सदस्य वार्ता:Jagadishwar chaturvedi

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बहि‍ष्‍कार का बहि‍ष्‍कार और आधुनि‍कता

                      आंबेडकर को जानने का अर्थ है भारत के यथार्थ को जानना। भारत का यथार्थ आंबेडकर के बिना समझा नहीं जा सकता। भारत की यथार्थ छवि गांधी ,नेहरू या माक्र्स के जरिए नहीं मिलती। बल्कि असली भारत तो आंबेडकर के जरिए ही नजर आता है। 

आधुनिकयुग में भारत में जितने भी विचारक हुए हैं वे यथार्थ के बारे में बातें करते हुए मिथ्या गौरव और मिथ्या जातीय अभिमान पैदा करते हैं। इन विचारकों का समस्त चिन्तन आधुनिकतावाद के बहिष्करण की धारणा को बनाए रखता है। आधुनिकता के प्रकल्प के तहत उपजा हमारा बंगाल का रैनेसां और बाद का समस्त विचारधारात्मक विकास असली भारत पर कम और निर्मित भारत पर ज्यादा रोशनी डालता है। आंबेडकर की महानता इसमें है कि उन्होंने निर्मित भारत का ,काल्पनिक भारत का निर्माण नहीं किया। भारत को फैंटेसी नहीं बनाया। आधुनिकता का प्रकल्प देश को ही नहीं देशवासियों को भी फैंटेसी बनाकर पेश करता है। फैंटेसी को सत्य की नहीं इच्छित सत्य की जरूरत होती है। इस अर्थ में फैंटेसी हमेशा सत्य को छिपाने और बहिष्करण का काम करती है।

    आधुनिकता के भारतीय प्रकल्प की यह बिडम्बना है कि आप इसमें रम सकते हैं,आनंद ले सकते हैं, रच सकते हैं। किंतु यथार्थ को न तो स्पर्श कर सकते हैं और न बदल सकते हैं। यही वजह है  भारत के आधुनिकता प्रकल्प में दलित और उसका यथार्थ नहीं आता। आधुनिकता के प्रकल्प के जो उन्नायक रहे हैं उनके यहां दलित नहीं आता। दलित का यथार्थ सिर्फ उन्हीं लेखकों और विचारकों के यहां दाखिल होता है जो आधुनिकता के प्रोजेक्ट के बाहर रहकर सोच रहे थे। यह अचानक नहीं है कि बंगाल के रैनेसां से जो लोग प्रभावित रहे हैं उनके यहां दलित गायब है उसका यथार्थ गायब है। दलित के सवाल गायब हैं। राजा राममोहनराय से लेकर रवीन्द्रनाथ टैगोर,ईश्वरचन्द्र विद्यासागर से लेकर सुभाषचन्द्रबोस,कांग्रेस से लेकर माक्र्सवादी दलों तक सभी में दलित एजेण्डा अनुपस्थित नजर आता है। दलित एजेण्डे का अनुपस्थित होना इस बात का प्रमाण है कि हमने भारत के यथार्थ को अभी तक स्पर्श तक नहीं किया है। 
    आधुनिकता के प्रोजेक्ट ने हमारी मनोदशा और जीवनदशा को इस कदर घेर लिया है कि हमारे प्रिय दोस्तों में दलित दोस्तों के नाम नहीं होते। कहने का तात्पर्य यह है कि दलित को जानेंगे तो दोस्त भी बनाएंगे, दोस्त बनाएंगे तो यथार्थ को जानने की कोशिश भी करेंगे। जो लोग कहते हैं कि पश्चिम बंगाल के समाज में दलित नहीं हैं। वे गलत कहते हैं। सच यह है कि शोषण से मुक्ति के नाम पर,भेदभाव के खिलाफ जंग के नाम पर हमने जो कल्पनालोक निर्मित किया है वह भी फैंटेसीमय है। इसका यथार्थ जगत से कोई संबंध नहीं है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि यह यथार्थ से पलायन का बहाना है। शोषण के खिलाफ जंग हम इसलिए नहीं लड़ते कि यथार्थ को जानना चाहते हैं बल्कि इसलिए लड़ते हैं कि असली भारत के यथार्थ को देखना नहीं चाहते। 
   यह एक ठोस सच्चाई है कि दलित केबारे में आजादी के बाद कभी हमने गहराई से विचार नहीं किया। यह एक ठोस वास्तविकता है कि दलित के बारे में हमने फैण्टेसीमय भाव से बातें की हैं। यह काम भी उत्सवधर्मी ढंग से किया है। वरना यह कैसे संभव है कि आंबेडकर के बाद कोई बड़ा दलित विचारक पैदा नहीं कर पाए। इससे भी बड़ा सवाल यह है कि बंगाल के रैनेसां में यदि असली भारत झांकता था तो दलित चिन्तन का श्रीगणेश बंगाल में क्यों नहीं हुआ  ? ऐसा क्यों हुआ कि ज्योतिबा फुले को दलित शिक्षा के कार्य को आरंभ करना पड़ा और इस कार्य को देश के अन्य भागों में उस जमाने के रैनेसां के नायक आरंभ क्यों नहीं कर पाए ?
    रैनेसां ने दलित को कभी केन्द्र में नहीं रखा, बल्कि आधुनिकता के प्रकल्प को केन्द्र में रखा। इच्छित भारत को केन्द्र में रखा,असली भारत को केन्द्र में नहीं रखा। यह अचानक नहीं है कि अम्बेडकर को दलित नजर आता है किंतु उसी रूप मेंगांधी अथवा टैगोर को नजर नहीं आता। दूसरी बात यह कि रैनेसां के फ्रेमवर्क में रखकर दलित को एजेण्डा नहीं बनाया जा सकता। रैनेसां का परिप्रेक्ष्य दलित का परिप्रेक्ष्य नहीं है। यह उदीयमान पूंजीपतिवर्ग का परिप्रेक्ष्य है। इस प्रसंग में एक तथ्य की ओर ध्यान दिलाना चाहूँगा। आधुनिक भारत में दलितों ने हमेशा गैर दलितों को अपना भाई माना, उनसे सहयोग मांगा। ऐसे गैर दलित महानुभाव भी थे जो दलितों की मुक्ति को लेकर चिन्तित थे। दलितों के संघर्ष में मदद करते रहे हैं। किंतु ऐसा कभी नहीं हुआ कि गैर दलितों ने कभी अपनी पहलकदमी पर दलित मुक्ति का कोई प्रकल्प हाथ में लिया हो और दलितों को आगे आने का अवसर दिया हो। वे हमेशा दलितों के प्रयास में ही शामिल क्यों हुए ? अपनी पहलकदमी पर दलित को एजेण्डा क्यों नहीं बनाया ?
    आधुनिकता के प्रकल्प का उसी दिन अंत हो गया जिस दिन दलित मुक्ति के विचार को आंबेडकर ने स्थापित कर दिया। संभवत: 'बहिष्कृत भारत' ( 3 अप्रैल 1927) को आधुनिकता के प्रकल्प के अंत की घोषण कह सकते हैं। 'मूकनायक' पाक्षिक अखबार बंद होने के बाद आंबेडकर ने जो अखबार निकाला उसका नाम रखा 'बहिष्कृत भारत।  यह नाम सार्थक,मार्मिक और बदले हुए पैराडाइम की सूचना देता है। इसमें दो शब्द हैं बहिष्कृत और भारत। यानी हमारे यहां दो भारत हैं। बहिष्कृत है लेकिन भारत है। भारत है लेकिन बहिष्कृत भारत है। 'बहिष्कृत भारत' ऐसे समय में नाम दिया गया जब देश को शस्य-श्यामला मलयज शीतलां मातरम् कहा जा रहा था। एकीकृत भारत की काल्पनिक छवि पेश की जा रही थी। प्रत्येक विचारक अपने-अपने तरीके से भारतमाता के बारे में तरह-तरह से कल्पनाएं पेश कर रहा था। प्रत्येक के पास कल्पना का भारत था। ऐसी अवस्था में आंबेडकर ने 'बहिष्कृत भारत' नाम देकर समूचे फैण्टेसीमय जगत में नश्तर चुभोने का काम किया। यही बहिष्कार बाबासाहेब को स्वीकार नहीं था। 
  आम्बेडकर की सारी विचारधारात्मक जंग इसी फैण्टेसीमय भारत के खिलाफ है। इस फैण्टेसी में से ही बहिष्कार निकला था और यही वजह है कि आंबेडकर का प्राथमिक लक्ष्य था बहिष्कार का बहिष्कार।   विलक्षण द्वंद्वात्मक स्थिति में उन्हें जीना पड़ रहा था। वे स्वयं बहिष्कार का बहिष्कार के संकल्प के साथ जी रहे थे। डा. नामवरसिंह ने बाबासाहेब के बारे में सही लिखा है   यह बहिष्कार बाबासाहेब को स्वीकार न था। वे बहिष्कार को नियति मानने के लिए तैयार न थे। बहिष्कार का बहिष्कार -उनका संकल्प था। उनमें बाहर कर दिए जाने की पीड़ा तो थी,लेकिन उसके साथ ही भीतर से भर दिए जाने का दृढ़ संकल्प भी था। कोशिश थी बाहर से भीतर आने की। लेकिन मजबूर होते थे बाहर निकल जाने के लिए। कभी संसद के अंदर,लेकिन कुछ ही दिनों बाद बाहर। कभी सरकार के अंदर फिर बाहर। बाहर-भीतर और भीतर-बाहर। यह कशमकश ही बाबासाहेब के जीवन का छंद है। इसी छटपटाहट की चरम परिणति बौध्दधर्म में धर्मांतरण ! रहे हिन्दू धर्म के बाहर किंतु एक तरह से हिन्दू धर्म के अंदर ही। अंतत: उन्होंने अपनी वह प्रतिज्ञा भी पूरी:  यद्यपि मैं हिन्दू के रूप में पैदा हुआ हूँ ,फिर भी मैं हिन्दू के रूप में मरूँगा नहीं।
      नामवरसिह ने सवाल उठाया है बाबासाहेब जैसे अथक योध्दा की शक्ति का मूल उत्स क्या था ?  नामवरसिंह ने लिखा  कहते हैं कालजयी कलाकार माइकेल एंजेलो से एक मित्र ने पूछा था' 'इस ठंड में कौन सी चीज आपको जिलाए थी ? ' जबाव था :'अपमान की ज्वाला ! ' 

अपमान की यह ज्वाला कहीं न कहीं आंबेडकर के अंदर भी धधक रही थी।इस ज्वाला की प्रबलता का ठीक-ठीक अंदाजा कोई 'अछूत' ही लगा सकता है। सार्वजनिक और अछूत - भारत की अछूत समस्या सार्वजनिक समस्या है। सार्वजनिक स्थान के उपयोग और अछूत को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किए जाने की समस्या है। यह बिडम्वना है कि अछूतों को लेकर जितने भी विवाद हैं, झगड़े हैं और जितनी भी विचारधारात्मक लड़ाईयां हैं वे सबकी सब सार्वजनिक हैं। अछूत सार्वजनिक है और सार्वजनिक अछूत है। यही वह प्रस्थानबिंदु है जिसके आधार पर समूचा असली भारत का विमर्श प्रारंभ होता है। बाबासाहेब आंबेडकर ने इस सार्वजनिक को नए सिरे परिभाषित करने की कोशिश की है। दलित विमर्श के लिए सार्वजनिक वातावरण,सार्वजनिक स्थान, सार्वजनिक संस्थानों की भूमिका को नए सिरे से परिभाषित किया।

     आधुनिकता का प्रकल्प जिस सार्वजनिक का सपना पेश करता है उसमें दलित और अछूत बहिष्कृत हैं। यहां सार्वजनिक वह है जिसे हेबरमास ने 'पब्लिक स्पेयर' कहा है। मजेदार बात यह है कि सवर्णों के आधुनिक प्रपंच निजी स्थिति से जुड़े हैं, जबकि दलितों के आधुनिक प्रपंच सार्वजनिक से जुड़े हैं। सवर्ण अपने निजी और व्यक्तिगत मसलों को सार्वजनिक तौर पर हल करने में जुटे हैं। मसलन् स्त्री पढ़े या न पढ़े, स्त्री सती हो या न हो। बालविवाह हो या वयस्क उम्र में विवाह हो ,ये सारे प्रश्न घर के अंदर के सवाल थे जिन्हें रैनेसां के दौरान सार्वजनिक बनाया गया। स्त्री के सवाल निजी सवाल थे जिन्हें सार्वजनिक किया गया। स्त्री के निजी सवाल जब भी उठते हैं, संस्कारों के सवाल जब भी उठते हैं तो सार्वजनिक शक्ल ग्रहण कर लेते हैं। परिवार कैसा हो ? औरत कैसी हो? स्त्री-पुरूष के संबंध कैसे हों ? इत्यादि सवाल निजी सवाल थे जिन्हें आधुनिक काल में सार्वजनिक किया गया। आधुनिककाल के पहले ये सवाल व्यक्तिगत सवाल थे और व्यक्तिगत तौर पर इनका समाधान भी खोजा गया। आधुनिककाल के आने के बाद नया विपर्यय यह हुआ कि निजी सार्वजनिक हो गया और सार्वजनिक निजी हो गया। 
    जातिव्यवस्था की जकड़बंदियां और गांठें पहले भी थीं किंतु इतनी मजबूत गांठें पहले नहीं थीं जितनी आधुनिककाल में नजर आती हैं। मसलन् साहित्य में भक्ति आंदोलन के अधिकांश कवि दलित हैं। अनेक वैष्णवमंदिरों के प्रधान गोस्वामी भी दलित हैं और दलितों और गैर-दलितों में कोई सामाजिक टकराव नहीं है। अथवा कम से कम टकराव है। विचारणीय सवाल यह है कि ब्रिटिश शासकों के आने के बाद जाति व्यवस्था मध्यकाल की तुलना में ज्यादा पुख्ता बनी है या कमजोर हुई है ? संभवत: आधुनिककाल में जातिव्यवस्था जितनी पुख्ता बनी है और जाति के विवादों न जिस तरह की घृणा पैदा की है उतनी मध्यकाल में नजर नहीं आती। अंग्रेजों के आने के बाद जातियों की संख्या में जिस कदर वृध्दि हुई है और जाति के नाम को लिखने का प्रचलन जिस तरह बढ़ा है वैसा मध्यकाल में नहीं था। आधुनिककाल में दलित होने के कारण दलितों पर जितने नृशंस अत्याचार हुए हैं वैसे अत्याचार न वैदिकयुग में हुए और न बाद के युग में ही हुए हैं। दलितों के साथ गैर दलितों का रोटी-बेटी का संबंध था। इसके पर्याप्त प्रमाण हमारे इतिहास में उपलब्ध हैं। ज्ञान के सभी क्षेत्रों में दलितों को समान रूप से अवसर मिलता था। यह सुनहरा सपना सिर्फ प्राचीनकाल तक मिलता है। इसके बाद स्थितियों में तेजी से परिवर्तन आता है और पहलीबार शूद्र अनुपस्थित होना शुरू होता है। मध्यकाल में अद्भुत चीज है सामाजिक संरचनाओं में अघोषित तौर पर शूद्र को अधिकारहीन और चित्रणहीन बना दिया गया। जो भक्तकवि दलित हैं वे भी दलितों के बारेमें न्यूनतम लिखते हैं। इसे कहते हैं समग्र विचारधारात्मक वर्चस्व। शूद्र का गायब होना और प्रतीकात्मक रूप में जिंदा रह जाना साहित्य की सबसे बड़ी दुर्घटना है। मध्यकाल ने कला-साहित्य संस्कृति से शूद्र के यथार्थ को गायब किया। अब शूद्र के सवाल नहीं उठते। जो सवाल उठते हैं वे सामाजिक वास्तविकता के साथ मेल नहीं खाते। यानी सामाजिक यथार्थ और साहित्य में लंबी दरार पैदा हो गयी। साहित्य और यथार्थ का यह अलगाव हमारे सामाजिक अलगाव की अभिव्यक्ति है। 
    दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि मध्यकाल में ज्यादातर दलित कवि या लेखक आस्थावान हैं। भगवान के भक्त हैं। नास्तिक नहीं हैं। ईश्वर के बारे में उनके विचारों का वही महत्व था जैसा गैर दलित लेखकों का था। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि आधुनिककाल के पहले दलित और गैर दलित में बहुत ज्यादा भेद नहीं था। पहचान के सवाल नहीं थे। इसके कारण अस्मिता की जंग भी नहीं थी। अस्मिता की राजनीति जब से दाखिल हुई तब से दलित और गैर दलित का भेद भी दाखिल हुआ। अस्मिता के सवालों को आधुनिकता के प्रकल्प के तौर पर जानबूझकर उछाला गया और मनुष्य की अस्मिता को हाशिए पर डालने की कोशिश की गई। आधुनिकता का प्रकल्प मूलत: साम्राज्यवाद की मंशाओं को व्यक्त करता है। इसमें साम्राज्यवादी विचारधारात्मक रूपों के खिलाफ जंग लड़ने की समझ और इच्छाशक्ति का अभाव है। 
       आधुनिकता के प्रकल्प के पहले बहिष्कार की अवधारणा जातिभेद के रूप में मौजूद थी जिसे आधुनिकता ने विरासत में प्राप्त किया था। आधुनिकता बगैर बहिष्कार के अपना विकास नहीं करती। पहले समाज में सबकुछ हमारा था। व्यक्ति भी हमारे थे,जाति भी हम सब की थी, जातियों के लोग भी हम सब के साझा हिस्से में आते थे। संस्कार भी साझा थे, पानी भी साझा था, मंदिर भी साझा था, सार्वजनिक स्थान भी साझा थे। किंतु आधुनिकता के प्रकल्प ने इस साझासंस्कृति के तानेबाने को तोड़ दिया। अब साफ तौर पर वर्गीकरण किया जाने लगा कि कौन सी चीज सार्वजनिक है और कौन सी चीज निजी है। कौन अपने हैं और कौन पराए हैं। कौन स्पृश्य और कौन अस्पृश्य है। पहले चीजें कम थी विभाजन भी कम थे। श्रम विभाजन भी कम था। सत्ताा और जनता के बीच में उतना व्यापक अलगाव नहीं था जैसा अंग्रेजों के आने के बाद शुरू हुआ। 
 आधुनिकता के प्रकल्प से हम जितना मुक्त होते जाएंगे उतना ही समरस होते जाएंगे। हमने आधुनिक बनने की बजाय आधुनिकता को अपनाया। आधुनिक लक्ष्य की बजाय आधुनिकता के लक्ष्यों को सामने रखा। आधुनिक बनते तो विरासत के सारवान तत्वों को आत्मसात करते। किंतु ऐसा करने की बजाय आधुनिकता के प्रकल्प के दायरे में हम अपने को ले गए और आधुनिकता के बाड़े में अपने को कैद कर लिया। 
     आधुनिकता का कैदखाना सबसे खतरनाक और घिनौना कैदखाना है। इसमें सामंजस्य,सहिष्णुता और मानवता का एकसिरे से अभाव है। यह अलगाव और बहिष्कार पर टिका है। आधुनिकता के पैमाने से जब भी दलित समस्या को देखा जाएगा अथवा दलित को देखा जाएगा दलित बहिष्कृत ही रहेगा। समस्या यह है दलित को बहिष्कार के दायरे से निकालकर बाहर कैसे लाया जाए ? दलित को बहिष्कार के दायरे के बाहर लाने के लिए जरूरी है कि समूचे विमर्श और सामाजिक-राजनीतिक संग्राम को आधुनिकता के प्रकल्प के बाहर ले जाएं और मानवाधिकार के प्रकल्प के आधार पर परिभाषित करें। 
    आधुनिकता के प्रकल्प का हिस्सा होने के कारण साम्यवादी आंदोलन और माक्र्सवादी विचारधारा में बहिष्कार का तत्व आ घुसा है। बहिष्कार के बिना जिस तरह आधुनिकता संभव नहीं है उसी तरह बहिष्कार के बिना माक्र्सवाद का विकास भी संभव नहीं है। बहिष्कार के आधार पर माक्र्सवाद का विकास माक्र्सवाद को अंतत: नष्ट करता है। यह तथ्य सोवियतसंघ और पूर्वी यूरोपीय देशों के अनुभवों से साबित होता है। माक्र्सवाद के विकास के नाम सर्वहारा के अधिनायकत्व को सर्वोपरि दर्जा दिया गया और इसका दुष्परिणाम गैर सर्वहारा अधिनायकत्व में विश्वास करने वालों के कत्लेआम में सामने आया। उन सभी वर्गों ,व्यक्तियों और विचारधाराओं को नेस्तनाबूद कर दिया गया जो गैर सर्वहारा की विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती थीं, उनका प्रचार करती थीं। समाजवाद ने आधुनिकता के प्रकल्प के अंग के तौर पर अन्य विचारधारा और वर्गों की भूमिका के अस्तित्व को तब ही स्वीकृति दी जब पैरोस्त्रोइका के आगमन के बाद समाजवाद का पराभव हो गया। सोवियतसंघ में समाजवादी व्यवस्था के पराभव के बाद ही यह संभव हो पाया कि अन्य विचारधारा और गैर सर्वहारावर्गों की भूमिका को समाजवादी देशों में स्वीकृति मिली। 
   आंबेडकर का बहिष्कार का बहिष्कार का सिध्दान्त आधुनिकता के प्रकल्प की बजाय मानवधिकार के प्रकल्प आधारित है। यह इस अर्थ में रैनेसां और समाजवाद दोनों से अपने को अलगाता है। यह अचानक नहीं है कि आंबेडकर को माक्र्सवाद पसंद था किंतु कालान्तर में उन्हें अन्य मार्ग अपनाना पड़ा। माक्र्सवाद और आधुनिकता के प्रकल्प इन दोनों को आंबेडकर ने मानवाधिकार के प्रकल्प के आधार पर अस्वीकार किया। मानवाधिकार के प्रकल्प को आधार बनाने के कारण आंबेडकर के आंदोलन में अनेक सवर्ण जाति के विद्वानों और अभिजनवर्ग का खुला सहयोग था। 
   आज जिस तरह मायावती ने वोटबैंक राजनीति के तहत बहुजनसमाज पार्टी को सर्वजन समाज की पार्टी बनाने की कोशिश की है वह पैंतरेबाजी कुछ देर के लिए एक तरफ कर भी दें तो यह पध्दति मूलत: आंबेडकर की पध्दति है। यह पध्दति महाराष्ट्र के दलित आंदोलन की कार्यनीति का हिस्सा रही है। महाराष्ट्र के दलित आंदोलन ने कभी गैर दलितों को अपने आंदोलन से अलग नहीं रखा बल्कि बार-बार उन्हें शामिल करने की कोशिश की। 
    सवाल उठता है अछूत समस्या क्या व्यक्तिगत समस्या है ? क्या मनोवैज्ञानिक समस्या है ? क्या जातिप्रथा की समस्या है ? सतह पर ये सारे लक्षण दलित समस्या में नजर आते हैं। दलित समस्या व्यक्तिगत,मनोवैज्ञानिक और जाति समस्या मात्र नहीं है। बल्कि सार्वजनिक समस्या है। सबकी समस्या है। सारे देश की समस्या है। यह सिर्फ दलितों ,शूद्रों अथवा अछूतों की समस्या नहीं है। बल्कि सामाजिक समस्या है। हम सार्वजनिक और निजी को किस तरह परिभाषित करते हैं और उसे किस नजरिए से देखते हैं, उसकी समस्या है। यह मूलत: आर्थिक और सामाजिक समस्या है। आर्थिक विकास के परिप्रेक्ष्य के आधार पर ही सार्वजनिक और निजी को परिभाषित किया जाता है। व्यक्ति का सार्वजनिक जीवन में क्या स्थान है, वह क्या भूमिका अदा करेगा और उसे बदले में समाज से क्या मिलेगा इत्यादि सवालों के समाधान तय होते हैं। 

आंबेडकर ने जिस समय अछूत समस्या को उठाया था उस समय सारा देश स्वाधीनता संग्राम के वातावरण में डूबा हुआ था। आंबेडकर को अछूत समस्या स्वाधीनता की समस्या से भी ज्यादा गंभीर समस्या नजर आयी। रैनेसां के समाजसुधार से भी ज्यादा प्रासंगिक समस्या नजर आयी। इस समस्या का पैराडाइम अलग था। स्वाधीनता का आधार आधुनिकता का प्रकल्प था जबकि अछूत समस्या का आधार मानवाधिकार प्रकल्प था। दोनों में सेतु बनाना संभव नहीं था।

     यह एक कठोर वास्तविकता है कि आधुनिकता का प्रकल्प अंग्रेजों से लेकर स्वाधीनतासेनानियों और क्रांतिकारियों आदि को अपने व्यापक कैवास में शमिल करता है जबकि अछूतों के लिए इसमें जगह नहीं थी। यही वजह है आंबेडकर ने स्वाधीनता के पैराडाइम से अपने को अलग रखा। आंबेडकर नहीं चाहते थे कि स्वाधीनता का आधुनिकता प्रकल्प अछूतों को हजम कर जाए। अछूत अपनी स्वतंत्र सत्ताा बनाएं इसके लिए जरूरी है कि उन्हें वर्चस्वशाली तबकों के द्वारा हजम करने से बचाया जाए। 
     उल्लेखनीय है मध्यकाल में दलित और गैर दलित के बीच में जो सामंजस्य नजर आता है उसका प्रधान कारण यही है कि दलितों को वर्चस्वशाली वर्गों ने विचारधारात्मक तौर पर ही नहीं बल्कि सामाजिक तौर पर हजम कर लिया था। मध्यकाल में सामंजस्य के नाम पर हजम कर जाने की प्रवृत्तिा रही है जिसे आंबेडकर ने पहचाना था अत: वे उन सभी प्रयासों और उपायों को अस्वीकार करते थे जहां दलित के हजम हो जाने का खतरा था। गांधी के 'हरिजन' में दलित मुक्ति का कम उसको हजम कर जाने का भाव ज्यादा है। यही वजह है कांग्रेस कभी भी दलितों की चैम्पियन नहीं बन पायी। गांधी के समय और गांधी के बाद भी हरिजनों में वह स्वीकृति नहीं मिली जो आंबेडकर अथवा ज्योतिबाफुले को मिली। दलितों के लिए गांधी नहीं आंबेडकर बड़े थे। मसीहा थे। आंबेडकर और गांधी को लेकर साधारण दलित में जो यह दृष्टि भेद है उसका आधार है दलित की स्वतंत्र अस्तित्व को बचाए रखने की जंग। 
    आंबेडकर ने दलितों की मुक्ति के सवाल को जिस तरह उठाया और जिस परिप्रेक्ष्य में उठाया उसे नए सिरे से पढ़ा जाना चाहिए। सवर्ण हिन्दू विचारक जातिव्यवस्था के नाम पर जाति की एकीकृत और सामंजस्यवादी इमेज पेश करते थे और यही दावा करते थे कि असवर्ण उन्हें वैसे ही प्यारे हैं जैसे सवर्ण। किंतु व्यवहार में वे हिन्दू जातिव्यवस्था के नाम पर उनके स्वतंत्र अस्तित्व और उसकी समस्याओं की उपेक्षा करते थे। उन्हें कभी उठाते नहीं थे। 
     मध्यकालीन जातिव्यवस्था के संरचनात्मक ढ़ांचे के विवरण और विश्लेषण में आप जितना ज्यादा प्रवेश करते हैं शूद्रों को कम से कम देखते हैं। शूद्रों की समस्याओं का जिक्र ही नहीं पाते। शूद्रों के जीवन में किस तरह की दिक्कतें थीं, वे उनका किस तरह उनका समाधान करते थे इसके बारे में कम से चर्चा मिलती है। चर्चा यदि मिलती है तो सवर्णों की शूद्रों के साथ मित्रता और सामंजस्य की। बहुत कम आख्यान हैं जो शूद्रों की समस्याओं पर रोशनी डालते हैं। यही वह बिदु है जिस पर हमें गंभीरता के साथ विचार करना चाहिए। शूद्रों के बारे में विवरण और ब्यौरों की अनुपस्थिति ही है जिसकी खोज का काम आंबेडकर ने किया। 
    आंबेडकर का योगदान यह है कि उन्होंने शूद्र को भारतीय परंपरा में खोजा, शूद्र की भारतीय परंपरा को रेखांकित किया। शूद्रों का इतिहास सामने रखा।भारतीय परंपरा में शूद्र के वास्तव जीवन की सही परिप्रेक्ष्य में पड़ताल की। आधुनिक काल यदि किसी चीज के लिए जाना जाता है तो वह है भारत की खोज के लिए। किंतु हम भूल ही गए कि आंबेडकर ने भारत की खोज की बजाय शूद्र की खोज,अछूत की खोज की। अछूत की खोज के बाद ही हमारे समाने यह समस्या भी आयी आखिरकार ये अछूत अब तक कहां थे ? कैसे रहते थे ? कैसे जीते थे ? इनकी जीवनशैली क्या थी ?क्या खाते थे ?क्या पहनते थे ?आखिरकार आधुनिक युग में अछूत कैसे जीएंगे ? 
    गैर अछूत कैसे जीएंगे इसके बारे में कोई विवाद ही नहीं था क्योंकि हम सब जानते थे कि वे कैसे हैं और उन्हें क्या चाहिए ? किंतु अछूत को हम नहीं जानते थे। हम कबीर को जानते थे,रैदास को जानते थे। ये हमारे लिए कवि थे। साहित्यकार थे। संत थे। किंतु ये अछूत थे और इसके कारण इनका संसार भिन्न किस्म का था यह सब हम नहीं जानते थे। अछूत की खोज आधुनिकयुग की महानतम सामाजिक उपलब्धि है।
    अछूत के उद्धाटन के बाद पहलीबार देश के विचारकों को पता चला वे भारत को कितना कम जानते हैं। भारत एक खोज को अछूत की खोज ने ढंक दिया। आज भारत एक खोज सिर्फ किताब है, सीरियल है,एक प्रधानमंत्री के द्वारा लिखी मूल्यवान किताब है। इस किताब में भी अछूत गायब है। उसका इतिहास और अस्तित्व गायब है। आंबेडकर ने भारत को सभ्यता की मीनारों पर चढ़कर नहीं देखा बल्कि शूद्र के आधार पर देखा। शूद्र के नजरिए से भारत के इतिहास को देखा, शूद्र की संस्कृतिहीन अवस्था के आधार पर खड़े होकर देखा। इसी अर्थ में आंबेडकर की अछूत की खोज आधुनिक भारत की सबसे मूल्यवान खोज है। 
      भारत एक खोज सभ्यता विमर्श को सामने लाती है,अछूत खोज परंपरा और इतिहास की असभ्य और बर्बरता की परतों को खोलती है। आंबेडकर इस अर्थ में सचमुच में बाबासाहेब हैं कि उन्होंने भारत के आधुनिक एजेण्डे के रूप में अछूत को प्रतिष्ठित किया। आधुनिक युग की सबसे जटिल समस्या के रूप में अछूत समस्या को पेश किया। 
    आधुनिकाल में किसी के लिए स्वाधीनता,किसी के लिए समाजसुधार, किसी के लिए औद्योगिक विकास , किसी के लिए क्रांति और साम्यवादी समाज से जुड़ी समस्याएं प्रधान समस्या थीं किंतु आंबेडकर ने इन सबसे अलग अछूत समस्या को प्रधान समस्या बनाया। अछूत समस्या पर बातें करने ,पोजीशन लेने का अर्थ था अपने बंद विचारधारात्मक कैदघरों से बाहर आना। जो कुछ सोचा और समझा था उसे त्यागना। अछूत और उसकी समस्याओं पर संघर्ष  का अर्थ है पहले के तयशुदा विचारधारात्मक आधार को त्यागना और अपने को नए रूप में तैयार करना। अछूत समस्या से संघर्ष किसी क्रांति के लिए किए गए संघर्ष से भी ज्यादा दुष्कर है। आधुनिककाल में क्रांति संभव है,आधुनिकता संभव है,औद्योगिक क्रांति संभव है किंतु आधुनिक काल में अछूत समस्या का समाधान तब ही संभव है जब मानवाधिकार के प्रकल्प को आधार बनाया जाए। 
        क्रांति,आधुनिकता,औद्योगिक क्रांति इन सबका आधार मानवाधिकार नहीं हैं। बल्कि किसी न किसी रूप में इनमें मानवाधिकारों का हनन होता है। अछूत समस्या मानवीय समस्या है इसके खिलाफ संघर्ष करने का अर्थ है स्वयं के खिलाफ संघर्ष करना और इससे हमारा बौध्दिकवर्ग, राजनीतिज्ञ और मध्यवर्ग भागता रहा है। ये वर्ग किसी भी चीज के लिए संघर्ष कर सकते हैं किंतु अछूत समस्या के लिए संघर्ष नहीं कर सकते। अछूत समस्या अभी भी मध्यवर्ग और पूंजीपतिवर्ग के चिन्तन को स्पर्श नहीं करती। अछूत सम्सया को वे महज घटना के रूप में दर्शकीय भाव से देखते हैं। अछूत समस्या न तो घटना है और न परिघटना और न संवृत्तिा ही है। बल्कि मानवीय समस्या है मानवाधिकार की समस्या है। मानवाधिकारों के विकास की समस्या है। हमारे समाज में मानवाधिकारों के विकास को लेकर जितनी जागृति पैदा होगी अछूत समस्या उतनी ही कम होती जाएगी। जिस समाज में मानवाधिकारों का अभाव होगा वहां पर अछूत समस्या,बहिष्कार की समस्या उतनी प्रबल रूप में नजर आएगी।  
   अछूत समस्या के पेचोखम- भारतीय समाज में शूद्र सिर्फ अछूत नहीं है। बल्कि गुमशुदा भी है। हम उसे कम से कम जानते हैं। हम उसे देखकर भी अनदेखा करते हैं। उसका कम से कम वर्णन करते हैं। अछूतों के जीवन के व्यापक ब्यौरे तब ही आए जब हमें आधुनिककाल में ज्योतिबा फुले और आंबेडकर जैसे प्रतिभाशाली विचारक मिले। यह सोचने वाली चीज है कि आंबेडकर ने जाति व्यवस्था के मर्म का उद्धाटन करते हुए जितने विस्तार के साथ अछूतों की पीड़ा को सामने रखा और उससे मुक्त होने के लिए सामाजिक-राजनीतिक प्रयास आरंभ किए वैसे प्रयास पहले कभी नहीं हुए।
   आधुनिककाल के पहले शूद्र हैं किंतु अनुपस्थित और अदृश्य हैं। जातिव्यवस्था है किंतु जातिव्यवस्था के अनुभव गायब हैं।  जाति कभी मनोवैज्ञानिक चीज नहीं थी। बल्कि जाति का ठोस आर्थिक आधार था। जाति के ठोस आर्थिक आधार को बदले बगैर जाति की संरचनाओं को बदलना संभव नहीं था। संत और भक्त कवियों के यहां जाति एक मनोदशा के रूप में दाखिल होती है। मनोदशा के धरातल पर ही ईश्वर सबका था और सब ईश्वर के थे। भक्ति में भेदभाव नहीं था। भक्ति का सर्वोच्च रूप वह था जो मनसा भक्ति से जुड़ा था। वास्तविकता इसके एकदम विपरीत थी। ईश्वर और धर्म की सत्ताा के वर्चस्व के कारण भेद और वैषम्य के सभी समाधान मनोदशा के धरातल पर ही तलाशे गए। मन में ही सामाजिक समस्याओं के समाधान तलाशे गए। सामाजिक यथार्थ से भक्त कवियों का लगाव एकदम नहीं था। यही वजह है कि वे जातिभेद के सामाजिक रूपों को देखने में असमर्थ रहे। इस कमजोरी के बावजूद भक्तकवियों ने जातिभेद के खिलाफ मनोदशा के स्तर पर संघर्ष करके कम से कम सामंजस्य का वातावरण तो बनाया। यह दीगर बात है कि सामंजस्य के पीछे वर्चस्वशाली वर्गों की हजम कर जाने की मंशा काम कर रही थी। उल्लेखनीय है सामंजस्य की बात तब उठती है जब अन्तर्विरोध हों, टकराव हो,तनाव हो। वरना सामंजस्य पर इतना जोर क्यों ? 

आधुनिकाल आने के बाद पहलीबार ईश्वर की विदाई होती है। धर्म के वैचारिक आवरण के बाहर पहलीबार मनुष्य झांकता है। उसे सारी दुनिया और अपनी परंपराएं, सामाजिक यथार्थ वास्तव रूप में दिखाई देता है और उसकी वास्तव रूप में ही अभिव्यक्ति भी करता है। आधुनिककाल में दुख पहले गद्य में अभिव्यक्त होता है। मध्यकाल में दुख पद्य में अभिव्यक्त होता है। दुख और अन्तर्विरोध की अभिव्यक्ति गद्य में हुई या पद्य में इससे भी दुख के संप्रेषण की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। मध्यकाल में मनुष्य अपने दुख और पिछडेपन के लिए भाग्य को दोष देता था,पुनर्जन्म के कर्मों को दोष देता था,ईश्वर की कृपा को दोषी ठहराता था। किंतु आधुनिक युग में मनुष्य को पहलीबार अपने दुख और कष्ट के कारण के तौर पर शिक्षा का अभाव सबसे बड़ी चीज नजर आती है। यही वजह है कि शूद्रों में सामाजिक समानता,उन्नति के मंत्र के तौर पर शिक्षा को प्राथमिक महत्व पहलीबार ज्योतिबा फुले ने दिया। सन् 1948 में पुणे में फुले ने एक पाठशाला खोली, यह शूद्रों की पहली पाठशाला थी। भारत के ढाई हजार साल के इतिहास में शूद्रों की यह पहली पाठशाला थी। असल में पाठशाला तो प्रतीकमात्र है उस आने वाले तूफान का जो ज्योतिबा फुले महसूस कर रहे थे।

   सन् 1848 में शूद्रों की शिक्षा का आरंभ करके कितना बड़ा क्रांतिकारी कार्य किया था यह बात आज कोई नहीं समझ सकता। उस समय शूद्रों को पढ़ाने के लिए शिक्षक नहीं मिलते थे अत: ज्योतिबा फुले ने अपनी अशिक्षित पत्नी को सुशिक्षित कर अध्यापिका बना दिया। इस उदाहरण में अनेक अर्थ छिपे हैं। पहला अर्थ यह कि शूद्रों के साथ अतीत में सबकुछ अच्छा नहीं होता रहा है। भारत का अतीत जाति सामंजस्य की बजाय जातीय घृणा के आधार पर टिका हुआ था। जातीय घृणा के कारण शूद्रों के लिए स्वतंत्र शिक्षा की व्यवस्था करनी पड़ी। दूसरा अर्थ यह संप्रेषित होता है कि शूद्र सामाजिक तौर पर अति पिछडे थे। तीसरा अर्थ यह कि भारत में शूद्रों के पठन-पाठन की परंपरा ही नहीं थी। सामंजस्य और भक्ति के नाम पर सामाजिकभेदों से जुड़ी सभी चीजों को छिपाया हुआ था। यही वजह है कि शूद्रों के लिए शिक्षा की व्यवस्था की शुरूआत की गई तो चारों ओर जबर्दस्त हंगामा हुआ।
   आधुनिककाल में पहलीबार शूद्रों को यह बात समझाने में ज्योतिबा फुले को सफलता मिली कि मनुष्य के अस्तित्व की पहचान शिक्षा से होती है। शिक्षा के अभाव में मनुष्य पशु समान होता है। शूद्रों के लिए शिक्षा का अर्थ वही नहीं था जो सवर्णों के लिए था। शूद्रों के लिए शिक्षा अस्तित्वरक्षा, स्वाभिमान, आत्मनिर्भरता और आत्मोध्दार के साथ अस्मिता की स्थापना का उपकरण भी थी। यही वजह है कि शिक्षा का शूद्रों में जितना प्रसार हुआ है अस्मिता की राजनीति का भी उतना ही प्रसार हुआ है। 
    ज्योतिबाफुले -आंबेडकर के द्वारा शुरू की गई अस्मिता की राजनीति विदेश से लायी गई चीज नहीं है। साम्राज्यवादी साजिश का अंग नहीं है। बल्कि यह तो भारत के संतुलित विकास के परिप्रेक्ष्य के गर्भ से उपजी राजनीति है। इसका आयातित अस्मिता की मौजूदा राजनीति के साथ तुलना करना सही नहीं होगा। शूद्रों की शिक्षा का लक्ष्य था, सामाजिक भेदभाव को खत्म करना, मानवाधिकारों के प्रति सचेतनता पैदा करना और समानता को व्यापक मूल्य के रूप में स्थापित करना। 
       अछूत समस्या हमारे देश में कई हजार सालों से है। किंतु इसके खिलाफ कभी सामाजिक आंदोलन नहीं हुए। आखिरकार क्या कारण है कि भारत में विगत ढाई हजार सालों में कभी क्रांति नहीं हुई ?  क्या अछूत समस्या को खत्म किए बगैर क्रांति संभव है ? क्या वजह है कि आधुनिककाल में ही अछूत समस्या के खिलाफ सामाजिक आंदोलन संभव हो पाया ? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या भारत में जातिभेद खत्म हो सकता है ? इन सभी सवालों का एक-दूसरे के साथ गहरा संबंध है। 
        भारत में जातिव्यवस्था के खिलाफ क्रांति अथवा सामाजिक क्रांति  न हो पाने के तीन प्रधान कारण हैं , पहला ,अंधविश्वासों में आस्था,दूसरा ,पुनर्जन्म की धारणा में विश्वास और तीसरा ,कर्मफल के सिध्दान्त के प्रति विश्वास। इन तीन विचारधारात्मक बाधाओं के कारण भारत में सामाजिक क्रांति नहीं हो पायी। अंधविश्वासों में आस्था के कारण हमने कभी जातिभेद क्यों है ? गरीब गरीब क्यों है और अमीर अमीर क्यों है ? क्या पीपल के पेड़ को पूजने से मनोकामना पूरी होती है ? क्या साहित्य में जो रूढ़ियां चलन में हैं वे वास्तव में भी हैं ? इत्यादि चीजों को यथार्थ में कभी परखा नहीं। हम यही मानकर चलते रहे हैं कि मनुष्य गरीब इसलिए है क्योंकि पहले जन्म में कभी बुरे कर्म किए थे। उसका ही फल है कि इस जन्म में गरीब है। अमीर इसलिए अमीर है क्योंकि वह पहले जन्म में पुण्य करके आया है। 
    अच्छे कर्म करोगे अच्छे घर में जन्म लोगे। बुरे कर्म करोगे नीच कुल में जन्म होगा। निचली जाति में उन्हीं लोगों का जन्म होता है जिन्होंने पहले बुरे कर्म किए थे। निचली जातियों को नरक के प्रतीक के रूप में चित्रित किया गया और एक नए किस्म के प्रचार अभियान की शुरूआत हुई। इससे जातिभेद को वैधता मिली। कर्मफल के सिध्दान्त की सबसे बड़ी किताब है श्रीमद्भगवतगीता इसके आधार पर कर्मफल के सिध्दान्त को खूब प्रचारित किया गया। कर्म किए जा फल की चिन्ता मत कर। उल्लेखनीय है गीता को आदर्श दार्शनिक किताब के रूप में तिलक से लेकर गांधी तक सभी ने प्रधानदर्जा दिया था। गीता आज भी मध्यवर्ग की आदर्श किताब है।  
  उल्लेखनीय है कि बाबासाहेब आंबेडकर ने जातिप्रथा को इन तीनों विचारधारात्मक बाधाओं के दायरे बाहर निकालकर पेश किया। संभवत: बाबासाहेब अकेले बड़े स्वाधीनतासेनानी थे जिनकी कर्मफल के सिध्दान्त,पुनर्जन्म और अंधविश्वासों में आस्था नहीं थी। यदि इन तीनों चीजों में आस्था रही होती तो अछूत समस्या को राष्ट्रीय समस्या बनाना संभव ही न होता। कहने का तात्पर्य यह है अछूत समस्या से मुक्ति के लिए, जातिप्रथा से मुक्ति के लिए चार प्रमुख कार्य किए जाने चाहिए।
   पहला- अंधविश्वासों के खिलाफ जंग।
   दूसरा- पुनर्जन्म की धारणा के खिलाफ जनजागरण।
   तीसरा- कर्मफल के सिध्दान्त के खिलाफ सचेतनता।
   चौथा- अछूत जातियों के साथ रोटी-बेटी के संबंध और पक्की दोस्ती।

ये चारों कार्यभार एक-दूसरे से अविच्छिन्न रूप से जुड़े हैं। इनमें से किसी एक को भी त्यागना संभव नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है शिक्षा ,नौकरी अथवा आरक्षण मात्र से अछूत समस्या का समाधान संभव नहीं है। अछूत समस्या को खत्म करने के लिए आमलोगों में खासकर दलितों में विज्ञानसम्मत चेतना का प्रसार करना बेहद जरूरी है। विज्ञानसम्मतचेतना के अभाव में दलित हमेशा दलित रहेगा। उसकी दलितचेतना से मुक्ति नहीं होगी। जातिभेद कभी खत्म नहीं होगा। हमें इस तथ्य पर ध्यान देना चाहिए कि हमारी शिक्षा हमें कितना विज्ञानसम्मत विवेक देती है ? सच यही है कि हमारी शिक्षा में कूपमंडूकता कूटकूटकर भरी पड़ी है। पैंतीस साल के शासन के वाबजूद पश्चिम बंगाल की शिक्षा व्यवस्था में से कूपमंडूकता को पूरी तरह विदा नहीं कर पाए हैं।

     दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जातिप्रथा एक तरह का पुराने किस्म का सामाजिक अलगाव है। जातिप्रथा को आज नष्ट करने के लिए सामाजिक अलगाव को नष्ट करना बेहद जरूरी है। सामाजिक अलगाव आज के दौर में व्यापक शक्ल में सामने आया है। हम एक-दूसरे के दुख-सुख में साझीदार नहीं बनते। कभी एक-दूसरे के बारे में खबर-सुध नहीं लेते। यही सामाजिक अलगाव पहले जातियों में भी था। खासकर निचली कही जाने वाली जातियों के प्रति सामाजिक अलगाव यकायक पैदा नहीं हुआ। बल्कि इसे पैदा होने में सैंकड़ों साल लगे। सामाजिक अलगाव को अब हमने वैधता प्रदान कर दी है। सामाजिक अलगाव को हम स्वाभाविक मानने लगे हैं। नए युग की विशेषता मानने लगे हैं। नए आधुनिक जीवन संबंधों की अनिवार्य परिणति मानने लगे हैं। सामाजिक अलगाव की अवस्था में जातिभेद और जातिघृणा बढ़ेगी। क्योंकि सामाजिक अलगाव से जातिघृणा को ऊर्जा मिलती है। यह अचानक नहीं है कि सन् 1970 के बाद के वर्षों में पूंजीवादी विकास जितना तेज गति से हुआ है। सामाजिक अलगाव में भी इजाफा हुआ है। जाति संगठनों में भी इजाफा हुआ है। जातिघृणा और जाति संघर्ष बढ़े हैं। जातिघृणा,जातिसंघर्ष और जातिगत तनाव तब ही पैदा होते हैं जब हम अलगाव की अवस्था में होते हैं। 
  सामाजिक अलगाव पूंजीवादी विकास की स्वाभाविक परिणति है ,इसका सचेत रूप से प्रतिवाद किया जाना चाहिए। अचेत रूप से सामाजिक अलगाव को स्वीकार लेने का अर्थ है आपसी अलगाव में इजाफा। अलगाव खत्म होगा तो संगठन की महत्ताा भी समझ में आती है। सामाजिक शिरकत,सामाजिक साझेदारी, व्यक्तिगत और सामाजिक भावनात्मक विनिमय और आर्थिक सहयोग ये चीजें जितनी बढ़ेंगी उतनी ही भेद की दीवार गिरेगी। 

हमें सोचना चाहिए आरक्षण किया,संविधान में संरक्षण दिया, तमाम किस्म के कानून बनाए,सभी दल इन कानूनों के प्रति वचनबध्द हैं,इसके बावजूद जाति उत्पीड़न थमने का नाम नहीं लेरहा। एससी,एसटी का अलगाव कम नहीं हो रहा। उनकी असुरक्षा की भावना कम नहीं हो रही। इस प्रसंग में पश्चिम बंगाल के उदाहरण से समझाना चाहूँगा।यहां पर जातियाँ हैं। जातिभेद भी है। किंतु निचले स्तर पर कम्युनिस्ट पार्टियों के संगठनों का तंत्र इस कदर फैला हुआ है कि आप उसकी परिधि के बाहर जा नहीं सकते। यह तंत्र सामाजिक संपर्क,सामाजिक संबंध और आपसी भाईचारा बनाए रखने और विनिमय का काम करता है। इसका सुफल यह निकला है कि आमलोगों में अभी शिरकत और सहयोग का भाव बचा हुआ है। वे एक-दूसरे के सुख-दुख में सहयोग करते हैं। यही वजह है पश्चिम बंगाल में जातिगत तनाव और जाति संघर्ष नहीं हैं।

      जबकि सच यह है आरक्षण यहां कम लागू हुआ है। राजनीति में दलितों का नहीं सवर्णों का बोलवाला है। इसके बावजूद जातिसंघर्ष नहीं हैं। यथासंभव निचली जातियों को जमीन का हिस्सा भी मिला है। संगठन के कारण उनकी आवाज सुनी भी जाती है। इसके कारण उत्पीडन करने की हिम्मत नहीं होती। आंबेडकर ने स्वयं संगठन को महत्ताा दी थी, संगठन के तौर पर आदर्श सांगठनिक संरचना कम्युनिस्टों के पास है। मुश्किल यहां से शुरू होती है। कम्युनिस्ट कतारें अभी भी उपरोक्त तीन विचारधारात्मक बाधाओं को नष्ट नहीं कर पायी हैं। अभी भी कम्युनिस्ट कतारों में अंधविश्वासों में आस्था रखने वाले, पुनर्जन्म में विश्वास करने वाले,कर्मफल के सिध्दान्त में विश्वास करने वाले बचे हुए हैं। किंतु इनकी संख्या में तुलनात्मक तौर पर गिरावट आयी है। 
  किंतु एक चीज जरूर हुई है कि जातिभेद का जितना प्रत्यक्ष तांडव देश के अन्य इलाकों में नजर आता है वैसा यहां नजर नहीं आता। इसका प्रधान कारण है सामाजिक रूप से कम्युनिस्ट संगठनों का सामाजिक संरचनाओं में घुलामिला रहना। आंबेडकर के इस विचार को कि जातिप्रथा को नष्ट करने के लिए जरूरी है कि शूद्रों और गैर शूद्रों में रोटी-बेटी के संबंध हों। यही चीज कमोबेश पश्चिम बंगाल में लागू करने में वामपंथियों को सफलता मिली है। इस अर्थ में वे इस राज्य में सामाजिक क्रांति में एककदम आगे जा पाए हैं। दूसरी बात यह है कि दलितों पर उत्पीडन की घटनाएं इस राज्य में कम से कम होती हैं। यदि कभी दलित उत्पीड़न की कोई घटना प्रकाश में आती है तो प्रशासन से लेकर राजनीतिक स्तर तक ,यहां तक कि मध्यवर्गीय कतारों में भी उसके खिलाफ तीव्र प्रतिक्रिया होती है। यह इस बात का संकेत है कि सामाजिक संवेदनशीलता अभी बची हुई है। अन्य राज्यों में स्थिति बेहद खराब है। 
       जिस राज्य में दलित मुख्यमंत्री हो,दलित पार्टी का शासन हो,वहां दलित उत्पीडन की घटनाएं रोजमर्रा की बात हो गयी हैं। इन घटनाओं के प्रति आम जनता में संवेदनशीलता कहीं पर भी नजर नहीं आती। क्योंकि उन राज्यों में सामाजिक अलगाव को कम करने का कोई भी प्रयास राजनीतिक दल नहीं करते। बल्कि राजनीतिक लाभ और क्षुद्र सांगठनिक लाभ हेतु सामाजिक अलगाव का इस्तेमाल करते हैं। 
    एक वाक्य में कहें तो उत्तारप्रदेश,बिहार आदि राज्यों में जातिदलों ने सामाजिक अलगाव को अपनी राजनीतिक पूंजी में तब्दील कर दिया है। वे सामाजिक अलगाव का निहितस्वार्थी लक्ष्यों को अर्जित करने के लिए दुरूपयोग कर रहे हैं। इससे जातिसंघर्ष बढ़े हैं। सामाजिक असुरक्षा बढ़ी है। सामाजिक अस्थिरता बढ़ी है। अछूत समस्या बढ़ी है। अछूत समस्या को खत्म करने के लिए सामाजिक अलगाव को खत्म करना बेहद जरूरी है। सामाजिक अलगाव का राजनीतिक दुरूपयोग बंद करना जरूरी है। 
     दलित का राजनीतिक दुरूपयोग सामाजिक टकराव और तनावों को बनाए रखता है और विगत साठ सालों में हमारे विभिन्न राजनीतिक दलों ने दलित समस्या के समाधान के नाम पर यही किया है। उनके लिए दलित मनुष्य नहीं है बल्कि वोट है। एक अमूर्त पहचान है। बेजान चीज है। सत्ताा का स्रोत है। यही दलित की आयरनी भी है। अब हम दलित को मनुष्य के तौर पर नहीं वोटबैंक के तौर पर जानते हैं। आरक्षण के नाम से जानते हैं। वोटबैंक और आरक्षण में दलित की पहचान का रूपान्तरण दलित को वर्चुअल बना देता है। दलित का वर्चुअल बनना मूलत: मध्यकाल में लौटना है। वर्चुअल बनने के बाद दलित और भी दुर्लभ हो गया है। हमें दलित को वर्चुअल होने से बचाना होगा। दलित के वर्चुअल बनने का अर्थ है वह है भी और नहीं भी। वर्चुअल दलित मायावती जैसे नेताओं की पूंजी है। ये दोनों एक-दूसरे के चौखटे में फिट बैठते हैं। मायावती के यहां दलित वर्चुअल है। ठोस हाड़मांस का इन्सान नहीं है। यही वजह है दलित की किसी भी समस्या को ठोस रूप में मायावती अपने चुनावी घोषणापत्र में व्यक्त नहीं करती। बल्कि यह कहना सही होगा कि मायावती स्वयं वर्चुअल है। उसने कोई भी ठोस चुनावी घोषणापत्र भी जारी नहीं किया। यही हाल दलितों के मसीहा लालू-मुलायम का है। ये दलितों के हैं और दलितों के नहीं भी हैं। दलित इनके यहां वर्चुअल है और दलित के लिए ये वर्चुअल हैं। कहने का तात्पर्य यह है दलित को वर्चुअल होने से बचाना होगा। दलित के वर्चुल होने का अर्थ दलित का लोप और यह एक तरह से मध्यकाल की वापसी होगी किंतु बेहद त्रासद और भयावह वापसी होगी।

दि‍मागी गुलामी के खेल

      उनकी आलोचना करो तो नाराज हो जाते हैं और प्रशंसा करो तो फूलकर कुप्पा हो जाते हैं। वे चाहते हैं सच को किंतु प्यार करते हैं झूठ को। रहते हैं हकीकत में जीते हैं कल्पना में। ऐसी अवस्था है हिन्दी के लेखक संगठनों की। जो जितना बेहतरीन लेखक सामाजिक तौर पर उतना ही निकम्मा। श्रेष्ठता और सामाजिक निकम्मेपन का विलक्षण संगम हैं हिन्दी के लेखक संगठन। जैसे पुराने जमाने में राजा के दरबार में लेखक थे अब लेखक संगठनों में वैसे ही लेखक सदस्य होते हैं। फर्क यह है पहले दरबार था अब लेखक संगठन है। पहले राजा का दरबार था अब विचारधारा का दरबार है। कहने का तात्पर्य यह है कि आधुनिक अर्थ में हिन्दी में अभी भी लेखक संगठन बन नहीं पाया है। लेखक संगठन के नाम पर हिन्दी में विचारधारा के दरबार हैं और जो इनके सदस्य वे दरबारी हैं। दरबारी अनुकरण और नकल के लिए अभिशप्त होता है। उसमें स्वयं जोखिम उठाने की क्षमता नहीं होती। वह अपने अधिकारों के प्रति अनभिज्ञ होता है। उदास होता है। उसके फैसले कोई और लेता है वह तो सिर्फ अनुकरण करता है। हिन्दी लेखक संगठनों में तीन बड़े संगठन हैं प्रगतिशील लेखक संघ,जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच। इन तीनों संगठनों के पास कुल मिलाकर पांच-छह हजार लेखक सदस्य हैं। इनके निरंतर जलसे,सेमीनार,सम्मेलन आदि होते रहते हैं। कभी-कभार राजनीतिक मसलों पर प्रतिवाद के आयोजन भी करते हैं। 
         हिन्दी के लेखक संगठनों के बारे में इंटरनेट और इलैक्ट्रोनिक मीडिया के परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकन किया जाना चाहिए। लेखक संगठन और स्वयं लेखक मूलत: मीडिया है अत: उसका मूल्यांकन इंटरनेट और इलैक्ट्रोनिक मीडिया के परिप्रेक्ष्य में करना समीचीन होगा। आमतौर पर लेखक संगठनों की गतिविधियों का राजनीतिक-सामाजिक संदर्भ में मूल्यांकन किया जाता है जो कि बुनियादी तौर पर गलत है। लेखक मीडियम है और मीडिया भी। लेखक संगठनों के ज्यादातर विमर्श प्रिंटयुग के विमर्श हैं। पुराने विमर्श हैं। ये वर्तमान को सम्बोधित नहीं करते।  हिन्दी के लेखक संगठनों पर चर्चा करने का अर्थ व्यक्तिगत राग-द्वेष को व्यक्त करना नहीं है बल्कि उन तमाम पहलुओं को समग्रता में पेश करना है जिनकी लेखक संगठनों के द्वारा अनदेखी हुई है। लेखक संगठनों ने क्या किया है इसे लेखक अच्छी तरह जानते हैं। इस आलेख का लक्ष्य लेखक संगठनों के प्रति घृणा पैदा करना नहीं है बल्कि यह लेखक संगठनों की सीमा के दायरे के परे जाकर लिखा गया है। 

विलोम के युग में-

        इंटरनेट युग में संगठन की बजाय व्यक्ति बड़ा हो गया है। व्यक्ति की सत्ताा,महत्ताा और निजता का दायरा बढ़ा है। व्यक्ति के अधिकारों,परिवेश और दायित्वों को नए सिरे से परिभाषित किया जा रहा है। इस प्रक्रिया में लेखक संगठन ,राजनीतिक दल और आधुनितायुगीन सांगठनिक संरचनाएं अप्रासंगिक हुई हैं। संगठन की अंतर्वस्तु अब वही नहीं रह गयी है जो कागज पर लिखी है अथवा भाषणों या दस्तावेजों में है। संगठनों ने अपना विलोम रचा है। हर चीज अपना विलोम रच रही है। विलोम की प्रक्रिया उन समाजों में ज्यादा तेज हैं जहां पर इंटरनेट संरचनाएं पैर पसार चुकी हैं। 
      इंटरनेट ने सांगठनिक संरचनाओं को नपुंसक बना दिया है,प्रभावहीन और भ्रष्ट बना दिया है। अब लेखक संगठन नहीं लेखक बड़ा है। लेखक संगठन की बनिस्पत लेखक के पास प्रचार-प्रसार के ज्यादा अवसर हैं। लेखन ज्यादा सरल और कम खर्चीला हो गया है। लेखक और समाज के बीच के सभी पुराने मध्यस्थ गायब हो चुके हैं। पुराने सेतुओं में आधुनिक और आखिरी सेतु था लेखक संगठन,इन दिनों वह भी प्रभावहीन और प्रतीकात्मक रह गया है। लेखक संगठन का प्रतीक में तब्दील हो जाना,लेखक संगठन के प्रस्तावों का प्रभावहीन हो जाना,लेखकों की एकजुटता का टूट जाना,लेखकों का जोखिम उठाने से कतराना, लेखक संगठन के सदस्यों में मानवीयता का अभाव आम बात हो गयी है। यह परवर्ती पूंजीवाद के सकारात्मक और अनिवार्य प्रभाव हैं। इंटरनेट युग मनुष्य की नहीं तकनीकी की महानता का युग है,लेखन इसकी धुरी है। 
    सवाल उठता है सूचना युग में लेखक संगठनों की क्या प्रासंगिकता है ? सूचना युग में क्या लेखक संगठन वही रह जाते हैं जो प्रिंटयुग में थे ? क्या साहित्य का स्वरूप सूचना युग में बदलता है ? क्या उपन्यास का सूचनायुग में वही अर्थ है जो प्रिंट युग में था ? क्या छपे हुए उपन्यास और हाइपरटेक्स्ट अथवा स्क्रीन उपन्यास में कोई फर्क है ? क्या 'मौत' या 'अंत' के पदबंधों का चालू अर्थ में विवेचन संभव है ? क्या साहित्यिक कृति की सूचना युग में अर्थ और भूमिकाएं बदली हैं ? इत्यादि सवालों पर समग्रता में विचार करने की जरूरत है।
    एक जमाना था साहित्यिक कृति का काम था सुनिश्चित संस्कृति और मूल्यों का प्रचार करना। आज कृति की इस भूमिका को 'चिप्स',डेटावेस,इलैक्ट्रोनिक अर्काइव और तद्जनित तकनीकी रूपों ने अपदस्थ कर दिया है। हाइपरटेक्स्ट आख्यान ने अपदस्थीकरण की इस समूची प्रक्रिया को जटिल और तेज कर दिया है। साहित्य का निरंतर डिजिटल अवस्था में रूपान्तरण हो रहा है। आज साहित्य पूरी तरह इतिहास से अपने को अलग कर चुका है। साहित्य के सारे विवाद इतिहास से अलग करके पेश किए जा रहे हैं।   
    सामयिक दौर की बड़ी घटनाएं त्रासद घटनाएं हैं। आज इतिहास और त्रासद घटनाएं हमारे विमर्श का संदर्भ नहीं हैं। फलत: यथार्थ का लोप हुआ है और हम नकल के युग में दाखिल हो गए हैं। नकली यथार्थ के चित्रण में मगन हैं। इतिहास और अतीत के प्रति लाक्षणिक प्रतिक्रियाएं व्यक्त हो रही हैं।  इतिहास के प्रति लाक्षणिक प्रतिक्रिया का आदर्श उदाहरण है हाल के वर्षों में चला रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद आन्दोलन। प्रतिक्रिया में व्यक्त की गई चीजों को स्मृति में रखना संभव नहीं होता। उसे हम जल्दी भूल जाते हैं। 
  प्रतिक्रियास्वरूप पैदा हुए भारत-विभाजन की विभीषिका को भूल चुके हैं। गुजरात के दंगे भूल चुके हैं। नंदीग्राम के जनसंहार को भूल चुके हैं। वह विस्मृति के गर्भ में चली जाती है। हम बहुत जल्दी ही भूल गए कि द्वितीय विश्वयुध्द में क्या हुआ था। द्वितीय विश्वयुध्द की विभीषिका को अब साउण्ड ट्रेक ,इमेज ट्रेक, सार्वभौम स्क्रीन और माइक्रोप्रोसेसर के जरिए ही जानते हैं। पहले हमने विभीषिका को देखा,सौंदर्यबोधीय बनाया,फिर हजम किया और बाद में  सब भूल गए। 
    जब भी किसी चीज को सौंदर्यबोधीय चरम पर पहुँचा दिया जाता है उसे हम भूल जाते हैं। अब हमें विभीषिका की कम उसके कलात्मक सौंदर्यबोध की ज्यादा याद आती है। अब द्वितीय विश्वयुध्द की तबाही की नहीं उसकी फिल्मी प्रस्तुतियों,टीवी प्रस्तुतियों के सौंदर्य में मजा आता है। सौंदर्यबोधीय रूपान्तरण त्रासदी को आनंद में तब्दील कर देता है। यह ऐसा आनंद है जो निष्क्रिय व्यक्ति का आनंद है। इस आनंद में न तो विरेचन है और न सक्रिय करने की क्षमता है। यह निज का विलोम है। फलत: जिस चीज से नफरत करनी चाहिए उससे प्यार करने लगते हैं। द्वितीय विश्वयुध्द की विभीषिका को प्रभावित देशों में कोई भी नागरिक महसूस नहीं करता। उनके लिए द्वितीय विश्वयुध्द गुजरे जमाने की चीज हो गई है। फिल्मी कलात्मक अभिव्यक्ति और आनंद का रूप है। कहने का तात्पर्य यह है कि इलैक्ट्रोनिक युग में लेखक जो कुछ भी रचता है रचने के बाद उसका स्वत: ही विलोम पैदा होता है। 
    इलैक्ट्रोनिक मीडिया के चहुँमुखी विकास ने विश्व चेतना से त्रासदी और उसके भयावह बोध को खत्म करने में केन्द्रीय भूमिका अदा की है।  यही हाल भारत-विभाजन का हुआ। भारत-विभाजन को पहले फिल्मी और बाद में धारावाहिक बनाया। यह एक तरह से यथार्थ के संप्रेषण और अर्थ का हाइपररीयल में रूपान्तरण है। हाइपररीयल यथार्थ का चरम है। यथार्थ से सुंदर यथार्थ है। 
  क्लीचे और रूढि -  
    नयी परिस्थितियों में साहित्य और लेखक संगठन के स्तर पर संचार के सभी चर्चाएं 'क्लीचे' की शक्ल में होती रही हैं। प्रगतिशील,जनवादी,क्रांतिकारी,प्रतिक्रियावादी,साम्प्रदायिक, धर्मनिरपेक्ष आदि पदबंधों का प्रयोग मूलत: 'क्लीचे' के रूप में हुआ है। इससे लेखक संगठनों को व्यापक ऑडिएंस मिली । इन पदबंधों का व्यापक अनुकरण हुआ। सरलीकरण हुआ। जब भी कोई पदबंध 'क्लीचे' बन जाता है तो अपना मूल अर्थ खो देता है। अब वह सिर्फ प्रतीक मात्र,कथन की रूढ़ि मात्र बनकर रह जाता है। आधुनिकता और रैनेसां के गर्भ से पैदा हुई तमाम धारणाओं का क्रमश: इसी तरह लोप हुआ है। लोप से तात्पर्य है इन धारणाओं का अर्थहीन बन जाना, प्रभावहीन बन जाना। आम लोगों के द्वारा इनके अर्थ का अस्वीकार। इन पदबंधों का 'क्लीचे' के रूप में प्रसार इस तथ्य की सूचना है कि ये पदबंध अपने मूल अर्थ को खो चुके हैं। जब भी कोई चीज 'क्लीचे' में तब्दील हो जाती है तो अपने मूल अर्थ को नष्ट कर देती है। 'क्लीचे' बनने के बाद ये पदबंध प्रतीकात्मक रेडीमेड मासकल्चर में तब्दील हो गए। 
   जब भी कोई पदबंध अथवा अवधारणा 'क्लीचे' बन जाती है अथवा रूढ़ि बन जाती है तो उसकी विनिमय की भूमिका भी बदल जाती है। इलैक्ट्रोनिक युग में इनका मूल्यबोध नहीं बल्कि विनिमय मूल्य संप्रेषित होता है। इनके प्रचार करने से मुद्रा मिलती है। सत्ताा सुख और सस्तासुख मिलता है। सत्ताा को रूढ़ियां पसंद हैं। सतहीपन पसंद है।रूढ़ियां पसंद हैं। पूंजीवादी सत्ताा हो या समाजवादी सत्ताा हो सबको अपने प्रचार के लिए रूढियों की जरूरत होती है। बगैर रूढियों के कोई भी सत्ताा अपनी विचारधारा का प्रचार नहीं करती। आधुनिककाल में खासकर आजादी के बाद उपरोक्त अवधारणाओं का रूढ़ि के दौर पर विकास हुआ है। सर्जनात्मक विकास कम हुआ है। 

आधुनिक काल में लेखक संगठन भी एक रूढ़ि है। इसकी साहित्यिक आधुनिक रीतिवाद के निर्माण में केन्द्रीय भूमिका रही है। हमारे प्रगतिशील दोस्तों को अपने नाम के साथ रीतिवाद सुनकर परेशानी और गुस्सा आ सकता है। किंतु सच यही है कि जब भी आप किसी को सम्बोधित होकर लिखते हैं अथवा सुनाते हैं तो व्यवहार में रीतिवाद का ही अनुसरण करते हैं। रीतिवाद की साहित्यिक विशेषता थी कि लेखक जानता था कि उसका श्रोता कौन है। लेखक संगठन के प्रचारक जानते हैं उनका श्रोता या पाठक कौन है ? वे किसे सम्बोधित कर रहे हैं। मध्यकालीन रीतिवाद की दूसरी बड़ी विशेषता है पदबंधों के सुनिश्चित अर्थ और उनका अहर्निश प्रचार। लेखक संगठनों के द्वारा आधुनिक अवधारणाओं की जितनी बड़ी तादाद में टीकाएं लिखी गयीं उस तरह की प्रवृत्तिा सिर्फ मध्यकाल में नजर आती है। लेखक संगठनों और उनके प्रकाशनों पर एक नजर डालने पर पता चलता है कि ये आधुनिक युग के टीकाकार हैं।

   हिन्दी की आधुनिक तर्कप्रणाली भी तकरीबन वही है जो मध्यकाल में थी। मध्यकाल में जो कहा जाता था उसे मानने पर जोर था मजेदार बात यह है कि लेखक मानते भी थे। आधुनिक काल में लेखक संगठनों के द्वारा जो कुछ भी कहा जाता है उसे लेखकों का एक तबका अभी भी मानता है किंतु जो लेखक मध्यकालीन रूढ़ियों से मुक्त हो चुके हैं वे नहीं मानते। यह साहित्यिक रूढ़िवाद ही है कि यदि कोई आलोचक कहे कि फलां लेखक की रचना महान है तो हठात यह प्रचार होने लगता है कि फलां-फलां आलोचक ने कहा है फलत: रचना महान है,रचनाकार महान है। यही स्थिति लेखक संगठनों की भी होती है। वे बताने लगे हैं कि कौन लेखक है और कौन लेखक नहीं है। लेखक संगठन मूलत: 'प्रायोजक' मात्र बनकर रह गए हैं। 

लेखक संगठनों का किसी भी अवधारणा से रूढिबध्द ढंग से जुड़े रहना आधुनिक रीतिवाद है। आधुनिक रीतिवाद का आदर्श उदाहरण है 'जनवाद' पदबंध का लेखक संगठनों के द्वारा प्रचार-प्रसार और स्वयं लेखक संगठनों में लोकतान्त्रिक कार्यप्रणाली का अभाव। यानी प्रचार के लिए जनवाद ठीक है,व्यवहार में सामंतवाद ठीक है। अलोकतान्त्रिक कार्यप्रणाली के एक नहीं अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं जो जनवादी लेखक संघ के मेरे निजी अनुभव का हिस्सा हैं। किंतु उदाहरण यहां अप्रासंगिक हैं। बुनियादी समस्या है लेखक संगठनों में व्याप्त रीतिवाद की।

     रीतिवाद के कारण ही लेखक संगठन किसी भी मौलिक प्रश्न को उठाने में असमर्थ रहे हैं। वे उन प्रश्नों पर बहस करते रहे हैं जो दूसरों ने उठाए हैं। जिस तरह मध्यकालीन रीतिवाद के दौरान कभी लेखक के अधिकारों पर बातें नहीं हुईं। ठीक उसी तरह आजादी के बाद लेखक संगठनों ने देश में लेखकों के अधिकारों को लेकर कोई मौलिक आन्दोलन नहीं चलाया। लेखकों को उनके अधिकारों की चेतना से लैस करने के लिए कोई अभियान नहीं चलाया। 
    जैसे विज्ञापन में रीतिवाद का महत्व होता है, प्रचार मूल्य होता है। विनिमय मूल्य होता है।उसी तरह लेखक संगठनों के द्वारा आयोजित कार्यक्रम भी होते हैं। उनका विज्ञापनमूल्य से अधिक मूल्य आंकना बेवकूफी है। जिस तरह मध्यकाल में आण् बदलावों से संस्कृत के लेखक अनज्ञि थे उसी तरह आधुनिकाल में आए बदलावों को लेकर हिन्दी लेखक संगठन अनभिज्ञ हैं। वे रूढिबध्द ढंग़ से अवधारणाओं का प्रयोग करते रहते हैं और यह देखने की कोशिश ही नहीं करते कि अवधारणा की अंतर्वस्तु बदल चुकी है।  मसलन् धर्मनिरपेक्षता पदबंध को ही लें, धर्मनिरपेक्षता का आपात्काल से संबंध जुड़ने के कारण अर्थ ही बदल गया। संविधान में जिस अर्थ में धर्मनिरपेक्षता को व्याख्यायित किया गया था वही अर्थ आपातकाल में नहीं रह गया। गैर कानूनी संविधान संशोधन के जरिए आपातकाल में अधिनायकवादी राजनीति के फ्रेमवर्क में धर्मनिपेरक्षता को संविधान के 'आमुख' में जोड़ा गया। उस समय समाजवाद पदबंध को भी जोड़ा गया था। फलत: धर्मनिरपेक्षता का आगमन अधिनायकवादी विचारधारा का अंग के रूप में हुआ और हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि अधिनायकवाद स्वभाव से प्रतिक्रियावादी होता है और यही धर्मनिरपेक्षता शाहबानो केस बाद,राममंदिर शिलान्यास के बाद वही नहीं रह गयी थी जिसकी संविधान निर्माताओं ने कल्पना की थी। 
      धर्मनिरपेक्षता के इस बदले अर्थ को आपात्काल के साथ जोड़कर देखे बिना समझना संभव नहीं है। धर्मनिरपेक्षता का दूसरा बड़ा संदर्भ शाहबानो प्रकरण और राममंदिर शिलान्यास है। धर्मनिरपेक्षता का कांग्रेस,संघ परिवार,साम्यवादी दलों में एक ही अर्थ नहीं है। यानी किसी भी अवधारणा,व्यक्ति,विचार आदि को स्थायी अर्थ नहीं दिया जा सकता। आज हम जिसे 'घटना' कहते हैं और उसका घटना की तरह विवेचन करते हैं वह मूलत: 'रेपचर' या 'ब्रेक' है। हमें देखना होगा 'ब्रेक' में क्या बन रहा है और 'ब्रेक' के बाद क्या निकल रहा है। 
     आज भू.पू.सोवियत संघ के विभिन्न देशों में समाजवाद का अर्थ वही नहीं है जो सन् 1917 की अक्टूबर क्रांति के समय था। हम याद करें किम इलसुंग को जिन्होंने उत्तारी कोरिया में समाजवाद और माक्र्सवाद पदबंध का इस्तेमाल ही नहीं किया और 'जूचे' विचारधारा के आधार पर आम लोगों को गोलबंद किया। क्योंकि माक्र्सवाद,कम्युनिस्ट पार्टी और समाजवाद के साथ उत्तारी कोरिया में असंख्य कलंक आख्यान जुड़ थे। इप पदबंधों से उत्तार कोरिया की जनता घृण्ाा करती थी। यही अवस्था सोवियत संघ की भी है। आज वहां पर आम जनता में माक्र्सवाद और समाजवाद की कोई साख नहीं है। क्या बात है कि माक्र्सवाद,समाजवाद वहां पर अर्थहीन हो गए ? इसका प्रधान कारण है जनता की इन पदबंधों के बारे में बदली हुई समझ, यह समझ अनुभव के आधार पर बनी है। कहने का तात्पर्य यह है कि लेखक संगठनों को अवधारणाओं का इस्तेमाल करते हुए आम जनता में इनके बदलते अर्थ को ध्यान में रखना चाहिए महज नेता,पार्टी,किताब आदि में जो अर्थ लिखा है अथवा बताया गया है उस पर चलने का अर्थ है अवधारणा के अंदर घट रहे परिवर्तनों से अनभिता और अर्थ परिवर्तन की उपेक्षा। 
    क्या पश्चिम बंगाल में पैंतीस सालों से भी ज्यादा शासन करने और भारत में सात दशकों तक कम्युनिस्ट आंदोलन के विकास के बाद क्या समाजवाद का वही अर्थ रह गया है जो आरंभ में सोचा गया था ? कहने का तात्पर्य यह है प्रत्येक पदबंध और अवधारणा के सुनिश्चित अथवा निर्धारित अर्थ का लोप हुआ है। ऐसे में लेखक संगठनों की वही स्थिति नहीं रह सकती जो घोषणाओं और प्रस्तावों में बयां की गयी है।  
    लेखक संगठन इसलिए काम नहीं करते कि उन्हें तर्क, वितर्क,संवाद, विवाद अथवा विवेकवादी विमर्श तैयार करना है। बल्कि इसलिए काम करते हैं कि उन्हें विचारधारा विशेष का वर्चस्व स्थापित करना है। उल्लेखनीय है लेखक संगठनों की भारत में भूमिका शीतयुध्द के आगमन के साथ ही खत्म हो गयी थी। पुराने प्रगतिशील लेखक संघ का सन् 1953 में समापन हुआ, कालान्तर में 1972-73 में शीतयुध्द के चरम दौर में पुन:जन्म हुआ। समाजवाद के अंत के दौर में जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच जैसे संगठनों का जन्म हुआ। इन तीनों के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बुनियादी अंतर नहीं है। इन प्रकाशनों में छपी सामग्री में भी बुनियादी दृष्टिकोणगत अंतर नहीं है। इसके बावजूद ये तीन संगठन के रूप में मौजूद हैं महज राजनीतिक कारणों से।  
 इन तीनों संगठनों के सांस्कृतिक कार्यक्रम मूलत: उदारवादी सचेतनता और मानवाधिकारों की अभिव्यक्ति करते हैं। साथ ही पार्टीजान आधार पर काम करने की पुरानी पध्दति का निषेध करते हैं। एक ही वाक्य में कहें हिन्दी में सक्रिय तीनों बड़े लेखक संगठन 'प्रतीकात्मक सांस्कृतिक स्पेस बनाते हैं। यह साझा सांस्कृतिक स्पेस है। इन संगठनों के द्वारा जितने भी कार्यक्रम किए जाते हैं वे सबके सब प्रतीकात्मक हैं। 'प्रतीकात्मक सांस्कृतिक स्पेस' का राजनीतिक लक्ष्य के साथ मेल है।   
        इन तीनों संगठनों में साझा तत्व है कि जनता को कभी सांस्कृतिक एजेण्डा नहीं बनाया गया बल्कि 'पावर' को केन्द्र में रखकर कार्यक्रम किए गए। 'पावर' को केन्द्र में रखकर जब भी सांस्कृतिक एजेण्डा तय होगा वह गैर-बहुलतावादी  होगा। 'हम' और 'तुम' के विभाजन पर टिका होगा। 'हम' और 'तुम' के आधार पर ही समीक्षाशास्त्र विकसित किया गया। दोस्त-दुश्मन तय किए गए। एक ही विचारधारा के आधार पर एकजुट करने पर जोर दिया गया। फलत: इन संगठनों में सहमत एकजुट थे, असहमत बाहर थे। यह मध्यकालीनबोध का यह आधुनिक संस्करण है। सहमति का बहुत ही सीमित और संकुचित आधार चुना गया। सहमति और सांगठनिक क्षमता का आधार राजनीतिक वफादारी को बनाया। राजनीतिक वफादारी का सबसे बड़ी क्षमता के रूप में सामने आना नयी बात नहीं है यह दरबारी संस्कृति की केन्द्रीय विशेषता थी अजकल लेखक संगठनों के रीतिवाद की विशेषता है। राजनीतिक वफादारी को राजनीतिक प्रतिबध्दता के रूप में पेश किया गया। ऐसा करते हुए लेखकबंधु भूल गए कि लेखक की लेखन और जनता के आलावा किसी से भी प्रतिबध्दता नहीं होती। उसीकी सहमति और असहमति का स्रोत ये ही दोनों हैं। जनता बदली तो लेखन भी बदला,सहमति और असहमति का आधार भी बदला।  इस बदलाव की प्रक्रिया को लेखक संगठन अभी हजम करने की स्थिति में नहीं हैं। 
   'हम' और 'तुम' के आधार पर ही नैतिक श्रेष्ठता और राजनीतिक सटीकता का दावा किया गया। नैतिक श्रेष्ठता को सही राजनीतिक लाइन के आधार पर श्रेष्ठ ठहराने की कोशिश की गयी। यह मूलत: 'नैतिकता' और 'राजनीति' का यांत्रिकबोध ही है जो इस तरह के निष्कृट मूल्यांकन तक ले जाता है।   नैतिक तौर पर दूसरे से श्रेष्ठ ठहराने के चक्कर में विशेष किस्म के असमानताबोध का प्रचार किया जाता है। फलत: संगठन के सांस्कृतिक लक्ष्य गायब हो जाते हैं और उनकी जगह वफादारी प्रमुख रूप ले लेती है। 
    लेखक संगठन में वफादारी बड़ी खतरनाक प्रवृत्तिा है। आज लेखकों के बीच में वफादारों की तलाश की जा रही है। वास्तविकता यह है लेखक स्वभाव से वफादार नहीं बागी होता, सिर्फ चारण लेखक वफादार होते हैं। बागी लेखक स्वयं के प्रति भी आलोचनात्मक नजरिया रखता है। भूमंडलीकरण के दौर में वफादारी सबसे बड़ा फिनोमिना है। इस अर्थ में भूमंडलीकरण और मध्यकाल एक ही जगह मिलते हैं,दोनों को वफादार की तलाश रहती है। लेखक को वफादार बनाने का अर्थ है नपुंसक और अप्रतिरोधी बनाना। लेखक संगठनों के द्वारा वफादारी का जो खेल चलता रहा है उससे इन संगठनों की ऊर्जा का ह्रास हुआ है। वफादारी मूलत: मध्यकालीनबोध है। इसी अर्थ में लेखक संगठनों में 'लेखक' कम 'वफादार लेखक' ज्यादा मिलते हैं। इनमें बागी भाव का अभाव है। जोखिम उठाने से कतराते हैं। बागीभाव के अभाव के कारण ये लेखक यथार्थ को चित्रित नहीं कर पाते, सत्य को खुलकर बोल नहीं पाते और हमेशा किसी अदृश्य भय अथवा परेशानी के आ जाने से सशंकित रहते हैं। 
   इनकी रचना में बागीपन और यथार्थ जीवन की त्रासदी के रूपों का अभाव है। लेखक जब बागीपन,जोखिम उठाने,त्रासदी को विषयवस्तु बनाने से भागने लगे तो समझो उसने वफादारी का दामन पकड़ लिया है। हिन्दी में इन दिनों त्रासदी का विषयवस्तु के रूप में एकसिरे अभाव है। त्रासदी हमारे लेखक को उद्वेलित नहीं करती। त्रासदी का लेखन से गायब हो जाना और यथार्थ की बजाय निर्मित यथार्थ की रचनाओं की बाढ़ का आ जाना वैसे ही है जैसा श्रृंगार साहित्य में देखा गया था, वहां पर भी निर्मित यथार्थ था, फर्क यह है कि श्रृंगारी लेखक अपने व्यक्तिगत नजरिए को व्यक्त करने में ऐतिहासिक तौर पर असमर्थ था जबकि आधुनिक निर्मित यथार्थ वाली रचनाओं में लेखक का व्यक्तिगत नजरिया मिल जाता है। 
        मध्यकालीन रीतिवाद में आलोचना नहीं प्रशंसा होती थी और कृतिकेन्द्रित प्रशंसा पर जोर था। इन दिनों आलोचना का ढ़ांचा पुराना है अंतर यह है कि प्रशंसा को सामयिक यथार्थ के साथ जोड़ दिया जाता है। मध्यकालीन आलोचक अपनी आलोचना को सामयिक यथार्थ से जोड़ नहीं पाता था, रचना में सामाजिकता की खोज नहीं करता था, मौजूदा दौर में रचना में सामाजिकता की बजाय लेखक के व्यक्तिगत नजरिए की खोज पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है। नजरिए की प्रशंसा में कसीदे लिखे जा रहे हैं। रचना के मूल्यांकन में लेखक के नजरिये से ज्यादा महत्वपूर्ण रचना में चित्रित यथार्थ का मूल्यांकन। देखना चाहिए रचना में चित्रित यथार्थ वास्तव है अथवा निर्मित है ?  रीतिकाल का ही असर है कि हिन्दी में नयी आलोचना की किताबें नहीं आ रहीं। यदि किताबें आयी हैं तो अकादमिक दबावों और जरूरतों को पूरा करने के लिहाज से। आलोचना के लिहाज से तकरीबन काम बंद पड़ा है। आलोचनाकर्म क्यों बंद हो गया और उसकी जगह विज्ञापन की शैली में आलोचना क्यों आने लगी इसका गहरा संबंध आधुनिक रीतिकाल से है। 
     आलोचना के लिए असहमति का होना जरूरी है। आलोचना के साहित्यिक उपकरणों का होना जरूरी है। आज जो आलोचना प्रचलन में है वह आलोचना के किसी पैराडाइम को आधार बनाकर नहीं लिखी जा रही बल्कि स्वांत सुखाय, आदेश और अनुरोध पर लिखी जा रही है। इसका बुनियादी आधार है वफादारी। उल्लेखनीय है वफादारी के आधार आलोचना नहीं लिखी जा सकती। राजनीति कर सकते हैं। सांस्कृतिक कर्म नहीं कर सकते।
      वफादारी के आधार पर आलोचनात्मक वातावरण नहीं बनाया जा सकता। आलोचनात्मक वातावरण बनाने के लिए जरूरी है आलोचना को सही ढ़ंग से लिखा जाए। आलोचना को रूढ़ियों के बाहर लाया जाए। वफादारी के आधार पर जब भी आलोचना लिखी जाएगी, प्रस्ताव पास किए जाएंगे,सम्मेलन अथवा सेमीनार होंगी उससे आलोचनात्मक माहौल नहीं बनेगा। वफादारी के आधार पर सांस्कृतिक कर्म का अर्थ है अपने को सही ठहराना, अपने हाथों अपनी पीठ ठोकना। जो पहले से सहमत है उसे सहमत बनाना। फलत: लेखक संगठन कोल्हू के बैल की तरह एक ही घेरे में परिक्रमा कर रहे हैं और आगे नहीं बढ़ पाए हैं। लेखक संगठन यदि लक्ष्मणरेखा खींचकर ,नियम से बंधकर काम करेंगे तो नियमों और रूढियों के खिलाफ संघर्ष कौन करेगा। लेखक संगठन यदि सिर्फ सहमतियों को ही बढ़ावा देंगे तो असहमति के लिए लेखक कहां और किस मंच पर जाएगा।
    लेखक संगठनों को बुनियादी तौर सहमति का नहीं असहमति का मंच होना चाहिए। बिडम्वना है कि लेखक संगठनों ने असहमति की बजाय सहमति को तवज्जह दी है। किसी भी लेखक का मूल्यांकन लिखे के आधार पर नहीं वैचारिक सहमति अथवा वफादारी के आधार पर हो रहा है। मसलन् इस सवाल सोचें कि क्या हिन्दी के तीनों बड़े लेखक संगठनों ने कभी ऐसे लेखक के बारे में विस्तार के चर्चा की है जिसके विचारों और नजरिए से वे एकदम असहमत हों ? मुक्तिबोध,रघुवीरसहाय, नागार्जुन,केदारनाथ अग्रवाल,त्रिलोचन आदि पर बातें करना रीतिवाद है क्योंकि ये लेखक तो इन तीनों संगठनों के किसी न किसी एजेण्डे से सहमत हैं। सहमत पर सहमत होना और उसका प्रौपेगैण्डा करना अनालोचनात्मक माहौल बनाता है। इसके कारण सांस्कृतिक शत्रु कहीं पीछे छूट जाता है। नैतिक और राजनैतिक सहीपन के दावे अथवा अपने ही हाथों अपनी पीठ ठोंकने की प्रवृत्तिा बल पकड़ लेती है। ज्योंही कोई संगठन इस पैराडाइम में दाखिल होता है वह अन्तर्विरोधों को सम्बोधित करना बंद कर देता है। क्योंकि वे सामाजिक-सांस्कृतिक स्पेस में अपने विरोधी को शिरकत ही नहीं करने देते। इसके कारण अलोकतांत्रिक प्रतिवादी रूपों का उदय होता है। अलोकतांत्रिक प्रतिवाद का चरम रूप है आतंकवाद। अपने विरोधी की शक्ति का अनुमान करते हुए,उसे चुनौती देते हुए जब आप अपनी बढ़त हासिल करते हैं तब मामला दूसरा होता है। 
  सन् 1984-85 के बाद से समाजवाद के पराभव की जो प्रक्रिया शुरू हुई उसने महानगरीय सांस्कृतिकबोध और महानगरीय नजरिए पर ज्यादा जोर दिया है। भूमंडलीकरण के सवाल केन्द्र में आ गए हैं। समाजवाद फीका  पड़ा है। वफादारी का भाव प्रबल हुआ है। संकट में आलोचकों की नहीं वफादारों की जरूरत महसूस होती है। लेखक संगठन जब वफादारों से घिरे हों तो समझना चाहिए संकट की गिरफ्त में हैं।  
       लेखक संगठन आधुनिक बनें इसके लिए जरूरी है कि वे सत्ताा को अपना एजेण्डा न बनाए, राजनीति को अपना प्रधान एजेण्डा न बनाए। यदि वह ऐसा करते हैं तो सत्ताा विमर्श का अंग बन जाएंगे। साम्प्रदायिकता,धर्मनिरपेक्षता,आतंकवाद आदि सत्ताा विमर्श हैं। जनता के विमर्श नहीं हैं।  लेखक संगठनों का लक्ष्य विकल्प के विमर्श होने चाहिए, विकल्प के विमर्शों को सामने लाना चाहिए। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो हिन्दी के लेखक संगठनों की गतिविधियों की बड़ी फीकी तस्वीर उभरकर सामने आती है। उनके यहां वैकल्पिक विमर्श एकसिरे से गायब हैं। वे जिन विषयों पर बहस कर रहे हैं ,सेमीनार कर रहे हैं उनमें से अधिकांश सत्ताा विमर्श का हिस्सा हैं। राजनीति से भिन्न जनता और सत्ताा के विकल्पों पर काम करना लेखक संगठनों का लक्ष्य होना चाहिए। मजेदार बात यह है कि हमारे लेखक संगठनों ने कभी विकल्पों की खोज नहीं की। लेखक संगठनों में जितनी भी विचारधारात्मक बहसें चली हैं ये वे बहस हैं जो सत्ताा और राजनीतिक दलों ने थोपी हैं। इनमें लेखक संगठन प्रतिक्रिया के रूप में दाखिल हुए हैं। लेखक संगठनों का एकमात्र काम प्रतिक्रिया व्यक्त करना, प्रेस विज्ञप्ति जारी करना, सत्तााधारी वर्गों के द्वारा थोपे गए मसलों पर राय देना ही बुनियादी काम रहा है। उन्होंने सालों-साल इसी काम में अपनी अजस्र ऊर्जा खर्च की है। 
     यह वैसे ही है जैसे कोई ऊर्जावान व्यक्ति अपनी ऊर्जा सही कार्यों में खर्च न कर पाए और सुबह जॉगिंग में जाकर खर्च करे। जॉगिंग में खर्च की गयी ऊर्जा बेकार में व्यय की गयी ऊर्जा है। यह ऐसे व्यक्ति की ऊर्जा है जो संतुष्ट है और अपने शरीर से दुखी है। अपने ही शरीर के बोझ को संभालने में असमर्थ है। यही वजह है कि दसियों वर्ष लेखक संगठन का काम करने वाले लेखकबंधु अंत में हताश,आलस्य के मारे अथवा लेखक संगठन की क्रमश: निष्क्रियता के आख्यानों को सुना-सुनाकर अपने मन को संतोष देते रहते हैं वे एक तरह से यह भी बता रहे होते हैं कि उन्होंने कितनी बड़ी ऊर्जा निरर्थक कार्यों में खर्च की और देखो अब कोई लेखक हमारी नहीं सुन रहा। 
     लेखक संगठनों की वफादारी की त्रासदी यह है कि वे जिस राजनीति के लिए अपनी सारी ऊर्जा होम कर देते हैं उस राजनीतिक दल के अंदर भी उनके लिए कोई महत्वपूर्ण जगह नहीं होती। मसलन् माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी अथवा अन्य राजनीतिक दलों में उनके लेखक संगठनों की पार्टीगत तौर क्या हैसियत है ? बुध्दिजीवियों की क्या हैसियत है इसे बड़ी आसानी से पोलिटब्यूरो और केन्द्रीय समिति के सदस्यों को देखकर समझा जा सकता है। कभी भी इन दलों की प्रधान कमेटियों में बुध्दिजीवी होने के नाते अथवा लेखक संघ के पदाधिकारियों को चुना तक नहीं जाता। आप बहुत बड़े कम्युनिस्ट लेखक हो सकते हैं किंतु कम्युनिस्ट पार्टी की फैसलेकुन कमेटियों में आपका कोई स्थान नहीं होगा। जबकि सोवियत संघ,चीन आदि में कभी भी ऐसा नहीं रहा है।
    भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों का बुध्दिजीवियों को प्रचारक के रूप में इस्तेमाल करना वस्तुत मध्यकालीन दरबारीपन का अपभ्रंश रूप है। जाने-अनजाने बुध्दिजीवी वर्ग के प्रति इससे बेगानेपन का भाव ही संप्रेषित होता है। यह भी संप्रेषित होता है कि लेखक की सत्ताा को कम्युनिस्ट पार्टियां किसी भी रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। कम्युनिस्ट पार्टियों में लेखकों के कामकाज की देखभाल और दिशानिर्देश का जिम्मा लेखक के पास नहीं बल्कि किसी कूडमगज राजनीतिज्ञ के पास होता है जिसे साहित्य-कला की कोई समझ नहीं होती। जब कम्युनिस्ट पार्टियां अपने यहां लेखक और बुध्दिजीवी को प्रधान दर्जा नहीं देती हैं तो बुर्जुआ दलों से यह कैसे उम्मीद की जाए कि वे लेखक को बड़ा दर्जा देंगी। 
   इसके बावजूद एक तथ्य गौर करने लायक है कि लेखक के नाते कांग्रेस ने कम से कम श्रीकांत वर्मा को अपने दल का महासचिव तो बनाया, कवि बाल कवि बैरागी को सांसद तो बनाया।राज्यसभा के लिए नामजद लोगों की सूची निकाली जाए तो कई लेखकों को सांसद के तौर पर नामांकित कराया। जबकि कम्युनिस्ट पार्टियों ने लंबे समय से किसी भी हिन्दी,बांग्ला,मलयालम आदि भाषा के लेखक को राज्यसभा में नामजद तक नहीं किया। हां एक बात जरूर हुई कि कई फिल्मी हस्तियों को नामजद जरूर किया। किंतु किसी हिन्दी लेखक अथवा बुध्दिजीवी को कम्युनिस्ट पार्टियों ने नामजद नहीं किया। मजेदार बात है कि हिन्दीभाषी क्षेत्र से सीताराम येचुरी,  वृंदाकारात जैसे बड़े नेता राज्यसभा में नामजद किए जा सकते हैं। किंतु नामवरसिंह,भैरवप्रसाद गुप्त, अमृतराय, राजेन्द्र यादव ,मुरलीमनोहरप्रसाद सिंह, मार्कण्डेय ,हबीब तनवीर, इनफान हबीब,श्रीलाल शुक्ल,हरिवंस मुखिया आदि को नामजद नहीं किया जा सकता। सवाल किया जाना चाहिए कि जब हिन्दीभाषी क्षेत्रों में कम्युनिस्ट पार्टी की विचारधारात्मक बागडोर हिन्दी के लेखक और बुध्दिजीवी संभालते हैं तो उन्हें संसदीय लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्थाओं में प्रतिनिधित्व दिलाने का काम कम्युनिस्ट पार्टियां क्यों नहीं करतीं। 
    यह क्यों होता है कि  जो लोग कम्युनिस्ट पार्टियों में आर्थिक और सांस्कृतिक नीति बनाने का काम करते हैं वे संसद में नहीं भेजे जाते , सिर्फ राजनीतिज्ञों को ही क्यों नामजद किया जाता है ? इस मामले में एकमात्र अपवाद हैं फिल्मी हस्ती। इसे ही कहते हैं इलैक्ट्रोनिक मीडिया का राजनीतिक प्रभाव। हिन्दी का लेखक इलैक्ट्रोनिक मीडिया में एकसिरे से अनुपस्थित है। इलैक्ट्रोनिक मीडिया में जो हिन्दी लेखक अनुपस्थित है उसे हिन्दी में खासकर राजनीतिक हलकों में तवज्जह ही नहीं मिलती। इलैक्ट्रोनिक मीडिया में तीन लेखकों की सबसे ज्यादा उपस्थिति रही है वे हैं नामवरसिंह,पुरूषोत्ताम अग्रवाल और सुधीश पचौरी। बाकी हिन्दी लेखकों को आप कभी भी नहीं देख सकते। कभी-कभार कोई लेखक टीवी रिपोर्टिंग अथवा टीवी कार्यक्रम में आ जाए तो बड़ी करामात से कम नहीं है। 
   कहने का तात्पर्य कि हिन्दी लेखकों की इलैक्ट्रोनिक मीडिया में अनुपस्थिति बहुत बड़ा कारण है हिन्दी लेखक संगठनों के गुम हो जाने का। फिल्मी हस्ती को संसद के लिए नामजद करने का प्रधान कारण है उसका पर्दे या स्क्रीन पर दिखना। हिन्दी का लेखक छपता है दिखता नहीं है। मौजूदा दौर दिखने का है ,आप यदि दिखते नहीं हैं तो आपका अस्तित्व नहीं है। यदि छोटे पर्दे से लेकर बड़े स्क्रीन के पर्दे पर दिखते हैं तो आपने कम काम किया हो तब भी महान हैं। छोटे पर्दे ने छोटे को बड़ा और बड़े को छोटा बनाया है। अनुपस्थित को उपस्थित और उपस्थित को अनुपस्थित बनाया है। संगठन को छोटा और व्यक्ति को बड़ा बनाया है।  हिन्दी के लेखक संगठन मूलत: प्रचार अभियान के संगठन हैं। इनका व्यवहार में एक अच्छे जनसंपर्क संगठन के रूप में अभी तक विकास नहीं हो पाया है। 
      लेखकों के सभी संगठन आज सामाजिक हाशिए के बाहर हैं। हाशिए पर जाना घटना है और हाशिए के बाहर चले जाना त्रासदी है। दुर्घटना है। लेखक और संस्कृति मंचों की जरूरत तब ही महसूस की जाती है तब आप शोषित महसूस करें। लेखक जब शोषित महसूस करना बंद कर देता है तो संगठन की प्रासंगिकता खत्म हो जाती है। संगठन प्रतीकात्मक रह जाते हैं। लेखक संगठनों को सत्ताा से कभी शक्ति नहीं मिलती। मलाई जरूर मिलती है। 
   इसी तरह लेखक संगठनों को राजनीति का अंग भी नहीं समझना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो लेखक संगठन हाशिए के बाहर जाने के लिए अभिशप्त हैं। विलक्षण आयरनी है कि लेखक संगठनों का काम करते हुए ह्रास हुआ है। सबसे ज्यादा सक्रिय लेखक संगठन आज सबसे ज्यादा निष्क्रिय हैं। कभी-कभार प्रतीकात्मक कार्यक्रम कर देते हैं,शोकसभा कर देते हैं,सम्मेलन कर लेते हैं, कभी कभार सेमीनार कर लेते हैं। लेकिन लेखकीय अधिकारों के लिए कभी संघर्ष नहीं करते। लेखक संगठन की सक्रियता प्रायोजक जैसी हो गयी है। सवाल यह है कि लेखक संगठन प्रायोजक कैसे हो गया ? प्रायोजक भाव में रहने के कारण ही उसकी प्रेरणा सीमित दायरे में सक्रिय है। जब किसी कार्यक्रम का आयोजन करता है तो प्रेरक और सक्रिय के भ्रम में रहता है। कार्यक्रम खत्म और प्रेरक का भ्रम भी खत्म। प्रायोजक का भाव मूलत: वहां नहीं होता जिसका दावा किया जाता है बल्कि वहां पर होता हे जिसको छिपाकर रखा जाता है। प्रायोजक बगैर निवेश के लाभ लेना चाहता है। वही स्थिति लेखक संगठनों की भी है वे भी बगैर निवेश के लाभ लेना चाहते हैं। नाम कमाना चाहते हैं। मंच देना निवेश नहीं है। बल्कि मंच तो लाभ का स्रोत है। लेखक संगठन का निवेश आलोचनात्मक वातावरण निर्माण्ा पर निर्भर करता है। मंच मात्र देने से आलोचनात्मक वातावरण नहीं बनता। आलोचनात्मक वातावरण अनालोचनात्मक वातावरण को नष्ट करके बनता है। इसके लिए विचारधारात्मक और सर्जनात्मक योगदान की जरूरत होती है। विचारधारात्मक-सर्जनात्मक वातावरण सीमाओं का अतिक्रमण करके ही बनता है। सीमाओं में बांधकर मंच और बहसों का आयोजन अनालोचनात्मक वातावरण को बनाए रखता है।  
         कल तक लेखक संगठन जिसे प्रेरणा,अपरिहार्य,अनिवार्य और स्वाभाविक मानते थे आज प्रेरणा लेने की बजाय उससे यांत्रिकतौर पर बंधे हैं। लेखक संगठन जितने बड़े उत्साह के साथ बनते हैं उतनी ही तेजी से उनका उत्साह ठंड़ा पड़ जाता है । कल तक जो लेखक संगठन की महत्ताा पर निबंध लिखता था आज वही लेखक संगठन को अप्रासंगिक मानता है। कोई बात जरूर है जो लेखक संगठन को तमाम सक्रियता के बावजूद अप्रासंगिक बनाती है। क्या लेखकीय निष्क्रियता को संगठन के बयानों के जरिए जान सकते हैं ? जी नहीं।
   लेखक संगठन की व्याख्याएं राजनीतिक कार्य-कारण संबंधों के आधार पर आती रही हैं। कभी हमने राजनीतिक कार्य-कारण संबंध के फार्मूले के परे जाकर सोचा ही नहीं है। सवाल यह है कि लेखक संगठन की वर्तमान दशा और दिशा की क्या 'विखंडनवादी' रीडिंग संभव है ? लेखक संगठन के द्वारा विलोम निर्माण की प्रक्रिया को कभी गैर विखंडनवादी पध्दति और नजरिए के जरिए नहीं समझा जा सकता। 'सही' और 'गलत' राजनीतिक लाइन के आधार पर नहीं समझा जा सकता। 'प्रासंगिकता' और 'अप्रासंगिकता' के आधार पर नहीं समझा जा सकता। 'श्रेष्ठ' और 'निकृष्ट' के आधार पर वर्गीकृत करके नहीं समझा जा सकता। मसलन् यह वर्गीकरण वैध नहीं है कि  लेखक संगठन में काम करना 'श्रेष्ठ' है और जो लेखक, संगठन का काम नहीं करते वे निकृष्ट हैं। उसी तरह  जो लेखक संगठन का काम करते हैं वे निकृष्ट हैं और जो बाहर हैं वे श्रेष्ठ हैं। इसी तरह  लेखक संगठन का सोच सही है, व्यक्ति के रूप में लेखक का सोच गलत है। अथवा 'संगठन वैध है बाकी सब अवैध है। लेखक संगठन का सत्य प्रामाणिक है ,व्यक्ति लेखक का सत्य अप्रामाणिक है,  साहित्यिक विधा में लिखना लेखन है और गैर साहित्यिक विधाओं जैसे मीडिया में लिखना साहित्य नहीं है।, लेखक संगठन में काम करना पुण्य है और गैर सांगठनिक लेखकीय कर्म पाप है।, लेखक संगठन टिकाऊ है बाकी सब नश्वर है। इत्यादि वर्गीकरण बोगस हैं। 
      'लेखक संगठन ही सर्वस्व है' का नारा देने वाले यह भूल गए कि रचना का मूल स्रोत तो जीवन है। रचना का मूल स्रोत संगठन नहीं होता। अत: नारा होना चाहिए  जीवन ही सर्वस्व है। इस नारे को भूलकर हमारे लेखक संगठनों ने मूल्य, कृति,राजनीति,विचारधारा इत्यादि चीजों को सर्वस्व बना दिया। यही वह बिंदु है जहां से लेखक संगठन अपने को हाशिए पर ले जाते हैं और अंत में सिर्फ प्रतीकात्मक उपस्थिति मात्र बनकर रह जाते हैं। लेखक संगठनों का जीवन के प्रति वाचिक लगाव है, वे जीवन की महत्ताा और मर्म से पूरी तरह वाकिफ नहीं हैं। जीवन की जटिलाओं को उन्होंने विश्वदृष्टि से देखा नहीं है। उन्होंने कभी परवर्ती पूंजीवाद ,इलैक्ट्रोनिक मीडिया,सैटलाइट के संदर्भ में लेखन को खोलकर नहीं देखा। साहित्य के दार्शनिक आयाम की कभी चर्चा तक नहीं की।
     जीवन के साथ लगाव के नाम पर जीवन के इस या उस पक्ष की ही प्रतिष्ठा की गई। इस या उस पक्ष की हिमायत की गई। हिन्दी रचनाकार के लिए जीवनमूल्य महान और जीवन नश्वर रहा है। वह मानता है कि वह शाश्वत सत्य रच रहा है। अपने रचे को सत्य मानना,प्रामाणिक मानना,वैध मानना और उसी के आधार पर फतवे जारी करना मूलत: कर्मफल के सिध्दान्त का साधारणीकरण है। कर्मफल के सिध्दान्त का ही परिणाम है जो सही है वह सही है जो गलत है वह गलत है। कर्मफल का सिध्दान्त स्त्री और दलित की अनुभूति और सामाजिक अस्मिता को स्वीकार नहीं करता। यही वजह है कि लंबे समय से लेखक संगठनों की कार्यप्रणाली में पितृसत्ताात्मक विचारधारा हावी है। जो बड़ा है वह बड़ा है,जो छोटा है वह छोटा है। सांगठनिक हायरार्की का सब समय ख्याल रखा जाता है। ऊपर की शाखा की बातें निचली शाखा को मानना अनिवार्य है। सांगठनिक हायरार्की में चूंकि जनवादी लेखक संघ और प्रगतिशील लेखक संघ में कम्युनिस्ट दलों की (क्रमश: माकपा और भाकपा) केन्द्रीय भूमिका है अत: पार्टी का आदेश अंतिम आदेश होता है और लेखक संगठनों के मुख्य पदाधिकारियों को तदनुरूप ही काम करना पड़ता है। आप कितने भी अच्छे संगठनकत्तर्ाा हों, कितने ही बड़े लेखक हों, यदि कम्युनिस्ट पार्टी की अनुकरणात्मक भावना आपके अंदर नहीं है तो आपको संगठन में जिम्मेदारी नहीं दी जा सकती। कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से लेखक संगठन को देखने वाला नेता अमूमन चुगद किस्म का व्यक्ति होता है जिसे किसी भी भाषा के साहित्य की समझ नहीं होती ऐसी स्थिति में वह सिर्फ अपने अनुयायी और विश्वस्त के हाथों ही संगठन का नेतृत्व सौंपना पसंद करता है। चाहे वह व्यक्ति कितना ही निकम्मा क्यों न हो। 
      लेखक संगठनों में लंबे समय से माक्र्सवाद,जनवाद,समाजवाद,साम्प्रदायिकता,धर्मनिरपेक्षता पर गर्मागर्म बहसें होती रही हैं। किंतु पितृसत्ताा को लेकर कोई बहस नहीं हुई है। तकरीबन यही स्थिति माक्र्सवादी नजरिए की भी है। माक्र्सवादी नजरिए का अर्थ हमारे प्रगतिशील संगठनों ने माक्र्स-एंगेल्स-लेनिन -माओ के उध्दरणों के पारायण को मान लिया है। इन उध्दरणों की रोशनी में ही कृति की अंतर्वस्तु की समीक्षा होती रही है। कभी भी माक्र्सवादी चिन्तन के प्रति आलोचनात्मक नजरिए से विचार ही नहीं किया गया। माक्र्सवाद मूलत: उध्दरणशास्त्र बनकर रह गया। फलत: हिन्दी के माक्र्सवादी आलोचक माक्र्सवादी सैध्दान्तिकी और आलोचना में न्यूनतम मौलिक योगदान कर पाए हैं।  प्रसिध्द माक्र्सवादी आलोचक टेरी इगिलटन के अनुसार किसी कृति में सतह पर जो चीज नजर आती है उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण वह चीज है जो सतह पर नजर नहीं आती। व्यक्त से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है अव्यक्त की खोज। पाठ के साइलेंस या चुप्पी के क्षेत्रों ,अंतरालों और अनुपस्थित की खोज करना। इसके बिना आप विचारधारा को सकारात्मक रूप में महसूस नहीं कर सकते। 
    माक्र्सवाद का इकहरापन तब सामने आता है जब सिर्फ 'संघर्ष' के ही मूल्यांकन और चित्रण को माक्र्सवाद मान लिया गया। 'संघर्ष' के अलावा अन्य विषयों पर लिखी रचनाओं को खारिज कर दिया गया। इसके अलावा 'परंपरा' को पुनर्व्याख्यायित करने के नाम पर परंपरा का इकहरा रूपायन सामने आया। परंपरा को आधुनिककाल के लिए प्रासंगिक बनाया गया। तुलसी,कबीर,जायसी आदि में आधुनिककाल के सभी तत्वों को खोज लिया। परंपरा के इच्छित सृजन ने परंपरा का एकायामी विमर्श पैदा किया। परंपरा का अर्थ यह नहीं है कि परंपरा को ज्यों का त्यों बरकरार रखा जाए। बल्कि ल्योतार के शब्दों में परंपरा में भिन्नता के साथ निरंतरता बनी रहती है। परंपरा के प्रति यह उत्तार आधुनिक भाव है। रामविलास शर्मा के परंपरा विमर्श में यह पध्दति लागू की गयी है। परंपरा का भाषा विशेष में विशिष्ट अर्थ होता है। परंपरा विशिष्ट और सार्वभौम दोनों ही होती है। हिन्दी में परंपरा के सार्वभौम रूप पर ज्यादा जोर है। विभिन्नताओं की उपेक्षा हुई है। परंपरा में तेजी से जाने का प्रधान कारण था उसे अन्य नाम देना, अपने लिए परंपरा में भूमिका तलाशना। परंपरा के सामाजिक बंधन होते हैं। क्योंकि परंपरा में हम अपनी भूमिका देखते हैं। अपने सामाजिक अस्तित्व की तलाश करते  हैं।
  स्वतंत्रता- 
       हिन्दी लेखक संगठनों और आलोचकों में व्यक्तिकेन्द्रित और प्रवृत्तिा केन्द्रित आलोचना का रिवाज है। हिन्दी में पैराडाइम केन्द्रित आलोचना कभी नहीं लिखी गयी। खासकर स्वातन्त्रयोत्तार हिन्दुस्तान को केन्द्र में रखकर तो एकदम नहीं लिखी गयी। स्वतंत्र भारत का मूलाधार है लोकतंत्र। लोकतंत्र का स्वतंत्रता के बिना विकास संभव नहीं है। लेखक,नागरिक और समाज में स्वतंत्रता का जितना प्रसार होगा साहित्य और संस्कृति में लोकतांत्रिक भावबोध उतना ही समृध्द होगा। एक ही वाक्य में कहें स्वातंत्रयोत्तार भारत का केन्द्रीय पैराडाइम स्वतंत्रता है।
      हिन्दी लेखक संगठन 'स्वतंत्रता' के बारे में कम 'तंत्र' के बारे में ज्यादा सोचते हैं। लेखकों 'स्व' की बजाय 'तंत्र', 'मानवीय सत्ताा' की बजाय 'सत्ताा' पर ज्यादा लिखा है। 'स्व' से पलायन मध्यकालीनबोध का लक्षण है।  उसमें स्वतंत्रता के लिए मर मिटने की भावना अभी तक पैदा नहीं हुई है। उलटे जब किसी की स्वतंत्रता छीनी जा रही होती तो मूकदर्शक बना रहता है।  स्वतंत्रता को वह दर्शकीयभाव से देखता है। यह उसके लिए देखने की चीज है। वह स्वतंत्रता में जीता नहीं है बल्कि मध्यकालीनबोध में जीता है। उसे नास्तिक नहीं आस्तिक पसंद हैं। असहमति नहीं सामंजस्य पसंद है। व्यक्ति की सत्ताा और स्वायत्ताता नहीं दूसरे के फटे में पैर फसाना पसंद है, हस्तक्षेप पसंद है। स्वतंत्रता जन्मना नहीं मिलती। उसे अर्जित करना पड़ता है। स्वतंत्रता मनुष्य का बुनियादी अधिकार है इसे बुर्जुआ फिनोमिना कहकर खारिज नहीं किया जा सकता है। जिस समाज में स्वतंत्रता होगी वहां स्वाभाविक लोकतंत्र के पनपने की संभावनाएं भी ज्यादा होंगी। स्वतंत्रता के बिना लोकतंत्र की तरह समाजवाद भी बर्बरतावाद में बदल सकता है। भूतपूर्व समाजवादी देशों में स्वतंत्रता के अभाव के कारण ही समाजवादी व्यवस्था का लोप हुआ। 
    स्वतंत्रता की जटिलताओं को मानवीय विकास के बुनियादी आधारों में से एक तत्व के रूप में देखने की बजाय स्वतंत्रता का राजनीतिक पक्षधरता के आधार पर मूल्यांकन किया गया। यहां सिर्फ एक-दो उदाहरण ही देना पर्याप्त है ,मसलन् आपातकाल में प्रगतिशील लेखक संघ का आपातकाल समर्थन का फैसला और हाल के वर्षों में नंदीग्राम के मसले पर जनवादी लेखक संघ का मूकदर्शक बने रहना और तसलीमा नसरीन के मसले पर मौन रहना। ये उस गंभीर समस्या के लक्षण मात्र हैं जिनकी ओर ध्यान खींचना चाहता हूँ। 
    स्वतंत्रता मात्र दलीय राजनीतिक तत्व नहीं है। बल्कि सृजन और विकास की बुनियादी शर्त है। स्वतंत्रता का अर्थ सिर्फ 'निज' के लिए अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है बल्कि 'सबके लिए' अभिव्यक्ति की आजादी है। हिन्दी लेखक संगठनों और साहित्यकारों ने स्वतंत्रता पर कभी बहस नहीं की। बल्कि स्वतंत्रता की हिमायत करने वालों को किसी न किसी का एजेण्ट बताकर ,आरोप लगाकर नीचा दिखाने की कोशिश की गई अथवा स्वतंत्रता का गाली के तौर पर भी इस्तेमाल हुआ है। हिन्दी लेखक के लिए स्वतंत्रता नजारे की चीज है। वह स्वतंत्रता के तमाशे देखता है और चुपरहता है।  
     हिन्दी का लेखक कहीं न कहीं यह मानता है कि स्वतंत्रता समस्यामूलक है अत: उससे दूर रहो। स्वतंत्रता के बारे में सोचो मत। कभी कभार स्वतंत्र अभिव्यक्ति का नाटक जरूर कर लेता है। स्वतंत्रता को वह नकारात्मक धारणा मानता है। व्यक्ति की स्वतंत्रता और स्वायत्ताता की बात उठते ही सीमा की जाती है। सीमा का आग्रह उसे स्वतंत्रता विरोधी तक बना डालता है। व्कायर बनाता है। नपुंसक बनाता है। प्रतिरोध से पलायन कराता है। व्यक्ति की स्वतंत्रता को यदि सकारात्मक अवधारणा के रूप में देखेंगे तो एकदम भिन्न अनुभूति होगी। भिन्न किस्म का नजरिया होगा और भिन्न किस्म का व्यवहार पैदा होगा। यदि व्यक्ति की स्वतंत्रता नकारात्मक अवधारणा के रूप में जेहन में बैठी है तो चीजें भिन्न नजर आएंगी। 
   व्यक्ति की स्वायत्ताता के लिए 'स्व' से प्रेम करना, 'स्व' की केयर करना, 'स्व' के हितों को सर्वोपरि स्थान देना और जिम्मेदार नागरिक के रूप में सामाजिक भूमिका अदा करना जरूरी है। 'स्व' पर जोर देने का अर्थ है परंपरा के प्रति आलोचनात्मक होना। आलोचनात्मक परंपरा का निर्माण करना। आलोचनात्मक परिवेश का निर्माण करना। 'स्व' का सौन्दर्यीकरण करना। स्वतंत्रता का अर्थ सिर्फ विवेकवादी या शुध्दतावादी और सार्वभौम नैतिकतापंथी होना नहीं है। स्वातंत्रयोत्तार भारत का स्वतंत्रता के अलावा दूसरा बड़ा पैराडाइम है भारत-विभाजन। तीसरा पैराडाइम है आपात्काल और चौथा पैरा डाइम है भूमंडलीकरण और इंटरनेट संस्कृति।
 भारत-विभाजन - 
   हिन्दी में स्वतंत्रताबोध के अभाव का आजादी के आन्दोलन की फैंटेसी और भारत-विभाजन की त्रासदी के साथ गहरा संबंध है।  भारत विभाजन धर्म आधारित राजनीति की सबसे भयावह परिणति था। जिसमें लाखों निर्दोष लोग मारे गए। धर्मकेन्द्रित राजनीति के द्वारा स्वाधीनभाव का जिस तरह अपहरण किया गया और भारत विभाजन हुआ उसका सबसे गंभीर परिणाम यह निकला कि स्वतंत्रता को नकारात्मक और समस्यामूलक मान लिया गया। अराजकता का प्रतीक मान लिया गया। स्वाधीनता के गर्भ से पैदा हुआ भारत विभाजन सबसे बड़ा अविवेकपूर्ण राजनीतिक फैसला था। इसका चेतना पर यह असर हुआ कि धार्मिक और पश्चिमी ताकतों की शक्ति के बारे में आम लोगों के जेहन में डर बैठ गया। यह मान लिया गया कि धार्मिक और पश्चिमी ताकतें सब कुछ करने में सक्षम हैं और उनका ही वर्चस्व है। 
        भारत विभाजन ने भारतीय जनमानस में धार्मिक तत्ववादी और पश्चिमपरस्त चिन्तन का सामाजिक आधार तैयार किया। स्वतंत्रता और विज्ञानसम्मतचेतना का आधार कमजोर हुआ। यह मान लिया गया कि भारत विभाजन के बारे में तो लोग सब कुछ जानते हैं। अब बताने लायक क्या है अच्छा यही होगा कि भारत विभाजन को हम भूल जाएं। आगे की ओर देखें,अन्य चीजों की ओर देखें। 'आगे' और 'अन्य' चीजों की ओर देखने से समस्या का समाधान नहीं हुआ बल्कि समस्या और भी पेचीदा हो गयी। 
   आज देश में साम्प्रदायिकता से लोग घृणा नहीं करते बल्कि साम्प्रदायिकता की जय-जयकार करते हैं। पहले साम्प्रदायिकता के साथ जुड़ने में हीनताबोध पैदा होता था,साम्प्रदायिक ताकतों को कोई वोट देना पसंद नहीं करता था, आज ऐसा नहीं है। आज साम्प्रदायिक ताकतों का समाज और राजनीति में सम्मानजनक दर्जा है। अनेक राज्यों में उनकी सरकारें हैं। केन्द्र में भी उनके नेतृत्व में छह साल तक सरकार चली है। साम्प्रदायिकता आज अछूत नहीं है। हाशिए की शक्ति नहीं है बल्कि केन्द्र की शक्ति है।  
   भारत विभाजन के विचारधारात्मक-मनोवैज्ञानिक प्रभावों की गहराई में छानबीन करने की बजाय हमने भारत विभाजन को इतिहास और कथा साहित्य का विषय बनाया। गल्प बनाया। उसके मनोजगत पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में विस्तार के साथ कभी चर्चा नहीं की। उल्लेखनीय है कि 15 अगस्त सन् 1947 में देश के आजाद होने के एक महीने बाद ही इलाहाबाद में हिन्दी-उर्दू के प्रगतिशील लेखकों का सम्मेलन हुआ था इसमें एक भी प्रस्ताव भारत-विभाजन पर नहीं था। यही स्थिति जनवादी लेखक संघ के घोषणापत्र की है। लेखक संगठनों में साम्प्रदायिकता पर जब भी चर्चा होती है तो उनके राजनीतिक नारों पर ही चर्चा होती है। जबकि साम्प्रदायिकता का बहुतगहरा संबंध पुनर्जन्म और अंधविश्वास के साथ है। पुनर्जन्म और अंधविश्वास की परतों को खोले बिना साम्प्रदायिकता को सामाजिक और राजनीतिक जीवन में अलग-थलग करना संभव नहीं है। हिन्दी लेखकों के सम्मेलनों से लेकर उनके साथ जुड़े लेखकों के द्वारा संपादित पत्रिकाओं में आपको सब कुछ मिलेगा यदि कोई चीज नहीं मिलेगी तो वह है अंधविश्वास और पुनर्जन्म की अवधारणा पर बहस। पुनर्जन्म और अंधविश्वास  पर बहस का अभाव स्वतंत्रता के अभाव को जन्म देता है। रचनाकार में लोकतांत्रिक विजन के विकास को अवरूध्द करता है। 
     हिन्दी के अधिकांश आलोचकों के यहां भारत विभाजन के समय का कोई भी लिखा बयान,लेख आदि नहीं मिलता। इक्का-दुक्का कहानियां हैं जिन्हें देखकर खुश होते रहते हैं। कुछ उपन्यास हैं जिनमें भारत-विभाजन को विषयवस्तु के रूप में उठाया गया है। किंतु कथा साहित्य में जो चित्रण उपलब्ध है वह भारत विभाजन के बाद किस तरह की मनोदशा बनी है उसकी ओर ध्यान नहीं देता। भारत विभाजन केन्द्रित कथा साहित्य विभाजन की विभीषिका के चित्रण तक सीमित है। जबकि समस्या उसके बाद की है। भारत विभाजन के परवर्ती विचारधारात्मक प्रभावों को खोलने वाली एक भी किताब भारत में उपलब्ध नहीं है। कम से कम हिन्दी के किसी आलोचक ने इस पहलू की ओर ध्यान हीं नहीं दिया। लेखक संगठनों के घोषणापत्र इस मामले में चुप्पी साधे हुए हैं। 
   बुनियादी तौर पर भारत विभाजन को रहस्यमय बनाया गया है। काल्पनिक बनाया गया है। भारत विभाजन को रहस्यमय बनाने में साहित्य और जनमाध्यमों की प्रधान भूमिका है। भारत विभाजन तब ही याद आता है जब कभी कोई साम्प्रदायिक दंगा हो जाता है। उसी समय हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिकता के बारे में उत्सवधर्मी चर्चाएं होती हैं,पत्रिकाओं में लेख छपते हैं। बाद में सब कुछ सामान्य हो जाता है। साम्प्रदायिकता अपने घर खुशी हम अपने घर खुशी। चंद दिनों के बाद ही भाईचारे के साथ साम्प्रदायिकता के साथ रहने लगते हैं। साम्प्रदायिकता और भारत विभाजन की जब भी चर्चा होती है तो साम्प्रदायिक ताकतों की नकली धार्मिक अंतर्वस्तु को कभी उद्धाटित नहीं किया जाता। बल्कि उलटे यही कहा जाता है कि धर्म तो ठीक है, धर्म अच्छा है। प्रत्येक धर्म इंसानियत का पाठ सिखाता है। धर्म के प्रति अनालोचनात्मक रवैयया अंतत: धार्मिकता में इजाफा करता है। धर्म को धार्मिकता से मुक्त किए बिना धर्मरिपेक्षता के भावबोध का निर्माण करना संभव नहीं है। धर्म को धार्मिकता से मुक्त करने के लिए धर्म को विज्ञान की तरह विवेचित किया जाना चाहिए। हमारे यहां धर्म है,धर्मशास्त्र है किंतु धर्मविज्ञान नहीं है। इसका अर्थ है धर्म को आलोचनात्मक ढ़ंग से खोलना,विवेचित करना। धर्मविज्ञान के बिना धर्म को धार्मिकता से बचाना संभव नहीं है। धर्म का दुरूपयोग रोकना संभव नहीं है। 
       भारत विभाजन के पहले साथ रहते थे। भारत विभाजन के बाद हिन्दू-मुस्लिम पड़ोसी हो गए। एक साथ रहने वाले पड़ोसी में कैसे तब्दील हो गए ? और ये अगर पड़ोसी हैं तो फिर विभाजन क्यों ? लड़ते क्यों हैं ? आज पड़ोसी के नाते एक-दूसरे का थोड़ा सम्मान करते हैं। किंतु जब आप किसी को पड़ोसी कहते हैं तो उसे पराया बनाते हैं। उसके प्रति उपेक्षा व्यक्त करते हैं। धीरे-धीरे पड़ोसी के साथ विवाद उठने लगे, झगड़े होने लगे और कालान्तर में हिन्दू और मुसलमानों की बस्तियां अलग बसने लगीं। हिन्दू को मुसलमानों ने अपने इलाकों अथवा घर में किराए पर मकान तक देने से मना कर दिया। सतह पर  धर्मनिरपेक्षता,भाईचारा और साम्प्रदायिक सद्भाव और वास्तव जीवन में व्यापक स्तर पर सामाजिक विभाजन सहज ही महसूस किया जा सकता है।
    आजादी के दौर में पड़ोसी के साथ शिरकत,मित्रता और साझापन था,आजादी के बाद यह कल्पना की चीज हो गया। अब पड़ोसी मूलत: बेगाना हो गया। पहले पड़ोसी करीबी था आज बेगाना है। आज पड़ोसी से न्यूनतम परिचय  तक नहीं है। सिर्फ एक-दूसरे को देखते हैं और चुपचाप निकल जाते हैं। मित्रता और शिरकत का भाव तो बहुत दूर की बात है। पड़ोसी के प्रति अनजानेपन ने हमारे हिन्दू-मुस्लिम संबंधों को भी प्रभावित किया है। लेखक के सामाजिक संबंधों को भी प्रभावित किया है। लेखन को भी प्रभावित किया है। हिन्दू और मुस्लिम लेखकों में एक-दूसरे के समाज के प्रति बेगानापन बढ़ा है। आम जीवन में हिन्दू और मुसलमानों में बेगानापन बढ़ा है। अपरिचय और अज्ञानता में इजाफा हुआ है। पहले साझा चूल्हे थे,साझा बस्तियां थीं। आज साझा चूल्हे तो दूर की बात है हिन्दू बस्तियों में किसी मुसलमान को घर भाड़े पर नहीं मिलता। मुस्लिम बस्तियों में हिन्दू रहना नहीं चाहते। यह कठोर यथार्थ है। 
   हिन्दू-मुस्लिम संबंध आरोपित संबंध है। हमें मनुष्य के संबंधों पर बातें करने पर कम और हिन्दू-मुसलमान के संबंधों पर बातें करने में ज्यादा रूचि है। मानवीय संबंध को हिन्दू-मुस्लिम संबंध ने कब और कैसे अपदस्थ कर दिया हम नहीं जानते। हिन्दू-मुस्लिम संबंधों के नाम जितनी भी बहसें हुई हैं। वे नकली बहसें हैं। ये मनुष्य की केटेगरी को केन्द्र में रखकर की गई बहस नहीं है बल्कि हिन्दू-मुसलमान केटेगरी को केन्द्र में रखकर की गई बहस है। हिन्दू-मुस्लिम केटेगरी को आधार बनाकर की गई बहस चाहे जिस परिप्रेक्ष्य से की जाए उसके गर्भ से अंतत: विभाजन ही पैदा होगा। सामाजिक और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण बढ़ेगा।  बेगानापन बढ़ेगा। भारत विभाजन ने स्वतंत्रता की चेतना को कुंद किया है और भेदों के संसार को खोल दिया । आज भेद के एक नहीं अनेक रूपों में फंस गए हैं। आज हमारे बीच में व्यापक जनसंचार है उससे भी ज्यादा भाषायी अलगाव और बेगानापन है। व्यापक अत्याधुनिक जनसंचार के कारण भाषायी संबंध मजबूत नहीं बने हैं बल्कि और भी ज्यादा वर्चस्ववादी बने हैं। भाषायी वर्चस्व ने स्थानीय भाषाओं के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा कर दिया है। यही हाल जातिभेद का है नई आधुनिक सभ्यता ने देश की आजादी के साथ जिस फूट की नींव भारत विभाजन के साथ रखी थी उसे आधुनिकता ,मीडिया और सांस्कृतिक प्रक्रियाओं ने और भी ज्यादा व्यापक बनाया है। अत्याधुनिक संचार के नेटवर्कों का विकास जितना हुआ है उतना ही अलगाव बढ़ा है। संपर्क है किंतु अलगाव के साथ ,खबर है किंतु अलगाव के साथ, देशप्रेम है किंतु अलगाव के साथ, समाजवादी संगठन हैं किंतु सामाजिक अलगाव के साथ, अपनी भाषा है किंतु सामाजिक अलगाव के साथ, अपनी नौकरी है अलगाव के साथ,व्यापार है अलगाव के साथ,राजनीति है अलगाव के साथ। कहने का तात्पर्य यह है कि विगत साठ सालों में अलगाव का इतना व्यापक कैनवास तैयार हुआ है कि हम समझ ही नहीं पाए कि आखिरकार हमारी मित्रता कहां गुम हो गयी ?

अलगाव-

     'अलगाव' को हमने कभी आधुनिक फिनोमिना के रूप में नहीं देखा। हिन्दी में दो ही लेखक हैं अज्ञेय और मुक्तिबोध इन दोनों ने 'अलगाव' को गहराई में जाकर चित्रित किया। दुर्भाग्य की बात यह है कि 'अलगाव' को देखने की बजाय हमने मुक्तिबोध में अस्मिता की खोज की। 'अलगाव' की खोज करते तो ज्यादा व्यापक समस्या को उद्धाटित कर पाते। यही हाल अज्ञेय का भी किया। अज्ञेय को आधुनिकतावादी बनाकर खारिज किया और 'अलगाव' को परायी प्रवृत्तिा मानकर अस्वीकार किया। सच यह है कि 'अलगाव' पूंजीवादी विकास प्रक्रिया का सकारात्मक और स्वाभाविक फिनोमिना है।  
      अज्ञेय और मुक्तिबोध के संदर्भ में 'अलगाव' की जब भी चर्चा उठी है उसमें अलगाव को आधुनिक राज्य से विच्छिन्न करके देखा गया। 'अलगाव' का आधुनिक राष्ट्र के साथ गहरा संबंध है। आधुनिक राष्ट्र के उदय के साथ 'जीवन का निजीकरण' होता है। 'पृथक्कृत व्यक्तिनिष्ठता' पैदा होती है। ये सारी चीजें एक विशिष्ट ऐतिहासिक अवस्था की देन हैं। प्राचीनकाल में अलगाव का आदर्शकवि कालिदास है और अलगाव का आदर्श रस श्रृंगार रस का साहित्य है।  अलगाव का जिस तरह का महिमामंडन कालिदास के यहां है वैसा अन्यत्र कहीं नहीं है। कालिदास ने ऐसे नायक को पेश किया जो सर्वगुण सम्पन्न है। आनंद में मगन है। आनंद को व्यक्त करता है। कालिदास के पात्र जो कुछ करते हैं अपने लिए करते हैं। कालिदास के नायक प्रेम करते हैं अपने लिए ,युध्द करते हैं अपने लिए, अकेले ही सारी मुसीबतों का सामना करते हैं। एक तरह से समूची सृष्टि के साथ संघर्ष करते हैं। 
    प्राचीनकालीन समाज में रची गई रचनाओं को अलगाव के साथ सबसे पहले जोड़कर कार्ल माक्र्स ने देखा था। इसका आरंभ कार्ल माक्र्स ने अपनी डाक्टरेट थीसिस से किया था और बाद में अन्य रचनाओं में इसका विकास किया। माक्र्स ने एपीक्यूरियन कवियों को 'रोम के नायक कवि' की संज्ञा दी थी। यही स्थिति हमारे कालिदास की है। माक्र्सवादी और गैर माक्र्सवादी आलोचकों ने कालिदास की रचनाओं में सामयिक संस्कृति और समाज की बहुत खोज की है किंतु कभी अलगाव की अवधारणा की रोशनी में रखकर विचार नहीं किया। कालिदास ऐसा कवि है जिसका सभी चीजों से संघर्ष होता है और सभी चीजें नायक के साथ युध्द करती नजर आती हैं। कालिदास के पात्र आरंभ से ही अपने बारे में सोचते हैं, अपने लिए संघर्ष करते हैं और आनंद लेते हैं। अपने लिए सर्ंघष करना और आनंद मनाना यही अलगाव की धुरी है। वे स्वयं के प्रति कठोर हैं, इनके सामने प्रकृति अपनी सारी अच्छाईयां खो देती है, अच्छाईयों के लिए शब्द अधूरे लगते हैं। अच्छाईयों के लिए शब्द नहीं मिलते। 
   एपीक्यूरियन कवियों का नारा था वार ऑफ ऑल अगेंस्ट ऑल। यानी सबके खिलाफ और सबके लिए जंग। यही नारा भारत के प्राचीन कवियों का भी था। प्राचीन कवियों के यहां जीवन और आनंद के बीच अंतराल नहीं था। सारी चीजें शरीर में केन्द्रित थीं। शरीर प्रमुख विमर्श था। श्रृंगार का समूचा विमर्श शरीर और आनंद का विमर्श है। रस का सारा विमर्श शरीर को केन्द्र में रखता है। नख-शिख वर्णन में उसे सहज ही देखा जा सकता है। नायक का शरीर कैसा है, आंखें कैसी हैं, पीड़ा कैसी है, चिन्ताधारा कैसी है और नायक जब चिन्ता में घिरा होता है तो कैसे कृशकाय हो जाता है और जब नायक युध्दरत होता है तो उसकी भंगिमाएं,शारीरिक सौष्ठव किस तरह का होता है ? इसी तरह नायिका जब कृति में आती है तो सारी ऊर्जा उसके शरीर के सौंदर्य वर्णन पर ही खर्च की गई। कहने का तात्पर्य यह कि प्राचीन कवि 'स्व' से बेहद प्यार करता है। शरीर से बेहद प्यार करता है। 
     प्राचीन महाकाव्यों में निज के बहाने शरीर और उसके आनंद की सृष्टि पर जोर है। शरीर का विमर्श अलगाव का विमर्श है। भगवान के बारे में भी जब कवि रूपायन करने बैठा तो शरीर ही प्रमुख विषयवस्तु था। शरीर,स्व,आनंद और निजता ये चार चीजें हैं जो अलगाव के कारण कृति के केन्द्र में आयीं। अन्तर्विरोधों के बिना इन चारों चीजों का विकास संभव नहीं है। लेखक के अस्तित्व की परिस्थितियां उसका जीवन से अलगाव पैदा करती हैं। अलगाव के कारण लेखक बाहरी चीजों को आत्मसात करता है और अपने अलगाव को अभिव्यक्त करता है। इस क्रम में वह अपने अस्तित्व के रूपों से स्वायत्ता नजर आता है। परम नजर आता है। माक्र्स के शब्दों में यह 'अमूर्त व्यक्तिनिष्ठता' है। 
     माक्र्स ने प्राचीन काल में अलगाव का उत्पत्तिापरक रूप में विश्लेषित करते हुए ' पृथक्कृत व्यक्तिनिष्ठता' और  अमूर्त व्यक्तिनिष्ठता की चर्चा की थी,यह चर्चा नकारात्मक रूप में की थी, माक्र्स के अनुसार आधुनिक राष्ट्र के उदय के साथ यह धारणा नकारात्मक नहीं रह जाती बल्कि सकारात्मक हो जाती है। सकारात्मक शक्ति बन जाती है। सकारात्मक का अर्थ है 'वास्तव' और 'अनिवार्य'। इसके लिए किसी नैतिक स्वीकृति की जरूरत नहीं है। इस ऐतिहासिक प्रवृत्तिा का आधुनिक राष्ट्र में 'आत्मकेन्द्रित' रूप में विकास होता है। 'पृथक्कृत व्यक्तिनिष्ठता ' के लिए आधुनिक राष्ट्र स्वाभाविक परिस्थितियां पैदा करता है। 
      अलगाव की धुरी है 'आत्मकेन्द्रिकता' इसका आधार है  सबके खिलाफ और सबके लिए जंग की धारणा। इस धारणा के आधार पर आंतरिक वैधता ,प्रकृति के सार्वभौम नियमों की वैधता और आंतरिक अनुभूति को महत्वपूण्र् ा माना गया। कार्ल माक्र्स ने  क्रिटिक ऑफ दि हेगेलियन फिलोसफी ऑफ राइट (1843) में हेगेल के अलगाव संबंधी नजरिए की विस्तार के साथ समीक्षा करते हुए आधुनिक राष्ट्र का पुराने समाज की परिस्थितियों के साथ अंतर किया। आधुनिक समाज व्यक्ति को अपने साथ एकीकृत नहीं करता, कुछ तो यह संयोग की बात है और कुछ व्यक्तिगत प्रयासों के ऊपर भी निर्भर करता है। माक्र्स ने लिखा है बुर्जुआ समाज में व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार सुख भोगता है। राजनीतिक अर्थ में बुर्जुआ समाज में व्यक्ति अपने को राष्ट्र से पृथक् कर लेता है। अपनी निजी अवस्थाओं को राष्ट्र से अलग कर लेता है। यही वह बिंदु है जहां उसकी मनुष्य के रूप में महत्ताा सामने आती है। यों भी कह सकते हैं कि राष्ट्र के सदस्य के रूप में महत्ताा सामने आती है। समुदाय के सदस्य के रूप में और मानवीय निर्धारणकत्तर्ाा के रूप में महत्ताा उद्धाटित होती है। इसी तरह व्यक्ति के अन्य गुण भी सामने आते हैं और वे उसके अस्तित्व को निर्धारित करने में मदद करते हैं। 
     माक्र्स के अनुसार मनुष्य का व्यक्ति के रूप में अस्तित्व बुनियादी तत्व है। बुर्जुआ समाज में व्यक्तिवाद और व्यक्तिगत अस्तित्व ही अंतिम सत्य है। बाकी सब चीजें जैसे श्रम,गतिविधियां बगैरह इसके साधन हैं। माक्र्स ने लिखा है बुर्जुआ समाज में वास्तव आदमी निजी व्यक्ति (प्राइवेट इण्डिविजुअल) होता है। यह ऐसा व्यक्ति है जो मूलत: बाहरी और भौतिक है। कार्ल माक्र्स की अलगाव की धारणा का सुनियोजित विकास दि मेनुस्क्रिप्टस ऑफ 1844' में होता है। इस कृति में माक्र्स उन तमाम धारणाओं को विकसित करते हैं जो  क्रिटिक ऑफ हेगेलियन फिलोसफी ऑफ राइट में पहले व्यक्त की गई थीं। अलगाव के बारे में कार्ल माक्र्स को विस्तार के साथ पेश करने का प्रधान मकसद इस तथ्य की ओर ध्यान खींचना है कि अज्ञेय ने जिस अलगाव और व्यक्तिनिष्ठता को अपने उपन्यासों में अभिव्यक्ति दी है वह आधुनिक बुर्जुआ समाज का सकारात्मक तत्व है ,दुर्भाग्य की बात यह है कि इसे नकारात्मक तत्व मानकर अज्ञेय के उपन्यासों की गलत और अनैतिहासिक व्याख्याएं की गई हैं।   
             हिन्दी आलोचना में आलोचनात्मक ऊर्जा का विगत दो दशकों में ह्रास हुआ है। आलोचना में एक खास किस्म का आलस्य नजर आता है। जगत के प्रति एक खास किस्म का ठंड़ापन है। यथार्थ का आतंक इस कदर छाया हुआ है कि डर के मारे लेखक संगठनों ने यथार्थ को देखना ही बंद कर दिया है। अब वे यथार्थ पर कम और निर्मित यथार्थ पर ज्यादा बातें करते हैं। कृत्रिम या मृत मुद्दों पर उलझे रहते हैं। जैसे 1857 कासंग्राम,प्रेमचंद का जन्म दिन या श्सताब्दी अन्य लेखक का जन्म दिन, शोकसभा, किसी बोगस विषय पर सेमीनार जैसे हिन्दी जातीयता,हिन्दी संस्कृति आदि। त्रासदी के सामयिक सवालों पर वे कम से कम ध्यान देते हैं। लेखक के अधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा के सवालों की उपेक्षा करते हैं।
      कृति और कृतिकार के बारे में मीडिया पापुलिज्म के सहारे प्रायोजित चर्चाएं हो रही हैं। मीडिया पापुलिज्म के आधार पर निर्मित आलोचना लिखी जा रही है। पापुलिज्म और मित्रता के आधार पर विकसित आलोचना इस तथ्य का संकेत है कि साहित्य का ह्रास हो रहा है। नव्य उदारतावाद के दौर में पापुलिज्म और मित्रता संघर्ष की प्रेरणा नहीं देते। अराजनीतिक माहौल बनाते हैं।  आलोचना नपुंसक हो जाती है। यह आलोचना में प्रतिवाद और वैकल्पिक दृष्टिकोण के ह्रास का संकेत है। 
         आपात्काल के पहले साहित्यालोचना का चलन था आपातकाल के बाद 'साहित्य प्रबंधन' होने लगा । 'आलोचना प्रबंधन' होने लगा। 'प्रबंधन' संकट का संकेत है। विकल्पों के अभाव की सूचना है। रूढियों के बोलवाले की अभिव्यक्ति है। अब विमर्श पहले तय होते हैं  बाद में शुरू होते हैं। संकट की इस अवस्था में जिन विषयों पर चर्चाएं हो रही हैं वे हमारे तय किए विषय नहीं हैं बल्कि ये वे विषय हैं जो अमरीकी नीति निर्धारकों ,अमरीकी दानदाता कंपनियों और अमरीकी मीडिया ने तय किए हैं। ये संस्थाएं अपने एजेण्डे पर राष्ट्रीय बौध्दिक वर्ग और लेखक संगठनों को आन्दोलित और सक्रिय करने में सफल रही हैं। इनमें भारत का परिप्रेक्ष्य ,भारत के हित और साधारणजन के हित नदारत हैं। 
       जिस तरह साहित्य में त्रासदी भूल गए उसी तरह आयरनी भी गायब हो गयी ,उसका विमर्श भी गायब हो गया। आज बड़ी पूंजी परिवर्तन पैदा कर रही है। पूंजी का प्रवाह चीजों को बदल रहा है। इससे साहित्य भी बदला है। भाषायी चमक और स्टाइल पर ज्यादा मेहनत की जा रही है। लेखक के साथ भाषा का व्यवहार बदल गया है। 
  पहले लेखक जब भाषा का इस्तेमाल करता था तो व्यक्तिगत आजादी और आत्मगतता को व्यक्त करते हुए स्पेस और टाइम का अतिक्रमण कर जाता था। आपातकाल के बाद लेखक ने 'स्व' और वर्तमानकेन्द्रित भाषा पर व्यापक जोर दिया है। दैनन्दिन जीवन के अनुभव,दैनन्दिन विवाद, रोजमर्रा के राजनीतिक सवालों को वर्तमान की भाषा में रचा है। फलत: रचना की काल की सीमा के अतिक्रमण की क्षमता भी खत्म हो गयी है। अब जितनी जल्दी रचना जनप्रिय बनती है उतनी ही जल्दी लोग उसे भूल जाते हैं। रचना की जनप्रियता रचना से पैदा नहीं हो रही बल्कि उसे प्रायोजित करके पैदा किया जा रहा है। यह कृत्रिम जनप्रियता है। जन-संपर्क के फार्मूले से उपजी जनप्रियता है इसका साहित्य की गुणवत्ताा से कोई संबंध नहीं है।  
     आजादी के दौरान पैदा हुई प्रामाणिक अनुभूति ने 'स्व' की खोज, 'स्व' के साथ संवाद को जन्म दिया। विकल्पों को खारिज करने में मदद की। उस दौर में लेखक मनुष्य के अलावा किसी भी विकल्प को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। लिंग,जाति,धर्म,अस्मिता आदि न जाने कितने विकल्प उसके सामने आए उन्हें 'स्व' के सामने खारिज करता चला गया। 'स्व' के सामने उसने सबको 'नकार' दिया। यही नकार का भाव उसकी सबसे बड़ी संपदा है। उसने यह जानने की कोशिश की कि नकार क्या है ? इस क्रम में लेखक अपने को चीजों के बाहर रखकर देखता था। फलत: मुक्त था। यही उसकी आजादी का आधार था। लेखक जब अपने को बाहर रखकर चीजों को चित्रित करता है तो उसकी चेतना स्वयं से भी आजाद होती है। 
     छायावाद की कविता का समूचा ढ़ांचा इस पैटर्न पर टिका है। छायावाद का लेखक 'स्व' को बाहर रखकर विषयवस्तु को चित्रित करता है। लेखक के 'स्व' को यदि विषय में शामिल कर लिया गया होता तो आजादी की अभिव्यक्ति संभव नहीं थी। 'मैं' शैली में कविता लिखते हुए वह 'स्व' को पृथक रखता है फलत: आजादी का उपभोग कर  पाता है। 'सरोज स्मृति' को 'स्व' को शामिल करके लिखना संभव नहीं है। 'स्व' को बाहर रखकर ही लिखना संभव है। 'कामायनी' में भी यही पध्दति इस्तेमाल की गई है।  लेखक ने कभी अपने 'स्व' को किसी चरित्र विशेष में समाहित नहीं किया। लेखक का 'स्व' यदि रचना में शामिल हो जाएगा तो 'स्व' भी आब्जेक्ट बन जाएगा और ऐसी अवस्था में लेखक आजादी का उपभोग नहीं कर पाएगा। आजादी के दौर का साहित्य इस अर्थ में विशिष्ट है कि उसने मनुष्य के यथार्थ को प्रतिष्ठित किया। मनुष्य का यथार्थ ही वह शक्ति है जो साहित्य में अभिव्यक्ति पाता है। हमने भूल की है कि उसे लेखक के 'स्व' के साथ गड्डमड्ड कर दिया है। आजादी का एहसास तब ही होता है जब उसे 'स्व' से अलग कर दिया जाए।  लेखक जब किसी विषयवस्तु का चित्रण करता था तो अपने को उससे मुक्त करके करता था। चीजों को स्वतंत्र रूप से देखकर चित्रित करता था। 'स्व' को शामिल करके वस्तुगत चित्रण संभव नहीं है। हम बार-बार यही बताते रहे हैं कि लेखक की निजी अनुभूतियां और निजी जीवन रचना में अभिव्यक्ति हुआ है। वस्तुत: यह बात सही नहीं है। 'स्व' को शामिल करके वस्तुगत अभिव्यक्ति संभव नहीं है। खासकर जब आजादी का उपभोग करना हो तो 'स्व' को बाहर रखकर ही चित्रण संभव है। लेखक जब रचना लिखता है तो लिखने के लिए उसका रचना के बाहर रहना बेहद जरूरी है। रचना में शामिल होकर वस्तुगत भावों की अभिव्यक्ति और आजादी का उपभोग संभव नहीं है।
   लेखक जब किसी विषय का चित्रण करता है तो उसका प्रधान लक्ष्य होता है संबंधित विषयवस्तु की ज्ञानात्मक संवेदना को रूपान्तरित करना। वह विषयवस्तु को पेश नहीं करता बल्कि विषयवस्तु के ज्ञान को पेश करता है। जगत के बारे में अपनी चेतना को पेश करता है। चेतना में संचित भावों को पेश करता है। ऐसा करते हुए वह दावा करता है कि उसने जो कुछ महसूस किया उसी को व्यक्त कर रहा है और इसमें किसी किस्म की मिलावट नहीं है। लेखक की चेतना के ये रूप अभिव्यंजित होने के बाद गायब हो जाते हैं। वे लेखक की चेतना में स्थायी रूप में रहते नहीं हैं। अत: चेतना अथवा अनुभूतियों की अभिव्यंजना को विषयवस्तु नहीं समझना चाहिए। यह लेखक का पृथक्कृत 'स्व' है। लेखक को लिखते समय 'स्व' के बारे में कुछ भी पता नहीं होता। 
   लेखक जिस चीज का चित्रण करता है वह तो 'नकार' है। 'नकार' के आधार पर चीजें रचना में अभिव्यंजित होती हैं। 'स्वीकार' के आधार पर रचना में चीजों की अभिव्यंजना नहीं होती।  इसी अर्थ में लेखक का विषय के साथ बाहरी संबंध होता है। चीजों के साथ बाहरी संबंध न तो वस्तुगत होता है और न आत्मगत ही होता है। बल्कि इन दोनों के बीच में झूलता रहता है। लेखक के विचार और चीजों के बीच में सापेक्ष स्वायत्ताता बनी रहती है। जिसके कारण व्यक्ति अन्य के प्रति अपनी चेतना,सक्रियता और भूमिका को निर्धारित करता है। लेखक अपनी स्वतंत्रता के जरिए अन्य की चेतना को प्रभावित करता है। लेखक अपनी भावनाओं को अन्य के लक्ष्य में रूपान्तरित कर देता है। लेखक जब अन्य को अपनी भावनाएं आब्जेक्ट के रूप में पेश करता है तो उन्हें संभावना के रूप में पेश करता है। लेखक की अनुभूतियां अन्य के ऑब्जेक्ट के रूप में तब्दील होती हैं, संभावनाओं के रूप में। 
    हिन्दी की सबसे बड़ी त्रासदी है कि जिस दौर में सारी दुनिया 'व्यक्तिनिष्ठता' का महाख्यान रच रही थी, हिन्दी में उसका घनघोर विरोध हो रहा था। पूंजीवाद हो और 'व्यक्तिनिष्ठता' का जयगान न हो , यह संभव नहीं है। व्यक्ति की अपनी निजी इच्छा,प्रसन्नता, परंपरागत मूल्यों के प्रति सद्भाव और सहिष्णुता और व्यक्तिगत अस्तित्व के सवालों को प्रमुखता देना सामान्य चीज है। आपातकाल के पहले मूल्यों को बदलने की बातें ज्यादा होती थीं, आपातकाल के बाद मूल्यों को मानने पर जोर दिया गया। 'व्यक्तिनिष्ठता' और 'निजता' पर जोर दिया गया।  जो जैसा है उसे वैसा ही रहने दो की  धारणा पर जोर दिया गया। 
      अब मूल्यों के लिए नयी ऊर्जा कहीं से नहीं मिल रही थी ,पुरानी ऊर्जा खत्म हो चुकी थी। प्रेरणा स्रोत बदल गया था। पहले समाजवाद प्रेरणा स्रोत था अब लोकतंत्र प्रेरणा स्रोत था। अब हर चीज में जनवाद की  मांग की जाने लगी। पहले हर चीज में समाजवाद की मांग की जाती थी। अब जनवाद को समृध्द करने की मांग की जाने लगी। लोकतंत्र के प्रति यह प्रेम ऐसे समय में उमड़ा था जब लोकतंत्र क्षयिष्णु अवस्था में था। इसके बावजूद लोकतंत्र से बेहतर और कोई विकल्प नहीं था। 
    आपात्काल के बाद क्षेत्रीय राजनीति, क्षेत्रीय पूंजीपतिवर्ग और बड़े पैमाने पर मध्यवर्ग का विकास होता है। गठबंधन राजनीति का राष्ट्रीय स्तर पर श्रीगणेश होता है। क्षेत्रीय दलों के बिना केन्द्र में सरकार बनना असंभव हो जाता है। भारत की अर्थव्यवस्था का विश्व अर्थव्यवस्था के साथ एकीकरण आरंभ होता है। कल्याण राज्य का क्रमश: लोप होता है। दैनिक जीवन में उपभोग की महत्ताा बढ जाती है। नई आर्थिक-सांस्कृतिक संरचनाओं का उदय होता है। मीडिया का विस्फोट होता है। देश पूरी तरह इलैक्ट्रोनिक मीडिया क्रांति में दाखिल होता है। सामाजिक -राजनीतिक ध्रुवीकरण के उपकरण के तौर पर मंडल कमीशन ,राममंदिर आन्दोलन ,ओबीसी और दलित राजनीति के एजेण्डे का उदय होता है इससे साधारण आदमी को सामाजिक-राजनीतिक प्रतिष्ठा मिलती है। विचारणीय सवाल यह है कि वर्गीय हितों की राजनीति गरीब को सामाजिक प्रतिष्ठा और एजेण्डा क्यों नहीं बना पायी ?  राजनीति,संस्कृति और साहित्य का आधुनिकतावादी मॉडल अपदस्थ होता है। हिन्दी आलोचना में अतीतपंथी नजरिए की अप्रासंगिकता बढ़ी। अब आलोचक और लेखक वर्तमान के सवालों पर ज्यादा बोलने लगते हैं। 
    असल बात यह कि हिन्दी आलोचना अपने वर्तमान से भागती रही है। आपातकाल के बाद पहली बार ऐसा होता है कि रचना और आलोचना दोनों के सामने वर्तमान का मूल्यांकन करना प्रमुख कर्म हो उठता है। हिन्दी आलोचना में जनवाद पदबंध का आना कहीं न कहीं इस तथ्य की सूचना भी है कि समाजवादी और आधुनिकतावादी मॉडल यथार्थ को व्याख्यायित करने में मदद नहीं कर रहा था। साहित्य में प्रवृत्तिागत अथवा मूल्यगत नामकरण अप्रासंगिक होने लगे।  मसलन् जिसे जनवादी कहा जा रहा है क्या उसके यहां प्रगतिवादी नजरिया नहीं है, अथवा जिसे प्रगतिवादी कहा जा रहा है क्या उसके साहित्य में जनवादी नजरिया नहीं होता ? क्या आधुनिकतावादी खासकर हिन्दी के आधुनिकतावादी जनवाद के पक्ष में नहीं थे ?  क्या हम भूल गए कि आधुनिकतावादी अज्ञेय ने आपातकाल का विरोध किया था और शानदार आपातकाल विरोधी काव्य संकलन दिया था महावृक्ष के नीचे, क्या सोशलिस्ट को जनवादी नहीं कहते ? भारत में तो प्रतिक्रियावादी भी लोकतंत्र का हिमायती होता है जैसे भाजपा और मुस्लिम लीग। बुनियादी बात यह कि आलोचना को नामकरण की प्रवृत्तिा से बचना चाहिए, साहित्य में नामकरण अथवा लेबिल लगाने की प्रवृत्तिा से बचना चाहिए। लेबिल लगाने की संस्कृति बोगस संस्कृति है। उसकी हिमायत में लिखा गया समूचा तर्कशास्त्र बोगस है। 
  सन् साठ के बाद हिन्दी में बड़े पैमाने पर बागी,विद्रोही और क्रांतिकारी साहित्य लिखा गया है। इसके प्रति भी हमें संतुलित नजरिया बनाने की जरूरत है। बागी लेखकों को रोमैंटिक क्रांतिकारी कहकर दरकिनार नहीं किया जा सकता। बागी लेखकों में शोषण और अन्याय के प्रति सख्त घृणा है। इसका प्रतिवाद में ये किसी भी हद तक जा सकते हैं। अनेक इस भावना के कारण लंबी जेल यात्राएं भी कर चुके हैं। बागी वह है जो अभिव्यक्ति का जोखिम उठाता है। जीवन में जोखिम उठाए बगैर सम्मान नहीं मिलता। हिन्दी में बागी साहित्य है किंतु बागी आलोचना नहीं है। उल्लेखनीय है जोखिम के अभाव में आलोचना प्रभावहीन और रूढिबध्द होती है। आलोचना में बागी भाव का अर्थ है वर्तमान पर बोलना। आलोचनात्मक माहौल बनाना। आलोचना में बागी भाव को अभिव्यक्त करने की बजाय  अतीत का आख्यान खूब लिखा गया है। अतीत में जाने का प्रधान कारण था वर्तमान और बागी भाव से पलायन। हिन्दी में जिन लेखकों ने बागी भाव को अभिव्यक्ति दी और वर्तमान पर केन्द्रित नजरिए को प्रतिपादित किया उनकी व्यापक उपेक्षा हुई। यहां तक कि आलोचना ने उन्हें किसी न किसी बहाने ठंडे बस्ते में डाल दिया। ऐसे अनेक लेखक हैं जो हिन्दी में बागी भाव को व्यक्त करते हैं। किंतु उन लेखकों में से सुविधानुसार चुनकर ही तदर्थवादी ढंग से चर्चाएं हुई हैं। 
    बागी लेखन के कुछ साझा तत्व है, 1. मनुष्य के शोषण को खत्म करना ,2. मनुष्य को स्वाभाविक अवस्था में देखना ,3. परिवर्तनकामी बहुलतावाद की हिमायत। हिन्दी में बागी और क्रांतिकारी दोनों ही किस्म के लेखक हैं। हिन्दी में बागी और क्रांतिकारी लेखकों में कोई टकराहट नहीं है। ये दोनों ही हिन्दी साहित्य की साझा धरोहर हैं। बागी और क्रांतिकारी साहित्य को पर्याप्त रूप से आलोचना के द्वारा न समझ पाने का प्रधान कारण है आलोचना का सत्ताा विमर्श और अतीत विमर्श में उलझे रहना। इसके अलावा सांस्कृतिक भिन्नता और वर्चस्व की संरचनाओं की गंभीर समझ का अभाव। बागी और क्रांतिकारी लेखकों के यहां बगावत और क्रांति का अनेक स्थानों पर छद्म रूपायन भी मिलता है। इस छद्म क्रांतिकारिता और बागीपन की गंभीर आलोचना होनी चाहिए। इसके महिमामंडन से बचना चाहिए। 
   बागी और क्रांतिकारी लेखकों की सकारात्मक विशेषता है कि वे शोषण और पतनशीलता के खिलाफ हैं। वे इन दो चीजों के सामने समर्पण करने को तैयार नहीं हैं। जाहिर है बागी और क्रांतिकारी साहित्य से क्रांतिकारी राजनीतिक संरचनाएं पैदा नहीं होतीं किंतु इस तरह की रचनाएं क्रांतिकारी और परिवर्तनकामी शक्तियों के लिए वैचारिक माहौल बनाती हैं। दूसरी बुनियादी बात यह कि रचना अथवा कला में हिंसा या सेक्स की अभिव्यक्ति नहीं होती। रचना तो महज रचना है उसे हिंसा के प्रचारक अथवा हिंसा की अभिव्यक्ति के रूप में देखना बेवकूफी है। बागी और क्रांतिकारी रचनाकार सही मायनों में अभिव्यक्ति की आजादी के सर्जक हैं। इन्हें रोमैंटिक क्रांतिकारी या हिंसा के प्रचारक कहकर खारिज करना सही नहीं होगा। ये सही अर्थों में वर्तमान की नब्ज और स्वतंत्रता की शक्ति को पहचानते हैं।
   मौजूदा युग में किसी भी एक रणनीति, एक विचारधारा और एक ही नजरिए से समाधान संभव नहीं है। यदि किसी एक ही मार्ग का अनुसरण करते हैं और उसे थोपते हैं तो विनाश अवश्यंभावी है। सही दिशा क्या है और सही रणनीति क्या होगी ? इसका दावा नहीं किया जा सकता। अब हम किसी भी चीज के बारे में अंतिम तौर पर कुछ भी नहीं कह सकते। आज साझा और मिश्रितमार्ग चुनने की जरूरत है,एकाधिक मार्ग पर चलने, एकाधिक रणनीतियों का प्रयोग करने और साहित्य में अन्तर्विषयवर्ती नजरिए की जरूरत है। आज कोई भी रास्ता चुनें 'अन्य' के लिए स्थान देना होगा। जिससे 'अन्य' भी अपना विकास कर सके। अपने को व्यक्त कर सके। ये सारी स्थितियां पैदा हुई हैं भूमंडलीकरण,अत्याधुनिक संचार और उपग्रह सूचना प्रवाह के कारण। इस मुक्त प्रवाह को बनाए रखना बेहद जरूरी है। 
   इस परिप्रेक्ष्य में हमें हिन्दी के तीनों लेखक संगठनों की आंतरिक कार्यप्रणाली पर गंभीरता के साथ विचार करना चाहिए। कम से कम जनवादी लेखक संघ के साथ अपने लंबे संबंध के अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि इस संगठन में लोकतांत्रिक पारदर्शिता का जबर्दस्त अभाव है। तकरीबन यही स्थिति अन्य संगठनों की भी है। लोकतांत्रिक पारदर्शिता तब तक पैदा नहीं होगी तब तक लेखकों के अधिकारों के संघर्ष को ये तीनों संगठन अपना प्रधान लक्ष्य नहीं बनाते। लेखकों के अधिकारों के लिए संघर्ष का अभाव ही वह बुनियादी स्रोत है जिसके जरिए अलोकतांत्रिक सत्तााकेन्द्र हस्तक्षेप करते हैं। सवाल उठता है क्या हिन्दी लेखकों की समस्याएं नहीं हैं ? क्या इन तीनों संगठनों ने उन समस्याओं को सूचीबध्द करके लेखकों को एकजुट करने और फिर उस पर व्यापक आन्दोलन खड़ा करने का कभी प्रयास किया। क्या उनके प्रयासों में निरंतरता है ? साम्प्रदायिकता,धर्मनिरपेक्षता आदि पर सेमीनार करना आसान है किंतु लेखकों की समस्याओं पर आन्दोलन करना बेहद मुश्किल काम है। हिन्दी के लेखक आज गंभीर संकट से गुजर रहे हैं। यह संकट क्या है और इसके कितने व्यापक आयाम हैं ? लेखक नहीं जानते। कहीं से भी लेखकीय अधिकारों के लिए संघर्ष की आहट सुनाई नहीं देती। स्वतंत्रता के लिए मर मिटने की आग नजर नहीं आती। पता नहीं दिमागी गुलामी से मुक्ति का घोषणापत्र कब लिखा जाएगा ?

इति‍हास का आधार प्रेमचंद क्‍यों नहीं

              हिन्दी साहित्य के दो महत्वपूर्ण इतिहास ग्रंथ रामचन्द्र शुक्ल का 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखित ' हिन्दी साहित्य की भूमिका' का प्रकाशन एक दशक के दौरान होता है, यह दशक प्रेमचंद के साहित्य का चरमोत्कर्ष भी है। शुक्लजी और द्विवेदीजी ने प्रेमचंद की उपेक्षा करके क्रमश: तुलसीदास और कबीर को इतिहासदृष्टि का आधार क्यों बनाया ? शुक्लजी ने छायावाद से 'कल्पना' और द्विवेदीजी ने प्रगतिशील आंदोलन से 'विचारधारा' को ग्रहण करते हुए अपनी इतिहासदृष्टि का निर्माण किया। आज ये दोनों ही तत्व अप्रासंगिक हैं। मजेदार बात यह है कि उस समय भी ये दोनों तत्व प्रेमचंद के सामने बौने थे। ऐसी अवस्था में प्रेमचंद को इतिहासदृष्टि का आधार न बनाकर तुलसी और कबीर के आधार पर हिंदी को कैसी इतिहासदृष्टि मिली ? क्या इससे मध्यकालीनबोध पुख्ता हुआ या कमजोर हुआ ? छायावाद और प्रगतिशील आंदोलन अब इतिहास की चीज हैं। किंतु प्रेमचंद नहीं हैं ? 
     हिंदी के आलोचकगण प्रेमचंद को अपनी इतिहासदृष्टि का आधार बनाने से कन्नी क्यों काट रहे हैं ? प्रेमचंद के नजरिए के बुनियादी तत्वों को आत्मसात करके साहित्येतिहास लिखा जाएगा तो ज्यादा बेहतर इतिहास बनेगा। बुनियादी सवाल है क्या प्रेमचंद को आधार बनाकर साहित्येतिहासदृष्टि का निर्माण संभव है ? जी हां संभव है।  
       प्रेमचंद पूरी तरह आधुनिक लेखक है। कम्पलीट आधुनिक लेखक के उपलब्ध रहते हुए आखिरकार  इतिहासकारों को मध्ययुगीन साहित्यकार को अपनी इतिहासदृष्टि का आधार बनाने की जरूरत क्यों पड़ी ? तुलसी या कबीर के नजरिए से प्रभावित इतिहासदृष्टि मौजूदा युग के लिहाज से एकदम अप्रासंगिक है। इसमें मध्यकालीनता के दबाव चले आए हैं। इनका तमाम किस्म की प्रतिक्रियावादी ताकतें और निहित स्वार्थी तत्व सांस्थानिक तौर पर दुरूपयोग कर रहे हैं। यही वजह है मध्यकालीनता आज भी हिंदी विभाग गढ़ बने हुए हैं। 

इतिहास आधुनिक अनुशासन है। इसके निर्माण का नजरिया भी आधुनिकयुग से ही लिया जाना चाहिए। सम्प्रति इतिहासदृष्टि के अनिवार्य तत्व हैं बहुभाषिकता, बहुस्तरीय यथार्थ ,संपर्क और संवाद। इन चारों तत्वों के आधार पर साहित्येतिहास पर विचार किया जाना चाहिए। ये चारों तत्व प्रेमचंद के यहां व्यापक रूप में मिलते हैं। इन तत्वों को लागू करने से मौजूदा दौर में इतिहास के सामने जो चुनौतियां आ रही हैं उनके सटीक समाधान खोजने में मदद मिलेगी। खासकर साहित्येतिहास को लेकर जो रूढिवाद पैदा हुआ है उससे मुक्ति मिलेगी। साथ ही उन तमाम विवादास्पद क्षेत्रों को भी साहित्य का अंग बनाने में मदद मिलेगी जिन्हें हम दलित साहित्य,स्त्री साहित्य,शीतयुध्दीय साहित्य,जनवादी साहित्य आदि कहते हैं।

    प्रेमचंद ने खुले पाठ की हिमायत की है। पारदश्र्शिता को पाठ का अनिवार्य हिस्सा बनाया है। इस परिप्रेक्ष्य में हमें प्रत्येक को पाठ खोलना चाहिए। पाठ के खुलेपन की बात करनी चाहिए। व्याख्याकार हमेशा पाठ से संवाद के दौरान बाहर होता है। अर्थ के बाहर होता है। पाठ का अर्थ संदर्भ हमेशा दृश्य अर्थ संदर्भ से जुड़ता है। वक्तृता में अनेक अर्थ होते हैं। पाठ अनेक ध्वनियों से भरा होता है। भाषिक अर्थ अमूमन गुप्त होता है। संबंधित युग का भाषिक अर्थ सांस्कृतिक संदर्भ के उद्धाटन से ही बाहर आता है। पाठ को पाठक केन्द्रित नजरिए से पढ़ा जाना चाहिए। पाठक केन्द्रित रणनीति के कारण डाटा को आप भिन्न नजरिए से देखते हैं।
       प्रेमचंद जिस समय उपन्यास लिख रहे थे वह समय बहुस्तरीय यथार्थ के रूपायन का युग है। उस युग में अनेक आवाजें हैं। ये आवाजें उनके विभिन्न उपन्यासों में देखी जा सकती हैं। वहां एक ही विचारधारा का चित्रण नहीं है, एक ही वर्ग अथवा सिर्फ पसंदीदा वर्ग का चित्रण नहीं है। वह एक ही साथ विषय और चेतना के विभिन्न रूपों को चित्रित करते हैं। उनमें 'सहस्थिति' और 'संपर्क' का चित्रण करते हैं। सामाजिक जीवन की अनेक ध्वनियों को अभिव्यंजित करते हैं। बहुस्तरीय अन्तर्विरोधी चीजों में शिरकत करते हैं। उनके यहां विभिन्न वर्गों के बीच 'तनाव' ,'अन्तर्विरोध' और 'संपर्क' एक ही साथ देख सकते हैं। उनके उपन्यासों की बहुस्तरीय चेतना एक-दूसरे के साथ संपर्क करती है। पूंजीवादी वातावरण की अनछुई चीजों, विभिन्न लोगों और सामाजिक समूहों को पहलीबार साहित्य में अभिव्यक्ति मिलती है। उनके इस तरह के चित्रण से व्यक्तिगत अलगाव कम होता है। 
    प्रेमचंद पहले बड़े लेखक हैं जिन्होंने सामाजिक जीवन में बहुस्तरीय यथार्थ को स्वीकृति दी  है,उसकी तमाम संभावनाओं को समानता के धरातल पर खोला है। वह यथार्थ के किसी भी रूप के साथ भेदभाव नहीं करते। वह इस तथ्य को भी चित्रित करते हैं कि विभिन्न वर्गों में 'सहस्थिति' और 'संपर्क' है। इस तरह की प्रस्तुतियों के आधार पर हमें साहित्येतिहास के अंतरालों और अन्तर्क्रियाओं को खोलने में मदद मिल सकती है। 
   प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों में 'टाइम' की बजाय 'स्पेस' के संदर्भ में चीजों को प्रस्तुत किया है। इस परिप्रेक्ष्य के कारण प्रत्येक चीज सह-अवस्थान  में दिखाई देती है। अनेक चीजों को एक ही साथ देखते हैं। जो चीजें 'टाइम' में अवस्थित हैं उनके स्पेस का नाटकीय रूपायन करते हैं। स्पेस में प्रस्तुति के कारण आंतरिक अन्तर्विरोधों और व्यक्ति के विकास के आंतरिक चरणों का चित्रण करते हैं। 
    प्रेमचंद के पाठ में एकल और बहुअर्थी आवाजें एक ही साथ देखी जा सकती हैं। एक ही वातावरण और एक ही वर्ग में विभिन्न रंगत के चरित्रों की बजाय बहुरंगी और बहुवर्गीय चरित्रों का चित्रण किया है। प्रेमचंद जितनी गहराई में जाकर किसान का चित्रण करते हैं उतनी ही गहराई में जाकर जमींदार का भी चित्रण करते हैं।  इस तरह की सहस्थिति प्रेमचंद को बहुलतावादी बनाती है। तुलसी और कबीर का नजरिया इस अर्थ में आज बहुलतावाद के संदर्भ में हमारी वैसी मदद नहीं करता जैसा प्रेमचंद करते हैं। प्रेमचंद अन्य प्रगतिशील लेखकों से भी इसलिए भिन्न हैं क्योंकि प्रगतिशील लेखकों की दृष्टि एकल आवाज को अभिव्यक्त करने में लगी रही है इसके विपरीत प्रेमचंद ने बहुअर्थी आवाजों को अभिव्यक्ति दी है। एकल आवाज का लेखक अपनी रचना को महज एक वस्तु में तब्दील कर देता है जबकि बहुअर्थी आवाज रचना को जनप्रिय बना देती है। एकल अभिव्यक्ति में पात्र निष्पन्न रूप में आते हैं। वे लेखक की आवाज को व्यक्त करते हैं। कहानी के सभी स्तर लेखक के नजरिए का विस्तार हैं। इससे यह भी संदेश निकलता है लेखक पाठ के बाहर होता है। सृजन के बाहर होता है। फलत: विचार सुचिंतित,निष्पन्न, और नियोजित एकल आवाज में व्यक्त होते हैं। बहुअर्थी रचना में दाखिल होते समय पाठक चाहे तो अपने लिए एकल अर्थ भी खोज सकता है और चाहे तो उसके बाहर बहुअर्थी आवाजों को सुन सकता है।
       प्रेमचंद की दुनिया धार्मिक वैविध्य के साथ संपर्क करती है,उसके साथ सह-अवस्थान करती है। इससे वह एकीकृत स्प्रिट पैदा करने की कोशिश नहीं करते।  इस तरह का वातावरण मानवीय चेतना के गहरे स्तरों को उद्धाटित करने में मददगार साबित होता है। उनके दृष्टिकोण का लक्ष्य चेतना को विकसित करके विचार के स्तर तक ले जाता है ये विचार अन्य की चेतना के साथ संपर्क करते हैं। मानवीय यथार्थ के आंतरिक और बाहरी अनुभवों को एक साथ चित्रित करते हैं। 
    प्रेमचंद ने  सृजन में कलात्मक रूपों का इस्तेमाल किया है।एक लेखक के नाते प्रेमचंद ने जिंदगी की चेतना और उसके जीवंत रूपों को जीवंत सह-अवस्थान के साथ प्रस्तुत किया है। उनकी रचनाओं में ऐसी भी सामग्री है जो समाजशास्त्रियों के भी काम आ सकती है। 
   लेखक कहानी संदर्भ बनाता है। जिसमें चरित्र और विभिन्न किस्म की आवाजें शामिल रहती हैं। उनके अंतिम वाक्य पर नियंत्रण रखता है। कालक्रम निर्धारित करता है। फलत: हम तक आवाजें पहुँचती हैं। इन आवाजों को वह हीरो के इर्दगिर्द एकत्रित करते हुए सघन और प्रच्छन्न अभिव्यक्ति के वातावरण को निर्मित करता है। 
     कहानी का सत्य हीरो की चेतना का सत्य बनकर सामने आता है। इस तरह की प्रस्तुति में अनुपस्थित को खोजना मूलकार्य नहीं है बल्कि लेखक की पोजीशन में जो बुनियादी परिवर्तन आए हैं उन्हें देखना चाहिए। जो लोग नजरिए को देखते हैं उन्हें जिंदगी के बहुरंगेपन और बहुअर्थीपन को ध्यान में रखना चाहिए। उपन्यास में सामाजिक जगत की बहुअर्थी दुनिया के साथ महान् संवाद भी रहते हैं। जिनका उपन्यासकार सृजन करता है।
   प्रेमचंद की कहानियों में पाठक जब अपने नजरिए के आधार पर बाहर से भीतर की ओर प्रवेश करता है तब क्या होता है ? ऐसे में लेखक का एकल नजरिया और एकल चेतना गायब हो जाती है। वह कहानी के चरित्रों की विश्वचेतना से अपने को जोड़ता है। अपने निजी नजरिए के साथ तुलना करता है। इस क्रम में वह बदलता है। फलत: पाठक को पढ़ने का सुख और परिवर्तन का सुख ये दोनों ही किस्म के सुख पाठक को प्राप्त होते हैं। प्रेमचंद की कहानियों की व्यापक व्याख्याएं हुई हैं। मूल्यांकन का यह वैविध्य एक ही संदेश देता है कि कहानी का अंतिम सत्य तय नहीं किया जा सकता। चरित्रों का अपने अंतिम वाक्य पर नियंत्रण नहीं रहता। पाठकों का बहुरंगी नजरिया कहानी के बहुअर्थीपन के साथ सामंजस्य बिठाकर नए अर्थ की सृष्टि करता है। 
     प्रेमचंद की सबसे बड़ी देन है कि हम उनके युग की आवाजें सुन रहे हैं। उनके युग के संवाद सुनना बहुत बड़ी उपलब्धि है। उनके लेखन में से एकल आवाज को खोज निकालना उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना महत्वपूर्ण है विभिन्न आवाजों के बीच का संवाद। इस क्रम में युग का स्वर मुखर हो उठा है। इन आवाजों में प्रभुत्वशाली विचार हैं, साथ ही कमजोर आवाजें भी हैं। ऐसे विचार भी हैं जो अभी विकसित नहीं हुए हैं। ऐसी आवाजें हैं जिन्हें लेखक के अलावा कोई नहीं सुनता। ऐसे विचार भी हैं जिनका अभी श्रीगणेश हुआ है। इनमें भावी विश्वदृष्टि छिपी है। उनके यहां तात्कालिक तौर पर यथार्थ खत्म नहीं होता। बल्कि यथार्थ का व्यापक हिस्सा लटका रहता है, जिसमें भावी जगत नजर आता है। कहानी स्पेस और सामाजिक स्पेस के बीच संपर्क होता है, आदान-प्रदान होता है। इस प्रक्रिया के दौरान ही प्रेमचंद अपने साहित्य को सामाजिक-ऐतिहासिक पुनर्निर्माण के काम की सामग्री बना देते हैं। प्रेमचंद का समग्र लेखन संवाद है। जीवन भी संवाद है। यही संवादात्मक वैपरीत्य है। प्रेमचंद जब सभी चीजों को संवाद बनाते हैं तो उन्हें दार्शनिक भी बनाते हैं। प्रत्येक चीज को सरल बनाते हैं। सरल को संसार बनाते हैं। संसार को सरल बनाते हैं। संसार की जटिल और संश्लिष्ट संरचनाओं को सरल बनाते हैं। उनकी प्रत्येक आवाज में दो आवाजें सुन सकते हैं। एक-दूसरे को चुनौती देने वाली आवाजें भी सुन सकते हैं। प्रत्येक अभिव्यक्ति का रूप तुरंत ही टूटता है और आगे जाकर अन्तर्विरोधी अभिव्यक्ति बन जाता है। प्रत्येक भाव-भंगिमा में आत्मविश्वास झलकता है साथ ही आत्मविश्वास का अभाव भी झलकता है। प्रत्येक फिनोमिना में प्रेमचंद दुविधा और अस्पष्टता चित्रित करते हैं। बहुस्तरीय दुविधा छोड़ते हैं। प्रेमचंद एकमात्र ऐसे लेखक हैं जिनकी संवादात्मक प्रकृति है। प्रेमचंद की भाषा 'संवादात्मक संबंधों' पर टिकी है। फलत: उससे सभी किस्म का मानवीय संप्रेषण होता है। प्रेमचंद का 'संवादात्मक' रूप व्यक्तिवाद विरोधी है। यह देखना बड़ा ही दिलचस्प होगा कि प्रेमचंद ने अपनी कहानी और उपन्यास में व्यापक पैमाने पर 'संवाद' का इस्तेमाल क्यों किया ?

'अन्‍या से अनन्‍या' के बहाने प्रेम और परंपरा का आख्‍यान

            हिन्दी का साहित्य संसार करवट बदल रहा है, धड़ाधड़ हिन्दी लेखिकाएं अपनी आत्मकथा लिख रही हैं, कहीं ये कथाएं अंशों में आ रही हैं तो कहीं किताब के रूप में। यह हिन्दी की नयी बदलती स्थिति है। हिन्दी में स्त्री आत्मकथा का लंबे समय से अभाव रहा है। हिन्दी के आलोचकों के लिए यह एकदम नयी परिस्थिति है। हिन्दी की आलोचना मर्द की आत्मकथा की अभ्यस्त रही है, उसे स्त्री की आत्मकथा में कभी दिलचस्पी नहीं रही, स्थिति यह रही है कि हिन्दी भाषी लेखिकाएं परिवार की रक्षा के नाम पर लिखने तक से परहेज करती रही हैं, ऐसे में स्त्री आत्मकथा का बाजार में आना सचमुच में सुखद और ऐतिहासिक घटना है। 
     स्त्री आत्मकथा को मर्द आत्मकथा की तरह न तो लिखा जाता है और न पढ़ा जाता है। स्त्री आत्मकथा एक स्वतंत्र विधा रूप है। यह प्रचलित मर्द आत्मकथा से बुनियादी तौर पर भिन्ना विधा है। स्त्री आत्मकथा कभी पूरी नहीं होती, हमेशा अधूरी होती है। स्त्री आत्मकथा लिखती ही है तब जब वह अपने अव्यक्त को व्यक्त करना चाहती है, निजी को सार्वजनिक करना चाहती है, ऐसे में वह व्यक्तिगत को सामाजिक बनाती है, सामाजिक को बताने और बुनने में उसकी ज्यादा दिलचस्पी नहीं होती। सामाजिक को आप अन्य के द्वारा भी जान सकते हैं किंतु स्त्री के व्यक्तिगत को सिर्फ स्त्री आत्मकथा में ही जान सकते हैं। स्त्री अपनी आत्मकथा में स्वयं की और अपनी छाया की अनेक उलझी परतों को खोलती है, ये ऐसी परतें हैं जो विवादों को जन्म देती हैं, अनेकार्थी व्याख्याओं को जन्म देती हैं। स्त्री आत्मकथा में कही गयी बातों ,मसलों आदि के एकाधिक समाधान भी उपलब्ध होते हैं, किंतु स्त्री को आत्मकथा में समाधान की तलाश नहीं होती बल्कि वह अपनी पहचान की खोज और अपनी निजता को व्यक्त करने के लिए लिखती है।
      प्रभाखेतान की आत्मकथा  अन्या से अनन्या अधूरी आत्मकथा है। इसे पूरी आत्मकथा समझने की भूल नहीं करनी चाहिए, क्योंकि अभी लेखिका जिंदा है और जिन्दगी का बेहद खूबसूरत हिस्सा जीना बाकी है,यही हाल अन्य स्त्री लेखिकाओं की आत्मकथाओं का है। स्त्री आत्मकथा पूरी नहीं होती बल्कि अधूरी होती है। स्त्री की आत्मकथा कभी पूरी नहीं हो सकती, उसकी कहानी के खासकर निजी कहानी के अनेक अंश बेबाकी और बहादुदाराना दावों के बावजूद सामने नहीं आते , यही वह बिंदु है जहां से हमें स्त्री आत्मकथा को पढ़ना चाहिए, स्त्री आत्मकथा और पुरूष आत्मकथा में बुनियादी अंतर यह है कि पुरूष को वस्तुगतता पसंद है, स्त्री को निजता पसंद है, स्त्री वस्तुगतता को अस्वीकार करती है, निज के भावों और अनुभवों को पेश करने में उसकी दिलचस्पी ज्यादा होती है। 
       स्त्री आत्मकथा को कल तक पश्चिमी विधा माना जाता था, वैसे ही जैसे उपन्यास को माना जाता था, हिन्दी की स्त्री लेखिकाओं की आत्मकथाओं के आने से स्त्री साहित्य का संसार ही नहीं साहित्यिक आलोचना का संसार भी बदलेगा। स्त्री आत्मकथा इसलिए नहीं लिखती कि उसे निजी जीवन की बातें बतानी हैं और पाठकों को पढ़ना है, स्त्री आत्मकथा पाठ नहीं बल्कि आन्दोलन है। स्त्री आत्मकथा आन्दोलन की तरह है, यह सतह पर राजनीतिक आंदोलन की तरह नहीं है, बल्कि व्यवहार में किया गया आंदोलन है। स्त्री आत्मकथा का निशाना विचार नहीं मनुष्य का व्यवहार होता है। स्त्री आत्मकथा के सामाजिक प्रभावों के बारे में हमने कभी सोचा ही नहीं,क्योंकि हमारे यहां स्त्री आत्मकथा लिखी ही नहीं गयी, अब लिखी जा रही है तो इसके सामाजिक प्रभावों के बारे में भी सोचना चाहिए। स्त्री आत्मकथा के प्रभाव का क्षेत्र सामाजिक संस्कार ,आदतें और एटीट्यूटस होते हैं। वह अपने अनुभव से बदलने की सीख देती है। मजेदार बात यह है कि हमारे यहां मर्द के 'स्व' का काफी लंबा चौड़ा साहित्यिक आख्यान मिलेगा, प्रत्येक विधा में इस मर्द आख्यान की महिमा का वर्णन मिलता है, किंतु स्त्री के 'स्व' पर  स्त्री के नजरिए से न तो कभी लिखा और न सोचा ही गया है। स्त्री का 'स्व' मर्द के 'स्व' से भिन्ना होता है। मर्द के 'स्व' को देखने के जो पैमाने प्रचलन में हैं,वे स्त्री के 'स्व' को उद्धाटित करने में हमारी मदद नहीं करते, मर्द के लिए 'स्व' एक विषय है, जबकि स्त्री के लिए 'स्व' विषय नहीं है, पाठ नहीं है। बल्कि उसकी अस्मिता है,लिंगीय पहचान है, अनुभूति है। मर्द के यहां विषय बोलता है,व्यक्ति बोलता है। वस्तुगतता पर जोर होता है। मर्द अपनी आत्मकथा में आत्मस्वीकृति (कनफेशनल मोड़) की पध्दति का इस्तेमाल करता है, उसका अकादमिक महत्व भी होता है। जबकि स्त्री के यहां ऐसा नहीं होता, स्त्री के यहां आत्मकथा का पांडित्य प्रदर्शन से कोई संबंध नहीं है। स्त्री को वस्तुगत प्रस्तुति से चिढ़ है, वस्तुगत प्रस्तुति के नाम पर साहित्यिक परंपरा में हमेशा स्त्री की अभिव्यक्ति को ही कुचला गया है। अथवा उसे प्रस्तुति योग्य ही नहीं समझा गया। स्त्रीवादी साहित्य परंपरा में आत्मकथा का सचेत रूप से विकास किया गया है,उनके यहां  स्त्री आत्मकथा को गंभीरता से लिया जाता है। 
      प्रभाखेतान की आत्मकथा 'अन्या से अनन्या' में कई महत्वपूर्ण विधागत चीजें हैं जिनका ख्याल रखा गया है, मसलन् लेखिका ने अपने परिवार,सामाजिक परिवेश,संस्कृति,मारवाड़ी जाति और पश्चिम बंगाल के परिवेश के बहाने बंगाली जाति के बारे में भी अपने व्यक्तित्व के रिश्तों को खोला है। इसके कारण यह आत्मकथा अनजाने ही एंथ्रोपॉलोजिकल दिशा में चली गई है। प्रभा खेतान ने जिन क्षेत्रों का विस्तार से आख्यान विकसित किया है उसमें पढ़ते हुए हम जब डा. सर्राफ और उनके बीच के आख्यान को बारीकी से पढ़ते हैं तो ये हिस्से डिसटर्ब करते हैं, पाठक को तनाव में ले जाते हैं, मर्दवादियों को इनमें कुछ निंदा की गंध भी मिल सकती है। किंतु 'अन्या से अनन्या' का लक्ष्य किसी की निंदा करना अथवा चरित्र हनन करना नहीं है। यह नितांत व्यक्तिगत वृत्ताान्त है, सामाजिक वृत्ताान्त है, एक ऐसा वृत्ताान्त है जो घट चुका है, किंतु लिखा अब गया है, यह ऐसा यथार्थ है जिसमें कल्पना की गुंजाइश नहीं है, स्त्री आत्मकथा इसी अर्थ में यथार्थ अनुभवों पर टिकी होती है। उसमें कल्पना और भाषायी अतिरेक नहीं होता। स्त्री आत्मकथा इस अर्थ में भी अलग है कि इसमें बहुत कुछ ऐसा भी है जो अवचेतन का हिस्सा रहा है। 
     प्रभाखेतान अपनी आत्मकथा में  अभिव्यक्त नहीं करती, बल्कि उद्धाटित करती है। स्त्री सैध्दान्तिकी के मुताबिक स्त्री को आत्मकथा लिखने की जरूरत अपनी अभिव्यक्ति के लिए पड़ी बल्कि स्त्री आत्मकथा का लक्ष्य होता है उद्धाटन करना। यह उद्धाटित करने वाला गद्य है। यहां आत्मकथा का पांडित्य में विलय देखा जा सकता है। जो व्यक्तिगत अभिव्यक्ति है वह धीरे-धीरे उद्धाटन की शक्ल ले लेती है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो औरत अभिव्यक्त नहीं उद्धाटित करती है। निबंध और कहानी की मिल-जुली शैली में 'अन्या से अनन्या' को लिखा गया है। 'अन्या से अनन्या' में कई रणनीतियां एक साथ लागू की गई हैं। यहां मनोविज्ञान की रणनीतियां हैं तो साथ ही द्वि-स्तरीय अभिव्यक्ति के रूप भी हैं,प्रभाखेतान एक औरत है,परनिर्भर औरत है,भावनात्मक रूप से डा.सर्राफ पर निर्भरता है साथ ही इसका भिन्ना रूप भी है, यानी परनिर्भर औरत के अंदर से आत्मनिर्भर औरत की रणनीतियां भी उभरती नजर आती हैं, यह चेतना के स्तर पर जो द्वि-स्तरीयबोध है, यही स्त्री आत्मकथा का सबसे मजबूत तत्व भी है। युवा प्रभा के जीवन के मन ,बचपन में यौन शोषण और बाद में गर्भपात का जिक्र आना ,ये अवचेतन की रणनीतियां हैं। आत्मकथा यथार्थ अनुभव से गुजरते हुए अचानक अवचेतन की ओर मुड़ जाती है। स्त्री आत्मकथा में अवचेतन का आना स्वस्थ लक्षण है। स्त्री साहित्य को इस फिनोमिना की अभिव्यक्ति से अपनी पहचान मिलती है। 
      'अन्या से अनन्या' का आख्यान डा. सर्राफ और प्रभा के बीच में चलता है, यह मूलत: उन्हीं की कहानी भी है ये दोनों किताब का अच्छा-खासा हिस्सा घेरते हैं। इस आत्मकथा को लिखा है प्रभा ने ,किंतु इसमें डा.सर्राफ की आवाजें भी चली आई हैं। सतह पर ये ही दो मुख्य आवाजें हैं उन्हीं का आख्यान है इसे हम प्राइवेट कार्य व्यापार भी कह सकते हैं,किंतु स्त्री का आख्यान इसे प्राइवेट अथवा दो के बीच की चीज नहीं रहने देता। प्रभा अपने बचपन से लेकर जवानी तक के जिस अन्तर्विरोध और द्वंद्व की विस्तार से चर्चा करती है उसके कारण सामाजिक का जन्म लेता है, प्राइवेट जन्म नहीं लेता। प्राइवेट को आप छिपाते हैं, किंतु इस किताब को पढ़कर आप छिपाते नहीं हैं बल्कि पाठक को अनेक बार यह महसूस होता है कि यह तो मैं भी जानता हूँ, मेरे साथ भी ऐसा हुआ है। प्रभा का गुस्सा, कुंठा,अवसाद, दुख,सफलता आौ आत्मनिर्भरता आदि के प्राइवेट ब्यौरे अंतत: किसी भी चीज को प्राइवेट नहीं रहने देते। आप इन्हें प्राइवेट ब्यौरे मानकर पढ़ भी नहीं सकते। ये ऐसे प्राइवेट ब्यौरे हैं जो सामाजिक ब्यौरों को हजम कर रहे हैं। 
  प्रभा का आत्मकथा में पब्लिक और प्राइवेट का कहानी के रूप में सतह पर विभाजन मिलेगा, किंतु वास्तव में ये दोनों ही एक-दूसरे की जगह लेते नजर आते हैं। मसलन् डा. सर्राफ का चुम्बन लेना प्राइवेट क्रिया है किंतु चुम्बन लेते ही यह प्राइवेट नहीं रह जाता बल्कि सार्वजनिक संकट को पैदा करता है। प्रभा को यह क्षण बदल देता है। उसकी सामाजिक और मानसिक अवस्था को गुणात्मक तौर पर बदल देता है। प्रेम एक निजी अथवा प्राइवेट कार्य व्यापार है, किंतु जब आप एक बार इस प्राइवेट क्षेत्र में दाखिल हो जाते हैं तो वह सार्वजनिक का स्थान ग्रहण कर लेता है। मर्द मीमांसा ने प्राइवेट और पब्लिक में भेद करके रखा है, वे प्राइवेट को प्राइवेट और सार्वजनिक को सार्वजनिक ही बनाए रखना चाहते हैं, इसी रूप में साहित्य की आलोचना भी लिखी जाती रही है। किंतु स्त्री के दाखिल होते है सबवर्सिव क्रिया शुरू हो जाती है। प्राइवेट प्राइवेट नहीं रहता, सार्वजनिक सार्वजनिक नहीं रहता, इस संदर्भ में पुराना विभाजन खत्म हो जाता है। स्त्री जो जैसा है उसे वैसा नहीं रहने देती, इसी अर्थ में 'अन्या से अनन्या' में सबवर्जन चलता रहता है। पूरी आत्मकथा सबवर्सिव भाव की  अभिव्यक्ति  है, ,इसमें तिथियों और विचारों का महत्व नहीं है, बल्कि रवैयये और एटीटयूट को ज्यादा तवज्जह दी गयी है। मर्द की आदतों को निशाना बनाया गया है। 

मर्द की आदतों की हमने कभी समीक्षा नहीं की, हमारे माक्र्सवादियों के लिए साहित्य में मूल्य महत्वपूर्ण रहा है, स्त्रीवादी विचारकों को साहित्य को मूल्य के रूप में देखने वाली दृष्टि स्वीकार नहीं है उनके लिए साहित्य अनुभूति और स्त्री का द्वंद्व है, कभी इन दोनों में विभाजन भी नजर आता है। 'अन्या से अनन्या' में प्रभा का गुस्सा केन्द्र में नहीं है बल्कि प्रेम केन्द्र में है, अंत तक प्रेम की चाह और सिर्फ चाह ही इसकी केन्द्रीय धुरी है। यह प्रेम के प्रति न्याय की तलाश में लिखी गयी आत्मकथा है। 'अनन्या से अनन्या' के जगत का अनुभव पाठ में नहीं है बल्कि पाठ के बाहर है। इस किताब को पाठात्मक अनुभव के रूप में नहीं पढ़ा जाना चाहिए। ये साठ साल की औरत के अनुभवों का एक हिस्सा है, इसे प्रभा के साठ साल का समग्र समझने की भूल भी नहीं करनी चाहिए।

       यह ऐसी आत्मकथा है जिसमें हिन्दी जाति की पहचान भी निहित है। इस आत्मकथा में लेखिका ने चिर-परिचित सांस्कृतिक -राजनीतिक संदर्भों का इस्तेमाल किया है  इसे आप सहज रूप में पढ़ सकते है, इसे प्रामाणिक मान सकते हैं। चिर-परिचित संदर्भ ही हैं जो इसे प्रामाणिक बनाते हैं। 'अन्या से अनन्या' की एक विशेषता यह है कि इसमें संवाद की शैली का इस्तेमाल किया गया है। लेखिका संवाद करती हुई मिलती है। वह डा.सर्राफ से संवाद करती है, बहन गीता से संवाद करती है, दाई से संवाद करती है, मॉ से संवाद करती है,अमेरिकी,जर्मन लोगों (स्त्री-पुरूष दोनों) से संवाद करती है,अपनी सहेलियों और पुरूष मित्रों से संवाद करती है, यही  संवाद है जो इस आत्मकथा को संप्रेषणीय और पाठक को शिरकत करने के लिए मजबूर करता है। संवाद के कारण ही पाठक तनाव,आनंद, गुस्सा ,और घृणा का आनंद लेता है। इसके अलावा 'अन्या से अनन्या' में प्रभा की कहानी से पाठक का पूरी तरह जुड़ता है, प्रभा की कहानी के साथ अपने को जोड़ता भी है। यह टोटल आइडेंटीफिकेशन ही इस आत्मकथा के शिल्प की विशेषता है। आरंभ में यह एक प्रेम कहानी लगती है किंतु बहुत ही जल्दी प्रेम कहानी को फ्रस्टेशन अथवा कुंठा आकर घेर लेती है,कुंठा को परिवार का ढांचा घेर लेता है और अंत में इन सबका अतिक्रमण करते हुए कहानी में प्रभा की आवाज सुनाई पड़ने लगती है। प्रभा का सशक्त रूप उभरकर सामने आता है,पता ही नहीं चलता कि कुंठा,निराशा,दुख,परिवार और प्रेम कहां गायब हो गए। यही वह बिंदु है जहां स्त्री आत्मकथा अपनी स्वतंत्र पहचान बनाती है, स्त्री की पहचान,उसका सशक्तिकरण ही उसका प्रधान लक्ष्य होता है। 
        स्त्री आत्मकथा में द्वैत का होना अनिवार्य है और वह यहां भी है। एक वह इमेज है जिसे स्त्री स्वयं देख रही है, दूसरी वह इमेज है जिसे अन्य देख रहे हैं। स्त्री का स्वयं को देखना 'मैं' को देखना है, जो उसका आदर्श है, स्त्री का 'आत्म' के रूप में देखना और कालान्तर में आत्म का 'आत्मनिर्भर' में रूपान्तरण हो जाना, उसके वर्चस्व की स्थापना का संकेत है। स्त्री आत्मकथा में 'स्व' और 'अन्य' एक ही साथ होते हैं। इसी अर्थ में इस किताब में जो 'स्व' है वह 'अन्या' में तब्दील हो जाता है। 'स्व' का 'अन्या' में रूपान्तरण धीरे-धीरे होता है ,कहानी का ज्यों-ज्यों विकास होता जाता है,'स्व' का लोप हो जाता है और उसकी जगह 'अन्या' ले लेती है। यही लाकां यहां   मिरर स्टेज  है। इस लाकांनियन पध्दति का लेखिका ने बडे ही कौशल के साथ इस्तेमाल किया है। 
      प्रभा खेतान ने वर्जीनिया वुल्फ की लेखन शैली का इस्तेमाल करते हुए अवचेतन के रूपों को भी सामने रखा है। बाल यौन शोषण  और जवानी के यौन कष्टों को अवचेतन के हिस्सों के रूप में पढ़ा जाना चाहिए, इसमें वह बार-बार स्त्री की नियति और परंपरागत अवस्था पर लेखिका ध्यान खींचती है। 'स्त्रीत्व' की चर्चा करते हुए वह 'अन्या' में तब्दील हो जाती है।अपने आख्यान में उन तमाम चीजों को लाना चाहती है जो उसकी भूमिका और नजरिए से जुड़े हैं।  पश्चिम बंगाल से लेकर अमेरिका तक के व्यापक दायरे के विस्तृत ब्यौरे किताब में उपलब्ध हैं। इसके अलावा 'फ्रेगमेंटेड स्मृति' का रूप कृति में हावी दिखाई देता है, किताब दूसरे पैराग्राफ से अमेरिका से शुरू होती है फिर अचानक कलकत्ताा चली आती है काफी समय पाठक कलकत्ताा में विचरण करता है फिर हठात पाता है कि वह वापस अमेरिका लौट जाता है। लेखिका की स्मृति में जो बातें आती रही हैं उन्हें उसी क्रम में पेश कर दिया गया है। इसमें क्रमश: चीजें पेश करने की पध्दति का निषेध अभिव्यक्त हुआ है। परंपरागत आत्मकथा के तमाम तत्वों को एकसिरे से त्याग दिया गया है। कुछ लोगों को 'अन्या से अनन्या' में आत्मस्वीकृति (कनफेशन्स) का भाव दिखाई दे सकता है,सतह पर लेखिका ऐसा आभास भी देती है, जबकि वास्तविकता यह है कि 'अन्या से अनन्या' आत्मस्वीकृति नहीं स्वयं के खिलाफ दी गयी गवाही है,यही इसकी आयरनी  है। लेखिका बार-बार इस तथ्य की तरफ ध्यान खींचती है कि हमारे समस्त कार्यकलाप संस्थान निर्भर हैं।  लेखिका जब अपने खिलाफ गवाही दे रही होती है तो वे हिस्से ऐसे हैं जिनकी अनेक तरह से व्याख्या संभव है। ये हिस्से व्याख्या के लिए खुले हैं। ये हिस्से अनेक किस्म की व्याख्याओं को जन्म देते हैं। अनेक किस्म की व्याख्याएं ही हैं जो स्त्रीवादी साहित्य की संपदा हैं। स्त्री साहित्य को एक व्याख्या की नहीं अनेक व्याख्याओं की जरूरत है। स्त्रीवादी नजरिए व्याख्या में बहुलतावाद को जन्म देता है, उसका संरक्षण करता है। इसे 'अवचेतन व्यक्तिवाद'  कहते हैं। इसमें  'स्व' पर फोकस रहता है। इसका अंतर्निहित संदेश  है , तुम समाज को नहीं बदल सकते। तुम सिर्फ स्वयं को बदल सकते हो। इसमें व्यक्तिगत निष्क्रियता का भाव  सक्रिय रहता है, इस तरह की प्रस्तुतियां राजनीतिक एक्शन और सामाजिक परिवर्तन के लिए उदबुध्द नहीं करतीं। 
      'अन्या से अनन्या' का मूल स्वर स्त्रीवादी है। स्त्रीवाद का लक्ष्य आत्मसंतोष या आनंद देना नहीं है बल्कि उसका लक्ष्य है न्याय। प्रभा की आत्मकथा इसी अर्थ में न्याय की तलाश में किया गया एक प्रयास है। इस किताब में अन्याय के कई रूप हैं, अनेक चरित्र हैं जो अन्याय से पीड़ित हैं, मध्यवर्गीय और उच्च मध्यवर्गीय जीवन के स्त्री अन्तर्विरोध हैं, उसके पाखण्ड हैं,संकेतों के जरिए यह भी बताया गया है कि हमारे आप्रवासी भारतीय किस तरह अमानवीय व्यवहार करते हैं। स्त्री के हम एक ही रूप से परिचित हैं, किंतु आत्मकथा में स्त्री के कई रूप सामने आते हैं, स्त्री की अनेक किस्म की चालाकियां अथवा रणनीतियां  सामने आती हैं, इस आत्मकथा की सारी औरतें समझदार और चालाक हैं। मूर्ख स्त्री इनमें कोई नहीं है। कम से कम एक मिथ तो टूटा कि औरत मूर्ख नहीं होती।
        आत्मकथा में सटीक ढ़ंग से रेखांकित किया गया है कि जिस परिवार नामक संस्था को हम महान मानते हैं, पति-पत्नी के संबंध को उच्चकोटि का मानते हैं, वह संबंध किस कदर खोखला हो चुका है और अंदर से सड़ रहा है। किस तरह स्वार्थों के कारण यह संबंध महान है और किस तरह और कब इस संबंध के बाहर बनाए संबंध ,जिसे सारा समाज अस्वीकार कर रहा था, किसी हद तक स्वीकार करने लगता है। सबसे रोचक पक्ष यह है कि परंपरागत परिवार का सारा ताना-बाना आर्थिक सुरक्षा के आधार पर बुना गया है। स्त्री से सब लोग पाना चाहते हैं, उसे कोई देना नहीं चाहता। स्त्री के व्यवहार और रूख पर आलोचनात्मक नजरें टिकी होती हैं जबकि पुरूष के व्यवहार को कभी आलोचनात्मक नजरिए से देखा नहीं जाता, उसके रवैयये को स्वाभाविक मान लिया जाता है। यानी मर्द जैसा है वैसा ही रहेगा। उसके बदलने के चांस नहीं हैं। बदलना है तो औरत बदले। डा. सर्राफ का रवैयया नहीं बदलता वे चाहते हैं कि प्रभा बदले। सारी गतिविधियों में प्रभा को ही आलोचना के केन्द्र में रखा जाता है, कहीं न कहीं इस मानसिकता का स्वयं लेखिका के नजरिए पर भी असर है। 
    लेखिका की प्रेम में न्याय की तलाश डा. सर्राफ को  आलोचनात्मक नजरिए से नहीं देखती। मसलन् डा.सर्राफ के पास प्रभा के लिए मूल समस्या से ध्यान हटाने के अनेक सुझाव रहते थे, जबकि प्रभा के लिए मूल समस्या थी प्रेम और न्याय। प्रभा आत्मनिर्भर बनने के लिए डा. सर्राफ से नहीं मिली थी, बल्कि प्रेम में उसकी मुलाकात हुई थी, डा. सर्राफ ने प्रेम को गौड़ और कैरियर को प्रमुख बनाने की ही सारी रणनीतियां सुझायीं, प्रेम उनके यहां प्रकारान्तर से व्यक्त होता था। प्रेम की पीड़ा का सघन अहसास जिस तरह प्रभा के अंदर व्यक्त हुआ है वह डा. सर्राफ में कहीं पर भी नजर नहीं आता। प्रेम के बारे में डा. सर्राफ जब भी व्यक्त करते हैं तो सिर्फ आशा बंधाने के लिए। डा. सर्राफ के लिए प्रेम भविष्य की चीज था, जबकि प्रभा के लिए वर्तमान था। त्रासदी यह थी कि भविष्य दोनों के हाथ से खिसक गया था। प्रभा को आरंभ में ही अहसास हो गया कि डा. सर्राफ से किया गया प्रेम तकलीफदेह है। डा. सर्राफ के लिए जीवन के उद्देश्यों में प्रेम का कहीं कोई स्थान नहीं था, जबकि प्रभा के लिए जीवन में प्रेम का केन्द्रीय स्थान था। 'अन्या से अनन्या' से एक बात यह भी निकलती है कि स्त्री-पुरूष के प्रेम में वस्तुत: प्रेम तो औरत ही करती है, पुरुष तो प्रेम का भोग करता है। पुरुष में देने का भाव नहीं होता। वह सिर्फ स्त्री से पाना चाहता है। प्रेम के इस लेने ,देने वाले भाव में स्त्री का अस्तित्व दांव पर लगा है। वह अपना दांव पर सब कुछ लगा देती है और सतह पर हारती नजर आती है किंतु वास्तविकता यह है कि जीवन में जीतती स्त्री ही है पुरुष नहीं। प्रेम में आप जिसे चाहते हैं उसके प्रति यदि देने का भाव है तो यह तय है कि जो देगा उसका प्रेम गाढ़ा होगा, जो निवेश नहीं करेगा उसका प्रेम खोखला होगा। प्रेम में भावों, संवेदनाओं,सांसों का निवेश जरूरी है। डा. सर्राफ की मुश्किल यहीं पर है वे प्रेम चाहते हैं किंतु निवेश किए बिना। 
    प्रेम का मतलब कैरियर  बना देना, रोजगार दिला देना,व्यापार करा देना नहीं है। बल्कि ये तो ध्यान हटाने वाली रणनीतियां हैं,प्रेम से पलायन करने वाली चालबाजियां हैं। प्रेम गहना,कैरियर ,आत्मनिर्भरता आदि नहीं है। प्रेम सहयोग भी नहीं है। प्रेम सामाजिक संबंध है, उसे सामाजिक तौर पर कहा जाना चाहिए, जिया जाना चाहिए। प्रेम संपर्क है, संवाद है और संवेदनात्मक शिरकत है। प्रेम में शेयरिंग केन्द्रीय तत्व है। इसी अर्थ में प्रेम साझा होता है,एकाकी नहीं होता। सामाजिक होता है ,व्यक्तिगत नहीं होता। प्रेम का संबंध दो प्राणियों से नहीं है बल्कि इसका संबंध इन दो के सामाजिक अस्तित्व से है। प्रेम को देह सुख के रूप में सिर्फ देखने में असुविधा हो सकती है। प्रेम का मार्ग देह से गुजरता जरूर है किंतु प्रेम को मन की अथाह गहराईयों में जाकर ही शांति मिलती है, प्रेमी युगल इस गहराई में कितना जाना चाहते हैं उस पर प्रेम का समूचा कार्य -व्यापार टिका है। प्रेम का तन और मन से गहरा संबंध है, इसके बावजूद भी प्रेम का गहरा संबंध तब ही बनता है जब आप इसे व्यक्त करें, इसका प्रदर्शन करें। प्रेम बगैर प्रदर्शन के स्वीकृति नहीं पाता। प्रेम में स्टैंण्ड लेना जरूरी है। डा. सर्राफ की मुश्किलें यहीं पर है। वे प्रेम नहीं करते बल्कि चाहते हैं कि प्रभा उनसे प्रेम करे। प्रभा उन्हें त्याग न दे। प्रभा का त्याग उन्हें अपने जीवन की संभवत: सबसे बड़ी पराजय लगता है ,यही वजह है के कई बार इस बात को कहते हैं कि तुम मुझे छोड़ मत देना। यानी डा. सर्राफ को प्रभा से मानसिक सुरक्षा मिल रही थी, प्रेम को उन्होंने अपनी दवा बना लिया, जबकि प्रभा के लिए प्रेम का अर्थ यह नहीं था, प्रभा ने डा. सर्राफ से प्यार अपनी सुरक्षा के लिए नहीं किया था, इसके विपरीत प्रभा को प्रेम का संदर्भ  बार-बार असहाय बना जाता था। अकेला कर देता था। प्रभा के लिए डा. सर्राफ के साथ प्रेम अस्तित्व की समस्या थी, जबकि डा. सर्राफ के लिए यह मानसिक सुरक्षा, पुंसवादी संतुष्टि का प्रतीक था। जिसमें वह सभी किस्म के दायित्वबोध से मुक्त था। 

'अन्या से अनन्या' में प्रभा ने अपने को आलोचनात्मक रूप में देखा है, बार-बार अपने व्यक्तित्व की कमजोरियों को पेश किया है। स्वयं की कमजोरियों को बताते समय लेखिका इस तथ्य पर जोर देना चाहती है कि इन कमजोरियों से मुक्त हुआ जा सकता है। स्त्री की ये कमजोरियां स्थायी चीज नहीं हैं। ये कमजोरियां स्त्री की नियति भी नहीं हैं। कमजोरियां शाश्वत नहीं होतीं। अपनी कमजोरियों को बताने का अर्थ यह नहीं है कि लेखिका अपने लिए पाठकों की सहानुभूति चाहती है। किंतु दिक्कत तब होती है जब कमजोरियों को समस्त सामाजिक प्रक्रिया से अलग करके देखती है। स्त्री की जिन कमजोरियों का जिक्र लेखिका ने स्वयं के बहाने किया है वे एक खास किस्म की सामाजिक प्रक्रिया में ही पैदा होती हैं। स्त्री ज्यों -ज्यों इस प्रक्रिया के बाहर चली जाती है कमजोरियां खत्म हो जाती हैं। प्रभा की कमजोरियां असल में उसकी निजी कमजोरियां नहीं हैं बल्कि ये औरत जाति की कमजोरियां हैं। इन्हें व्यक्तिगत समझने की भूल नहीं करनी चाहिए।

      मजेदार बात यह है कि प्रभा ने बार-बार जिस भाषा में और जिन बातों को डा. सर्राफ के सामने उठाया है वे सारी बातें परंपरागत औरत की बातें हैं और परंपरागत भाषा में ही व्यक्त हुई हैं। किंतु सामाजिक प्रक्रिया प्रभा को परंपरागत रहने नहीं देती, प्रभा के एक्शन परंपरागत नहीं हैं। प्रभा के एक्शन परंपरा का विरोध करते हैं, प्रभा की मांगें और भाषा परंपरागत को पेश करते हैं। इससे यह भी संकेत मिलता है कि हमें स्त्री के कथन पर नहीं कर्म पर ध्यान देना चाहिए। औरत कहती क्या है से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि वह करती क्या है। प्रभा का कर्म परंपरागत कर्म नहीं है। वह वे सारे काम करती है जो भारतीय औरत ने कभी नहीं किए। वह उन बातों को बोलती है जो आम साधारण औरत बोलती हैं। इस अर्थ में प्रभा की बातें,मांगें,तर्क ,भाषा आदि साधारण औरत की परंपरागत भावना को व्यक्त करते हैं। किंतु उसका कर्म असाधारण है। औरत के अंदर चल रहे साधारण और असाधारण के इस द्वंद्व को सही परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत है। 
     शादीशुदा मर्द,बाल-बच्चेदार मर्द से प्रेम भारतीय परंपरा में नयी बात नहीं है, इस प्रेम की मांगे भी नई नहीं हैं,ये भी पुरानी हैं,इस तरह के आख्यान भरे पड़े हैं। सवाल यह है कि प्रेमीयुगल प्रेम के अलावा क्या करते हैं ?  प्रेम का जितना महत्व है उससे ज्यादा प्रेमेतर कार्य-व्यापार का महत्व है। प्रेम में निवेश वही कर सकता है जो सामाजिक उत्पादन भी करता हो, प्रेम सामाजिक होता है, व्यक्तिगत नहीं। प्रेम के सामाजिक भाव में निवेश के लिए सामाजिक उत्पादन अथवा सामाजिक क्षमता बढ़ाने की जरूरत होती है। प्रेम में जिसका जितना सामाजिक उत्पादन बढ़ा होगा उसका ही वर्चस्व होगा। प्रेम करने वालों को सामाजिक तौर पर सक्षम,सक्रिय,उत्पादक होना चाहिए। प्रभा का प्रेम इस अर्थ में बड़ा है कि वह सामाजिक तौर पर उत्पादक है। इससे प्रेम परंपरागत दायरों को तोड़कर आगे चला जाता है। पुरानी नायिकाएं प्रेम करती थीं, और उसके अलावा उनकी कोई भूमिका नहीं होती थी। प्रेम तब ही पुख्ता बनता है, अतिक्रमण करता है जब उसमें सामाजिक निवेश बढ़ाते हैं। व्यक्ति को सामाजिक उत्पादक बनाते हैं। प्रेम में सामाजिक निवेश बढ़ाने का अर्थ है प्रेम करने वाले की सामाजिक भूमिकाओं का विस्तार और विकास। प्रेम पैदा करता है, पैदा करने के लिए निवेश जरूरी है, आप निवेश तब ही कर पाएंगे जब पैदा करेंगे। प्रेम में उत्पादन तब ही होता है जब व्यक्ति सामाजिक तौर पर उत्पादन करे। सामाजिक उत्पादन के अभाव में प्रेम बचता नहीं है, प्रेम सूख जाता है। संवेदना और भावों के स्तर पर प्रेम में निवेश तब ही गाढ़ा बनता है जब  आप सामाजिक उत्पादन की प्रक्रिया में सक्रिय रूप से उत्पादक की भूमिका अदा करें । 
        प्रेम के जिस रूप से हम परिचित हैं उसमें समर्पण को हमने महान बनाया है। यह प्रेम की पुंसवादी धारणा है। प्रेम को समर्पण नहीं शिरकत की जरूरत होती है। प्रेम पाने का नहीं देने का नाम है। समर्पण और लेने के भाव पर टिका प्रेम इकतरफा होता है। इसमें शोषण का भाव है। यह  प्रेम की मालिक और गुलाम वाली अवस्था है। इसमें शोषक-शोषित का संबंध निहित है। प्रभा अपने एक्शन के जरिए इसी शोषित रूप से लड़ती है। चाहती है शोषित होना किंतु एक्शन उसे शोषण के बाहर ले जाते हैं। ऐसा क्यों होता है यही वह बिंदु है जहां आपको थ्योरी की जरूरत पड़ती है। स्त्रीवादी थ्योरी की प्रासंगिकता नजर आती है। स्त्रीवादी थ्योरी के बिना 'अन्या से अनन्या' को समझना संभव नहीं है। क्योंकि इस किताब में औरत,परिवार,राजनीति,व्यापार आदि की संस्थान के रूप में मौजूदगी को पढ़ने के लिए सिर्फ थ्योरी ही आपकी मदद कर सकती है अत: थ्योरी के प्रति अपने पूर्वाग्रहों से हमें मुक्त होना होगा। अराजक ढ़ंग से, मर्दवादी ढ़ंग से पढ़ने की पध्दति से मुक्त करना होगा। 
    'अन्या से अनन्या' में 'परिस्थिति-परिप्रेक्ष्य' की पध्दति का व्यापक तौर पर इस्तेमाल किया गया है। इसी के आधार पर हमें प्रभा के प्रेम का ज्ञान होता है। यह ज्ञान ही हमें और भी ज्यादा मानवीय और समानतापंथी बनाता है।  स्त्री आत्मकथा पहले उपलब्ध नहीं थी,अब लिखी जा रही है, आज इसे साहित्य की अकादमिक दुनिया का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। साहित्यिक आलोचना का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। अभी तक हम जिस भाषा के अभ्यस्त रहे हैं वह मर्द भाषा रही है। इसमें पाठक और विषय के बीच अंतराल रहा है। विषय और 'स्व' के बीच अंतराल रहा है। मर्द भाषा में बोलने,लिखने और सोचने की हमारी आदत सैंकड़ों साल पुरानी है। मर्द भाषा वह है जो हमारे ऊपर से गुजर जाती है। यह इकतरफा भाषा है, इस भाषा में बोलने वाले उत्तार की प्रतीक्षा नहीं करते और न यही महसूस करते हैं कि उनकी बात सुनी जा रही है या नहीं। जबकि स्त्री भाषा की विशेषता है कि उसे उत्तार चाहिए। यह संवाद है। इसकी जड़ों में शब्द हैं जो एक साथ ही करवट बदलते हैं। स्त्री भाषा संप्रेषण नहीं है बल्कि संबंध है। संबंध  ही है जो जोड़ता है। इसकी शक्ति बांटने वाली नहीं है बल्कि बांधने वाली है। इस भाषा को आप हृदय से महसूस कर सकते हैं। 
   स्त्री भाषा के लक्षणों को आप 'अन्या से अनन्या' में सहज ही देख सकते हैं। इस किताब के भाषिक सौंदर्य का यह परम तत्व है कि लेखिका बिना किसी संकोच और दुविधा के एक विषय से दूसरे विषय,एक शहर से दूसरे शहर की ओर अपने आख्यान को खोलती रहती है। यहां उत्तार आधुनिक रपटन को सहज ही देखा जा सकता है। इस भाषा में रपटन है। गतिशीलता है। लोच है। इसी अर्थ में यह किताब व्यक्तिगत होते हुए भी राजनीतिक है। भाषा में फिसलन ही इसकी शक्ति है। इस भाषा में जब आप फिसलते हैं तो गिरते हैं,फिर उठते हैं,संभलते हैं,फिर चलते हैं और फिर रपटते हैं। रपटन में चलना,गिरना और संभलना यहीं पर इसका स्त्री भाषिक सौंदर्य है। मजेदार बात यह है कि प्रभा अपनी छाया (डा.सर्राफ से प्रेम)का पीछा करती है और ज्योंही छाया को पकड़ने की कोशिश करती है,छाया गायब हो जाती है। छाया के पीछे भागना और उसका गायब हो जाना ही इसके सौंदर्य का आधार है। प्रभा ने प्रेम का पीछा करना शुरू किया, डा. सर्राफ को पकड़ने की कोशिश की और यह कोशिश वह जितनी बार करती है छाया उसके हाथ से निकल जाती है। वह छाया के पीछे भागते -भागते अंत में डा. सर्राफ को खो देती है और डा. सर्राफ की मौत हो जाती है। डा.सर्राफ की मौत प्रभा का पुनर्जन्म है। मुक्ति है।

स्‍त्री आत्‍मकथा:सैद्धान्‍ति‍क मानदण्‍ड

       स्त्री आत्मकथा कथा नहीं सामाजिक आन्दोलन है। यह न तो विधा है, न किताब है और न साहित्य विमर्श है बल्कि आंदोलन है। स्त्री आत्मकथा शिरकत को ,रवैयये को बदलने, संस्कार को बदलने, स्त्री को बदलने में कारगर भूमिका अदा करती है। वर्जीनिया वुल्फ ने लिखा  किसी स्त्री ने ऐसी आत्मकथा नहीं लिखी जिसकी तुलना रूसो की आत्मकथा करते। यही है वह प्रस्थान बिंदु जहां से वर्जीनिया वुल्फ एक महत्वपूर्ण बात की तरफ ध्यान खींच रही हैं। वुल्फ के लिए रूसो की आत्मकथा मानक थी। मजेदार बात यह है कि वुल्फ ने इसी मानक के विरूध्द अपनी आत्मकथा लिखी। वुल्फ की आत्मकथा स्त्री की प्रस्तुति का मानक मानी जाती है। हमें इस पक्ष पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि आखिरकार वुल्फ स्वयं को कैसे पेश करती हैं। 
     वुल्फ ने 1940 में आत्मकथा के बारे में लिखते हुए अपने बचपन पर प्रकाश डाला। मारिया दिमित्रोलिया ने  हेयर देन वाज आई: वर्जीर्निया वुल्फस सब्जेक्टिविटी एंड क्रिटिसिज्म(1996)में  लिखा है स्त्री के ऐतिहासिक अनुभव उसकी आत्मकथा को मर्द या अन्य के द्वारा पेश की गई आत्मकथा से भिन्न बना देते हैं। सार्वजनिक जीवन में स्त्री और पुरूष अलग-अलग अवस्था में काम करते हैं। अत: इनकी आत्मकथा भी भिन्ना होगी। स्त्री-पुरूष की प्रस्तुति को किसी एक मानक से पुष्ट नहीं कर सकते। अनेक लोग हैं जो यह मानते हैं कि सच्ची आत्मकथा वह है जिसे क्रमबध्द कहानी के रूप में उत्पत्तिमूलक ढ़ंग से लिखा जाता है। कथानक में तारतम्य होता है, एक घटना से दूसरी घटना, एक स्थिति से दूसरी स्थिति जुड़ी होती है। साथ ही स्वायत्ता भी होती है। इसमें उदार मर्द विषय रहते हैं, मर्द की भावानुभूति रहती है। यह मर्द आत्मकथा का वैशिष्टय है। 
        हिन्दी में मर्द आत्मकथा का आदर्श रूप अगर कहीं देखना हो तो रामविलास शर्मा की आत्मकथा  अपनी धरती अपने लोग में देख सकते हैं। रामविलासजी एकदम निष्पाक,निष्कलंक,भूलों से रहित आदर्श मर्द नजर आते हैं। इसमें निजी कम है सामाजिक ज्यादा है और सब कुछ व्यवस्थित और सुनिश्चित दिशा में पाठक को ले जाने वाला। तकरीबन इसी शैली में नामवर सिंह ने भी अपनी आत्मकथा का एक अंश हिन्दी की एक पत्रिका में लिखा था। इन दोनों ही आलोचकों को हिन्दी का शिखरपुरूष कहा जाता है। किंतु दोनों की आत्मकथा में आत्म की वैधता की पुष्टि का भाव प्रबल है। जाहिर है स्त्री आत्मकथा के लिए ऐसे व्यक्तियों की आत्मकथा की पध्दति आदर्श पध्दति नहीं हो सकती। आत्मकथा पर विचार करते समय हमें ध्यान रखना होगा कि आत्मकथा लिखने के एक नहीं अनेक मॉडल या मानक हैं। एक नहीं अनेक रणनीतियां और पध्दतियां हैं। मजेदार बात यह है कि हमारे मर्द लेखक अपनी आत्मकथा लिखते समय किसी स्त्री के प्रभाव का खुलकर कभी वर्णन नहीं करते। 
       रामविलास शर्मा और नामवर सिंह से यह सवाल किया जाना चाहिए कि क्या स्त्री का प्रभाव उनके व्यक्तित्व पर पड़ा अथवा नहीं ? क्या स्त्री की भूमिका सिर्फ 'मालकिन' (रामविलास शर्मा के यहां) की है ,इसके अलावा रामविलासजी के व्यक्तित्व पर और कोई प्रभाव नहीं पड़ा स्त्री का। क्या हम यह मान लें कि नामवर सिंह और रामविलास शर्मा को जन्म देने वाली माँ और इनके अकादमिक जीवन में आई स्त्रियों और पत्नी का इनके व्यक्तित्व के निर्माण, संवेदना,अनुभूति आदि पर कोई असर नहीं था ? यदि था तो उसके ब्यौरे कहां हैं ? क्या मर्द लेखक के लिए स्त्री सिर्फ जन्म देने, ब्याह करने अथवा बेटी मात्र के संदर्भ के रूप में जिंदा है। क्या स्त्री इतना छोटा संदर्भ है कि उसका सिर्फ संबंध के रूप में हवाला देकर छोड़ दिया जाए। क्या यह सच नहीं है कि नामवर सिंह को अपनी आत्मकथा लिखने के बाद यह समझ में आया कि उनके अकेलेपन का सबसे बड़ा साथी यदि कोई है तो उनकी बेटी है।( 'आकार' पत्रिका को दिए साक्षात्कार में उन्होंने यह स्वीकार किया है, वास्तव में इसे विस्तार से खोलना चाहिए), आश्चर्य की बात है कि स्त्री के साथ सारी जिंदगी गुजारने वाले मर्द लेखक स्त्री अथवा पत्नी अथवा संपर्क में आई महिलाओं के प्रभाव की कभी चर्चा नहीं करते। आपको लगेगा कि लेखक कितना अच्छा है कि परिवार की औरतों से मिलने के अलावा किसी से नहीं मिलता रामविलास शर्मा और नामवर सिंह की आत्मकथा में औरत कहां है ? मॉ,दादी,पत्नी,बेटी के अलावा सामाजिक,राजनीतिक,साहित्यिक और अकादमिक जीवन में किस तरह की औरतें संपर्क में आईं और उनका क्या प्रभाव पड़ा ? इस सबका उनके परिवार पर क्या असर पड़ा ? ये सारे पहलू एकसिरे से गायब हैं। वे अपने बारे में बताना चाहते हैं किंतु ईमानदारी से अपने जीवन में आई औरतों के प्रभाव के बारे में नहीं बताना चाहते। भाषण में सत्य की हिमायत किंतु आत्मकथा में सत्य को छिपाना यही है बुनियादी आयरनी जो आलोचकद्वय की आत्मकथाओं में देख सकते हैं। इन दोनों  में स्त्री अनुपस्थित है अथवा गैर-महत्व की है। जबकि सच यह नहीं है। आप जिस औरत के साथ रहते हैं, जिन औरतों के  सामाजिक , अकादमिक  और राजनीतिक जीवन के संपर्क में आते हैं उनका कभी जिक्र क्यों नहीं करते ? 
     आत्मकथा का सारा कार्य-व्यापार मर्द केन्द्रित रहा है। उसके मानक भी मर्द केन्द्रित हैं। विधा के रूप में यह पुंसवादी विधा  है। स्त्री आत्मकथा मूलत: इसी मर्द केन्द्रिकता से लड़ती है। वुल्फ का आदर्श रूसो की आत्मकथा थी, किंतु लिखा एकदम भिन्न रूप में। वुल्फ की आत्मकथा को स्त्री आत्मकथा का मानक कहा जाता है। वुल्फ ने अपनी आत्मकथा में स्त्री की हाशिए की चीजों को पेश किया। साधारण सी दिखने वाली, छोटी-छोटी चीजों को साहित्य में दाखिल किया। साधारण,छोटी और हाशिए की चीजों को साहित्य में दाखिल करके वुल्फ ने साहित्य का पैराडाइम ही बदल दिया। वुल्फ का 'अपना कमरा' इसका आईना है। वुल्फ ने अपनी आत्मकथा में पितृसत्ताा के तंत्र और उसकी भूमिका की तीखी आलोचना की है। वह पितृसत्ताा की अंतर्वस्तु, विषयवस्तु, और विचारों की तीखी आलोचना करती है। दूसरा महत्वपूर्ण अवदान यह है कि वुल्फ ने विमर्श के प्रचलित मानकों और पध्दतियों को चुनौती दी है।
       साहित्य में निर्वैयक्तिक अभिव्यक्ति की परंपरा है उसे वुल्फ ने चुनौती देते हुए व्यक्तिगत को अभिव्यक्त किया है। बारबरा जॉनसन लिखा है कि इस तरह की प्रस्तुतियों के बहाने वुल्फ ने पितृसत्ताा की छद्म सार्वभौम संस्थागत धारणाओं को चुनौती दी है, यह रचना 1928 की है,इसमें वुल्फ के कई भाषण हैं। ज्ञान के विमर्श में वह व्यक्तिगत अनुभवों को शामिल करती हैं। इस क्रम में व्यक्तिगत अनुभव को स्त्री के साथ जोड़ा और तर्क की सत्ताा का अवमूल्यन किया। स्त्री आत्मकथा की धुरी है स्त्री का सत्यानुभव और तर्क का अवमूल्यन। 
    स्त्रीवादी साहित्य में स्त्री आत्मकथा को लंबे अर्से तक 'व्यक्तिगत आलोचना' की केटेगरी में रखकर देखा जाता था। उसकी कोई शक्ल नहीं थी, पहचान नहीं थी, किंतु इन दिनों स्त्री आत्मकथा एजेंसी और सब्जेक्टिविटी के रूप में देखी जा रही है। आज स्त्री आत्मकथा को आलोचना की प्रमुख विधा में गिना  जाता है। इसके कारण आलोचक की पहचान भी बदली  है,आलोचना भी बदली है। स्त्री आत्मकथा में सघन व्यक्तिगत अनुभूतियां होती हैं। वह पॉलिमिकल होती है। सतह पर राजनीतिक और आंतरिक तौर पर आलोचना के एकहरेपन को तोड़ती है। जब कोई स्त्री 'मैं' की शैली में लिखती है तो उसमें 'फिक्शन' पर कम 'तथ्य' पर ज्यादा जोर होता है। प्रभा खेतान की आत्मकथा में यही हुआ है। 'मैं' की शैली सुविधा के लिए इस्तेमाल की गई है। किंतु यह शैली कब फिसलकर 'हम' की शैली में चली जाती है,इसे सतर्क तौर पर ही देखने पर समझ सकते हैं। स्त्री का निजी कष्ट 'मैं' से शुरू होता है किंतु कुछ क्षण के बाद 'हम' में बदल जाता है।
       स्त्री आत्मकथा की असली जंग अनखुली सार्वजनिक जिंदगी के उद्धाटन में छिपी  है। जो ऑथरिटी है, अथवा कत्तर्ाा है, आदर्श विमर्श  हैं, उन सबके खिलाफ स्त्री आत्मकथा की जंग है। मजेदार बात यह है कि प्रभा खेतान की आत्मकथा का प्रमुख संदर्भ डा. सर्राफ हैं अथवा परिवार है, प्रभा इन दोनों का संदर्भ के रूप में इस्तेमाल करते हुए अपने कथानक को इनके दायरे के बाहर ले जाती है, इनसे स्वायत्ता बनाती है। इस क्रम में वह स्वयं पर ज्यादा फोकस करती है और स्वयं के निर्माण में मर्द संदर्भों की कितनी भूमिका है और स्वयं लेखिका कितनी भूमिका है ,इसके ब्यौरे देते हुए स्त्री आत्मकथा का नया रूप बनाती है। मर्द संदर्भ का संसार किस तरह वर्चस्व बनए हुए है और किस तरह स्त्री के प्रत्येक कार्य व्यापार और अनुभूतियों को निर्धारित कर रहा है, इसके बारे में विस्तार से लिखते हुए प्रभा खेतान स्वयं को आत्मनिर्भर बनाने पर जोर देती है। 
     सवाल उठता है कि प्रभा खेतान ने आत्मकथा क्यों लिखी ? असल बात यह है कि प्रभा के जीवन में जो कुछ घटा था उसने सैंकड़ों सवाल खड़े किए हैं , ये ऐसे सवाल हैं जिनका उत्तार पुस्तकालयों और संग्रहालयों में नहीं मिल  सकता, लेखक को जब अपने सवालों के जबाव नहीं मिलते तो उसके पास एक ही चारा बचता है कि वह कलम उठाए और लिखे। इसी संदर्भ में वुल्फ ने कहा था कि  कहानी में तथ्य की तुलना में सत्य ज्यादा होता है। प्रभा खेतान की आत्मकथा जब बाजार में आई तो सबसे पहले पत्रिकाओं में छपी है पढ़ने वाले मर्द ही ज्यादा रहे होंगे।  जब यह आत्मकथा आई तो इसकी गूंज मर्दो में ज्यादा सुनाई दी। इसलिए स्त्री आत्मकथा सिर्फ औरतों के व्यक्तिगत भावों की अभिव्यक्ति मात्र नहीं है। बल्कि इसके गंभीर सामाजिक परिणाम भी हो सकते हैं। इसके तर्कों को मर्दों को पढ़ना पड़ा है। कुछ लोग समीक्षा लिख रहे हैं, कुछ खुश हैं कि चलो एक आत्मकथा  और आई, कुछ ऐसे भी हो सकते हैं जिन्हें इसे पढ़ने में मजा नहीं आया हो, ऊब हुई हो। कुछ ऐसे भी लोग हो सकते हैं जो इसकी उपेक्षा करना चाहें। इस सबके बावजूद प्रभा की आत्मकथा निजी सत्य है और जब यह बाजार में आ गया है तो अब तो लेखिका का निजी सत्य दांव पर लगा हुआ है। पाठक इसे पढ़ते हुए लेखिका के सत्य में शामिल होता है ,जबकि आलोचकों के लिए इसमें पर्याप्त आलोचना सामग्री है, जो क्षमतावान पाठक हैं वे इस कहानी में हस्तक्षेप भी कर सकते हैं और इस किताब में जो विवाद हैं,संवाद है, विमर्श है उसे आगे बढ़ा सकते हैं। 
       प्रभा खेतान की आत्मकथा अन्या से अनन्या (2007) का विमर्श पितृसत्तात्मक संस्कृति को चुनौती देता है। स्त्री की भिन्नता को सामने लाता है। आलोचना के एकायामी अथवा इकहरेपन को चुनौती देता है। पुराने अर्थ और सत्ताा या शक्ति केन्द्रों को चुनौती देता है। यह ऐसी आत्मकथा है जो प्रचलित मर्द आत्मकथा के कथानक की संरचनाओं को तोड़ती है। यही इसकी सबसे बड़ी रचनात्मक उपलब्धि है। प्रभा खेतान की आत्मकथा उत्तर-संरचनावादी पैराडाइम का भी अतिक्रमण कर जाती है, उत्तर -संरचनावादी मानते हैं कि भाषा 'नान ट्रांसपरेंट' या गैर-पारदर्शी होती है। जबकि प्रभा की भाषा पारदर्शी है। इसके अलावा उत्तार-संचनावादी यह भी मानते हैं कि सब्जेक्टिविटी को हमेशा  प्रक्रिया में  चुनौती दी जा सकती है। आत्मकथा को भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है अत: भाषा जहां निजी व्यक्तित्व को व्यक्त करती है साथ ही व्यक्तिगत इमेज को बदलती है। आत्म की अभिव्यक्ति के लिए आत्मकथा लिखी जाती है और अंत में आत्मकथा आत्म के ऊपर ही सवाल खड़े कर देती है। इसे ही पाल दे मान ने साहित्य में 'डिफेशमेंट' की संज्ञा दी है। यह व्यक्ति विशेष के सरोकारों का भी 'डिफेशमेंट' है। किंतु स्त्री के संदर्भ में यह बात हमें ध्यान में रखनी चाहिए कि औरत के पास तो पहले से 'शक्ल' का अभाव ,पहचान का अभाव है, अत: पाल दे मान की धारणा स्त्री आत्मकथा के संदर्भ में ज्यादा मदद नहीं करती। 
      स्त्रियां लंबे समय से सार्वजनिक जीवन से बाहर रही हैं, पर्दे में, घर में कैद रही हैं। उनकी कोई पहचान नहीं रही है। आज भी औरतों का बड़ा तबका घरों में कैद है। चूंकि वह घर में कैद है, यही वजह है कि स्त्री का प्राइवेट जीवन साहित्य में आ नहीं पाया। उसका प्राइवेट संसार और शरीर ये दोनों ही साहित्य से गायब रहा है। स्त्री का 'आत्म' दमित,उत्पीड़ित रहा है। स्त्री का 'आत्म' या 'स्व' कभी भी आनंद भरा नहीं रहा है। स्त्री के जिस रूप और सौंदर्य का वर्णन हमारे साहित्य की उपलब्धि रहा है उसका स्त्री की यथार्थ जिंदगी से कोई संबंध नहीं है। वहां स्त्री का कृत्रिम रूप चित्रित हुआ है। स्त्री आत्मकथा के आने से स्त्री का दमित-शोषित 'आत्म' प्रकाशित होता है। इसमें स्त्री के अदृश्य रूपों और अव्यक्त जिंदगी को पढ़ा जा सकता है। स्त्री आत्मकथा में स्त्री के जीवन की चुप्पी या साइलेंस के इलाकों को देखा जाना चाहिए।  
     हिंदी भाषी समाज में 'आत्मगोपन' का महत्व है। 'आत्मगोपन' और 'गोपन' से समूचा समाज घिरा है। स्थिति इस कदर बदतर है कि मर्द 'गोपन' को भेद नहीं पाए हैं, ऐसे में किसी स्त्री का 'गोपन' को भेदकर आत्मकथा लिखना निश्चित रूप से महत्वपूर्ण घटना है। इसे साधारण घटना नहीं समझना चाहिए। हिन्दीभाषी समाज के अलावा पश्चिम बंगाल के समाज में भी 'गोपन' का बोध हावी है। इसके कारण बांग्ला साहित्य में भी ज्यादातर लेखिकाएं अपने 'गोपन' का उद्धाटन नहीं कर पायी हैं। प्रभा की आत्मकथा में पश्चिमी स्त्री लेखिकाओं की आत्मकथाओं का भी असर देखा जा सकता है। पश्चिमी लेखिकाओं की आत्मकथाओं में स्त्री और मर्द के संबंधों खासकर अन्य पुरूषों के साथ संबंधों का व्यापक जिक्र मिलता है। यही उनकी जीवन की मूल कथा भी रही  है। प्रभा ने इस फॉरमेट को सीधे वहां से लिया है और डा.सर्राफ के साथ अपने संबंधों को लेकर कथा का सारा तानाबाना बुना है। इसमें लेखिका के निजी जीवन को सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक संदर्भ में पेश किया है। यह दर्शकीय संदर्भ है। यह संदर्भ कैसे स्त्री चेतना बना और बिगाड़ रहा है, इसे लेखिका ने पाठकों पर छोड़ दिया है। 
       स्त्री जब आत्मकथा लिखती है तो विवादास्पद और अन्तर्विरोधी पोजीशन लेती है। स्त्री आत्मकथा में दो कहानियां एक साथ चलती रहती हैं। पहली कहानी अंतर्विरोधी लगती है जबकि इसके जरिए ही वह स्त्री की स्टीरियोटाईप छवि को तोड़ती है। स्त्री का यह वह रूप है जो मुख्यधारा की संस्कृति का हिस्सा है। स्त्री अपने अंतरालों,भाषिक रूपों  या  चंचल रूप को पेश करती है।  इस काम को करते हुए स्त्री की एकहरा छवि और उसके साथ जुड़े संबंधों को चुनौती दी जाती है। स्त्री अपनी आत्मकथा के जरिए अपनी पराधीनता को चुनौती देती है, स्त्री की ऐतिहासिक परिस्थितियां ऐसी होती हैं कि उसके पास द्विरूपात्मक पहचान होती है, अथवा यह भी कह सकते हैं कि उसके पास एकाधिक अस्मिताएं होती हैं। दोहरी चेतना होती है। स्त्री की दोहरी चेतना का प्रधान कारण है उसकी पराधीन अवस्था।
   स्त्री आत्मकथा लिखते हुए प्रचलित सांस्कृतिक रूपों के नरक को सामने लाती है। वह कैसे उस नरक में कैद  है ,किस तरह की बंदिशों में जी रही है अथवा किस तरह की पाबंदियां उसके ऊपर थोप दी गयीं, उनका उद्धाटन करती है और आत्मकथा के पुंस मानकों को चुनौती देती है। सन् 1980 और 1990 के दशक में आत्मकथा का दायरा चौड़ा हुआ है। आत्मकथा में नयी रणनीतियां और पध्दतियां समाहित की गई हैं। इसके चलते अनेक किस्म की आत्मकथाएं प्रकाशित हुई हैं। एक आत्मकथा तसलीमा नसरीन की है, एक मैत्रेयी पुष्पा की है,एक आत्मकथा बंगाली नौकरानी की आई है, एक अन्य आत्मकथा मलयालम में एक वेश्या की आई है। कहने का तात्पर्य यह है कि स्त्री आत्मकथा में 'स्व' से लेकर 'सैक्सुएलिटी' तक के आख्यान आए हैं। विभिन्ना वर्गों और पेशे की औरतों की आत्मकथाएं प्रकाशित हुई हैं। कुछ पुरानी आत्मकथाएं पुन: प्रकाशित हुई हैं। साठ और सत्तार के दशक में पश्चिम में जब बहादुरी से स्त्रीवादी औरतें संघर्ष कर रही थीं और जमकर लिख रही थीं ,उस समय केरल में माधवकुट्टी नाम की लेखिका ने  माई स्टोरी शीर्षक  आत्मकथा पेश की और केरल के समाज को उद्वेलित कर दिया। उल्लेखनीय है कि केरल में मलयालम लेखिकाओं में आत्मकथा लिखने की परंपरा काफी पुरानी है।सन् 1916 में पहली आत्मकथा  बारह साल के संस्मरण के नाम से सबसे पहले मलयालम में छपी। यह एक चर्चित पत्रकार और स्वाधीनता सेनानी की पत्नी बी. कल्यानी अम्मा की आत्मकथा है। इसके बाद तो अनेक स्त्रियों ने अपनी आत्मकथा लिखी है। संभवत: भारतीय भाषाओं में मलयालम में स्त्री आत्मकथा का सबसे समृध्द रूप देखने को मिलता है। माधवकुट्टी की आत्मकथा अनेक मायनों में मील का पत्थर है, इसने साहित्य में प्रचलित पुंसवाद को चुनौती दी और लिखा कि साहित्य में पुंसवाद सांस्कृतिक प्रतिगामिता का प्रतीक है और इससे अवसाद जन्म लेता है। मर्द साहित्य के बारे में इससे पहले किसी भी भारतीय लेखिका ने इतनी कठोर प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की है। 
    स्त्री की आत्मकथा के कई रूप हैं,जैसे डायरी,पत्र,संस्मरण, धार्मिक एवं आध्यात्मिक ध्यान साधना पध्दति,भजन, आत्म स्वीकृति,आत्मकथा, प्रथम पुरूष में लिखी कहानी आदि। आत्मकथा को पढ़ते समय यह बात हमेशा ध्यान रखी जाए कि लेखिका लाख दावा करे कि यह सत्य है। किंतु सत्य कब खोज में तब्दील हो जाता है इसके बारे में सुनिश्चित रूप से कहना मुश्किल है। जब स्त्री अपने जीवन को आधार बनाकर लिखती है तो वह सिर्फ आधार नहीं बनाती बल्कि अपने जीवन को बदलना भी चाहती है यही वह जगह है जहां वह खोज करती है। इसलिए 'सत्य' और 'खोज' की सीमाओं को तय करने में मुश्किलें आती है, सत्य कहां खत्म होता है और खोज कहां से शुरू होती है यह बताना मुश्किल है। 
      स्त्री आत्मकथा का कोई आदर्श मानक नहीं हैं। कौन सी चीज निजी है और कौन सी सार्वजनिक है यह बताना मुश्किल है। स्त्री आत्मकथा में लेखिका अपने परिवार, निजी जीवन,कामुकता, शारीरिक संबंध, आध्यात्मिक संबंध, शिक्षा, कर्म क्षेत्र आदि के बारे में बताती है।  उसका निजी जीवन के बारे में बताना वस्तुत: अपनी पुन: 'खोज' है, वह अपने को 'डिसकवर' करती है। इसके लिए वह अपनी स्मृति और अनुभव का सहारा लेती है। उसका चयन इच्छित है या अनिच्छित है, तयशुदा है अथवा अनजाने में व्यक्त हुआ है, वह इसमें क्या शामिल करती है और क्या छोड़ती है, यह उसका फैसला होगा। वह अपने विश्वदृष्टिकोण ,मूल्य, और राजनीतिक संदर्भ को उभारे या उपेक्षा करे , अपनी पीड़ा,अवसाद,कष्ट, वेदना आदि को प्रसारित करे या न करे, यह उसका निर्णय होगा, यदि वह ऐसा करती है तो अन्य के इतिहास के मातहत अपना इतिहास बनाती है। 
    स्त्री आत्मकथा में सत्य आत्मरूपायन और प्रतिनिधि स्त्री के रूपायन को लेकर तनाव उसके पाठ में देखा जा सकता है। वह अपने रूपायन के छद्म रूपों के जरिए अन्य औरतों की कहानी को भी उद्धाटित करती है। स्त्री आत्मकथा में पाठकों का भी ख्याल रखा जाता है, लेखिकायह सोचती है कि उसके पाठक कौन हैं ? परिवार या मित्र समुदाय के लोग हैं ? अथवा बृहत्तार समाज है ? मसलन् डायरी में तो स्वयं डायरी ही ऑडिएंस है। डायरी को बार-बार लिखते हैं और इसमें लेखक स्वयं ऑडिएंस होता है। डायरी के पन्नो आईने का काम करते हैं। जिन आत्मकथाओं में यौन शोषण का कथानक प्रमुख है वहां डाक्टर अथवा थेरपिस्ट प्रमुख ऑडिएंस है। इस तरह की आत्मकथा में महत्वपूर्ण यह है कि पीड़ित महिला किस तरह अपने अनुभव की व्याख्या करती है। विस्थापितों की आत्मकथाओं में परिभाषा और नजरिए के सवाल प्रमुख होते हैं। स्त्री आत्मकथा के बारे में सिडनी स्मिथ ने  ऑटोबायोग्राफीकल प्रैक्टिस,रेजिस्टेंस नामक आलेख (सिडनी स्मिथ और जूलिया वाटसन,संपादित, 'वूमैन,ऑटोबायोग्राफी,थ्योरी: ए रीडर 1998) में लिखा 'मैं' के रूप में वह पाठ के पहले मौजूद थी, 'मैं' आत्मकथावाचक है और 'मैं' पाठ का विषय भी है,इसके बावजूद 'पाठ' और 'स्त्री' दोनों पर्याय नहीं हैं। (पृ.108),  
      आत्मकथा में 'स्व' घुल जाता है, उसे आप खोज नहीं सकते,  इसलिए बुनियादी,मौलिक, सुसंगत आत्मकथा में 'आत्म' सीधे दिखाई नहीं देता। बल्कि 'स्व' के क्षण होते हैं जो आत्मकथन के जरिए व्यक्त होते हैं, और न आत्मकथात्मकता में आत्म अभिव्यक्ति होती है। हम यह भी नहीं कह सकते कि यह स्वर्त:स्फूत्ता ढ़ंग से ज्ञानमीमांसात्मक धरातल पर आंतरिक समग्र, उसकी समस्त सीवन उधेड़ते हुए व्यक्त हुआ सत्य है। लेखक और पाठक जिस 'प्रामाणिक' सत्य की आत्मकथा में खोज करते हैं वह पूर्व उपलब्ध,पूर्व अवस्थित आत्म नहीं है, बल्कि यह तो लिखने के बाद अस्तित्व में आया है। यह लिखित भूमिका (प्रिफॉरमेंस)है। बल्कि इसे मुखौटा कहना ज्यादा सही होगा। औरत इसलिए भी आत्मकथा लिखती है क्योंकि वह अतीत से मुक्त होना चाहती है। वह अतीत को बताकर ही अतीत से मुक्त हो पाती है। मुक्त होने के लिए बताना जरूरी है। जो लोग सोचते हैं कि वे बिना बताए मुक्त हो जाएंगे उन्हें गलतफहमी है। बगैर बताए कोई भी मुक्त नहीं हुआ। मुक्ति के लिए बताना जरूरी है। मुक्ति के लिए गोपन रखना जरूरी नहीं है। स्त्री अपने को सुरक्षित करने ,दुबारा जोड़ने और पुन: सृजित करने के लिए आत्मकथा लिखती है। वह अपरिहार्य को बताती है,उद्धाटित करती है। 
     स्त्री का आत्मकथा लिखना सक्रिय सामाजिक भूमिका अदा करना है,वह अपने पाठक को सक्रिय करती है,आन्दोलित करती है एक्शन के लिए तैयार करती है। इससे सामाजिक सक्रियता में इजाफा होता है। स्त्री आत्मकथा समाज और संस्कृति की आलोचना है, उसके साथ मुठभेड़ है, साथ समाज और संस्कृति में अपनी जगह बनाने का प्रयास भी है। 
     हिन्दी की अधिकांश  लेखिकाएं राजनीतिक तौर पर सक्रिय कार्यकर्त्ता नहीं हैं। वे मूलत: राजनीतिक दर्शक हैं अत: राजनीति के प्रति उनका दर्शकीय भाव रहता है। यह स्थिति प्रभा खेतान की आत्मकथा में भी है। इसके कारण लेखिका का व्यक्तिगत सामाजिक में रूपान्तरित होता है, किंतु राजनीतिक को व्यक्तिगत बनाने में असमर्थ रहती हैं। प्रभा के साठ साल के आत्म ब्यौरे में उनका लेखन और लेखकीय जगत एक सिरे से गायब है। सवाल यह है कि स्त्री आत्मकथा में लेखन आता है या नहीं ? क्या लेखन जगत के दोस्त उसके जीवन का हिस्सा हैं या नहीं ? डा.सर्राफ की मौत के बाद का पारिवारिक जीवन क्यों नहीं आता ? वे नौकरानियां कहां हैं जिनके परिश्रम पर प्रभा का लेखकीय और व्यापारी व्यक्तित्व खड़ा है ? हो सकता है लेखिका बाद में कभी इस बारे में बताए। 
     आमतौर पर स्त्री आत्मकथा में एक विलक्षण विभाजन आ रहा है कि लेखिकाएं अपने व्यक्तिगत और सामाजिक को बता रही हैं, किंतु लेखिकीय कार्य-व्यापार को छिपा रही हैं ? जबकि उनकी असली पहचान तो लेखन से बनी है। इससे एक बात उभरती है कि लेखिकाओं ने साहित्यिक जीवन और व्यक्तिगत जीवन में बंटबारा कर लिया है। यह विभाजन अभी तक जितनी भी आत्मकथा अथवा आत्मकथा के अंश लेखिकाओं के सामने आए हैं ,उनमें प्रमुखता से यह बात दिखाई दे रही है। क्या हम यह मान लें कि लेखिका ने अब तक जो लिखा उसमें उसके जीवन के अनुभव व्यक्त नहीं हुए ? इस प्रसंग में जे.के.के. कानवाय का जिक्र करना जरूरी है, उसने  वेन मेमोरी स्पीक्स: एक्सप्लोरिंग दि आर्ट्स ऑफ आटोबायोग्राफी (1999) में लिखा है ,लेखिका अपने आत्म का जब उद्धाटन करती है तो आत्म के पीछे सक्रिय सांस्कृतिक अनुमानों और परिस्थितियों का भी उद्धाटन करती है। इसी अर्थ में स्त्री आत्मकथा आत्म की कथा न होकर सांस्कृतिक कथा बन जाती है। वह अपने अतीत में झांकते हुए अपनी जातीय अस्मिता की खोज करती है, साथ ही उन रहस्यमय क्षेत्रों का भी संकेत करती है अथवा उद्धाटन करती है जो उसकी आस्था,ईश्वर, उपासना ,मंत्र-तंत्र आदि से जुड़े होते हैं। यह सब पेश करने का अर्थ है अपने रहस्य को पेश करना। इसके विपरीत मर्द की आत्मकथा में भगवान और भाग्य पर मर्द की सफलताओं के ब्यौरे रहते हैं। जबकि स्त्री आत्मकथा में भाग्य और भगवान के खेलों का उद्धाटन वस्तुत: रहस्य का उद्धाटन है, इसे रहस्य ,भगवान और भाग्य की प्रतिष्ठा का प्रयास नहीं समझा जाना चाहिए। यह सब बातें बताते हुए स्त्री भाग्य और भगवान के साथ कैसे संघर्ष करती है उसका भी उद्धाटन करती है। 
         स्त्री भाग्य की सत्ता को चुनौती देती है साथ ही यह भी बताती है कि उसका अपने भवितव्य पर नियंत्रण नहीं है। इसके चलते वह अनेक चीजों को सेंसर करती है। स्त्री आत्मकथा में चूंकि व्यक्तिगत बातें ज्यादा आ रही हैं, इसका प्रधान कारण यह भी है कि व्यक्तिगत चीजों का उद्धाटन इन दिनों आम बात हो गयी है, इसलिए स्त्री आत्मकथा के व्यक्तिगत प्रसंग अब चौंकाते नहीं हैं। आत्मकथा का क्षेत्र मर्द का क्षेत्र रहा है, हमारे यहां आत्मकथा जिन लेखकों की आदर्श मानी जाती रही है ,मसलन् रूसो की आत्मकथा 'सेकूलर हीरो' की आत्मकथा रही है, इस परंपरा का हिन्दी लेखक बड़ी कुशलता के साथ निर्वाह करते रहे हैं। कई उद्योगपतियों की आत्मकथाएं भी आई हैं जिनमें कैपीटलिस्ट हीरो का आख्यान है। इन दोनों ही किस्म की आत्मकथाओं में नैतिक तौर पर  श्रेष्ठत्व या हीरो का भाव व्यक्त हुआ है। इसके विपरीत स्त्री आत्मकथा में 'रोमैंटिक हीरोइन का भाव प्रबल रहा है। प्रभा की आत्मकथा में यह तत्व प्रबलता से सामने आया है। हिन्दी की स्त्री लेखकाओं का सारा वातावरण दमित वातावरण है और उनके जीवन में उत्पीडन,अभाव और जद्दोजहद के आख्यानों की भरमार है अत: हिन्दी लेखकाएं रोमैंटिक पक्ष पर उतना ध्यान नहीं देतीं, अथवा रोमांस उनके जीवन में आया ही नहीं ? दमित और उत्पीड़ित भाव की प्रमुखता और रोमांस का लोप यह एक विलक्षण स्थिति है हिन्दी लेखकाओं की आत्मकथा की। 
     रोमांस हमारे यहां अभी भी छिपाने वाली चीज है। इसके विपरीत पश्चिम की लेखिकाओं की आत्मकथाओं में 'रोमैंटिक हीरोइन' का भाव केन्द्रीय भाव है। स्त्री आत्मकथा में रोमांस नहीं तो प्रतिवाद नहीं। रोमांस वस्तुत: सामाजिक प्रतिवाद है। यह सचेत बगावत है। यह कामुक कार्य-व्यापार में पुंसवादी विचारधारा और वर्चस्व के खिलाफ किया गया हस्तक्षेप है। स्त्री की आत्मकथा में उन तमाम मुक्तिकामी लक्षणों को व्यक्त होना चाहिए जो स्त्री को रोकते हैं, उसका मुक्त मनुष्य के रूप में विकास रोकते हैं। स्त्री को आत्मकथा लिखते समय अपने को वैसे ही देखना चाहिए जैसे वह आईने में अपने को देखती है। आईना छिपाता नहीं है। 
    आत्मकथा को पढ़ते हुए मन में यह बात रहती है कि यह तो व्यक्ति की निजी कहानी है, यह अकेले का आख्यान है। अनेक स्त्रियां अपनी आत्मकथा को सबसे पहले कविता में व्यक्त करती रही हैं। संभवत: कविता पहला विधा रूप है जिसे आत्मकथा को व्यक्त करने के लिए औरत ने अपनाया। इसमें भी भजन सबसे पुराना रूप है। गद्य में वह अपने को बाद में व्यक्त करती है। स्त्री की आत्मकथा में उसकी उन कविताओं को भी शामिल किया जाना चाहिए जो उसके निजी मन की परतों को खोलती हैं। प्रत्येक स्त्री के जीवन में वे क्षेत्र होते हैं जिनके बारे में उसने कभी नहीं कहा है। स्त्री आत्मकथा में लेखिका का आत्म-सचेतन भाव प्रबल रहता है, यही वजह है कि वह स्वयं को भी सवालों के घेरे में खड़ा कर देती है, उसकी जो छवि पाठक के मन में होती है वह टूटती चली जाती है। स्वयं लेखिका के मन पर भी इस प्रक्रिया में बदलाव आते हैं। 
        आत्मसजग भाव से लिखने के कारण फ्रेगमेंटेशन भी आ जाता है। आत्मसजग भाव से लिखने के कारण लेखिका और पाठक दोनों ही आत्मकथा में खेलते हैं। स्त्री आत्मकथा में झूठ के मुँह पर सत्य को प्रतिष्ठित करने की कोशिश की जाती है। सत्य उसका आधार है। अभी तक हमने सत्य को मर्द की आंखों से देखा है। पहलीबार स्त्री की आंखों और अनुभवों से देखने का मौका स्त्री आत्मकथा में ही मिलता है।  इस क्रम में स्त्री परंपरागत रूपों को अस्त-व्यस्त कर देती है। यथार्थ को निर्मित करने के परंपरागत मानकों को बदल देती है। यह भी सच है कि स्त्री आत्मकथा में संपूर्ण सत्य नहीं होता अपितु फ्रेगमेंटेड सत्य होता है। स्त्री अपनी आत्मकथा में सत्य और झूठ दोनों का प्रयोग करती है। चूंकि स्त्री का जीवन फ्रेगमेंटेड होता है,संपूर्ण सत्य वह व्यक्त नहीं कर पाती अत: उसकी आत्मकथा में सत्य,कहानी,तथ्य और कहानी, कहानी और गैर कहानी इन सबका मिश्रण देख सकते हैं। इनके वायनरी अपोजीशन को देख सकते हैं। 
       स्त्री का अतीत स्त्री के लेखन के साथ पूरी तरह संपर्क नहीं करता उसमें हमेशा एक अंतराल रहता है, फांक रहती है। स्त्री के लिए अतीत के अनुभव महत्वपूर्ण हैं किंतु ये लेखिका के आत्म को उद्धाटित करने तक ही महत्वपूर्ण हैं। स्त्री आत्मकथा में झूठ का क्या स्थान है यह तय करना मुश्किल है, बल्कि यों कहें कि स्त्री के लिए झूठ अप्रासंगिक है। कुछ लोग यह मानते हैं कि स्त्री आत्मकथा में झूठ और भूल ये दोनों ही महत्वपूर्ण हैं। यह संभव है कि झूठ का कहने की शैली के रूप में इस्तेमाल किया गया हो। सामयिक स्त्री आत्मकथा में झूठ को तयशुदा रणनीति के तहत इस्तेमाल किया जा रहा है। हिन्दी की एक यशस्वी लेखिका ने हाल ही में प्रकाशित अपनी आत्मकथा में इस पध्दति का इस्तेमाल किया है,शायद वह यह मानती हैं कि झूठ बोलकर ही वह अपनी बात पुष्ट कर सकती हैं। वह झूठ को रणनीति के रूप में, अभिव्यक्ति की शैली के रूप में इस्तेमाल करती है। यहां उसकी मंशा झूठ को वैध बनाने की नहीं है बल्कि वह सत्य की वैधता की तलाश में झूठ का पध्दतिगत तौर पर इस्तेमाल करती है, कहानी और कल्पना का इस्तेमाल करती है। स्त्री का झूठ की पध्दति का इस्तेमाल वस्तुत: 'स्टिंग आपरेशन' है। 
       सामान्यत: स्त्री आत्मकथा में स्त्री का घरेलू जीवन और उसके आख्यान हावी रहते हैं, किंतु ऐसी आत्मकथाएं भी आ रही हैं जहां स्त्री घरेलू जीवन अथवा पारिवारिक जीवन के बाहर के सत्य को बता रही है। किसी आत्मकथा में स्त्री की सफलता का आख्यान है तो किसी में कष्टों और उत्पीड़न का आख्यान है।कहने का तात्पर्य यह है कि  यह तय करना मुश्किल है कि आत्मकथा में क्या बताएं और क्या न बताएं। आत्मकथा में क्या जाएगा ? कौन सा अंश जाएगा और कितना बताया जाएगा ? इन तमाम बातों के बारे में कोई नियम नहीं बनाया जा सकता। 
         आत्मकथा में कथा और आलोचना दोनों का ही समावेश रहता है। इस क्रम में स्त्री आत्मकथा के द्वारा आत्मकथा में लगायी गयी शर्तों और सीमाओं पर सवाल खड़े किए जाते हैं। वह रेखांकित करती है कि किस तरह ये सीमाएं उसके लिए बाधा का काम करती रही हैं। इस प्रक्रिया में औरत 'अन्या' की भूमिका के बाहर चली जाती है और जगत के केन्द्र में में अपने को ले आती है। वह उन तमाम चीजों को अपनी पकड़ या दायरे में ले आती है जो कभी उसकी पकड़ के बाहर थे, इसके कारण ही उसे 'अन्या' कहा जाता था, 'अदर' कहा जाता था। वह अपनी महत्ताा को अपनी शर्तों पर परिभाषित करने लगती है। वह यह भी बताती है कि उसका लेखन क्यों महत्वपूर्ण है और किनके लिए महत्वपूर्ण है, वह क्या लिखे और कैसे लिखे, इसका फैसला करने का सिर्फ उसे ही अधिकार है। वह अपनी ही एजेंण्ट है और अपनी इतिहासकार भी।

स्त्री और पुरूष की आत्मकथा में अंतर होता है। पुरूष जब आत्मकथा लिखता है तो वह बताता है कि वह किन विषयों पर लिखना चाहता है अथवा काम करता रहा है अथवा उसकी क्या भूमिका रही है। ऐसा करके मर्द की अस्मिता को पाठक को संप्रेषित करता है। यहां मर्द की तयशुदा ठोस पहचान सामने आती है। जार्ज गुसडोर्फ ने कंडीशंस एंड लिमिटस ऑफ आटोबायोग्राफी में लिखा है, मर्द के संस्मरण पैने और स्मरणीय होते हैं। चर्चित मर्द के संस्मरणों में अन्तर्विरोधों को छिपा लिया जाता है, ... लगता ही नहीं है कि वह कभी गलत रहा है। इस तरह की आत्मकथा मर्द के महिमांडन और सुरक्षा में खड़ी होती है। उसके कैरियर, राजनीतिक लक्ष्य को ध्यान में रखकर लिखी जाती है, उसकी समस्याओं को कौशलपूर्ण ढंग से छिपा लिया जाता है। यह सार्वजनिक क्षेत्र में रहने की सीमा है। प्रत्येक औरत की यह इच्छा होती है कि वह पत्नी बने ,आदर्श बीबी बने, किंतु ज्योंही वह लिखना शुरू करती है अपनी इस आदर्श छवि को नष्ट कर देती है। वह अभी घर में कैद है किंतु घर तक ही सीमित नहीं रहना चाहती। यही वजह है कि वह जब अपनी घरेलू जिंदगी के बारे में बताती है तो प्राइवेट जिंदगी के बारे में बताती है। बताने के बाद यह प्राइवेट नहीं रह जाता। स्त्री की प्राइवेट जिंदगी का एक अन्य हिस्सा है उसका शरीर। स्त्री आत्मकथा का यह चर्चित विषय रहा है। शरीर के बारे में आत्मकथा उन तमाम विषयों से शुरू होती है जिन पर समाज खुलकर बातें नहीं करता, मसलन् पहला मासिक धर्म कब हुआ, कैसी अनुभूति हुई, स्त्री के गुप्तांगों के प्रथम स्पर्श में उसकी अनुभूति कैसी थी, शरीर के अंग जब बदल रहे थे तो कैसा महसूस करती थी, पहलीबार जब संभोग किया तो कैसा लगा, पहलीबार चुम्बन लिया तो कैसी अनुभूति थी इत्यादि विषयों पर रोशनी डालते हुए लेखिका मूलत: कामुकता और उसके साथ के अपने संबंधों का खुलासा करती है। ऐसा करते हुए और मर्द केन्द्रित अथवा शिश्नकेन्द्रित चिन्तन को ध्वस्त करती है। वह यह भी बताती है कि उसका शरीर महत्वपूर्ण है,उसकी व्यक्तिगत अस्मिता महत्वपूर्ण है। स्त्री आत्मकथा की सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि इसकी लेखिका हमेशा अपने 'स्व' के प्रति सजग रहती है। उसे ज्यादा जानती है। लेखिका अपने मन और विषय के प्रति हमेशा सजग रहती है, उसकी यह सजगता मुश्किलें पैदा करती है। जबकि लेखन पूरी तरह सजग होकर, नियंत्रण और निदेशित भाव से नहीं किया जाता। जब शरीर के विवरण,ब्यौरे,कामुकता के तरह-तरह के कार्य-व्यापार आत्मकथा में आने लगते हैं तो यह एक तरह की मानसिक बीमारी है। ये असंतुलन की देन हैं। 'डिसऑर्डर' का रूप हैं।

       स्त्री आत्मकथा की बुनियादी विशेषता है कि इसकी कहानी में 'कोहरेंस' का अभाव होता है। क्योंकि औरत अपने को तयशुदा और टिकाऊ व्यक्ति के रूप में नहीं देखती। वह अपने को तरल रूप में देखती है। उसके अंदर कई पैमाने होते हैं । औरत जब अपने बारे में लिखती है तो उसकी कहानी कई जगह से विखंडित नजर आती है,तारतम्य का अभाव दिखता है। वह कोई बात पूरी नहीं कहती, हमेशा अधूरी बात कहती है। यह औरत की बिडम्बना है कि वह फ्र्रेगमेंटेशन पर निर्भर है। उसका काम विशिष्ट हो जाता है। वह स्वयं भी विशिष्ट हो जाती है। उसकी आत्मकथा ज्यादा रचनात्मक होती है वह किसी भी फॉर्म को चुन सकती है। उसकी अंतर्वस्तु कुछ भी हो सकती है। 
      हाल के वर्षों में स्त्री आत्मकथा के चरित्र में मूलगामी बदलाव आया है। उसे सत्य की मूल परिभाषा के आधार पर नहीं परखा जा सकता। कायदे से लेखन की अंतर्वस्तु और रूप को वास्तव का आईना होना चाहिए। स्त्री को अपनी आत्मकथा के लिए मर्द की आत्मकथा का रूप एक सिरे से अप्रासंगिक लगता है अत: वह अपना स्पेस तैयार करने के लिए नए रूपों को इजाद करती है। स्त्री का व्यक्तित्व स्प्रिंग की तरह होता है। वह अभी दबी है और उसी क्षण दबाव से पूरी तरह मुक्त भी है। वह अपनी आवाज की तलाश में उन तमाम विधा रूपों को अस्वीकार करती है जो उसकी अस्मिता की आवाज में फिट नहीं बैठते। 

प्रत्येक स्त्री के अंदर एक उत्साही औरत होती है,बेखौफ औरत होती है। यही वजह है कि बार-बार उसे परिवार के लोग कहते रहते हैं 'तुम ऐसा मत करना', 'तुम वैसा मतकरना,औरत के लिए जितने नियम ,निषेध और पाबंदियां हैं उतनी किसी पर नहींहैं। एस. स्मिथ ने कंस्ट्रक्टिंग ट्रुथ इन लायिंग माउथ: ट्रूथटेलिंग इन वूमेन आटोबायोग्राफी नामक निबंध में लिखा कि औरत के संदर्भ में सत्य पुनर्परिभाषित करने की जरूरत है। क्योंकि स्त्री सत्य को नए सिरे से परिभाषित करती है।

      स्त्री आत्मकथा में लेखिका स्वयं के प्रति निंरतर सवाल उठाती है। इस प्रक्रिया में वह बताती है कि कोई भी चीज निश्चित अथवा तय या अंतिम नहीं है। बल्कि सब कुछ परिवर्तनीय और तरल है। इसके कारण स्त्री आत्मकथा में स्त्री की एकाधिक अस्मिताओं को देख सकते हैं। यह ऐसा क्यों है ? अन्या क्या है ? ये ही दो सवाल हैं जो बार-बार आकर प्रतिरोध करते हैं। मर्द की आत्मकथा में सब कुछ एक्स्ट्राआर्डिनरी होता है। जबकि औरत की आत्मकथा को साधारण स्त्री की कथा के रूप में देखा जाता है। परंपरागत आत्मकथा में रूपक, मिथ, सामुदायिक आख्यान,कविता,फोटोग्राफ आदि का इस्तेमाल किया जाता है। इसमें कहानी के अंदर कहानी होती है। अध्याय के अंदर उपअध्याय  मिलेंगे। मर्द की आत्मकथा में सामाजिक तथ्यों पर जोर होता है जबकि स्त्री आत्मकथा में  व्यक्तिगत और आत्मसजगता पर जोर रहता है। स्त्री का शरीर उसकी आत्मसजगता का हिस्सा है, उसकी कामुकता, शरीर,प्यार आदि ये सब इसका हिस्सा हैं। आत्मकथा में शरीर का स्त्री कई तरीके से इस्तेमाल करती है। मसलन् कैसे उसकी शारीरिक पवित्रता नष्ट हुई, कैसे उसने अथवा उससे किसी पुरूष ने प्यार किया अथवा कामुक हमला किया। वह इसे बताते हुए अपने 'स्व' को कामुकता के साथ जोड़ती है। 
       स्त्री आत्मकथा में आत्मसजगता का तत्व प्रबल रहता है ,'स्व' का निर्माण जारी है। 'स्व' कोई बनी-बनायी चीज नहीं है। बल्कि लेखक 'स्व' के निर्माण की प्रक्रिया में खिलाड़ी भाव से दाखिल होता है। स्त्री हमेशा आत्मकथा को परिप्रेक्ष्य को पुन: प्राप्त करने के नजरिए से लिखती है। इसे हासिल करने में उसका पाठक मदद करता है। साथ ही उसे संतोष भी मिलता है। इसलिए यह भी कहा जाता है कि स्त्री आत्मकथा में सान्त्वना परिप्रेक्ष्य भी रहता है। परंपरागत आत्मकथा में एकता की तलाश पर जोर रहता है जबकि स्त्री आत्मकथा में एकता अथवा यूनिटी का तत्व गैर-जरूरी है। एकता को औरत असत्य मानकर चलती है। स्त्री आत्मकथा को सिडनी स्मिथ ने  झूठ के मुँह पर सत्य की निर्मिति कहा है। इस क्रम में उसने लिखा है कि स्त्री का अनुभव सत्य होता है। वह परंपरागत मानकों को अस्त-व्यस्त कर देती है। स्त्री का 'मैं' हमेशा 'एप्रोक्सीमेट' या लगभग के रूप में व्यक्त होता है। 
         स्त्री का 'स्व' अनंत है, वह कभी खत्म नहीं होता, उसकी कहानी चलती रहती है। उसे अनंत काल तक चला सकते हैं। हम जब यह कहते हैं कि स्त्री आत्मकथा फ्रेगमेंटेड होती है, उसमें अंतराल होते हैं तो इसका यह अर्थ नहीं है कि मर्द की तरह उसके यहां निरंतरता का अभाव होता है। बल्कि इसके कारण ही अंतराल दिखाई देते हैं। मर्द की आत्मकथा में पाखण्डी एकता होती है। इसके कारण उसके यहां अंतराल अथवा फ्रेगमेंटेशन दिखाई नहीं देता। दूसरी बात यह है कि मर्द के अंतरालों की हम उपेक्षा अथवा अनदेखी करते हैं। यह काम हम सुसंगति और संहति दरशाने के लिए करते हैं। वही हमारी आत्मकथा का आदर्श रूप भी रहा है। फ्रॉयड के द्वारा अवचेतन की खोज के बाद से मनुष्य के अंतरालों को खोलने में मदद मिली ,इसके कारण मर्द की आत्मकथा में जिस संहति,संगति और एकता को महिमामंडित किया जा रहा था उससे भी मुक्ति मिली और फ्रेगमेंटेशन की ओर ध्यान गया। फ्रेगमेंटेशन ने ही परंपरागत आत्मकथा को चुनौती दी। एस. स्मिथ और जूलिया वाटसन ने  वूमैन,आटोबायोग्राफी,थ्योरी की भूमिका में लिखा है, पितृसत्ताात्मक संस्कृति औरत को बहिष्कृत करके रखती है। यही वजह है कि औरतें अपनी कहानी भिन्ना शैली में कहती हैं। आत्मकथा भिन्ना रूप में लिखती है। स्त्री का सांस्कृतिक उत्पादन ,उसकी आत्मकथा परंपरागत मर्द की आत्मकथा के रूपों से भिन्ना होती है। उसके विषयों को हमेशा 'व्यक्तिगत' और 'सामान्य' कहकर आलोचना की जाती है। स्त्री के संदर्भ में जो सामान्य दिखता है वही असल में असामान्य है,विशिष्ट है।

हिन्दी में पहली आत्मकथा धार्मिक भजनों के रूप में मीराबाई ने लिखी है। मीरा पहली आत्मकथा लेखिका है। समस्त स्त्रीवादी एकमत हैं कि स्त्री आत्मकथा धार्मिक रूपों में भी व्यक्त होती है। अथवा डायरी के रूप में आत्मकथा का आधुनिक काल में श्रीगणेश हुआ था। स्त्री अपनी आत्मकथा को पहले के जमाने में अन्य चेतना के रूपों की मौजूदगी में कहती थी, अन्य के बहाने कहती थी, हिन्दी में कई लेखिकाओं ने अपनी आत्मकथा को इसी रूप में मध्यकाल में लिखा है। मध्यकालीन लेखिकाओं में मीरा सबसे चर्चित नाम है। औरतें अपने पति की मौजूदगी में नहीं बोलती थी, वे जब भी बोलती थीं उनके सामने कोई अन्य रहता था। स्त्री अपनी स्वीकृति अन्य की चेतना की उपस्थिति के अहसास को पैदा करके देती है।

          स्त्री आत्मकथा में दो तरह का सत्य होता है , पहला सत्य विशिष्ट होता है, निजी होता है, दूसरा सत्य सामुदायिक होता है। जिसे हम स्त्री का साझा सत्य कह सकते हैं। आत्मकथा में इन दोनों ही किस्म के सत्य की अनुभूतियों का वर्णन मिलता है। पितृसत्ताात्मक संस्कृति में स्त्री का सत्य चुप रहता है ,स्त्री आत्मकथा उसे अभिव्यक्ति देने का काम करती है। यह सब कुछ पाठ में व्यक्त होता है। अभी तक हम मर्द के पाठ और मर्द सत्य के अभ्यस्त थे, अब मर्द सत्य की विदाई की शुरूआत हो चुकी है,औरतें आत्मकथा लिखने लगी हैं। औरत चूंकि फ्रेगमेंटशन में रहती है, अस्थिर अवस्था में रहती है अत: 'स्व' को पूरी तरह व्यक्त नहीं कर पाती। आम तौर पर  पहचान के उन रूपों को स्वीकार कर लेती है जो उसे विरासत में मिले हैं। हाल के वर्षों में औरतों ने विरासत में मिली पहचान के रूपों को अस्वीकार करना शुरू किया है और अपनी अस्मिता बनाने का काम शुरू किया है। 

सवाल पैदा होता है कि स्त्री आत्मकथा क्यों लिखती है ? इसलिए लिखती है कि सत्य के नाम पर चल रहे छद्म का उद्धाटन कर सके। यह सत्य और झूठ के बायनरी रूप के उद्धाटन की कोशिश भी है। वह कहानी और गैर कहानी का वर्गीकरण्ा बनाती है। गैर कहानी कभी कहानी नहीं हो सकती,उसी तरह कहानी कभी गैर कहानी नहीं हो सकती। आमतौर पर कहानी ही आत्मकथा का रूप रही है। परंपरागत रूप रही है। जिसमें समग्र सत्य बता दिया जाता है और असत्य का अंश मात्र भी प्रयोग नहीं होता। जबकि कहानी में सब कुछ काल्पनिक होता है। वह तो गल्प है। कहानी का काल्पनिक चरित्रों के जरिए विकास होता है। यही वह बिंदु है जहां असत्य दाखिल हो सकता है। जबकि सच यह है कि सत्य के लिए काल्पनिक चरित्रों की जरूरत नहीं पड़ती। हम जब स्त्री आत्मकथा पढ़ते हैं तो पाते हैं कि स्त्री इन दोनों के बीच के विभाजन को नष्ट कर रही है। स्त्री का तर्क है कि सत्य निर्मिति है।

       स्त्री आत्मकथा में 'सत्य कहानी' की खोज करना मुश्किल काम है। सच यह है कि पाठ तो असत्य होता है। यह वह पाठ है जिसे मद्र ने बनाया है,रचा है। वही पाठ का नियंता है। इसके विपरीत स्त्री का पाठ महासत्य होता है। स्त्री आत्मकथा को सत्य और झूठ के वर्गीकरण के परे जाकर पढ़ा जाना चाहिए। इतिहासकारों के पास प्रमाणित करने और परखने के लिए पर्याप्त समय होता है, वे परख सकते हैं, प्रमाणों की पुष्टि कर सकते हैं। किंतु इसके बावजूद आत्मकथा एक कला रूप है। साहित्यिक समर्पण है। जो लोग यह कहते हैं कि आत्मकथा में सम्पूर्ण सत्य होना चाहिए वे कहीं न कहीं परंपरागत आत्मकथा की धारणा से बंधे हैं। 

स्त्री आत्मकथा में एकीकृत करके चीजें पेश नहीं की जातीं। स्त्री अपनी आत्मकथा में 'स्व' और 'निर्मित कहानी' दोनों का इस्तेमाल करती है। आत्मकथा लेखक जीवन के तथ्यों को अस्त-व्यस्त कर देता है। वह किसी भी किस्म की 'सत्य कहानी' की सभावनाएं नष्ट कर देता है। स्त्री आत्मकथा चित्रकार की पेंटिंग की तरह है। जिसमें फ्रेगमेंटेड ढ़ंग से इधर-उघर ब्रश मारे गए हैं। औरत अपने को एकीकृत व्यक्ति के रूप में नहीं देखती। अत: वह जैसी है वैसा ही लिख नहीं सकती। इसके बावजूद औरतें लिख रही हैं ,वे जानती हैं कि स्त्री आत्मकथा विधा फिसलनभरी है।

ज्‍यॉक देरि‍दा और वि‍खंडन का पक्ष-वि‍पक्ष

                पाठ के बाहर कुछ भी नहीं है। (ग्रामाटोलॉजी,1976,226-7)
    

जॉन केपटो ने कहा सामयिक दर्शन में सबसे ज्यादा गलत ढ़ंग से इस पदबंद की व्याख्या हुई है। बल्कि कुछ लोगों ने भाषाविज्ञान में स्कैंडल ही खड़ा कर दिया है। इसका अर्थ है किसी भी किस्म की संस्कृति के अभ्यास अन्तर्विरोधी शक्ति संघर्षों,हिंसा और प्रभुत्व के फ्रेमवर्क में व्याख्यायित नहीं किए जाने चाहिए। इसके प्रत्युत्तर में देरि‍दा ने कहा मुझे आश्चर्य नहीं है कि मेरे आलोचकों ने मेरे काम के बारे में है कि भाषा के परे कुछ भी नहीं है। ... बल्कि सच यह है कि बात इसके विपरीत है। शब्दकेन्द्रित आलोचक मेरे काम में 'अदर' यानी 'अन्य' को खोज रहे थे। और ' अन्य की भाषा' खोज रहे थे। यदि विखंडन का अर्थ यदि यह अर्थ है कि सब कुछ किताब के अंदर है तो किसी को भी इस बात पर ध्यान देने के लिए महज पांच मिनट खर्च करने होंगे।

देरि‍दा ने कहा  विखंडन आरंभ होता है शब्दकेन्द्रिकता के विखंडन से, और हम भाषायी फिनोमिना तक ही सीमित रहकर अपने कार्य पर संदेह कर रहे हैं। आमतौर पर विखंडन का परंपरागत राजनीतिक एजेण्डा से गहरा संबंध है। राजनीतिक संग्राम वर्गयुध्द की बजाय अब संस्कृति के क्षेत्र में हो रहा है। संस्कृति के क्षेत्र में भाषा भी आती है। संस्कृति ही हमारे व्यक्ति की शक्ति को अनुशासित करने वाला तत्व है।  यही वह बिंदु है जहां पर हमें देखना होगा किस तरह विभिन्न तत्व सत्ता और शक्ति के संतुलन को बना रहे हैं। यह भी देखना होगा इनमें किस तरह का साझा संबंध है। किसी भी विषय अथवा व्यक्ति के बारे मे बातें करते हुए यह देखना होगा कि वह अवधारणा, नियमन, आदि के स्तर पर किस तरह का संबंध बन रहा है। संगति और समग्र रूप में मातहत बनाने की कोशिशें कैसे जारी हैं। सामाजिक केटेगरी को किस रूप में पेश किया जाता है। उसमें पीछे किस तरह का मनोविज्ञान,भावनाएं आदि सक्रिय हैं।
   देरि‍दा के यहां विखंडन का अर्थ है उदय की जटिलताओं का उद्धाटन करना। विखंडन का अर्थ विध्वंस नहीं है। बल्कि अर्थ खोलना,जीवित रखना,ढीला, स्वयं के खिलाफ चौकसी करना। 
   देरि‍दा ने 1995 में  एपलाईंग टु देरि‍दा शीर्षक से हुई कॉफ्रेंस में कहा  विखंडन को लागू नहीं कर सकते,  लागू नहीं कर सकते। यही वजह है हम संदेह का इस्तेमाल कर रहे हैं। यही विखंडन है। असंभव को खोजने और उसे लागू करने के साथ प्रसार को भी देखने की जिम्मेदारियों को अन्तर्विषयवर्ती पध्दति के जरिए देखना होगा। यह कार्य गैर निर्धारणवादी तरीके से करना होगा।  देरि‍दा ने कहा  गैर-ज्ञान के क्षण और कार्यक्रम के परे जाना होगा। विखंडन का लक्ष्य है नए क्षेत्रों की ओर खोज के लिए उत्प्रेरित करना ,उत्तेजित करना। ये ऐसे क्षेत्र होंगे जिनको शायद ही कोई पहचान पाए। नया युग इस बात पर जोर देता है कि सार्वजनिक तौर पर बोलो अथवा गायब हो जाओ। 
  अमरीका में साहित्य में विखंडन एक ऐसे समय में दाखिल होता है जब आर्थिक क्षेत्र में मार्क्‍सवाद हावी था। आलोचना में स्त्री आलोचना, सांस्कृतिक समीक्षा आदि का दबदबा था। साहित्य में विभिन्न रंगत के लोगों की अभिव्यक्ति होती है। यह विचार हावी था। देरि‍दा ने विखंडन के बारे में लिखा शब्दों का अर्थ मर रहा है। अथवा शब्द अर्थ खो रहे हैं। अब हम शब्दों के अर्थ को स्मृति के तौर पर जानते हैं। रूखे अर्थ के रूप में जानते हैं। अथवा इस रूप में जानते हैं कि एक मर्तबा शब्द का यह अर्थ था। देरि‍दा शब्द के बारे में कहता है उसका अर्थ वर्तमान में होता है और फिर गायब हो जाता है। यह मूलत: हाइडेगर की पध्दति है। 
     विखंडनवादी दर्शन को समझने के लिए रूपकों को सही ढ़ंग से पढ़ने का कौशल विकसित करना होगा। मसलन् हम जब 'पेन' कहते हैं तो हमारे जेहन में उसका एक अर्थ कौंधता है। किंतु हम ज्योंही 'पेन' किसी को खींचकर मारते हैं तो अर्थ बदल जाता है। पेन अपना स्याही सहित लेखन के उपकरण का अर्थ खो देता है। इसका अर्थ यह है कि 'पेन' का अब वही अर्थ हमारे जेहन में होता है जो स्मृति में है। अब हम यह नहीं सोच पाते कि 'पेन' हथियार बन गया है। 'पेन' को खींचकर मारने की स्टाइल का अर्थ है गुस्से का इजहार करना। यदि 'पेन' का उपयोग किया जाता है तो 'पेन' का शब्द के तौर पर प्रयोग शाब्दिक अर्थ व्यक्ति के संदर्भ में पीड़ादायक, दर्दनाक होगा। व्यक्तिगत चोट पहुँचाने वाला होगा। बदले में आप पेन से मार भी सकते हैं। इस तरह पेन का अर्थ निरंतर बदलता रहता है। विस्तार पाता है और अंत में मानवीय दिमाग में जगह बना लेता है। यही वजह है कि मनुष्य का दिमाग निरंतर व्याख्या करता रहता है। विखंडन के अनुसार 'पेन' का कोई निश्चित अर्थ नहीं है और न किसी भी शब्द का कोई भी निश्चित अर्थ है। 'पेन' के तर्क भाषाविज्ञान के तर्कों पर टिके हैं। विखंडनवादी मानते हैं किसी भी शब्द का अर्थ बहुत ही जल्दी डिफ्यूज हो जाता है। फलत: हम वास्तविक अर्थों में संप्रेषित ही नहीं कर पाते। शब्द का कोई अर्थ नहीं बचता।
   अमेरिकी आलोचना में व्यापक स्तर पर  डिफरेंस और डिफरमेंट पदबंध का प्रयोग मिलता है। देरि‍दा कहता है हमारे दिमाग में किसी भी बात को लेकर विभिन्न किस्म के विचार आते-जातेहैं। एक ही बात के अनेक किस्म के अर्थ व्यक्त होते हैं। देरि‍दा कहता है तर्क में भेद का अर्थ है इस बात का कोई अर्थ नहीं है। दिमाग चीजों को निरंतर भिन्न -भिन्न ढ़ंग से देखता रहता है। इसके कारण मूल अर्थ गायब हो जाता है। अथवा अपनी महत्ता खो देता है। अथवा सटीक अर्थ खो देता है। अब वह महज 'ट्रेस' यानी शब्दसमूह मात्र रह जाता है। 
   साहित्य में विखंडन का कार्य है परंपरागत अर्थ को अपदस्थ करना और यह बताना कि कृति किस तरह परंपरागत अर्थ का उल्लंघन करती है। आलोचक बताता है चीजें कैसे घटित हुईं। विखंडनवादी परंपरागत अर्थ को अपदस्थ करके नए अर्थ की सृष्टि करता है। यह अर्थ राजनीतिक तौर पर सही होना चाहिए और हमारे समाज को स्वीकार्य भी हो। देरि‍दा कहता है शब्द का रूपान्तरणकारी अर्थ स्वीकार्य नहीं है। शब्द का वही अर्थ होता है जो नया खोजा गया है। शब्द रूपान्तरणकारी अर्थ से अपने को मुक्त कर लेता है। देरि‍दा के लिए शब्द ब्रह्म नहीं है। बल्कि नीत्शे की तरह देरि‍दा भी मानता है कि भगवान भाषिक निर्मिति है। देरि‍दा का मानना है शब्दों (लिखित अथवा वाचिक) के जरिए संप्रेषण करना असंभव है। 
   देरि‍दा के यहां एक पदबंध है असंभव,इसका व्यापक इस्तेमाल किया गया है। असंभव का यदि विखंडन किया जाएगा तो संभव निकलेगा। क्योंकि असंभव कुछ भी नहीं है। ऐसी अवस्था में संभव सबसे ज्यादा खतरनाक पदबंध साबित होगा। खतरनाक से तात्पर्य है संभव के सभी नियम , प्रक्रिया,पध्दति, और पाने के अभ्यास उपलब्ध होंगे। इस समूची प्रक्रिया में दाखिल होने का अर्थ है कुछ असंभव का अनुभव भी हो सकता है। इस अर्थ में विखंडन खोज है अथवा कुछ भी नहीं है। इसको पध्दति के रूप में ही समाप्त नहीं कर सकते। बल्कि यह रास्ते खोलता है।आगे जाने के लिए प्रेरित करता है। अब लेखन प्रस्तुति नहीं है बल्कि लेखन नियमों को भी पेश करता है। अन्य कन्वेंशन पेश करता है। 
   विखंडन में दिलचस्पी का अर्थ है कुछ खास किस्म के अनुभव हासिल करना, शक्ति और इच्छा की असंभव स्थितियों से दो-चार होना। नए किस्म की प्रस्तुति के लिए तैयार होना। इस प्रक्रिया में लगाव भी होगा। फिर घटना,खोज आदि का भी जन्म होगा। विखंडन की सैध्दान्तिकी का देरि‍दा से प्रत्यक्ष संबंध नहीं है बल्कि अमेरिका के येल विश्वविद्यालय की सैध्दान्तिकी से इसका गहरा संबंध है। यह उत्तरसंरचनावादी सैध्दान्तिकी है। यह मूलत: दार्शनिक लेखन के अध्ययन की पध्दति है। इसका साहित्य पर भी असर पड़ा और यह अमेरिका के येल विश्वविद्यालय के द्वारा ही प्रचारित किया गया। देरि‍दा बाद में जुड़े हैं। 
    विखंडनवाद एक जटिल चीज है। इसमें ऐतिहासिक और सांस्कृतिक जटिलताओं के साथ पाठ का अध्ययन किया गया है। पाठ का एक-दूसरे संस्थान के साथ क्या संबंध है। लेखन की परंपर का संस्थानों से क्या संबंध है। इन सबके बारे में विचार किया गया है। भाषा आमतौर पर अप्रत्यक्ष और अन्तर्विरोधी ढ़ंग से काम करती है। फलत: कुछ न कुछ छिपाती है।  
    देरि‍दा के शब्दों में विखंडन क्या है ? सब कुछ विखंडन है। और कुछ भी विखंडन नहीं है। नीत्शे ने एक किताब लिखी थी जिसका शीर्षक था  दस स्पोक जरथुस्त्र इसमें नीत्शे ने लिखा था किताब सबके लिए और किताब किताब किसी के लिए नहीं। यही वह धारणा है जहां से देरि‍दा ने विखंडन को उठाया है। विखंडन का विमर्श और भाषा पर जोर है। ये दोनों ही चीजें संरचनावाद से विरासत में ली हैं। हम इस संसार को भाषा के जरिए ही जानते हैं और भाषा के जरिए जानते हुए इसके मनमाने अर्थ करते हैं। इसका सुनिश्चित अर्थ नहीं करते। शब्द के साथ सुनिश्चित अर्थ की बात बार-बार कही जाती है। किंतु शब्द का अर्थ सुनिश्चित नहीं होता बल्कि मनमाना होता है। भाषा के जरिए ही यथार्थ से संपर्क बनाते हैं। समत्व अथवा भिन्नता भी प्रदर्शित करते हैं। यह वह प्रस्थानबिंदु है जहां से संरचनावाद का आरंभ होता है। शब्द का माध्यम ,विधा और व्यक्ति के अनुसार अलग-अलग अर्थ होता है। यह अर्थभिन्नता संदर्भ पर निर्भर करती है। 
     अनेक आलोचक मानते हैं कि हॉपकिंस विश्वविद्यालय में सन् 1966 में देरि‍दा के द्वारा दिया गया व्याख्यान विखंडनवाद का आरंभ है। इस व्याख्यान में देरि‍दा ने कहा था परंपरागत अर्थ में दर्शन रूपक है। दर्शन अपदस्थ रूपकों की सीरीज है। इसके आगे जाकर अपने व्याख्यान में देरि‍दा ने साइन,स्ट्रक्चर एंड प्ले यानी  संकेत,संरचना और खेल पर बातें कहीं। देरि‍दा ने अपने व्याख्यान में पश्चिमी इतिहास में आऐ 'रेप्चर' का विस्तार के साथ जिक्र किया और बताया कि 'रेप्चर' के कारण परंपरागत दार्शनिक विचार 'अकेन्द्रित' हो गए हैं। यह 'रेप्चर' आने के पहले दर्शन के विभिन्न सिस्टम थे। तयशुदा व्यवस्था और समाधान थे। पहले से जो था उसे पुन: खोजा गया। किंतु वह स्वयं अपना सही समाधान नहीं कर पाया। वे अंधे थे। इसी को देरि‍दा ने संरचना की संरचनात्मकता  कहा है। मनुष्य के विचारों का ढ़ांचा तो स्वयं उसने बनाया है। वह यह मानता है यह संरचना तय है और अपने उदय केन्द्र से रूपान्तरित होती है। केन्द्र स्थिर है और इसकी भूमिका के  तीन लक्ष्य हैं - 1. संरचना बनाना,संतुलित करना और संगठित करना। 2. यह सुनिश्चित किया जाए कि संरचना को संगठित करने वाल सिध्दान्त सीमित हो.. संरचना को मुक्तभाव से खेलने दे। 3. संरचना की अंतर्वस्तु और शर्तों का भविष्य में विकास नहीं करे। संक्षेप में कहें तो केन्द्र एक तरह से संरचना का अंतिम पड़ाव है। इसके बाद संरचनात्मकता का विकास बंद हो जाता है। इसके मुखौटे मनुष्य निर्मित हैं। देरि‍दा ने इसी केन्द्र की समीक्षा की है। देरि‍दा ने बताया है कि केन्द्र संरचना के अंदर और बाहर दोनों ओर होता है। केन्द्र के द्वारा संरचना को परिभाषित किया जाता है। किंतु उसके अंश को नहीं। यही पश्चिमी दर्शन का सबसे कमजोर बिंदु भी है। यही वह जगह है जहां पर 'अ-केन्द्रित' होकर देखने की जरूरत है। केन्द्र को 'अ-केन्द्रित' करने की जरूरत है। 
    देरि‍दा ने लिखा है संरचना का समस्त इतिहास केन्द्र और उसके विकल्पों का इतिहास है। इसकी श्रृखलाएं भी केन्द्र पर ही आधारित हैं। नियमन के क्रम में केन्द्र विभिन्न रूपों और नामों में व्यक्त होता रहा है। पराभौतिकी (मेटाफिजिक्स) का इतिहास पश्चिम के इतिहास की तरह रूपकों और रूपकत्व का इतिहास है। देरि‍दा ने लिखा है दार्शनिक जब विचारों की बात करते हैं तो उनका इशारा सिर्फ पुराने विचारों और व्यवस्था के विस्तार पर ही होता है। फलत: वे अर्थ संकुचन पैदा करते हैं। साहित्य में विखंडन का अर्थ है रीडिंग यानी पठन और व्याख्या। देरि‍दा की मुख्य रूचि दर्शन में नहीं थी बल्कि साहित्य में थी। दार्शनिक लेखन और साहित्यिक लेखन में देरि‍दा ने अंतर किया है। देरि‍दा ने लिखा है दर्शन वाले भूल गए कि रूपक और रेटोरिक क्या है। जबकि साहित्य में ऐसा नहीं हुआ। साहित्यकार सृजन और आलोचना दोनों को बरकरार रखना। सामान्य लेखन को भी बरकरार रखना। देरि‍दा कहता है लेखन के बिना संस्कृति,इतिहास आदि किसी की भी कल्पना नहीं की जा सकती। इसी अर्थ में देरि‍दा ने कहा था  पाठ के बाहर कुछ भी नहीं है।

ज्‍यांक देरि‍दा का न होना

                   (जन्म 15जुलाई 1930और मृत्यु 8 अक्टूबर 2004)
                                                               
         देरि‍दा नहीं रहे। उनका मरना एक घटना मात्र बनकर रह गया। दुनिया के सभी बड़े माध्यमों ने उनकी मौत को सिर्फ एक घटना बना दिया। देरिदा महान् विचारों के सर्जक थे।बीसवीं सदी के संकटग्रस्त बुर्जुआ के सबसे अच्छे तार्किक सिध्दान्तकार थे।खासकर उपग्रह युग और कम्प्यूटर संस्कृति के गर्भ से पैदा होने वाले सवालों के गंभीर और विलक्षण दार्शनिक थे।समूची दार्शनिक परंपरा और साहित्य सैध्दान्तिकी को उन्होंने हाइपर टेक्स्ट के संदर्भ में विखंडित करके पढ़ा।वे नए के हिमायती थे।नए की हिमायत में बगैर किसी पक्षपात के खड़े होते थे।
   देरि‍दा ने संकटग्रस्त बुर्जुआ विचारधारा को नया जीवन दिया। हेगेल के बाद के वे सबसे बड़े बुर्जुआ विचारक थे। देरिदा के विचारों में पारदर्शिता थी। उनके विचारों ने समस्त दार्शनिक स्कूलों और विचारधाराओं को प्रभावित किया।देरि‍दा के विचारों की शक्ति का ही असर था कि प्रत्येक स्कूल ने अपने बारे में नए सिरे से मंथन किया।आज दुनिया में समाजविज्ञान,मानविकी आदि में शयद ही कोई ऐसा अनुसंधान हो जिसमें देरिदा उध्दृत न किए जाते हों। देरिदा आज प्रत्येक विचारक के सामने चुनौती हैं।वे परंपरागत दलीय प्रणाली की राजनीति के विरोधी थे।उसमें उन्होंने कभी हिस्सा नहीं लिया।किंतु वियतनाम युध्द का विरोध किया।अफ्रीका के नस्लवादी शासन के खिलाफ और अफ्रीकी जनता की आजादी के पक्ष में अग्रणी पंक्ति में रहे। फिलिस्तीनियों के मुक्ति संग्राम का उन्होंने समर्थन किया।सारी दुनिया में शरणार्थियों की समस्या को उठाया। सारी दुनिया में फांसी की सजा दिए जाने का विरोध किया। सन् 1981 में चैकोस्लोवाकिया बागी चेक लेखकों से मिलने के कारण गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें लांछित करने के लिए कम्युनिस्ट शासन ने उन पर नशीले मादक पदार्थों की तस्करी का आरोप लगा दिया।बाद में फ्रांस सरकार के हस्तक्षेप के कारण उन्हें रिहा किया गया। देरिदा ने ग्यारह सितम्बर को अमेरिका में आतंकवादी संगठनों ने जो ध्वंस लीला मचायी,उसका विरोध किया और अमेरिका का पक्ष लिया। साथ ही इराक पर अमेरिकी हमले का भी विरोध किया। 
        अल्जीरिया के अल ब्लेयर में सन् 1949 तक उनका किशोर जीवन गुजरा।यहीं पर रहकर उन्होंने अपनी उच्च माध्यमिक तक की पढ़ाई पूरी की।देरिदा स्वयं को 'थोड़ा काला और थोड़ा अरब' मानते थे।सन् 1952 में उन्होंने ' इकोल नारमाले सुपीरियर' में दाखिला लिया। यहां उन्हें फूको और अल्थूजर जैसे महान् शिक्षक और विचारकों से पढ़ने का मौका मिला।बाद में बेल्जियम के हर्शेल आर्काइव से अध्ययन किया। अल्जीरिया में सैन्य सेवा में काम करना अनिवार्य था जिसके कारण उन्हें सेना के बच्चों के स्कूल में अंग्रेजी और फ्रेंच पढ़ाने के लिए जाना पड़ा।इसके अलावा उन्होंने सॉरबोन,इकोल नारमाले सुपीरियर,जॉन हॉपकिंस विश्‍वविद्यालय,कैलीफोर्निया विश्‍वविद्यालय,पेरिस स्थित सामाजिक अध्ययन संस्थान आदि में दर्शनशास्त्र का अध्यापन कार्य किया।देरिदा ने सारी दुनिया की यात्रा की और अपने विचारोत्तेजक व्याख्यानों से जबर्दस्त शोहरत हासिल की।सन् 2003 से वे कैसर से पीडित थे।इसके कारण उनका भ्रमण और बोलना कम हो गया था। आखिरकार आठ अक्टूबर 2004 को पेरिसन हॉस्पीटल में उनकी कैंसर के कारण मौत हो गई। 
  देरिदा का आरंभिक कार्य फिनोमिनोलॉजी को लेकर था। जबकि आरंभिक शोधकार्य एडमंड हुर्सेल पर था। 1954 में यह कृति 'दि प्राब्लम ऑफ जेनेसिस इन हुर्सेल्‍स फिनोमिनोलॉजी' के नाम से प्रकाशित  हुई। सन् 1962 में देरिदा ने हुर्सेल की चर्चित कृति 'फाउण्डेशन ऑफ ज्यॉमेट्री' का अनुवाद किया और उसकी विस्तृत भूमिका लिखी। जिसका शीर्षक था 'दि ऑरिजन ऑफ ज्यॉमेट्री।' सन् 1967 में उनकी तीन महत्वपूर्ण कृतियां प्रकाषित हुईं। ये हैं-ऑफ ग्रामोटोलॉजी, राइटिंग एण्ड डिफरेंस,स्पीच एंड फिनोमिना। इसके पांच साल बाद 1972 में 'डिसिमिनेशन एंड मारजिंस ऑफ फिलॉसफी' का प्रकाशन हुआ।इसी वर्ष उनके साक्षात्कारों का संकलन 'पोजीशन' नाम से आया।इसके बाद देरि‍दा की प्रति वर्ष एक से ज्यादा कृतियां प्रकाशित होती रही हैं।उनकी जितनी कृतियां प्रकाशित हैं उससे ज्यादा अप्रकाशित हैं। देरि‍दा को सबसे ज्यादा जनप्रियता 'डिकंस्ट्रक्‍शन' की धारणा ने दिलायी।इसकी सैध्दान्तिकी के निर्माण में देरि‍दा ने जिन बातों को आधार बनाया है उन्हें पहले हाइडेगर ने 'बीइंग एंड टाइम' में उठाया था।यह मूलत: नीत्शे की 'डिमोलिशन' की धारणा से ली गई है।

देरि‍दा के अनुसार विरचनावाद,पाठ के अध्ययन की पध्दति है।यह परंपरागत अर्थ में जिसे रीडिंग कहते हैं,उससे भिन्न है। विरचनावाद पाठ के निर्धारित अर्थ को अपदस्थ करता है। उसके अर्थगत अद्वितीयत्व को विखंडित करता है। विरचनावाद पहले से तय अर्थ को नष्‍ट करता है।पाठ के एकाधिक अर्थ हो सकते हैं,इस धारणा पर जोर देता है।वह पाठ के श्रेणीबध्द-अर्थगतक्रम को प्रतिवर्तित कर देता है। देरि‍दा ने वाचन बनाम लेखन के विवाद में किसी एक मत का पक्षधर होने की बजाय वाचन और लेखन दोनों को एक-दूसरा का पूरक माना। देरि‍दा ने पाठ के अर्थ के 'केन्द्र' होने की धारणा का खण्डन किया। विरचना उस समय आरंभ होती है,जब हम उस क्षण पर पहुँचते हैं,जब कोई पाठ स्वयं के लिए बनाए नियमों का उल्लंघन करने लगे।पाठ इस बिन्दु से विखंडित होना शुरू होता है। देरि‍दा ने विरचनावादी पध्दति को दोहरी रीडिंग या पठन के रूप में व्याख्यायित किया है। भारतीय परंपरा में यह विशेषता संस्कृत काव्यशास्त्र में ध्वनि सिध्दान्त में है। खासकर अभिनवगुप्त ने पाठ के अनेकार्थी रूप और पठन के तत्व पर विस्तार से विचार किया है।

    देरि‍दा के यहाँ रीडिंग के पहले चरण में पाठ में निहित सामान्य अर्थों को खोला जाता है।उनसे बहस चलायी जाती है।रीडिंग के दूसरे चरण में पाठ में निहित विभेद (डिफरेंस) या अन्तर्विरोधों का उद्धाटन किया जाता है।इसी बिन्दु पर आकर अर्थ का एकत्व लुप्त हो जाता है।अर्थगत अनिश्‍चयात्मकता पूरी तरह सामने आ जाती है। कहने का अर्थ यह है कि प्रत्येक पाठ स्वयं को विस्थापित करने की संभावना अपने अंदर समेटे होता है और विरचनावादी अध्ययन उन अंतर्विरोधों अथवा अर्थ की अनिश्‍चयात्मकता को अनावृत्त करता है।इस समूची प्रक्रिया में  शब्द का केन्द्रत्व बचा रहता है। सवाल किया जाना चाहिए कि विरचनावाद इस शब्द-केन्द्रत्व का विखंडन क्यों नहीं करता ? विरचनावाद शब्द को तहस-नहस नहीं करता,मात्र अर्थ की केन्द्रहीनता को प्रकट करता है। 
   देरि‍दा का मानना है भाषा पर तो वश नहीं है,किंतु रीडिंग तो वश में है।वह पाठ को 'बंदी पाठ' के रूप में पढ़ने के विरूध्द है। देरि‍दा के अनुसार पाठ की रीडिंग के दौरान अर्थ के सकल छोर खुले रहने चाहिए।देरि‍दा के विरचनावाद का पहला धरातल है अर्थ बाहुल्य और दूसरा धरातल है अनिश्‍चयात्मकता।ये दोनों परस्पर विन्यस्त हैं,अन्योन्याश्रित हैं।

लेखन को वक्तृत्व से विशिष्‍ट मानते हुए देरि‍दा ने लेखन की तीन विशेषताएं बताई हैं-

 1.लिखित संकेत: अक्षर है,जो न केवल संबोधनकर्त्‍ता की अनुपस्थिति एवं उस विशिष्‍ट परिप्रेक्ष्य की अनुपस्थिति में दोहराया जा सकता है,जिसमें वह लिखा गया था,अपितु जिसके लिए लिखा गया था। 2.लिखित संकेत अपने मूल परिप्रेक्ष्य के परिसीमन को तोड़ सकता है,इससे अनपेक्ष कि कृतिकार का अभिप्राय क्या था। संकेतों की कोई भी लड़ी किसी भी विमर्श में पिरोई जा सकती है।(जैसा कि उध्दरणों में होता है) ।3.लिखित संकेत विशेष प्रकार के अंतराल (स्पेसिंग) का वशवर्ती है।अर्थात् शब्दों और वाक्यों में अंतराल के नियम निश्चित हैं।शब्दों और वाक्यों में अंतराल आवश्‍यक है।फिर यह भी कि लेखन अपने संदर्भ से दूरत्व रखता है, यानी जिस वस्तु का उल्लेख हो,वह यथार्थत: लेखन में नहीं होती।(गोपीचंद नारंग ,संरचनावाद, उत्तर- संरचनावाद एवं प्राच्य काव्यषास्त्र,पृ.165)

देरि‍दा ने 'दि इस्ट्रेंज इन्स्टीटयूसन कॉल्ड लिटरेचर(1989)नामक साक्षात्कार में साहित्य की नई धारणा दी।उसने लिखा साहित्य एक ऐतिहासिक संस्थान है। इसकी परंपरा,नियम आदि हैं।साथ ही यह फिक्शन का भी संस्थान है। यह सब कुछ कहने की शक्ति देता है।यह नियमों को तोड़ता है,उन्हें अपदस्थ करता है, नियमों को बनाता है,उनकी खोज करता है,यहां तक कि प्रकृति और संस्थान, प्रकृति और इतिहास के बीच के परंपरागत भेदों पर संदेह करता है,यहीं पर हमें न्यायिक और राजनीतिक सवाल उठाने चाहिए।

  पश्चिम में तुलनात्मक तौर पर साहित्य संस्थान नए रूप में आया है।इसका संबंध इस बात से है कि प्रत्येक बात कही जा सकती है। अथवा यह प्रत्येक बात कहने को वैधता प्रदान करता है।निस्संदेह इसका जनतंत्र के आधुनिक विचार से गहरा संबंध है।इसे जनतंत्र से अलग नहीं किया जा सकता।यह जनतंत्र के खुलेपन के अर्थ में एकदम खुला है। देरि‍दा से जब यह पूछा गया कि आप साहित्य को विलक्षण संस्थान क्यों कहते हैं ?इसके जबाव में उसने कहा इसका अर्थ है कि लेखक को सब कुछ कहने का हक है।अथवा वह जो कुछ कहना चाहता है कह सकता है।उसके ऊपर किसी भी किस्म की सेंसरशिप संभव नहीं है,चाहे धार्मिक सेंसरशिप हो या राजनीतिक सेंसरशिप हो।

ईरान के धार्मिक नेता अयातुल्ला खोमैनी ने जब सलमान रूशदी के खिलाफ मौत का फतवा जारी किया था तब यह सवाल उठा था कि साहित्य की क्या भूमिका है। उस समय रूशदी ने कहा था 'साहित्य की आलोचनात्मक' भूमिका होती है। देरि‍दा ने इस धारणा की आलोचना करते हुए कहा कि मैं समझता कि 'आलोचनात्मक भूमिका'सही शब्द नहीं है। पहली बात यह कि इससे साहित्य की भूमिका का एक ही मिशन तय हो जाता है। यह साहित्य को अंतिम रूप दे देता है। उसे अर्थ, प्रोग्राम, आदर्शों को नियमित करने की भूमिका दे देता है। साहित्य की अन्य भूमिकाओं को अस्वीकार करता है। इसी सीमित आधार से उसका 'अर्थ','आदर्श' , 'प्रोग्राम','भूमिका' 'आलोचनात्मकता' तय होती है।इससे ऊपर बात यह है कि साहित्य की आलोचनात्मक भूमिका की धारणा का संबंध भाषा से है।भाशा का पष्चिम की नजरों में बाह्य जगत की राजनीति, सेंसरशिप, अथवा साहित्य पर से संस्थानगत परंपरागत सेंसरशिप के उठाए जाने से कोई संबंध नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि साहित्य की राजनीतिक और आलोचनात्मक भूमिका को लेकर पश्चिम आज भी दुविधा का शिकार है। उसके चिन्तन में धुंध छाया हुआ है।सब कुछ कहने की आजादी एक शक्तिशाली राजनीतिक हथियार है।किंतु कोई चाहे तो इसकी शक्ति को फिक्शन के आधार पर इसे कमजोर बना सकता है।साहित्य की क्रांतिकारी शक्ति इस तरह संकीर्ण बन जाती है। इसमें लेखक को गैर-जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। ऐसी स्थिति में उससे कुछ जिम्मेदारियों को निबाहने की मांग की जा सकती है। खासकर जदानोव टाइप विचारधारात्मक शक्ति का सम्मान करने की मांग की जा सकती है। दृढ़ता के साथ सामाजिक-राजनीतिक जिम्मेदारी निभाने अथवा वैचारिक संस्थाओं के प्रति अपनी जिम्मेदारी अदा करने के लिए कहा जाता है। इस तरह की गैर-जिम्मेदारी,जिसमें अन्य को अपने विचारों का भी जबाव देने का अधिकार न हो, अन्य किस्म के लेखन का अधिकार न हो,इसी को शक्ति कहते हैं। इसी को सर्वोच्च किस्म की जिम्मेदारी कहते हैं।आखिरकार यह जिम्मेदारी किसके प्रति निभाई जा रही है ?किसलिए निभाई जा रही है ?यही वह मुख्य सवाल है जिसके तहत साहित्य की भावी भूमिका या भावी अनुभव के सवालों पर विचार करने की जरूरत है।

   देरिदा के अनुसार साहित्य और जनतंत्र के अन्तस्संबंध पर सोचने की जरूरत है।यहां कल आने वाले जनतंत्र पर नहीं,और न भावी जनतंत्र पर विचार करने की जरूरत है,बल्कि उस अनुभव के वायदे पर गौर करने की जरूरत है जिसे लेखक जी रहा है। वर्तमान के अनुभव को व्यक्त करने का सवाल है।वर्तमान के अनुभव अंतहीन हैं। तरूणावस्था में मुझे निस्संदेह हमेशा यह अनुभूति रहती थी कि हम जिस अवस्था में रह रहे हैं वह मुश्किलों से भरी है। उस समय अनिवार्य तौर पर यह महसूस होता था कि उन बातों को कहा जाए जिनकी अनुमति नहीं है। अल्जीरिया औपनिवेशिक शासन के दौर से गुजर रहा था।सत्ता का जुल्मोसितम चरमोत्कर्ष पर था। यह 1945 का जमाना था।इसके खिलाफ जबर्दस्त प्रतिरोध आंदोलन चल रहा था। उसी समय दूसरी तरफ संस्था के तौर पर परिवार के खिलाफ भी बगावत चल रही थी।साहित्य की विभिन्न विधाओं में यह अभिव्यक्त हो रहा था।मेरा नीत्शे,रूसो,यहां तक कि गीदे की रचनाओं के प्रति आकर्षण बना हुआ था।इन्हें मैं ज्यादा से ज्यादा पढ़ रहा था।साथ ही अन्य चीजें भी पढ़ रहा था।उस समय परिवार के प्रति हमारे मन में जबर्दस्त घृणा थी।कहते थे कि 'परिवार मैं तुझसे घृणा करता हॅू। 'हम सोचते थे कि साहित्य लिखने का अर्थ है परिवार का अन्त। उस समाज का अन्त जिसका परिवार प्रतिनिधित्व करता है। दूसरी ओर अल्जीरिया में चारों ओर नस्लवाद की लहर चल रही थी। यह नस्लवाद परिवार जैसी संस्था में भी आ गया था। ऐसी अवस्था में मेरे लिए साहित्य की सब कुछ कहने वाली भूमिका बेहद महत्व की हो उठी थी।इसके अलावा साहित्य असंतोष,भाग्य,बेचैनी आदि को भी व्यक्त करता है।यदि मुझसे साहित्य के बारे में दार्शनिक के रूप में जबाव देने के लिए कहा जाएगा तो मैं यही कहना चाहूँगा कि साहित्य में परिणाम की चिन्ता किए बगैर सब कुछ कहना चाहिए। लेखक को  साहित्य के मर्म के बारे में सवाल नहीं उठाने चाहिए। मेरे लिए दर्शन सबसे ज्यादा राजनीतिक है। वह साहित्य के सवालों को राजनीतिक गंभीरता के साथ उठाता है, उसकी परिणतियों की ओर ध्यान खींचता है।

देरि‍दा ने परंपरागत अर्थ में साहित्य को देखने से इंकार ही नहीं किया बल्कि लिखा कि साहित्य एक अलग संस्थान है। यह कविता,लोकगीत आदि से अलग है। इसकी प्रकृति अलग है। साहित्य में पहले सर्जनात्मक रचनाएं शामिल की जाती थीं।किंतु आज साहित्य में सामाजिक-न्यायिक-राजनीतिक आधारों पर केन्द्रित लेखन भी आ रहा है।यह सब साहित्य का अंग है।पुराने साहित्य रूपों में यह सब गायब है।इसी अर्थ में देरिदा ने साहित्य के अंत की बात कही थी। साहित्य के पुराने रूप का खात्मा हो जाता है। साहित्य के पुराने रूप के खात्मे का अर्थ यह नहीं है कि मैं पुराने साहित्य का अपमान करना चाहता हूॅ।बल्कि यह ध्यान खींचना चाहता हूँ कि साहित्य की अवधारणा अलग है।उसे पुराने विधा रूपों के साथ एकमेक नहीं करना चाहिए। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि साहित्य में साहित्य जैसा कुछ भी शेष नहीं रह जाएगा। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि हम साहित्य की जन्मतिथि खोजने लग जाएं कि आखिरकार साहित्य का जन्म कब हुआ ?

    सवाल उठाए जाते रहे हैं कि साहित्य क्या है ? कहाँ  से आता है ? साहित्य का क्या करें ? इन सवालों के बारे में देरि‍दा ने कहा हमें थोड़ा पीछे जाना होगा। इसलिए नहीं कि साहित्य प्रतिबिम्बित करता है,अनुमान लगाता है,अथवा दृष्टि को व्यक्त करता है। अथवा किसी अन्य संदर्भ को स्थगित कर देता है। अथवा जैसाकि अमूमन कहते हैं कि मूर्खतापूर्ण है या अफवाह पर टिका है। इन सबके विपरीत साहित्य में जो घटना दिखती है वह उस चिन्तन पर निर्भर है जो लिखते समय लेखक के इर्दगिर्द घट रही है। यह भी देखना होगा कि वह किन संभावनाओं को अपने अंदर समेटे हुए है। साहित्य का पाठ साहित्य के संस्थान के इस संकट के प्रति ज्यादा संवेदनशील होता है।इसी अर्थ में देरिदा ने साहित्य के अंत की बात कही थी। यह कहा था कि मलार्मे से ब्लांचोट तक की 'एव्सोलूट पोयट्री' के युग का अंत हो गया है।अब वह नहीं है। साहित्य के दुविधापूर्ण स्वरूप को देखते हुए कहा था कि इसकी शुरूआत ही इसका अंत है। वह अपने संस्थानों के साथ खास किस्म के सांस्थानिक संबंध बनाता है।उसमें ढुलमुलपन,विशिष्‍टता का अभाव,वस्तु के रूप में अनुपस्थिति देख सकते हैं। साहित्य के उदय का सवाल उठते ही उसके अंत का सवाल पैदा हो जाता है। जैसे इतिहास का निर्माण किया जाता है।इतिहास का निर्माण वैसे ही है कि आप मलबे के ढ़ेर पर स्मारक बनाएं। क्योंकि वह पहले कभी नहीं था। वह तो मलबे का इतिहास है। स्मृति की कहानी जो घटना बताती है वह कभी मौजूद नहीं होती। इसमें 'ज्यादा ऐतिहासिक' जैसा कुछ भी नहीं है।बल्कि इतिहास यह सोचता है कि चीजें बदल रही हैं। इतिहास से ज्यादा और कोई क्रांतिकारी नहीं है।यह भी कह सकते हैं कि 'क्रांन्ति' भी परिवर्तनीय है।हम यह क्यों मान बैठे हैं कि क्रांति अपरिवर्तनीय है। इतिहास के अनुभव की कसौटी पर अब तक देरि‍दा की अनेक धारणाएं खरी उतरी हैं। सारी दुनिया के विचारधारात्मक संघर्ष को शीतयुध्दीय राजनीति के विमर्श के बाहर ले जाकर एक नए धरातल पर उन्होंने खड़ा किया है। उनके विचारों की गर्मी के ताप को उनकी मौत के बाद और भी ज्यादा महसूस किया जाएगा।

जनतांत्रि‍क समीक्षा के सर्जक देरि‍दा

       देरि‍दा दार्शनिक नहीं बनना चाहता था।वह पेशेवर फुटबाल खिलाड़ी बनना चाहता था। औपचारिक स्कूली शिक्षा में देरि‍दा फिसड्डी था।बार-बार परीक्षा में फेल होता था। इसके बावजूद उसे 'इकोल नॉरमाले सुपीरियर इन पेरिस' में दाखिला मिला। आधुनिक युग का दर्शन का सबसे बड़ा दार्शनिक सब समय टीवी ,फिल्में और खबरें देखना पसंद करता था।वह एक दार्शनिक ही नहीं बल्कि आला दर्जे का इंसान था। उसने सबको 'डिकंस्ट्रक्शन' या विखंडन का सिध्दान्त दिया। इसका वह स्वयं भी व्यवहार में पालन करता था।वह जो कुछ भी देखता था उसके प्रति आलोचनात्मक रवैयया रखता था।यह कार्य वह सचेत रूप से करता था। 
    देरि‍दा ने एक बार एक साक्षात्कार में कहा कि मैं सब समय विखंडन करता रहता हूँ। साक्षात्कार में जब पूछा गया कि आपने आखिरी फिल्म कौन सी देखी ?क्या उसका भी विखंडन किया ?इसके जबाव में देरि‍दा ने गुस्से में कहा कि मैं विखंडन पदबंध के इस तरह के इस्तेमाल से बहुत दुखी हूँ। मैं सोचता हूँ कि यह इस पदबंध का शोषण हो रहा है। स्नातक स्तर के छात्र विखंडन पदबंध का स्टीरियोटाईप की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। उसे विकृत कर रहे हैं। 
        देरि‍दा के चिन्तन की केन्द्रीय विशेषता है कि उन्होंने दर्शनशास्त्र को नए सिरे से गरिमा दिलायी।यह काम उन्होंने ऐसे समय मे किया जब दर्शन के अंत की दुंदंभी बज रही थी।आधुनिक काल में दर्शनशास्त्र पेशेवर दार्शनिकों का क्षेत्र बनकर रह गया था।सामान्य बौध्दिक जगत की हलचलों में दर्शन की उपेक्षा हो रही थी।कला,साहित्य,संस्कृति, राजनीति,न्याय आदि सभी क्षेत्रों से दर्शनशास्त्र का संवाद तकरीबन टूट गया था।यह सारी परिघटना बीसवीं शताब्दी के आरंभ में ही शुरू हुई।दर्शन का ज्ञान,विज्ञान,समाजविज्ञान आदि से सामान्य तौर पर रिश्ता क्यों और कैसे टूटा इस सवाल पर गंभीरता विचार करने की जरूरत है।
        देरि‍दा के चिन्तन की दूसरी केन्द्रीय विशेषता है कि वे दर्शन, साहित्य, राजनीति, न्याय,भाषा आदि के समूचे विमर्श को नए सिरे से विश्लेषित करते हैं। सभी धारणाओं, मॉडल, पध्दतियों और विचारधाराओं को विश्लेषित करते हैं, उनकी मान्यताओं को चुनौती देते हैं। इस क्रम में लेखकों, दार्शनिकों, विचारकों के बन-बनाए साँचे टूट जाते हैं। फलत: समूचे विमर्श का पैराडाइम ही बदल जाता है।    
    देरि‍दा की तीसरी महत्वपूर्ण खूबी है कि उनका कोई पाठक उनसे प्रभावित हुए बिना रह नहीं सकता।दोस्त हो या दुश्मन वे सभी को प्रभावित करते हैं। सभी को विश्लेषण के औजार बदलने के लिए प्रेरित करते हैं।देरि‍दा को पढ़ने के बाद नजरिए में परिवर्तन अनिवार्य है।इस तरह की वैचारिक ताकत शायद मार्क्‍स के बाद किसी भी विचारक ने हासिल नहीं की थी।      

देरि‍दा के नजरिए की चौथी विशेषता यह है कि वे परंपरा पर नए सिरे से समग्रता में विचार करते हैं। खासकर आधुनिक काल के विकास के नजरिए से सोचते हैं। वे उन तमाम दार्शनिक परंपराओं पर समग्रता में विचार करते हैं जिनके बारे में हमने सोचना बंद कर दिया था,यह मान लिया गया था कि अब तो या कुछ भी विवेचन लायक नहीं है।

   असल में देरि‍दा का विखंडन स्वयं को चुनौती देता है।वह उस समूचे जगत को चुनौती देता है जिसमें हम जीते हैं।विखंडन प्रतिगामी वैचारिक औजार नहीं है। बल्कि वह वैध-अवैध, विवेक - अविवेक, तथ्य,कहानी,आब्जर्वेन,इमेजीनेशन आदि सभी को चुनौती देता है।विखंडन में दर्शन से लेकर जनमाध्यम, साइबरजगत तक की समस्याओं पर विचार किया गया है।
        देरि‍दा का मानना है कि उनका काम मौजूदा विमर्श में बेहद हाशियाकृत है।उनके अनुसार विखंडन दार्शनिक आशयों,विषयों,निष्कर्षों, तत्व मीमांसाओं, कविताओं,धर्मशास्त्रों, विचारधारा शास्त्रों से संबंधित नहीं है,बल्कि विभिन्न रूप में सार्थक संरचानाओं,सांस्थानिक संरचनाओं,शिक्षणात्मक या अलंकारशास्त्रीय नियमों,कानून सत्ता,और उनके बाजार की प्रातिनिधिकता से संबंधित है।स्पष्ट है कि देरि‍दा अपने इस कथन से विखंडन के नाम पर चल रहे तमाम तरह के प्रवादों की सीमा रेखा खींच देते है।वे विखंडन को सांस्थानिक बनाए जाने के प्रयत्नों को नकार देते है जो अमरीकी विश्वविद्यालयों के अंग्रेजी विभागों तथा तुलनात्मक साहित्य के विभागों में इन दिनों हो रहे हैं।(सुधीश पचौरी,देरिदा का विखंडन और साहित्य,1997,पृ.20)
       विखंडन सन् 60 के दशक में सामने आया।यह पश्चिम की 'मेटाफिजिकल परंपरा' का सिध्दान्त है।इसमें बीसवीं शताब्दी के सभी प्रमुख विचारकों के नजरिए का कनवर्जन है।यह उपग्रह युग की कनवर्जन तकनीकी का साहित्यशास्त्र, दर्शनशास्त्र है।इसमें हुसेर्लियन फिनोमिनोलॉजी, मार्क्‍स,सोस्यूर,फ्रांसीसी संरचनावाद,मनोशास्त्र और भारतीय दर्शनशास्त्र का समावेश है। 
   विखंडन खास तरह की रीडिंग के अभ्यास,आलोचना की पध्दति, विश्लेषणात्मक खोज की पध्दति का नाम है।बारबरा जॉनसन ने 'दि क्रिटिकल डिफरेंस'(1981) में लिखा 'विखंडन' को 'विध्वंस' के पर्यायवाची के रूप में नहीं देखना चाहिए। बल्कि यह 'विश्लेषण' के ज्यादा करीब है। विश्लेषण में त्यागना अनिवार्य शर्त है। बिना त्यागे विश्लेषण संभव नहीं है। बारबरा ने लिखा है कि विखंडन वास्तव अर्थों में 'पुनर्निर्माण' का पर्यायवाची है। यदि कोई चीज विध्वंसक रीडिंग में नष्ट होती है तो वह पाठ नहीं है बल्कि उसका वर्चस्वशाली रूप नष्ट होता है। यह ऐसी रीडिंग है जो पाठ के विश्लेषण के दौरान उसमें निहित आलोचनात्मक फर्क को सहज ही उजागर कर देती है। 
   पाल द मान ने लिखा है विखंडन रीडिंग की सैध्दान्तिकी है।जो पाठ में निहित विपरीत अर्थ के तर्क की उपेक्षा करने वाले नजरिए का विखंडन करती है। विखंडन के बारे में एक अमेरिकी पत्रिका ने अप्रैल 1993 में लिखा कि विखंडन संभवत: यूरोप के लिए सबसे प्यारी चीज है। किंतु अमेरिका के साथ उसका 'लव-हेट' (प्रेम-घृणा) का संबंध है। सुधीश पचौरी के मुताबिक विखंडन मानता है कि आलोचना लेखन का एक तरीका है,जो किसी चीज में से किसी चीज को खोजता नहीं है बल्कि उस टैक्स्ट मे अर्थ का निर्माण भर करता है जिससे वह संलग्न होती है।इसलिए वह रचना की तरह ही रचनात्मक है।जिस तरह रचना टैक्स्ट में अर्थ का निर्माण करती है,उसी तरह आलोचना टैक्स्ट में 'अर्थ का निर्माण' करती है।इसलिए रचना और आलोचना 'अर्थ निर्माण के दो तरीके हैं'बड़े-छोटे नहीं हैं।इस अवधारणा ने सिध्दान्तिकी के परंपरावादियों की नींद हराम कर दी है।(उपरोक्त,पृ.21-22)

विखंडन की दूसरी रणनीति यह है कि वह किसी भी 'टैक्स्ट' में मौजूद अर्थ को निश्चित,पक्का और पूरा नहीं मानता।वह नहीं मानता कि किसी टैक्स्ट या पाठ की पूरी तरह और अंतिमत: व्याख्या की जा सकती है।उसका मानना है कि हर पाठ कुपाठ होता है।'मिस रीडिंग' है।(उपरोक्त,पृ.22) सामान्य तौर पर बुध्दिजीवी यह आरोप लगाते हैं कि देरि‍दा की किताबें बेहद जटिल हैं। वह कठिन गद्य लिखता है।उसे समझने में मुश्किल होती है। पाठकों को हतोत्साहित करता है। लेखन में सरलतापंथी पेटू लोग हिन्दी में जिस तरह व्यापक पैमाने पर पाए जाते हैं वैसे ही पश्चिम में भी पाए जाते हैं।इस तरह के सरलतापंथी पेटू लोगों को ध्यान में रखकर देरि‍दा ने कहा था कि यह सच है कि इससे मेरा नुकसान होता है।इससे बचने के लिए जो भी संभव है मैं करता हूँ। असल में जो लोग कहते हैं कि उन्हें मेरी बात समझने में कष्ट होता है। मेरी बात उनकी समझ में नहीं आती। असल में वे लोग समझना ही नहीं चाहते। जो समझना नहीं चाहते उन्हें मेरी पुस्तकें समझ में नहीं आएंगी। हमें उनकी रीडिंग और विश्लेषण की पध्दति के बारे में सवाल उठाने चाहिए।असल में वे लोग आरामदायक और सरल तरीके से पढ़ना चाहते हैं।

   देरिदा ने कहा जब कोई गणितज्ञ या फिजिसिस्ट लिखता है, उसके लिखे को जब कोई नहीं समझता तो उसके लिखे के बारे में कोई नहीं कहता कि समझ में नहीं आता। कोई विदेशीभाषा बोले,तब भी नहीं कहते कि समझ में नहीं आता अथवा लोग कुछ नहीं बोलते। कोई जब आपकी भाषा की टांग तोड़ दे, तब ही कहते हैं कि समझ में नहीं आता। अथवा वे लोग कुछ नहीं बोलेंगे। असल में सवाल संबंध का है।आप कैसा संबंध बनाना चाहते हैं। मैं जटिल बनाने के लिए जटिल नहीं लिखता। ऐसा करना हास्यापद होगा। लोग यह मानकर क्यों चल रहे हैं कि दार्शनिक को सरल होना चाहिए। वे किसी वैज्ञानिक के बारे में ऐसा क्यों नहीं सोचते। जबकि वैज्ञानिक तो बहुत सारे पाठकों की पहुँच से बाहर होता है। जटिलता के सवाल को साहित्य के संदर्भ या लेखक के संबंध में ही क्यों उठाया जाता है। लेखक के संदर्भ में ही अपठनीयता का सवाल क्यों उठाया जाता है ? जबकि वह नए की खोज करता है। नया रास्ता सुझाता है। वह भाषा की व्याख्या करता है। भाषा का अर्थशास्त्र बनाता है।कोड बनाता है।ग्रहण करने के चैनल बनाता है।
    देरि‍दा पर विचार करते समय अनेक विचारकों ने लिखा है कि विखंडन एक पध्दति है। देरि‍दा ने इस धारणा का बार-बार खण्डन किया है।उन्होंने यहां तक कहा है कि यह कोई 'देरीदियन मैथड' नहीं है।देरि‍दा पर विचार करते समय यह ध्यान रखें कि वह बोलने और लिखने की इच्छा को सर्वोच्च स्थान देता है।उसे इडियम में लिखना,इडियम बनाना पसंद है, किंतु यह भी मानता है कि इडियम प्योर नहीं होता।प्रत्येक इडियम की अपनी पध्दति होती है।प्रत्येक विमर्श,काव्य,वाक्य आदि के अपने नियम होते हैं।यह भी कहा कि मैं इडियम में विश्वास नहीं करता।इसके बावजूद सच यह है कि लेखक की लिखने की अपनी इच्छा होती है।वह कुछ भी लिखे या बोले।उसे किसी न किसी इडियम के जरिए अपनी बात कहनी होती है।यह कार्य वह गैर-अपदस्थीकृत रूप में करता है।किंतु अपने कार्य को ज्यों ही निश्चित रूप देता है अपदस्थ हो जाने की प्रक्रिया शुरू होती है। इसमें पुनरावृत्ति की संभावना भी है।वह ज्यों ही भाषा के माध्यम से इडियम में प्रवेश करता है उसे इडियम से बाहर के तत्वों से समझौता करना पड़ता है। वह कॉमनभाषा,अवधारणा,कानून,सामान्य नियमों आदि से समझौता करता है। इस क्रम में वह इडियम को सुरक्षित रखने की कोशिश भी करता है।नियमों की व्यवस्था को सुरक्षित रखता है। साथ ही इडियम के मैथड को भी मानता है। मैं यह भी कहना चाहता हँ कि रचनात्मक सवालों के बहाने मैथड के सवाल हीं उठाए जाने चाहिए।उसकी तकनीकी प्रक्रिया है।वहां एक संदर्भ से दूसरे संदर्भ तक पुनरावृत्ति होती रहती है।मसलन् मैं जो कुछ लिखता हूँ उसके भी सामान्य नियम हैं।कुछ प्रक्रिया है।इसका मैं विश्लेषण के लिए इस्तेमाल करता हूँ।इसी को मैं टीचिंग,नॉलेज और एप्लीकेशन कहता हूँ। किंतु ये सारे नियम पाठ से लिए जाते हैं। प्रत्येक पाठ विलक्षण होता है। उसमें विलक्षण तत्व होते हैं। उसे स्वयं में संपूर्णता के हवाले नहीं किया जा सकता है।इसी तरह लिखे हुए के प्रभाव के बारे में भी सोचना चाहिए। कोई चाहे या न चाहे इडियम का अन्य पर असर होता है। यह फोटोग्राफी के प्रभाव की तरह है।आप चाहे जिस रूप में फोटो खिंचवा लें।चाहे जितनी सावधानी बरतें।चाहे जैसे दिखने की कोशिश करें।इसके बावजूद ऐसे क्षण आएंगे जब फोटो आपको आश्चर्यचकित करेगा।

देरि‍दा के व्यक्तित्व की यह विशेषता थी कि उन्होंने हमेशा अपने को बहुत ही सामान्य ढंग से पेश किया।किंतु उनके लेखन को लेकर जबर्दस्त विवाद उठे हैं। उन पर अभूतपूर्व हिंसक हमले भी हुए हैं। उनकी जमकर निन्दा भी हुई है। इसके कारणों की खोज करते हुए देरि‍दा ने कहा कि मेरा कार्य सक्रिय प्रक्रिया का हिस्सा है। वहां अभी बहुत कुछ अनखुला है। खासकर प्रतिरोध अनखुला है जो कभी भी उभरकर सामने आ सकता है।प्रतिरोध उभरेगा तो वह व्यक्ति तक ही सीमित नहीं रहेगा। अनुशासन तक ही सीमित नहीं रहेगा।शैक्षणिक संस्थानों तक सीमित नहीं रहेगा।इस प्रतिरोध में छात्र,युवा एवं शिक्षक बार-बार शामिल हो रहे हैं। यदि मेरे सहकर्मी मेरे ऊपर हमले कर रहे हैं तो इसका कारण शैक्षणिक नहीं है, पागलपन नहीं है, बल्कि सच यह है कि कहीं न कहीं अपने लिए खतरा महसूस कर रहे हैं। मुझे उम्मीद और विश्वास है कि वे अनेक सिध्दान्तों का मूल्यांकन कर रहे हैं,अनेक प्रभुत्वशाली विमर्शों की पुन:परीक्षा कर रहे हैं। शैक्षणिक संस्थानों का मूल्यांकन कर रहे हैं। प्रभुत्वशाली विमर्शों में संशोधन कर रहे हैं। उनका राजनीतिकरण कर रहे हैं। यदि ये सिर्फ व्यक्तिगत हमले होते तो बात कुछ और थी। यह व्यक्तिगत मामला नहीं है। विखंडन की अनेक जिज्ञासाएं सवाल खड़े कर रही है। उन तमाम वर्गीकरणों,तटस्थ रूपों के प्रति सवाल खड़े कर रही हैं जो दर्शन में मौजूद हैं। कायदे से इस सवाल पर विचार करना चाहिए कि देरि‍दा के समसायिक राजनीतिक मसलों पर लिए गए स्टैंड ने कोई हंगामा खड़ा नहीं किया बल्कि व्यवहार में उसकी उपेक्षा ही ज्यादा हुई है।ऐसा क्यों हुआ ?इसके बारे में देरि‍दा का कहना है कि यह सच है राजनीति में चुप्पी है।अनेक मामलों में मेरी वापसी भी हुई है।किंतु चीजों को अतिरंजित रूप में पेश नहीं करना चाहिए।इस संदर्भ में यदि किसी को रूचि है तो वह देख सकता है कि मेरी रूचियां क्या हैं ?चयन क्या है ?वगैर किसी दुविधा के कुछ चीजें अभिव्यक्त हुई हैं।मैंने सामान्य तौर पर खास और आम बातों पर ही बोला है।ऐसी स्थिति में मैं अन्य की राय या वोट में शामिल हो गया हूँ।मैंने कभी अधिकारी विद्वान् होने का दावा नही किया।कोई यश लेने की कोशिश नहीं की। अपने लिए दार्शनिक या बुध्दिजीवी जैसा विशेष दर्जा नहीं मांगा।बल्कि सच यह है कि मुझे उसी समय ज्यादा परेशानी का सामना करना पड़ा है जब मैंने अपने को दार्शनिक, बुध्दिजीवी या प्रोफेसर के रूप में देखने की कोशिश की है।मैं सोचता हूँ कि खास परिस्थितियों में, क्लासिक भूमिका एवं जिम्मेदारी निभाने की जरूरत होती है। उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।मैं रूपान्तरण करने की कोशिश करता हूँ और अच्छे भावों को अपील करने की राजनीतिक जिम्मेदारी निभाता रहा हूँ।

     देरि‍दा के चिन्तन की धुरी है ग्रीक दर्शन और उसकी धुरी है 'लव ऑफ विजडम'। बतर्ज देरि‍दा फ्रांस में दर्शन को 'इटीमोलॉजी' यानी 'व्युत्पत्तिविज्ञान' कहते हैं। 'व्युत्पत्ति' यानी मालूम करना।संस्कृत में इसे निरूक्त कहते हैं।ग्रीक में  दर्शन को प्रेम अथवा सोफिया के प्रति मित्रता कहा जाता है।इसमें 'विजडम' भी शामिल है।इसे ज्ञान का कौशल भी कह सकते हैं।देरि‍दा ने कहा कि हमें सवाल करना चाहिए कि 'फिलिया'क्या है ? प्रेम क्या है ? इच्छा क्या है ?इन सवालों से टकराते हुए हमने दर्शन को परिभाषित करना शुरू किया।इन सबको परिभाषित करने के लिए हमने व्युत्पत्तिविज्ञान को आधार बनाया।यही वजह है कि प्रेम और मित्रता की व्याख्या करने वाले अनेक पाठ प्रचलन में आए हैं।मैंने भी एक पुस्तक 'पॉलिटिक्स ऑफ फ्रेण्डशिप' नाम से लिखी है।तकरीबन सभी बड़े फ्रांसीसी विचारकों ने मित्रता और प्रेम के सवाल पर विस्तार से विचार किया है।देरि‍दा ने कहा कि मैं इस प्रसंग में इस बात से सहमत हूँ कि चीजों को इस तरह देखने से दर्शन की ज्ञानमीमांसापरक व्याख्या से हम भटक जाते हैं। उल्लेखनीय है कि प्रत्येक दार्शनिक ने दर्शन की अपनी परिभाषा बनायी है। इसी को लेकर दार्शनिकों में जबर्दस्त विवाद है।वे दर्शन पर विचार करते रहे हैं कि यह कब और कैसे पैदा हुआ ?दर्शन की उत्पत्ति का आधार क्या है ?इस संदर्भ में यह ध्यान रखें कि आप दर्शन क्या है ?इसकी अवधारणात्मक व्याख्या तक ही सीमित नहीं रह सकते।यहां दर्शन शब्द का अर्थभर बता देना ही पर्याप्त नहीं है। 'फिलॉसफी' पदबंध ग्रीक का है।इसकी अनेक व्याख्याएं हैं।इन व्याख्याओं में बदलाव आता रहा है।
     विखंडन नकारात्मक धारणा नहीं है।बल्कि हो यह रहा है कि विखण्डन को अधूरे रूप में पेश किया जा रहा है।सन् 1980 में देरीदा ने इस तरह के रूझानों को मद्देनजर रखकर ही कहा था कि विखण्डन के साथ प्रेम की धारणा को रखकर पढ़ा जाना चाहिए। देरि‍दा ने कहा था कि प्रेम का मतलब है अन्य की इच्छा-आकांक्षाओं के प्रति दृढ़ निश्चयीभाव।अन्य का सम्मान करना।अन्य की तरफ ध्यान देना।न कि अन्य के अन्यत्व को नष्ट करना।यह मेरी बुनियादी समझ है। इसके बावजूद यह सवाल किया जा सकता है कि विखण्डन में नकारात्मक क्या है ? मैं कहना चाहता हूँ कि विखण्डन में कुछ भी नकारात्मक नहीं है।तुम इसकी आलोचना कर सकते हो।सवाल खड़े कर सकते हो।चुनौती दे सकते हो। कभी-कभी विरोध भी कर सकते हो।इसके बावजूद विखण्डन में नकारात्मक कुछ भी नहीं है। विखण्डन नकारात्मक होकर कार्य नहीं करता।नकारात्मकता के आधार पर आप कोई कार्य नहीं कर सकते।यदि आलोचना करना चाहते हैं,इसे अस्वीकार करना चाहते हैं,खारिज करना चाहते हैं,चाहे अन्य का विरोध करने के लिए ही सही,तो इसके साथ आपको एक छोटा सा समझौता करना पड़ेगा सबसे पहले आप उसकी मौजूदगी को मानें।

देरि‍दा ने कहा कि जब आप अन्य को सम्बोधित करना चाहते हैं,चाहे अन्य का विरोध करने के लिए ही सही,तो आप अन्य की उपस्थिति को मानें।अन्य को अन्य की तरह सम्बोधित करें। अन्य को हजम करने के लिए सम्बोधित नहीं किया जा सकता।यहीं पर हमें अन्य की विशिष्टता को स्वीकार करना है। इस स्थिति को किसी भी तरह बदला नहीं जा सकता। यही इसका मूल नैतिक तत्व भी है।इस दृष्टि से देखें तो विखंडन एक एथिक्स है।यह सामान्य अर्थ में एथिक्स नहीं है।

      देरि‍दा ने अपने लेखन में 'यस' पदबंध का काफी प्रयोग किया है।देरीदा कहते हैं कि 'यस' पदबंध 'अन्य' की तरह नहीं है।तुम 'यस' का प्रयोग नहीं भी करो तब भी यह ध्यान रखो कि प्रत्येक भाषा में 'यस' पदबंध है।यह प्रत्येक दार्शनिक के यहां हैं। हाइडेगर के यहां भी है। हाइडेगर कहा करता था कि चिन्तन की शुरूआत सवाल से होती है।सवाल करने का अर्थ है चिन्तन के सम्मान के प्रति सवाल खड़े करना।एक दिन ऐसा भी आएगा कि हम यह कहें कि 'उसके बयान का खण्डन करते हुए कह रहा हूँ 'यस'।उल्लेखनीय है 'यस' का दार्शनिकों की भारतीय परंपरा में मौनम् सम्मति लक्षणम् के अर्थ में प्रयोग होता रहा है।अथवा भारतीय दार्शनिक यों कहते हैं कि अब तक जो कहा गया वह फलां का है। इसके आगे मैं कहता हूँ।देरीदा ने कहा कि 'यस' कहने से बात खत्म नहीं हो जाती।बल्कि इसके बाद जो सिलसिला शुरू होता है।वह यह रेखांकित करता है कि चिन्तन के पहले भी कुछ मौजूद है।इसी को जूसेज ने चुपचाप स्वीकार करना कहा है।संस्कृत में इसी को मौनम् सम्मति लक्षणम् है।स्वीकार करने का अर्थ है दृढतापूर्वक कहना।'यस' कहने का अर्थ है कि तुम अन्य को पहले मानो और कहो कि मैं तुमसे सवाल करना चाहता हूँ।अन्य से कहो कि मैं तुमसे बातें करना चाहता हूँ।अन्य को चुनौती देने,विरोध करने से पहले यह कहना जरूरी है कि मैं तुमसे बातें करना चाहता हूँ।तुम्हारा अस्तित्व मानता हूँ।ज्योंही आप यह कहते हैं आप अपने और अन्य में जो कॉमन है उसे बता रहे हैं तो इसी को 'लव' या प्रेम कहते हैं।इसी को कहते हैं दृढ़ निश्चयपूर्वक कहना।

देरि‍दा के चिन्तन की मुश्किल यह है कि उसे पढ़ते समय आप उसके दायरे के बाहर नहीं जा सकते।उससे बाहर राय नहीं बना सकते।यह आंतरिक तौर पर उसकी भाषिक संरचना में निहित है।असल में इस समस्या का संबंध उसके परंपरा संबंधी मूल्यांकन से है।विरासत के सवाल से है।देरीदा ने कहा कि मेरा सब कुछ 'इनहेरिटेड' नामक धारणा पर टिका है।जब आप भाषा को विरासत में पाते हैं तो इसका यह अर्थ नहीं है कि आप पूरी तरह इसके अंदर हैं।अथवा ठंडे रूप में इसके कार्यक्रम का हिस्सा हैं।'इनहेरिटेड' का मतलब है भाषा को आप पूरी तरह आत्मसात् करें।रूपान्तरित करें।उसमें से कुछ का चयन करें। व्याख्या करें। प्रतिक्रिया दें।जबाव दें।दायित्व लें।जब दायित्व लेते हैं तो आप विरासत के बंदी नहीं होते।'हेरीटेज' का अर्थ यह नहीं है कि आप उसे समूचा पा लें। या दे दें।आप हेरीटज के बंदी नहीं हैं।आप उसे सिर्फ संरक्षित नहीं रख सकते जिससे वह सिर्फ बची रहे। तुम्हें जीना है और विकास करना है।इसमें चयन और व्याख्या की प्रक्रिया भी शामिल है।मुझे यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि इसमें दोहराने या कंजरवेटिव पोजीशन लेने की बेचैनी या उद्विग्नता भी होती है।किंतु जरूरी नहीं है कि यह प्रक्रिया घटित हो। मैं कहना चाहता हूँ कि कुछ भी नया करने के लिए विरासत को आत्मसात् करना जरूरी है।तुम्हें भाषा के अंदर जाना होगा। परंपरा के अंदर जाना होगा।तुम जब तक अंदर नहीं जाओगे रूपान्तरित नहीं कर सकते।किसी चीज को तब तक अपदस्थ नहीं कर सकते जब तक उसके अंदर न जाओ। देरि‍दा को परंपरा की पुनरावृत्ति से कोई एतराज नहीं है।इस संदर्भ में हमें पुनरावृत्ति और इन्नोवेशन (खोज)में चयन नहीं करना है।बल्कि दो तरह की परंपराओं और इन्नोवेशनों में से चयन करना है।इसके अलावा कुछ और भी सक्रिय रूप भी हो सकते हैं।मेरे कहने का आशय यह नहीं है कि कुछ नया खोजने की व्यवस्था बनानी है।अथवा कुछ नया घटित हो इसका प्रयास करना है।यह संभव है कि परंपरा के साथ धोखा करो या उसे भूल जाओ।तुम यदि किसी से बात करते हो तो यह सुनो कि अन्य क्या कहते हैं।संभवत: तुम उसकी पुनरावृत्ति करो।इसका तुम्हें जबाव देना होगा।प्रतिक्रिया व्यक्त करनी होगी।देरि‍दा ने कह कि मैं परंपरा पर बात करते समय प्रतिक्रिया और जिम्मेदारी दोनों को शामिल करता हूँ।देरि‍दा सामान्य तौर पर जब भाषा पर बात करता है तो उसे पुनरूक्ति कहता है।वह नए और संभावित अर्थ में व्यक्त होती है।इस प्रसंग में देरीदा ने कहा कि मुझे संस्कृत के व्युत्पत्तिशास्त्र की अस्पष्ट समझ है।वहां 'इटिरा' का अर्थ है और फिर एकबार।वही पुनरावृत्ति है।अथवा कुछ अन्य है,कुछ बदलाव के साथ है।इसका अर्थ है कि भाषा स्वयं को नए संदर्भ में पुन: प्रस्तुत करती है।नए फॉर्म में पेश करती है। उसके संभावित अर्थों के बारे में बताना असभव है।उसकी सीमा तय करना असंभव है।इसका अर्थ यह भी है कि पाठ से अर्थ को अलग नहीं कर सकते।खासकर लेखक की मंशा से पाठ को अलग नहीं कर सकते।इसका अर्थ यह भी है कि लेखक अपनी पुस्तक के भविष्य के लिए जिम्मेदार है।किंतु यह बात यांत्रिक तौर पर लागू नहीं होती।लेखक,दार्शनिक आदि को अपने लिखे के प्रति जिम्मेदार होना चाहिए। मसलन् लिखते समय राजनीतिक आयाम के प्रति सतर्क रहना चाहिए। कोशिश करो कि ज्यादा नियंत्रण स्थापित न किया जाए।लेखन के सभी संभावित परिणामों के मद्देनजर कहना चाहता हँ कि जनता आपके लेखन से कुछ न कुछ अर्थ निकाल लेगी।इसी को ओवलीगेशन कहते हैं।प्रत्येक चीज को देखने एवं विश्लेषित करने का दबाव कहते हैं। लेखन को नियंत्रित करना असंभव है।तुम चीजों को नियंत्रित नहीं कर सकते।अथवा खास तरह के विमर्श या वाक्यों को प्रकाशित होने से रोक नहीं सकते।ध्यान रहे जब कोई चीज खोजी जा रही है तो खोजी जा रही है।खोज हमेशा आपकी पकड़ के बाहर होती है।आपके नियंत्रण के बाहर होती है।वह भिन्न संदर्भ में होती है।उसका शोषण या अपदस्थीकरण संभव है।इसका लेखक के लक्ष्य से भिन्न इस्तेमाल संभव है। यही सवाल मैंने नीत्शे के संदर्भ में उठाया था।यह सच है कि नीत्शे का नाजियों ने इस्तेमाल किया। दुरूपयोग किया।इसी वजह है नीत्शे को गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है। इसमें संदेह नहीं है कि वह यह सब नहीं चाहता था। किंतु हम यह कैसे भूल सकते हैं कि नाजी उसे अपना उत्तराधिकारी मानते थे।यही वजह है कि उसके साथ विमर्श होना चाहिए। उसके नाजी संबंधों के बारे में विमर्श होना चाहिए।मैंने यह कार्य अपने तरीके से किया है। फिर भी उसके दुरूपयोग रोक नहीं सकते। मैं चाहता हूँ कि भाषा के वर्चस्व के प्रति प्रतिरोध किया जाए। किंतु इसके साथ यह भी कहना चाहता हूँ कि राष्ट्रवाद का भी विरोध किया जाए।भाषा के वर्चस्व के प्रति विरोध को कुछ प्रतिक्रियावादी तत्वों ने आत्मसात् कर लिया है।कुछ लोगों ने कहा कि तुम डिफरेंस या भिन्नता के नाम पर सार्वभौम भाषा में दरार पैदा कर रहे हो।अत: हम तुम्हारे विमर्श को राष्ट्रवाद या प्रतिक्रियावादी भाषायी हिंसा के पक्ष में इस्तेमाल करते हैं।मैं इस तरह के चिन्तन को नियंत्रित नहीं कर सकता।तुम सब कुछ नियंत्रित नहीं कर सकते।इसका अर्थ यह है कि तुम चुके हुए इंसान हो,सीमित इंसान हो।इसका संबंध भाषा की संरचना से है।खोज की संरचना से है।ज्यों ही तुम कोई चीज खोजने जाते हो तो खोज का कार्य मूल से स्वतंत्र हो जाता है।ज्यों ही तुम कोई चीज खोज लेते हो तो तुरंत पलायन कर जाते हो।मैंने इसी अर्थ में कहा था कि तुम किताब को पूरी तरह नियंत्रित नहीं कर सकते।मेरे इस साक्षात्कार का भविष्य भी मैं नियंत्रित नहीं कर सकता।अभी यह टेप हो रहा है।बाद में इसे लिखोगे।पुन: लिखोगे।पुन: नए फ्रेम में डालोगे।नए संदर्भ में विकसित करोगे।फलत: मेरे वाक्य नई ध्वनि व्यक्त करने लगेंगे।यह असल में आस्था और विश्वास का मामला है।आपको अपने कहे या लिखे पर विश्वास करना होगा।

      एक दार्शनिक के नाते देरि‍दा से अमेरिका में घटित 'सितम्बर 11' की घटनाओं के बारे में सवाल किए गए। ' 9/ 11 ' की भाषा के बारे में पूछा गया। उसकी परिणतियों के बारे में पूछा गया तो देरि‍दा ने कई महत्वपूर्ण पक्षों पर रोशनी डाली। देरि‍दा ने कहा कि ' 9/ 11' की घटना के बारे में जैसा कि तुमने सवाल किया है। इससे यह बात उभरती है कि इसमें तिथि का महत्व है।वही इसका नाम है। ज्यों ही तुमने 'सेप्टेम्बर इलेवन' कहा,तो पहले ही बता दिया कि अब तुम मुझसे इस घटना को याद करते हुए बात कर रहे हो।तुम्हारे सवाल में ही निहित है कि हमारे सार्वजनिक जीवन से 'डेट' और 'डेटिंग' को,पांच सप्ताह हो गए, उठा लिया गया है।(यह साक्षात्कार 22 अक्टूबर 2001 को लिया गया) ।
    अब हम 'तिथि' में नहीं 'अनुभूति की तिथि' में जी रहे हैं। फ्रेंच में इसे तारीख निर्माण कहते हैं। इतिहास में दिन का निर्माण है।इसके प्रभाव को आप महसूस कर सकते हैं। यह अभूतपूर्व एकायामी घटना है। इसकी अनुभूति उतनी स्वर्त:स्फूत्त नहीं है जितनी ऊपर से लग रही है।असल में व्यापक स्तर पर इस अनुभूति का अभ्यस्त बनाया गया है। इस अनुभूति को निर्मित किया गया है। यदि यह वास्तव में निर्मिति नहीं है तब भी मीडिया के जरिए,तकनीकी-सामाजिक- राजनीतिक मशीन के जरिए इसे प्रसारित किया गया है।जिससे इस तारीख को इतिहास बनाया जा सके।इसका समूचा वर्णन संभावना और पूर्व संभावना में आ रहा है। अपरिष्कृत और कठमुल्ले रूप में आ रहा है।अथवा यह भी कह सकते हैं कि सुचिंतित,संगठित, सुनियोजित रणनीति के तहत इसका प्रचार हो रहा है।
   देरि‍दा ने कहा कि ' 9/ 11' का संबंध 'अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद' की धारणा से है। जब हम ' 9 / 11   कहते हैं तो इस नाम और नम्बर के जरिए क्या कहना चाहते हैं हम नहीं जानते ? इस नामकरण का अविवादास्पद असर हुआ है।इस असर के बारे में हमने सोचा ही नहीं है।इस तरह के नामकरण का अर्थ क्या है ? जब हम 'सेप्टेम्बर इलेवन' कह रहे होते हैं।इसे दोहरा रहे होते हैं।जब हम पुनरावृत्ति करते हैं तो ध्यान रहे पुनरावृत्ति तटस्थ बनाती है।समापन की ओर ले जाती है।संवेदना से दूरी बनाती है।यही बात टेलीविजन प्रसारित इमेज पर भी लागू होती है। इस नाम का या किसी भी नाम का बार-बार उच्चारण अंतत: उस नाम को शक्तिहीन बनाता है।अर्थहीन बनाता है।हमें इस घटना को भाषा के परे जाकर देखना चाहिए।उस दिन भयानक घटना हुई।इसका अंत क्या होगा,हम नहीं जानते।यह हिंसा है।इसकी निन्दा करनी चाहिए।इसमें अनेक लोग मारे गए हैं।कोई नहीं मानेगा कि यही इसका अंत है।असल में यह घटना हमें कुछ कहने के लिए बाध्य करती है।

देरि‍दा ने कहा कि इस घटना का एक 'इम्प्रेशन' है दूसरा 'इंटरप्रिटेशन' है।अभी इंटरप्रिटेशन असंभव है।इसी तरह हमें ध्यान रखना होगा कि इसके बारे में 'कुछ ठोस तथ्यों' की व्यवस्था कर दी गई है।अत: हमें 'सूचनाओं' में अंतर करना चाहिए।जहां तक संभव हो हम व्याख्या करें।जिससे इस बड़ी घटना को समझा जा सके।जब देरि‍दा से कहा गया कि यह ऐसा हिंसाचार है जो विश्वयुध्द में भी नहीं देखा गया तो देरि‍दा ने कहा कि इस तरह के अनेक उदाहरण हैं।ऐसे अनेक जनसंहार हुए हैं।किंतु उन्हें दर्ज नहीं किया गया है।उनकी व्याख्या नहीं हुई है।उन्हें हम महसूस नहीं करते।उन्हें बड़ी घटना के रूप में पेश नहीं करते।इसलिए वे घटनाएं प्रभाव नहीं छोड़तीं।कम से कम सभी पर अपना प्रभाव नहीं छोड़तीं।खासकर विस्मृत न की जाने वाली विनाशलीला के रूप में प्रभाव नहीं छोड़तीं।हमें सवाल करना चाहिए कि हमारे ऊपर ये दो तरह के प्रभाव कैसे पड़ रहे हैं।एक तरफ हम इस घटना के पीड़ितों के प्रति सहानुभूति व्यक्त कर रहे हैं,दुख व्यक्त कर रहे हैं,निंदा कर रहे हैं,किंतु दूसरी तरफ हमें जनसंहारों पर कुछ भी कहने की जरूरत महसूस नहीं होती।मेरा मानना है कि हमें बगैर किसी सीमा के,बगैर किसीर् शत्त के सभी किस्म की बर्बरता,हिंसाचार की निन्दा करनी चाहिए।हमें बर्बरतापूर्ण घटनाओं के प्रति अंदर से आंतरिक प्रतिरोध व्यक्त करना चाहिए।उसकी व्याख्या करनी चाहिए।उन परिस्थितियों को बताना चाहिए कि ऐसी घटनाएं क्यों होती हैं। इसी तरह 'विश्वास' का फिनोमिना, साख एवं संबंध पर निर्भर करता है।इसी पर इसकी व्याख्या निर्भर करती है।देरि‍दा ने कहा कि ' 9 /11 ' की घटना को 'आतंकवाद के खिलाफ जंग' कहना भ्रमित करना है।(उल्लेखनीय है अमेरिका ने इसी थीम पर सारा प्रचार किया है।)हमें इस भ्रम को विश्लेषित करना चाहिए।बुश ने कहा कि यह 'युध्द' है किंतु असलियत में वह इसे परिभाषित करने में असमर्थ रहा।जबकि यह घोषित युध्द था।यह भी बार-बार कहा गया कि यह अफगानिस्तान के नागरिकों के खिलाफ जंग नहीं है।यह भी कहा गया कि अफगानिस्तान की जनता और सेना अमेरिका की शत्रु नहीं है।यह मानकर चला गया कि विन लादेन वहीं है।वह स्वायत्त रूप से फैसले लेता है।जबकि प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि वह अफगान नहीं है।उसे उसके देश ने ही ठुकरा दिया है।बहिष्कृत कर दिया है। यह भी कह सकते हैं कि उसे प्रत्येक देश और राज्य ने अस्वीकार कर दिया है।यह सच है कि उसे प्रशिक्षण अमेरिका ने ही दिया था।अत: वह अकेला नहीं है।उसे कोई भी राज्य खुले तौर पर समर्थन भी नहीं करता।जहां तक आतंकवादियों को शरण देने वाले राष्ट्रों का मामला है तो इस बारे में यही कह सकते हैं कि उनकी पहचान नहीं हो सकती। अमेरिका,यूरोप,लंदन, बर्लिन इनके अभयारण्य हैं।ये वे देश हैं जहां दुनियाभर के सभी आतंकवादियों के प्रशिक्षण,निर्माण अदि की सभी सूचनाएं उपलब्ध हैं।इनके बारे में किसी भूगोल,सीमा क्षेत्र को आधार नहीं बना सकते।आज हमें किसी देश में गड़बड़ी फैलाने के लिए भाड़े के सैनिक या आतंकवादी भेजने की जरूरत नहीं है।बल्कि सिर्फ कम्प्यूटर वायरस भेजने की जरूरत है।वायरस के प्रसार से ही उस देश की समूची अर्थव्यवस्था,सैन्य और राजनीतिक संसाधनों को नष्ट किया जा सकता है।चाहें तो किसी देश या महाद्वीप को धराशायी कर सकते हैं।आज दुनिया में आतंक,आतंकवाद और क्षेत्र का रिश्ता बदल गया है।यह संभव हुआ है तकनीकी विज्ञान के जरिए।यह तकनीकी विज्ञान ही है जो 'युध्द' और 'आतंक' के अर्थ को बदल रहा है।आज जिन लोगों ने ' 9/ 11 ' की घटना की है वे कल इससे भी भयानक घटना को अंजाम दे सकते हैं।यह कार्य वे बगैर खून-खराबे के भी कर सकते हैं।यह 'युध्द' दो राष्ट्रों के बीच भी नहीं है।यह 'सिविलवार' भी नहीं है।न यह 'पार्टीजान युध्द' है।इसका लक्ष्य कुछ भी हो।यह मुक्ति युध्द भी नहीं है।लेकिन यह सच है कि विन लादेन के नेटवर्क ने सऊदी अरब को अस्थिर कर दिया है।उसकी जगह नए राष्ट्र को प्रतिष्ठित कर दिया है।

            देरि‍दा के समूचे चिन्तन की धुरी है वंचित समाज,स्त्री,काले, हाशिए के लोग, अनाथ,शरणार्थी लोग,सांस्कृतिक -सामाजिक तौर पर बेदखल कर दिए गए लोग। वंचितों की अस्मिता,शास्त्र,संस्कार और मूल्यों की चिन्ता को लेकर सारा देरीदाशास्त्र निर्मित किया गया है। आधुनिक काल  में चिन्तकों में वंचितों की मुक्ति की इस कदर बेचैनी कार्ल मार्क्‍स के बाद पहलीबार देरि‍दा में दिखाई देती है।देरि‍दा की केन्द्रीय समस्या यह है कि वे वंचितों की मुक्ति चाहते हैं किंतु जनतंत्र के अंदर।वे अपने समूचे लेखन में पूंजीवादी व्यवस्था की तीखी आलोचना पेश करते हैं किंतु इसके विकल्प का सपना उनके पास नही है। घूम-फिरकर वे पुन: पूंजीवादी विकल्पों में ही वापस जाते हैं।गैर-पूंजीवादी सामाजिक विकल्प की कोई तस्वीर उनके पास नहीं है।वे एक साफ-सुथरा,दोषरहित पूंजीवाद चाहते हैं। देरि‍दा के चिन्तन की यह सबसे बड़ी सीमा है। वे मौलिक इस मायने में हैं कि चिन्तन के बन-बनाए ढांचों को यथातथ्य स्वीकार नहीं करते।सन् साठ के बाद के फ्रांसीसी समाज के परिवर्तनों को वे अभिव्यक्ति देते हैं।विखंडन का सारा तामझाम अपनी पूरी शक्ति के साथ पुन: एकबार केन्द्र में आता है।ऐसा नहीं है कि देरि‍दा विखंडन की धारणा का इस्तेमाल करने वाले पहले दार्शनिक हैं।बल्कि यों कहें तो ज्यादा सही होगा कि पूंजीवादी विकास के क्रम में सैध्दान्तिकी की भीड़ ने जो भ्रम का वातावरण बनाया था।दिशाहीनता पैदा की थी।चिन्तन के क्षेत्र में जो हताशा छायी हुई थी।सामान्य तौर पर बुध्दिजीवियों को समझ में नहीं आ रहा था कि उनके लिए कौन सा रास्ता या दृष्टिकोण सही है।
    द्वितीय विश्व युध्द के बाद पूंजीवादी दार्शनिकों की साख एकसिरे से खत्म हो चुकी थी। उसमें प्राणवायु का संचार करने में अस्तित्ववाद भी असमर्थ रहा।यहां तक मार्क्‍सवाद के बारे में संदेह और प्रश्नाकुलता इसी दौर में सबसे ज्यादा मार्क्‍सवादी खेमों में पैदा हुई।द्वितीय विश्वयुध्द के समापन के समय सारा जगत गहरे वैचारिक मंथन से गुजर रहा था।सभी विचाधाराओं को बुध्दिजीवी संदेह की नजर से देख रहे थे।मार्क्‍सवाद की कतारों में भी विचलन नजर आ रहे थे। बुर्जुआ विचारधाराओं में नित नए प्रयोग हो रहे थे।युध्दोत्तर दौर की नई तकनीकी-वैज्ञानिक एवं राजनीतिक कतारबंदी ने वैचारिक उथल-पुथल को तेज कर दिया था।पूंजीवादी और मार्क्‍सवादी दोनों ही खेमों में गहरा मंथन चल रहा था।परवर्ती पूंजीवाद और समाजवाद के परिवर्तनों को लेकर नई वैचारिक रणनीति क्या हो ?इसे लेकर सभी स्कूल सक्रिय थे।यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें देरि‍दा सक्रिय होते हैं।वे सारे चिन्तन को जो स्वयं ही विखण्डित हो रहा था।एक नई विखंडन सैध्दान्तिकी देते हैं।वे सहमति के माहौल में असहमति का मंत्र लेकर आते हैं।वे ऐसे रूढिवादी माहौल में असहमति और विखंडन की बात करते हैं। जब मार्क्‍सवाद अपने को सत्य का पर्याय बना चुका था।समाजवादी व्यवस्था स्थिर हो चुकी थी।समाजवादी शिविर सामने आ चुका था।समाजवादी खेमे और मार्क्‍सवादियों की ओर से यह मान लिया गया कि जनतंत्र एक चुकी हुई व्यवस्था है। जनतंत्र का सर्वोच्च विकास समाजवादी जनतंत्र है। ऐसे में देरि‍दा का प्रवेश बेहद महत्वपूर्ण है।देरि‍दा ने मार्क्‍सवाद और पूंजीवाद के अब तक के प्रचलित सभी भावों,विचारों,विचारों,मूल्यों,नियमों, संहिताओं आदि को गंभीर चुनौती दी।यह चुनौती वे एकदम नई जमीन से देते हैं। उल्लेखनीय है कि मार्क्‍सवाद और पूंजीवाद ये दोनों ही मानवाधिकारों की बात नहीं करते। इनकी जितनी भी सिध्दान्त चर्चा है वह मानवाधिकार के दृष्टिकोण की उपेक्षा करती है।     
        देरि‍दा का सबसे बड़ा एकमात्र अवदान यह है कि वे युध्दोत्तर दौर में मानवाधिकारों का जो चार्टर संयुक्त राष्ट्रसंघ ने बनाया था।जिसे समाजवादी और पूंजीवादी व्यवस्था के पक्षधर मानने को तैयार नहीं थे।इस मानवाधिकार के दृष्टिकोण को अपने समूचे चिन्तन की बुनियाद बनाया।वे विखंडन के जरिए मानवाधिकारों की खोज करते हैं।जिस तरह कार्ल मार्क्‍स ने सामाजिक परिवर्तन का मंत्र बताया था। उसी परंपरा में सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में मानवाधिकारों और मानवाधिकारों के पक्ष में खड़ी सैध्दान्तिकी के रूप में देरिदा सामने आते हैं। देरि‍दा को अभी यह चिन्ता नहीं है कि क्रांति कब होगी ? समाजवादी व्यवस्था को बचाया जाए या गिराया जाए ? देरि‍दा की मूल चिन्ता यह है कि अब तक के आधुनिक विकास के क्रम में मानवाधिकारों का सारी दुनिया में विकास नहीं हुआ है। मानवाधिकारों के पक्ष में दर्शन का कोई स्कूल खड़ा नहीं है। यहां तक कि कोई दार्शनिक भी मुस्तैदी के साथ खड़ा नहीं है। देरि‍दा के दर्शन,साहित्य,भाषा,संस्कृति,जनमाध्यम, न्याय,कानून,नैतिकता, लिंगभेद, नस्लवाद विरोध, शरणार्थी समस्या,फिलिस्तीन समस्या आदि का मूलाधार मानवाधिकार का परिप्रेक्ष्य है। उनकी बुनियादी समझ यही है कि मानवाधिकारों का उनकी सर्वोच्च अवस्था तक विकास किया जाए। मानवाधिकारों की हर हालत में रक्षा की जाए। 
      शीतयुध्द के दौरान मानवाधिकारों के सवाल को सोवियत संघ के माक्र्सवादियों ने सीआईए का राजनीतिक प्रपंच बना दिया था।इसके चलते बड़े पैमाने पर मानवाधिकारों के प्रति परिवर्तनकामी शक्तियों में गलत समझ बन गई।मानवाधिकारों की चिन्ता को बड़े कौशल के साथ देरीदा दर्शन,साहित्य,भाषा, आदि के क्षेत्र में विखण्डन के बहाने ले आते हैं।कायदे से मानवाधिकार के परिप्रेक्ष्य में देरि‍दा को पढ़ा जाना चाहिए।मानवाधिकार और विखण्डन का गहरा संबंध है। मानवाधिकार के सवालों ने पूंजीवाद और समाजवाद के समूचे तानेबाने को अस्त-व्यस्त किया है।वही कार्य विखण्डन ने किया है।असल में विखण्डन मानवाधिकार की दार्शनिक रणनीति है।जिस तरह मानवाधिकार के परिप्रेक्ष्य में सभी क्षेत्र में बदलाव की प्रक्रिया शुरू हुई है।यही कार्य विखण्डन ने चिन्तन के क्षेत्र में किया है।विखण्डन की रणनीति गैर-राजनीतिक नहीं है।बल्कि पूरी तरह राजनीतिक है।सम-सामयिक है।मजेदार बात यह है कि जिस जमाने में मानवाधिकारों की चेतना नहीं थी।उस दौर के चिन्तन को भी देरीदा मानवाधिकार के परिप्रेक्ष्य में खोलकर देखते हैं।मानवाधिकार की राजनीति और देरीदा और उनके अनुयायियों का गहरा रिश्ता है।आम तौर पर आलोचकों ने इस पहलू की उपेक्षा की है।देरि‍दा पूंजीवाद या समाजवाद या माक्र्सवाद की आलोचना करते समय कोई निश्चित व्यवस्था का खाका पेश नहीं करते।सिर्फ मनुष्य और उसके अधिकारों के पक्ष में जनतंत्र को सबसे बडा तत्व मानते हैं। देरि‍दा के चिन्तन के आने के बाद सारी दुनिया में समानता, जनतंत्र,अस्मिता, स्त्री अस्मिता,दलित अस्मिता,काले लोगों के अधिकार,वंचितों के अधिकार का मामला एकदम नए स्पेस में चला गया है।
      उल्लेखनीय है कि देरि‍दा ऐसे समय में अपनी समस्त वैचारिक ऊर्जा के साथ दाखिल होते हैं जब सांस्कृतिक-सैध्दान्तिक चिन्तन पतन की ओर जा रहा था।इस पतन से बचने का कोई मार्ग नजर नही आ रहा था।बड़े-बड़े विचारक,आलोचक,लेखक इस संकट की अवस्था में अध्यात्म में लौट चुके थे।अथवा अपनी-अपनी सैध्दान्तिक रूढ़ियों में कैद थे। देरीदा इन सबसे मुक्ति दिलाते हैं। जब हिन्दी से लेकर अंग्रेजी तक थियरी को अप्रासंगिक ठहराया जा रहा था। जब युवाओं में मानवाधिकारों और मध्य-पूर्व के संकट और नस्लवाद पर बातें करने की बजाय अप्राकृतिक मैथुन पर ज्यादा चर्चाएं हो रही थीं।समाजवाद के प्रति आकर्षण घट रहा था।जब 'शरीर' और सिर्फ कामुक शरीर चर्चा के केन्द्र में था।ऐसे में देरीदा ने अपनी विखण्डन रणनीति के जरिए वंचितों और उपेक्षितों को सारी दुनिया में केन्द्रीय एजेण्डा बनाया।जो काम इस दौर में मार्क्‍सवाद नहीं कर पाया उसे देरि‍दा के चिन्तन ने कर दिखाया।जिस समय आलोचना के नाम पर साहित्य में कचरा जमा हो रहा था।आलोचना रूढियों के मार्ग पर चली गई थी।छात्रों,शिक्षकों,आलोचकों और विचारकों के पास कोई प्रेरक व्यक्तित्व नहीं था।ऐसे में देरीदा ने प्रेरक के रूप में सारी दुनिया के बौध्दिक विमर्श को नई बुलंदियों तक पहुँचाया।देरि‍दा ऐसे दौर में दाखिल होते हैं जब बौध्दिकों को भविष्य को देखने के औजार नहीं मिल रहे थे।देरीदा के चिन्तन की केन्द्रीय उपलब्धि यह है कि वह बुध्दिजीवियों को सभी किस्म के रूढिगत चिन्तन से मुक्त करता है।भविष्य में आस्था पैदा करता है।भावी सपनों को आलोचनात्मक विवेक की रणनीति के जरिए खोलता है। देरीदा को पढ़ना एक राजनीतिक अभ्यास भी है।
    सवाल पैदा होता है कि विखंडन में बुनियादी चीज क्या है ?इसमें दो बुनियादी चीजें हैं।पहला,देरीदा ने 'वायनरी अपोजीशन' में जो संबंध होते हैं।उन्हें विखंडन की रणनीति के तहत उलट दिया है।वह वायनरी अपोजीशन के उलट का मसीहा है।इसी के आधार पर उसने सोचने की दिशा को बदला है।मसलन् वायनरी अपोजीशन में मर्द / औरत, अच्छा /बुरा, वाक् / लेखन आदि के जो प्रचलित संबंध थे।उन्हें उलट दिया।मसलन् मर्द और औरत के संबंध में मर्द केन्द्र में था। किंतु देरीदा ने स्त्री को केन्द्र में स्थापित कर दिया।अच्छे और बुरे में अच्छा केन्द्र में था उसकी जगह बुरे को बिठा दिया।वाक् केन्द्र में था उसकी जगह लेखन को रख दिया।वायनरी अपोजीशन में यह उलट सारी दुनिया के लिए वरदान साबित हुआ है।यहां तक कि अब वे भी इस रणनीति का पालन कर रहे हैं जो कभी इसकी निन्दा करते थे।
   विखंडन की रणनीति का दूसरा बड़ा अवदान यह है कि उसने समस्त भेदों को अस्थिर कर दिया है।विखंडन रीडिंग का दार्शनिक अस्त्र है यह अन्य के पाठ की व्याख्या का औजार है।इस औजार का विकास जनतंत्र में ही संभव है।जनतंत्र में ही अन्य की मुक्ति संभव है।जनतंत्र की धुरी है समानता और समानता पर आधारित न्याय का शासन।निष्पक्ष न्यायपालिका और न्याय के बिना जनतंत्र का काम करना संभव नहीं है।इस तथ्य को देरि‍दा ने बार-बार अपने कानून और न्याय संबंधी व्याख्यानों और लेखों में रेखांकित किया है।अपने पहले कानून-संबंधी व्याख्यान 'विफोर द लॉ' में देरि‍दा ने कानून के सामान्य और विशिष्ट अर्थ की विस्तार से व्याख्या करते हुए कहा कि आज कानून बेहद महत्वपूर्ण हो उठा है। न्यायाधिकारी की महत्ता बढ़ी है।वे कभी-कभी राजनीतिज्ञों द्वारा सत्ता के दुरूपयोग को रोकते हैं। जनतंत्र के स्वस्थ विकास के लिए स्वतंत्र न्यायपालिका का होना बेहद जरूरी है। स्वतंत्र न्यायपालिका हो यह जनतंत्र के लिए भी परीक्षा की घड़ी है।जो दार्शनिक एथिक्स और राजनीति में रूचि लेते हैं उन्हें कानून पर लौटना ही होगा।यदि जनतंत्र सही मायने में ग्लोबल बनता है तो दार्शनिक,कानून और न्याय से भाग नहीं सकते।उल्लेखनीय है कि देरि‍दा ने कानून की औपचारिक पढ़ाई नहीं की थी।किंतु कानून के सवालों पर उनकी दार्शनिक मीमांसा को सारी दुनिया के कानूनविदों में वही सम्मान और शोहरत मिली जो साहित्य या दर्शन में मिली।सामान्य तौर पर कानून पढ़ने की जरूरत उन्हें तब पड़ी जब वे एकबार लेखक के अधिकारों और कापीराइट के मसले पर कानूनी नुक्तों का अध्ययन करने के लिए मुखातिब हुए।उन्होंने साहित्य के संदर्भ में ही सबसे पहले कानून का अध्ययन आरंभ किया।लेखक के अधिकारों और कापीराइट के सवाल पर अंग्रेजी और फ्रांसीसी कानून में वर्णित प्रावधानों का अध्ययन करने के बाद येल में एक सेमीनार में पर्चा पढ़ा।देरि‍दा ने कानून संबधी लेखन में केन्द्रीय रूप में जिस बात को आधार बनाया है वह है एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति के प्रति दायित्व।इसी के आधार पर उन्होंने सीक्रेट, टेस्टीमॉनी,होस्पीटेलिटी, फोरगिवनेस आदि विषयों पर व्याख्यान दिए।
    देरि‍दा के चिन्तन की बुनियादी धुरी है कि कुछ भी अंतिम नहीं है।कोई चीज अपने अंतिम निष्कर्ष पर नहीं पहुँची है।सब कुछ बदल सकता है।सब चीजों,विचारों,मूल्यों,तकनीकी आदि को उलट- पुलटकर देखा जाना चाहिए। वस्तुओं,विचार,मूल्य,मान्यता आदि के प्रति देवत्वभाव से मुक्त होकर आलोचनात्मक नजरिए से देखा जाना चाहिए।विश्लेषण,व्याख्या, और परिवर्तन से परे कुछ भी नहीं है।यहां तक कि हमारी आस्थाएं और विश्वास भी विश्लेषण के दायरे में आते हैं।वे भी बदल सकते हैं।बदल रहे हैं।कोई चीज अंतिम नहीं है।यही वह प्रस्थान बिंदु है जो मानव सभ्यता के विकास के अनंत पथ खोलता है।इसी अर्थ में देरि‍दा और उनके अनुयायियों की पहल बढ़ी है।वे ज्यादा प्रासंगिक सवाल उठा रहे हैं। प्रश्नाकुलता पैदा कर रहे हैं।असहमति का शास्त्र रच रहे हैं। सहमति की दुनिया में असहमति का शास्त्र विकास का लक्षण है,पतन कर नहीं।इसी अर्थ में विखण्डन एक सकारात्मक रणनीति है। यह खोए हुए यथार्थ,पराए लोगों,वंचित लोगों और जनतंत्रप्रेमी जनता का अस्त्र है।

हमारे देश में कुछ लोग चाहते हैं कि एकायामी हिन्दुत्ववादी शिक्षा दी जाए।इस तरह की शिक्षा का देरीदा ने अपने देश में भी विरोध किया था।वहां पर भी कुछ लोग ऐसी शिक्षा के पक्ष में थे कि जो एकायामी हो,विविधता की विरोधी हो।जिसमें बहुलतावाद,विज्ञान, धार्मिक विविधता आदि की कोई जगह न हो।इस तरह की शिक्षा को देरीदा ने 'प्रभुत्ववादी केन्द्रीयता' की संज्ञा दी।

     देरि‍दा नहीं चाहते थे कि सारी दुनिया का एकीकरण हो जाए।एक ही केन्द्र के इर्द-गिर्द सारे देश जमा हों।'नई विश्व व्यवस्था' के बारे में जो तर्क दिए गए उन्हें यूरोप की सांस्कृतिक अस्मिता के संदर्भ में खोलते हुए देरीदा ने लिखा कि यह दुधारी तलवार है। यूरोप की सांस्कृतिक अस्मिता को आप नई विश्व व्यवस्था के नाम पर रफा-दफा नहीं कर सकते। जब मैं कहता हूँ कि किसी भी तरह नहीं,तो इसके दो अर्थ हैं,पहला ऐसा करना हार्दिक तौर पर मुश्किल है।दूसरी बात यह कि हम किसी केन्द्रीय ऑथरिटी की पूंजी स्वीकार नहीं कर सकते।खासकर ऐसी पूंजी जो नियंत्रित करे और स्टैण्डर्डाइज करे।स्थान के आधार पर लोगों की चेतना का निर्माण बहुत सहज है।उस चेतना की बिक्री सहज कार्य है।इस तरह का सामान्यीकरण किसी भी जगह सब समय सांस्कृतिक पूंजी बनाता है।यही कार्य वर्चस्ववादी केन्द्र भी करता है।ब्रूनर ने लिखा था कि आत्म या निज को अन्य के संदर्भ में परिभाषित करो।'देरि‍दा ने भी कहा कि अस्मिता में वस्तुत:अन्य भी होता है। यह कह सकते हैं, आंतरिक और बाह्य तौर पर अस्मिता के सभी रूपों के निर्धारण में कम से कम कोई आत्म संबंध नहीं होता।स्वयं से कोई संबंध नहीं होता।आप स्वयं के आधार पर कोई पहचान नहीं बनाते।संस्कृति के बगैर अस्मिता की पहचान संभव नहीं है और संस्कृति स्वयं में अन्य की संस्कृति होती है।संस्कृति में दुहरा रूप छिपा होता है।वह स्वयं से फ़र्क खत्म करती है। इसका अर्थ यह है कि बौध्दिक क्षमता बढ़ाने के लिए अन्यत्व, बहुस्तरीयता और अन्तर्विरोधी स्वरों भी को शामिल किया जाए।जिससे भाषा को आलोचनात्मक अभिव्यक्ति मिले। इन स्वरों के बहिष्कार का अर्थ है कि शिक्षा का तटस्थीकरण।इसका अर्थ यह भी है कि राजनीतिक तौर पर हम यह फैसला लेने जा रहे हैं कि हमें शिक्षित नहीं करना है। देरि‍दा ने भिन्नता और अन्यत्व की अभिव्यक्ति को स्वीकार किया है।'नई विश्व व्यवस्था' की आलोचना करते हुए लिखा कि आज हमारे सामने बहुस्तरीय वैविध्य के प्रति दोहरी जिम्मेदारी है।देरि‍दा ने लिखा कि इसके कई बिन्दु हैं जिन्हें ध्यान रखें।संक्षेप में देरीदा की बातों को निम्नलिखित रूप में समझ सकते हैं।

1.यह जरूरी है कि परंपरा को याद करें।साथ ही 'भिन्नता' के प्रति खुले रहें। 2.यह जरूरी है कि 'विदेशियों' का स्वागत करें।उन्हें अपने अंदर समाहित करने के लिए नहीं।बल्कि उन्हें मानें,स्वीकार करें,सम्मान दें। 3.यह जरूरी है कि सर्वसत्तावादी कठमुल्लावाद की सिध्दान्त और व्यवहार में आलोचना करें। साथ ही धर्म की पूंजी को जिसे कठमुल्ले पैदा कर रहे हैं,जो नए रूप में आ रही है,उससे सीखें और रेखांकित करें।उसकी आलोचना करें। 4.यह जरूरी है कि आलोचनात्मक विचारों और आलोचनात्मक परंपरा पैदा करें।उसे विखंडन की रणनीति के हवाले करें।उसे आलोचक और सवालों के परे ले जाएं। 5.यह जरूरी है कि हम मानकर चलें कि यूरोपीय परंपरा में लोकतंत्र का विचार एक विलक्षण विचार है।यह भी मानकर चलें कि इस विचार को कभी छोड़ा नहीं गया।यह भी कह सकते हैं कि इस पर कभी -कभी यह विचार किया गया कि यह जरूर लागू होगा। 6.यह जरूरी है कि भिन्नता,इडियम,अल्पसंख्यकों,विश्ष्टिता,कानून का सार्वभौमत्व,समझौते और असहमति की इच्छा व्यक्त करें।साथ ही बहुसंख्यकों के कानून का विरोध करें।नस्लवाद का विरोध करें।राष्ट्रवाद और राष्ट्रवादी उन्माद का विरोध करें। 7.सहिष्णु बनें।सम्मान करें।ये सभी बातें तर्क के शासन में नहीं आतीं।ये आस्था के भिन्न रूप हैं।साथ ही यदि तर्क के बारे में लगातार सोचें ,तर्क के इतिहास के बारे में सोचें,अनिवार्यत: उसकी व्याख्या का उल्लंघन करें। अतार्किक हुए वगैर अज्ञान की सीमा को जानें। 8.दुहरी जिम्मेदारी का अर्थ है जिम्मेदारी।यानी सोचने,बोलने और लागू करने की जिम्मेदारी।समुचित परिस्थितियों और दोहरे अन्तर्विरोधों के स्तर पर उन सभी का सम्मान करते हुए यह काम उन्हें भी सम्मानित करते हुए करें जो किसी भी किस्म की जिम्मेदारी नहीं निभाते। देरीदा का सबसे चर्चित अवदान विखंडन है इसके विखंडन के मूल बिन्दु इस प्रकार हैं- 1.यह पाठ की रणनीति है।इसका उपयोग मूल्य है।इसका उत्तर व्युत्पत्तिशास्त्र में छिपा है।यह किसी भी किस्म की संदर्भगत रणनीति के बाहर है। 2.विखंडन साहित्य और दर्शन के पाठ पर निर्भर है।उसकी क्षमता है नए पाठ और नए पाठक को आत्मसात् करने की।विखंडन को 'पध्दति' में संकुचित नहीं किया जा सकता।यह खोज है।विश्लेषण है।नए तनावों की खोज है।पाठ में अन्तर्निहित अस्थिरता की खोज है।वह सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है।बल्कि पाठ में निहित चीजों को उभारने,सामने लाने,उजागर करने,उन पर बल देने का नाम है।यह स्वयं और अन्य की खोज भी है। 3.विखंडन चीजों की तय प्राथमिकताओं के बारे में सवाल खड़े करता है।खासकर मूल,स्वाभाविक अथवा जो स्व-प्रमाणित है उसके प्रति सवाल खड़े करता है।कौन से मुख्य पदबंध हैं।मंशाएं हैं।चरित्र हैं।उन्हें पाठ के अंदर वायनरी अपोजीशन या युग्मी-युक्ति के रूप में परिभाषित करना।अपोजीशन कैसे क्रमानुवर्ती है ? यह अपोजीशन अस्थिर है।इसके संबंध को बदला जा सकता है।यह एक-दूसरे पर निर्भर है,अन्य पर निर्भर है।यह भी ध्यान देने की जरूरत है कि पाठ कैसे उलटता है।लेखक की मंशा से परे चला जाता है।अतिक्रमण कर जाता है। 4.आज के साहित्यिक परिदृश्य में विखंडनात्मक रीडिंग व्यापक तौर पर व्याख्यात्मक रणनीति का हिस्सा है।इसका बार-बार हायरार्कीकल अपोजीशन को अस्थिर करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।(जैसे मर्द/ औरत, अभिजन/ पापुलर कल्चर, आदि)।देरीदा ने विखंडन को अपना केन्द्रीय कार्य कभी नहीं माना।यही वजह है कि उसने इसे एक व्यवस्था,आंदोलन या स्कूल बनाने की कोशिश नहीं की।अभी तक हमारी जानकारी में कहीं 'डिकंस्ट्रक्टनिज्म' पदबंध का प्रयोग सामने नहीं आया है।हिन्दी में सिर्फ गोपीचंद नारंग ने इसे विरचनावाद कहा है।जो गलत है।उन्होंने ही इसे 'वाद' बनाया है। 5.यह भी भूल होगी कि हम विखंडन को उत्तर-संरचनावाद का पर्याय बना दें।या उस रूप में समझें।उत्तर -संरचनावाद दर्शन है।इससे देरि‍दा जुड़े रहे हैं।जबकि इस कार्य के अंदर विखंडन एक पदबंध है।

   देरि‍दा पर जब भी चर्चा होती है तो हाइडेगर और नीत्शे का जिक्र जरूर आता है।इस संदर्भ में यह तथ्य ध्यान रहे कि देरि‍दा ने इनके सकारात्मक तत्वों को आत्मसात् किया था।इनका अंधानुकरण नहीं किया था।इन दोनों के परिप्रेक्ष्य से भिन्न परिप्रेक्ष्य में देरीदा सोचते थे।इन दोनों से भिन्न देरीदा की समसामयिक राजनीतिक सवालों पर राय थी।

देरि‍दा के विखंडन की मुश्किल यह है कि वह अकल्पनीय मुश्किलों से ग्रस्त है।मसलन् जब भी कोई व्यक्ति बोलता है तो तर्क की भाषा में बोलता है।ऐसे में विखंडन की रणनीति के तहत ऐसे व्यक्ति के वक्तव्य में हमें उन छिपे हुए क्षेत्रों की खोज करनी चाहिए जो तयशुदा अर्थ से भिन्न है।तर्क के नियमों से परे हैं।यहीं पर दुहरा खेल शुरू होता है।यह उभयभाविता की मांग करता है।दर्शन की भाषा में इसे दुरंगापन कहते हैं। हाइडेगर के लिए दर्शन का अंत मेटाफिजिक्स में निहित था।हाइडेगर का मानना था कि अनुभवनिरपेक्ष के बारे में सवाल करना अर्थहीन है।वह मानता था कि दर्शन का अंत हो चुका है।दर्शन और कुछ नहीं पश्चिमी विचारधारा है।जो स्वयं सुपीरियर मानती है।देरि‍दा ने हाइडेगर के तर्कों से भिन्न बात कही है।देरि‍दा मानता है कि अनुभवनिरपेक्षता के सवालों से आप बच नहीं सकते।विचारधारा के खिलाफ जो आरोप लगाए गए हैं यदि वे सच हैं तो ये आरोप तो दर्शन की भाषा के प्रति हुए।कायदे से पूछा जाना चाहिए कि क्या प्रभुत्वशाली विचारधारा को किसी अन्य विचारधारा ने अपदस्थ किया है।जैसे मार्क्‍सवाद,फ्रायडवाद वगैरह ने।देरि‍दा ने कहा कि मैं तर्क करना चाहता हूँ कि तर्क पुराना या रूढ़ हो गया है।वह स्वयं को ही अपील करता है।वह जिसका विरोध करता है उसके खिलाफ स्वयं को ही अपील करता है।अपने क्षेत्र को ही सम्बोधित करता है।इसी अर्थ देरि‍दा ने कहा कि तर्क रूढ़ हो गया है।अप्रासंगिक हो गया है। देरि‍दा ने हाइडेगर की इतिहास को लेकर जो समझ है उसे लेकर कोई झगड़ा नहीं किया।मसलन् जब हाइडेगर कहता है कि दर्शन के इतिहास का अंत हो गया तो देरि‍दा सवाल उठाता है कि ऐसा क्या हुआ है कि अंत हो गया ?अपने समूचे चिन्तन में देरि‍दा ने जो रणनीति चुनी है वह दुरंगी है।वह दुहरा खेल खेलती है।वह तर्क की भाषा के जरिए सक्रिय होती है।चूँकि अन्य कोई भाषा नहीं है।वह ऐसे क्षेत्र में भी जाती है जहां समस्याओं के कोई उत्तर नहीं हैं।वह तार्किक स्थितियों के अन्तर्विरोधों को दिखाती है।देरि‍दा इस रणनीति को ही विखंडन कहता है।हाइडेगर के यहां यह 'विध्वंस' है।हाइडेगर के लिए 'डिस्ट्रक्शन' या विध्वंस 'इतिहास के इतिहास' की जांच या खोज है।इसमें वर्तमान की नकारात्मक व्याख्या शामिल है।हाइडेगर मानता है कि व्यक्ति इस संसार में अकेला है।वह साधारण जिन्दगी जीता है।साधारण जिन्दगी जीते हुए वह संसार सागर से मुक्त नहीं हो पाता बल्कि उलटे फंसता चला जाता है।ऐसे में दुखी होकर मोक्ष की कामना करने लगता है।इस क्रम मे वह संसार सागर की व्याख्या करता है।विरासत में प्राप्त परंपरा की व्याख्या करता है।निरंतर मृत्यु की कामना करता है।मृत्यु के भय में जीता है।इस क्रम में वर्तमान की नकारात्मक और इतिहास की सकारात्मक व्याख्या करते हुए प्रामाणिकता हासिल करता है।वह कठिन सवालों को उठाता है।जिससे वह अपनी ऑथरिटी को मनवा सके।इसके लिए वह जगत की टुकड़ों में व्याख्या करता है।उसे इतिहास में खोजता है।हाइडेगर का मानना था कि अस्तित्व के अंतर्य को समझने के लिए जरूरी है कि मनुष्य सभी किस्म की व्यावहारिक मान्यताओं को त्याग दे।अपनी नश्वरता,क्षणभंगुरता को पहचाने।सतत रूप से मृत्यु के आमने-सामने होने की अनुभूति से ही मनुष्य जीवन के प्रत्येक क्षण की अर्थवत्ता तथा भरपूरता को देखने की स्थिति में होता है और अपने को लक्ष्यों,आदर्शों और वैज्ञानिक अपकर्षणों से मुक्त कर सकता है। देरि‍दा के यहां एक अन्य धारणा है भिन्नता ।वे इसे भेद से अलग करते हैं।उनके यहां भिन्नता और भेद दो अलग-अलग धारणाएं हैं।भिन्नता यानी अस्मिता का पृथक् रूप।भेद यानी समय का पृथक रूप।इस धारणा पर देरीदा हुसेर्ल को पढ़ते हुए पहुँचे।खासकर 'फिनोमिनोलॉजी ऑफ हिस्ट्री' के विखंडन के जरिए पहुँचे।देरीदा ने कहा कि यह हमारे सारे सवालों का उत्तर देता है।यह बताता है कि सत्य को कैसे पाया जा सकता है।यदि सत्य को सत्य बनना है तो उसे रूढ़ बनना होगा।परमत्व को प्राप्त करना होगा।उसे सभी किस्म के नजरिए से स्वतंत्र करना होगा।फिनोमिनोलॉजी सत्य के उदय की खोज करती है। फिनोमिनोजिस्ट तर्क देते हैं कि सिर्फ वर्तमान ही मौजूद है।वर्तमान में अतीत का रहना एक तरह से सभ्यता की अनुपस्थिति का सूचक है।भविष्य का आप अनुमान लगा सकते हैं किंतु यह कार्य वर्तमान में रहकर ही संभव है।अतीत को वर्तमान में बचाए रखने के लिए जरूरी है कि भविष्य की भी वर्तमान में भविष्यवाणी की जाए।वर्तमान को सिर्फ वर्तमान में नहीं होना चाहिए बल्कि वर्तमान ऐसा होना चाहिए जो अभी आना बाकी है।साथ ही वर्तमान ऐसा जो अतीत हो चुका है।यही वह बिन्दु है जहां 'डिफरेंस' की धारणा में देरीदा दाखिल होते हैं।वह कहते हैं कि वर्तमान की स्वयं के साथ एकरूपता नहीं है।यह भिन्नता ही आरंभिक तथ्य की समस्या को सामने लाती है।मान लीजिए हमने किसी आरंभिक तथ्य के जरिए किसी घटना के आरंभ की खोज की ऐसी अवस्था में हम यह कैसे कह सकते हैं कि इसके निर्माताओं के दिमाग में यही अर्थ था।हम अपने अर्थ को उनके अर्थ के बराबर नहीं रख सकते।यदि हम 'फिनोमिनोलॉजी' बनाते हैं तो हमें हुर्सेल के 'सिध्दान्त का सिध्दान्त' की धारणा का इस्तेमाल करना होगा।सिध्दान्त यह है कि इतिहास अर्थपूर्ण रहा है।किंतु भ्रमित करनेवाला रहा है।उसे बताने के लिए किसी की जरूरत है।उसे पीढ़ी-दर पीढ़ी संचारित कर सकते हैं।उसमें कई स्वर हैं।उसे किसी भी समय लिपिबध्द नहीं किया गया।व्यक्ति और अर्थ एक नहीं हो सकता।अर्थ हमेशा भिन्न होता है। सही क्या है ? और तथ्य क्या है ?ये दोनों एक नहीं हैं।इसका कारण यह है कि तथ्य और सही में सामान्य फर्क होता है।इसी तरह देरीदा कहते हैं कि प्रथम तो प्रथम है,वह प्रथम इसलिए है क्योंकि उसके पीछे द्वितीय है।प्रथम को आप अकेले नहीं पहचानते बल्कि प्रथम के लिए द्वितीय का होना जरूरी है।पूर्वर् शत्त है।दूसरे को मानने का अर्थ है तीसरे का आना।इसी अर्थ में ओरिजन एक तरह का पूर्वाभ्यास है।पुनरावृत्ति का पूर्वाभ्यास है।मौलिक की नकल है।

आलोचना के ह्रास के युग में देरि‍दा का महत्‍व

       देरि‍दा के विचारों ने सारी दुनिया में धूम मचाई है।किंतु भारत में देरीदा के विचारों के प्रभाव की वह गर्मी दिखाई नहीं देती जो अमेरिका,अफ्रीका,यूरोप में है।यहां तक कि लैटिन अमेरिका में भी देरि‍दा जनप्रिय हैं।देरीदा भारत आए और दिल्ली,कोलकाता में धमाकेदार व्याख्यान भी दे गए। किंतु साहित्यालोचना,इतिहास,दर्शन,राजनीति विज्ञान आदि के क्षेत्रों में उनका वैसा स्वागत नहीं हुआ जैसा आम तौर पर होता है।इस उपेक्षाभाव के कारणों की खोज की जानी चाहिए। हिन्दी में साहित्यालोचना की इन दिनों जो अवस्था है उसमें नए की तरफ बुध्दिजीवियों का ध्यान ही नहीं जाता।नए के प्रति संशय का भाव है अथवा नए को न सीखने की जिद है।हिन्दी समीक्षा लंबे समय से पुनरावृत्ति की शिकार है। पुराने को ही बार-बार चमकाने या दोहराने की प्रवृत्ति जम गई है। वह अतीत में कैद हैं। शीतयुध्दीय राजनीति और प्रगतिशील साहित्यालोचना की रूढ़ियों की शिकार है। रूढ़ियों का अनुगमन करने के कारण इसमें नए के प्रति कोई आकर्षण नहीं है।स्थिति इतनी भयावह है कि मार्क्‍सवाद के बारे में,मार्क्‍सवादी पध्दति के प्रयोग के बारे में भी रूढ़ियां हावी हैं।
   भारत के सामाजिक माहौल की एक विशेषता है कि वह हर चीज को हजम कर जाती है।वह पुराने को खत्म किए वगैर उससे मुक्त हुए वगैर नए को भी हजम कर जाती है।हर चीज को हजम कर जाने का विचार मूलत: जनतंत्र विरोधी है। सर्वसंग्रहवादी है।प्रतिगामी है। इसमें अप्रासंगिक पुराने विचारों के प्रति जबर्दस्त आग्रह है।वह प्रत्येक नए विचार को पुराने में समाहित करने के लिहाज से देखता है। यह पुराने का खजांची है।हमारे समाज में 'ओल्ड इज गोल्ड' की धारणा की गहरी जड़ें हैं। हिन्दी मे अतीतपंथी हैं या शीतयुध्दीय राजनीति की कोटियों में सोचने वाले हैं।ये दोनों ही रास्ते साहित्यालोचना की गंभीर बाधा हैं।
       साहित्यालोचना को प्रासंगिक बनाने के लिए जरूरी है कि उसे सभी किस्म की आलोचना रूढ़ियों की कैद से मुक्त किया जाए।नियमों और सिध्दान्तों के बने-बनाए सांचों में रखकर जब भी आलोचना लिखी जाएगी उसमें जीवन की धड़कन सुनाई नहीं देगी।आज वास्तविकता यह है कि साहित्यालोचना से गंभीर वाद-विवाद गायब हैं।आलोचना की जगह व्यक्तिगत और आत्मगत तत्व आ गए हैं।भाषा के भदेस प्रयोगों के नाम पर भाषा में गंभीर विमर्श के माहौल को बिगाड़ा जा रहा है।साहित्यालोचना को सस्तेपन,गुटबाजी और व्यक्तिगत प्रमोशन स्कीम के हवाले कर दिया गया है।आलोचना पूरी तरह गायब हो गई है। आज आलोचक हैं किंतु आलोचना गायब है।आलोचना के नाम पर चाटुकारिता और रीतिवाद आ गया है। विमर्श,विवाद,संवाद,संपर्क की जगह व्यक्तिगत निंदा, जोड़तोड़, चालाकियों,नकल ,और झूठ ने ले ली है।इसी अर्थ में यह साहित्यालोचना के ह्रास का संकेत है। साहित्यालोचना के मौजूदा माहौल को बदलने के लिहाज से फ्रासीसी दार्शनिक ज्यांक देरीदा प्रस्थान बिन्दु हो सकता है।
        ज्यांक देरि‍दा किसी भी किस्म की संकीर्णता और नियमों की कैद से मुक्त है।यह स्वभाव और सिध्दान्त में जनतांत्रिक है।इसकी आलोचना सैध्दान्तिकी का मिजाज हमारे समाज की वैविध्यपूर्ण जनतांत्रिक परिस्थितियों के अनुकूल है।देरीदा सबका है और किसी का नहीं है। भारत जैसे विषम समाज में देरीदा के विचारों की सबसे ज्यादा प्रासंगिकता है। वह वंचितों और दुखियों का पक्षधर है।इसके चिन्तन के केन्द्र में एक नहीं अनेक हैं।अभी तक आलोचना निज को केन्द्र में रखकर लिखी जाती रही है।देरीदा ने आलोचना और दर्शन को निज के दायरे से बाहर निकालकर अन्य के दायरे में लाकर खड़ा किया है।वह अन्य, अन्यत्व,वंचित,काले,अल्पसंख्यक,स्त्री आदि के सवालों को केन्द्र में रखकर सोचता है।उसकी चिंता के केन्द्र में मानवाधिकार हैं।वह मानवाधिकारों की चेतना का विकास करते हुए सामाजिक परिवर्तन देखना चाहता है।उसकी चिन्ता क्रान्ति नहीं है।रेडीकल जनतंत्र है। सर्वसत्तावादी शासन नहीं जनतांत्रिक शासन है।देरीदा मानवीय इच्छाशक्ति का प्रवक्ता है।मानवीय जीवन को उसने सकारात्मक दृष्टिकोण से देखा है।वह सोचने,समझने और देखने की सभी नई और पुरानी बनी-बनायी कोटियों को अपदस्थ करता है।आप जो हैं।वह नहीं रहते।वह बदलने के लिए मजबूर करता है।उसके समूचे चिन्तन के केन्द्र में एक ओर जनतंत्र है दूसरी ओर मानवीय विकास है।जनतंत्र और विकास के नजरिए से वह हाशिए के लोगों या वंचितों के बारे में सोचता है।
     भारत में देरि‍दा के जनप्रिय न हो पाने का प्रधान कारण है जातिप्रथा और उच्चवर्ण के दृष्टिकोण का वर्चस्व।इसके अलावा वेदान्त और कठमुल्ला माक्र्सवादी नजरिए का बौध्दिकों पर गहरा असर।दूसरा प्रधान कारण है आलोचना का दर्शन से अलगाव। मजेदार बात यह है कि दर्शन में जिस गति से भारत में विगत पचास वर्षों में नई समझ पैदा हुई है उसका साहित्यालोचना के साथ तकरीबन संवाद नहीं हुआ है।उल्लेखनीय है कि दर्शन और सैध्दान्तिकी के साथ संवाद के बिना आलोचना मर जाती है।साहित्यालोचना की प्राणवायु साहित्य के साथ-साथ दर्शन से आती है।वास्तव जीवन के साथ-साथ सैध्दान्तिक विमर्श से आती है। हिन्दी की आलोचना के पुरोधा आलोचक नामवर सिंह को थियरी से गहरी चिढ़ है। जबकि थियरी के बिना विकास संभव नहीं है।हिन्दी के चर्चित साहित्यकार,सम्पादकों को चटपटी बातें कहने, सनसनीखेज बातें करने, उठा-पटक और पुरस्कारों में जितनी रूचि है उतनी गंभीर विमर्श में नहीं है।यही वजह है कि हिन्दी में गंभीर लेखन की न तो कोई पत्रिका है और न कोई शोध संस्थान है।हिन्दी के अधिकांश आलोचक ऐसी भाषा का प्रयोग करते हैं जिसमें गंभीर बहस नहीं हो सकती।साहित्यिक पत्रिकाएं कामचलाऊ नजरिए से प्रकाशित हो रही हैं।इन पत्रिकाओं को देखकर लगता ही नहीं है कि हम 21वी शताब्दी में हैं। कमोबेश रूप में इन पत्रिकाओं में उन्नीसवीं शताब्दी के वर्गीकरण और अवधारणाओं के आधार पर सामग्री प्रकाशित हो रही है।अनुसंधान और गंभीर विमर्श से हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं को एलर्जी है।इसका प्रधान कारण है विश्वविद्यालय स्तर पर हिन्दी के प्रति अगंभीर और अनुसंधान विरोधी रवैयये का होना।स्थिति की भयावहता का अनुमान सिर्फ इसी तथ्य से लगा सकते हैं कि हिन्दी के अधिकांश विश्वविद्यालय और कॉलेज शिक्षक शोध प्रविधि के सामान्य नियमों से अनभिज्ञ हैं।इस अज्ञानता को देखने के लिए बाजार में उपलब्घ शोधपरक कृतियों को देखा जा सकता है।इन सब बातों को रखने का मकसद किसी का अपमान करना नहीं है। किसी को छोटा या हेय ठहराना नहीं है।अपितु इस तथ्य की ओर ध्यान खींचना है कि हिन्दी का साहित्य जगत गंभीर संकट में फंसा है।इस संकट से निकलने का एक ही रास्ता है कि सबसे पहले साहित्यालोचना अपने को गंभीर विचार- विमर्श में शामिल करे।देरीदा इस संदर्भ में हमारे लिए पथ-प्रदर्शक हो सकते हैं।देरीदा से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। हमारी परंपरा में बहुत कुछ ऐसा है जिससे देरीदा को समृध्द कर सकते हैं।
     मजेदार बात यह है कि हम अपनी परंपरा का मूल्यांकन करते हुए आगे की ओर नहीं हमेशा पीछे की ओर जाते हैं।हमें इस सवाल पर विचार करना होगा कि परंपरा का मूल्यांकन करते-करते हमारी दृष्टि परंपरावादी क्यों हो जाती है।हम परंपरा को अतीत के खूंटे से मुक्त क्यों नहीं कर पाते।जिस आलोचक ने भी परंपरा का मूल्यांकन किया अपने को अतीत का हिस्सा बना लिया।जबकि देरीदा ने विरासत का मूल्यांकन करते हुए विरासत को, परंपरा को अतीतबोध से मुक्त किया।आधुनिक विमर्श,आधुनिक सामाजिक,सांस्थानिक, संरचनात्मक प्रक्रियाओं से जोड़ा।
       हमारे समर्थ आलोचक परंपराओं की खोज के क्रम में प्रवेश आलोचनात्मक विवेक के साथ करते हैं किंतु लौटते हैं परंपरा के आराधक बनकर,अनालोचनात्मक दृष्टिकोण के साथ।जिसने भी परंपरा का मूल्यांकन किया वह परंपरा का अंग बन गया।मेरे हिसाब से किसी आलोचक के लिए यह सबसे बड़ी त्रासदी है कि जीते जी परंपरा या विरासत में चला जाए।हमारे यहां विरासत में जाने की जितनी बेचैनी है उतनी भविष्य में जाने की नहीं है। वर्तमान में जीने में नहीं है। परंपरा का जितना मूल्यांकन हुआ है उतना वर्तमान और भविष्य का नहीं हुआ।विचारों की दुनिया में पुराने को यदि पुराने के आधार पर परखा जाएगा तो पुराना अपने पुरानेपन से मुक्त नहीं होगा।यदि पुराने को वर्तमान के आधार पर,नए के आधार पर परखेंगे तो नए का जन्म होगा।परंपरा के मूल्यांकन में हमने अभी तक अपनी सारी ऊर्जा जो उपलब्ध है, जिसे हम कमोबेश जानते हैं उसी की खोज और पैकेजिग बदलने में लगाई है। परंपरा या विरासत के मूल्यांकन का अर्थ तब खुलता है जब हम अनुपलब्ध को खोजते हैं। हम जब अनुपलब्ध को खोजते हैं तब ही नए का जन्म होता है।किंतु परंपरा की खोज के नाम पर अब तक का सारा कारोबार मूल की प्रतिलिपि तैयार करने का रहा है।खासकर हमारी आलोचना ने परंपरा के नाम पर जो कुछ दिया है वह पहले से उपलब्घ था।हमारे ये आलोचक मूल को उसकी प्रतिलिपि से अलग नहीं कर पाए।परंपरा के जिन रूपों या व्यक्तित्वों या जिस साहित्य परंपरा की खोज की गई उसमें हमें यह तथ्य देखना होगा कि उसमें मूल और प्रतिलिपि में क्या फर्क है ?इसके लिए विश्लेषण का कहां तक इस्तेमाल किया गया है ?जो उपलब्ध था क्या उसे भिन्न भाषा में पेश कर दिया गया है।अथवा यहां-वहां से उध्दरण जुटाकर सजा दिया गया है।
    परंपरा का मूल्यांकन सिर्फ भाषा का खेल नहीं है।हमें देरीदा की यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि मौलिक का जन्म कभी भाषा के आधार पर नहीं होता। भाषा को लुप्त अनुभवों का प्रतिनिधित्व करने का हक नहीं दे सकते।भाषा के जरिए लुप्त की खोज नहीं की जा सकती।देरि‍दा ने लिखा है कि मौलिक का जन्म,शुध्द का उदय कभी भी भाषा के आधार पर नहीं हो सकता।लेखन को वाक् के मातहत नहीं रख सकते।यदि ऐसा करते हैं तो यह हमारा ऐतिहासिक पूर्वाग्रह होगा।प्रत्येक 'साइन' में एक 'सिगनीफायर' होता है जो अन्य को व्यंजित करता रहता है।अर्थभेद पैदा करता है।इसी तरह 'सप्लीमेंट' या पूरक के विचार को लें इसमें बड़े रोचक सवाल निहित हैं। हम मौलिक के बारे में सोच सकते हैं।किंतु मौलिकता जैसी कोई चीज नहीं होती।बल्कि अपूर्ण मौलिक होता है।जिसके कारण हम 'पूरक' का सृजन करते हैं।इसे हम 'अतिरिक्त' भी कह सकते हैं।पूर्ण में इसे जोड़ सकते हैं।इससे संपूर्ण की कमजोरी सामने आ जाएगी।इसी को देरि‍दा ने 'लॉजिक ऑफ दि सप्लीमेंट' कहा है।
    देरि‍दा ने कहा कि वर्तमान सिर्फ वर्तमान है।जब तक वह अपनी भिन्न पहचान बनाए रखता है,हम जब अनुपस्थित की खोज करते हैं तो अनुपस्थित ने जो संकेत छोड़े हैं उन्हीं पर लौटते हैं।जब हम मौलिक वर्तमान की बात करते हैं तो उसका उदय भी खोजें।वह वर्तमान में ही होता है।अतीत में नहीं।दर्शन हमेशा जो 'मौजूद' है उसकी बात करता है, क्योंकि जीवंत अनुभवों की वर्तमान में ही परीक्षा संभव है।
   देरि‍दा की नजर में प्रत्येक पाठ ,दुहरा पाठ होता है।इसे रीडिंग या पठन के स्तर पर देख सकते हैं।इसमें अन्तर्विरोध भी होते हैं।पाठ की दूसरी रीडिंग खुली होती है।उसकी कोई सिंथीसिस संभव नहीं है।देरि‍दा ने 'ग्राम्मटोलॉजी' को लेखन का विज्ञान कहा।वह लेखन के परंपरागत मॉडल के परे जाता है।देरि‍दा लेखन के उदय और सैध्दान्तिकी पर रोशनी डालते हैं।लेखन और मेटाफिजिक्स के अन्तस्संबंधों पर रोशनी डालते हैं।'मेटाफिजिक्स ऑफ प्रिजेंस' की धारणा के तहत बताते हैं कि वक्ता की शारीरिक मौजूदगी उसकी वक्तृता की प्रामाणिकता है।वाचन से ही हम लेखन की ओर बढ़े हैं।इसी को देरीदा ने 'दि साइन ऑफ दि साइन' कहा है।चूंकि रीडिंग के समय लेखक मौजूद नहीं रहता जिससे कि वह पाठ को वैधता प्रदान कर सके।यही वजह है कि वाचिक भाषा को सीधे विचारों से संबंधित मान लिया गया है।इसी अर्थ में लेखन और वाक् एक-दूसरे के पूरक हैं।देरीदा का मानना था कि लेखन न केवल अर्थ को प्रदूषित करता है,वरंच वक्तृत्व का स्थान भी ले लेता है,क्योंकि वक्तव्य सदैव पूर्व-लिखित है।देरि‍दा के शब्दों में ' स्पीच ऑलवेज ऑलरेडी रिटेन'।ये बातें गोपीचंद नारंग ने अपनी पुस्तक 'संरचनावाद,उत्तर- संरचनावाद एवंप्राच्य काव्यशास्त्र' में लिखी हैं।(पृ.164)किंतु नारंग साहब यह भूल गए कि देरीदा ने ये बातें पुस्तक के संदर्भ में कही थीं।नारंग साहब की मुश्किल यह है कि वे देरीदा के विचारों से गुजरते हैं।किंतु विचारों के सन्दर्भ को छिपा जाते हैं।आलोचना का यह रूपवादी तरीका है।देरीदा ने असल में 'पुस्तक' के संदर्भ में इस समस्या को खोला है।सुधीश पचौरी ने देरीदा के इस पक्ष की व्याख्या करते हुए लिखा है कि पश्चिमी परंपरा में 'पुस्तक' के मायने 'स्थिर' और 'बंद' ज्ञान है।माना जाता है कि ज्ञान पुस्तक में 'कैद' हो जाता है।ज्ञान लेखक की कैद में होता है।उसी में लेखक रहता है।यही उसकी उपस्थिति है,-'प्रेजेंस' है जो अभीष्ट अर्थ को संभव करती है।दूसरे शब्दों में लेखक न होगा तो अर्थ न होगा,पुस्तक न होगी।देरीदा बताते हैं कि अच्छा लेखन हमेशा समग्रता में समझने योग्य होता है जो किसी किताब में पूरी तरह सुरक्षित होता है।पुस्तक का विचार समग्रता का विचार है।समग्र का व्यंजक है लेकिन यह समग्रता कहां से आई ?जरूर पूर्व-स्थित समग्रता के बिना यह समग्रता संभव नहीं है।इस तरह कथित पुस्तक की वस्तुगतता,समग्रता,और लेखन के पीछे और पहले एक विचार मौजूद रहता है। यह पहले मौजूद विचार,पूर्व-स्थित विचार ही वाक्-केन्द्रिक या शब्द-केन्द्रिक (लोगोसैंट्रिक) तत्व है जो वाचिक सत्य की प्रामाणिकता को मानकर चलता है।प्रकट पुस्तक के पीछे लेखक का बोलना छिपा होता है।उसकी समग्रता इसे किसी एक अर्थकेन्द्र की ओर ले जाने लगती है।(देरिदा का विखंडन और साहित्य,1997,पृ.28)
   देरि‍दा के लेखन में अवधारणाओं का महत्व है।अवधारणाओं का महत्व ऐसे समय स्थापित किया गया जब पश्चिम में अवधारणाओं के महत्व को खारिज किया जा रहा था।पुराने को ठुकराया जा रहा था।यह मान लिया गया था कि परवर्ती पूंजीवाद के वैचारिक प्रपंचों को समझने में पुराना ज्ञान एकदम बेकार की चीज है।आधुनिकतावाद और उत्तर आधुनिकतावाद के अनेक पुरोधा अब तक की तमाम वैचारिक केटेगरी,अवधारणाओं आदि को अप्रासंगिक घोषित कर रहे थे।ऐसे में देरीदा के लेखन ने गंभीरता के साथ नई-पुरानी सभी अवधारणाओं की विस्तार से व्याख्या पेश की।इस क्रम में बहुत कुछ नया आया।साथ ही हमारा समाज सब कुछ खारिज करने वाली समीक्षा से बच गया।हम अवधारणाओं के लोप से बच गए। अवधारणाओं में सोचने की पध्दति का बचे रहना देरीदा का परवर्ती पूंजीवाद के प्रति सबसे बड़ा हस्तक्षेप है।
       हिन्दी आलोचना के लिए देरि‍दा इस अर्थ में प्रासंगिक हैं कि हमारे यहां अवधारणा का संकट गहराता जा रहा है।पीसी जोशी ने तो 'अवधारणा का संकट' नाम से ही किताब लिख डाली।मार्क्‍सवादियों में रामविलास शर्मा ने मार्क्‍सवादी अवधारणाओं में नए के नाम पर सबसे ज्यादा समस्याएं पैदा की हैं।सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के समाजवादी शिविर के पतन के बाद इस शिविर के पक्षधर लेखकों के सामने अवधारणा का संकट सबसे विकराल रूप में आया।इसी तरह अमेरिकी भविष्यवादियों के यहां अवधारणा का संकट सबसे तीव्र रूप में अभिव्यक्ति पा रहा है।इसी तरह मासकल्चर के सिध्दान्तकारों खासकर समाज शास्त्रियों के यहां भी इस संकट को साफतौर पर देखा जा सकता है।अवधारण्ाा का संकट इस बात का द्योतक है कि पूंजीवाद गहरे संकट में है। सामाजिक विकास के क्रम में जब भी सामाजिक व्यवस्थाओं के सामने संकट या संक्रान्ति की अवस्था आई है अवधारणा का संकट सामने आया है।परवर्ती पूंजीवाद के संकट की अवस्था में हमेशा फ्रांस के विचारकों ने आगे बढ़कर इस संकट के हल तलाश करने की कोशिश की है।आधुनिक फ्रंासीसी विचारकों ने बड़े पैमाने पर सारी दुनिया के बौध्दिकों को प्रभावित किया है।खासकर उन बुध्दिजीवियों को प्रभावित किया है जो समाज में विकास के रथ को आगे ले जाना चाहते हैं।दर्शन,साहित्य,कला,संस्कृति,मासकल्चर आदि सभी क्षेत्रों में फ्रांसीसी बौध्दिकों ने नेतृत्वकारी भूमिका अदा की है।परवर्ती पूंजीवाद की कलाबाजियों से लड़ने का उनके पास बौध्दिक कौशल रहा है।इसके लिए ये लोग बार-बार परंपरा में गए हैं।पुराने दर्शन के पास गए हैं।वहां से विवाद खड़े करते हुए नए जमाने की जरूरतों के लिहाज से उन्होंने विचारों,  धारणाओं आदि को खोला है। 
           देरि‍दा ने भी संकट की अवस्था में परंपरा के दरवाजे पर दस्तक दी।किंतु साहस के साथ।परंपरा के पास जाने के लिए,नए को व्यक्त करने के लिए,धारणाओं में सोचने के लिए,सही को सही और गलत को गलत कहने के लिए साहस की जरूरत होती है।जिस बुध्दिजीवी में साहस का अभाव है।वह बुध्दिजीवी कहलाने का हकदार नहीं है।साहस के तत्व को देरीदा ने महत्व दिया है।विचारों या जीवन में साहस के तत्व का प्रयोग जोखिम उठाए बिना संभव नहीं है। 
  बतर्ज देरि‍दा साहस और जोखिम ये दो बुनियादी तत्व हैं जो बुध्दिजीवी में होने चाहिए।मार्च 1998 में दिए एक साक्षात्कार में देरि‍दा ने कहा कि साहस एक वर्चु है।खासकर बौध्दिक वर्चु है।अक्षम और गैर-जिम्मेदार बुध्दिजीवियों में ह्रास की ओर जाने का साहस होता है।देरीदा ने लिखा है कि मैं यह नहीं सोचता कि आज सारे बुध्दिजीवी पतन की ओर जाने का साहस कर रहे हैं।मैं यह भी नहीं मानता कि वे 'उत्तर -इतिहास' और संशयवाद के शिकार हो चुके हैं।असल में ,'उत्तर -इतिहास', 'संशयवाद', 'बुध्दिजीवियों की भूमिका' आदि सवालों पर मीडिया की शैली में नहीं लिखा जा सकता।मीडिया में इन सवालों के संक्षिप्ततम जबाव देने से अच्छा है चुप रहो।कुछ लोग इसे अभिजनवाद कहेंगे,तो कहें।क्योंकि ये मसले जटिल हैं।इन्हें संक्षिप्त रूप में पेश करके सुलझाना संभव नहीं है।खासकर ऐसे बुध्दिजीवी को संक्षेप में समझाना मुश्किल है जो जनता का बुध्दिजीवी हो।

विश्व स्तर पर समाजवाद के पराभव पर चिन्ता व्यक्त करते हुए देरि‍दा ने 'स्पेक्टर्स ऑफ मार्क्‍स' कृति में लिखा कि आज एक नए किस्म के इंटरनेशनल के आयोजन की जरूरत है।आज विश्व स्तर पर सबसे ज्यादा एकता की जरूरत है।इस एकता को आप समाजवादियों की इंटरनेशनल जैसी एकता के रूप में परिभाषित नहीं कर सकते।इसके बावजूद मैं इंटरनेशनल पदबंध के इस्तेमाल के पक्ष में हूँ।इस पदबंध को रखने का अर्थ है क्रांति और न्याय की स्प्रिट को बनाए रखना।जिसके तहत वंचितों,मजदूरों आदि की एकता को राष्ट्र-राज्य की सीमाओं के बाहर ले जाकर गैर सरकारी तौर पर हासिल करना।इसके कुछ मानवीय लक्ष्य होंगे। देरि‍दा ने कहा कि आज हमारे बुध्दिजीवी ग्लोबल प्लेग के शिकार हैं।वे एकदम हाशिए पर हैं।आज विश्व की दुर्दशा को कुछ आंकड़ों के जरिए अच्छी तरह समझ सकते हैं।मसलन् लाखों बच्चे जन्म लेते ही मर जाते हैं।पचास फीसदी औरतें उत्पीडन की शिकार होती हैं। साठ मिलियन गायब हो जाती हैं।सालाना 30 मिलियन औरतें कुपोषण की शिकार होती हैं। 23 मिलियन लोग एड्स के शिकार हैं।इनमें से 90 फीसदी लोग अफ्रीका में रहते हैं।वहां के बजट का पांच फीसदी हिस्सा एड्स पर खर्च हो रहा है।इसी तरह स्त्री भ्रूण-हत्या एवं बाल-श्रमिकों की भी बड़ी तादाद भारत सहित अनेक देशों में है।करोड़ों लोग अशिक्षित हैं। तकरीबन 140 मिलियन निरक्षर बच्चे हैं।मैं ये आंकड़े इसलिए बता रहा हूँ कि आज अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किस तरह की एकता की जरूरत है।यह एकता पार्टी,राष्ट्र आदि के आधार पर हासिल नहीं की जा सकती।इनमें से कोई भी इतनी बड़ी जिम्मेदारी उठा नहीं सकता।मैं समझता हँ कि आज ग्लोबल पूंजीवाद का जमकर विरोध किया जाना चाहिए। देरि‍दा ने कहा कि ग्लोबलाइजेशन की दो प्रमुख समस्याएं हैं प्रथम राज्य का लोप।दूसरा राजनीति का नपुंसकीकरण।इन दोनों समस्याओं के समाधान के लिए हमें दर्शन की ओर जाना चाहिए।आज की सभी राजनीतिक खोजों का दार्शनिक आधार है।वे दर्शन की धुरी हैं। असली राजनीतिक कार्रवाईयां हमेशा दर्शन से जुड़ी होती है।सभी राजनीतिक कार्रवाईयों, फैसलों आदि के अपने नियम होते हैं।हमें इन सबको जानकर राज्य के लोप का जमकर विरोध करना चाहिए।हमें राष्ट्र के उन रूपों का भी विरोध करना चाहिए जब वह राष्ट्रवाद के सामने समर्पण कर देता है।हमें विश्लेषित करके हर समय उसके नियम बनाने चाहिए।देरीदा ने कहा कि हमें सोवियत संघ के पतन से सबक लेना चाहिए।वहां सर्वसत्तावाद था।सर्वसत्तावाद से माक्र्सवाद की मुक्ति जरूरी है।सारा माक्र्सवाद त्यागने की जरूरत नहीं है।देरीदा ने लिखा कि वे चाहते हों या नहीं,जानते हों या नहीं,समूची पृथ्वी के तमाम पुरूष और स्त्रियाँ माक्र्सवाद के वारिस हैं।

    सामान्य तौर पर ग्लोबलाइजेशन के आने के बाद से बुध्दिजीवियों में यह धारणा पैदा हो गई कि अब यूटोपिया का अंत हो चुका है।इस पर देरीदा ने कहा कि यूटोपिया में आलोचनात्मक क्षमता होती है।आप इसे पूरी तरह त्याग नहीं सकते।यूटोपिया को लोग सहज रूप में स्वप्न,गैर-शिरकत,असंभव आदि से जोड़कर देखते हैं।इसका अर्थ है कि यूटोपिया को अस्वीकार करो।उसके लिए कार्रवाई मत करो।मैं भी बार-बार 'इम्पॉसिविल' की बात करता हूँ।इसका अर्थ 'यूटोपियन' नहीं है।बल्कि इसके विपरीत यह स्वयं को इच्छाओं की ओर मोड़ना है।कार्रवाई में जाना है।निर्णय पर लाना है।यह यथार्थ का रूप है। इसकी अपनी अवधि,अनिवार्यता आदि है।

आज सारी दुनिया में करोडों लोग शरणार्थी समस्या से जूझ रहे हैं।अनेक राजनीतिक दल और देश इस समस्या के आधार पर सामान्य जनता के जीवन में विषवमन करते रहते हैं। हमारे यहां संघ परिवार के लोग इस मामले में सबसे आगे हैं।शरणार्थी समस्या पर विचार करते हुए देरीदा ने लिखा कि इस समस्या का संबंध न्याय की धारणा से जुड़ा है। र्सशत्त आतिथ्य की धारणा को इसका आधार नहीं बनाया जा सकता।यदि कोई इसे राजनीति में लागू करना चाहेगा तो इसके प्रतिगामी असर होंगे। आतिथ्य के सिध्दान्त को बदलने के लिए हमें पूरी संस्कृति, आदतें, संस्कार,कानून आदि को बदलना होगा।

    देरि‍दा ने कहा कि शरणार्थी समस्या के प्रति उन्मादकारी,राष्ट्रवादी प्रतिक्रियाएं आती रहती हैं। ये सामान्य लक्षण हैं।आज इस संदर्भ में कार्यभार तय करना बेहद जरूरी है। पिछले दिनों में 'रिफ्यूजी' शब्द की परिभाषा बदली है।'रिफ्यूजी',ं'एग्जाइल', 'डिपोटर्ेट', 'डिस्प्लेस्ड पर्सन', और 'विदेशी' पदबंध का अर्थ बदला है। इस समस्या पर विचार विमर्श करने के लिए भिन्न किस्म के विमर्श और व्यवहारिक प्रतिक्रिया की जरूरत है। इससे नागरिकता की राजनीति और राष्ट्र के साथ लगाव का अर्थ भी बदल जाएगा।कोशिश होनी चाहिए कि 'आतिथ्य का कानून' सकारात्मक हो।यदि यह असंभव है तो इसकी प्रत्येक को तहकीकात करनी चाहिए। अपनी आत्मा और चेतना के स्तर पर इस सवाल पर सोचना चाहिए। 

देरि‍दा ने 'होस्पीटेलिटी' या आतिथ्य की धारणा के बारे में कहा कि आतिथ्य का अर्थ है बिनार् शत्त अन्य का स्वागत।अतिथि से प्रमाण मांगे बिना,नाम पूछे बिना,संदर्भ पूछे बिना स्वागत किया जाना चाहिए।अन्य के साथ यह पहला संबंध होगा।हम अपनी जगह, घर के दरवाजे , भाषा,संस्कृति,राष्ट्र,राज्य और स्वयं को खोल दें। बगैरर् शत्त के अतिथि के आगे खुलना होगा।जब मैं 'बिनार् शत्त' कहता हूँ तो यह शब्द भय पैदा करता है।जब मैं कहता हूँ कि मेरे घर,मेरी जगह,भाषा,संस्कृति,शहर,राष्ट्र आदि में बिनार् शत्त अन्य को आने दो। तो इसका अर्थ यह भी है कि जब अन्य मेरी जगह आएगा तो असुविधा पैदा कर सकता है। चीजें अस्त-व्यस्त कर सकता है।सब कुछ उलट-पुलट कर सकता है।उपेक्षा कर सकता। यहां तक कि नष्ट भी कर सकता है।इससे भी बुरा हो सकता है।पूरी अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ सकता है।मैं इसके लिए तैयार हूँ।चूँकि यह बिनार् शत्त आतिथ्य है अत: इसमें अच्छा-बुरा कुछ भी हो सकता है।यह भी संभव है कि परंपरागत दोस्ती प्रतिगामी शक्ल ले ले।इसके बावजूद हमें बिनार् शत्त आतिथ्य पर अड़े रहना होगा।देरीदा ने आतिथ्य की नई धारणा के जरिए सारी दुनिया में उभर रही शरणार्थी समस्या पर विस्तार से विचार किया है। देरीदा की सहानुभूति शरणार्थियों के साथ है।देरीदा ने कहा कि ज्यों ही आप आतिथ्य की नई परिभाषा पर विचार करने जाएंगे आपको नए किस्म की नागरिकता की परिभाषा बनानी होगी। देरि‍दा ने ग्लोबलाइजेशन का विरोध किया और इसके खिलाफ नए किस्म के विश्वव्यापी प्रतिरोध आंदोलन खड़े करने का आह्वान किया।देरीदा ने कहा कि मैं 'ग्लोबलाइजेशन' पदबंध का इस्तेमाल नहीं करता।यह अस्पष्ट धारणा है।यह कोई नई चीज नहीं है।बल्कि काफी पहले से चला आ रहा है।यह भ्रमित करने वाली धारणा है।इसमें अनेक धारणाएं,राजनीतिक चालाकियां,रणनीतियां आदि आ गई हैं।उल्लेखनीय है कि परवर्ती पूंजीवाद के मौजूदा दौर को ग्लोबलाइजेशन के नाम से पुकारे जाने के खिलाफ देरीदा अकेले विचारक नहीं हैं।बल्कि अनेक विचारक हैं। देरि‍दा के यहां अवधारणाओं का खजाना है।देरि‍दा पर बात करने के लिए उसकी धारणाओं की सही समझ का होना बेहद जरूरी है।देरि‍दा के लिए ग्राम्माटोलॉजी वस्तुत: लेखन का विज्ञान है।इसे व्याख्यायित करने के लिए वह लेखन के परंपरागत मॉडल के परे जाता है।'लोगोसेंटरिज्म' के तहत बताता है कि ज्ञान की जडें भाषा में हैं।अब हम इन्हें खो चुके हैं। देरि‍दा के मुताबिक भाषा भगवान की देन है।अथवा किसी अन्य,पराशक्ति,विचार,महान स्प्रिट,सेल्फ आदि की देन है।यही हमारी भाषा,विचारों और एक्शन का मूलाधार है।उसी ने वायनरी रूपों को बनाया है।वायनरी की जो श्रृंखला मिलती है वह हायरार्की में अवस्थित है। 'बायनरी अपोजीशन' हायरार्की के रूप में आते हैं।यह लोगोसेंटरिज्म का परिणाम है।इस धारणा पर विचार करते समय देरीदा की ज्यादा रूचि मार्जिन या हाशिए में है।किंतु 'सप्लीमेंट' की धारणा भी महत्वपूर्ण है।यह धारण्ाा उसने रूसो से ली है।हिन्दी में इसे पूरक कह सकते हैं।देरीदा के यहां यह अतिरिक्त है,स्वयं में पूर्ण है।देरि‍दा का तर्क है जो पूर्ण है उसमें जोड़ा नहीं जा सकता।वहां पूरक की जरूरत नहीं होती।जहां अभाव है वहां 'ओरिजनरी लैक' यानी अनुपस्थित चीजों के सम्पूरक का प्रयोग किया जाना चाहिए।इसके साथ ही 'ट्रेस' यानी गैर-मौजूदगी के सूचक का प्रयोग किया जाना चाहिए।

      विखंडन की रीडिंग रणनीति के कुछ सामान्य तत्व हैं।यहां जो 'अपोजिस्टस' हैं।वे एकीकृत हैं।एक-दूसरे पर निर्भर हैं।अन्तर्निहित हैं।इसीलिए उनमें एक की उपस्थिति दूसरे के बिना संभव नहीं है।विभेद और भिन्नता भाषा में निहित हैं।प्रत्येक शब्द भाषा के खेल में सक्रिय होता है।विखंडन के जरिए पाठ की अन्तर्विरोधी रीडिंग खत्म नहीं हो जाती।बल्कि पाठ में निहित अर्थ को पाठ में ही सरल बनाती है। 
  विखंडनकारी रीडिंग का तर्क है कि प्रत्येक पाठ स्वयं को विखंडित करता है।किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि पाठ का अंत हो गया है।बल्कि विचारोत्तेजक रीडिंग लेखन के रूपों का उद्धाटन करती है,वह शब्द और अर्थ के प्रति स्व-चेतन है।यह संभव है कि वह विश्रृंखलित यथार्थ पेश करे किंतु वह हमेशा भाषा में होती है।देरीदा का मानना है कि भाषा में भिन्नता होती है।भिन्नता को देरि‍दा ने सकारात्मक अर्थ में प्रयोग किया है।खासकर भिन्नता की संरचना में उसका प्रयोग किया है।देरि‍दा का मानना है कि अर्थ स्वयं सिगनीफायर में नहीं होता।बल्कि नेटवर्क में होता है।अन्य चीजों के संबंध में होता है।देरि‍दा का मानना है कि अस्तित्व के मूल में 'सार' नहीं 'भिन्नता' या डिफरेंस रहता है।देरि‍दा ने यह भी कहा कि परम अस्मिता नाम की कोई चीज नहीं होती।व्यक्ति में व्यक्ति जैसा कुछ भी नही होता।'ट्रांस हिस्टोरिकल सत्य' वस्तुत: भिन्नता का परिणाम है।भिन्नता के सिस्टम के बाहर कुछ भी नहीं है। देरि‍दा हमें 'खेल' या 'प्ले' पदबंध के साथ खेलने के लिए उत्साहित करता है।'खेल' में हार-जीत संभव है।अंत में सिर्फ खेल रह जाता है।देरि‍दा ने स्थान और समय के प्रति भिन्नता के सवाल उठाए हैं।वह टाइम और स्पेस के बीच व्यक्ति या मौजूदगी को रखकर देखता है। देरि‍दा ने आण्टोलॉजी के प्रत्युत्तर में हाण्टोलॉजी पदबंध का प्रयोग किया है।इसी अवधारणा के तहत उसने 'भूत' या 'घोस्ट' के रूपक का प्रयोग किया है।'स्पेक्टर्स ऑफ मार्क्‍स' कृति में पहलीबार देरि‍दा ने 'भूत' पदबंध का प्रयोग किया है।यह वस्तुत: परंपरागत अर्थ में तथ्यों की छानबीन की पध्दति का एक रूप है।इसके माध्यम से देरीदा बताना चाहते हैं कि तथ्यों को बार-बार संगठित किया जा सकता है।खासकर अतीत की घटनाओं को खोजने के लिए।देरीदा की नजर में डाटा  दृश्य एवं काल्पनिक होते हैं।उनसे दृष्टि/ इमेज/ संगठन का दृश्य अथवा उसके पर्यावरण का पता चलता है।डाटा ऑर्किटेक्चर है, दूसरी ओर उसे प्रतीकात्मक व्यवस्था या तर्क के कच्चे डाटा पर आरोपित करते हैं।देरि‍दा ने लिखा है कि दिन के उजाले के अभाव में हमें भूत सताते हैं।वे दीवारों के जरिए आते हैं वे ऐसे गड्डे खोदते हैं जिन्हें भरा नहीं जा सकता। 'खोरा' पदबंध के जरिए देरीदा 'अन-अन्तर्विरोधी' तर्कों का उल्लंघन करते हैं।'नेगेटिव थियोलॉजी' के जरिए देरि‍दा बताते हैं कि प्रत्येक भाषा अधूरी होती है।सत्य तो अतिसारतत्व है।या मनुष्य की परिधि के बाहर है। देरि‍दा ने 'रेजिस्टेंस' की धारणा का व्यापक प्रयोग किया है।यह धारणा मूलत: मनोशास्त्र की देन है।मनोरोगी की प्रतिरोध भावना को थेरपिस्ट कम करता है।वह मरीज के विद्रोह का प्रतीक है।इसमें 'सहयोग' एवं 'प्रतिरोध' अन्तर्निहित है।इस धारणा का ऐतिहासिक महत्व है। मनोशास्त्री के यहां प्रतिरोध का अर्थ बगावत नही है,क्रांति नहीं है बल्कि विश्लेषण है।
      देरि‍दा ने सवाल उठाया कि आदमी कब मरता है ? आदमी की जब इच्छाशक्ति मर जाती है तब मर जाता है।यह बात देरि‍दा ने गिलिस देल्युज की कृति दि लॉजिक ऑफ सेंस(1969) के हवाले से कही।देरि‍दा ने लिखा कि प्रत्येक मौत विशिष्ट और असामान्य होती है।एक मर्तबा देल्युज ने कहा था कि हमें जानना चाहिए कि किताबों की दुनिया में क्या हो रहा है।अनेक वर्ष बीत गए,हम इन दिनों प्रतिक्रिया के जगत में जी रहे हैं। प्रत्येक क्षेत्र में सिर्फ प्रतिक्रिया ही दिखाई दे रही है।यह संभव नहीं है कि पुस्तक प्रतिक्रिया से मुक्त हो।वह इससे बची रहे। आज लोग साहित्य,न्याय,अर्थनीति और राजनीति में पक्षपात कर रहे हैं।यह सारा कार्य प्रतिक्रियावादी है।षड़यंत्र की तरह पहले से बनाया हुआ है।पूरी तरह समाज को तोड़ देने वाला है। यही वह जगह है जहां हमें मुक्ति के सवालों को सुनियोजित ढ़ंग से विश्लेषित करना चाहिए।

देरि‍दा की कृति 'दि स्पेक्टेटर ऑफ मार्क्‍स' में पहलीबार 'भूत' के रूपक का प्रयोग मिलता है।यहां 'भूत' का बहुवचन में प्रयोग किया गया है।इस रूपक के बहाने देरीदा मार्क्‍सवाद की अप्रासंगिकता नहीं बल्कि प्रासंगिकता पर रोशनी डालते हैं।साथ ही मार्क्‍सवाद की कमजोरियों और सर्वसत्तावादी स्वरूप पर प्रहार करते हैं।देरि‍दा पर विचार करते समय हमें पत्रकारिता की शैली में लिखी बातों और विद्वतापूर्ण अकादमिक समालोचना में फर्क करना चाहिए। पत्रकारिता की समीक्षा दबाव में लिखी जाती है।जबकि अकादमिक समीक्षा दबाव रहित होती है।पत्रकारिता की समीक्षा विखंडन का इस्तेमाल करते हुए हत्या करती है या मौत की घोषणा करती है।जबकि विद्वतापूर्ण समीक्षा शिक्षित करती है।अध्ययन के लिए प्रेरित करती है।सामान्य तौर पर कठमुल्ले माक्र्सवदियों में देरीदा को लेकर संशय और विरोध का भाव घर किए हुए है।

      देरि‍दा के संदर्भ में 'शरीर','आत्मा',और 'भूत' ये तीन पदबंध विचार करने योग्य हैं। 'शरीर' के बगैर आत्मा के भूत बन जाने की संभावना है।देरीदा इसी पध्दति का इस्तेमाल करता है।वह बताता है कि 'शरीर' से 'आत्मा' निकल गई और 'शरीर' ,'भूत' हो गया।सवाल यह है कि क्या भूतों से बात की जा सकती है।एक नहीं,एकाधिक भूतों से बात की जा सकती है। क्या उनके प्रति सवाल उठाए बगैर बात की जा सकती है ?उल्लेखनीय है कि 'भूत' के रूपक का रैनेसां में खूब इस्तेमाल किया गया।'भूत' से हमेशा लंबा और मारक संघर्ष चलता है।यह मूलत: धार्मिक आस्था पर टिकी धारणा है।भूत उस आस्था के प्रति सवाल पैदा करता है जिसे अपील करता है।रैनेसां में आस्था प्रबल थी।किंतु उत्तर रैनेसां में कल्पना प्रमुख हो गई।'शक्ति के भूत' की बजाय अब 'कल्पना शक्ति' पर जोर दिया गया।इसी क्रम में हम मौत की सीमा लांघकर जीवन की ओर आए।'कल्पना की शक्ति' को रोमैण्टिशिज्म ने फैलाया।
     देरि‍दा को पढ़ते हुए पाते हैं कि उनके यहां हास्य चरित्रों एवं व्यंग्य शैली का व्यापक प्रयोग किया गया है।द्विअर्थी चरित्रों का खूब प्रयोग मिलता है।ऐसा करते हुए देरि‍दा कॉमिक अंत की ओर ले जाते हैं। कॉमिक विधा और कॉमिक चरित्रों का जमकर प्रयोग करते हैं।असल में दर्शन के प्रति व्यापक पैमाने पर जो अरूचि पैदा हुई है उससे मुक्ति के अस्त्र के तौर पर 'कॉमिक' और 'कॉमेडी' के रूपों का व्यापक प्रयोग करते हैं।इन दोनों में 'विच्छिन्नता'और 'मनमानापन' ये दो तत्व प्रमुख हैं।इसके अलावा कॉमेडी प्रभुत्वशाली समाज का प्रतिनिधित्व करती है।मनमाने नियमों के तहत कार्य करती है।देरीदा ने विखंडन में प्रतीक के मनमानेपन को ग्रहण किया।यह उनके विखंडन का प्रस्थान-बिन्दु है।
      देरि‍दा ने पाठ में घटना और दुर्घटना का व्यापक प्रयोग किया है।किंतु सचेत रूप से इसके लक्षणों से पलायन करते हैं।वे पाठ में 'क्षेपक' और 'टुकडों' में कहने की पध्दति का प्रयोग करते हैं।इसी के जरिए मौजूदा जगत को देखते हैं।कॉमेडी का अर्थ है कि किसी भी चीज का कोई मतलब नहीं है, अंत हो चुका है,समाप्त हो चुकी है,पूर्ण हो चुकी है। कॉमेडी में आम तौर पर मनमानापन होता है।व्यवधान उसमें बाद में आता है।देरीदा के यहां विखंडन का विमर्श इच्छा,आग्रह,नाम आदि के जरिए आता है।इच्छा और आग्रह अर्थ देते हैं। कुछ कहना चाहते हैं।उनकी उपस्थिति बताती है कि वे चुके नहीं हैं।इच्छाएं कभी पूरी नहीं होतीं।उन्हें हमेशा स्थगित रखते रहते हैं।ऐसा करते समय हमें कुछ भी नहीं मिलता।देरीदा की नजर में सभी किस्म की प्रस्तुतियां पुनर्प्रस्तुतियां हैं।इनके उद्भव की शुध्दता को लेकर सब समय बाधाएं आती रही हैं।

कॉमेडी में इच्छा और आग्रह हमेशा पुनरूत्पादक होते हैं।उत्पादक नहीं होते।कॉमेडी में सेक्स पर मुख्य जोर रहता है।क्योंकि सेक्स समानतावादी है,स्वाभाविक है। यह मनुष्य के सामान्य हितों को सामने लाता है।यह ताकत और समृध्द है।देरीदा ने अपने दार्शनिक नजरिए में फेलोगोसेण्टरिज्म की रणनीति अपनाते हुए 'मास्टरवेशन' या हस्तमैथुन की पध्दति के बहाने दर्शन में बौध्दिक स्खलन करते हैं।विखंडन की रीडिंग में हमेशा जोखिम रहता है। 'कास्ट्रेशन' होता है।यहां पाठ कॉलम में विभक्त होता है।यह दर्शन का स्खलन है।यह अंतरालों का उद्धाटन करता है।स्त्री का उद्धाटन करता है।स्त्री की रेडीकल इमेज को सामने लाता है।दर्शन इस पर निर्भर है।वह उसे नियंत्रित नहीं करता है।विखंडन ने स्त्रीत्व का नोटिस लिया है।वह स्त्री की तरह सोचता है।असल में स्त्री का स्खलन नहीं होता।बल्कि वह उर्वर होती है।जनती है।खेलती है।अंतहीन खेलती है।वह न तो सिगनीफाइड है और न सिगनीफायर है।न प्रस्तुति है और न पुनर्प्रस्तुति है।वह न दिखती है न छिपती है। मनमानापन ,असंबध्दता,मुखौटे और नकल आदि के जरिए कॉमेडी अर्थ सृष्टि करती है।उसके लिए आत्म चालू चीज है।कॉमेडी में व्यक्तिगत की बजाय टाइप चरित्रों में प्रस्तुति की जाती है। टाइप चरित्र होने के कारण उनका न तो विकास होता है और न वे बदलते हैं।बल्कि वे 'होस्टाइल' जगत में बने रहते हैं।वे वैविध्य रूपों में आते हैं।उनके अंदर भाषागत वैविध्य होता है।उनका व्यक्तित्व तरल और बहुस्तरीय होता है।द्विअर्थी होता है।भाषा का विस्तार होता है।कॉमिक चरित्रों के स्वभाव और मुखौटे में फर्क होता है।शब्द एवं अर्थ में फर्क होता है।इनमें जितनी बड़ी मानवता दिखानी होती है उतने ही बड़े मुखौटों की जरूरत होती है।यहां प्रत्येक चीज को सतह पर और अनिवार्य प्रस्तुति के रूप में पेश करना होता है।कॉमेडी में मुखौटे ही विखंडन का सत्य हैं।किंतु सत्य को कभी सत्य के जरिए उद्धाटित नहीं कर सकते।सत्य जब गैर-सत्य में आता है तब ही प्रसार पाता है।सुशोभित होता है।कला रूप बनता है।यहां आत्म की खोज की जाती है।आत्म का उद्धाटन किया जाता है।अपनी मौजूदगी का अहसास कराया जाता है।अपनी पहचान को सही शब्द और नाम से पेश किया जाता है।आत्म हमेशा कहानी का अतिक्रमण करता है।स्वयं को व्यक्त करता है। इसे आप तब तक नहीं मानते जब तक वह पुनरावृत्ति न करे।पुनरावृत्ति में ही वह जोड़ता है। आत्म के लिए पूरक की जरूरत नहीं होती।लेखन में जनतंत्र तब आया जब इतिहास का अंत हो गया।व्यक्तिगत का भाषा के गतिशील दर्पण में लोप हो गया।मानवता के बंधनों को तोड़ा।भाषा की परंपरा बनायी।

    कॉमेडी में यू-टोपिया का बड़ा महत्व होता है।अन्य लोग इसे तर्क या विमर्श कहते हैं। कॉमेडी स्वभावत: त्रासदी विरोधी है।यह यूटोपिया से प्रेरित है।निष्कर्ष पर पहुँचती है। परिप्रेक्ष्य हासिल करती है।कॉमेडी का कोई निश्चित स्थान नहीं होता।दैनंदिन जीवन की सीमाओं का बंधन नहीं होता।समय के साथ जुड़े परंपरागत और प्रभुत्वशाली रूपों से अपने को पृथक् कर लेती है।उनके परे ले जाती है।यहां तक कि उसमें विवेकवाद एवं नैतिकता का परंपरागत संदर्भ भी नहीं होता।बल्कि वह इन्हें चुनौती देती है।कॉमेडी की तरह ही देरीदा का विखंडन स्थानरहित है।यहां से वे दर्शन से संवाद करते हैं।विखंडन की कोई निश्चित जगह नहीं है।विखंडन न तो भीतर होता है और न बाहर होता है।बल्कि घटित होता है।यह घटना नहीं है बल्कि इसे घटना है।दूसरी ओर इसमें निरंतर नए संदर्भ शामिल होते रहते हैं।इसीलिए यह अनिश्चयात्मक है।अनिश्चयात्मकता का अर्थ है गैर- अवधारणात्मक।यह व्यवस्था में अन्तर्निहित होता है।प्रतिरोध करता है।असंगठित करता है।अनिश्चयात्मक होने के कारण ही इसे भाषा में 'यू-टोपियाज' कहते हैं।पाठ में यह छिद्र की तरह है।पाठ में पंक्चर की तरह है।यह पंक्चर ही पाठ को 'टेक्चर' देता है।उसका स्थानरहित होना उसका संसाधन है।अर्थ का संक्षित भंडार है।अर्थ की खोज और अर्थ के सृजन का आधार है।देरीदा के यहां पाठ का जो यूटोपियन अर्थ मिलता है उसमें सिगनीफिगेटिव कॉमेडी के तत्व मिलते हैं।वह बातचीत में आनंद लेता है।उत्सव मनाता है।न स्वाद पर प्रहार करता है।नैतिक एवं राजनैतिक बिन्दुओं को उभारता है।परमाणु अस्त्रों के प्रसार पर प्रहार करता है।वंचितों को उभारता है।हाशिए के लोगों के प्रति आग्रहशील है। हाशिए के लोगों पर ही लिखना पसंद करता है।देरीदा के यहॉ मार्जिन महत्वपूर्ण है।यह वैसे ही है जैसे कोई पेण्टर अपनी पेण्टिंग के चारों ओर हाशिए छोड़ता है।हाशिए की खूबी यह होती है कि वे न तो व्यवस्था के अंदर होते हैं और न बाहर होते हैं।वे यह भी बताते हैं कि व्यवस्था या सिस्टम बंद नहीं है।व्यवस्था में आत्मनियंत्रण नहीं होता।वे जैसे थे वैसे ही हैं। मार्जिन या हाशिया एक तरह से 'लूज एण्डस' है।वे ही विखंडन का विमर्श तैयार करते हैं।वे उस संरचना को ध्वस्त करते हैं जिसका वे हिस्सा हैं।इसीलिए तर्क की व्यवस्था का उद्धाटन करने के क्रम में तर्क को उलटा कर देते हैं।यह सबवर्जन ही कॉमेडी है।यही देरीदा की विशेषता है।कॉमेडी की तरह देरीदा के यहां भी इमीटेशन का प्रयोग होता है। देरि‍दा पाठ के दर्शन को इमीटेशन के जरिए खत्म करते हैं।वह विडम्बना में जीते हैं। विडम्बना को हमेशा बनाए रखते हैं।विडम्बना के बने रहने का अर्थ है स्वतंत्रता और भविष्य का बने रहना।देरीदा सत्य के मूल्य को चुनौती नहीं देते।और न नष्ट ही करते हैं।बल्कि उसे व्यापक संदर्भ में विश्लेषित करते हैं।वे अतीत के दार्शनिकों-विचारकों की उपेक्षा नहीं करते।खारिज नहीं करते।बल्कि बार-बार पढ़ते हैं।वस्तुओं पर वे विखंडनकारी हमला करते हैं।यह नष्ट करने वाला हमला नहीं है।बल्कि निर्माण करने वाला हमला है।वे अतीत के दार्शनिकों को जन्म देते हैं।उभारते हैं।उन्हें राहत देते हैं।विरेचित करते हैं।यह एक तरह की वैधतामूलक कॉमिक राहत है।विडम्बना है।यह विडम्बनापरक खेल है।अपने और अन्य के साथ संवाद है।यह पूर्ण सामाजिक के साथ निर्मितिमूलक सामाजिकता है।यह पलटती है।भिन्नता को सामने लाती है।देरि‍दा कॉमेडी की तरह भविष्य को प्राथमिकता देते हैं। भविष्य को सुसंगत रूप में पेश करते हैं।सुसंगत को बताने के लिए जरूरी है कि हमेशा असंगत को बताया जाए।यही देरीदा के नजरिए का वैशिष्टय है।

भारतीय समाज में जनतंत्र के मौजूदा स्वरूप और उसकी कारगुजारियों से प्रत्येक व्यक्ति जनतंत्र के प्रति संदेह व्यक्त करने लगा है।जनतंत्र के मौजूदा प्रदूषित रूप से बचने का सटीक रास्ता देरीदा ने सुझाया है।जनतंत्र की प्रचलित धारणाओं और सैध्दान्तिकी को खारिज करते हुए देरीदा ने जिस जनतंत्र की वकालत की है उससे सभी लोग सीख सकते हैं। देरि‍दा के लिए जनतंत्र भविष्य का सपना नहीं है।यह कोई यूटोपिया भी नहीं है।इसे राष्ट्र-राज्य,व्यवस्था के मौजूदा तंत्र के दायरे में रखकर नहीं समझा जा सकता।देरीदा के लिए जनतंत्र का अर्थ अभी और इसी समय है।इसे वे तत्काल लाना चाहते हैं।यदि कोई व्यक्ति जनतंत्र लाना चाहे तो ला सकता है।इस संदर्भ में वे कांट से एक हद तक सहमत होते हुए कांट से आगे निकल जाते हैं।कांट के यहां जनतंत्र का अर्थ है कॉस्मोपोलिटिकल। इसकी कुछर् शत्ते हैं।देरि‍दा जनतंत्र को इसके दायरे से भी परे ले जाते हैं। देरि‍दा के अनुसार लोकतंत्र का अर्थ है न्यूनतम समानता।आप जनतत्र को तत्काल अर्जित कर सकते हैं र्बशत्ते आप समानता,न्याय,अन्य के प्रति सम्मान,अन्य के कार्य को सम्मान दें,इन सब बातों का अनुभव करें।देरीदा ने कहा जनतंत्र भविष्य की चीज नहीं है।इसे तत्काल आना चाहिए।नए जनतंत्र की धारणा नागरिकता और राज्य की धारणा से भिन्न है।आप जनतंत्र को जब तक वास्तव अर्थों में महसूस नहीं करते,उसके अनुभवों से नहीं गुजरते जनतंत्र की नई धारणा निर्मित नहीं होगी।इसमें गैर-सरकारी हस्तक्षेप की जरूरत है। राजनीतिक पहलकदमी की जरूरत है।नए किस्म की नागरिकता की परिभाषा बनाने की जरूरत है। देरि‍दा के विचारों का विश्लेषण करते समय उनकी चर्चित कृति 'मित्रता की राजनीति' को नहीं भूलना चाहिए।यह कृति उनके राजनीतिक विचारों के मर्म को सामने लाती है।इसी कृति में देरि‍दा ने रेखाकित किया है कि राजनीति का मित्रता और अतिथि की धारणा से गहरा संबंध है।देरीदा राजनीति की वकालत करते हैं।किंतु परंपरागत अर्थ से अलग हटकर राजनीति के नए क्षितिज खोलते हैं।देरीदा ने कहा कि मैं राजनीति को राष्ट्र-राज्य, राजनीतिक शासन आदि के संदर्भ में नहीं देख रहा हूँ,बल्कि मेरे लिए राजनीति व्यक्तिगत प्रतिबध्दता है।यह 'स्पेक्टेटर ऑफ मार्क्‍स' में है।प्रतिबध्दता को व्यवहार में व्यक्त होना चहिए।माक्र्स के पाठ,सिध्दान्तों आदि का अध्ययन करने के लिए कुछ व्यक्तिगत प्रतिबध्दताएं जरूरी हैं।इसी को मैं राजनीति कहता हूँ।देरीदा की राजनीतिक प्रतिबध्दता की धारणा राजनीतिक दल के कार्यक्रम या विचारधारा की प्रतिबध्दता से एकदम भिन्न है।परंपरागत जनतांत्रिक राजनीति से अलग है।हमारे देश में राजनीतिक दलों के कार्यक्रम और विचारधारा से प्रतिबध्दता को ही राजनीतिक प्रतिबध्दता मान लिया गया है।ऐसे अधिकांश प्रतिबध्द लोग जीवन में पग-पग पर अ-जनतांत्रिक कार्य-व्यवहार में लिप्त पाए जाते हैं। इसके कारण सामान्य लोगों में जनतंत्र की बजाय सर्वसत्तावादी राजनीति की ओर रूझान पैदा होते हैं।ऐसे लोगों में व्यक्तिगत तौर पर किसी भी किस्म की राजनीतिक प्रतिबध्दता नहीं मिलती।

        देरि‍दा ने मित्रता को राजनीति के साथ रखकर विश्लेषित किया है।राजनीतिक दर्शन में मित्रता हाशिए की धारणा है।देरि‍दा ने लिखा है कि प्रत्येक राजनीतिक विचारक, दार्शनिक आदि ने मित्रता के ऊपर विचार किया है।मित्रता के आधार पर न्याय और जनतंत्र को परिभाषित किया है।मित्रता कई तरह की होती है।खासकर अरस्तू के यहां तीन तरह की मित्रता के बारे में विवेचन मिलता है।अरस्तू की नजर में मित्रता वर्चु है।पहली कोटि में वह मित्रता आती है जो वर्चु है।जो दो व्यक्तियों में है।इसका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है। दूसरी कोटि उस मित्रता की है जिसका आधार उपयोगिता है।यह राजनीतिक मित्रता है।तीसरी मित्रता आनंद के आधार पर होती है।इस कोटि की तरफ युवाओं का व्यापक रूझान पाया जाता है।अरस्तू कहते हैं कि दैनन्दिन जीवन में आए दिन सुनते रहते हैं कि राजनीतिक लोगों में हमें अपने मित्र बनाने चाहिए।किंतु यह भी संभव है कि कोई व्यक्ति राजनीतिक तौर पर दोस्त हो किंतु व्यक्तिगत तौर पर शत्रु हो।व्यक्तिगत तौर पर मित्र हो किंतु राजनीतिक तौर पर शत्रु हो।यह भी संभव है कि कभी न्याय के लिए मित्रता को धोखा देना पड़े।मित्रता का अतिक्रमण करना पड़े।
    देरि‍दा ने अरस्तू से लेकर आज तक के सभी प्रमुख दार्शनिकों के मित्रता संबंधी चिन्तन पर गौर करते हुए मित्रता को नए रूप में परिभाषित किया है।सदियों से यह सवाल विवाद के केन्द्र में रहा है कि मित्र कौन ?देरीदा मित्रता को भगवान और स्त्री के दायरे के बाहर ले जाते हैं।अरस्तू के यहां मित्रता के पांच तत्व पाए जाते हैं।ये मित्रता की पांच बुनियाद भी हैं।1.मित्र की रक्षा के लिए शुभकामना करना,स्वयं से प्यार करना।2.मित्र जिन्दा रहे,सकुशल रहे इसकी कामना करना।3.अन्य के साथ  रहना,4मित्र की समान अभिरूचियां हों।5.आपस में सुख,दु:ख बांट सकें।अरस्तू के यहाँ पहली मित्र माँ है।उसके साथ आप सुख,दु:ख बांट सकते हैं।माँ अपने बच्चे से सचमुच में प्यार करती है।प्यार का ढोंग नहीं करती।इसका अर्थ यह है कि मित्रता समान लोगों में नहीं हो सकती।बच्चे और माँ में किसी भी तरह समानता नहीं है।मित्रता की भावना को कार्रवाई या एक्ट में संकुचित नहीं कर सकते।गौर करें तो पाएंगे कि माँ को हम मित्रता के दायरे से बाहर रखते हैं।भारतीय परंपरा में पिता को मित्र का दर्जा मिला है किंतु माँ को मित्र का दर्जा नहीं मिला है।
     देरि‍दा ने लिखा है कि माँ को हम मित्रता के दायरे के बाहर इसलिए रखते हैं क्योंकि वह बदले में प्यार पाने की आकांक्षा के बिना प्यार करती है। सच है कि वह मित्र है क्योंकि वह अन्य को प्यार करती है।वह उसे प्यार करती है जो उसका अभी तक मित्र नहीं बना है।सामान्य तौर पर यह तथ्य हमारी ऑंखों से ओझल रहता है।अरस्तू ने मित्रता के जिन पांच तत्वों की चर्चा की है उसमें 'सेल्फ लव' या निज प्रेम को सबसे ऊँचा दर्जा दिया है।किंतु यह सामने तब ही आता है जब माँ सामने आती है।अरस्तू की नजर में माँ सबसे अच्छी मित्र होती है।
    अरस्तू सिर्फ मित्र के गुण ही नहीं बताते बल्कि बताते हैं कि मित्रता का अर्थ क्या है ?मित्र वह है जो अपने मित्र की भलाई की कामना करे।उसकी दीर्घायु और सुखी जीवन की कामना करे।मॉ ऐसी ही कामना अपने बच्चे के लिए करती है।संकट की स्थिति में जो मदद करता है वह मित्र है।देरीदा को माँ का मित्र रूप पसंद है।वह कहता है माँ जब प्यार करती है तो पूर्णत: प्यार करती है।वह प्यार पाए बिना प्यार करती है।वह स्वयं मित्र बन जाती है।यह उसका दुर्लभ गुण है।ऐसा करते हुए वह स्वयं से ही प्यार करने लगती है।देरीदा इसी तत्व को उभारते हैं।वे 'स्वयं से प्यार' की धारणा को मित्रता की बुनियाद बनाते हैं।'स्वयं से प्यार' वस्तुत: निज की उपस्थिति का एहसास पैदा करता है। देरीदा ने लिखा है कि व्यक्ति यदि स्वयं से प्यार करता है तो अन्य से भी प्यार करेगा।'स्वयं से प्यार' मित्रता का महान गुण है। 
     स्व से प्यार करने वाला व्यक्ति अहंकार से मुक्त होगा।व्यक्ति का एक मित्र नहीं होता।बल्कि अनेक दोस्त होते हैं।जिसके अनेक दोस्त होते हैं उसका कोई दोस्त नहीं होता। इसी अर्थ में देरि‍दा ने कहा कि व्यक्ति का एक दोस्त नहीं होता।दोस्ती का एक रूप भाईचारे का भी है।सिसरो,माण्टेगनी,कार्ल स्मिट आदि के विचारों के विश्लेषण के क्रम में देरि‍दा ने भाईचारे और मित्रता के अन्तस्संबंधों पर विस्तार से विचार किया है।इन विचारकों ने मित्रता को रक्तसंबंधों के दायरे से बाहर निकालकर सार्वभौम मित्रता के मानवतावादी दायरे में लाकर खड़ा किया।मित्रता और जनतंत्र का दायरा बड़ा किया।कार्ल स्मिट के विश्लेषण के क्रम में देरि‍दा ने मित्रता के अगले विकास के रूप में भाईचारे को देखा।देरीदा ने लिखा कि बेहतर मित्रता वह है जो स्वाभाविक है।प्रतीकात्मक मित्रता बेहतर मित्रता की कोटि में नहीं आती।ऐसी मित्रता के शत्रुता में बदल जाने का खतरा बना रहता है।इसीलिए देरि‍दा ने मित्रता को मित्र-शत्रु की कोटि से बाहर रखकर देखने की हिमायत की।यदि ऐसा नहीं करते तो मित्र कब शत्रु हो जाएगा और शत्रु कब मित्र बन जाएगा हम सोच नहीं सकते।देरीदा ने इसीलिए लिखा कि मित्रता में दोस्ती और दुश्मनी दोनों की समान संभावनाएं होती हैं।यह भी संभव है कि भाईचारे के बिना मित्रता हो।युध्द और शत्रु के दायरे के परे प्रेम और मित्रता हो।मजेदार बात यह है कि देरि‍दा के मित्रता विमर्श में बहिनें और औरतें शामिल नहीं हैं।इसका अर्थ यह नहीं है कि मित्रता और राजनीति के दायरे में औरतों का प्रवेश निषिध्द है।

देरीदा ने अरस्तू के प्रसिध्द वाक्य -हे मेरे मित्र,मेरा कोई मित्र नहीं है- को व्याख्यायित करते हुए कहा है कि जिसके बहुत मित्र होते हैं उसका कोई मित्र नही होता।देरीदा ने जनतंत्र के परिप्रेक्ष्य में मित्रता की व्याख्या की है।देरीदा ने लिखा कि जनतंत्र में सब समान हैं। सिर्फ भाई -भाई ही समान नहीं हैं,सब समान हैं।मित्रता का राजनीति से संबंध है।यह प्रचलित अर्थ में राजनीति नहीं है।बल्कि 'ध्यानाकर्षण की राजनीति है।इसका वह दोहरे अर्थ में इस्तेमाल करता है।एक तरफ इसमें सुनना,चेतना और स्वयं पर ध्यान केन्द्रित करना शामिल है।दूसरी ओर इसमें इंतजार,अनुमान और अनुभव से अधिक खुलापन शामिल है। इसका पूरा स्वरूप अन्य के सामने खुलता है।उस समय खुलता है जब आप अन्य को अन्य की तरह स्वीकृति दें।अन्य के रूप में इंतजार करें।जिम्मेदारी और एकीकरण का रूप तब उभरता है जब पुनरावृत्ति होती है,जब आप मतभेद व्यक्त करते हैं।मित्रता हमेशा एकाधिक लोगों से होती है।मित्रता तब होती है जब आप अन्य को अन्य की तरह देखें,अन्य को समान नजरिए से देखें। इसी क्रम में बाद में देरीदा ने 'रेडीकल डेमोक्रेसी' की धारणा व्यक्त की।इसका अर्थ है जनतंत्र को सभी किस्म की सीमाओं से परे ले जाओ,उदार राज्य,राष्ट्र, भाईचारा,राजनीतिक दलों के दायरे से परे ले जाओ।

देरि‍दा और मार्क्‍सवाद

      मार्क्‍सवाद सामाजिक परिवर्तन का विज्ञान है।दुनिया को बदलने का विश्व दृष्टिकोण है। जो भी विचार और धारणाएं बुनियादी सामाजिक परिवर्तन के संघर्ष में मदद कर सकती हैं उनको आत्मसात् करना प्रत्येक मार्क्‍सवादी चिंतक का कार्य है।स्वयं मार्क्‍स-एंगेल्स ने अपने समकालीन और पूर्ववर्ती गैर -मार्क्‍सवादी विचारकों, सिध्दान्तकारों, अर्थशास्त्रियों से ऐसा काफी कुछ ग्रहण किया है जो दार्शनिक धरातल पर मार्क्‍सवाद के करीब नहीं आते थे। उनके यहां गैर-मार्क्‍सवादी परिभाषिक शब्दावली का प्रयोग होता था। किंतु परवर्ती मार्क्‍सवादी आलोचकों ,सिध्दान्तकारों ने इस रवैयये का तकरीबन त्याग ही कर दिया।
   मार्क्‍सवाद को सांस्थानिक रूप देने के चक्कर में मार्क्‍सवाद की बुनियादी धारणाएं, तयशुदा पारिभाषिक शब्दावली में कुछ इस कदर पेश की गईं कि गोया मार्क्‍सवाद में नया या मौलिक कुछ भी जोड़ने की जरूरत ही नहीं है। मार्क्‍स -एंगेल्स ने जिन धारणाओं को बना दिया वे सब अपरिवर्तनीय हैं। मार्क्‍सवादी आलोचकों के एक तबके ने मार्क्‍सवाद का टीकाशास्त्र तैयार किया।चूंकि मूलशास्त्र मार्क्‍स-एंगेल्स बना गए थे अत: उसे बदलने की जरूरत या उसमें नए के समावेश की संभावनाएं तकरीबन खत्म कर दी गईं।जिसने भी मार्क्‍सवादी शब्दावली से भिन्न शब्दावली में अपने को व्यक्त किया उसे झटककर मार्क्‍सवाद के दायरे के बाहर कर दिया गया।इस तरह के रवैयये का मार्क्‍सवाद से कम कठमुल्ले मार्क्‍सवाद से ज्यादा संबंध है।अथवा इस तरह का मार्क्‍सवादी रवैयया तब ही पैदा होता है जब आप मार्क्‍सवाद को राजसत्ता के साथ नत्थी कर दें।मार्क्‍सवाद को पावर के गेम में  शामिल कर दें।
      मार्क्‍सवाद जड़ सैध्दान्तिकी नहीं है।यह वर्चस्व का नजरिया नही है।इसकी भाषा, अवधारणाएं, परिवर्तन के औजार सब कुछ देशज परिवर्तनकामी राजनीतिक परंपरा की अवस्था पर निर्भर हैं।मार्क्‍सवाद में सामाजिक परिवर्तन के प्रति जिस तरह का आग्रह है उसके कारण वह अन्य से सीखने,आत्मसात् करने,अपने को समृध्द करने में गहरी दिलचस्पी लेता है।वह समाज के प्रति जितना आलोचनात्मक है उतना ही स्वयं के प्रति भी आलोचनात्मक रूख व्यक्त करता है। आलोचना और आत्मालोचना इसके दो बड़े अस्त्र हैं। मार्क्‍सवादी आलोचना की खूबी यह है कि यह जितना सिखाती है उससे ज्यादा सीखती भी है।

सवाल यह है कि देरि‍दा के साथ मार्क्‍सवाद की क्या कोई पटरी बैठ सकती है ? इस संदर्भ में पहली बात यह है कि देरि‍दा के पास बुनियादी सामाजिक परिवर्तन का कोई खाका या सैध्दान्तिक दृष्टिकोण नहीं है।सामाजिक परिवर्तन के स्पष्ट कार्यक्रम के आधार के अभाव में देरि‍दा अंतत: पूंजीपतिवर्ग के सफल पैरोकार बनकर रह जाते हैं।

   सामाजिक परिवर्तन के कुछ बुनियादी नियम हैं जिन्हें देरि‍दा स्वीकार नहीं करते।कुछ बुनियादी कोटियां हैं जिन्हें देरि‍दा स्वीकार नहीं करते।देरि‍दा के पास इसके अलावा बहुत कुछ ऐसा है जिससे सीखा जा सकता है।किंतु यदि कोई यह कहे कि देरि‍दा के पास सामाजिक परिवर्तन का सैध्दान्तिक नजरिया है तो यह सिर्फ भ्रम है।देरि‍दा पूंजीवादी व्यवस्था को खत्म नहीं करना चाहते थे।इस सीमा के बावजूद देरि‍दा इस युग के बड़े दार्शनिक विचारक थे।'व्याख्या' और 'विश्लेषण' की पध्दति के महान पंडित थे।
    देरि‍दा और मार्क्‍सवाद में बुनियादी फर्क यह है कि देरि‍दा 'व्याख्या के लिए व्याख्या' की पध्दति का सहारा लेते हैं जबकि मार्क्‍स-एंगेल्स ने बुनियादी सामाजिक परिवर्तन के लिए विश्लेषण का सहारा लिया।सवाल व्याख्या का नहीं है सवाल है दुनिया को बदलने का।देरि‍दा जिस पूंजीवादी दुनिया की आलोचना करते हैं उसको बुनियादी तौर पर बदलना नहीं चाहते।वे पूंजीवादी दुनिया के काले धब्बों को सिर्फ साफ करना चाहते हैं।वे इस क्रम में परिवर्तकारी के रूप में नहीं सिर्फ धोबी के रूप में सामने आता है।धोबी की मूल चिन्ता यह है कि गंदे कपड़े को धोकर जहां तक संभव हो साफ-सुथरा कर दिया जाए।
   सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के समाजवादी देशों में समाजवाद के पराभव के बाद एकसिरे से सारी दुनिया में मार्क्‍सवाद और समाजवाद की मौत पर जश्न मनाए जा रहे थे। इन विजयोल्लास के क्षणों में मार्क्‍सवाद को जोर-शोर के साथ चीख-चीखकर अप्रासंगिक घोषित करने की मुहिम भी तेज हो गई। समाजवाद के पक्षधरों में निराशा छा गई।ऐसे में 1994 में उनका एक व्याख्यान 'मार्क्‍स के प्रेत' शीर्षक से सामने आया। इसे 'पहल' पत्रिका (अक्टूबर,नवम्बर,दिसम्बर 1994)ने प्रकाशित किया। साथ ही प्रसिध्द मार्क्‍सवादी आलोचक एजाज अहमद का लेख ' मेल बनाते देरिदा :'मार्क्‍स के प्रेत' और विखण्डनवादी राजनीति भी प्रकाशित किया । मजेदार बात यह है कि देरि‍दा और एजाज अहमद अपने-अपने कारणों से समाजवाद के पराभव का विश्लेषण पेश नहीं करते। 
   देरि‍दा एक आस्थावान संत की भाषा में मार्क्‍सवाद के प्रति अपनी आस्था अस्पष्ट शब्दों में व्यक्त करते हैं।मार्क्‍सवाद की विरासत से जुड़ने की बात कहते हैं। किंतु समाजवाद के पराभव की ठोस मीमांसा पेश नहीं करते। वहीं दूसरी ओर देरि‍दा के मार्क्‍सवाद के प्रति सम्पूर्ण रवैयये को एजाज अहमद सवालों के दायरे में खड़ा करते हैं। देरि‍दा की तीखी आलोचना करते हैं। किंतु समाजवादी व्यवस्था के पराभव के कारणों को पेश नहीं करते। मार्क्‍सवाद प्रासंगिक है या अप्रासंगिक है ?उसका भविष्य में स्वरूप क्या होगा ?इन दोनों सवालों के बारे में सही रूख इस बात पर निर्भर करता है कि समाजवादी समाजों के पराभव के कारणों को मार्क्‍सवादी कितनी सच्चाई के साथ रेखांकित करते हैं।पराभव के अनुभवों से क्या सीखते हैं ?मार्क्‍सवाद संबंधी समूचे प्रपंच में यह तथ्य ध्यान रखना चाहिए कि मार्क्‍सवादी विचारकों के पास जितनी बेहतर विश्लेषण बुध्दि है। तार्किक ढ़ंग से समझाने का जो कौशल है वह अन्यत्र दुर्लभ है।मौजूदा दौर में मार्क्‍सवाद के नजरिए से समाजवादी व्यवस्था के भावी स्वरूप की क्या कोई परिकल्पना मार्क्‍सवादी विचारकों के पास है ?क्या समाजवाद के पराभव के बाद मार्क्‍सवाद का वहीं स्वरूप रह गया है जो पराभव के पहले था ?क्या समाजवादी व्यवस्था की परिकल्पना वही रह गई है जो पराभव के पहले थी ?इन सवालों के बारे में देरि‍दा और एजाज अहमद अपने-अपने कारणों से चुप हैं।शायद इतना गंभीर संकट विचारकों के सामने पहले कभी नहीं आया था।समाजवादी व्यवस्था में शोषण के पुराने रूपों के खात्मे,शोषक वर्गों के समूल खात्मे के बाद समाजवादी समाजों में शोषक वर्गों का उदय एक गंभीर परिघटना है।यह ऐसी परिघटना है जो अबतक के समाजवाद के समूचे चिन्तन में कहीं पर भी नहीं मिलती।
       देरि‍दा ने 'मार्क्‍स के प्रेत' शीर्षक व्याख्यान में जो बाद में स्पेक्टेटर ऑफ मार्क्‍स' शीर्षक से पुस्तकाकार रूप में छप चुका है।देरि‍दा इस व्याख्यान में अनेक चीजों के बीच मेल बिठाने की कोशिश करते हैं।उन्हें भौतिकवाद और मार्क्‍सवाद भी चाहिए और उत्तर आधुनिक प्रपंचों के प्रति स्वीकृति भी चाहिए।देरि‍दा ऐसा करते हुए अन्तर्विरोधी तत्वों को एक ही छतरी के पीचे इकट्ठा करना चाहते हैं।वे मूलत: सर्वसंग्रहवादी की तरह रवैयया व्यक्त करते हैं।मजेदार बात यह है कि वे मार्क्‍सवाद को स्वीकृति दिलाना चाहते हैं साथ ही उत्तर आधुनिक सांस्कृतिक दबावों यानी 'भिन्नता' और 'विविधता' के सांस्कृतिक विमर्श को भी स्वीकृति दिलाना चाहते हैं।वे चाहते हैं कि लोग मार्क्‍सवाद को मानें साथ ही विमर्श,नरेटिव, लैंग्वेजगेम, राईटिंग,प्रजेंट,प्रामाणिक अस्मितस,स्व पहचान आदि को भी वैधता प्रदान करें।इस तरह 'स्पेक्टेटर ऑफ मार्क्‍स' में देरि‍दा ने अन्तर्विरोधी तत्वों में मेल बिठाने की असफल कोशिश की है।इस क्रम में देरि‍दा एक तरह का रहस्यवादी वातावरण तैयार करते हैं।'प्रेत की भाषा' में अतीत केबारे में रोमैंटिक बोध पैदा करते हैं।मार्क्‍सवाद और रोमैंटिक उत्तर आधुनिकतावाद के बीच संवाद पैदा करते हैं।यहां रोमैंटिक उत्तर आधुनिकतावाद से मतलब है 'लोकल नेरेटिव' के आधार पर 'मेटा नेरेटिव' को खारिज करना।जैसाकि ल्योतार ने किया है। देरि‍दा इस कृति में प्रेत के बहाने वैचारिक एकात्मकता को उभारते हैं।उसे रोमैंटिक उत्तर आधुनिकतावाद के सरोकारों से पुष्ट करना चाहते हैं।इसके माध्यम से वह संस्कृति को बनाए रखना चाहते हैं,अतीत की सांस्कृतिक एकात्मकता को बनाए रखना चाहते हैं,यथार्थ के ऊपर न्याय की तलाश करते हैं,अन्य के लिए न्याय की तलाश करते हैं।देरि‍दा का मानता है कि तब तक न्याय संभव नहीं है जब तक 'जिम्मेदारी' के सिध्दान्त की रक्षा न की जा सके।एजाज अहमद ने सही सवाल किया है कि मार्क्‍सवाद के प्रति देरि‍दा का आग्रह सोवियत और समाजवादी समाजों के विघटन के बाद क्यों पैदा हुआ ?देरि‍दा को मार्क्‍सवाद की प्रासंगिकता का अहसास इतनी देर बाद क्यों हुआ ?इसका उत्तर देरि‍दा ने कभी नहीं दिया।
  देरि‍दा ने 'मार्क्‍स के प्रेत' में लिखा है मार्क्‍स को बार-बार न पढ़ना, चर्चा न करना हमेशा एक दोष ही कहलाएगा। यह कहने का अर्थ है कुछ अन्यों को भी पढ़ना और विद्वतापूर्ण 'पठन' तथा 'चर्चा' से परे जाना।यह उत्तरोत्तर एक दोष होगा, सैध्दान्तिक, दार्शनिक,राजनीतिक दायित्व वहन की एक असफलता।जब जडसूत्री मशीन और 'मार्क्‍सवादी' विचारधारात्मक तंत्र( राज्य,दल,प्रकोष्ठ,यूनियन तथा जड़सूत्रों के उत्पादन की अन्य स्थलियॉँ)ओझल होने की प्रक्रिया में हैं,तब हमारे पास इस दायित्व से मुँह चुराने के केवल बहाने हैं,औचित्य कोई नहीं !इसके बिना कोई भविष्य नहीं होगा:मार्क्‍स के बगैर नहीं,मार्क्‍स के बिना कोई भविष्य नहीं,मार्क्‍स की विरासत और स्मृति के बगैर:हर हाल में किसी एक मार्क्‍स ,उसकी प्रतिभा,और कम से कम उसकी एक आत्मा (की स्मृति और विरासत के बगैर)क्योंकि यह हमारा 'हाईपोथीसिस' होगा,बल्कि हमारा पूर्वाग्रह : वे एक से अधिक हैं,वे एक से अधिक होंगे।(पहल,50-51,पृ.49)
    देरीदा से सवाल किया जाना चाहिए कि क्या उन्होंने मार्क्‍स को बार-बार स्मरण किया ?क्या मार्क्‍सवाद सिर्फ रीडिंग है ?क्या मार्क्‍सवाद सिर्फ दायित्वबोध है ?क्या मार्क्‍सवाद सिर्फ स्मृति है ?विरासत है ?जिस तरह के भाषा खेल के जरिए देरि‍दा मार्क्‍सवाद को पढ़ना चाहते हैं उससे मार्क्‍सवाद का भला कम देरि‍दा का भला ज्यादा होता है। 
   यह सारी दुनिया जानती है कि देरीदा को वे सारी चीजें पसंद नहीं हैं जो मार्क्‍स-एंगेल्स को पसंद थीं।मसलन् देरि‍दा दलीय राजनीति के पक्ष में नहीं हैं। कम्युनिस्ट पार्टी की धारणा के पक्ष में नहीं हैं। यह कैसे संभव है कि कम्युनिस्ट पार्टी न हो और मार्क्‍सवाद को बचा लिया जाए या उसकी विरासत की रक्षा कर ली जाए। विरासत की रक्षा का सवाल सिर्फ रीडिंग और राईटिंग या रेटोरिक का प्रश्न नहीं है। मार्क्‍सवाद की विरासत बचाने का अर्थ यह नहीं है कि क्रांति को किताबों,विमर्शों में बंद कर दिया जाए।
    क्रांति,समाजवाद,वर्ग संघर्ष,विचारधारा आदि के सवाल किताबी लेखन, सेमीनार, संगोष्ठी आदि के गर्भ से पैदा नहीं हुए।बल्कि इन धारणाओं का सामाजिक प्रक्रियाओं के गर्भ, सामाजिक-राजनीतिक संघर्ष के गर्भ से जन्म हुआ। देरि‍दा की मुश्किल यह है कि वे मार्क्‍सवाद को सामाजिक प्रक्रियाओं,राजनीतिक प्रक्रियाओं के संदर्भ में नहीं देखते।बल्कि बार-बार यही कोशिश करते हैं कि मार्क्‍सवाद को एक विचार मात्र बना दिया जाए।वे तर्क और आस्था से मार्क्‍सवाद की रक्षा करना चाहते हैं।यदि मार्क्‍सवाद को इसी तरह बचाया जा सकता तो विकसित पूंजीवादी मुल्कों के शिक्षा संस्थानों में मार्क्‍सवाद पर सबसे ज्यादा संगोष्ठियां होती हैं। मार्क्‍सवाद पर सबसे ज्यादा कृतियां इन्हीं देशों में छपती हैं किंतु मार्क्‍सवाद सबसे ज्यादा खस्ताहाल अवस्था में इन्हीं देशों में है। 
   मार्क्‍सवाद को तर्क या आस्था से जिंदा नहीं रखा जा सकता।मार्क्‍सवाद का भविष्य विचारकों पर नहीं क्रांतिकारी शक्तियों,मजदूरों, किसानों, शोषित तबकों के संघर्षों की अवस्था पर टिका है।क्रांतिकारी शक्तियों को अपने जीवन की ठोस सच्चाईयों के तहत काम करना होता है।कम्युनिस्ट पार्टी, मजदूरों-किसानों आदि के संगठनों को यथार्थवादी कार्यक्रम के आधार पर काम करना होता है।उनके लिए मार्क्‍सवाद किताब या रीडिंग या विश्लेषण नहीं है बल्कि दुनिया को बुनियादी तौर पर बदलने का विश्‍व दृष्टिकोण है।
  मार्क्‍सवाद कभी दलविहीन,कम्युनिस्ट पार्टीरहित वातावरण में जिंदा नहीं रह सकता। सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के समाजवादी देशों में मार्क्‍सवाद और समाजवाद के पराभव का प्रधान कारण है वास्तव अर्थों में कम्युनिस्ट पार्टी का लोप।इन देशों में जो कम्युनिस्ट पार्टियां कार्यरत थीं। वे कम्युनिस्ट पार्टी के उसूलों पर कम सत्ता के उसूलों से ज्यादा परिचालित थीं। सतह पर ये कम्युनिस्ट थे। किंतु इनकी अंतरात्मा और रवैयये का कम्युनिस्ट उसूलों से कोई वास्ता नहीं था। इसलिए यदि इन देशों में समाजवादी व्यवस्था का पराभव हुआ है तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इस पर शोक भी नहीं मनाया जा सकता है। किंतु एक बात जरूर सीखने की है कि सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयतावाद के बहाने झूठ नहीं बोला जाना चाहिए। 
  मार्क्‍सवाद की खूबी है कि वह संसार के झूठ पर से पर्दा उठाता है।वास्तव संसार को ठोस सच्चे अर्थ में उद्धाटित करता है।समाजवादी देशों में जो कुछ घट रहा था।उसके बारे में अधिकांश कम्युनिस्ट पार्टियों ने सच कभी नहीं कहा। जब समाजवादी व्यवस्था धराशायी हो गई तब कहीं जाकर दबे स्वरों में आलोचनाएं सामने आईं। 

मार्क्‍सवाद ने जिस समाजवाद की परिकल्पना की है वह बंद समाज नहीं है।ऐसा समाज नहीं जिसके बारे मे आलोचना ही न की जा सके।जिन कम्युनिस्ट पार्टियों ने समाजवादी समाजों के पराभव के बाद पतन के कारणों पर विस्तार से रोशनी ड़ाली,उनसे सवाल किया जाना चाहिए कि उन्होंने इसके पहले साफगोई से काम क्यों नही लिया ?

  मार्क्‍सवाद साफगोई सिखाता है।सत्य के प्रति आग्रह पैदा करता है।किंतु व्यवहार में इसका उल्टा हुआ है।समाजवादी समाजों के बारे में हमने मिथ बनाए हैं।अनालोचनात्मक रवैयये का निर्माण किया है।मिथ बनाना और अनालोचनात्मक रवैयया मूलत: गैर-मार्क्‍सवादी तत्व हैं।अभी भी मार्क्‍सवादी हलकों में समाजवादी समाजों के पराभव को लेकर अस्पष्टता बनी हुई है।यही हाल देरि‍दा का भी है। वे समाजवादी समाजों की वास्तव अर्थों में मीमांसा किए बगैर यह कह देते हैं कि हम में से अनेकों के लिए एक खास किस्म ( मैं खास पर जोर दे रहा हूँ) के कम्युनिस्ट मार्क्‍सवाद का अंत,सोवियत संघ तथा पूरी दुनिया में इस पर आधारित प्रत्येक चीज के पतन के पहले ही हो गया था।यह सब पचास के दशक में आरंभ हुआ था। 
  सवाल किया जाना चाहिए जब पचास के दशक में ही कम्युनिस्ट मार्क्‍सवाद का अंत हो चुका था तब ही देरि‍दा ने मार्क्‍सवाद की विरासत की रक्षा की सौगंध क्यों नहीं ली ? ऐसा क्या हुआ कि पचास वर्ष के बाद उन्हें मार्क्‍सवाद की विरासत को बचाने का अहसास पैदा हुआ ?दूसरी बात यह है कि क्या सोवि‍यत संघ और समाजवादी समाजों के मार्क्‍सवादी अनुभवों,सारी दुनिया के कम्युनिस्टों के मार्क्‍सवादी तजुर्बों को दरकिनार करके मार्क्‍सवाद के बारे में कोई बहस संभव है ? 
   समाजवादी समाजों और गैर-समाजवादी समाजों के मार्क्‍सवाद के सबक क्या हैं ?क्या मार्क्‍सवादियों को मौजूदा दौर में इन सबसे सबक हासिल करने की जरूरत है या नहीं ?क्या मार्क्‍सवाद की दुनिया वही है जो मार्क्‍स-एंगेल्स के जमाने की थी ?क्या मार्क्‍सवाद का एक ही पाठ संभव है ?क्या एक रीडिंग संभव है ? क्या क्रांति संभव है ?कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में समूची मानवता को एकजुट करना संभव है ?क्या कोई नया इंटरनेशनल संभव है ?क्या दलरहित इंटरनेशनल संभव है ?क्या किताब लिखने के लिए,सिर्फ समीक्षाओं के लिए इंटरनेशनल संभव है ?क्या साम्राज्यवाद और पूंजीवाद इन दोनों के प्रति रणनीति, कार्यनीति और कार्यक्रम का विश्वस्तर पर एक ही मसौदा संभव है ? क्या समाज में कम्युनिस्ट पार्टी और उसके जनसंगठनों की प्रासंगिकता और जरूरत बची हुई है ?ये कुछ बुनियादी सवाल हैं जिन्हें हल किए बिना मार्क्‍सवाद की विरासत को आत्मसात् करना संभव नहीं है।जाहिर है देरीदा इनमें सेकिसी भी सवाल का जबाव नहीं देते।उन्हें सिर्फ मार्क्‍सवाद की विरासत को हासिल करने की चिन्ता है।गोया! विरासत नहीं उन्हें वसीयत की चिन्ता है।
      वे चाहते हैं कि मार्क्‍सवाद की वसीयत उन जैसे लोगों के नाम लिख दी जाए जिन्होंने मार्क्‍सवाद की विरासत को बचाने,समृध्द करने में कोई भी योगदान नहीं किया है।मार्क्‍सवाद का मामला उत्तराधिकार या परंपरा का मामला नहीं है बल्कि कुर्बानी का मामला है।यह विमर्श का नहीं वर्ग संघर्ष का मामला है। यह पूंजीवाद के प्रति सदाशयता या पूंजीवाद को सदाचारी बनाने का नहीं बल्कि उसके प्रति अनवरत,समझौताविहीन निर्मम संघर्ष का मामला है।

देरि‍दा के समग्र दृष्टिकोण में सबसे मुश्किल मामला है भाषा का।देरि‍दा विमर्श के लिए अलंकारिक और धार्मिक भाषा चुनते हैं।इस तरह की भाषा द्विअर्थीपन लिए होती है।इसे आप किसी भी दिशा में मोड़ सकते हैं।मजेदार बात यह है कि भाषा के खेल में देरि‍दा सबसे पहले मार्क्‍स-एंगेल्स रचित भाषा और अवधारणा दोनों को ही नष्ट करता है। मार्क्‍सवाद के संदर्भ में देरि‍दा के भाषिक प्रयोग को देखें दायित्व के आह्वान से रहित कोई विरासत नहीं होती।विरासत हमेशा एक कर्ज की पुनर्पुष्टि होती है,लेकिन एक आलोचनात्मक, चुनावपरक और छनतीहुई पुनर्पुष्टि। इसीलिए हमने कई आत्माओं के अस्तित्व को माना है।उपरोक्त,पृ.77) देरि‍दा से सवाल किया जाना चाहिए कि मार्क्‍स की कई आत्माएं उन्होंने कहां से खोज निकालीं ?यदि कई आत्माएं हैं ?तो उन्हें कौन सी आत्मा या आत्माएं पसंद हैं ?मार्क्‍स की किस आत्मा का कर्ज वे उतारना चाहेंगे ?किस आत्मा को आलोचनात्मक विवेक के साथ चुनना चाहेंगे।

      सच यह है कि मार्क्‍स की अनेक नहीं एक आत्मा है और वह है क्रांति। देरि‍दा को विरासत में क्या चाहिए मार्क्‍सवाद के प्रति कोरी वाचिक आस्था या क्रांति। मार्क्‍स का कर्ज इस पृथ्वी पर से तबतक नहीं उतरेगा जब तक क्रांति नहीं होती। जाहिर है देरि‍दा को क्रांति पसंद नहीं है।जिनके अंदर क्रांति का जज्बा है।उसे पाने की छटपटाहट है,जो वर्ग संघर्ष के काम में लगे हैं वे ही मार्क्‍सवाद के असली वारिस हैं।आज जो लोग साम्राज्यवाद, पूंजीवाद और सामंतवाद के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं वे ही असली वारिस है। उल्लेखनीय है कि मार्क्‍स-एंगेल्स को क्रांति से कम कोई भी चीज पसंद नहीं थी।कम्युनिस्ट पार्टी के अलावा क्रांति संभव नहीं है।देरि‍दा को कम्युनिस्ट पार्टियां पसंद नहीं हैं।संभवत: वे क्रांति, वर्ग संघर्ष,कम्युनिस्ट पार्टी से रहित मार्क्‍सवाद को विरासत में पाना चाहते हैं।
   मजेदार बात यह है कि देरि‍दा ने अपने पूरे व्याख्यान में एक भी जगह साम्राज्यवाद या पूंजीवाद को नष्ट करने की बात नहीं की है।देरि‍दा जिन सवालों को उठाते हैं वे वस्तुत: बुर्जुआ समाज के सवाल हैं।वे क्रांति की संभावनाओं, चुनौतियों,क्रांति के दोस्त और दुश्मन किसी का भी जिक्र नहीं करते।देरि‍दा मूलत: अधिरचना के सवाल उठाते हैं।अधिरचना में सुधार के सवाल उठाते हैं।जबकि मार्क्‍सवाद आधार और अधिरचना दोनों के बुनियादी सवालों को पूंजीवादी व्यवस्था के विकल्प के रूप में समाजवादी समाज व्यवस्था के संदर्भ में विश्लेषित करते हैं। 
     देरि‍दा को समाजवादी व्यवस्था से परहेज है।उन्हें असल में 'मार्क्‍स के प्रेत' या उसकी आत्मा या 'स्पिरिट' की जरूरत है।मार्क्‍सवाद इनमें से कुछ भी नहीं है।वह तो दुनिया को बदलने का विज्ञान है। जिसकी कसौटी है जिन्दगी। जिन्दगी की कसौटी पर मार्क्‍सवाद की जो धारणाएं खरी उतरीं उन्हें माक्र्स-एगेल्स ने आत्मसात् किया।जो धारणाएं जिन्दगी की कसौटी पर खरी नहीं उतरीं उन्हें खारिज कर दिया।मार्क्‍स-एंगेल्स के सामने पूंजीवाद की जो भयावह तस्वीर उभरकर आई थी उसी के आधार पर वे दोनों इस नतीजे पर पहुँचे कि समाज को बुनियादी तौर पर बदलना चाहिए।

देरि‍दा ने 'नया इंटरनेशनल' बुलाने का सुझाव रखा है।वे इसे अतर्राष्ट्रीय कानून के परिप्रेक्ष्य में रखकर देखते हैं।इसके सामने मानवाधिकार,शरणार्थी समस्या, विदेशी कर्ज आदि के सवालों को विश्लेषित करने के लिए देरि‍दा को 'नया इंटरनेशनल' चाहिए।यह इंटरनेशनल पुराने से भिन्न होगा।देरि‍दा पुराने इंटरनेशनल के कर्ज से मुक्त होकर नए का आयोजन करना चाहते हैं।वे पुराने इंटरनेशनल के लक्ष्यों और उपलब्धियों पर गौर तक नहीं करना चाहते। देरि‍दा से सवाल किया जाना चाहिए कि ऐसी क्या एलर्जी है कि मार्क्‍सवाद की आत्मा के वारिस होना चाहते हो,मानवाधिकारों के चैम्पियन बनना चाहते हो,किंतु पहले,दूसरे और तीसरे इंटरनेशनल पर गौर करना नहीं चाहते।लेनिन के शब्दों में पहले इंटरनेशनल ने समाजवाद के लिए सर्वहारा के संघर्ष की नींव डाली।दूसरे इंटरनेशनल का काल वह काल था ,जब कई देशों में इस आंदोलन के व्यापक तथा जनव्यापी रूप में फैलने के लिए जमीन तैयार की गई।तीसरे इंटरनेशनल ने पहले और दूसरे इंटरनेशनल के काम के फल बटोरे,उसकी अवसारवादी,सामाजिक अंध-राष्ट्रवादी,बुर्जुआ तथा टुटपुंजिया खोटे को निकाल फेंका और उसने सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व को कार्यान्वित करना प्रारभ कर दिया है।(लेनिन,' अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर आन्दोलन और कम्युनिस्ट आंदोलन',प्रगति प्रकाशन मास्को, 1984,पृ.305) देरि‍दा का मानना है नया इंटरनेशनल सामीप्य,पीड़ा और आशा का एक सूत्र है।किंतु 'गुप्तसूत्र' है।यह एक असामयिक सूत्र है,बिना पदवी,बिना ख़िताब ,बिना नाम के,जो भले गुप्त न हो लेकिन अभी सार्वजनिक भी नहीं है,बिनाअनुबंध,'विश्रृंखलित',बिना समायोजन,बिना पार्टी,बिना देश,बिना राष्ट्रीय समुदाय(हर तरह के राष्ट्रीय परिसीमन से परे,पहले अंतर्राष्ट्रीय),बिना सह-नागरिकता,बिना एक वर्ग से सामुदायिक संबंध के,यहाँ नए इंटरनेशनल का नाम उन्हें दिया जा रहा है जो तमाम उन लोगों के जो संस्थाहीन मैत्री गठबंधन की मांग करता है जो भले ही समाजवादी-मार्क्‍सवादी इंटरनेशनल में,सर्वहारा के अधिनायकत्व में,सभी देशों के सर्वहाराओं की सार्वभौमिक एकता की मसीहाई युगान्त घोषी भूमिका में विश्वास न करते हों,पर माक्र्स या माक्र्स की कम से कम एक आत्मा से अभी भी उत्प्रेरित हैं (वे अब जानते हैं कि वे एक से अधिक हैं),और खुद को नए,ठोस,वास्तविक ढ़ंग से एकजुट करने के लिए भी।भले यह गठबंधन एक पार्टी या मजदूरों के इंटरनेशनल की शक्ल न ले,बल्कि एक तरह का प्रति-मंत्रोच्चार हो-अंतर्राष्ट्रीय कानून की हालत,राज्य व राष्ट्र की अवधारणाओं इत्यादि की (सैध्दान्तिकी और व्यावहारिक)मीमांसा के रूप में:माक्र्सवादी मीमांसा का पुन: नवीनीकरण करने और विशेषत: इसे आमूल परिवर्तित करने के लिए। (पहल,उपरोक्त,पृ.74)यानी देरि‍दा की मूल चिन्ता मार्क्‍सवाद को आमूल पविर्तित करने की है। पूंजी के द्वारा श्रम के शोषण के तंत्र को उखाड़ फेंकने की नहीं है।

   देरि‍दा के उपरोक्त व्याख्यान पर एजाज अहमद ने सही लिखा है कि यह साहित्यिक शैली का प्रदर्शनपरक पाठ है।एक ऐसा पाठ जो विश्लेषण नहीं करता,एक प्रदर्शन की प्रस्तुति करता है:शव को दफनाने और पुनप्र्राप्ति का एक अनुष्ठानी प्रदर्शन,इसीलिए शपथ,प्रेतीयता और प्रतिश्रुति के मॉटिफ। (पहल,उपरोक्त,पृ.85) देरि‍दा के बारे में एजाज अहमद का यह निष्कर्ष है कि वे दक्षिणपंथ के आदमी नहीं हैं।एजाज अहमद ने देरि‍दा के व्याख्यान 'मार्क्‍स के प्रेत' को 'शोकगीत' नाम दिया है। इस पाठ में उन्होंने अपने लेखन का स्वर बहुत सावधानी के साथ चुना है।यह एक शोकगीत का,पराजित को सीख देने का स्वर है,जख्मों के उपचार की एक भाषा ताकि नयी प्रतिश्रुतियाँ की जा सकें,ताकि पूर्वजों की प्रतिश्रुतियों का निर्वाह किया जा सके,भले ही एक तरीके से।(वही,पृ.94) देरि‍दा का मानना है कि विखण्डन ,मार्क्‍सवाद का आमूल परिवर्तन है।एजाज अहमद ने विखण्डन को मार्क्‍सवाद का आमूल परिवर्तन मानने से इंकार किया है।
   एजाज अहमद ने सही सवाल उठाया है कि देरि‍दा यह सोचें कि क्या विखण्डन को आत्म-समीक्षा की जरूरत है या नहीं ? विखण्डन के नाम पर दक्षिणपंथी और धुर मार्क्‍सवाद विरोधियों ने विखण्डन की ओट से मार्क्‍सवाद पर हमले आखिर क्यों किए ? क्या इन हमलों को सुनिश्चित बनाने में विखण्डन के तत्व से कोई मदद मिली या नहीं ? इसका यह अर्थ नहीं है कि देरि‍दा दक्षिणपंथी थे।देरि‍दा ने मार्क्‍सवाद की असख्य गलतियों की तरफ ध्यान दिया है।यदि कितु विखण्डन की गलतियों कर तरफ देरि‍दा ने आलोचनात्मक नजरिए से नहीं देखा। 
  एजाज अहमद ने लिखा है कि  यह एक ठोस सच्चाई है कि अधिक कुख्यात किस्म के मार्क्‍सवाद विरोधी उग्र सुधारवादों से देरि‍दा ने आम तौर पर खुद को दूर रखा है।लेकिन उत्तरी अमेरिका और विशेषत:येल में उनके अनेक निकट सहकर्मियों -जिनके कारण देरि‍दा को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति मिली और जिनसे देरि‍दा ने स्वयं को दूर नहीं किया- की खातिर मार्क्‍सवाद का कोई अर्थ नहीं रहा है।उनमें कुछ दूसरों के मुकाबले अधिक तीखे विरोधी हैं।,लेकिन मार्क्‍सवाद विरोध उनकी सांझी विशिष्टता रही है।(वही,पृ.97)

'ई' साहि‍त्‍य का पाठकों पर प्रभाव

                                                                                     'ई' साहित्य विकासशील साहित्य है। 'ई' साहित्य का किसी भी किस्म के साहित्य,मीडिया,रीडिंग आदत,संस्कृति आदि से बुनियादी अन्तर्विरोध नहीं है। 'ई' साहित्य और डिजिटल मीडिया प्रचलित मीडिया रूपों और आदतों को कई गुना बढ़ा देता है। जिस तरह कलाओं में भाईचारा होता है उसी तरह 'ई' साहित्य का अन्य पूर्ववर्ती साहित्यरूपों और आदतों के साथ बंधुत्व है। फर्क यह है कि 'ई' साहित्य डिजिटल में होता है। अन्य साहित्यरूप गैर-डिजिटल में हैं ,डिजिटलकला वर्चस्वशाली कला है। वह अन्य कलारूपों और पढ़ने की आदतों के डिजिटलाईजेशन पर जोर देता है। अन्य रूपों को डिजिटल में रूपान्तरित होने के लिए मजबूर करता है। किंतु इससे कलारूपों को कोई क्षति नहीं पहुँचती। यह भ्रम है कि 'ई' साहित्य और 'ई' मीडिया साहित्य के पूर्ववर्ती रूपों को नष्ट कर देता है, अप्रासंगिक बना देता है। वह सिर्फ कायाकल्प के लिए मजबूर जरूर करता है। 
         विगत चार दशकों में अमरीकी जनता में सार्वजनिक पुस्तकालयों की सदस्य संख्या में तीनगुना वृध्दि हुई है। इसके विपरीत भारत के 'ई' संस्कृति के आदर्श राज्य कर्नाटक में पांच हजार पुस्तकालय हैं और इन पुस्तकालयों की पहुँच दो प्रतिशत जनसंख्या तक नहीं है। पुस्तकालय आन्दोलन का हमारे देश में विकसित न हो पाना सबसे बड़ी बाधा है। कर्नाटक जैसे राज्य में पुस्तकालय आन्दोलन की यह अवस्था है तो बाकी राज्यों की क्या स्थिति होगी इसका सहज ही अनुमान लगा सकते हैं। 
       अमरीका में सबसे ज्यादा 'ई' कल्चर है और व्यक्तिगत तौर सबसे ज्यादा किताबें खरीदी जाती हैं। अमरीका में बिकने वाली किताबों की 95 फीसदी खरीद व्यक्तिगत है। मात्र पांच प्रतिशत किताबें पुस्तकालयों में खरीदी जाती हैं। अमरीका में औसतन प्रत्येक पुस्तकालय सदस्य साल में दो किताबें लाइब्रेरी से जरूर लेता है। एक अनुमान के अनुसार पुस्तकालयों से किताब लाने और व्यक्तिगत तौर पर खरीदने का अनुपात एक ही जैसा है। यानी तकरीबन 95 प्रतिशत किताबें पुस्तकालयों से लाकर पढ़ी जाती हैं। इसके विपरीत भारत में अमरीका की सकल आबादी के बराबर का शिक्षित मध्यवर्ग है और उसमें किताबों की व्यक्तिगत खरीद 25 फीसद ही है। बमुश्किल पच्चीस फीसद किताबें ही व्यक्तिगत तौर पर खरीदकर पढ़ी जाती हैं। हाल ही में किए सर्वे से पता चला है कि विश्वविद्यालयों के मात्र पांच प्रतिशत शिक्षक ही विश्वविद्यालय पुस्तकालय से किताब लेते हैं।
      भारत में आज भी किताबों की बिक्री मूलत: पुस्तकालयों और थोक सरकारी खरीद पर निर्भर है। आज भी किताब को मनोरंजन और सेवा उद्योग में रखने में हमें संकोच होता है। किताब के प्रति गैर पेशेवराना रवैयये के कारण हमारे पास आज तक किताब के बाजार ही ठोस जानकारियां उपलब्ध नहीं हैं। ऑनलाइन केटेलॉग नहीं हैं। पुस्तकालयों के कैटेलॉग उपलब्ध नहीं हैं। किताब की केयर करने के अभाव को सहज ही ब्रिटिश लाइब्रेरी,अमेरिकन सेंटर लाईब्रेरी में जाने वालों की प्रतिदिन की संख्या  और किसी भी परंपरागत लाइब्रेरी में जाने वालों की संख्या के साथ सहज ही देखा जा सकतस है। आज आप सामान्य से खर्चे के साथ यह पता कर सकते हैं कि ब्रिटेन में किस लाइब्रेरी में कौन सी किताब है। हिन्दुस्तान में यह असंभव है। हमारे पुस्तकालयों की दशा आर्काइव जैसी है,वहां किताबें धूल खा रही हैं, अप्रशिक्षित कर्मचारी हैं। कम से कम कर्मचारी हैं और कम से कम अपडेटिंग होती है। जाहिर है पढ़ने की संस्कृति कैसे बने ?
      'ई' साहित्य का पाठकों पर नकारात्मक या सकारात्मक किस तरह का प्रभाव पड़ रहा है इस चीज को परखने का सबसे आसान पैमाना है दैनिक अखबारी संस्कृति। हमें देखना चाहिए कि क्या हाल के वर्षों में दैनिक अखबारी संस्कृति का ह्रास हुआ है या विकास हुआ है ? भविष्य की क्या संभावनाएं हैं ? 
    भारत सारी दुनिया में दूसरे नम्बर का अखबार बाजार है। 'विश्व समाचारपत्र संघ' की ताजा रिपोर्ट के अनुसार चीन में अखबारों की 107 मिलियन प्रति प्रतिदिन बिकती हैं। जबकि भारत में 99 मिलियन प्रति प्रतिदिन बिकती हैं। जापान में 68 मिलियन प्रति, अमरीका 51 मिलियन प्रति बिकती हैं। सन् 2007 में अखबारों की बिक्री में 11.2 प्रतिशत का इजाफा हुआ। आगामी पांच सालों में प्रेस में 35.51 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी होने की संभावना है। दुनिया में 100 सबसे ज्यादा बिकने वाले  दैनिक अखबारों में 74  अखबार एशिया में हैं। इनमें भारत,चीन,जापान में 62  अखबार हैं। सारी दुनिया में बिकने वाले अखबारों का सर्कुलेशन 2.57 प्रतिशत बढ़ा है। यदि इसमें फ्री में बटने वाले अखबारों का सर्कुलेशन जोड़ दिया जाए तो यह 3.65 प्रतिशत बैठेगा और प्रतिदिन सर्कुलेशन 573 मिलियन प्रतियां बैठेगा। सारी दुनिया में फ्री दैनिक अखबारों का सर्कुलेशन कुल सर्कुलेशन के सात फीसद के बराबर है। जबकि सारी दुनिया में प्रतिदिन बिक्रीयोग्य दैनिक अखबारों की 532 मिलियन प्रतियां बिकती हैं। विगत पांच सालों में अखबारों के सर्कुलेशन में 9.37 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। आज भी प्रिंट मीडिया को सकल विज्ञापनों का चालीस फीसद हिस्सा मिलता है। सारी दुनिया के 80 फीसदी देशों में प्रिंट की बिक्री में इजाफा हुआ है। 
     भारत में छह धर्म हैं,उनके अनेक उप-सम्प्रदाय हैं। 1562 मातृबोलियां हैं। दस लेखन व्यवस्थाएं हैं। सन् 2000में 76 भाषाएं स्कूलों में पढ़ाई जा रही थीं॥ भारत के संविधान में 18 स्वीकृत भाषाएं हैं जो आठवीं अनसूची में शामिल हैं। इनको 98 प्रतिशत जनसंख्या बोलती है। भारत की 20 प्रतिशत जनसंख्या द्विभाषी और मात्र सात प्रतिशत जनसंख्या त्रिभाषी है।
       मैकमिलन प्रकाशन के मुखिया रिचर्ड चार्किन ( 3 जून 2006) के अनुसार सारी दुनिया की आबादी साढ़े छह घंटे प्रति सप्ताह किताब पढ़ने पर खर्च करती है। किताब पढ़ने पर सबसे ज्यादा समय भारत में खर्च किया जाता है। भारत में प्रति सप्ताह 10.7 घंटे खर्च किए जाते हैं। सबसे कम कोरियाई लोग किताब पढ़ने पर समय खर्च करते हैं। कोरियाई प्रति सप्ताह मात्र 3.1 घंटा खर्च करते हैं। ब्रिटेन के लोग 5.3 घंटा, जर्मनी और अमरीका के लोग 5.7 घंटा प्रति सप्ताह खर्च करते हैं। 
    इसी तरह अर्जेंटीना के लोग सबसे ज्यादा रेडियो सुनते हैं। वे प्रति सप्ताह 20.8 घंटा खर्च करते हैं, जबकि चीन के लोग सबसे कम रेडियो सुनते हैं वे मात्र 2.1 घंटा प्रति सप्ताह खर्च करते हैं। इसी तरह इंटरनेट पर सारी दुनिया में यूजर औसतन मनोरंजन पर 8.9 घंटे और पढ़ने पर 6.5 घंटे खर्च करते हैं। इंटरनेट के उपयोग ने लोगों के पढ़ने के समय में बीस प्रतिशत की कमी की है। जबकि 40 फीसद यूरोपियन एकदम किताब नहीं पढ़ते। ज्यादातर विकसित देशों के लोग इंटरनेट का किताब पढ़ने की बजाय मनोरंजन के लिए इस्तेमाल करते हैं। 
    उल्लेखनीय है भारत में किताब पढ़ने पर ज्यादा समय खर्च करते हैं और देश में साक्षरता का भी विकास हुआ है। जबकि मजेदार बात यह है  कोरिया दुनिया का सबसे कनेक्टेड देश है उसमें कम से कम किताब पढ़ी जाती है। आज इंटरनेट पर डिजिटल पुस्तकालयों का तांता लगा हुआ है। तेजी से 'ई' किताबों की संख्या बढ़ती जा रही है। अभी तकरीबन 350 से ज्यादा डिजिटल लाइब्रेरियां हैं। इनमें बीस लाख से ज्यादा किताबें प्रतिमाह डाउनलोड की जा रही हैं। इंटरनेट पर दो लाख से ज्यादा किताबें उपलब्ध हैं।
    हाल के वर्षों में ब्लॉग रीडिंग की नयी आदत का जन्म हुआ है। ब्लॉग लेखन और रीडिंग का नया संसार सामने आया है। ब्लॉग लेखकों में अधिकांश ऐसे लेखक हैं जो पहलीबार प्रकाशित हुए हैं। इनकी संख्या करोड़ों में है। इन लेखकों के लेखन में तिथि का महत्व कम और नियमित लिखने का रूझान ज्यादा है। ब्लॉग लेखक के ऊपर उसके पाठकों का भी तेज दबाव रहता है,इनके पाठक शीघ्र प्रतिक्रिया देते हैं।
    भारत में किताब प्रकाशन उद्योग की अवस्था पर कोई संतोषजनक अनुसंधान अभी तक नहीं हुआ है। कहने के लिए हमारे देश में कानूनन प्रत्येक प्रकाशक को अपनी किताब की दो प्रतियां राष्ट्रीय पुस्तकालय को भेजनी होती हैं किंतु अधिकतर प्रकाशक इस कानून का पालन नहीं करते। इसके कारण प्रामाणिक तथ्यों का इस क्षेत्र में अभाव बना हुआ है। इसके बावजूद बुक डिवीजन ऑफ केमीकल्स एंड एप्लाइड प्रोडक्ट एक्सपोर्ट प्रमोशन कौंसिल के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष पचास हजार नयी किताबें प्रकाशित होती हैं। इसके अलावा 'फेडरेशन ऑफ इण्डियन पब्लिशर्स ' के अनुसार भारत की 17 भाषाओं और अ्रग्रेजी में प्रतिवर्ष साठ हजार नयी किताबें प्रकाशित होती हैं। इनमें 22 प्रतिशत किताबें अंग्रेजी में प्रकाशित होती हैं। ये आंकड़े देश के ग्यारह सौ प्रकाशकों से एकत्रित किए गए हैं। 
     राष्ट्रीय सांख्यिकी संगठन के अनुसार मुद्रण और प्रकाशन उद्योग के उत्पादन के जो आंकड़े प्रकाशित किए गए हैं,उनके अनुसार मुद्रण और प्रकाशन उद्योग का 12.6 प्रतिशत की सालाना दर से विकास हो रहा है। सन् 1996-97 में यह आंकड़ा 1267  करोड़ रूपये का था। ये आंकड़े उन फर्मों के हैं जिनमें 20 से ज्यादा कर्मचारी काम करते थे। यदि इनमें बीस से कम संख्या वाले फर्मों के आंकड़े भी जोड़ दिए जाएं तो यह आंकड़ा काफी आगे बढ़ जाएगा।
     इसके अलावा बड़े पैमाने पर किताबें जीरोक्स करके भी पढ़ी जाती हैं और गैर कानूनी प्रकाशनों के जरिए प्रकाशित पुस्तक उद्योग के आंकड़ों को भी ध्यान में रखना चाहिए।  एक सर्वे प्रकाशकों में किया गया जिसके अनुसार  15 से 24  प्रतिशत तक किताबें अवैध रूप में छापकर बेची जाती हैं। 92 प्रकाशकों और 141 पुस्तक बिक्रेताओं में किए गए सर्वे में पता चला कि 33 प्रतिशत ( 92 में से 30) प्रकाशक इस तथ्य से वाकिफ थे कि किसी न किसी रूप में किताब चोरी हुई है या कॉपीराइट कानून का उल्लंघन हुआ है। 141 पुस्तक बिक्रेताओं में से 44 का मानना था  किताब की अवैध बिक्री हो रही है। पाठकों में किए सर्वे से पता चला कि 28 फीसदी पाठकों ने कहा वे चोरी से मुद्रित किताब खरीदते हैं। इनमें 82 फीसदी पाठकों के द्वारा जानबूझकर अवैध रूप से मुद्रित किताब खरीदी जाती है। पाठकों ने बताया  वे सालाना 37 किताबें खरीदते हैं जिनमें से सात किताबें अवैध रूप से प्रकाशित होती हैं। सर्वे के अनुसार अवैध रूप से प्रकाशित किताबों का प्रतिशत 19 है। एक अनुमान के अनुसार अवैध किताब प्रकाशन से प्रकाशन उद्योग को एक हजार करोड़ रूपये से भी ज्यादा का नुकसान हो रहा है। 
     पढ़ने -पढ़ाने की संस्कृति के विकास में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के द्वारा निर्मित 'यूजीसी-इंफोनेट' नामक 'ई' पत्रिकाओं के संकलन की महत्वपूर्ण भूमिका है। एक जमाना था जब जे.एन.यू. आदि बड़े संस्थानों के पास ही विदेशी पत्रिकाओं को मंगाने की क्षमता थी आज स्थिति बदल गयी है। आज यू.जी.सी. के द्वारा संचालित इस बेव पत्रिका समूह का हिन्दुस्तान के सभी विश्वविद्यालय लाभ उठाने की स्थिति में हैं। इस संकलन में साढ़े चार हजार से ज्यादा श्रेष्ठतम पत्रिकाएं संकलित हैं। मजेदार बात यह है कि इस संग्रह के बारे में अधिकतर शिक्षक जानते ही नहीं हैं।
   अंग्रेजी के चर्चित लेखक रस्किन बॉण्ड ने कुछ अर्सा पहले कहा आजकल बच्चे ताजगीभरी हवा चाहते हैं। ताजगी देने वाला लेखन पढ़ना चाहते हैं।  लेखन में ऐसी हवा नहीं चाहते जिससे सीने में दर्द हो। वे ऐसी हवा नहीं चाहते जो गर्दो-गुबार से भरी हो। आज ज्यादा लोग किताबें पढ़ रहे हैं और ज्यादा किताबें खरीद रहे हैं। क्योंकि आज लोगों के पास किताब खरीदने के लिए पैसा है। रस्किन बॉण्ड ने कहा जब उसने लिखना शुरू किया था तो उसकी लिखी किताब का दाम पांच रूपया होता था और वह किताब बिक नहीं पाती थी। उसी किताब का दाम आज ढाई सौ रूपये है और वह धडल्ले से बिक रही है। इसके बावजूद यह सच है कि आज भी रीडिंग का काम कम ही लोग करते हैं।
 टीवी और इंटरनेट के कारण बच्चों की रीडिंग आदत नहीं बदली है बल्कि सच यह है जो लोग टीवी देखते हैं अथवा इंटरनेट पर जाते हैं वे पहले भी किताब नहीं पढ़ते थे। जो बच्चे किताब पढ़ते हैं वे ज्यादा टीवी नहीं देखते। आज किताबों के वैविध्य से सजी रंगी-बिरंगी दुकानें आ गयी हैं। ऐसी सुंदर दुकानें पहले नहीं होती थीं। इसका एक बड़ा कारण है अंग्रेजीभाषी पाठकवर्ग का बड़े पैमाने पर उदय हुआ है। इतना बड़ा पाठकवर्ग अंग्रेजी में पहले कभी नहीं था। हिन्दी और दूसरी भाषाओं में यह पाठकवर्ग बढ़ सकता है बशर्ते किताबें उसके सहज दायरे में हों। छोटे शहरों और कस्बों में कोई किताब की दुकान ही नहीं होती। इसका परिणाम यह निकला है कि हिन्दी -उर्दू के बड़े पैमाने पर लेखक सिनेमा और टीवी लेखन में चले गए। क्योंकि लेखन का सवाल मूलत: आर्थिक सवाल भी है। लेखन पामाली के लिए नहीं लिखता बल्कि खुशहाली के लिए लिखता है।
    रीडिंग आदत के निर्माण के संदर्भ में यह भी ध्यान रहे कि कभी-कभी टीवी और फिल्म को जब किसी साहित्यिक कृति के आधार पर बनाया जाता है तो उसकी बिक्री बढ़ जाती है। क्योंकि टीवी के ज्यादातर दर्शक वे होते हैं जो किताब नहीं पढ़ते। अत: कृति के आधार पर बने टीवी कार्यक्रम टीवी दर्शकों के बीच में किताब को ले जाने का अच्छा माध्यम हैं। उसी तरह बहुत सारी ऐसी कविताएं भी हैं जो अधिसंख्य पाठकों ने नहीं पढ़ी है। ऐसी कविता को ऑडियो उद्योग ने जनप्रियता प्रदान की है। मसलन् रामचरितमानस ,मीराबाई के भजन या गुरू नानक की गुरूवाणी हो उसे आम गैर किताबी ऑडिएंस तक पहुँचाने का काम ऑडियो- वीडियो उद्योग ने किया है। कहने का अर्थ यह है कि कुछ पाठक पढ़ते हैं तो कुछ पाठक लिखे का सुनकर आस्वाद लेते हैं और कुछ पाठक देखकर आनंद लेते हैं। पाठक अब सिर्फ लिखे को ही नहीं पढ़ता,बल्कि देख और सुनकर भी पढ़ता है। पढ़ने की आदत लेखन युग क देन है,देखने-सुनने की आदत 'ई' युग की देन है। यह हमारे विकास का लक्षण है।  कहने का अर्थ है रीडिंग में पढ़ना,सुनना और देखना ये तीनों चीजें आती हैं। इन तीनों को करने में -ई' तकनीक की केन्द्रीय भूमिका है। यह कार्य कनवर्जन तकनीक और डिजिटल तकनीक के कारण संभव हो पाया है। आज पढ़ने के लिए साक्षर होने जरूरत नहीं है। आप साक्षर नहीं तब भी सुन और देखकर किताब का आनंद वैसे ही ले सकते हैं जैसे साक्षर लेता है। यही वजह है कि 'ई' साहित्य हमारी पढ़ने,सुनने और देखने की तीनों आदतों को अपने अंदर समाहित किए हुए है। डिजिटल परिप्रेक्ष्य विकासवादी परिप्रेक्ष्य है। यह पहले से उपलब्ध परिप्रेक्ष्यों को विस्तार देता है उनको नष्ट नहीं करता। 'ई' तकनीक और साहित्य समृध्दि का संकेत है। यह आर्थिक,सांस्कृतिक,लेखकीय और पाठकीय समृध्दि का भी संकेत है।

1857 का प्रथम स्‍वाधीनता संग्राम : वर्चुअल परि‍प्रेक्ष्‍य

     यह व्याख्या और पुनर्व्याख्याओं का दौर है। हम जितनी व्याख्याएं लिख रहे हैं ,उससे ज्यादा कु-व्याख्याएं लिख रहे हैं। मौलिक कम और नकल ज्यादा कर रहे हैं, असल में मौलिक और नकल में फ़र्क करने की तमीज का ही खात्मा हो गया है। यह वर्चुअल और ब्रॉण्ड का युग है। इसमें नकल बिकती है, उसकी मांग ज्यादा होती है। यह ऐसा दौर है जिसमें अंतर्वस्तु से ज्यादा प्रदर्शन महत्वपूर्ण हो गया है। कर्म से ज्यादा आस्थाएं प्रबल हो गयी हैं। विचारों की जंग और सामाजिक-राजनीतिक जंग को हमने विचारों और आस्थाओं के मातहत कर दिया है। सन् 1857 का प्रथम स्वाधीनता-संग्राम और उसके 150 साला जलसों का इस समूची प्रक्रिया के साथ गहरा संबंध है। आज के दौर में यह कहना संभव नहीं है कि सन् 1857 के संग्राम के असली वारिस कौन हैं ? क्योंकि नकल अथवा प्रतिकृति के युग में प्रत्येक के पास मौलिक से ज्यादा सुंदर प्रतिकृति उपलब्ध है। 
        नकल का युग अपहरण ,हजम करने अथवा समर्पण की मांग करता है। इस युग में परंपरा से जुड़ना संभव नहीं है। आप जिसे परंपरा समझकर जुड़ रहे होते हैं वह तो प्रतिकृति है ,वह तो  प्रस्तुतिभर है। सन् 1857 का संग्राम और तत्संबंधित विमर्श प्रस्तुति और प्रदर्शन का विमर्श है। यह बाजार की ब्रॉण्ड संस्कृति का विस्तारमात्र है। यह नए सिरे से विचारों की खोज अथवा क्रांतिकारी परंपरा से जुड़ने का आभासी अथवा वर्चुअल प्रयास भी है। सन् 1857 के संग्राम को विभिन्ना विचारधारा के लोग अपने-अपने तरीके से पेश कर रहे हैं। कुछ लोग नाटक लिख रहे हैं, नाटक खेल रहे हैं, पत्रिकाएं विशेषांक निकाल रही हैं ? केन्द्र सरकार ने भी 150 करोड़ रूपये से ज्यादा इस संग्राम के 150 साल होने पर खर्च करने का फैसला किया है। चैनलों में चर्चाएं हो रही हैं। टीवी विज्ञापनों से लेकर प्रिंट विज्ञापनों की पूरी सीरीज जारी की गई है। पदयात्राओं के आयोजन भी हुए हैं, गोष्ठियां भी हो रही हैं, यह सिलसिला एक साल चलेगा। यानी सब कुछ तयशुदा दिशा में घटता नजर आ रहा है, इसके बावजूद 1857 के संग्राम को लेकर मौलिक सवाल कहीं पर भी नजर नहीं आ रहे। सवाल किया जाना चाहिए क्या 1957 के संग्राम का स्वाधीनता से संबंध है अथवा किसान मुक्ति के प्रयासों अथवा किसान की पीड़ा से संबंध है ? क्या यह सच नहीं है कि 1857 के संग्राम में किसान का दर्द और त्रासदी केन्द्र में थी  ? इसके बावजूद  ऐसा क्यों हुआ कि हमने इसे प्रथम स्वाधीनता संग्राम कहा, प्रथम किसान पीड़ा का विस्फोट क्यों नहीं कहा ? 'प्रथम स्वाधीनता संग्राम' के नाम से चलायी गयी मुहिम अंतत: किसान की त्रासदी को गौण बना देती है और किसान को हाशिए पर फेंक देती है। हमें किसान मुक्ति और त्रासदी के एजेण्डे के परिप्रेक्ष्य में 1857 के संग्राम पर विचार करना चाहिए। 1857 का संग्राम किसान त्रासदी की अभिव्यक्ति है। किसान की त्रासदी कैसे खत्म हो ,उसकी मुक्ति का सही मार्ग क्या है, इन सवालों पर विस्तार से विचार करने जरूरत है। किसान त्रासदी और उसकी प्रतिवादी भावनाओं को विद्रोहियों ने अभिव्यक्ति दी। यह हमारे कृषि जीवन के केन्द्रीय अन्तर्विरोधों की केन्द्रीय अभिव्यक्ति है।
     1857 के संग्राम पर चर्चाएं करते समय हम मौलिक कम लिख रहे हैं, मौलिक कम सोच रहे हैं। जो पहले से उपलब्ध है उसी को परोसा जा रहा है। 1857 के संग्राम विमर्श की  सबसे बड़ी मुश्किल यहीं पर है। सवाल किया जाना चाहिए कि 1857 के विमर्श का जो रूप सामने आ रहा है वह स्टीरियोटाईप है या नहीं ? उपलब्ध ज्ञान या विश्लेषण को उपलब्ध कराना मौलिकता नहीं है। यह पुनर्प्रस्तुति है। यह नकल की नकल है। या योें कहें हूबहू प्रस्तुति है।  इसके कारण नकल ,अनुमान, भाषायी चमत्कार ,सरलीकरण आदि आलोचना के केन्द्र में आ गए हैं। यानी हम 1857 की जीरोक्स कापी बनाने में मशगूल हैं। हमें इस क्रम में सैध्दान्तिकी से नफरत हो गयी है। सैध्दान्तिकी के जरिए हमें पध्दतिशास्त्र बनाते हैं, मौलिक को अवधारणाओं में रूपान्तरित करते हैं। जबकि नकल ,व्याख्या और सरलीकरण के जरिए हमने अभिव्यक्ति का जो रास्ता चुना है उससे कहीं पर भी नहीं पहुँचेंगे बल्कि जहां थे वहां पर भी नहीं रह पाएंगे। प्रतिकृति,सरलीकरण्ा और व्याख्याएं पढ़ने में अच्छी लगती हैं, देखने अच्छी लगती हैं। किंतु इनसे प्रेरित करना संभव नहीं है। खासकर वर्चुअल युग में प्रेरणा संभव नहीं है। 
    वर्चुअल युग में कोई भी चीज प्रेरणादायक नहीं है। सिर्फ विज्ञापन, प्रदर्शन ही प्रमुख  रह जाता है। बल्कि कल तक जो प्रेरणादायक था वह भी काफूर हो जाता है। वर्चुअल युग धूपबत्ताी के धुंए की तरह है। इसमें धूपबत्ताी की तरह चंद क्षण के लिए खुशबू महसूस कर सकते हैं किंतु धूपबत्ताी ज्यों ही खत्म हुई कुछ क्षण बाद उसकी खुशबू भी खत्म हो जाती है। यही इस युग की विशेषता है इस दौर में विचार ,इमेज, प्रस्तुतियां सिर्फ धूपबत्ताी की गंध की तरह ही आती हैं और क्षणभर में गायब हो जाते हैं। वर्चुअल क्षणिक वातावरण बनाता है। किंतु इस वातावरण में अहा! के अलावा कुछ भी नहीं होता। आह! और वाह !की शैली को ही, चौकाने वाली अथवा चकमक प्रस्तुतियों  को हमें विचारधारा का प्रचार समझने लगते हैं। 
     विचारधारा नकल नहीं है, विचारधारा प्रस्तुति नहीं है, प्रिफॉर्मेंश नहीं है। 1857 का संग्राम हमारे लिए प्रिफाफर्मेंश का, प्रस्तुति, का हिस्सा बन गया है, वह हमारे सामने है भी और नहीं भी। हम जितनी जल्दी उसे पेश कर रहे हैं उतनी ही जल्दी भूलते भी जा रहे हैं। वर्चुअल युग में स्मृति का स्थान बदल जाता है। अब स्मृति को लोगों के मन में, जीवन में नहीं  बल्कि सीडी,कैसेट,ऑडियो,प्रिंट में सुरक्षित कर लेते हैं। इसका परिण्ााम यह निकला है कि 1857 की स्मृतियां जितनी जल्दी आ रही हैं उतनी ही जल्दी जा रही हैं। कहने का अर्थ यह है कि हमारी स्मृति का पैराडाइम बदल गया है। वर्चुअल युग में 1857 का पाठ मौलिक पाठ नहीं होगा, नकल होगी,यह असल से भी सुंदर होगी। बाजार और भूमंडलीकरण को कोसने वालों को आज हम बाजार के तर्क के आधार पर 1857 से संवाद करते सहज ही देख सकते हैं।
     आज हमारे सामने 1857 का व्यापक विमर्श पेश किया जा रहा है, अनेक किस्म की व्याख्याएं पेश की जा रही हैं किंतु इस विमर्श  स्प्रिट वर्चुअल युग की है। ध्यान रहे किसी भी रूप अथवा अंतर्वस्तु अथवा परंपरा के किसी भी रूप की स्प्रिट अथवा मर्म वही होगा जो उस युग की प्रधान संचार तकनीक होगी। अब तक का सारा पाठ प्रिंट तकनीक के संदर्भ में निर्मित पाठ रहा है। किंतु भूमंडलीकरण, कम्प्यूटरीकरण और वर्चुअल तकनीक के आने के बाद प्रिंट का संदर्भ बदल गया है। इमेजों और अनुकरण की दुनिया का संसार 'फेक यूटोपिया' अथवा छद्म यूटोपिया का संदर्भ ग्रहण कर चुका है। इस संदर्भ में जब 1857 का पाठ पढ़ा जाएगा तो हम अपने अतीत को फैंटेसाइज कर रहे होंगे। उसका महिमामंडन कर रहे होंगे और वास्तव में 1857 पर हम यही कर रहे हैं। 'फेक यूटोपिया' को फैंटेसाइज करने के चक्कर में हम प्रामाणिक की प्रस्तुति पर जोर देने लगते हैं।परफेक्ट रूप में चीजें पेश करने लगते हैं। 1857 का भी परफेक्ट रूप सामने पेश किया जा रहा है। परफेक्ट अथवा प्रामाणिक पेश करने के चक्कर में हम यह भूल ही जाते हैं कि प्रामाणिक अथवा परफेक्ट की प्रस्तुति सामाजिक दुनिया की सीमाओं का अतिक्रमण कर जाती है। स्वयं का और कायिक यथार्थ का अतिक्रमण्ा कर जाती है। 
     अब हम ऐसे आख्यानों, विश्लेषण और आख्यानों से दो-चार होते हैं जो प्रामाणिक हैं अथवा प्रामाणिक होने का दावा  करते हैं। जाहिर है प्रामाणिक फैंटेसी का अंत सुखद होना चाहिए और वह अंत भी हमने खोज लिया है, प्रत्येक यही बता रहा है कि 1857 की सबसे बड़ी उपलब्धि हिन्दू-मुस्लिम एकता और साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष है। सवाल यह है कि क्या सेजर् ख्ैम्,  के युग में उन लोगों के साथ 1857 का उत्सव मनाया जा सकता है जिनके हाथों किसानों की जमीन छीनी गयी हो, किसानों की हत्या में जिनका हाथ हो। जिनकी आि‍र्थक नीतियों के कारण किसानों ने आत्महत्याएं की हों, किसान के अस्तित्व को जिन शक्तियों और दलों के द्वारा सबसे ज्यादा क्षतिग्रस्त किया गया है क्या उनके मंच से अथवा उनके धन (उन दलों द्वारा संचालित केन्द्र अथवा राज्य सरकारों के धन ) से 1857 का जश्न मनाया जा सकता है ? क्या यह संभव है कि भूमंडलीकरण के पक्षधरों और विरोधियों का 1857 को लेकर एक ही रूख होगा ?  1857 के संदर्भ में यह सवाल भी उठता है कि आखिरकार इस उत्सव को मनाने के लिए किनसे मदद लें ? क्या विज्ञापन किसी से भी लिया जा सकता है ? क्या ऐसे किसी भी एजेण्डे पर अंगुली नहीं उठानी चाहिए जिससे शासकवर्ग भी लाभ उठाना चाहता हो। ऐसा क्यों होता है कि हमारे देश का उत्पीड़क धर्मनिरपेक्ष शासकवर्ग जब भी कोई जयंती,शताब्दी समारोह आदि मनाना शुरू करता है धर्मनिरपेक्ष संगठन भी तुरंत उसी दिशा में सक्रिय हो जाते हैं ? क्या धर्मनिरपेक्ष -वाम संगठनों के उत्सव ,समारोह अलग समय पर नहीं हो सकते ? क्या इस प्रक्रिया में जाने-अनजाने धर्मरिपेक्ष संगठनों का उत्पीड़क धर्मनिरपेक्ष शासकवर्ग दुरूपयोग अथवा वैचारिक अपहरण तो नहीं कर रहा है ? क्या सरकारी प्रयासों को लांघकर स्वैच्छिक संगठन अथवा जनसंगठन अपनी कोई स्वतंत्र राय अथवा स्वतंत्र वातावरण का निर्माण कर पाएंगे ? जी नहीं, शासकवर्गों के साथ चलने में कमजोर का नुकसान होगा। 
           वर्चुअल युग में 1857 का पुनर्पाठ अथवा किसी भी चीज का पुनर्पाठ वैकल्पिक संतोष देने का काम करता है। वर्चुअल युग में 1857 का पुनर्पाठ पापुलर कल्चर का हिस्सा बनकर आ रहा है। यह पकी-पकायी सामग्री है अथवा स्टेंट सामग्री  के रूप में सामने आ रही है। अखबार,टीवी और पत्रिकाओं में प्रकाशित सामग्री को हमें पापुलर कल्चर के परिप्रेक्ष्य में रखकर ही पढ़ना चाहिए। 1857 का आख्यान ऐसा आख्यान है जिसकी आज के युग में कल्पना संभव नहीं है। यह ऐसे युग का आख्यान है जिसमें ज्यादातर लोगों के पास संभावनाओं और सुविधाओं का अभाव था। आज ऐसी स्थिति नहीं है। 1857 का आज आना प्रतीकात्मक है। सिम्बोलिक है। जब हम प्रतीकात्मक रूप में 1857 को पढ़ते,देखते हैं तो सारी चीजें इस तरह पेश की जाती हैं कि कोई धब्बा दिखाई न दे। 1857 के संग्राम को हमारे स्वाधीनता संग्राम की उमंगों और जोशभरी कहानी  के रूप में पेश किया जा रहा है। सवाल यह है कि यह किसान त्रासदी का महाख्यान है अथवा स्वाधीनता संग्राम का आख्यान है। यह किसानों की कुर्बानी का महाख्यान है अथवा सैनिकों की कुर्बानी का आख्यान है ? यदि इस रूप में देखेंगे तो 1857 का अब तक का बुनियादी पैराडाइम बदलेगा। 
   1857 का संग्राम जब लड़ा गया तब समाज संकटग्रस्त था, पुरानी व्यवस्था जर्जर हो चुकी थी,बेदम हो गयी थी। उस दौर में धर्म का भी क्षय हो रहा था और विज्ञान का उदय हो रहा था। आज विज्ञान के विकास ने सुंदर को अतिसुंदर बना दिया है,सुपरफलुअस बना दिया है। वर्चुअल युग पलायन अथवा स्केप का युग है। इस युग में मनुष्य प्रत्येक क्षेत्र में पलायन के फिनोमिना से दो-चार हो रहा है। पलायन के युग में महाख्यान ज्यादा आने लगते हैं, 1857 का भी महाख्यान के रूप में पुनर्पाठ पेश किया जा रहा है, संभवत: हिन्दी में किसी भी संग्राम पर इतनी व्यापक और मोटी पत्रिकाएं प्रकाशित नहीं हुईं जितनी 1857 के संग्राम पर हो रही हैं। जितनी मोटी पत्रिका उतना ही बड़ा आख्यान, इस क्रम में तरह-तरह से सामग्री पेश की जा रही है। इंटरनेट पर 1857 का आना असल में युग का अतिक्रमण है। अभी तक हमारे पास युगानुरूप अथवा युग से बंधी सामग्री थी,किंतु वर्चुअल ने 1857 को दीर्घजीवी आख्यान में रूपान्तरित कर दिया है। किताब और अखबार से ज्यादा लंबी उम्र है वर्चुअल तकनीक की। अब यह आख्यान सीमाओं में कैद नहीं है बल्कि देश की सीमाओं का अतिक्रमण कर रहा है। 
      आज देशज आख्यान ग्लोबल आख्यान बन गया है। अब यह आख्यान भारतीय सीमा तक सीमित नहीं है। पहले हमारी प्रिंट तकनीक सिर्फ अपनी संस्कृति और अपने लोगों तक संवाद करती थी किंतु नए युग का कम्प्यूटर यूनीवर्सल कोड में संवाद और संचार करता है। वह सभी संस्कृतियों और सभी राष्ट्रों के साथ संवाद करता है। 1857 का अब तक का आख्यान संस्कृति,राष्ट्र,प्रिंट तकनीक के संदर्भ में लिखा गया। किंतु नया आख्यान महासंस्कृति,ग्लोबल स्पेस और कम्प्यूटर तकनीक के संदर्भ में आ रहा है। इसके कारण 1857 के पुनर्पाठ का वही अर्थ और प्रभाव नहीं होगा जो प्रिंट युग में था। यह ऐसा युग है जिसमें मुक्त चयन की संभावना नहीं है। प्रशंसा पाना ही इसका लक्ष्य है। पहले 1857 का रूप प्रेस में देखा गया, फिर फोटोग्राफी और चित्रकला के जरिए देखा गया, उसके बाद फिल्म में आया, भारत एक खोज धारावाहिक ने उसे टीवी में जगह दी। अब वह इंटरनेट पर है। 
    1857 का आख्यान प्रत्येक मीडियम के अनुसार बदलता रहा है। उस आख्यान की सामाजिक,राजनीतिक भूमिका और प्रभाव भी इसके कारण प्रत्येक मीडिया में अलग-अलग हैं। क्या हम यह सोचने के लिए तैयार हैं कि वर्चुअल रियलिटी की तकनीक में 1857 की अर्थ-व्यंजना क्या पूर्व माध्यमों जैसी ही होगी ? यदि नहीं तो आखिरकार इस एक साल चलने वाले प्रचार अभियान का क्या असर होगा ? क्या 1857 बाजार-संस्कृति का अंग तो नहीं बन गया है ? आज 1857 कई किस्म के माध्यमों के जरिए हमारे जीवन में दाखिल हो रहा है। माध्यमगत मध्यस्थता ही है जो इसके चरित्र और प्रभाव को एक जैसा नहीं रहने देगी। कम्प्यूटर और प्रिंट तकनीक में बुनियादी अंतर है प्रिंट मीडिया था, कम्प्यूटर महामीडिया है। मीडिया के युग में रचा गया पाठ जब महामीडिया में निर्मित किया जाता है तो उसकी भूमिका बुनियादी तौर पर बदल जाती है। यह कांटेक्ट या संपर्क का युग है। इस युग में किसी भी चीज में विश्वास नहीं किया जा सकता। न यथार्थ ही विश्वासयोग्य होता है और न अनुकरण ही विश्वासयोग्य होता है। अब तो प्रत्येक चीज प्रतीक में तब्दील हो चुकी है और 1857 भी प्रतीक बन गया है। अब प्रत्येक चीज सिर्फ साइन और सिर्फ साइन (प्रतीक) है।यहां भेद करना संभव नहीं है।यह एक किस्म की रूढिबध्दता भी है। 1857 का आम लोगों पर क्या असर होगा,यह इस बात पर निर्भर करता है कि वे कैसे देखते हैं , क्या देखते हैं,कैसा महसूस करते हैं और कैसे जानते हैं। इससे यह भी निकलेगा कि यथार्थ कैसा है और आप उसे कैसे जानना चाहते हैं। 
      'सेल' के युग में इतिहास भी अन्य वस्तुओं की तरह बिकाऊ होता है। इसके आधार पर हम कमीशन और रियायतें मांगते हैं। वर्चुअल युग में इतिहास की यात्रा क्यों करते हैं ? क्या इतिहास को जानने या बताने अथवा बदलने के लिए अथवा कोई और कारण है। असल में वर्चुअल युग में इतिहास हमारे लिए 'आकर्षण' की चीज होता है। ज्ञान की नहीं। सामाजिक परिवर्तन अथवा प्रेरणा के लिए इतिहास के पास नहीं जाते बल्कि 'आकर्षण' के कारण जाते हैं। वर्चुअल युग 'आकर्षण' का युग है। जब 'आकर्षण' होता है तो चीजों का जल्दी लोप हो जाता है। हमारे स्वाधीनता संग्राम की चेतना का पूरी तरह लोप हो चुका है।  उसकी प्रासंगिकता को लोग भूल चुके हैं ऐसे में हमें इतिहास 'आकर्षित' करता है। 'आकर्षण' का तत्व तब ही प्रबल होता है जब जीवन की अर्थवत्ताा का बोध घटने लगता है। जीवन की अर्थवत्ताा के लोप के पीछे सबसे बड़ा कारण है असभ्यता का प्रसार। अब हम इतिहास को खासकर स्वाधीनता संग्राम के इतिहास को फिल्म के जरिए देख रहे हैं। विज्ञापन के जरिए देख रहे हैं, धारावाहिकों के जरिए देख रहे हैं। यानी हमारे स्वाधीनता संग्राम का संदर्भ अब इलैक्ट्रोनिक मीडिया है, किताबें कम ही संदर्भ के रूप में इस्तेमाल की जा रही हैं। अभी तक हमने जो इतिहास पढ़ा था वह निर्मिति था और इसके आधार पर अब हम स्वाधीनता संग्राम को देख रहे हैं, यानी निर्मिति की निर्मिति को देख रहे हैं। 
     यह मीडियाजनित स्वाधीनता संग्राम है। इसी अर्थ में यह 'फेक यूटोपिया' है। मीडियाजनित स्वाधीनता संग्राम विभ्रम की सृष्टि करता है। आलोचनात्मक दूरी बनाता है। मीडिया में प्रस्तुत 1857 का संग्राम अंतत: संग्राम की चेतना का विनिमय नहीं करेगा अपितु पैसे के साथ विनिमय करेगा। यह लाभ या मुनाफे का उत्पादन करेगा। क्योंकि यह बिकाऊ है और हम जाने-अनजाने बाजार के तर्क के आधार पर उसे बेच रहे हैं। हो सकता है इस बात को लेकर वामपंथी दोस्त नाराज हो जाएं किंतु सच यही है कि 1857 का 150वां जश्न पूरी तरह स्पांसरशिप पर टिका है। प्रायोजकों और विज्ञापनदाताओं पर टिका है। सरकार की आर्थिक मदद पर चल रहा है। ऐसे में इसके विचारधारात्मक प्रभाव की बात नहीं की जानी चाहिए। केन्द्रसरकार और पूंजीपतिवर्ग की प्रधान चिन्ता है कि किसान और मजदूर के हितों को एजेण्डा बनाने के अलावा आप किसी भी विषय पर स्पांसरशिप, विज्ञापन आदि मांगेगे वह तुरंत मिल जाएगा।
     मौजूदा वर्चुअल युग में कोई भी आन्दोलन,विमर्श अथवा मूल्यांकन अथवा अब सिर्फ संप्रेषण और प्रदर्शन के लिए होता है। विचारधारात्मक प्रभाव पैदा करने के लिए नहीं। साधारण लोगों को वैचारिक आधार पर गोलबंद करने के लिए नहीं। अब विचार प्रेरक की भूमिका अदा नहीं करते। वर्चुअल युग विचारों की धुलाई,सफाई,प्रसार को खत्म कर देता है, विचारों जंग लगने लगती है इसीलिए कहा गया था कि यह विचारों की विदाई का युग है। विचारधारा के अंत का युग है। जो लोग कहते हैं कि विचारधारा का लोप नहीं हुआ है तो सवाल किया जाना चाहिए कि आज क्या हमारे पास विचारधारा के आधार पर अंतर करके अपनी बात कहने की क्षमता बची है ? क्या 1857 के संग्राम का कांग्रेस का मूल्यांकन और वामपंथी बुध्दिजीवियों का मूल्यांकन हमारे जेहन में अथवा प्रचार में अंतर पेश कर रहा है ? क्या इस अंतर को हम देख सकते हैं ? ऐसा क्यों हैं कि शासकवर्ग और प्रतिवादी वर्गों की विचारधारा का अंतर इस संग्राम को लेकर धुंधला पड़ गया है। क्या 1857 की विरासत का कांग्रेस,वामपंथ, भाजपा आदि के लिए एक ही अर्थ है ? क्या यह विरासत तीनों के काम की है ? क्या बाजार की शक्तियों को जो लाभ इससे हो सकता है उसके बारे में हमने कभी सोचा है ? 
     सच तो यह है कि वर्चुअल अवस्था के कारण विचारधारात्मक अंतर पहचानना मुश्किल हो गया है। वास्तव और कृत्रिम का अंतर खत्म हो गया है। समझ में नहीं आता कि अर्जुन सिंह के लिए 1857 की विरासतलाना चाहते हैं या नामवरसिंह के लिए ? क्या दोनों का विरासत को हासिल करने का मकसद एक ही है ? क्या कांग्रेस और कम्युनिस्टों के लिए 1857 की विरासत का एक ही अर्थ है ? क्या जाने-अनजाने ये दोनों ही एक ही लक्ष्य के लिए 1857 का महिमामंडन नहीं कर रहे ? असल में वर्चुअल ने वास्तव अंतरों को मिटा दिया है। हमें ध्यान रखना होगा 'पावर' में जो लोग हैं उनके लिए विरासत का जो अर्थ है वही अर्थ उनके लिए नहीं है जो सिर्फ 'भूमिका' अदा कर रहे हैं।अथवा शक्तिहीन हैं। 1857 का वर्चुअल में इतिहास की बजाय 'सूचना' में रूपान्तरण हो चुका है। 'घटना' में रूपान्तरण हो चुका है। इस तरह के रूपान्तरण की प्रक्रिया में 1857 के चिन्हों को सहज ही देखा जा सकता है। इतिहास के ब्यौरे अब 'सूचना' अथवा 'डाटा' में तब्दील हो चुके हैं। इतिहास अब 'डाटा' बन गया है। सबसे पहले शब्दों में 1857 आया, फिर चित्रों में आया किंतु इस बार वर्चुअल में आने के लिए उसे कोड में रूपान्तरित करना पड़ा है। यह यूनीकोड है। अभी जितने भी लेख अथवा किताबें हम 1857 पर देख रहे हैं वे कम्प्यूटर से गुजरकर हम तक पहुँच रहे हैं, कम्प्यूटर की भाषा शब्दों और छवियों की नहीं बल्कि बिंदुओं की भाषा है,बाइट्स की भाषा है। कोड में जब आप अपनी बात कहते हैं तो उसका साइड इफेक्ट नहीं होता। कोड की दुनिया का मंत्र है चुपचाप समर्पण करो। इलैक्ट्रोनिक संप्रेषण पेसिव होता है। वर्चुअल तकनीक ने हमारी जागरूकता में इजाफा किया है साथ ही यथार्थ से अलगाव को भी बढ़ाया है,ऐतिहासिक दृष्टिकोण के साथ अन्तर्विरोध तेज किया है। 
       बाइट्स के रूप में जब बोलते हैं तो आपकी कोई पहचान नहीं होती। इस अर्थ में देखें तो 1857 का आज का पाठ हिन्दी जाति की अस्मिता के साथ नहीं जोड़ता बल्कि अस्मिता को और भी दुर्लभ बना देता है। 1857 का अब तक का पाठ 'समय' अथवा 'टाइम' के संदर्भ में लिखा गया है किंतु आज हम 'टाइम' के संदर्भ में नहीं जी रहे बल्कि वर्चुअल टाइम में जी रहे हैं। यानी हम प्राचीन युग की संभावनाओं को चाहें तो खोज सकते हैं,पुनर्निमित कर सकते हैं। 1857 को जब 'घटना' के रूप में देखते हैं अथवा किसी भी चीज को घटना के रूप में देखते हैं तो देरीदा के शब्दों में इसका प्रबंधन नहीं कर सकते ,इसे नष्ट नहीं कर सकते,अस्वीकार नहीं कर सकते। यह अनुभव का ही एक रूप है। यह 'अन्य' का अनुभव है। 'घटना' की विशेषता होती है कि उसे आप किसी अवधारणा में नहीं बांध सकते। अथवा किसी व्यक्ति में भी नहीं बांध सकते। 'वह है' अथवा 

' कुछ न रहने से अच्छा है, कुछ न कुछ रहना।' यह बात घटना के अनुभव से ही निकलती है। घटना के व्यक्तियों से नहीं। घटना जब घट रही है तो आप उसे रोक नहीं सकते। यह भविष्य का एक और नाम है। यह अच्छा है ऐसी बात नहीं है, घटना को तब तक नहीं रोकते जब तक कि आपको यह विश्वास रहता है कि इससे भविष्य में कोई नुकसान नहीं होगा। घटना को तब भी घटने से रोकते हैं जब वह मौत का खतरा पैदा कर देती है। अथवा जब घटना स्वयं घटना पैदा होने की संभावना खत्म कर देती है तब भी आप उसे घटने नहीं देते। कहने का तात्पर्य यह है कि 'घटना' के रूप में पेश करने से संभावना के द्वार खुले रहते हैं। मसीहाई स्पेस खुला रहता है। देरीदा की इस धारणा की रोशनी में देखें तो 1857 का घटना के रूप में पेश किया जाना भविष्य की संभावनाएं पैदा कर रहा है। इसे किसी एक अवधारणा में बांधना संभव नहीं हो पा रहा है। यही वजह है कि सन् 1857 को कोई 'प्रथम स्वाधीनता -संग्राम' तो कोई 'सिपाही विद्रोह',तो कोई 'सन् सत्ताावन की राज्य क्रांति', 'बगावत' ,'युध्द' ,महान् जन-क्रांति आदि की धारणा में बांधकर पेश कर रहा है। यानी इसे एक अवधारणा में बांधना संभव नहीं हो पा रहा है। सामान्यत: जिसे सम्बोधित करना होता है उसका पता नहीं होता। इसके अलावा घटना में उम्मीदें छिपी होती हैं।

 1857 के संग्राम का सबसे मुश्किल परिणाम है  राष्ट्रवाद और 'राष्ट्रीयता'। सभी रंगत की विचारधाराएं इसमें आकर शरण लिए हुए हैं। इसमें वाम से लेकर दक्षिण तक की विचारधाराओं को अपने अनुरूप पाठ मिल गया है। 'राष्ट्रवाद' का इतना लोचदार और बहु-विचारधारात्मक रूप स्वयं में इस तथ्य की तरफ ध्यान खींचता है कि राष्ट्रवाद में कुछ भी शामिल हो सकता है। राजाओं के लिए सल्तनत के हित प्रमुख थे उसके परिणामस्वरूप वे राष्ट्रवादी थे, किसान अपने शोषण और उत्पीडन से परेशान थे इसलिए वे लड़ रहे थे,सिपाही अपने कारणों से राष्ट्रवादी थे। वहीं पर इस संग्राम में हिन्दू और मुसलमान वाला तत्व भी था, इसके कारण राष्ट्रवाद में साम्प्रदायिक सद्भाव भी चला आया। कालान्तर में वामपंथियों को भी इसमें अपने अनुकूल राष्ट्रवाद नजर आने लगा तो वे भी इस राष्ट्रवाद की ट्रेन में सवार हो गए। 1857 में जो लड़ रहे थे उनका ईस्ट इंडिया कंपनी से विरोध था,संघर्ष था, किंतु वे इंग्लैंड के विरोधी नहीं थे। सवाल यह है कि क्या राष्ट्रवाद में सभी रंगत की विचारधाराओं का समावेश करना सही होगा ? क्या राष्ट्रवाद में साम्प्रदायिक सद्भाव को रखा जा सकता है ? क्या 1857 के मूल्यांकन पर राष्ट्रवाद के तहत विचारधारागत महागठबंधन बनाना वैज्ञानिक होगा ? आप जब अतीत का मूल्यांकन करते हैं तो क्या कठमुल्ले भाव से करते हैं ? अथवा वैज्ञानिक आधार पर करते हैं ? कुछ लोग ऐसा भी मानते हैं कि 1857 का संग्राम 'राष्ट्रीय जागरण्ा' था। सवाल यह है कि क्या राष्ट्रवाद,राष्ट्रीय जागरण, रैनेसां अथवा जन-क्रांति कहकर हम उसी बात की पुष्टि कर रहे हैं कि 1857 को किसी एक धारणा में बांधना संभव नहीं है। इससे भी बड़ी समस्या यह है कि क्या इन सब धारणाओं को एक ही घटना में शामिल करना तार्किक होगा। 
           असल बात यह है कि 1857 हमारे लिए एक घटना है और उसे हमने घटना के रूप में देखा है। 1857 के जमाने के अखबारों की रिपोर्टिंग की भी व्याख्याएं आ रही हैं। तत्कालीन अखबारों के लिए भी यह 'घटना' ही था। 1857 के मूल्यांकन को लेकर कई रूप प्रचलन में हैं, मूल्यांकन की पहली कोटि में लेखक आते हैं, इनमें सामयिक लेखक और बाद पैदा हुए लेखकों का 1857 संबंधी मूल्यांकन और चित्रण रखा जाना चाहिए। दूसरा वर्ग इतिहासकारों का है। तीसरा वर्ग अंग्रेज विचारकों का है। चौथा वर्ग मीडिया का है। इसमें सामयिक मीडिया से लेकर कालान्तर में बनी फिल्मों और मीडिया प्रस्तुतियों को लिया जा सकता है।  पांचवां वर्ग स्त्रियों का है। इनमें वे औरतें शामिल हैं जो अंग्रेजों से जुड़ी हुई थीं और वे औरतें भी हैं जो गैर-अंग्रेज तबके की थीं। इन पांचों कोटि के मूल्यांकनों में एक चीज साझा है वह है अंग्रेजों की अमानवीयता,बर्बरता और जुल्म।साथ ही अंग्रेज औरतों ने अपनी दुर्दशाग्रस्त अवस्था का भी जिक्र किया है। यहां हम सुविधा के लिए सिर्फ मिर्जा गालिब के 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम से संबंधित विचारों के मूल्यांकन तक ही सीमित रखेंगे। 




तकनीक के युग में समाज जितनी तकनीक विकसित करता है उतना ही तकनीक समाज को विकसित करता है। 1857 के संग्राम को लेकर दो तरह के संचार मॉडल प्रयोग में लाए गए हैं। वह मॉडल वह है जो टीवी और इंटरनेट के जरिए लागू किया गया है। इसके तहत 1857 के आलेखों को इंटरनेट पर उपलब्ध कराया गया है, चैनलों पर बहस हुई है, विज्ञापन दिखाए जा रहे हैं। मेरठ में जनवादी लेखक संघ ने जो कार्यक्रम किया था उसकी डीडी के राष्ट्रीय नेटवर्क से संपादित रिकॉर्डिंग दिखाई गयी। अनेक पत्रिकाओं के विशेषांक आए। इसे ट्रांसमीशन मॉडल के तहत रखा जा सकता है। इस पक्ष पर संचार का एक अन्य मॉडल लागू किया गया जिसे परंपरागत संचार का मॉडल कह सकते हैं जिसके तहत गोष्ठियां हुई हैं। सभाएं हुई हैं। सूचनाओं को बांटा गया है, लोगों को शिरकत के लिए उद्बुध्द किया गया है। कार्यक्रमों से जुड़ने के लिए कहा गया।यह दरशाने की कोशिश की गई कि इन कार्यक्रमों में शिरकत करने वालों के साझा विचार थे। साझा लक्ष्य थे। ये दोनों ही संचार मॉडल एक दूसरे के पूरक हैं। हमें देखना होगा कि इन दोनों मॉडलों को लागू करते हुए इसके परिणाम क्या निकले ? क्या इन दोनों मॉडलों ने कोई उत्पादक भूमिका अदा की ? क्या 1857 के बारे में जिन सूचनाओं का प्रसारण किया गया है उनसे संपर्क बढ़े ? 1857 पर और ज्यादा कार्यक्रम हुए ? क्या और ज्यादा सामाजिक गतिविधियों का जन्म हुआ ? यदि गतिविधियों में बढ़ोतरी नहीं होती है तो समझना चाहिए हमारे संप्रेषण में कहीं पर कमी रह गयी। हमें देखना होगा कि कितने युवा इन गतिविधियों में आए और कितने युवाओं ने इंटरनेट पर 1857 से संबंधित सामग्री का अध्ययन किया ?

   जब हम लिखते हैं तो शब्दों का ख्याल रखते हैं, उनकी केयर करते हैं और असली खतरा तब ही शुरू होता है जब आप शब्दों की केयर करनी शुरू करते हैं। शब्द को लिखते हुए आप उसे निष्कर्ष तक पहुँचाना चाहते हैं। शब्द को अर्थ प्रदान करते हैं। शब्द मानव सभ्यता की सबसे बड़ी सौगात हैं और सबसे बड़ा खतरा भी हैं। आज हमारा लिखना बदल गया है। अब हम कम्प्यूटर पर लिखते हैं। क्लिक करते ही शब्द आनेशुरू हो जाते हैं। पहले  हाथ-कलम से लिखने में जो आनंद आता था वह आनंद हठात् कम्प्रूटर के वर्उ प्रोसेसर में लिखने से नहीं मिलता बल्कि एक अलग किस्म की अनुभूति होती है। पहले हम शब्दों को देखकर आनंदित होते थे। उसके अनुकरण में मजा लेते थे। आज भिन्ना स्थिति है। आज लेखन आनंद नहीं करता बल्कि स्थिर सौंदर्य बोध पैदा करता है। 
    वर्ड प्रोसेशर ने शब्द की स्वायत्ता शक्ति को मजबूत बनाया है। यह शक्ति नयी नहीं है बल्कि यह तो उसके पास पहले से ही थी, पहले यह शक्ति अदृश्य थी आज दृश्य है। पहले सोचते थे फिर लिखते थे। अब सोचते हुए लिखते हैं। सोचने की गति और उसे अभिव्यक्त करने की गति में गुणात्मक तौर पर बदलाव आया है। स्वचालित चिन्तन और लेखन की प्रक्रिया को इसने तेज किया है। पहले लिखते समय हम शब्दों को बुलाते थे अब शब्द हमें बुलाते हैं। संपादन की प्रक्रिया आज ज्यादा आसान हो गयी है। शब्द हमारी आंख,कान और हाथ का काम करने लगे हैं। पहले चीजें तैयार करके देनी होती थीं। अब देनी नहीं होतीं, बल्कि तैयार होते ही आप उन्हें भेज सकते हैं। कम्प्यूटर का सबसे बड़ा अवदान यह है कि उसने शब्द को चिन्तन से पृथक् कर दिया है। शब्दों का अब आप मनमाने ढत्रंग से जैसे इच्छा हो इस्तेमाल कर सकते हैं। इधर-उधर कर सकते हैं। ऊपर नीचे कर सकते हैं। अब शब्द के इस्तेमाल के लिए न्यूनतम सोचने की जरूरत पड़ती है। न्यूनतम श्रम करना पड़ता है। अब शब्दों की सुंदर व्यवस्था का काम मशीन ने अपने जिम्मे  ले लिया है। पहले किसी भी शब्द के अर्थ के लिए सोचना पड़ता था अब आपको सोचने की जरूरत नहीं है उसका भी समाधान कम्प्यूटर में है। शब्द के किसी भी किस्म के अर्थ के लिए यह जरूरी है कि आपकी डिक्शनरी मदद कर देगी और यह कम्प्यूटर में ही उपलब्ध है। आप पाएंगे कि कम्प्यूटर जितना सक्रिय है उतना कोई समझदार व्यक्ति भी सक्रिय नहीं है। कम्प्यूटर में शब्द का परफेक्शन इसलिए भी नजर आता है क्योंकि शब्दों ने अपने को अर्थ से पूरी तरह मुक्त कर लिया है। औपचारिक भाषा के सभी रूपों और अंतर्वस्तु का पूरी तरह लोप हो गया है। कम्प्यूटर में जब आप शब्द का प्रयोग करते हैं तो एकदम भिन्ना किस्म की भाषा का प्रयोग करते हैं यह हमारी औपचारिक भाषा नहीं है। इस भाषा को कम्प्यूटर में सहज भाव से लागू नहीं किया जा सकता। अब हमारी भाषा और चिन्तन प्रक्रिया ज्यादा अमूर्त और खोखली हो गयी है। अब हमारे लिए इसके खोखलेपन और सतहीपन  को छिपा सकते हैं। आज कम्प्यूटर के द्वारा पाठ का दुरूपयोग बहुत आसानी से किया जा सकता है। अब शब्दों के बादलों में चिन्तन गायब हो गया है। अब हम शब्दों की पेसिव दुनिया में हैं जिसमें शब्दों को परंपरागत ढ़ंग से एक सांस्कृतिक रसायन में लपेटकर पेश कर दिया जाता है। 

शब्दों को यांत्रिक तौर पर लागू कर देते हैं और यांत्रिक तौर पर ही उसे पढ़ते हैं। पहले शब्दों पर जासूसी नहीं होती थी। किंतु आज ऐसा नहीं है। आज कम्प्यूटर आप पर नजर रखता है। वर्ड प्रोसेसिंग ने शब्द और चिन्तन में पूर्ण विभाजन कर दिया है। ऐसी अवस्था में शब्द का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। अब आप लाख लिखिए कि स्वाधीनता संग्राम में क्या-क्या हुआ ? 1857 में क्या हुआ ? अब शब्द अपने अर्थ से जुदा हो चुका है। अथवा यह भी कह सकते हैं कि शब्द ने कम्प्यूटर के माध्यम से अपना अर्थ अभिव्यक्त करना बंद कर दिया है। इसके बावजूद शब्दों को हम कम्प्यूटर में जीवंत भूमिका अदा करते देख सकते हैं।शब्द को सूचना में, फोटो में तब्दील होते देख सकते हैं। मैं यहां शब्द की बदलती भूमिका के बारे में जो बातें कर रहा हँ इन बातों को यूजर के नजरिए से नहीं कर रहा है। बल्कि पाठ के 'पढ़ने' , 'समझने' और बौध्दिक दुरूपयोग के संदर्भ में कर रहा हूँ।

मिर्जा गालिब और 1857 का स्वाधीनता संग्राम

          गालिब ने 1857 के बारे में 'दस्तम्बू' नामक कृति लिखी । फारसी में लिखी इस पुस्तिका को सन् 1858 में महारानी विक्टोरिया को भेजा गया था, यह पुस्तिका 'अफकार' (कराची से प्रकाशित) अखबार में उर्दू में छपी थी उसका हिन्दी अनुवाद हंसराज रहबर की किताब 'गालिब बेनक़ाब' (1970,दिशा प्रकाशन,दिल्ली) में परिशिष्ट में उपलब्ध है। यह पुस्तिका गालिब के बारे में कई भ्रमों को तोड़ती है। इस किताब में 1857 और उसके तत्काल बाद का विवरण मौजूद है।  गालिब ने लिखा  मेरी करूण कहानी तुम्हारे नजदीक एक किस्सा है और बस। पर इसको सुनकर सितारों की आंखों में लहू के आंसू जारी हो जाएंगे। तकरीबन इससे मिले-जुलते विचार कार्ल मार्क्‍स के भी थे। कार्ल माक्र्स ने 'न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून में ' भारतीय विद्रोह' शीर्षक लेख में लिखा 

विद्रोही सिपाहियों द्वारा भारत में किए गए अनाचार सचमुच भयानक,वीभत्स और अवर्णनीय हैं। ऐसे अनाचारों को आदमी केवन विप्लवकारी युध्दों में,जातियों, नस्लों और सबसे अधिक धर्म के युध्दों में देखने का ख्याल मन में आ सकता है। भारतीय विद्रोह का आरंभ अंग्रेजों द्वारा पीड़ित ,अपमानित तथा नंगी बना दी गयी रैयत ने नहीं किया, बल्कि उनके द्वारा खिलाए,पिलाए वस्त्र पहनाए,दुलराए,मोटे किए और बिगाड़े गए सिपाहियों ने ही किया है। कार्ल माक्र्स ने यह भी लिखा इस दुखद संकट काल में भी यह सोच लेना भयानक भूल होगी कि सारी क्रूरता सिपाहियों की ही तरफ से हुई है और मानवीय दया करूणा का सारा दूध अंग्रेजों की तरफ बहा है। गालिब ने लिखा कुछ क्रुध्द शेरों(अंगेजों) ने शहर में दाखिल होते ही निहत्थे लोगों को कत्ल करना और मकानों को जलाना उचत समझा। गालिब ने यह भी लिखा मैं जानता हूँ कि इस लड़ाई में हुक्म यह है कि जो व्यक्ति आत्म समर्पण कर दे, उसकी हत्या न की जाए, माल छीन लिया जाए। और जो व्यक्ति मुकाबला करे,माल के साथ-साथ उसके प्राण भी छीन लिए जाएं। कत्ल होने वालों के बारे में ख्याल यह है कि उन्होंने आत्म समर्पण नहीं किया। इसी कारण उनका कत्ल कर दिया गया। शहजादों के बारे में लिखा शहजादों के बारे में इससे अधिक कुछ भी नहीं कहा जा सकता कि कुछ को गोली मार दी गई। मौत के अजदहे ने उनको निगल लिया। कुछ की गर्दन में फांसी का फंदा ड़ाल दिया गया और इससे उनकी रूह ठिठर कर रह गयी। कुछ विक्षुब्ध मन कैदखाने में हैं और कुछ इधर-उधर आवारा और परेशान फिर रहे हैं। बूढ़े और दुर्बल बादशाह पर मुकदमा चल रहा है। ऐसी अवस्था में गालिब की दशा थी, अब मकान के कोने में वे सरो-समान बैठा हुआ हूँ। कलम मेरा साथी है। आंखों में आंसू बहते हैं और कलम से दर्द -भरे शब्द टपकते हैं,मैं बिल्कुल निर्धन और दरिद्र हूँ। खुदाबंद! कब तक यह सोच-सोचकर खुश होता रहूँगा कि ये जवाहर मेरी ही खान के हैं।

        अंग्रेजों के जुल्मो-सिमत की पुष्टि कार्ल माक्र्स की कलम से भी होती है। माक्र्स ने लिखा  इलाहाबाद से सिविल सर्विस का एक अफसर लिखता है, 'हमारे हाथ में जिन्दगी और मौत की ताकत है और हम तुम्हें यकीन दिलाते हैं कि उसका इस्तेमाल करने में कोताही नहीं करते। वहीं से एक दूसरे अफसर ने लिखा  कोई दिन नहीं जाता जब हम उनमें से (न लड़ने वाले लोगों में से) 10-15 को लटका न देते हों। एक अन्य अफसर ने प्रसन्ना होकर लिखा  होम्स एक 'बढ़िया' आदमी की तरह उनमें से 20-20 को एक साथ फांसी पर लटका रहा है।  एक अन्य अफसर ने लिखा  घोड़ों पर बैठे-बैठे ही हम अपने फौजी फैसले सुना देते हैं।,और जो भी काला आदमी हमें मिलता है,उसे या तो लटका देते हैं -या गोली मार देते हैं।  बनारस के एक अफसर का 'टाइम्स' अखबार में एक पत्र छपा था। पत्र में अफसर लिखता है , हिन्दुस्तानियों से सामना होने पर योरोपियन सैनिक शैतान की तरह पेश आते हैं। उस जमाने में ब्रिटिश समाचारपत्रों में छपने वाली रिपोर्टों की प्रकृति की व्याख्या और असलियत को उद्धाटित करते हुए लिखा  यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अंग्रेजों की क्रूरताएं सैनिक पराक्रम के कार्य के रूप में बयान की जाती हैं,उन्हें सीधे-सादे ढ़ंग से, तेजी से उनके घृणित ब्यौरों पर अधिक प्रकाश डाले बिना बताया जाता है,लेकिन हिन्दुस्तानियों के अनाचारों को, यद्यपि वे खुद सदमा पहुँचाने वाले हैं। जान बूझकर और भी बढ़ा-चढ़ाकर बयान किया जाता है। उदाहरण के लिए दिल्ली और मेरठ में किए गए अत्याचारों की परिस्थति के उस विस्तृत वर्णन को जो सबसे पहले 'टाइम्स' में छपा था और बाद में लंदन के अखबारों में भी निकला था -किसने भेजा था ? बंगलौर,मैसूर में रहने वाले एक पादरी -जो एक सीध में देखा जाय तो घटनास्थल से एक हजार मील से भी अधिक दूर था। दिल्ली के वास्तविक विवरण बताते हैं कि एक अंग्रेज पादरी की कल्पना  हिन्द के किसी बलबाई की कल्पना की उड़ानों से भी अधिक भयानक अत्याचारों को गढ़ सकती है। 

'दस्तम्बू' में गालिब ने सन् 1857 के विद्रोह को 'हंगामा' कहा, अंग्रेजों को व्यंग्य में 'न्यायशील' और 'आजाद और भले लोग ' कहा था। साथ ही उनके जुल्मोसितम का वर्णन किया था। अंग्रेजों के प्रति वफादारी व्यक्त करने के बावजूद उनकी दरिद्रता दूर नहीं हुई। लिखा बिस्तर और कपड़े बेच-बेचकर जिस्म और जान को एक साथ रख रहा हूँ। गोया दूसरे लोग रोटी खाते हैं,मैं कपड़े खाता हूँ। डरता हूँ कि जब सारे कपड़े खा चुकूंगा तो नंगा-भूखा मर जाऊँगा। यह भी लिखा निश्चित रूप से इस संघर्ष का अंत या तो मौत है या भीख मांगना। गालिब अपनी बेबाकी के लिए जाने जाते हैं, बेबाक अभिव्यक्ति के साथ उन्होंने कभी समझौता नहीं किया, यही वजह है कि वे अंग्रेजों के प्रति वफादार होने के बावजूद सत्य को व्यक्त करने में कहीं पर भी नहीं चूके। गालिब ने लिखा जब यह दास्तान दोस्तों के हाथों में आए तो वे समझ लें कि शहर मुसलमानों से खाली है। रातों को इन लोगों के घर चिरागों और दिन को दीवारों में सुराख धुंए से वंचित रहते हैं। गालिब जिसके हजारों दोस्त थे और हर घर में परिचित मौजूद थे ,इस तन्हाई में कलम के सिवा कोई उसका हम जुबान और अपनी परछाई के अलावा कोई साथी नहीं है। इस तरह के विवरण प्रस्तुत करते हुए गालिब ने यथार्थ और सत्ताा के अन्तर्विरोधों को तो पेश किया ही है साथ बताया है कि लेखक के लिए सत्ताा की वफादारी से भी ज्यादा महत्व यथार्थ की बेवाक अभिव्यक्ति का है। इस अन्तर्विरोध को हल करते हुए गालिब की सत्ताा के प्रति वफादारी पीछे छूट जाती है और क्रूरतम यथार्थ सघनता के साथ उभरकर सामने आ जाता है। गालिब किसी के तरफदार नहीं होना चाहते ,वे जुल्म करने वाले अफसर का जिक्र भी नहीं करते बल्कि बगैर नाम लिए जुल्मों का वर्णन करते हैं। इसी तरह राजाश्रय में रहने के बावजूद राजा या सामंती व्यवस्था या ब्रिटिश सत्ताा को अपनी कलम पर हावी नहीं होने देते। गालिब की सत्ताा के प्रति वचनबध्दताओं का उनके रचनात्मक कर्म पर न्यूनतम असर है। तभी तो वे उम्मीद करते हैं कि यह 'दस्तम्बू' इंसाफ पसंद लोगों के हाथों रंगो-बूल का गुलदस्ता होगी और शैतान-फितरत लोगों की निगाह में आग की गेंद। गालिब ने विक्टोरिया की तारीफ में कसीदा लिखा था,उसे इंग्लैंड भेजा था। किंतु वह वापस आ गया था। इस पर गालिब ने 'दस्तम्बू' में लिखा मैंने भी सोचा कि गड़बड़ के इन हालात में स्नेह,प्रेम और प्रसन्नाता की क्या गुंजायश ! मैं तो पेट का बंदा हूँ ,मुझको तो रोटी चाहिए। 1857 के संग्राम के समय और उसके बाद गालिब ने अपने दोस्तों को अनेक पत्र लिखे थे ,उनमें दिल्ली का जो दृश्य सामने आता है वह दिल दहलाने वाला है। यहां कुछ अंशों का जिक्र करना जरूरी है। गालिब ने लिखा मैं अपने घर में बैठा हूँ। दर्वाजे से बाहर नहीं निकल सकता। सवार होना और कहीं जाना तो दूर की बात है। रहा यह कि कोई मेरे पास आवे! शहर में है कौन जो आवे ?घरके घर बेचिराग पड़े हैं। (दिसम्बर 1857) खुदा की क़सम ! ढँढ़ने पर मुसल्मान इस शहर में नहीं मिलता, क्या अमीर, क्या गरीब, क्या कारीगर अगर कुछ हैं तो बाहरके हैं। हिन्दू जरूर कुछ बस गए हैं। अभी देखना चाहिए,मुसलमानों की आबादी का हुक्म होता है या नहीं। ( 5दिसम्बर1857)

    तुम हर्गिज यहाँ आनेका इराद: न करना। अमीर गरीब सब निकल गए।जो रह गए वह निकाले गए, जागरीदार,पेंशनदार वगैर: कोई भी नहीं है। मुफ़स्सिल हाल लिखते हुए डरता हूँ। क़िलअके नौकरों पर कड़ी नजर है। इन लोगों की पूछ कुछ ज्याद: है और इनकी धर-पकड़ हो रही है। फ़ौजी इन्तिजाम 11 मई से आज यानी 5 दिसम्बर तक बराबर जारी है। (5 दिसम्बर 1857)

     'दस्तम्बू' को पढ़ते समय उन पदबंधों और केटेगरी का ख्याल रखा जाना चाहिए जो गालिब इस्तेमाल करते हैं। गालिब ने यह कृति असहाय अवस्था में और अनुकम्पा की आकांक्षा में लिखी है। यह किताब नहीं है बल्कि डायरी है। एकदम नितान्त निजी अभिव्यक्ति। 
          1857 के विद्रोही सिपाहियों के प्रति लेखक की कोई सहानुभूति नहीं है। किताब का पहला हिस्सा ज्योतिष और भाग्यवाद के रूपकों से भरा हुआ है। गालिब ने किस अवस्था में इस किताब को लिखा था, उसका वर्णन करते हुए लिखा  मैं जो जमाने के हाथों असाध्य दुख उठा रहा हूँ ,यह मुनासिब समझता हूँ कि इस धरती पर बसने वाले ,जिन्होंने मेष राशि को नहीं देखा है और जो मंगल और शनि के नाम ही से परिचित है, अनसुनी और अनदेखी बातों में न उलझें बल्कि यह समझ लें कि जमाने ने जिसके सीने में अतीत और भविष्य के रहस्य सुरक्षित हैं और भले लोगों के काम को बिगाड़ना उसकी पुरानी आदत है,यह पसंद न किया कि फिरंगी बुध्दिमानों को किसी गैर-फौज के हाथ से हानि पहुँचाए, बल्कि उसने इसी गिरोह की हर तरह (फैली हुई) फौजों को उन्हीं पर आक्रमण के लिए भेज दिया। इस उध्दरण में लेखक की स्वीकारोक्ति है कि  मैं जो जमाने के हाथों असाध्य दुख उठा रहा हूँ। यानी ईश्वर और भाग्यवाद में स्वयं लेखक का विश्वास नहीं है। बल्कि अभिव्यक्ति के उपकरण या रणनीति के तौर पर वह ज्योतिष केयोगों का इस्तेमाल करता है। इसका लक्ष्य भाग्यवाद का पोषण करना नहीं है। गालिब का मानना था कि अंग्रेज न्यायशील शासक हैं। साथ ही यह भी लिखा  सितारे एक न्यायशील शासक के कर्मचारी हैं। पुराने सामंती शासकों और नए अंग्रेज शासकों की तुलना करते हुए लिखा  हिन्दुस्तान वाले न्यायशील शासकों -अंग्रेजों का दामन हाथ से छोड़कर ,बर्बर मनुष्यों के जाल में जा फंसे। तुम नहीं देखते हो कि दामनो-दाम और दादी-दो ज्यादा फासला नहीं है। सच तो यह है कि अंग्रेजी हुकूमत के अलावा दूसरी हुकूमत से इंसाफ की उम्मीद रखना बिल्कुल नादानी है। इसके तत्काल बाद गालिब ने लिखा  इस किताब को पढ़ने वाले समझ लें कि मैंने जिसके कलम की गति से कागज पर मोती बिखर जाते हैं, ऍँग्रेजी हकूमत के नानो-नमक से परवरिश पाई है और बचपन से इन विश्व विजेताओं के दस्तरख्वाने से रेजे चुने हैं।   
      गालिब ने 11 मई 1857 के दिन मेरठ के बागी सिपाहियों को 'अभागे', 'उन्मत्ता', 'अत्याचारी' , 'बर्बर' ,' अंग्रेजों के खून के प्यासे' ,उपद्रवी' ,'मदहोश', 'अक्खड प्यादों' आदि के नाम से विभूषित किया है।  11मई 1857 को 'अशुभ दिन' माना है। लिखा है   उस दिन जो बहुत अशुभ था, मेरठ की सेना के कुछ अभागे और उन्मत्ता सिपाही शहर में आए ,अत्यन्त अत्याचारी और बर्बर और नमक हरामी के सबब से अंग्रेजों के खून के प्यासे , शहर के विभिन्ना दरवाजों के रक्षक जो इन फिसादियों के हम -पेशा और भाई-बन्द थे , बल्कि कुछ ताज्जुब नहीं कि पहले ही से इन रक्षकों और उपद्रवियों में षडयंत्र हो गया हो, शहर की हिफाजत की जिम्मेदारी और हके नमक सब भूल गए, इन बिन बुलाए अथवा निमंत्रित मेहमानों का स्वागत किया। इन मदहोश सवारों और अक्खड़ प्यादों ने जब देखा कि शहर के दरवाजे खुले हुए हैं और रक्षक स्वागत कर रहे हैं, दीवानों की तरह इधर-उधर दौड़ पड़े। जिधर किसी अफसर को पाया और जहां इन प्रतिष्ठितों (अंग्रेजों) के मकान देखे ,जब तक उन अफसरों को मार नहीं डाला और इन मकानों को बिलकुल नष्ट नहीं कर दिया, इधर रूख नहीं फेरा। विद्रोहियों ने अंग्रेजों को मारा तो उस पर गालिब न लिखा  धरती हर तरफ कोमल शरीरों (अंग्रेजों) के खून से लाल हो गई। बाग का हर कोना तबाही और बरबादी के कारण बहारों का कब्रिस्तान बन गया। विद्रोहियों के हाथों अंग्रेजों की औरतें और बच्चों का भी खून हुआ, उसके बारे में गालिब ने दुख के साथ जिक्र किया है। इस पूरी तबाही को  विनाश की चिनगारियां बरसाने वाली मौत की संज्ञा दी।  सैनिकों के पास युध्द का जो भी हुनर था वह अंग्रेजों से ही सीखा था और फिर उनके खिलाफ ही उसका इस्तेमाल किया। 

11मई 1857 के दिन की समाप्ति पर गालिब ने लिखा खुदा-खुदा करके उस अशुभ दिन का अन्त हुआ। हर तरफ गहरा अंधेरा फैल गया। इन बर्बरों और हत्यारों ने शहर में जगह-जगह पड़ाव डाला। किले के भीतर वाले बाग को घोड़ों का अस्तबल बनाया और राज-सिंहासन को चारपाई। रफ्ता-रफ्ता दूर-दूर के शहरों से खबरें आने लगीं कि मुख्तलिफ फौजों के बागियों ने हर छावनी में अफसरों को कत्ल कर दिया है ( और नमकहरामों ने खुल्लमखुल्ला बगावत का शोर मचा रखा है)। गिरोह के गिरोह चाहे सिपाही हों या किसान -सब इकट्ठे हो गए और किसी निश्चित कार्यक्रम के बिना ही दूर और नजदीक हर जगह एक ही काम के लिए कमर कस ली।और फिर कैसी मजबूती से कमरें कसी थीं कि सिर्फ्र लहू की नदी की वे तरंगें ही उन्हें खोल सकती थीं जो कमरों से गुजर जाएं। लगता था कि जिस तरह झाड़ू की बहुत -सी सीकों को एक ही सुतली से बांधा जाता है,उसी तरह इन अनगिनत लड़ने वालों की कमरें भी एक ही 'कमरबन्द' से बंधी हुई थीं।

      नि:संदेह हिन्दुस्तान को सुख-शांति से रिक्त करने के लिए अगर इन चीजों को ढूंढ़ा जाय तो घास के तिनके के बराबर भी निशान न मिले, ऐसी ही झाडू की जरूरत थी। बहुत से लश्कर बिना सरदारों के तैयार हो गए,बहुत -सी फौजें अफसरों के बिना लड़ाई के लिए उठ खड़ी हुईं, तोपें ,गोला-बारूद, छर्रे -सारांश यह कि सारा सामान अंग्रेजों से लिया, लड़ाई के सारे तरीके अंग्रेजों से सीखे और उन्हीं सिखाने वालों और स्वामियों से लड़ने के लिए तैयार हो गए। 

गालिब के 1857 के डायरीनुमा किताब के अंशों को इतने विस्तार से उध्दृत करने का अर्थ यह है कि गालिब 1857 के प्रसंग को स्वाधीनता संग्राम के रूप में नहीं देख रहे थे, बल्कि पुरानी सामंती व्यवस्था और नयी पूंजीवादी व्यवस्था की जंग के रूप में देख रहे थे।बागी उनके लिए पुरानी व्यवस्था के संरक्षक थे जबकि अंग्रेज नयी उदीयमान पूंजीवादी व्यवस्था के प्रतिनिधि थे। निश्चित रूप से व्यवस्था के रूप में पूंजीवादी व्यवस्था सामंती व्यवस्था से ज्यादा विकसित और प्रगतिशील व्यवस्था है। किंतु अंग्रेज तो हमारे देश में पूजीवादी व्यवस्था के कंधों पर सवार होकर गुलामी का शासन लेकर आए थे। 1857 के मूल्यांकन के संदर्भ में ब्रिटिश साम्राज्यवाद,स्वाधीनता और पूंजीवादी व्यवस्था के साथ हमारे देश की जनता का क्या रवैयया हो, यह सवाल भी केन्द्र में था। इस समस्या का कोई बना-बनाया समाधन उस समय उपलब्ध नहीं था।

    सामंती व्यवस्था की जड़ें खोखली हो चुकी थी। पुरानी व्यवस्था में किसी भी किस्म का दमखम बचा नहीं था, नयी व्यवस्था ब्रिटिश साम्राज्यवाद के कंधे पर सवार होकर आ रही थी। नयी व्यवस्था के आते ही जो सामाजिक और व्यवस्थागत अन्तर्विरोध पैदा हुआ उसे गालिब ने गहराई में जाकर पहचाना ,गालिब की राजशाही की पक्षधरता जगजाहिर थी और गालिब ने कभी इसे छिपाया भी नहीं था, इसके बावजूद गालिब का सामंती राजाओं और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और उदीयमान पूंजीवादी व्यवस्था के बीच के अंतर को पहचानने में गलती नहीं की, यह सच भी है कि ब्रिटिश शासन व्यवस्था के पास सामंती शासकों से ज्यादा विकसित नजरिया था। यही चीज थी जो गालिब को अंग्रेजों के प्रति आकर्षित करती थी। गालिब के नजरिए के केन्द्र में साधारण आदमी था अत: साधारण आदमी के पैमाने पर ही रखकर उन्होंने सिपाही विद्रोह को देखा। साधारण आदमी यदि विद्रोहियों के हाथों मारे गए अथवा उन्हें कष्टों का सामना करना पड़ा तो गालिब ने उसकी तीखी आलोचना लिखी है। साथ ही यह भी बताया है कि कौन-कौन से रजवाड़े ब्रिटिश गोरों की मदद कर रहे थे और कौन से रजवाड़े थे जो विरोध कर रहे थे। 
   'दस्तम्बू' में 1857 की विद्रोही अवस्था को अराजक अवस्था के रूप में देखा है। ब्रिटिश गोरों के शासन का आगमन अपने साथ समग्रता में अराजकता को लेकर आया था। व्यवस्थागत टकराहट के दौरान उपजे इस तथ्य को गालिब पहचानने में सफल रहा। गालिब ने लिखा है  लुटेरे हर तरह की पाबंदियों से मुक्त और व्यापारी हर प्रकार के कर से मुक्त। क्या यह स्थिति आर्थिक उदारीकरण और सेज के नए प्रयासों में नीतिगत तौर पर साफ नहीं देख रहे हैं।नयी व्यवस्था के आगमन के साथ कैसा माहौल बना था, कैसा वातावरण बना था, गालिब के शब्दों में  घर  वीराने मालूम होते हैं और मकान काट-मार करने वालों के लिए) मुफ्त के 'दस्तरख्वान' बने हुए हैं। जिन लोगों का तनिक भी महत्व न था ,वे खंजर हाथ में लिए अकड़ते और अपनी उद्दण्डता का प्रदर्शन करते फिरते हैं। शान्तिप्रिय भले लोग घर से बाजार तक आते हुए रास्ते में बीसियों जगह अपमान और विवशता महसूस करने पर मजबूर हैं। लुटेरे दिन में दिलेरी के साथ लूट-मार करने में व्यस्त हैं और रात को रेशमी बिस्तरों पर सोते हैं।

बड़े-बड़े उच्चवंशी लोगों के घरों में चिराग जलाने के लिए तेल नहीं। अंधेरी रात में जब प्यास अधिक बढ़ती है तो बिजली चमकने की प्रतीक्षा करते हैं कि यह देखें कि सुराही कहां रखी है और प्याला किधर है। विद्रोह के बाद दिल्ली की स्थिति यह थी कि कोतवाल की पत्नी और लड़कियों के अलावा शहर की सारी स्त्रियों के गहने कायर और बदचलन डाकुओं के कब्जे में हैं। इन कोमलांगियों में जो हल्का -सा अन्दाजे-नाज बाकी रहा था, उसे इन लुटेरों ने छीन लिया कि इनके आत्म-प्रदर्शन के काम आए। जो प्रेम करने वाले पहले कोमलांगियों के नाज-नखरे उठाते थे, अब इन बर्बरों के नाज उठाने पर मजबूर हैं। इन बेहूदा लोगों के दिमागों में गरूर इस हद तक समा गया है कि अगर इनकी हरकतों को देखो तो मालूम होगा कि कुछ बगूले चक्कर खाते फिर रहे हैं और छिछरे हर वक्त इस आत्म-प्रदर्शन और घमण्ड में तल्लीन रहते हैं जैसे कुछ तिनके पानी की सतह पर बहे चले जा रहे हैं। बड़े-बड़े विद्वानों और धनियों की प्रतिष्ठा धूल में मिला दी गई और जिन लोगों के पास धन न था न सम्मान वे असीम धन और आदर सम्मान के स्वामी हैं। जिसका बाप गलियों की खाक छानता फिरता था ,वह हवा को अपनी दासी समझ रहा है।जिसकी मां पड़ोसी के घर से आग मांगकर लाती थी, वह आग पर हुक्म चलाने का दावेदार है। नीच आग और हवा पर शासन करना चाहते हैं और हम उन परेशानहाल लोगों में से हैं जो सन्तोष और शांति के सिर्फ चंद क्षणों और न्याय के इच्छुक हैं। दस्तम्बू में गालिब का 1857 के विद्रोह के बाद उपजे वातावरण का यथार्थपरक चित्रण हमारी आखें खोलने वाला है। गालिब को इस सारी गड़बड़ी में सबसे ज्यादा दुख डाक व्यवस्था के सिलसिले के टूट जाने का हुआ। साधारण्ा जनता के बीच में संचार का एक ही बड़ा स्रोत था डाक विभाग, इस पर गालिब ने लिखा जो लोग धर्म और कानून को मानने वाले हैं,न्याय की उपेक्षा न करें और बताएं कि इस सारी व्यवस्था का बिगड़ जाना, खुदा की दी हुई दौलत का लुट जाना, डाक का सिलसिला टूट जाना और दोस्तों के हालात मालूम न होना, क्या ये सारी बातें ऐसी नहीं हैं कि उनका मातम किया जाये और आंसू बहाए जाएं। बड़े-बड़े वीरों का यह हाल हो जाए कि वे अपनी परछाईं से डरें। सिपाही बादशाह और दरवेश हर एक पर हुकूमत करने लगें। क्या यह स्थिति खेदजनक नहीं है ? इन भयंकर विपत्तिायों पर आंखें आंसू नहीं बहाएंगी ? क्या इस विलाप पर लानत-मलानत करना, इस मातम पर व्यंग्य -प्रहार करना और इस पर रोने पर हंसना उचित है ? और क्या इन विपत्तिाजनक परिस्थितियों के प्रति उपेक्षाभाव को ईमान की कमी और धर्म का अभाव न समझा जाएगा।

    मैं शेरो-सुखन के जवाहर से क्या मन लगाऊं जबकि आहे-गर्म से मेरे दिल पर हजारों आबले पड़ गए हैं। मेरा दिल बुझ चुका है और अंग इस हद तक शिथिल हो चुके हैं कि अब मुझको न दंड का दुख है और सिले की खुशी। गालिब के लेखन की खूबी है कि उन्होने विद्रोहियों की सेना के जुल्म का चित्रण किया है तो काफी कुछ अंग्रेजों की सेना के जुल्मोसितम पर भी लिखा है। 1857 के विद्रोह के खत्म हो जाने पर 14 सितम्बर को लिखा  अगर मई ने इंसाफ को दिल्ली से निकाल बाहर किया था तो सितम्बर के महीने ने फितना व फिसाद को निकाल बाहर किया और अमन व इन्साफ को वापस ले आया। पूरे चार महीने चार दिन बाद फितना और फिसाद के अंधेरे में घिरी हुई जमीन को रोशन करने वाला इंसाफ का सूरज उदय हुआ। दिल्ली दीवानों से खाली हो गई और दानशमंदों ने बहादुरी के साथ उस पर कब्जा कर लिया।

विद्रोहियों ने जब बगावत की और हमले बोले थे तो उसका कच्चा चिट्ठा गालिब ने पेश किया था जिसका ऊपर जिक्र किया गया है, अब हम उस यथार्थ को देखें जो अंग्रेज सैनिकों की हमलावर कार्रवाईयों के कारण बना था। पहली चीज यह है गालिब ने अंग्रेजों की तुलना 'क्रुध्द शेर' से की है। यानी नरभक्षक के रूप में उन्हें पेश किया है। यह सारा काम उन्होंने रानी विक्टोरिया को लिखी किताब 'दस्तम्बू'में किया है। दिल्ली में अंग्रेज सेना के दाखिल होने के बाद की स्थिति पर गालिब ने लिखा मैंने अभी कहा कि क्रुध्द शेरों (अंग्रेजों) ने शहर में दाखिल होते ही निहत्थे लोगों को कत्ल करना और मकानों को जलाना उचित समझा। हां, जिस स्थान को लड़कर जीतते हैं ,लोगों पर ऐसी सख्तियां की जाती हैं। इस क्रोध और आतंक को देखकर लोगों के मुँह फक हो गए। अनगिनत मर्द-औरतों के गिरोह जिनमें जनसाधारण भी थे और हैसीयत वाले भी थे, इन तीनों दरवाजों के बाहर निकल गए। शहर के बाहर जो छोटी-छोटी बस्तियां और मकबरे थे, उनमें शरण ली। इस खयाल से कि उचित समय पर शहर में लौट आएंगे या किसी दूसरे शहर चले जाएंगे। गालिब पहला लेखक था जो 1857 के संग्राम को तमाशे की तरह देख रहा था, दर्शक की नजर से देख रहा था। उसने 1857 को आश्चर्यजनक खेल की संज्ञा दी है। इस खेल को वह खुशी के साथ देखना चाहता है।अंग्रेजों ने जब दिल्ली में मारकाट मचायी और भय पैदा किया तो कैसा वातावरण बना था, उस पर गालिब ने लिखा सारे शहर में 15 सितम्बर से हर घर का दरवाजा बंद है। दुकानदार और खरीददार दोनों गायब हैं। न गेंहँ बेचने वाला है कि गेंहूँ खरीदें , न धोबी है कि कपड़े धुलने को दें। हज्जाम को कहां खोजें कि सिर के बाल तराशे और मेहतर को कहां से ढूँढ़कर लाएं कि सफाई करे।... कोशिशों के सारे हंगामे ठंड़े पड़ गए । अब मुसीबतें भय को आग के सदृश जला रही हैं। घरों में खाने का जितना सामान था ,धीरे धीरे सब खत्म हो गया। पानी चाहे बड़ी सावधानी से पिया गया, पर अन्त में घड़े या सुराही में एक बूंद तक नहीं रही। स्त्री और पुरूषों में किसी में भी सहन-शक्ति नहीं रही। दिन धैर्य से कटने और दाना पानी आने का भ्रम भी जाता रहा और दो रात-दिन भूख-प्यास में बीत गए: उफ यह रोना धोना,उफ यह लाचारी और विवशता ,उफ यह परेशानी और बरबादी,उफ यह मजबूरी और दरिद्रता। आजकल हम लोग अपने आप को कैदी समझ रहे हैं और सत्य भी यह है कि बिलकुल कैदियों की तरह जीवन बिता रहे हैं। न कोई आता है कि कोई बात सुनने को मिले। न खुद बाहर जा सकते हैं कि सारी घटनाएं अपनी आंखों से देखें। निश्चित रूप से कह सकते हैं कि हमारे कान बहरे हैं और नेत्र ज्योतिहीन- इस दुर्दशा में भी न खाने को रोटी है, पीने को पानी। अपनी इस किताब में गालिब ने एक जगह बड़ी मार्के की बात कही है। गालिब ने लिखा है मेरे होठों पर सिर्फ आह-कराह ही नहीं है ,खुदा की कसम इस दुख से मेरी जान भी होठों पर है। जो कुछ मैंने कहा है उससे सब स्पष्ट हो जाता है और जो कुछ नहीं कहा है , वह अत्यन्त भयंकर है। गालिब ने 1857 में अंग्रेजों के दिल्ली को अपने कब्जे में लेने के बाद जो स्थिति पैदा की वह और भी भयानक थी, गालिब ने लिखा जो जिस जगह है, परेशान है। गालिब के गद्य को पढ़ते समय यह ध्यान रहे कि गालिब व्यंग्य की शैली में ही अपनी बातें लिखते थे और व्यंग्य का बांकपन वहां ज्यादा करारेपन के साथ नजर आता था जब वे अंग्रेजों के बारे में लिखते हैं। गालिब ने 1858 की 20 फरवरी के घटनाक्रम को डायरी में व्यंग्य में लिखा दुनिया को आजादी का शुभ संदेश कि आजाद और भले लोगों (अंग्रेजों) की अभिलाषा पूरी हो गई और बुरे और दुष्ट लोगों का दौर-दौरा वहां भी खत्म हो गया। फिर सुनने में आया कि तोपों की गरज और शहनाईयों के नग्मे सत्ताा-प्राप्ति की खुशी में थे। विजयी सेना ने इस लड़ाई में शहर पर अधिकार ही नहीं जमाया है बल्कि दिलेरों की तरह शत्रुओं की हत्या करने दौड़ पड़े। शत्रुओं को हताहत करने के बाद अपने पड़ाव की ओर लौटे। गालिब के ही शब्दों में सारांश यह कि ऐसे दुख दिल को लगे हैं जो कांटों की तरह खटकते हैं। चलो तो रास्ते में नजर पड़ जाएंगे और घर बैठो तो कपड़ों में।

फुकुयामा के परि‍प्रेक्ष्‍य में 'इति‍हास का अंत'

       यह भविष्‍यवादी चिंतकों का युग है। ये ऐसे विचारक हैं जो कभी भी कुछ भी कह सकते हैं।कभी भी अपनी धारणाओं को बगैर कोई कारण बताए बदल सकते हैं।किसी भी अवधारणा को मनमाने ढ़ंग अर्थ दे सकते हैं। समय,देष-काल,स्थान,उत्पादक शक्तियां,शोषक वर्ग, प्रतिरोध,समग्रता,ऐतिहासिकता आदि का इनके लिए कोई अर्थ नहीं है। ये सर्वतंत्र-स्वतंत्र हैं।इनके विचार आलू की तरह हैं।जैसे किसी भी सब्जी में आलू मिलाया जा सकता है,वैसे ही इनके विचारों को कहीं पर भी मिला सकते हैं।इनके किसी भी विचार के छपते ही बहुराष्‍ट्रीय जनमाध्यमों से इनके विचारों का तेज गति से बगैर किसी सोच-विचार के प्रक्षेपण होता है। अंधानुकरण होता है।वह प्रभुत्वशालीवर्ग की विचारहीनता और वैचारिक दरिद्रता का आदर्श उदाहरण है। 
    हि‍न्‍दी में कूपमंडूक लोग इन विचारकों के विचारों को जाने बगैर इनके बारे में अपने आत्मज्ञान के आधार पर जगह-जगह शेखचिल्ली की तरह बोलते रहते हैं।इस समूची प्रक्रिया का दुष्‍परिणाम यह हुआ है कि वाद-विवाद का आधार कृति और कृतिकार न होकर नारे या शीर्षक हो गए हैं। इन वाक् वि‍लासी विचारकों से हमारी पत्रिकाएं भरी पड़ी हैं। इन लोगों के हिसाब से आज किसी भी विचार को जानने की बजाय उसके नारे या शीर्षक को जान लेना ही समीचीन है।इसके बाद मूल्यांकन का सिलसिला चल निकलता है। 
    मजेदार बात यह है कि इन आलोचकों ने यह आभास दिया है कि किसी भी विषय पर बोला जा सकता है।कभी भी बोला जा सकता है।इन्हें वास्तव ज्ञान की जरूरत नहीं है। वे कॉमनसेंस के आधार पर कपोल कल्पनाएं करते रहते हैं।संक्षेप में सिर्फ यही कहना है कि भविष्‍यवादी चिंतकों का प्रत्युत्तर सिर्फ शब्दजाल के जरिए संभव नहीं है।इस दौर में कुछ विचारक ऐसे भी हैं जो समाजवादी व्यवस्था के पराभव के बाद सब कुछ भूल गए हैं।उन्हें चारों ओर अंधकार ही अंधकार,निराशा ही निराशा नजर आ रही है।इनमें से अनेक लोग निराश होकर भगवान की शरण में जा चुके हैं।अथवा राजनीतिक संयास ले चुके हैं।ऐसे माहौल में गंभीर विचार-विमर्श को बचाए रखना कठिन हो गया है।
     इस बदलते माहौल में फ्रांसिस फुकोयामा ने 'इतिहास का अंत' की घोषणा करके जिस भेड़चाल को जन्म दिया वह काबिलेगौर है।अब क्या था 'अंत' का जीवन और ज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में अचार की तरह इस्तेमाल होने लगा।मजेदार बात यह थी कि जो लोग 'अंत' का पंथ लेकर आए वे यह भूल गए कि 'अंत' का भी अंत होता है।मजेदार बात यह है कि जिस व्यक्ति ने 'अंत' के पंथ को जन्म दिया उसी ने इसका 'अंत' किया।मेरा इशारा फुकोयामा की ओर है।काफी अर्सा पहले मार्क्‍स ने कहा था कि इस समाज में सब कुछ परिवर्तनशील है।यदि कोई चीज अपरिवर्तनीय है तो वह है परिवर्तन का नियम। परिवर्तन के नियम का अंत कभी नहीं होगा।मार्क्‍स को अप्रासंगिक बताने वाले और 'अंत' पंथी अभी तक यह नहीं बता पाए हैं कि परिवर्तन के नियम का कब अंत होगा ? संक्षेप में अब कुछ बातें फ्रांसिस फुकोयामा के विचारों के बारे में जान लेना समीचीन होगा।
             27 अक्टूबर 1952 को जन्मे फ्रंासिस फुकुयामा पेशे से प्रोफेसर हैं। अमेरिकी राजनीतिक अर्थशास्त्री के रूप में उनकी ख्याति है।जॉन हॉपकिंस विश्‍वविद्यालय के स्कूल ऑफ एडवांस इंटरनेशनल स्टैडीज में प्रोफेसर हैं। इन्होंने सन् 1989 में 'इतिहास का अंत' शीर्षक लेख लिखा था।जो बाद में ' दि एण्ड ऑफ  हिस्ट्री एण्ड दि लास्ट मैन'(1992) के नाम से विस्तारित रूप में पुस्तक के रूप में सामने आया।इस पुस्तक ने सबसे ज्यादा विवाद पैदा किए हैं। 
    कुछ लोग इस विवाद में पढ़कर कूदे,ज्यादातर बिना पढ़े कूदे ।हमें ठंड़े दिमाग से सोचना चाहिए क्या प्रत्येक वैचारिक विवाद में कूदना जरूरी है ? क्या इस पुस्तक की उपेक्षा नहीं की जा सकती थी ? इस पुस्तक में ऐसी कौन सी बात थी जो हम सहन नहीं कर पाए ?क्या इसमें बुनियादी तौर पर कुछ नया था ?क्या यह कृति वैचारिक जगत में मूलगामी तौर पर नया विचार लेकर आई थी ?जी नहीं।
     इस पुस्तक में ऐसा कुछ भी नया नहीं था,जिसकी धुनाई की जाती।बल्कि मजेदार बात यह है कि स्वयं फुकुयामा ने इस पुस्तक की बुनियादी धारणा यानी 'इतिहास का अंत' से अपना पल्ला सबसे पहले झाड़ा। असल में यह पुस्तक या इसी तरह की भविष्‍यवादियों की किताबें 'इस्तेमाल करो और फेंको' के नजरिए से लिखी जाती रही हैं। इनमें चमक है।नई भाषा है।किंतु सैध्दान्तिकी,अंतर्वस्तु और परिप्रेक्ष्य के लिहाज से इनकी कृतियां अत्यंत कमजोर होती हैं।
     हम नहीं जानते कि आज तक किसी भी भविष्‍यवादी ने कोई टिकाऊ धारणा दी हो।ऐसी धारणा दी हो जिसे उसने स्वयं कालान्तर में खंडित न किया हो या अस्वीकार न किया हो।इसके अलावा सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भविष्‍यवादी विचारकों के विचारों का वृध्द पूंजीवाद और अमेरिकी विदेशनीति के परिप्रेक्ष्य से गहरा संबंध है।हमारे कहने का अर्थ यह नहीं है कि लेखक या विचारक को अपनी धारणा बदलने का हक नहीं है,उसे पूरा हक है किंतु इस परिवर्तन के कारणों को बताना होगा।साथ ही प्रमाणित करना होगा।
         फुकुयामा ने ' दि एण्ड ऑफ हिस्ट्री एण्ड दि लास्ट मैन' (1992)कृति में इतिहास के अंत' की व्याख्या के क्रम में रेखांकित किया कि विचारधारात्मक संघर्ष खत्म हो चुका है। मौजूदा युग सारी दुनिया में उदार जनतंत्र का युग  है। शीतयुध्द समाप्त हो चुका है। शायद फुकुयामा अपने विचारों पर स्वयं विश्‍वास नहीं करते थे।इसका प्रतिफलन उनकी अगली कृतियों ट्रस्ट: दि सोशल वर्चु एण्ड दि क्रिएशन ऑफ प्रोसपेरिटी  (1995),' और  अवर पोस्ट ह्यूमन फ्यूचर : कंसीक्वेंसेज ऑफ दि बायो टैक्नोलॉजी रिवोल्यूशन (2002)और ' स्टेट बिल्डिंग: गवर्नेंस एंड वर्ल्ड ऑर्डर इन दि ट्वन्टी फर्स्ट सेंचुरी'(2004)कृतियों में दिखाई देता है। आखि‍री दोनों कृतियों में उन्होंने 'इतिहास का अंत' की धारणा को तिलांजलि दे दी है।
   फुकोयामा का नया तर्क है कि बायो टैक्नोलॉजी  मनुष्‍य को निरंतर सक्षम बना रही है कि वह अपने एवोल्यूशन को स्वयं नियंत्रित करे।यह भी संभव है कि मनुष्‍य बुनियादी तौर पर असमान हो जाए।विश्‍व व्यवस्था के तौर पर उदार जनतंत्र खत्म हो जाए।कायदे से यह जानने का हक हम सभी को है कि दस-बारह साल पहले तक जो व्यक्ति उदार जनतंत्र के युग की बात कह रहा था।अचानक उदार जनतंत्र का विचार कहां चला गया ? इस परिवर्तन के रहस्य को फुकुयामा नहीं खोलते।किंतु यह कोई रहस्य नहीं है।बल्कि इसे साफ तौर पर देखा जा सकता है। 
   फुकोयामा ने जब 'इतिहास के अंत' की घोषणा की थी तब समाजवाद के खिलाफ अमेरिकापंथी जनतंत्रवादियों की मुहिम चरमोत्कर्ष पर थी।शीतयुध्द की राजनीति के तथाकथित समापन के संदर्भ में उदार जनतंत्र का जयघोष किया गया।किंतु सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के समाजवादी देषों में जनतंत्र के नाम पर जिस व्यवस्था का उदय हुआ है। वह लंपट जनतंत्र है।राष्‍ट्र-राज्य को विघटित करने वाला जनतंत्र है।इसमें सभी देशों के प्रति समानता का भाव नहीं है।बल्कि यह अमेरिकी विदेश नीति से संचालित गुलाम जनतंत्र है। उदार जनतंत्र से उसका कोई लेना-देना नहीं है।
   लंपट जनतंत्र बुनियादी तौर पर उदार जनतंत्र का ही विकसित रूप है।यह नव्य-साम्राज्यवाद की नाजायज संतान है।आज समाज में यदि किसी व्यवस्था की कोई साख नहीं है तो वह है अमेरिकी व्यवस्था और नव्‍य उदार जनतंत्र।जनतंत्र के नाम पर जितनी तबाही अमेरिका ने मचाई हुई है और जितने बड़े पैमाने पर जनसंहारों को संगठित किया है।वैसा कभी इतिहास में नहीं हुआ। 
       'इतिहास का अंत' की धारणा के लिए फुकुयामा ने फ्रांसीसी दार्शनिक अलेक्जेन्द्रे कोजेवी और नव्य अनुदारपंथी दार्शनिक लियो स्ट्रॉस के विचारों का सहारा लिया है।इन दोंनों पर नीत्शे के विचारों का गहरा प्रभाव है।
   'इतिहास का अंत' में खासकर दो मुख्य बिन्दुओं पर विचार किया गया है।
  1. 19वीं शताब्दी से एक राजनीतिक प्रषासनिक व्यवस्था के तौर पर जनतंत्र की शुरूआत होती है।आज विश्‍व में ज्यादातर सरकारें जनतांत्रिक हैं। जनतंत्र के विकल्प के तौर पर उभरे दोनों विकल्प -साम्यवाद और फासीवाद- अपनी साख खो चुके हैं।   
  2.फुकोयामा ने चिंतन दूसरा प्रमुख बिन्दु हेगेल से लिया है।हेगेल के अनुसार फुकुयामा बताते हैं कि इतिहास दो वर्गों के द्वंद्व से बनता है।यह द्वंद्व है मालिक और गुलाम का। थीसिस (मालिक)और एंटीथीसिस(गुलाम) अनिवार्यत: सिंथीसिस में मिलते हैं।ये दोनों शांति के साथ सिर्फ जनतंत्र में ही रह सकते हैं।इस क्रम में फुकुयामा ने जिस तत्व की अनदेखी की है।वह है अन्तर्विरोध।
   अन्तर्विरोध के बिना विकास नहीं होता।उदार जनतंत्र में यह क्षमता नहीं है कि शोषक और शोषि‍त के बीच के अन्तर्विरोधों,श्रम और पूंजी के बीच के अन्तर्विरोध का शमन कर दे।जब तक ये दोनों अन्तर्विरोध बरकरार हैं।तब तक किसी भी किस्म की सिंथीसिस संभव नहीं है।
   'इतिहास का अंत' का विचार शीतयुध्दीय राजनीति के तथाकथित अवसान के बाद आया था।सच्चाई यह है कि शीतयुध्दीय राजनीतिक मुहिम पर अमेरिका जितना धन खर्च कर रहा था।आज उससे कई गुना ज्यादा धन खर्च कर रहा है। समाजवादी सत्ताओं के पराभव के बावजूद नाटो,सीआईए,पेंटागन,विदेश विभाग,सैन्य बजट आदि में कई गुना वृध्दि हुई है। तीसरी दुनिया के देशों की सार्वभौम संप्रभुता पर हमले बढ़े हैं।
     अमेरिकी विदेश नीति के अनुरूप आचरण करने के लिए कूटनीतिक,सैन्य ,आर्थिक घेरेबंदी तेज हुई है।जनसंहारों का सिलसिला चल पड़ा है। ऐसे में यह कैसे मान लिया जाय कि शीतयुध्द खत्म हो गया है।समाजवाद के पराभव के बाद अमेरिका का वेलगाम होकर आक्रामक हो जाना इस बात का प्रमाण है कि इतिहास का अंत की धारणा के लिए जो तर्क दिए गए थे।वे सब बेमानी थे।

आम तौर पर फुकुयामा को उसके आलोचकों ने गलत समझा है।मसलन् फुकुयामा ने 1989 में जब 'इतिहास का अंत' लेख लिखा था।तब इसे बर्लिन की दीवार को ढहाए जाने की घटना से जोड़कर देखा गया।जबकि सच्चाई यह है कि फुकुयामा ने हेगेल की धारणा का अनुकरण करते हुए लिखा कि 'इतिहास का अंत' सन् 1798 को फ्रांस की क्रांति से हुआ। इसी साल से संसदीय जनतंत्र की शुरूआत होती है।

     फुकुयामा के आलोचक दूसरी बड़ी भूल यह करते हैं कि वे 'इतिहास' और 'घटना' में घालमेल कर देते हैं।फुकोयामा ने यह कहीं नहीं लिखा है कि भविष्‍य में कभी घटनाएं नहीं होंगी।बल्कि उल्टे यह लिखा है कि भविष्‍य में घटनाएं होंगी।यह भी संभव है कि सर्वसत्तावादी लौट आएं। इस्लामिक फंडामेंटलिस्ट प्रमुख राजनीतिक ताकत बन जाएं। जनतंत्र दीर्घजीवी बन जाए।यह भी संभव है कि तात्कालिक तौर पर जनतंत्र को कुछ झटके लगें।
      'इतिहास का अंत' की अनेक किस्म की आलोचनाएं सामने आई हैं।मसलन् कुछ लोग यह मानते हैं कि जनतंत्र के साथ इस्लामिक फंडामेंटलिज्म ने वही किया है जो कभी 20वीं शदी में साम्यवाद और फासीवाद ने किया था। इसके जबाव में फुकुयामा ने लिखा कि इस्लामिक फंडामेंटलिज्म  को साम्यवाद या फासीवाद जैसी साम्राज्यवादी शक्ति नहीं कह सकते। इस्लाम की मुसलिम जगत के बाहर कोई अपील नहीं है। इस्लामिक राष्‍ट्रों जब निर्माण हुआ तो उन्हें जनतांत्रिक देशों ने आसानी से हरा दिया। उदाहरण के तौर पर अफगानिस्तान को ही लें। फुकुयामा ने लिखा इस्लामिक राष्‍ट्र मूलत: अस्थिर हैं।ये गंभीर राजनीतिक और आर्थिक समस्या झेल रहे हैं।खासकर ईरान और सऊदी अरब ।भविष्‍य में इस्लामिक राष्‍ट्रों में तुर्की जैसा जनतंत्र होगा अथवा विखंडित हो जाएंगे।ये राष्‍ट्र पश्‍चि‍मी देशों के लिए किसी भी किस्म का दीर्घकालिक खतरा नहीं हैं।

फुकुयामा का इस्लामिक देशों के प्रति मूल्यांकन सतही है और अमेरिकी हितों से जुड़ा है। सच यह है कि फुकुयामा को इस्लामिक देशों के बारे में कोई तथ्यात्मक समझ नहीं है अथवा उसे छिपा रहे हैं। सारी दुनिया जानती है कि मध्य-पूर्व के इस्लामिक देशों में अमेरिका की तूती बोलती है।

     सारी दुनिया में इस्लामिक फंडामेंटलिज्म को सबसे ज्यादा आर्थिक मदद देने का काम अमेरिका का घनिष्‍ठ दोस्त सऊदी अरब करता रहा है। अमेरिका के द्वारा ही पहलीबार तालिबान जैसे धार्मिक सैन्य संगठन का निर्माण हुआ।विन लादेन को आधिकारिक तौर पर अमेरिकी कांग्रेस ने 3 विलियन डालर की आर्थिक मदद दी। तालिबान के सैन्य प्रशि‍क्षण के लिए सैन्य अधिकारी नियुक्त किए।दूसरी सबसे बड़ी समस्या इजराइल है।इसकी अरब देशों के खिलाफ,खासकर फिलिस्तीन के खिलाफ हमलावर कार्रवाईयां जारी हैं।अवैध रूप से वह फिलिस्तीनी राष्‍ट्र के क्षेत्रों पर कब्जा किए हुए है।संयुक्त राष्‍ट्र संघ और सुरक्षा परिषद के सभी प्रस्तावों को ठुकराता रहा है।मध्य-पूर्व के देशों में अस्थिरता का प्रधान कारण इन देशों का इस्लामपंथी होना नहीं है।बल्कि अमेरिका-इजराइल की आक्रामक एवं विस्तारवादी नीतियां हैं। फुकुयामा को यह सब दिखाई नहीं देता।
    'इतिहास का अंत' कृति में फुकुयामा का मार्क्सवाद पर प्रहार हास्यास्पद है।पेरी एंडरसन जैसे मार्क्‍सवादियों ने फुकुयामा के मार्क्‍सवाद विरोधी विचारों की तीखी आलोचना की है।फुकुयामा ने इस कृति में हेगेल के जरिए मार्क्‍स पर हमला किया है।उल्लेखनीय है कि हेगेल के बारे में स्वयं मार्क्‍स ने कहा था कि हेगेल जो सिर के बल खड़ा था मैंने उसे पैर के बल खड़ा किया।हेगेल और फायरबाख की मीमांसा के क्रम में ही मार्क्‍स ने ऐतिहासिक द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की धारणा निर्मित की।फुकुयामा ने इन दोनों को अस्वीकार किया है।उसने पुन: हेगेल को सिर के बल खड़ा करने की कोशि‍श की है।
     फुकुयामा की मुश्‍कि‍ल यह है कि वह समग्रता और ऐतिहासिकता इन दोनों धारणाओं का निषेध करता है। अतार्किक ढ़ंग से खण्ड-खण्ड में चीजों को देखता है।उसकी भविष्‍यवाणी है कि साम्यवाद का कोई भविष्‍य नहीं है।क्योंकि रूसी प्रयोग का अंत हो चुका है।उत्तरी कोरिया और क्यूबा की अर्थव्यवस्था चरमरा रही है।इस समूचे मूल्यांकन की मुश्‍कि‍ल यह है कि फुकुयामा मार्क्‍सवाद को सही रूप में समझ ही नहीं पाए हैं। 
      मार्क्‍सवाद कोई किताब नहीं है। वह कोई जड़ सिध्दान्त नहीं है।वह बंधे-बंधाए फार्मूलों का पुलिंदा नहीं है।मार्क्‍सवाद विभिन्न दर्शनों में कोई एक दर्शन नहीं है।वह विचारधारा भी नहीं है।बल्कि विष्व दृष्‍टि‍कोण है।विज्ञान है।दुनिया को बदलने का नजरिया है।यह व्यवहार से निर्देशि‍त होता है।जो लोग मार्क्‍सवाद को जड़ सिध्दान्त की तरह देखते हैं।उसे फार्मूला समझकर लागू करते हैं।वे कम से कम मार्क्‍सवादी नहीं हो सकते।

फुकुयामा को पूंजीवाद प्रिय है।उनके लिए वह अजेय और अमर है।सब रोगों की रामबाण दवा है।सच यह है कि पूंजीवाद अमर नहीं है।सामाजिक व्यवस्था कभी अमर नहीं होतीं। व्यवस्थाएं बदलती रही हैं।उत्पादन के संबंध कभी अमर और अपरिवर्तनीय नहीं होते।यह कैसे है परिवर्तन का सिध्दान्त पूंजीवाद के आने तक तो सच है।किंतु पूंजीवाद के आने के बाद उसे हम लागू करना बंद कर दें।

    परिवर्तन का नियम पूंजीवाद पर जिस तरह लागू होता है उसी तरह समाजवाद पर भी लागू होता है।ऐसा नहीं है कि परिवर्तन का नियम समाजवादी व्यवस्था आने के बाद अप्रासंगिक हो जाता है।परिवर्तन की प्रक्रिया में हम यदि सामाजिक विकास की गति को सही परिप्रेक्ष्य में रेखांकित करने में सफल हो जाते हैं तो समाज आगे की ओर जाता है।यदि गलत समझ के तहत विकास करते हैं तो परिवर्तन पीछे की ओर ले जाता है।सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देशों में समाजवाद के प्रयोग के असफल होने का प्रधान कारण है सामाजिक विकास की गति की सही समझ का अभाव।इस प्रयोग की असफलता का यह अर्थ नहीं है कि समाजवाद या मार्क्‍सवाद अप्रासंगिक हो गया है।बल्कि सच तो यह है कि आज भी मार्क्‍सवाद सबसे ज्यादा प्रासंगिक है।मार्क्‍सवाद यदि प्रासंगिक न होता तो सारी दुनिया का पूंजीपतिवर्ग मार्क्‍सवाद के खिलाफ प्रतिदिन करोडों डालर खर्च न करता।हम जान लें कि पूंजीपतिवर्ग वर्ग सचेतन होने के कारण अपने शत्रु को अच्छे ढ़ंग से पहचानता है।मार्क्‍सवादियों को भी अपने दोस्त और दुश्‍मन की सही परिप्रेक्ष्य में पहचान करनी चाहिए।

फुकुयामा या उनके जैसे मार्क्‍सवाद विरोधी इस समस्या का जबाव नहीं देते कि समाज में वैषम्य क्यों है ? गरीबी क्यों है ? यह कैसे खत्म होगी ?उदार जनतंत्र इस समस्या का आज तक कोई समाधान नहीं खोज पाया है।मार्क्‍सवाद की प्रासंगिकता इसी बात में है कि वह हमें बताता है कि गरीब गरीब क्यों है ? अमीर अमीर क्यों है ?उदार जनतंत्र हमें इस समस्या का सटीक उत्तर नहीं देता।

    फकुयामा के पास पूंजीवादजनित किसी भी समस्या का न तो गंभीर विष्लेषण है और न समाधान ही है।मसलन् पर्यावरण के सवाल को ही लें। पर्यावरणवादियों ने पूंजीवादी विकास के कारण पर्यावरण को हो रही व्यापक क्षति के सवालों को उठाया है। विकास और प्रकृति का अंतर्विरोध तीखा हुआ है।इस क्रम में जो सवाल पर्यावरणवादियों ने उठाए हैं उन पर गंभीरता से विचार किए बिना।फुकुयामा ने लिखा कि पर्यावरणवादियों ने पर्यावरण के खतरे को अतिरंजित ढ़ंग से पेश किया है।
   फुकुयामा का मानना है कि पर्यावरण के लिए जो खतरा पैदा हो गया है उसका समाधान जनतंत्र में संभव है।फुकुयामा के विचारों की सेमुअल पी. हटिंगटन ने 'दि क्लैस ऑफ सिविलाइजेशन' कृति में तीखी आलोचना की है।वे कहते हैं कि तात्कालिक तौर पर विचारधाराओं के संघर्ष को सभ्यताओं के संघर्ष ने अपदस्थ कर दिया है।
    फुकुयामा ने बाद में स्वयं माना कि 'इतिहास का अंत' की धारणा अधूरी थी।इसके कारण अलग हैं।फुकुयामा ने अपनी नई कृति ' अवर पोस्ट ह्यूमन फ्यूचर' में लिखा कि हम 'इतिहास के अंत' तक इसलिए नहीं पहुँच पाए क्योंकि हम विज्ञान के अंत तक नहीं पहुँच पाए।मनुष्‍य अपने एवोल्यूशन को स्वयं नियंत्रित कर रहा है।इसका उदार जनतंत्र पर संभवत: भयानक प्रभाव होगा।फुकुयामा ने हेगेल के सहारे जब इतिहास की व्याख्या पेश की और इस सिलसिले को  'पोस्ट ह्यूमन फ्यूचर' कृति में आगे बढ़ाया तो वे उदार जनतंत्र के उदार आशावादी नजर नहीं आते।बल्कि नीत्शे से प्रभावित निराशावादी नजर आते हैं।
    उल्लेखनीय है कि नीत्शे की लियो स्ट्रॉस ने जो व्याख्याएं पेश की हैं,उनका फुकुयामा पर गहरा असर है।लियो स्ट्रॉस का मानना है कि यह असंतुष्‍ट संवेदनाओं का युग है।इतिहास का अंत अंतत: दुखद होता है।इसी तरह बायो टैक्नोलॉजी के बारे में फुकुयामा के विचार मुक्तबाजार की समझ से संचालित हैं।उनका मानना है कि बायो मेडीकल टैक्नोलॉजी हमें बड़े पैमाने पर गंभीर बीमारियों से राहत दिला सकती है।किंतु इसके गंभीर खतरे पैदा हो रहे हैं।ये खतरे व्यापक केटेगरी में रखे जा सकते हैं।
   आज मनुष्‍य की सामान्य प्रकृति को ही चुनौती दी जा रही है।बायो टैक्नोलॉजी ने मनुष्‍य के मान-सम्मान,गरिमा और मानवाधिकारों के लिए खतरा पैदा कर दिया है। व्यापक राजनीतिक -आर्थिक स्थिरता के लिए खतरा पैदा हो गया है।इसके कारण हिंसक मुठभेड़ों की संभावनाएं बढ़ गई हैं।यदि हम मनुष्‍य के जेनेटिक और बायोलॉजिकल स्वरूप में महत्वपूर्ण परिवर्तन कर देते हैं तो मानवीय एकता के विचार के नष्‍ट हो जाने का खतरा है। 
   व्यक्तिगत स्वायत्तता के विचार को कम करके देख रहे होंगे।समान नैतिकता का विचार खत्म हो जाएगा।जो लोग बायो टैक्नोलॉजी खरीदने की स्थिति में हैं वे अपनी उम्र बढ़ाने के लिए पैसा खर्च करेंगे।ऐसी स्थिति में अनेक किस्म के खतरे पैदा हो सकते हैं।पीढियों के बीच संघर्श और भू-राजनय असंतुलन का खतरा पैदा हो जाएगा।समृध्द उत्तर और गरीब दक्षिण के देशों के बीच असंतुलन और बढ़ जाएगा।
   फुकुयामा ने कहा कि स्थिति पहले से ही खराब है।इसके और भी खराब हो जाने की संभावना हमें राष्‍ट्रीय-अंतर्राष्‍ट्रीय कानूनों को सही ढ़ंग से बनाना चाहिए।हमें बायो टैक्नोलॉजी के विकास पर इस नजरिए से काम करना चाहिए कि वह बीमारियों के इलाज में मदद करे।यदि हम इस दायरे का अतिक्रमण करते हैं तो मानवाधिकारों को कमजोर करेंगे या नष्‍ट करंगे।मनुष्‍य का बायो टैक्नोलॉजिकल रूपान्तरण बुनियादी तौर पर नीत्‍शेवादी समाधान है।

फुकुयामा के दृष्‍टि‍कोण का आधार है तकनीकी निर्धारणवाद।वह मानता है कि तकनीक के द्वारा मनुष्‍य को बदला जा सकता है।जबकि सच्चाई यह है कि तकनीक के भविष्‍य को मनुष्‍य तय करता है।तकनीक से आप बहुत कुछ हासिल कर सकते हैं।किंतु मानवीय इच्छाओं और हितों को रूपान्तरित नहीं कर सकते।हां,यह संभव है कि मनुष्‍य के हितों एवं इच्छाओं के लिए तकनीक का इस्तेमाल कर लिया जाए।किंतु मानवीय इच्छाएं और हित तकनीकी नियंत्रण से स्वतंत्र हैं।इनकी गति और अभिव्यक्ति के नियम भी तकनीक से परे हैं। फुकुयामा के अनुसार बायो मेडीकल की संभावनाएं क्या हैं ?वे इससे क्या चाहते हैं ? वह चाहते हैं कि इससे दीर्घायु बनाने,कैंसर,डायविटीज,हृदय रोग आदि बीमारियों को खत्म करने का काम किया जाय। जेनरेटिव बीमारियों को खत्म कि‍या जाए या ऐसी बीमारियों को खत्म किया जाए जो चेतना को प्रभावित करती हैं,फैसला लेने की क्षमता को प्रभावित करती हैं।बुध्दिमत्ता का विकास,सौंदर्य का विकास आदि क्षेत्रों पर बायो मेडीकल को ध्यान देना चाहिए।फुकुयामा नेबायो मेडीकल की जिन संभावनाओं की बात की है उनमें गंभीर घोटाला है।

   मसलन् फुकुयामा बायो मेडीकल की संभावनाओं पर विचारकरते हुए यह बात नहीं कहते कि कैसे मनुष्‍य के प्यार में इजाफा हो,सहिष्‍णुता,समझदारी,अहिंसकभावबोध में वृध्दि हो।इन पक्षों पर बायो मेडीकल की संभावनाओं का विकास क्यों नहीं हो सकता। फुकुयामा चाहते हैं कि कैंसर,डायविटीज,हृदय रोग,एड्स आदि का इलाज खोजा जाए।किंतु उनकी चिंता मलेरिया,क्षयरोग,कुष्‍ठ रोग,अपंगता आदि की नहीं है।अस्वच्छता,अखाद्य और पानी प्रदूषण से जो बीमारियां पैदा होती हैं उनसे कैसे मुक्ति पाएं,इसे फुकुयामा ने अपनी सूची में जगह तक नहीं दी है।
    उल्लेखनीय है कि अमेरिका और पश्‍चि‍मी यूरोप के देशों में मोटर वाहन दुर्घटना और गोली चलाने से सबसे ज्‍यादा लोग मारे जाते हैं।उसके बाद कैंसर, डायविटीज,हृदय रोग आदि से सबसे ज्यादा लोग मरते हैं।ये बीमारियां जीवनशैली एवं खान-पान से संबंधित हैं।इस परिप्रेक्ष्य में यदि फुकुयामा के नजरिए को देखें तो पता चलेगा कि उसकी चिन्ताएं पूंजीवाद के संरक्षण और पल्लवन से जुड़ी हैं।जो लोग समाज बदलना चाहते हैं।पूंजीवाद से मुक्ति की लड़ाई लड़ना चाहते हैं।उन्‍हें फुकुयामा  की वैचारिक चमक और भूल-भूलैयया से सतर्क रहना होगा।

उत्‍तर आधुनि‍कतावाद और बहुसांस्‍कृति‍कवाद

उत्तर-आधुनिक स्थिति में बहुसांस्कृतिकवाद की धारणा हठात् चर्चा के केन्द्र में आ गई है। इस धारणा का बौध्दिकों के द्वारा विमर्श के लिए बढ़ता आकर्षण इस बात का संकेत है कि इसके पीछे मंशाएं कुछ और हैं। ये लोग फैशनेबुल वस्त्रों की तरह धारणाएं बदल रहे हैं ,धारणाओं के प्रति मनमाना व्यवहार कर रहे हैं। आज बौध्दिक विमर्श से क्या गायब किया जाय और किस पर चर्चा हो इसके सुनियोजित ढंग़ से फैसले लिए जा रहे हैं ,पूरा का पूरा विमर्श नियोजित होकर रह गया है। सच यह है कि धारणाएं ऐतिहासिक प्रक्रिया में निर्मित होती हैं ,जब तक धारणाओं को पैदा करने वाली परिस्थितियां बनी रहती हैं ,उनकी जरुरत बनी रहती तब तक धारणाओं का प्रयोग भी होता रहता है। किन्तु उत्तर-आधुनिक अवस्था में तर्क की बजाय तर्कहीन ढ़ंग से ,स्वाभाविक की बजाय नियोजित विमर्श पर जोर दिया जा रहा है। सब कुछ तात्कालिक एवं क्षणिक बना दिया गया है। आज विमर्श से समाजवाद गायब है और उसकी जगह बाजारवाद ने ले ली है।योजना की जगह उदारतावाद ,राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता की जगह भूमंड़लीकरण,वर्ग की जगह सामाजिक समूह, क्रान्ति की जगह स्वैच्छिक संगठनों के आन्दोलनों, राज्य की जगह नागरिक समाज,इतरा लिंगी कामुकता की जगह गे और लेस्वियन या समलैंगिक अधिकारों ,आधुनिकता की जगह उत्तर-आधुनिकता पर चर्चाएं प्रायोजित की जा रही हैं।इसी तरह समांगता की जगह बहुलतावाद ,विचार की राजनीति की जगह अस्मिता की राजनीति , राष्ट्र-राज्य की जगह उप -राष्ट्ीयता ,सामान्यत्व की जगह भिन्नता एवं विविधता ,जातीय संस्कृति की जगह संस्कृति , राष्ट्रीय एकता की जगह बहुसांस्कृतिकवाद एवं स्वीकृति की धारणाओं पर चर्चाएं हो रही हैं। आज सबसे ज्यादा संस्कृति ,विविधता,बहुलतावाद,अस्मिता की राजनीति आदि पर विमर्श हो रहा है। सत्तर के दशक में सांस्कृतिक बहुलतावाद की शुरुआत सबसे पहले कनाड़ा और आस्ट्रेलिया में हुई।बाद में अमेरिका ,ब्रिटेन और जर्मनी में हुई। इन दिनों यह फ्रांस के राजनीतिक परिदृश्य का प्रमुख एजेण्डा है।प्रसिध्द चिंतक भिखु पारीख ने लिखा है फ्रांस जैसे राष्ट्र -राज्य के मजबूत किले में प्रभुत्व जमाना काफी महत्व रखता है। उसने नागरिकों की जातीय,सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान के रुपों को जनगणना के रिकॉर्ड तक में दर्ज नहीं किया है। चूंकि बहु सांस्कृतिकवाद का आंदोलन विश्व के अनेक राजनीतिक संदर्भों में अनियोजित ढ़ंग से शुरु हुआ और उसने अनेक सामाजिक समूहों को आकर्षित किया।अभी तक यह आंदोलन उसूलों के बारे में सुसंगत दार्शनिक दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति नहीं कर पाया है।वह अपनी पहचान और मुख्य बिंदुओं तक पर प्रकाश नहीं ड़ाल पाया है।अत: यह जानना जरुरी है कि इसका अर्थ क्या है और सरोकार क्या हैं ? बहुसांस्कृतिकवाद को देखने का सबसे सही पैमाना न तो राजनीति है और इतिहास है बल्कि मानव जीवन को वह किस परिप्रेक्ष्य में देखताहै,यह प्रधान बिंदु है। इस प्रसंग में पहली बात यह ध्यान रहे कि मनुष्य सांस्कृतिक निर्मिति है।वह सांस्कृतिक जगत में जीता है।वह इसी सांस्कृतिक जगत से अपनी जिन्दगी और सामाजिक संबंधों को अर्थवत्ता और प्रासंगिकता प्रदान करता है।इसका यह अर्थ नहीं है कि संस्कृति से उसका निर्ध्रारणवादी रिश्ता है।बल्कि कहने मतलब यह हैकि संस्कृति उसे निर्मित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।वह उसके कुछ प्रभावों को कम कर सकता है किन्तु पूरी तरह संस्कृति से मुक्त नहीं हो सकता। दूसरी बात यह कि भिन्न-भिन्न किस्म की संस्कृति में भिन्न -भिन्न किस्म की व्यवस्थाओं की अभिव्यक्ति होती है।संस्कृति जिन्दगी की बेहतरी के विज़न को व्यक्त करती है।साथ ही यह ध्यान रहे कि प्रत्येक संस्कृति मनुष्य की क्षमता एवं भावनाओं का बहुत छोटा हिस्सा ही व्यक्त करती है अत: मनुष्य को समग्रता में बेहतर ढंग से जानने के लिए अन्य संस्कृतियों की मदद लेनी पड़ती है।जिससे बेहतर ढ़ंग से विकास किया जा सके। इससे जहां एक ओर संस्कृति के शुध्दतावादी दृष्टिकोण से बचेंगे वहीं दूसरी ओर संस्कृति के कल्पना जगत का विस्तार भी कर पाएंगे। इसका यह अर्थ नहीं है कि व्यक्ति अपनी संस्कृति के तहत बेहतर जिन्दगी जी नहीं सकता।बल्कि इसका मतलब यह है कि यदि अन्य संस्कृति मदद लेता है तो वह ज्यादा बेहतर ढ़ंग से जी सकता है। आधुनिक युग में एक ही संस्कृति में जीना असंभव है।क्योंकि यह गतिशील और स्वतंत्र जगत है। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि सभी संस्कृतियां समृध्द हैं , सभी को एक समान सम्मान मिलता है ,सभी अपने सदस्यों की खुशहाली के लिए तत्पर हैं ,सभी समान हैं और उनकी आलोचनानहीं हो सकती। कहने का तात्पर्य यह है कि कोई भी संस्कृति पूरी तरह उपयोगी नहीं होती। कोई भी संस्कृति पूर्ण नहीं होती।किसी भी संस्कृति को अन्य पर आरोपित करने का हक नहीं है। प्रत्येक संस्कृति आंतरिक रुप से बहुलतामूलक होती है और उसकी परंपराओं और विचारों में निरंतर परिवर्तन होता रहता है। परिवर्तन का मतलब यह नहीं है कि वह 'कोहरेंस' और पहचान को खो दे। बल्कि पहचान तो बहुलता ,तरलता और खुलेपन को समेटे होती है। संस्कृति सचेत और अचेत संपर्क के कारण विकास करती है। इन बातों के रचनात्मक संपर्क और अंत:संबंध से बहुसांस्कृतिकवाद का परिप्रेक्ष्य बनता है। प्रत्येक संस्कृति बहुलतामूलक और भिन्नता लिए होती है। जब संस्कृतियों को किसी एक स्रोत की उपज माना जाता है या किसी एक संस्कृति विशेष को आरोपित करने की कोशिश की जाती है तो बहुलतावाद की बुनियाद ही धराशायी हो जाती है। संस्कृति का उदय स्वयं के गर्भ से होता है। वह अन्य के गर्भ से पैदा नहीं होती। किन्तु वह अन्य से प्रभाव ग्रहण करती है , अन्य के तत्वों को आत्मसात् करती है ,बृहत्तर आर्थिक , राजनीतिक आदि कारणों से उसकी इमेज बनती है। यही वजह है वह किसी भी किस्म के केन्द्रीयतावाद को स्वीकार नहीं करती। केन्द्रीयतावाद उसके इतिहास एवं अन्य तत्वों की भूमिका को अस्वीकार करता है। बहुसांस्कृतिकवाद के परिप्रेक्ष्य के अनुसार कोई भी राजनीतिक सिध्दान्त या विचारधारा मानव जीवन के पूर्ण सत्य को व्यक्त नहीं करता। प्रत्येक -उदारतावाद ,अनुदारवाद ,राष्ट्रवाद, समाजवाद - बेहतर जीवन के लिए खास संस्कृति और विशिष्ट विजन को व्यक्त करता है।अत: वह अनिवार्यत: संकुचित और एकांगी होता है। भीखू पारिख का मानना है बहुसांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य के अनुसार समाज की बेहतरी के लिए विविधता और विभिन्न समूहों के बीच उनके नैतिक विजन को लेकर रचनात्मक संवाद बेहद जरुरी है। मसलन् ,समाज के सदस्यों में एक दूसरे की संस्कृति का आदर करने के अधिकार के प्रति सम्मान का भाव हो साथ ही वे अपनी पसंद का विस्तार कर सकें , आत्मालोचना ,दृढता , कल्पनाशीलता ,बौध्दिक और नैतिक सहानुभूति की क्षमता का विकास करे जिससे उसका विकास और भला हो। यह संभव है कि कुछ ग्रुप अन्य संस्कृति से संपर्क न रखना चाहें और अपने समूह के सीमित दायरे में जीना चाहें।हमें ऐसे समूहों की इस तरह की भावनाओं और जीवन शैली का सम्मान करना चाहिए। बहुसांस्कृतिक समाज को स्थिर बनाने के लिए जरुरी है कि इसके नागरिकों में एक -दूसरे के प्रति लगाव हो ,किन्तु लगाव का आधार नस्ल ,धर्म , एथनिक न हो अपितु बहुसांस्कृतिक समाज के उसूलों को आधार बनाया जाय। चूंकि बहुसांस्कृतिक समाज वैविध्यपूर्ण होता है अत: इसका आधार राजनीति को बनाया जाना चाहिए ,और साझी राजनीतिक प्रतिबध्दता के आधार पर राजनीतिक समूह के रुप में पहचान बनायी जाय। क्योंकि वे ऐतिहासिक तौर पर एक-दूसरे से जुड़े हैं। इस प्रसंग में कुछ पदबंधों के उदार प्रयोगों के प्रति सावधान रहने की जरुरत है। मसलन् , 'प्लूरल' ,'डाइवर्स' ,और 'मल्टीकल्चरल' पदबंधों का आमतौर पर 'बहु' के लिए उदारतापूर्वक प्रयोग किया जाता है।किन्तु इन तीनों में 'बहु' का भिन्न-भिन्न अर्थ है। इसके कारण इनका अर्थ ,अवधारणा ,आधार ,संदर्भ बदल जाता है। ये एक दूसरे के पर्यायवाची नहीं हैं।

उत्‍तर आधुनि‍कता और आवास समस्‍या

आधुनिकतावाद ने बिना किसी अवज्ञा के व्यक्ति के लिए स्वायत्त एवं मुक्त ' स्पेश ' प्रदान किया। इस क्रम में उसने निष्क्रिय विस्तार पर जोर दिया। 'अन्य' से अलग, यही व्यक्ति सार्वभौम सामाजिक का प्रतिनिधि बनकर उभरा। उत्तर-आधुनिकता ने 'अन्य' से व्यक्ति की स्वतंत्रता को खत्म कर दिया। इसकी विशेषता है दूसरे की निष्क्रियता के आधार पर अपनी सक्रियता को बनाए रखना। इस स्थिति को ध्यान में रखकर विचार करें कि क्या हिन्दी जातीय समाज में आधुनिकता प्रवेश कर पायी है ? क्या हम 'व्यक्ति को मुक्त 'स्पेश' दे पाए हैं ? सच यह है कि हम व्यक्ति को अभी तक मुक्त स्पेश नहीं दे पाए हैं। हमारे घर में व्यक्ति का कमरा सबका होता है। मुखिया का उसमें हस्तक्षेप होता है। कमरा वस्तुत : गाँव की सामुदायिक जीवन शैली का लघु संस्करण होता है। एक विचित्र स्थिति घट रही है। घर लोकप्रिय संस्कृति के प्रतीकों से भर गए हैं। आज हमारे घरों की बनावट ,सजावट और स्थापत्य के क्षेत्र में ऐसे रुपों की बाढ़ आई हुई है जो ' लोकप्रिय' और 'अभिजन' कला रुपों के सम्मिश्रण से निर्मित किए गए हैं।यह 'लोकप्रिय अभिजात्य ' है, इसके कोड्स , प्रतीक ,भाषा ,विचारधारा आदि हमारे घरों और व्यवहार का हिस्सा बनते जा रहे हैं। उत्तर-आधुनिक स्थापत्य बंद लिफाफे की तरह होता है। इसमें 'स्पेश' का एक के साथ एक पर आरोपण होता है। साथ ही एक - दूसरे में स्पेश घुसा रहता है। यानी एक ही कमरे में बैठने,खाने, मनोरंजन आदि की व्यवस्था मिलेगी। यह स्थापत्य की एकाधिकारवादी स्थिति है। इसके 'फॉर्म' में सामूहिकता और निजता की एक साथ्ज्ञ अभिव्यक्ति होती है। यहां उपभोक्ता के परिवेश पर लोकतांत्रिक नियंत्रण और शिरकत पर जोर रहता है। यह ऐसे परिवेश की सृष्टि है जहां वस्तुएं पृथक् अस्तित्व खो देती हैं। और जीवन शैली का अंग बन जाती है। यह उत्तर - आधुनिकता की अंतराष्ट्रीय शैली है। उत्तर-आधुनिकों का यह मानना है हमें लोगों को पुनर्स्थापित करने की बजाय घरों को पुनर्स्थापित करना चाहिए। सामूहिक कॉपरेटिव इमारतों या 'फ्लैट्स' के निर्माण पर जोर देना चाहिए। समूह की रिहाइश पर जोर देना चाहिए।समूह के स्वप्न पर जोर देना चाहिए। थियोडोर एडोर्नो के मुताबिक यह आन्तरिक स्वतंत्रता की ओर प्रस्थान है। किन्तु उत्तर- आधुनिक स्थापत्य में एक ऐसी प्रवृत्ति भी है जो सहमतिपरकता का निषेध करता है। यह 'प्लॉट' केन्द्रित स्थापत्य है। अब 'फ्लैट' हैं या 'प्लॉट' हैं। बहुमंजिला इमारतों में 'फ्लैट' के रुप में घरों का निर्माण इसलिए किया जाता है क्यों कि मकानों का संकट है। 'फ्लैट' वस्तुत: स्थान के तार्किक नियोजन का परिणाम है।यह व्यक्ति की भूमिका को अस्वीकार करता है। यह वास्तुकार के सीधे हस्तक्षेप पर निर्भर है।वास्तुकार का सभी प्रक्रियाओं में सीधा हस्तक्षेप होता है। यह ऐसा स्थापत्य है जो परिवर्तनों की हिमायत करता है। यह आभास देता है कि घर किसी 'वर्ग' या 'वर्ग प्रभुत्व' की अभिव्यक्ति नहीं है। प्रश्न उठता है आधुनिकतावाद या उत्तर- आधुनिकतावादी परि‍प्रेक्ष्‍य से क्या आवास-समस्या हल कर सकते हैं ? सच यह है इन दोनों के पास आम जनता की आवास -समस्या का समाधान नहीं है। ये सिर्फ मध्यवर्ग और उच्च वर्ग की आवास -समस्या को उठाते हैं।मजदूरों,किसानों एवं गरीब तबके की आवास - समस्या को स्पर्श तक नहीं करते। ये मांग और पूर्त्‍ति के आधार पर इस समस्या का समाधान प्रस्तुत करते हैं। दोनों गांव और शहर के बीच के वैषम्य को बढ़ावा देते हैं। ज्यादा से ज्यादा महानगरों के निर्माण पर जोर देते हैं। यदि आम जनता की आवास-समस्या हल करनी है तो गांव और शहर के वैषम्य को घटाना होगा।महानगरों के निर्माण की प्रक्रिया को रोकना होगा। पूंजीवादी उत्पादन पध्दति के रहते हुए यह संभव ही नहीं है। क्योंकि पूंजीवादी व्यवस्था को बनाए रखने में ये दोनों कारक मदद करते हैं। यही वजह है कि हमें पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष के साथ आवास-समस्या की लड़ाई को जोड़ना होगा।

उत्‍तर आधुनि‍कतावाद

उत्तरआधुनिकतावाद को वृध्द पूंजीवाद की सन्तान माना जाता है।पूंजीवाद के इजारेदाराना दौर में तकनीकी प्रोन्नति को इसका प्रमुख कारक माना जाताहै। विश्व स्तर पर साम्राज्यवादी दखलंदाजी के बढने के बाद से आर्थिकतौर पर अमरीकी प्रशासनकीदुनिया में दादागिरी बढी है। इसके अलावा जनमाध्यमों ; संस्कृति; सूचना प्रौद्योगिकी , और विज्ञापन की दुनिया में आए बदलावों के कारण दुनिया में अधिरचना में निर्णायक परिवर्तन हुए हैं।इन परिवर्तनों के कारण आम नागरिकों की जीवन शैली में बुनियादी बदलाव आया है। आम लोगों के दृष्टिकोण में नए लक्षण दिखाई दे रहे हैं।इस तरह के चौतरफा परिवर्तन पहले कभी देखे नहीं गए। भारत में इन परिवर्तनों के कारण जिस तरह के बदलाव आए हैं उनकी सही ढंग से मीमांसा करने की जरूरत है। हिन्दी केअधिकांश बुद्विजीवी इन परिवर्तनों को उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं। हिन्दी में उत्तर-आधुनिक परिवर्तनों की गंभीर चर्चा का प्रस्तुत आलेख में उनके विचारोंकी रो काम सुधीश पचौरी ने किया है। सुधीश के मूल्यांकन के उपकरण माक्र्सवादी और उत्तर-संरचनावादी हैं। कहीं -कही ंसांस्कृतिक आलोचना के मानदण्डों का भी प्रयोग किया है। पचौरी का मानना है कि ैउत्तरआधुनिकता एक आर्थिक ; सांस्कृतिक अवस्था है। यानी हमें अवस्था के अध्ययन से शुरूआत करनी चाहिए। मनुष्य किन स्थितियों में रह रहा है और किस तरह के प्रश्नों से उसे जूझना पड़ रहा है और इन प्रश्नों को कैसे हल रहा है अथवा कैसे हल करना चाहिए। इस तरफ हमारा सबसे पहले ध्यान जाना चाहिए । पचौरी के मुताबिक उत्तरआधुनिक सिध्दान्तिकी के इन दिनों कम से कम चार संस्करण मौजूद हैं। ये चार हैं उत्तर -संरचनावाद ;नव माक्र्सवाद; नव व्यवहारवाद और स्त्रीवाद। ैस्पष्ट हीउत्तरआधुनिकतावाद की कोई समग्रतावादी या सकलतावादी मुक्कमल परिभाषा संभव नहीं;क्योंकि वह स्वयं समग्रतावाद विरोधी है। ैइसे देख तमाम समग्रतावादी विचार और सकलतावादी प्रत्यय इसकी भर्त्सना करते हैं। पचौरी ने जॉन मैकगोवान के हवाले से लिखाकि उत्तर-आधुनिकतावाद एक ऐसी फिसलनदार पदावली हैकि हम उसे आसानी से स्थिर नहीं कर सकते। तात्पर्य यह कि इसकी एक व्याख्या संभव नही है। एक राय भी संभव नहीहै। यह नाना रूपा है। मैकगोवान की रायहै कि मैं नहीं मानताकि हम किसी ऐसे नए ऐतिहासिक काल में हैं जो पिछले से अलग है; ताकि हम इस नए ब्रांड'को उचित ठहरा सकें। लेकिन मुझे पूरा यकीन हो चला है कि समकालीन बुध्दिजीवी की अपने की भूमिका कीअवधारणा बदल गयी है। बीसवीं सदी में निश्चित की गई प्रतिरोध की रणनीतियाँ नए विद्रोहियों को प्रभावी नहीं लगतीं। पचौरीके अनुसार उत्तर-आधुनिकतावाद के तीन प्रस्ताव हैं: समग्रतावादी सार्वभौमिक सत्यों का नकार ; तर्कवाद का नकार ;और आधुनिकतावाद की सक्षमता का नकार । पश्चिमी दुनिया ने अपनी जवानी में एक सपना पाला : एक ऐसा केन्द्रीकृत विश्व जिसमें एक सार्वभौमिक सिध्दान्त में हर चीज डूब जाती है। लेकिन यह केन्द्रीकृत विश्व और कुछ नहीं पूंजीवादी विश्व ही है; जिसने पश्चिम में चरमोत्कर्ष प्राप्त कर लिया है और साम्राज्यवाद के तरीके से शेष दुनिया को भी अपने भीतर अन्तर्भुक्त कर लिया है। इस सर्वव्यापी और सर्वक्षेत्रीय केन्द्रीकृत यथार्थ के महाकाय में लगभग हर चीज शामिल है। भोला आधुनिकता वादी ही सोच सकता है कि वह इस सबसे अलग ;स्वायत्त और स्वतन्त्र है। उत्तर - आधुनिकतावाद कहता है कि इस पूंजीवाद के महाकाय में हर चीज शामिल है ; अन्तर्भुक्त है। कथित विद्रोही भी इसमें अन्तर्भुक्त है; आधुनिकतावादी स्वायत्तता या आलोचनात्मक दूरी असभ्मव हैजो पहले उपलब्ध थी और जिससे पूंजीवाद की समीक्षा सम्भव थी। उत्तर-आधुनिक विमर्श की शुरूआत संस्कृति के क्षेत्र से हुई।यही वजह हैकि इसकी शैतानियों का जन्म भी यहीं हुआ। आज भी विवाद का क्षेत्र यही है। प्रश्न उठता हैकि संस्कृति के क्षेत्र में ही यह उत्पात शुरू क्यों हुआ?असल में संस्कृति का क्षेत्र आम जीवन की हलचलों का क्षेत्र है और साम्राज्यवादी विस्तार की अनन्त संभावनाओं से भरा है। पूंजी; मुनाफा; और प्रभुत्व के विस्तार की लड़ाईयां इसी क्षेत्र में लडी जा रही हैं। जैसा कि सभी उत्तर -आधुनिक आलोचकों का मानना है कि उसकी एक सुनिश्चित परिभाषा संभव नही है। यही वजह है कि कोई उसे उत्तर- आधुनिकता का तर्क कहता है । कोई उसे छलना कहता है। किसी के लिए चिह्नों की लीला है। किसी के लिए सांस्कृतिक हमला है। किसी केलिए सांस्कृतिक तर्क है। किसी के लिए तर्क का अन्त है। किसी के लिए इतिहास का अन्त है। किसी के लिए विखंडन है। किसी के लिए विकेन्द्रण है। किसी के लिए बहुलतावाद है । किसी के लिए महावृत्तान्त का अन्त है। रिचर्ड रोर्ती के शब्दों में उत्तरआधुनिकताविडम्बनात्मक सिध्दान्तिकी है जो हर शाश्वत सत्य और अनिवार्यताओं की खोज के विरूध्द है। जो किसी भी एक व्याख्या या निष्कर्ष की योजना को चुनौती है। इसका आशय यह है कि इसमें अराजकता की दिशा में चले जाने का खतरा भी है। उत्तर-आधुनिक इसे रेडीकल तत्व कहते हैं। पचौरी की राय में उत्तर-आधुनिकतावाद सिर्फ नकारात्मक विमर्श नहीं है। वह सिर्फ 'हमला ' नहीं है; उसमें विविधता को बनाने का रचनात्मक सुझाव भी निहित है। वह पश्चिमी मानवतावाद को निशाना बनाता है; लेकिन ' इतिहास फिर से लिखो ' की मुद्रा में नहीं। वह पश्चिम को भी उसके पराम्परागत तर्कशास्त्र की ओर ध्यान देने को कहता है। वह पश्चिमी विमर्श में ' आजादी ' की जगह 'सत्य 'के विमर्श की पेशकश करता है। आजादी का विमर्श ' सत्ता ' का बनता है ; 'सत्य ' का विमर्श सत्ता का नहीं बनता । पचौरी ने यह भी लिखा कि पश्चिमी आधुनिकतावाद ने परम्परागत तर्क को अपदस्थ कर अपना ;एकीकृत तर्क लादा। सिर्फ सत्ता ही नहीं लादी ; वे विचार भी लादे जिन्हें हम मुग्ध होकर आधुनिक कहते हैं। सिर्फ समानान्तरतावाद के तहत तर्क करें तो राजनीतिक उपनिवेशीकृत आधुनिकता ने हमारे अर्थतन्त्र को नष्ट किया तो क्या विचारों में बहुत कुछ नष्ट नहीं किया ? उत्तर-आधुनिकता पश्चिमी आधुनिकतावाद के वर्चस्व को उलटकर ; परम्परागत तर्करूपों को जाग्रत करके उन्हें उनकी विविधता में बनाए रखना चाहती है; ताकि कोई अन्य विचार भी बने रहें जिनके तहत समाज बनते थे; चलते थे और जिन्हें दबा दिया गया है।इसे देख जो लोग परम्परा कार् अथ धार्मिक पुनरूत्थानवादी परम्परा से निकालने की जल्दबाजी में उत्तर-आधुनिकता को पुनरूत्थान का पर्याय मानकर चलते हैं ; चलने स्वतन्त्र हैं; लेकिन उन्हें यह तो याद रखना होगा कि वृध्द पूँजीवाद उत्तर-आधुनिकता के केन्द्र में; ऐसी किसी भी ऐतिहासिक पुनर्रचना को संभव नहीं करता जो आधुनिकतावादी पश्चिमी उपनिवेशीकरण के दौर में; नवजागरण के दौर में ' पुनरूत्थान 'के रूप में जाग्रत हुई। पुनर्जागरण और नवजागरण दोनों आधुनिकतावादी ज्ञानोदय के विमर्श हैं। उत्तर- आधुनिकता में तो ये टूटते हैं।वृध्द पूंजीवाद परम्परा को ; इतिहास को; ज्ञानोदय की योजना को ही तहस-नहस करता है। वृध्द पूंजीवाद का चंचल पैसा इन्हें इनकी आधुनिकतावादी महानता से रहित करके इन्हें ' पेश्टीच ' में ही सम्भव करता है। 'महान्' सम्भावनाएँ उत्तर- आधुनिकता में सम्भव ही नही हैं। पचौरी की दृष्टि में उत्तर-आधुनिकता की सबसे बडी विशेषता यह भी है कि वह पश्चिमी वर्चस्ववाद को चुनौती देती है। वह इसके लिए पश्चिमी तर्कशास्त्र को चुनौती देतीहै;वह तर्कशास्त्र जो 'अस्मिता'केलिए भेद और 'भिन्नता' को दबाता है। इस तरह वह एक नैतिक विमर्श है। पश्चिमी तत्वमीमांसा;पुरूष सत्तात्मकता;मानवतावाद आदि ने अस्मिता के लिए ' भेदों 'को दबाया है। इसीलिए उत्तर-आधुनिकतावादी सिध्दान्तिकी कोई 'एकमात्र ' हल नहीें देती;बल्कि 'अपने - अपने हल' की सम्भावना बताती है।हम कह सकते हैं कि वह प्रतिरोधात्मक व्यवहारवाद है।पचौरी के अनुसार कला की स्वायत्तता के मामले में उत्तर-आधुनिकतावाद कहता है कि कलाकार की स्वायत्तता एक असंभव स्थिति है। आधुनिकतावाद स्वायत्तता पर ही टिका है।उत्तर -आधुनिकता उस आधार को ही नहीं मानती जिस पर स्वायत्तता टिकी होती है। इसीलिए वह कलाकार की ' सुधारक ' की भूमिका ; रूपान्तरणकारी भूमिका को अस्वीकार करती है। उत्तर-आधुनिक स्थितियाँ इस भूमिका को असम्भव बनाती हैं। आधुनिकतावाद ने इस झूठ को बड़ी दूर तक सच बनाए रखा कि बुध्दिजीवी पूॅजीवाद के बाहर के क्षेत्रमें सक्रिय हो सकता है और इस तरह उसके विरूध्द 'विपक्ष ' की भूमिका निभा सकता है। उत्तर -आधुनिक स्थितियॉ इस भूमिका को एक ' भ्रम 'साबित करती हैं। 'अजनबीपन में जीने को अभिशप्त ' कलाकार - यानी आधुनिकतावादी कलाकार - जो पहले हस्तक्षेप करता बताया जाता था; क्योंकि अजनबी या बहिष्कृत लेखक- कलाकार पूँजीवाद से भी बहिष्कृत मान लिया जाता था- उत्तर-आधुनिकता में ' खत्म ' हो चला है। कलाकार विराट सांस्कृतिक उद्योग का एक हिस्सा है। आधुनिकतावादी कलाकार 'भूच्च ' कलाकार है। उत्तर-आधुनिकतावादी कलाकार जन संस्कृति या लोकप्रिय संस्कृति का कलाकार है। आधुनिकतावादी ऐलीट कला ने जनता को त्यागकर जो शून्य बनाया है; उत्तर-आधुनिक कला उसे भरती है-कवि सम्मेलन;मुशायरे; संगीत कैसेट; फिल्मीगाने; टी.वी. सीरियल;आदि कला की उत्तर-आधुनिक स्थितियाँ ही हैं-आधुनिकतावादी कला अपने श्रेष्ठिवाद में किसी भी जनसमूह से स्वयं को सम्बन्धित नहीं मानती और अपनी शुध्दता और शील की रक्षा अकेले करती है। उत्तर -आधुनिक साहित्य और कला का समाज से सम्बन्ध बुनियादी रूप से बदला जाताहै। वह शाश्वत नहीं दैनिक ; शुध्द नहीं व्यावसायिक हो जाती है। कलाकार का बुनियादी -और आधुनिक- अजनबीपन हट जाता है। ' व्यवसाय' आ जाता है। उत्तर -आधुनिकता में ' महान् ' विशेषण नहीं होता।बहुत -से अभावों के साथ 'कला' के अभाव का नाम है उत्तर-आधुनिकता। उत्तर- आधुनिकों में ल्योतार का नाम सबसे आगे है; वह उत्तर-आधुनिकता को आधुनिकता से जोड़कर देखता है। उसी का विस्तार मानता है। पचौरी ने लिखा है कि वे मानते हैं कि बहुत से उपकेन्द्र उपलब्ध हैं जिनमें झगडेहैं;जो सत्ता के नए रूपों को प्रगट करते हैं। आधुनिकता ल्योतार के लिए औद्योगिक पूँजीवाद का अंग है। आधुनिकता का महत्व यह नही है कि वह सभी क्रियाओं के नियम खोजती ;स्थापित करती है; बल्कि यह है कि ऐसा वह अपने समग्रतावाद के तहत निरंकुशता लागू करके सम्भव करती है। यह एकता ;एकसूत्रता और समग्रता ' झूठी' है; क्योंकि यहीं महावृत्तान्त बनते हैं। यह सच हैकि उत्तर-आधुनिकता महावृत्तान्त को समाप्त कर देतीहै। प्रश्न यह हैकि ऐसा क्यों होता है? अधिकतर उत्तर-आधुनिकतावादी इसका उत्तर खोजने में असफल रहे हैं। उत्तर-आधुनिकता वस्तुत:पूूंजीवादी फिनोमिना है। यह पूंजीवाद विरोधी फिनोमिना नहीं है। पूंजीेवाद की सामान्य विशेषता है कि वह अपने आधार में निरन्तर परिवर्तन करता रहता है। बल्कि यों कहें जो तत्व अप्रासंगिक होते जाते हैं उन्हें अपदस्थ करता रहता है। इस तरह वह अपनी अधिरचना को नियमित बदलता रहता है। वैसे यह काम समाजवाद भी करता है।जो भी व्यवस्था अपने को बरकरार रखना चाहती है उसे यह कार्यनीति अपनानी पड़ सकती है। अधिरचना के परिवर्तनों को देखकर वही चौंकते हैं जो व्यवस्था को शाश्वत मानकर जी रहे होते हैं। सामाजिक व्यवस्थाएं शाश्वत नही हैं और न उनकी अधिरचनाएं ही शाश्वत हैं ।आज जो लोग चौंक रहे हैं या अवाक् हैं उसका प्रधान कारण है पूंजीवाद की अपरिवर्तनीय छबि में गहरी आस्था। उत्तरआधुनिक परिवर्तन इस आस्था को तोड़ते हैं और परिवर्तन के नियम की तरफ ध्यान खींचते हैं। ध्यान रहे परिवर्तन की जरूरत प्रत्येक वर्ग को है और प्रत्येक वर्ग परिवर्तन के नियम का इस्तेमाल करता है।दूसरा प्रश्न यह है कि आखिरकार ये परिवर्तन किस दिशा की ओर ले जा रहे हैं ? क्या इन परिवर्तनों से 'अन्य' को या उन लोगों को लाभ मिलेगा जो 'हाशिये' पर हैं?अथवा इन परिवर्तनों के जरिये पूंजीपतिवर्ग अपने वैचारिक आधार का विकास करना चाहता है?यह भी सोचना चाहिए कि पूंजीपतिवर्ग को और समाज के 'अन्य' वर्गों को इन परिवर्तनों से क्या मिला? ये परिवर्तन किसके लिए फायदेमन्द साबित हुए? क्या उत्पादक शक्तियों को इन परिवर्तनों से बुनियादी तौर पर कोई लाभ पहुंचा? क्या मजदूरों -किसानों की जिन्दगी में कोई प्रगति हुई? सच यह है कि समाज की उत्पादक शक्तियों के जीवन में प्रतिगामिता में इज़ाफ़ा हुआ है। उत्पादन के उपकरणों में तेजी से बदलाव आया है। सूचना; , संचार और परिवहन के क्षेत्र में क्रान्‍ति‍कारी परिवर्तनों की लहर आयी हुई है। ये तीन क्षेत्र हैं जहां से पूंजीपति वर्ग बेतहाशा मुनाफा कमा रहा है। इन क्षेत्रों के परिवर्तनों ने शोषण की गति में कई गुना इज़ाफ़ा किया है। 'अन्य' या 'हाशिये' के समूह और भी ज्यादा पिछड गए हैं।यह कहा जा रहा है कि जो समूह हाशिये पर थे वे केन्द्र में आगए हैं जो समूह अपना हक नहीं मांगते थे वे हक मांगने लगे हैं। सच यह हैकि सोये हुए समूह शोषण की निर्मम मार के कारण जगे हैं; वे शोषितों के जनसंघर्षों के कारण जो जागरूकता आयी है उसके प्रभाववश जगे हैं। दूसरी बात यह कि उत्तर-आधुनिक परिवर्तन न आए होते तब भी ये वर्ग जागते।ध्यान रहे परिवर्तन की गति सभी समूहों और वर्गों में एक जैसी नहीं होती। किन्तु परिवर्तन की लहर शोषितों में आती है। यह लहर कब आएगी? कैसे आएगी?इसका कोई निश्चित फार्मूला नहीं है।'परिवर्तन' के नियम का विमर्श के केन्द्र में आना वस्तुत: शोषितों की विचारधारात्मक जीत है। आज बहस परिवर्तन के नियमों और परिवर्तन के रूपों पर हो रही है इससे पूंजीवाद की समझ और भी ज्यादा समृध्द हुई है। कुछ मूढमति इससे यह निष्कर्ष निकालने लगे हैं कि पूंजीवाद की मार्क्‍सीय व्याख्याएं गलत साबित हुई हैं। मार्क्‍सवाद अप्रासंगिक हो गया है। सोवियत संघ में समाजवाद का पतन का अर्थ है मार्क्‍सवाद ही गलत है ,इस विचार की पुष्टि होती है। फलश्रुति यह कि मार्क्‍सवाद से बचकर रहो। कम्युनिस्टों से बचकर रहो। इस तरह की तर्कप्रणाली के हिमायतियों को उत्तर-आधुनिक चिन्तन में तरज़ीह दी गयी। किन्तु उत्तर-आधुनिक विचारकों में सभी इसी मत के नहीं हैं। इनमें कुछ मार्क्‍सवादी भी हैं जो बुनियादी वर्गों की जिन्दगी में बदलाव चाहते हैं। कुछ ऐसे भी विचारक हैं जो पूंजीवाद के गम्भीर आलोचक हैं। इन दोनों किस्म के विचारकों से मार्क्‍सवादी काफी कुछ सीख सकते हैं। ध्यान रहे यह दौर अवधारणाओं के बदलने का दौर भी है। हमें इसके लिए प्रस्तुत रहना होगा कि हम जिस चीज पर विचार कर रहे हैं क्या उसे पढने के औजार ठीक हैं?हो सकता है जब हम किसी नई चीज या स्थिति का अध्ययन करें तो हमारे औजार किसी काम ही न आएं?जिन माक्र्सवादियोंने उत्तर -आधुनिकता पर विचार किया है उन्होंने वस्तुत:औजारों को बदला है। माक्र्सवाद के बुनियादी उद्देश्य में बदलाव नहीं किया है। पचौरी ने प्रसिध्द उत्तरआधुनिक चिन्तक ल्योतार का मूल्यांकन करते हुए लिखा हैकिल्योतार कहीं भी उत्तर-आधुनिक को आधुनिक से पृथक नहीं मानते है 'उत्तरआधुनिकता आधुनिकता का आखिरी बिन्दु नहीं है;बल्कि उसमें मौजूद एक नया बिन्दु है और यह दशा लगातार है। उत्तर-आधुनिकता की यह सातत्यमूलक छबि महत्वपूर्ण है। पचौरी की मान्यता है कि कुछ भंग; विकेन्द्रित स्थिति तथा कुछ नवकेन्द्रित स्थिति समाज की एक नई छबि तो बना ही देती है; जो ल्योतार के परम निराशावादी उत्तर-आधुनिक विकेन्द्र को फिर चुनौती देती है। ल्योतार जिस 'समग्रता' पर हमला बोलने की बात करते हैं ;वह बहुराष्ट्ीय निगमों के विश्व बाजार या विश्वव्यापार संगठन के केन्द्रवाद या पूॅजी के केन्द्रवाद में बदल जाता है। ल्योतार ने जिस प्रक्रिया को खत्म हुआ मान लिया था ; वह फिर शुरु हो सकती है। राष्ट् ; राज्यों की जगह विश्व बाजार और उस पर बहुराष्ट्ीय निगम आ जाते हैं; जिसका पर्याप्त जिक्र ' दि पोस्टमॉडर्न कंडीशन' में स्वयं ल्योतार ने किया है। ल्योतार की समस्यायह है कि वे बहुराष्ट्रीयनिगमों के केन्द्र को; राष्ट्र राज्यों के केन्द्र को अपदस्थ करते तो दिखते हैं;लेकिन उनकी समग्रतावादी शक्ति पर हमला बोलने की कोई रणनीति नहीं सुझाते।जान रंडेल उनकी इसी सीमा की इंगित करते हुए कहते हैं कि‍ उत्तर-आधुनिकता में समाज एक ओर विखंडित और श्रेणीयुक्त बन जाता है; दूसरी ओर सूचना निर्भर प्रबन्धन में नियुक्त हो जाता है और इस जगत में हर विखंडित समूह अपने आसपास फिर केन्द्र को बनाता पाता है।ल्योतार की सीमा यह है कि वह टकराव को स्वीकार ही नहीं करता। उनके लिए सब भाषा है। वह ज्ञान और समाज के बीच सहजात सम्बन्ध मानता है। वह उपकेन्द्रों की उपस्थिति तो मानता है किन्तु इनकी मीमांसा नहीं करता। ल्योतार का मानना है महावृत्तान्तीय मानक दूसरी लडाई के बाद बदल गए।ज्ञान की वैधता की साख खत्म हो गयी।तकनीकी ने उसे बदल दिया।बाजार की शक्तियों के नए तरीकों ने उसे बदल दिया। जिसके आगे कल्याणकारी राज्य भी हाशिए पर चला गया।ज्ञान के क्षेत्र एक- दूसरे से स्वतन्त्र हो गए।उनकी वैधता राज्य से नहीं;उन्हीं से आने लगी। इस स्थिति ने ज्ञान के पोजिटिविज्म और उपयोगितावाद को ध्वस्त कर दिया। फलत: महावृत्तान्त या महानता के प्रति सन्देह उत्पन्न हो गया। महानता अविश्वसनीय हो उठी। महानता या महावृत्तान्तों की 'अविश्वसनीयता' के अलावा उत्तर-आधुनिकता की विशेषता वैधता का विकेन्द्रण है;विद्रूपण है। उत्तर-आधुनिकता में सम्बन्ध 'व्यवहारिक' होते हैं; सभंग होते है; विपदग्रस्त होते हैं; असुधार्य होते हैं और विडम्बनात्मक होते हैं। व्यावहारिकता उत्तर-आधुनिक सम्बन्धों का सार है।आदर्शहीन,प्रतिबध्दताहीन सम्बन्ध,जो क्षण-क्षण बदलते हैं, वे मूलत: सत्तात्मक सम्बन्ध होते हैं। यह अराजकता ही 'लीला' है,जिसे ल्योतार भाषा की लीला कहते हैं। भाषा के नियम तभी बदलते हैं जब उन्हें खेलने वाला बदले। बतर्ज ल्योतार सूचना और तकनीक पर पहुंच और नियन्त्रण ही वह मार्ग है जहाँ'खेल' बदला जा सकता है। यह खेल कैसे बदले ? किन नियमों से बदले? खेल-खेल में हम और अन्य कहॉ पहुंचेंगे? इन प्रश्नों का ल्योतार के पास कोई उत्तर नहीं है। वे वैध को अवैध और अवैध को वैध घोषित करते हैं। ल्योतार के अनुसार हर वह स्थिति अथवा प्रक्रिया आधुनिक है जो अपनी वैधता की सिध्दि के लिए दूसरे अतिवृत्तान्त का संदर्भ देती है। 'अविश्वसनीयता' के तत्व का इस्तेमाल करते हुए अंन्तत: उसे ही आधुनिक-बोध में तब्दील कर देते हैं।यही उनके उत्तर-आधुनिक बोध का आधार है। इसी के आधार पर वे ज्ञान,विज्ञान,संस्कृति,सामाजिक सम्बन्ध, यथार्थवाद आदि की अवधारणाओं को चुनौती देते हैं। ल्योतार के लिए सर्वसंग्रहवाद ही संस्कृति है। मौजूदा युग शैथिल्य का युग है। शैथिल्य यानी 'समयके रंग' का बदल जाना।प्रयोंगों, क्रान्तियों की जगह 'प्रयोगहीनता' और क्रान्तिहीनता का युग।पचौरी ने लिखा हैकि ल्योतार के निष्कर्षों को पढते हुए लगता हैकि हम बहुत से 'अंतों'के युग में जी रहे हैं। ल्योतार ने 'अतिवृत्तान्त' और 'केन्द्रवाद' को मूलत: निशाना बनाया। 'टूट' के रुपों की मीमांसा निर्मित की।'समग्रता' और 'यथार्थवाद' की कोटि को अप्रासंगिक घोषित किया। उत्तर - आधुनिकता वृध्द पूंजीवाद का अस्थिर फिनोमिना है। यह स्वभावत : चंचल है। चंचलता के कारण इसके बारे में एक निश्चित राय तय कर पाना मुश्किल है।यह सबसे ज्यादा विवादास्पद फिनोमिना है। भारत में इसका एक गति, एक समय और एक ही कारण से विकास नहीं हुआ। कहीं यह फिनोमिना जल्दी पहुंचा,कहीं देर से और कहीं अभी तक पहुंचा ही नहीं है। यही वजह है कुछ के लिए इस फिनोमिना का अस्तित्व है , कुछ के लिए यह माया है। असल में ,मत भिन्नता की स्थिति ही उत्तर - आधुनिकता है।इस अर्थ में यह जनतांत्रिक है। एकरूपता, एकराय और इकसारता का इससे स्वभावत: बैर है। हकीकत में यह एक अवस्था है जो स्वयं में अन्तर्विरोधपूर्ण है।फलत: है भी और नहीं भी। कुछ के लिए प्रतिरोध की अवस्था है , कुछ के लिए साम्राज्यवादी षडयंत्र , कुछ के लिए प्रगतिशील तो कुछ के लिए प्रतिक्रियावादी फिनोमिना है। उत्तर - आधुनिकता को समझने के लिए वृध्द पूंजीवाद की सही समझ होना बेहद जरुरी है। हिन्दी के अधिकांश बुध्दिजीवी इसका अमूमन उपहास उड़ाते रहते हैं।ये ऐसे बुध्दिजीवी हैं जो अभी तक सामंती खोल से बाहर नहीं निकल पाए हैं। इनका जीवन और साहित्य को लेकर सामंती रवैय्या है। ज्ञान के स्तर पर पूंजीवाद की आधी - अधूरी समझ को मुकम्मल समझ कहते हैं। पिछड़ेपन का आलम यह है कि ये अपने ज्ञान को सही और अन्य के ज्ञान को गलत मानते हैं। हर विषय पर वगैर जाने लिखना और उसे लेकर अहंकार में डूबे रहना , अपने ही हाथों अपनी पीठ ठोंकना , ज्ञान के पुस्‍तकीय एवं शोधपरक कार्यों की उपेक्षा करना, मौलिक लेखन और मौलिक ज्ञान के नाम पर ' कॉमनसेंस ' की बातों की पुनरावृत्ति करना, संदर्भों को छिपाना या संदर्भ का सचेत रुप से इस्तेमाल न करना हिन्दी के बुध्दिजीवियों की आम विशेषता है। ऐसे में उत्तर - आधुनिकता पर बातें करना खतरे से खाली नहीं है। क्यों कि यह ऐसा फिनोमिना है जिसका ज्ञान,विज्ञान, प्रौद्योगिकी,सूचना प्रौद्योगिकी और मासकल्चर से गहरा संबंध है। चूंकि हिन्दी के बुध्दिजीवी को अतीतजीवी माना जाता है अत : वह जब उत्तर -आधुनिकता पर लिखता है तो श्रेष्ठत्व सिध्द करने के चक्कर अतीत में लौट जाता है। वह अतीत के तर्कों एवं ज्ञान भंड़ार के जरिए उत्तर - आधुनिकता पर बातें करता है जब कि इस फिनोमिना को अतीत के ज्ञान के जरिए समझा ही नहीं जा सकता,यह विशुध्द रुप से पूंजीवादी फिनोमिना है। इसका वर्तमान और भविष्य से संबंध है। उत्तर - आधुनिकतावाद पदबंध की यह सीमा है कि इसकी कोई स्वतंत्र पहचान नहीं है। इस पर की गयी बहस किसी न किसी रुप में आधुनिकतावाद से जुड़ती है। ' 'उत्तर' का वास्तव में क्या अर्थ है इसकी संतोषजनक व्याख्या नहीं मिलती । मसलन्, 'मॉडर्न' का संबंध वर्तमान से है तो 'पोस्ट मॉडर्न' का संबंध भविष्य से होगा। इस दृष्टि से 'पोस्ट मॉडर्न' साहित्य वह होगा जिसका भविष्य से संबंध है। ब्रैन मैक हॉल ने पोस्ट मॉडर्निस्ट फिक्शन में लिखा कि 'पोस्ट मॉडर्न' का अर्थ है ऐसी वस्तु का संदर्भ जो मौजूद नहीं है। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में उत्तर-आधुनिकतावाद पर विचार करें तो पाएंगे डिक हिंगिस ने ए डायलेक्टिक ऑफ सेंचुरी[1978]मेंअंग्रेज चित्रकार जॉन वाटकिंस कैपमैन के बारे में लिखा कि उसने सन्1870 में 'पोस्ट मॉडर्न पेंण्टिग' पदबंध का सबसे पहले प्रयोग किया। सन् 1917 में लिखित रुडोल्फ पान्नविट्ज ने दि क्राइसिस इन यूरोपीयन कल्चर में 'उत्तर- आधुनिक' पदबंध का सैन्यवादी, राष्ट्वादी,अभिजात मूल्यों की व्याख्या के संदर्भ में प्रयोग किया। बाद में यह प्रवृत्ति फासिज्म में प्रकट हुई। ब्रिटिश इतिहासकार अर्नाल्ड टायन्वी ने ए स्टैडी ऑफ हिस्ट्ी[1947]एवं डी.सी. सॉमरवेल की कृतियों में 'उत्तर-आधुनिक' का प्रारम्भ सन् 1875 से माना गया है। जबकि अमरीकी चिन्तन में सन् 1950 के बाद इस पदबंध का प्रयोग मिलता है। बर्नार्ड रोजेनबर्ग ने 'मासकल्चर'[1957]में मास सोसायटी की व्याख्या 'उत्तर -आधुनिक' पदबंध के तहत की है। अर्थशास्त्री पीटर डुकर की एक रिपोर्ट दि लैण्ड माक्र्स ऑफ टुमारो [1957]में ' ए रिपोर्ट ऑन दि न्यू पोस्टमॉडर्न वर्ल्ड ' शीर्षक से उप अध्याय है। इसी तरह सी. ब्राईट मिल्स ने दि सोशियोलॉजिकल इमेजिनेशन[1959] में बताया है कि इस युग में आधुनिक युग की जगह उत्तर -आधुनिक युग ने ले ली है। उत्तर- आधुनिक विद्वानों की राय है कि सामयिक समाज उच्च प्रौद्यौगिकी और सूचना प्रणाली के अत्याधुनिक रुपों के विकास के कारण तेजी से बदल रहा है। ल्योतार की कृति पोस्ट मॉडर्न कण्डीशंस [1984] में लिखा कि उत्तर - आधुनिकतावाद का तीन कारणों से वैशिष्टय है ,पहला- सौन्दर्यात्मक अर्थ में,यहां वह आधुनिकतावाद से संबंध तोड़ता है। यह विघटन कला ,स्थापत्य ,साहित्य ,चित्रकला में विशेष रुप से दिखाई देता है। दूसरा -कला,विज्ञान एवं तकनीकी के संदर्भ में प्रगति ,स्वतंत्रता का विस्तार , मानवतावाद आदि प्रासंगिक नहीं रह गए हैं। ' आधुनिक' ने सार्वभौम मुक्ति की जो बात कही थी,वह आज संभव नहीं है। हमारी परिस्थितियां बिगड़ रही हैं।इसका कारण है तकनीकी विज्ञानों का विकास ।यह परिस्थितियों को बिगाड़ रहा है। यह विकास हमारी परेशानियों को दूर नहीं कर रहा , बल्कि जटिलता के प्रति अस्थिर कर रहा है।यह हमारी जरूरतों और सामाजिक विकास से असंबध्द है। तीसरा- बुध्दिजीवियों की संस्थागत भूमिका का क्षय ,प्रगति एवं मुक्ति के आख्यान का क्षय ,सुरक्षित जगह और प्क्ष का अभाव, प्रतिरोध की राजनीति का उदय,आलोचना और विरोध की संभावनाओं को बनाए रखने की कोशिश। उत्तर- आधुनिकों में ल्योतार की यह रिपोर्ट आप्त वाक्य के रुप में स्वीकृति प्राप्त है। यह रिपोर्ट वृध्द पूंजीवाद की व्याख्या का गंभीर प्रयास है। इस रिपोर्ट की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि इसमें पूंजीपति वर्ग के शोषक चरित्र को छिपाया गया है। पूंजीवादी व्यवस्था और पूंजीपति वर्ग के शोषण से कैसे मुक्ति प्राप्त करें ?पूंजीवादी व्यवस्था का कारगर विकल्प क्या है ?बुर्ज़ुआ विचारधारा का क्या विकल्प है ?आधुनिक समाज के बुनियादी अन्तर्विरोध क्या हैं ?और उन्हें कैसे हल करें इत्यादि प्रश्नों की उपेक्षा की गयी है। इहाव हसन ने दि कल्चर ऑफ पोस्ट मॉडर्निज्म[1985]में लिखा कि साहित्य में सबसे पहले इस पदबंध का प्रयोग स्पेनिश विद्वान् फेद्रिको दे ओनिस ने किया था। उसने सन् 1930 में इर्विंग हॉव,हेरी लेविन और लेसिली फील्डर की आलोचना के प्रसंग में इस पदबंध का प्रयोग किया था। सन् 1940-50 के दौरान स्थापत्य और कविता के मूल्यांकन के क्षेत्र में उत्तर- आधुनिक दृष्टिकोण का विकास हुआ। सत्तर के दशक में संस्कृति के क्षेत्र में उत्तर-आधुनिक मानदंडों का प्रयोग हुआ।

उत्तर - आधुनिकता से असहमत होना संभव है।किन्तु उसके प्रभाव से बचना असंभव है। उसने हमारे रवैय्ये,एटीटयूट्स,संस्कार,जीवन शैली और दृष्टिकोण को प्रभावित किया है। उन्हें बदला है।इस क्रम में पूंजीवाद की एक अवस्था से दूसरी अवस्था में छलांग लगा चुके हैं। इस छलांग के कारण रैनेसां और औद्योगिक क्रान्ति के परिप्रेक्ष्य में निर्मित विचारों की शक्ति चुकी हुई नज़र आने लगी है। आधुनिकता के सवाल बेअसर लगने लगे हैं। ऐसा क्यों हो रहा है ? आधुनिकतावादी - विमर्श या शास्त्रीय विमर्श इसके कारणों को अभी तक उद्धाटित नहीं कर पाया है। इन परिवर्तनों के संतोषजनक उत्तर न तो आधुनिकतावादियों के पास हैं और न उत्तर- आधुनिकतावादियों के पास हैं। यहां कुछ समस्याओं का सिलसिलेबार ढंग़ से विश्लेषण करते हुए उत्तर-आधुनिकता की तर्क प्रणाली को जानने की कोशिश करेंगे। Poste

कमलेश्वर यादों का मसीहा

कमलेश्वर की अचानक मौत ने सारी देश को स्तब्ध किया है। हम सोचने के लिए भी तैयार नहीं थे कि हिन्दी का इतना बड़ा लेखक अचानक हमारे बीच से चला जाएगा। कमलेश्वर ने ने कथाकार के रूप में हिन्दी में ही नहीं बल्कि सारे देश में अपनी प्रतिष्ठा बनायी। उनके जीवन के कर्म क्षेत्र का कैनवास काफी बड़ा है। सामान्यत: लेखक का जीवन एकायामी रहा है। किंतु कमलेश्वर इस मामले में अपवाद हैं। कमलेश्वर ने सारी जिन्दगी लेखकीय एकायामी रुप के खिलाफ संघर्ष किया और इसके विपरीत बहुआयामी व्यक्तित्व का निर्माण किया। कथाकार, संपादक, टीवी प्रशासक, सिनेमा पटकथा लेखक, धारावाहित लेखक,विचारक और आंदोलनकारी व्यक्तित्व के धनी इस लेखक ने हिन्दी साहित्य की जिस दृढता के साथ अपने लेखकीय व्यक्तित्व को बनाया,बचाया और समृध्द किया वह साहित्य की विरल घटना ही कही जाएगी। बाजार और मासमीडिया की चकाचौंध में रहने के बावजूद अपनी लेखकीय पहचान को विराट गरिमा प्रदान की। कमलेश्वर के व्यक्तित्व का यह सबसे उज्ज्वल पक्ष है कि उनके लेखकीय नजिरिए को सत्ताा और बाजार के दबाव प्रभावित नहीं कर पाए। अनेक किस्म की विधाओं में लिखने के बावजूद कमलेश्वर का कथाकार व्यक्तित्व इतना विराट था कि उसमें मध्यवर्ग के तनाव,जिजीविषा से लेकर भारत विभाजन के शिकार भारतीयों का दर्द तक फैला हुआ है। कमलेश्वर टीवी में रहे, फिल्मी दुनिया में रहे, अखबार के संपादक की जिंदगी का हिस्सा रहे,अनेक पत्रिकाओं के संपादक रहे, इसके बावजूद इनमें से कोई भी कार्य-व्यापार उन्हें प्रभावित नहीं कर सका,उनके लेखकीय व्यक्तित्व को विचलित नहीं कर पाया।

     कमलेश्वर का 27 जनवरी 2007 को अचानक हृदय गति रुक जाने से निधन हो गया। 6जनवरी 1932 को उनका जन्म उत्तारप्रदेश के मैनपुरी जिले में हुआ था, कमलेश्वर के साहित्य लेखन और विचार साहित्य के केन्द्र में बदलती सामाजिक संरचनाओं,नए और पुराने मूल्यों के बीच के तनाव और नए सामाजिक मूल्यों को अर्जित करने की जद्दोजहद का व्यापक तौर चित्रण मिलता है। सामयिक जीवन का यथार्थ और उसकी समस्याओं को बड़े फलक पर रखकर चित्रित करने का कमलेश्वर का प्रयास अभूतपूर्व माना जाएगा। कमलेश्वर की रचनाओं के मूल पात्र मध्यवर्ग से ही आए हैं। कमलेश्वर के नजरिए की बुनियाद में जनतंत्र के प्रति गहरा लगाव और उसके लिए किसी भी हद तक कुर्बानी का जज्बा काम कर रहा था।भारत में अधिनायकवादी राजनीति के विरोध से लेकर, आपात्काल,साम्प्रदायिकता के विरोध तक उनके लेखन का कैनवास फैला हुआ है। लेखक तौर पर कमलेश्वर सिर्फ भारत में जनतांत्रिक अधिकारों के हनन को लेकर ही चिन्तित नही ं थे बल्कि पड़ोसी देशों जैसे पाकिस्तान,नेपाल,वर्मा  आदि में सैन्य प्रशासन,राजशाही के खिलाफ चल रहे जनतांत्रिक आंदोलनों से भी उनका गहरा लगाव था और उन संघर्षों का उन्होंने समय-समय पर समर्थन भी  किया। आजादी के बाद उभरे मध्यवर्ग की कुंठाओं और भौतिक वस्तुओं की आकांक्षाओं के कारण पैदा हुए तनावों का कलात्मक चित्रण करने में उन्हें महारत हासिल थी। कमलेश्वर ने किसी भी किस्म वाद विशेष अथवा राजनीतिक दल विशेष से बांधने की कभी कोशिश नहीं की। स्वभाव से पूरी तरी पेशेवर लेखक के तौर पर काम करने मिजाज के कारण उन्हें किसी भी मीडियम में लिखने में असुविधा नहीं हुई। कमलेश्वर को कथाकार के रुप में जितनी सफलता मिली ,उससे ज्यादा सफलता फिल्म लेखक के रुप में मिली, फिल्म लेखक के रुप में जितनी सफलता मिली उससे ज्यादा सफलता टीवी धारावाहिक लेखक के रुप में मिली,यही स्थिति एक संपादक के रुप में भी बनी रही। सारे विधा रुपों में उनका धर्मनिरपेक्ष व्यक्तित्व और जनतांत्रिक नजरिया झांकता है। जनतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की दृढ़प्रतिज्ञ भाव से वकालत और उसके लिए किसी भी किस्म की जोखिम उठाने की भावना ने कमलेश्वर को आधुनिक युग का सबसे चर्चित सफल लेखक बना दिया। कमलेश्वर के लिखे हुए की हिन्दी में आलोचकों के द्वारा कम से कम आलोचना लिखी है। उन्हें कम से कम विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाता है। इसके बावजूद कमलेश्वर के पाठकों का दायरा बड़ा व्यापक है। कमलेश्वर ने उपन्यास विधा के लिए एक नया प्रयोग किया,सामान्य तौर पर उपन्यास में सामयिक जीवन का यथार्थ रहता है और सामयिक चरित्र रहते हैं। किंतु  कितने पाकिस्तान उपन्यास में कमलेश्वर साम्दायिकता की समस्या को चित्रित करते समय परंपरा में चले जाते हैं,अनेक संस्कृतियों के अतीत में चले जाते हैं,इस पध्दति का आखिरकार लेखक क्यों इस्तेमाल करना चाहता है ? कमलेश्वर का मानना था कि भारत में साम्प्रदायिक राजनीति जिस तरह धर्म के नाम पर जनता में फूट डाल रही है और अतीत के प्रेतों का इस्तेमाल कर रही है। इसका प्रत्युत्तार अतीत के धर्मनिरपेक्ष विमर्श और परंपरा के जरिए दिया जाना चाहिए। साम्प्रदायिकता ने जिस तरह परंपरा को भ्रष्ट किया और परंपरा को हजम करने की कोशिश की थी,अतीत के कैनवास को सामने रखकर और उसके धर्मनिरपेक्ष रुप का उद्धाटन करके लेखक ने परंपरा की रक्षा के साथ वर्तमान समाज की रक्षा का दोहरा दायित्व निभाया। कमलेश्वर के लिए अतीत बेकार की चीज नहीं थी,बल्कि आधुनिक काल के विचारधारात्मक संघर्ष के उपकरणों का स्रोत भी यहीं है। इसके जरिए लेखक यह भी बताना चाहता है कि हमारा मध्यकालीन अतीत साम्प्रदायिक नहीं रहा है बल्कि धर्मनिरपेक्ष अतीत रहा है। कमलेश्वर का यह उपन्यास जिस समय प्रकाशित हुआ ( प्रकाशन वर्ष 2000) उस समय भारत में साम्प्रदायिक विचारधारा अपने पूरे यौवन पर थी, उसे सत्ता का पूरा समर्थन हासिल था। सारे मीडिया उसके यशोगान में मगन थे। इस उपन्यास की सफलता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसके अनेक संस्करण बहुत ही कम समय में बिक गए। कितने पाकिस्तान उपन्यास नहीं है बल्कि लेखक के शब्दों में यह दुखी,पीड़ित जनता के आंसुओं का संग्रह है।इस अर्थ में कमलेश्वर को दुखी,पीड़ित और आतंकित जनता के आंसुओं का मसीहा भी कह सकते हैं। कमलेश्वर ने तीस से ज्यादा किताबें लिखीं और 100 के करीब फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखी,अनेक धारावाहिकों की स्क्रिप्ट लिखी। इसके अलावा कई दैनिक अखबारों के संपादक रहे और कई पत्रिकाएं भी संपादित कीं। जिन महत्वपूण्र अखबारों के संपादक रहे उनमें प्रमुख हैं जागरण्ा,दैनिक भास्कर। हिन्दी के व्यावसायिक तौर पर सबसे सफल लेखक के रुप में कमलेश्वर को हमेशा याद किया जाएगा।  कितने पाकिस्तान का महत्व इस अर्थ में भी है इसमें कोई हीरो या विलन नहीं है। बगैर हीरो या नायक के उपन्यास का निर्माण करना उस साम्राज्यवादी साहित्य संरचना का अस्वीकार है जिसे ब्रिटिश शासन के दौरा निर्मित किया गया था। हिन्दी नायक रहित उपन्यास लिखने की परंपरा रही है साथ इस परंपरा का साम्राज्यवाद विरोधी नजरिए के साथ गहरा संबंध है। यह नजरिया यशपाल के झूठा-सच में भी देखने को मिलता है। भीष्म साहनी के तमस में भी यही फिनोमिना नजर आता है।  कितने पाकिस्तान लेखक की बचपन से लेकर अब तक साम्प्रदायिक राजनीति के अनुभवों का दस्तावेज है। भारत विभाजन के समय लेखक की उम्र पन्द्रह साल थी, अचानक 1990 में आकर साम्प्रदायिक समस्या जब सारे देश को उद्वेलित करने लगी तो लेखक भी इससे परेशान हुआ और साम्प्रदायिक राजनीति का जनप्रिय धर्मनिरपेक्ष उत्तार तलाशने की प्रक्रिया में यह उपन्यास लिखा गया। कमलेश्वर के लेखे, विभाजन अंतहीन है,समयहीन है,इसका कोई एक नाम भी नहीं दिया जा सकता, मजेदार बात यह है लेखक ने  विभाजन के फलक को हिंसा के परिप्रेक्ष्य में रखा है। साथ ही व्यापक तौर पर शासकीय विचारधारा के अंग के रुप में चित्रित किया है। इस उपन्यास में साम्प्रदायिक हिंसा,साम्राज्यवादी हिंसा, अधिनायकवादी हिंसाचार, परमाण्विक हिंसाचार तक इस उपन्यास का कैनवास फैला हुआ है। दस कहानी संग्रह, दस उपन्यास कुल तीस से त्यादा किताबें लिखीं।

यहां कुछ घटनाओं का जिक्र करने की जरुरत है। नेपाल में राजशाही के खिलाफ जनता के संघर्ष का समर्थन करते हुए कमलेश्वर ने कहा कि नेपाल की राजशाही का जन्म हिंसा के गर्भ से हुआ है।नेपाल के राजा ने भारत यात्रा के दौरान जिस तरह जगह'जगह मंदिरों में पशु बलि देकर मंदिरों में भगवान की पूजा की वह रुझान उनका अपने देश लौटकर जाने पर अपनी जनता के प्रति बना रहा और उन्होंने नेपाल लौटकर अपने देश की निर्दोष जनता का जनसंहार किया,कत्लेआम किया,नेपाल में राजशाही की संवैधानिक व्यवस्था जब तक बनी रहेगी, निर्दोष जनता और पत्रकारों पर जल्म होता रहेगा। राजशाही जुल्म के बिना जिंदा नहीं रहती। वह कभी जनता,कभी पत्रकार,कभी माओवादी, कभी कम्युनिस्ट,कभी किसान, कभी सत्ताा विरोधियों और कभी-कभार आतंकवादियों के खिलाफ हिंसाचार करती है। कुछ प्रमुख उध्दरण -

              कला विषयक -
      कलाओं के विकास का आधार सामाजिक-सांबंधिक अस्तित्व है।
    

कला जब तक दूसरे दर्जे का काम करती है तब तक उसका अपना कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं होता।

रचना-प्रक्रिया-

     जब से अपने चारों तरफ की दुनिया की ओर देखना शुरू किया तो पाया ,कहीं कुछ भी नहीं बदल रहा था, इसलिए मुझे बदलना पड़ा।मुझे चारों ओर के कटु यथार्थ ने बदल दिया।
       मेरे पात्र अपने माहौल की,अपने सुख-दुखों की कहानी अपने-आप कहते चलते हैं। मैं उनके निर्माण में परिश्रम नहीं करता। 
    मैं उन्हीं मुसीबतजदा लोगों की कहानी कहना चाहता हूँ,जिन्हें मैंने अपने चारों ओर पाया और अनुभव किया है। इसे ही मेरे लेखन का लक्ष्य कह सकते हैं।
  
मैं कहूँ यदि मेरा लेखन सामाजिक-आर्थिक विषमताओं के प्रति लोगों की आंखें खोलता है,और लोग यह जान पाते हैं कि जिस समाज में रह रहे हैं ,उसकी असलियत और उसके हालात क्या हैं तो मैं समझता हूँ कि मेरा लेखन सार्थक है।
मैं सोच-सोचकर कभी नहीं लिखता।जब कभी भी मुझे शिद्दत के साथ महसूस हुआ कि इस विषय पर लिखना चाहिए,तो मैंने लिखा और जो लिखा ,वह स्वयं कहानी बनती चली गई।

लिखना मेरे लिए यातना नहीं है,यातनापूर्ण हैं वे कारण जो मुझे लिखने के लिए मजबूर करते हैं और यह मजबूरी तभी होती है,जब मेरा अपना संकट दूसरों के संकट से सम्बध्द होकर असह्य हो जाता है।

साहित्य की नयी परिभाषा &

           साहित्य अब साहित्यशास्त्रीय मान्यताओं की परिधि से निकलकर बहुत व्यापक जीवन के परिवेश में सांस ले रहा है जहां उसकी चिन्ताएँ और अपेक्षाएँ बदल गयी हैं।

साहित्य का यह महत् उद्देश्य रहा है कि वह मनुष्य की धारणाओं और विश्वासों को बल दे ताकि समाज व्यवस्थित और संगठित रहे,समाज का व्यक्ति संस्कारों से सम्पन्ना रहे।

परिस्थितियों के द्वंद्व से जो सच्चाई पैदा होती है,वहीं यथार्थ है,जिसकी कार्य-कारण परंपरा होती है और जिसे इतिहास की पीठिका में विश्लेषित किया जा सकता है।

राजनीति की महत्ताा से इंकार नहीं किया जा सकता है और न उससे निरपेक्ष रहने की आवश्यकता है,पर राजनीतिक मंतव्यों में नित नए होते रहने की सामर्थ्य नहीं होती जबकि साहित्य अनवरत नवीन की खोज में संलग्न रहता है,उसके जीवित रहने की यह अनिवार्य शर्त है।

जो साहित्य क्रांति दे सकता है ,वह शक्तिसंपन्ना भी होगा और कलात्मक भी। स्वतंत्रता ही वह तत्व है जो जीवन को जीवन बनाता है।अच्छे और बुरे,पाप और पुण्य,जय और पराजय से ऊपर वह मनुष्य को अपनी नियति के भय से ऊपर उठाता है और उसकी संभावनाओं को स्थापित करता है।

   अंतत: मनुष्य राजनीति से भी आजादी चाहता है ,सहज होकर जी सकने के लिए ,जो राजनीति आदमी की इस आधारभूत और मौलिक आकांक्षा का समर्थन नहीं करती ,वह अधूरी राजनीति है। 

ऐसी उलझी हुई स्थिति में जहां हम अन्याय के विरूध्द अन्यायी नहीं सकते,आम आदमी को बर्बर बना देने की सीमा तक नहीं ले जा सकते, उसके भीतर के शुभ और सौन्दर्य को मार नहीं सकते।उसकी सदियों से अर्जित मनुश्यता की संपदा को नष्ट नहीं होने दे सकते,तो फिर उसके लिए न्याय की प्राप्ति का कौन सा जरिया अख्तियार कर सकते हैं ? अगर आज का साहित्य इस सुविधावाद से निकलना चाहता है तो उसका काम बहुत जटिल और कठिन हो जाता है।

 पुरानी और नयी कहानी के बीच बदलाव का बिंदु वैचारिक दृष्टि का है।

पुराने लेखकों के लिए जो रास्ता था वह साहित्य से जीवन की ओर था,क्योंकि वे जीवन के प्रति या आदमी के सामने खड़ी भयावह परिस्थितियों और आसन्ना संकट की ओर देखनाहेय समझते थे।वे साहित्य के चश्मे से जीवन को देख रहे थे और बहुत क्षुब्ध थे कि 'साहित्यकार का 'दर्शन' अपनाया नहीं जा रहा है।नयी कहानी ने इस जड़ता से अपने को अलग किया नयी कहानी ने जीवन की सारी संगतियों-असंगतियों ,जटिलताओं और दबावों को महसूस किया उसका रास्ता जीवन से साहित्य की ओर हुआ।