह मूल्य हैं। नारे और मूल्य के बीच जो लड़ाई हो सकती है, वही लड़ाई सत्ता और साहित्यकार के बीच भी है। वैचारिक स्तर पर यह लड़ाई जारी है। लेकिन ऐसा क्या घट जाता है ऐसा कि सत्ता के संपर्क में आने के बाद साहित्यकार सुविधाभोगी और समझौतापरस्त हो जाता है। तब वह सत्ता का मार्गदर्शक न रहकर उसका पिछलग्गू बन जाता है और सत्ता कि भाषा को वह अपने मुहावरों में पेश करता है। वह आग, भूख, बेकारी, संतोष की बात कम और अहिंसा कि बात अधिक करता है।

सत्ता और साहित्यकार के बीच आज जो थोड़ा बहुत कान्फ्रन्टेशन है, क्या उससे कुछ बदलाव लाने की संभावनाओं पर विचार किया जा सकता है? क्या यह मात्र एक सुखदायी भ्रम नहीं लगता कि साहित्यकार ऐसा कुछ करेगा, जिससे सत्ता स्वार्थलोलुप होने के बजाय लोकहित के लिए गंभीर रूप से कुछ करे। यह प्रश्न इसलिए उठता है कि आज जो साहित्यकार सत्ता के साथ हैं, वे सत्ता के स्वरूप को बदलने में कितने समर्थ साबित हो रहे हैं? क्या उन्होंने वाकई कोई बड़े परिवर्तन किए हैं या कि स्वागत-समितियाँ, पुरस्कार योजनाएँ और थोक ख़रीद के रेले-पेले में मात्र सत्ता के निहित स्वार्थों की पूर्ति के यंत्र बने हुए हैं? क्या हमें यह स्वीकार नहीं कर लेना चाहिए कि इस अवसरवादिता और समझौतापरस्ती के दौर में साहित्यकार भी समाज के दूसरे घटकों की तरह से ही डिजेनरेट हो गया है और डिजेनरेशन की प्रक्रिया रुकी नहीं, बल्कि अपनी पूरी गति पर है।

सत्ता कि सेवाएँ लोगों के लिए हैं। कुछ विशिष्ट सेवाएँ कुछ विशिष्ट लोगों के लिए हैं और कुछ अति विशिष्ट सेवाएँ अति विशिष्ट लोगों के लिए हैं। साहित्यकार की सेवाएँ वर्ग भेद नहीं करती हैं, वह तो पूरी मानवजाति की बात करता है। वह वृहद् मूल्यों की बात करता है। वह विश्व मंगल की बात करता है। क्या आज वह यह सब कर रहा है?

आज जब वैज्ञानिक और प्राविधिक रूप से दुनिया अपने चरमोत्कर्ष पर है। इस सारे विकास ने ही सत्ता के शिकंजे को मज़बूत किया है। सत्ता के पास साधन हैं। वह साधनों के बल पर ही साहित्यकार को प्रश्रय देती है। वह वैज्ञानिक को प्रश्रय देती है। वह मात्र प्रश्रय ही नहीं देती, उन्हें इस्तेमाल करती है। वैज्ञानिक इससे बच नहीं सकता, लेबोट्री और अनुसंधान पर होने वाले भारी खर्चे वैज्ञानिक नहीं जुटा पाता, इसलिए वह सत्ता के नियंत्रण में है। वह आविष्कार करता है, उसे इस्तेमाल करती है सत्ता। इस्तेमाल करने का विवेक साहित्यकार ही दे सकता है, लेकिन सत्ता वैज्ञानिक की तरह से साहित्यकार भी इस्तेमाल करती है।

फिर भी साहित्यकार की मार से सत्ता बच नहीं सकती। साहित्यकार की अवधारणाओं, मान्यताओं और मूल्यों की अपनी सर्जनाओं में वह महीन बुनावट करता है। सत्ता के केंद्र में बैठा व्यक्ति यदि कहीं और कभी भी उन सर्जनाओं के संपर्क में आया है तो शायद वही कुछ ऐसा है जो उसे सही और ग़लत का विवेक देता है। लेकिन यहाँ वह व्यक्ति होता है, सत्ता नहीं। सत्ता के रूप में वह वैज्ञानिक और साहित्यकार को एक ही तरह से इस्तेमाल करता है। वह साहित्यकार से यशोगान मांगता है। यानी सत्ता साहित्यकार को प्रचार दूत के रूप में इस्तेमाल करती है। यों प्रसंगवश याद किया जा सकता है होमर, वर्जिल और कालिदास को, बिहारी और तानसेन को जिन्होंने साहित्य और संगीत के क्षेत्र में सर्जना कि नई बुलंदियों को हासिल किया। आज यह भी तो नहीं हो रहा है।

लगता है हम सभी मीडियाकर्स हैं। उसी दुनिया में रह रहे हैं फिर भी कुछ ऊँचा सोचने की कोशिश कर रहे हैं।