सत्य लाया नहीं जाता, स्वयं आता है / ओशो

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प्रवचनमाला

'मैं कौन हूँ?'

यह अपने से पूछता था। कितने दिवस रात्रि यह पूछते बीते; अब उनकी कोई गणना भी तो संभव नहीं है। बुद्धि उत्तर देती थी : सुने हुए संस्कारजन्य। वे सब उत्तर, उधार और मृत थे। उनसे तृप्ति नहीं होती थी। सतह पर गूंजकर वे विलीन हो जाते थे। अंतरात्मा उनसे अछूती रह जाती थी। गहराई में उनकी कोई ध्वनि नहीं सुनाई पड़ती थी। उत्तर बहुत थे, पर उत्तर नहीं था। और मैं उनसे अस्पर्शित रह जाता था। प्रश्न जहां पर था, वहां उनकी पहुंच नहीं थी।

फिर यह दिखा कि प्रश्न कहीं केंद्र पर था : उत्तर परिधि पर थे। प्रश्न अपना था, उत्तर पराये थे। प्रश्न अंतस में जगा था, समाधान बाहर से आरोपित था।

और यह दीखना तो क्रांति बन गया।

एक नई दिशा उद्घाटित हो गयी।

बुद्धि के समाधान व्यर्थ हो गये। समस्या से उनकी कोई संगति नहीं थी। एक भ्रम भग्न हो गया था। और कितनी मुक्ति मालूम हुई थी। जैसे बंद द्वार खुल गया हो या फिर अचानक अंधेरे में प्रकाश हो गया हो, ऐसा मालूम हुआ था। बुद्धि उत्तर देती थी, यही भूल थी। उन तथाकथित उत्तरों के कारण वास्तविक उत्तर ऊपर नहीं आ पाता था। कोई सत्य ऊपर आने को तड़प रहा था। चेतन की गहराइयों में कोई बीज भूमि को तोड़कर प्रकाश के लिए मार्ग खोज रहा था। बुद्धि बाधा थी।

यह दिखा तो उत्तर गिरने लगे। बाहर से आया ज्ञान वाष्प होने लगा। प्रश्न और गहरा हो गया। कुछ किया नहीं, केवल देखता रहा, देखता रहा। कुछ अभिनव घटित हो रहा था। मैं तो अवाक था। करने को था ही क्या, मैं जैसे बस दर्शक ही था। परिधि की प्रतिक्रियाएं झड़ रही थीं, मिट रही थीं, न हो रही थीं। और केंद्र अब पूरी तरह झंकृत हो उठा था।

'मैं कौन हूं?' - एक ही प्रयास में समग्र व्यक्तित्व स्पंदित हो उठा था।

कैसी आंधी थी, वह कि श्वास-श्वास उसमें कंपित हो गयी थी।

'कौन हूं मैं?' - एक तीर की भांति प्रश्न सब कुछ चीरता भीतर चला रहा था।

स्मरण करता हूं, कितनी तीव्र प्यास थी! सारे प्राण ही तो प्यास में बदल गये थे। सब कुछ जल रहा था और एक अग्नि शिखा की भांति प्रश्न भीतर खड़ा था, 'कौन हूं, मैं?'

आश्चर्य की बुद्धि बिलकुल चुप थी। निरंतर बहने वाले विचार नहीं थे। यह क्या हुआ था कि परिधि नितांत निस्पंद थी। कोई विचार नहीं था। कोई संस्कार नहीं था।

मैं था और प्रश्न था। नहीं, नहीं, मैं ही प्रश्न था।

और फिर विस्फोट हो गया। प्रश्न गिर गया था। किसी अज्ञात आयाम से समाधान आ गया था।

सत्य क्रम से नहीं, विस्फोट से उपलब्ध होता है।

उसे लाया नहीं जाता। सत्य आता है।

शब्द नहीं शून्य समाधान है। निरुत्तर हो जाने में उत्तर है।

कल कोई पूछता था, और रोज कहीं कोई पूछता है : 'वह उत्तर क्या है?'

मैं कहता हूं, 'उसे मैं कहूं तो अर्थहीन है, उसका अर्थ स्वयं पाने में है।'

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन) Posted by राजेंद्र त्‍यागी No comments: