सत्याग्रह-आत्मबल / हिंद स्वराज / महात्मा गांधी

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पाठक : आप जिस सत्‍याग्रह या आत्मबल की बात करते हैं, उसका इतिहास में कोई प्रमाण है? आज तक दुनिया का एक भी राष्‍ट्र इस बल से ऊपर चढ़ा हो, ऐसा देखने में नहीं आता। मार-काट के बिना बुरे लोग सीधे रहेंगे ही नहीं, ऐसा विश्‍वास अभी भी मेरे मन में बना हुआ है।

संपादक : कवि तुलसीदाजी ने लिखा है :

दया धरम को मूल है, पापमूल अभिमान, तुलसी दया न छाँड़िए, जब लग घट में प्रान।

मुझे तो यह वाक्‍य शास्‍त्र-वचन जैसा लगता है। जैसे दो और दो चार ही होते हैं, उतना ही भरोसा मुझे ऊपर के वचन पर है। दयाबल आत्मबल है, सत्‍याग्रह है। और इस बल के प्रमाण पग पर दिखाई देते हैं। अगर यह बल नहीं होता, तो पृथ्‍वी रसातल (सात पातालों मे से एक) में पहुँच गई होती।

लेकिन आप तो इतिहास प्रमाण चाहते हैं, इसके लिए हमें इतिहास का अर्थ जानना होगा।

'इतिहास' का शब्‍दार्थ है : 'ऐसा हो गया।' ऐसा अर्थ करें तो आपको सत्‍याग्रह के कई प्रमाण दिए जा सकेंगे। 'इतिहास' जिस अँग्रेजी शब्‍द का तरजुमा है और जिस अर्थ बादशाहों या राजाओं की तवारीख होता है, उसका अर्थ लेने से सत्‍याग्रह का प्रमाण नहीं मिल सकता। जस्‍ते की खान में आप अगर चाँदी ढूँढ़ने जाएँ, तो वह कैसे मिलेगी? 'हिस्‍टरी' में दुनिया के कोलाहल की ही कहानी मिलेगी। इसलिए गोरे लोगों मे कहावत है कि जिस राष्‍ट्र की 'हिस्‍टरी' (कोलाहल) नहीं है वह राष्‍ट्र सुखी है। राजा लोग कैसे खेलते थे, कैसे खून करते थे, कैसे बैर रखते थे, यह सब 'हिस्‍टरी' में मिलता है। अगर यही इतिहास होता, अगर इतना ही हुआ होता, तब तो यह दुनिया कब की डूब गई होती। अगर दुनिया की कथा लड़ाई से शुरू हुई होती, तो आज एक भी आदमी जिंदा नहीं रहता। जो प्रजा लड़ाई का हो भोग (शिकार) बन गई, उसकी ऐसी ही दशा हुई है। आस्‍ट्रेलिया के हब्‍शी लोगों का नामोनिशान मिट गया है आस्‍ट्रेलिया के गोरों ने उनमें से शायद ही किसी को जीने दिया है। जिनकी जड़ ही खतम हो गई, वे लोग सत्‍याग्रही नहीं थे। जो जिंदा रहेंगे वे देखेंगे कि आस्‍ट्रेलिया के गोरे लोगों की भी यही हाल होंगे। जो तलवार चलाते हैं उनकी मौत तलवार से ही होती है।' हमारे यहाँ ऐसी कहावत है कि 'तैराक की मौत पानी में'।

दुनिया में इतने लोग आज भी जिंदा हैं, यह बताता है कि दुनिया का आधार हथियार-बल पर नहीं है, परंतु सत्‍य, दया या आत्मबल पर है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि दुनिया लड़ाई के हंगामों के बावजूद टिकी हुई है। इसलिए लड़ाई के बल के बजाए दूसरा ही बल उसका आधार है।

हजारों बल्कि लाखों लोग प्रेम के बस रहकर अपना जीवन बसर करते हैं। करोड़ो कुटुंबों का क्‍लेश प्रेम की भावना में समा जाता है, डूब जाता है। सैकड़ों राष्‍ट्र मेलजोल से रहे हैं। इसको 'हिस्‍टरी' नोट नहीं करती; 'हिस्‍टरी' कर भी नहीं सकती। जब इस दया की, प्रेम की और सत्‍य की धारा रूकती है, टूटती है, तभी इतिहास में वह लिखा जाता है। एक कुटुंब के दो भाई लड़े। इसमें एक ने दूसरे के खिलाफ सत्‍याग्रह का बल काम में लिया। दोनों फिर से मिल-जुलकर रहने लगे। इसका नोट कौन लेता है? अगर दोनों भाइयों में कवीलों की मदद से या दूसरे कारणों से वैरभाव बढ़ता और वे हथियारों या अदालतों (अदालत एक तरह का हथियार-बल, शरीर-बल ही है) के जरिए लड़ते, उनके नाम अखबारों में छपते, अड़ोस-पड़ोस के लोग जानते और शायद इतिहास में भी लिखे जाते। जो बात कुटुंबों, जमातों और इतिहास के बारे में सच है, वही राष्ट्रों के बारे में भी समझ लेना चाहिए। कुटुंब के लिए एक कानून और राष्‍ट्र के लिए दूसरा, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है। 'हिस्‍टरी' अस्‍वाभाविक बातों को दर्ज करती है। सत्‍याग्रह स्‍वाभाविक है, इसलिए उसे करने की जरूरत ही नहीं है।

पाठक : आपके कहे मुताबिक तो यही समझ में आता है कि सत्‍याग्रह की मिसालें इतिहास में नहीं लिखी जा सकती। इस सत्‍याग्रह को ज्‍यादा समझने की जरूरत है। आप जो कुछ कहना चाहते हैं, उसे ज्‍यादा साफ शब्‍दों में कहेंगे तो अच्‍छा होगा।

संपादक : सत्‍याग्रह या आत्मबल को अँग्रेजी में 'पैसिव रेजिस्‍टेंस' कहा जाता है। जिन लोगों ने अपने अधिकार पाने के लिए खुद दुख सहन किया था, उनके दुख सहने के ढंग के लिए यह शब्‍द बरता गया है। उसका ध्‍येय लड़ाई के ध्‍येय से उलटा है। जब मुझे कोई काम पसंद न आए और वह काम मैं न करूँ, तो उसमें मैं सत्‍याग्रह या आत्मबल का उपयोग करता हूँ।

मिसाल के तौर पर, मुझे लागू होनेवाला कोई कानून सरकार ने पास किया। वह कानून मुझे पसंद नहीं है। अब अगर मैं सरकार पर हमला करके यह कानून रद करवाता हूँ, तो कहा जाएगा कि मैं शरीर-बल का उपयोग किया। अगर मैं उस कानून को मंजूर ही न करूँ और उस कारण से होने वाली सजा भुगत लूँ, तो कहा जाएगा कि मैंने आत्मबल या सत्‍याग्रह से काम लिया। सत्‍याग्रह में मैं अपना ही बलिदान देता हूँ।

यह तो सब कोई कहेंगे कि दूसरे का भोग - बलिदान लेने से अपना भोग देना ज्‍यादा अच्‍छा है। इसके सिवा, सत्‍याग्रह से लड़ते हुए अगर लड़ाई गलत ठहरी, तो सिर्फ लड़ाई छेड़नेवाला ही दुख भोगता है। यानी अपनी भूल की सजा वह खुद भोगता है। ऐसी कई घटनाएँ हुई हैं जिनमें लोग गलती से शामिल हुए थे। कोई भी आदमी दावे से यह नहीं कह सकता कि फलां काम खराब ही है। लेकिन जिसे वह खराब लगा, उसके लिए तो खराब ही है। अगर ऐसा ही है तो फिर उसे वह काम नहीं करना चाहिए और उसके लिए दुख भोगना, कष्‍ट सहन करना चाहिए। यही सत्‍याग्रहनी कुंजी है।

पाठक : तब तो आप कानून के खिलाफ होते हैं! यह बेवफाई कही जाएगी। हमारी गिनती हमेशा कनून को माननेवाली प्रजा में होती है। आप तो 'एक्‍स्‍ट्रीमिस्‍ट' से भी आगे बढ़त दीखते हैं। 'एक्‍स्‍ट्रीमिस्‍ट' कहता है कि जो कानून बन चुके हैं उन्हें तो मानना ही चाहिए; लेकिन कानून खराब हो तो उनके बनानेवालों को मारकर भगा देना चाहिए।

संपादक : मैं आगे बढ़ता हूँ या पीछे रहता हूँ, इसकी परवाह न आपको होनी चाहिए, न मुझे। हम तो जो अच्‍छा है उसे खोजना चाहते हैं और उसके मुताबिक बरतना चाहते हैं।

हम कानून को माननेवाली प्रजा हैं, इसका सही अर्थ तो यह है कि हम सत्‍याग्रही प्रजा हैं। कानून जब पसंद न आएँ तब हम कानून बनानेवालों का सिर नहीं तोड़ते, बल्कि उन्हें रद कराने के लिए खुद उपवास करते हैं खुद दुख उठाते हैं।

हमें अच्‍छे या बुरे कानून को मानना चाहिए, ऐसा अर्थ तो आजकल का है। पहले ऐसा नहीं था। तब चाहे जिस कानून को लोग तोड़ते थे और उसकी सजा भोगते थे।

कानून हमें पसंद न हो तो भी उनके मुताबिक चलना चाहिए, यह सिखावन मर्दानगी के खिलाफ है, धर्म के खिलाफ है और गुलामी की हद है।

सरकार तो कहेगी कि हम उसके सामने नंगे होकर नाचें। तो क्‍या हम नाचेंगे? अगर मैं सत्‍याग्रही होऊँ तो सरकार से कहूँगा : 'यह कानून आप अपने घर में रखिए। मैं न तो आपके सामने नंगा होनेवाला हूँ और न नाचनेवाला हूँ।' लेकिन हम ऐसे असत्‍याग्रही हो गए हैं कि सरकार के जुल्‍म के सामने झुककर नंगे होकर नाचने से भी ज्‍यादा नीच काम करते हैं।

जिस आदमी में सच्‍ची इनसानियत है, जो खुदा से ही डरता है, वह और किसी से नहीं डरेगा। दूसरे के बनाए हुए कानून उसके लिए बंधनकारक नहीं होते। बेचारी सरकार भी नहीं कहती कि 'तुम्‍हे ऐसा करना ही पड़ेगा।' वह कहती है कि 'तुम ऐसा नहीं करोंगे तो तुम्हे सजा होगी'। हम अपनी अधम दशा के कारण मान लेते हैं कि हमें 'ऐसा करना चाहिए', यह हमारा फर्ज है, यह हमारा धर्म है।

अगर लोग एक बार सीख लें कि जो कानून हमें अन्यायी मालूम हो उसे मानना नामर्दगी है, तो हमें किसी का भी जुल्‍म बाँध नहीं सकता। यही स्वराज की कुंजी है।

ज्‍यादा लोग जो कहें उसे थोड़े लोगों को मान लेना चाहिए, यह तो अनीश्‍वरी (ला-खुदाई) बात है, एक वहम है। ऐसी हजारों मिसालें मिलेंगी, जिनमें बहुतों ने जो कहा वह गलत निकला हो और थोड़े लोगों ने जो कहा वह सही निकला हो। सारे सुधार बहुत से लोगों के खिलाफ जाकर कुछ लोगों ने ही दाखिल करवाए हैं। ठगों के गाँव में अगर बहुत से लोग यह कहें कि ठग विद्या सीखनी ही चाहिए, तो क्‍या कोई साधु ठग बन जाएगा? हरगिज नहीं। अन्यायी कानून को मानना चाहिए, यह वहम जब तक दूर नहीं होता तब तक हमारी गुलामी जानेवाली नहीं है। और इस वहम को सिर्फ सत्‍याग्राही ही दूर कर सकता है।

शरीर-बल का उपयोग करना, गोला-बारूद काम में लाना, हमारे सत्‍याग्रह के कानून खिलाफ है। इसका अर्थ तो यह हुआ कि हमें जो पसंद है वह दूसरे आदमी से हम (जबरन) करवाना चाहते हैं। अगर यह सही हो तो फिर वह सामनेवाला आदमी भी अपनी पसंद का काम हमसे करवाने के लिए हम पर गोला-बारूद चलाने का हकदार है। इस तरह तो हम कभी एक राय पर पहुँचेंगे ही नहीं। कोल्‍हू के बैल की तरह आँखों पर पट्टी बाँधकर भले ही हम मान लें कि हम आगे बढ़ते हैं। लेकिन दरअसल तो बैल की तरह हम गोल-गोल चक्‍कर ही काटते रहते हैं। जो लोग ऐसा मानते हैं कि जो कानून खुद को नापसंद है उसे मानने के लिए आदमी बँधा हुआ नहीं है, उन्हें तो सत्‍याग्रह को ही सही साधन मानना चाहिए; वरना बड़ा विकट नतीजा आएगा।

पाठक : आज जो कहते हैं उस पर से मुझे लगता है कि सत्‍याग्रह कमजोर आदमियों के लिए काफी काम का है। लेकिन जब से वे बलवान बन जाएँ तब से उन्हें तोप (हथियार) ही चलाना चाहिए।

संपादक : यह तो आपने बड़े अज्ञान की बात कही। सत्‍याग्रह सबसे बड़ा-सर्वोपरि बल है। वह जब तोपबल से ज्‍यादा काम करता है, तो फिर कमजोरों का हथियार कैसे माना जाएगाᣛ? सत्‍याग्रह के लिए जो हिम्‍मत और बहादुरी चाहिए, वह तोप का बल रखने वाले के पास हो ही नहीं सकती। क्‍या आप यह मानते हैं कि डरपोक और कमजोर आदमी नापसंद कानून को तोड़ सकेगा? 'एक्‍स्‍ट्रीमिस्‍ट तोपबल-पशुबल के हिमायती हैं। वे क्‍यों कानून को मानने की बात कर रहे हैं? मैं उनका दोष न‍हीं निकालता। वे दूसरी कोई बात कर ही नहीं सकते। वे खुद जब अँग्रेजों को मारकर राज्य करेंगे तब आप से और हमसे (जबरन्) कानून मनवाना चाहेंगे। उनके तरीके के लिए यही कहना ठीक है। लेकिन सत्‍याग्रही तो कहेगा कि जो कानून उसे पसंद नहीं है उन्हें वह स्‍वीकार नहीं करेगा, फिर चाहे उसे तोप के मुँह पर बाँधकर उसकी धज्जियाँ क्‍यों न उड़ा दी जाए!

आप क्‍या मानते हैं? तोप चलाकर सैकड़ों को मारने में हिम्‍मत की जरूरत है या हँसते-हँसते तोप के मुँह पर बँध कर धज्जियाँ उड़ने देने में हिम्‍मत की जरूरत है? खुद मौत को हथेली में रखकर जो चलता-फिरता है वह रणवीर है या दूसरों की मौत को अपने हाथ में रखता है वह रणवीर है?

यह निश्चित मानिए कि नामर्द आदमी घड़ी भर के लिए भी सत्‍याग्रही नहीं रह सकता।

यहाँ, यह सही है कि शरीर से जो दुबला हो वह भी सत्‍याग्रही हो सकता है। एक आदमी भी (सत्‍याग्रही) हो सकता है और लाखों लोग भी हो सकते हैं। मर्द भी सत्‍याग्रही हो सकता है; औरत भी हो सकती है। उसे अपना लश्‍कर तैयार करने की जरूरत नहीं रहती। उसे पहलवानों की कुश्‍ती सीखने की जरूरत नहीं रहती। उसने अपने मन को काबू में किया कि फिर वह वनराज-सिंह की तरह गर्जना कर सकता है; और जो उसके दुश्‍मन बन बैठे हैं उनके दिल इस गर्जना से फट जाते हैं।

सत्याग्रह ऐसी तलवार है, जिसके दोनों ओर धार है। उसे चाहे जैसे काम में लिया जा सकता है। जो उसे चलाता है और जिस पर वह चलाई जाती है, वे दोनों सुखी होते हैं। वह खून नहीं निकालती, लेकिन उससे भी बड़ा परिणाम ला सकती है। उसकी जंग नहीं लग सकती। उसे कोई (चुराकर) ले नहीं जा सकता। अगर सत्‍याग्रही दूसरे सत्‍याग्रही के साथ होड़ में उतरता हैं, तो उसमें उसे थकान लगती ही नहीं। सत्‍याग्रही की तलवार को म्‍यान की जरूरत नहीं रहती। उसे कोई छीन नहीं सकता। फिर भी सत्‍याग्रह को आप कमजोरों का हथियार मानें तब तो उसे अँधेर ही कहा जाएगा।

पाठक : आपने कहा कि वह हिंदुस्तान का खास हथियार है। तो क्‍या हिंदुस्तान का अर्थ वे करोड़ों किसान हैं, जिनके सहारे राजा और हम सब जी रहे हैं।

संपादक : आप हिंदुस्‍तान का अर्थ मुट्ठीभर राजा समझते हैं। मेरे मन से तो हिंदुस्‍तान का अर्थ व करोड़ो किसान हैं, जिनके सहारे राजा और हम सब जी रहे हैं।

राजा तो हथियार काम में लाएँगे ही। उनका वह रिवाज ही हो गया उन्हें हुक्‍म चलाना है। लेकिन हुक्‍म मानने वाले को तोपबल की जरूरत नहीं है। दुनिया के ज्‍यादातर लोग हुक्‍म मानने वाले हैं। उन्हें या तो तोपबल या सत्‍याग्रह का बल सिखाना चाहिए। जहाँ वे तोपबल सीखते हैं वहाँ राजा-प्रजा दोनों पागल जैसे हो जाते हैं। जहाँ हुक्‍म मानने वालों ने सत्‍याग्रह करना सीखा है वहाँ राजा का जुल्‍म उसकी तीन गज की तलवार से आगे नहीं जा सकता; और हुक्‍म मानने वालों ने अन्यायी हुक्‍म की परवाह भी नहीं की है। किसान किसी के तलवार-बल के बस न तो कभी हुए हैं, और न होंगे। वे तलवार चलाना नहीं जानते; न किसी की तलवार से वे डरते हैं। वे मौत को हमेशा अपना तकिया बनाकर सोनेवाली महान प्रजा हैं। उन्‍होंने मौत का डर छोड़ दिया है, इसलिए सबका डर छोड़ दिया है। यहाँ मैं कुछ बढ़ा-चढ़ाकर तसवीर खींचता हूँ, यह ठीक है। लेकिन हम जो तलवार के बल से चकित हो गए हें, उनके लिए यह कुछ ज्‍यादा नहीं है।

बात यह है कि किसानों ने, प्रजा-मंडलों ने अपने और राज्‍य के कारोबार में सत्‍याग्रह को काम में लिया है। जब राजा जुल्‍म करता है तब प्रजा रूठती है। यह सत्‍याग्रह ही है।

मुझे याद है कि एक रियासत में रैयत को अमुक हुक्‍म पसंद नहीं आया, इसलिए रैयत ने हिजरत करा-गाँव खाली करना-शुरू कर दिया। राजा घबड़ाए। उन्‍होंने रैयत से माफी माँगी और हुक्‍म वापस ले लिया। ऐसी मिसालें तो बहुत मिल सकती हैं। लेकिन वे ज्‍यादातर भारत-भूमि की ही उपज होगी। ऐसी रैयत जहाँ है वहीं स्वराज है। इसके बिना स्वराज कुराज्‍य है।

पाठक : तो क्‍या आप यह कहेंगे कि शरीर को कसने की जरूरत ही नहीं है?

संपादक : ऐसा मैं कभी नहीं कहूँगा। शरीर को कसे बिना सत्‍याग्रही होना मुश्किल है। अकसर जिन शरीरों को गलत लाड़ कर या सहलाकर कमजोर बना दिया गया है, उनमें रहने वाला मन भी कमजोर होता है। और जहाँ मन का बल नहीं हे वहाँ आत्मबल कैसे हो सकता है? हमें बाल-विवाह वगैरा के कुरिवाज को और ऐश-आराम की बुराई को छोड़कर शरीर को कसना ही होगा। अगर मैं मरियल और कमजोर आदमी को यकायक तोप के मुँह पर खड़ा हो जाने के लिए कहूँ, तो लोग मेरी हँसी उड़ाएँगे।

पाठक : आपके कहने से तो ऐसा लगता है कि सत्‍याग्रही होना मामूली बात नहीं है, और अगर ऐसा है तो कोई आदमी सत्‍याग्रही कैसे बन सकता है, यह आपको समझाना होगा।

संपादक : सत्‍याग्रही होना आसान है। लेकिन जितना वह आसान है उतना ही मुश्किल भी है। चौदह बरस का एक लड़का सत्‍याग्रही हुआ है, यह मेरे अनुभव की बात हे। रोगी आदमी सत्‍याग्रही हुए हैं, यह भी मैंने देखा है। मैंने यह भी देखा है कि जो लोग शरीर से बलवान थे और दूसरी बातों में भी सुखी थे, वे सत्‍याग्रही नहीं हो सके।

अनुभव से मैं देखता हूँ कि देश के भले के लिए सत्‍याग्रही होना चाहता हैं, उसे ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए, गरीबी अपनानी चाहिए, सत्‍य का पालन तो करना ही चाहिए और हर हालत में अभय (निडर) बनना चाहिए।

ब्रह्मचर्य एक महान व्रत है, जिसके बिना मन मजबूत नहीं होता। ब्रह्मचर्य का पालन करने से मनुष्‍य वीर्यवान नहीं रहता, नामर्द और कमजोर हो जाता है। जिसका मन विषय में (नफसानी ख्‍वाहिश) भटकता है, वह क्‍या शेर मारेगाᣛ? यह बात अनगिनत मिसालों से साबित की जा सकती हे। तब सवाल यह उठता है कि घर-संसारी को क्‍या करना चाहिए। लेकिन ऐसा सवाल उठाने की कोई जरूरत नहीं। घर-संसारी ने जो संग किया (स्‍त्री की सोहबत की) वह विषय-भोग नहीं है, ऐसा कोई नहीं कहेगा। संतान पैदा करने के लिए ही अपनी स्‍त्री का संग करने की बात कही गई है। और सत्‍याग्रही को संतान पैदा करने की इच्‍छा नहीं होनी चाहिए। इसलिए संसारी होने पर भी वह ब्रह्मचर्य का पालन कर सकता है। यह बात ज्‍यादा खोलकर लिखने की जरूरत नहीं। स्‍त्री का क्‍या विचार है? यह सब कैसे हो सकता है? ऐसे विचार मन में पैदा होते हैं। फिर भी जिस महान कार्यों में हिस्‍सा लेना है, उसे तो ऐसे सवालों का हल ढूँढ़ना ही होगा।

जैसे ब्रह्मचर्य की जरूरत है वैसे ही गरीबी को अपनाने की भी जरूरत हे पैसे का लोभ और सत्‍याग्रह का सेवन पालन (दोनों साथ-साथ) कभी नहीं चल सकते। लेकिन मेरा मतलब यह नहीं है कि जिसके पास पैसा है वह उसे फेंक दे। फिर भी पैसे के बारे में लापरवाह रहने की जरूरत है। सत्‍याग्रह का सेवन करते हुए अगर पैसा चला जाए, तो चिंता नहीं करनी चाहिए।

जो सत्‍य का सेवन नहीं करता, वह सत्‍य का बल, सत्‍य की ताकत कैसे दिखा सकेगाᣛ? इसलिए सत्‍य की तो पूरी-पूरी जरूरत रहेगी ही। बड़े से बड़ा नुकसान होने पर भी सत्‍य को नहीं छोड़ा जा सकता। सत्‍य के लिए कुछ छिपाने का होता ही नहीं। इसलिए सत्‍याग्रही के लिए छिपी सेना की जरूरत नहीं होती। जान बचाने के लिए झूठ बोलना चाहिए या नहीं, ऐसा सवाल यहाँ मन में नहीं उठाना चाहिए। जिस झूठ का बचाव करना है, वहीं ऐसे बेकार सवाल उठाता है। जिसे सत्‍य की ही राह लेनी है, उसके सामने ऐसे धर्म-संकट कभी आते ही नहीं। ऐसी मुश्किल हालत में आ पड़े तो भी सत्‍यवादी उसमें से उबर जाता है।

अभय के बिना तो सत्‍याग्रही की गाड़ी एक कदम भी आगे नहीं चल सकती। अभय संपूर्ण और सब बातों के लिए होना चाहिए। जमीन-जायदाद का, झूठी इज्‍जत का, सगे-संबंधियों का, राज-दारबार का, शरीर को पहुँचने वाली चोटों का और मरण का अभय हो, तभी सत्‍याग्रह का पालन हो सकता है।

यह सब करना मुश्किल है, ऐसा मानकर इसे छोड़ नहीं देना चाहिए। जो सिर पर पड़ता है उसे सह लेने की शक्ति कुदरत ने हर मनुष्‍य को दी है। जिसे देश सेवा न करनी हो, उसे भी ऐसी गुणों का सेवन करना चाहिए।

इसके सिवा, हम यह भी समझ सकते है कि जिसे हथियार-बल पाना होगा, उससे भी इन बातों की जरूरत रहेगी। रणवीर होना कोई ऐसी बात नहीं कि किसी ने इच्‍छा की और तुरंत रणवीर हो गया। योद्धा (लड़वैया) को ब्रह्मचर्य का पालन करना होगा, भिखारी बनना होगा। रण में जिसके भीतर अभय न हो वह लड़ नहीं सकता। उसे (योद्धा को) सत्‍यव्रत का पालन करने की उतनी जरूरत नहीं है, ऐसा शायद किसी को लगे। लेकिन जहाँ अभय है वहाँ सत्‍य कुदरती तौर पर रहता ही है। मनुष्‍य जब सत्‍य को छोड़ता है तब किसी तरह के भय के कारण ही छोड़ता है।

इसलिए इन चार गुणों से (सिफतों से) डर जाने का कोई कारण नहीं है। फिर तलवारबाज को और भी कुछ बेकार कोशिश करनी पड़ती हैं, जो सत्‍याग्रही को नहीं करनी पड़ती। तलवारबाज को जो दूसरी कोशिशें करनी पड़ती है, उसका कारण भय है। अगर उसमें पूरी निडरता आ जाए, तो उसी पल उसके हाथ से तलवार गिर जाएगी। फिर उसे तलवार के सहारे की जरूरत ही नहीं है। सिंह के सामने आनेवाले एक आदमी के हाथ की लाठी अपने-आप उठ गई। उसने देखा कि अभय का पाठ उसने सिर्फ जबानी ही किया था। उसने लाठी छोड़ी और वह निर्भय - निडर बना।