सदाशिव अमरापुरकर को सलाम / जयप्रकाश चौकसे

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सदाशिव अमरापुरकर को सलाम
प्रकाशन तिथि : 05 नवम्बर 2014


सदाशिव अमरापुरकर की मृत्यु मात्र चौंसठ वर्ष की आयु में हो गई। उनकी मृत्यु का कारण फेफड़ों में बीमारी बताया गया है। डॉक्टर की रिपोर्ट यह तो नहीं स्पष्ट कर सकती कि दूषित हवाआें के कारण कितने लोगों के फेफड़े कमजोर पड़ रहे हैं। हमारे तथाकथित विकास के साथ प्रदूषित आैर धरती की अंतड़ियाें को निरंतर पहुंचाई जाने वाली हानि जुड़ी हुई है परंतु पिछड़ेपन के मारे लोगों को लगता है कि विकास होते ही सब सुखी हो जाएंगे। हर काल खंड अपनी रुचि के अनुरूप अपनी मृग मरीचिका चुनता है। यह भी एक इत्तेफाक है कि पृथ्वीराज कपूर, अमरीश पुरी इत्यादि लोगों की मृत्यु का कारण उनके फेफड़े ही थे आैर आज शशिकपूर भी सांस लेने में कठिनाई महसूस कर रहे हैं। यह संभव है कि रंगमंच के कलाकार संवाद अदाएगी में अपने लंग्स का ज्यादा इस्तेमाल करते हो आैर वे समय के साथ कमजोर पड़ जाते हैं। दरअसल फेफड़े रूई की तरह नाजुक होते हैं परंतु उनमें बहुत दम होता है। अभिनेताआें को संवाद अदाएगी आैर भावाभिनय में सांसों के साथ खेलना पड़ता है आैर इसका उन्हें बहुत अभ्यास होता है। मृत्यु के दृश्य की शूटिंग के समय लंबे अरसे तक सांस रोके पड़े रहना होना होता है। मेरी लिखी "कत्ल' की नायिका सांस की गलती करती थी जिस कारण उसके अंधे कातिल ने उस पर निशाना साधा था। आवाज पर निशाना लगाने की शिक्षा द्रोणाचार्य से प्रारंभ हुई थी।

बहरहाल सदाशिव ने चाैबीस की आयु में रंगमंच पर प्रवेश किया आैर मराठी के रंगमंच पर अपना स्थान बनाया। मराठी भाषा में बनी 'बाल गंधर्व तिलक' ने उन्हें पहचान दिलाई आैर हिन्दी में गोविंद निहलानी की 'अर्धसत्य' ने उनकी आेर फिल्मकारों का ध्यान खींचा। महेश भट्ट की फिल्म में महारानी कहलाने वाले हिजड़े की भूमिका ने उन्हें लोकप्रियता दिलाई। वह भूमिका सदाशिव ने ऐसे प्रभावोत्पादक ढंग से निभाई कि वह भूमिका गब्बर आैर मोगेम्बो से ज्यादा भयावह लगी। अनिल शर्मा की बहुसितारा 'हुकूमत' में उनकी खलनायकी अत्यंत लोकप्रिय हुई। डेविड धवन की "आंखें' में उन्होंने हास्य भूमिका विश्वसनीय ढंग से की।

मराठी रंगमंच से फिल्मों में आए लोगों की यह विशेषता रही कि उन्होंने रंगमंच कभी छोड़ा नहीं। वे अपनी सांस्कृतिक विरासत के प्रति सदैव निष्ठावान रहे। मराठी रंगमंच की परम्परा पुरानी आैर गरिमामय है तथा मुंबई के स्कूलों का उसमें योगदान इस तरह रहा कि रिहर्सल के लिए सुबह या शाम का समय वे निशुल्क देते रहे हैं आैर अनेक प्रयोगवादी नाटकों का मंचन भी रविवार को स्कूलों में होता रहा है। आज सारे शहरों आैर कस्बों के रंगकर्मियों को जगह की समस्या है आैर उन्हें स्थानीय पाठशालाआें से सहयोग लेना चाहिए। आज सफलता किसी भी कीमत पर का मंत्र जपने वाली शिक्षण संस्थाआें से यह उम्मीद करना बेकार है कि वे छात्रों को रंगमंच के आरंभिक पाठ तो पढ़ने दें। सच तो यह है कि बच्चे अभिनय में प्रवीण होते हैं आैर आम आदमी भी जीवन में अभिनय करता है, नेता स्वांग करता है। अब शिक्षा में समाजशास्त्र इतिहास का महत्व घट गया। केवल नौकरियां दिला सकने वाले विषय ही लोग पढ़ना चाहते हैं। बहरहाल सदाशिव ने व्यवसायिक सिनेमा द्वारा दिए गए एक फॉर्मूला खांचे में भी कुछ अपना मौलिक देने की चेष्टा हर फिल्म में की है। रंगमंच प्रशिक्षित अभिनेता भूमिकाआें में विविधता के लिए तत्पर रहता है परंतु सिनेमा में उसे लोकप्रिय छवि में ही काम करना पड़ता है। यह दुविधा सबके सामने रही है कि अपने वर्षों के अनुभव से संतुलन बनाने का प्रयास करें। नसीर, आेमपुरी, परेश रावल इत्यादि सभी ने लोकप्रिय छवि का निर्वाह करते हुए अपना भी कुछ कर दिखाने का जज्बा रहा है।

सदाशिव ने अपने पैदाइशी भाषाई लहजे को अखिल भारतीयता देने का प्रयास किया। आैर वे सफल भी रहे। एक बार नौशाद के उच्चारण को लेकर लता के प्रति आशंका को लता ने शिक्षक लगाकर अपने साफ तल्लुफुज से नौशाद को चौंका दिया था। बहरहाल सदाशिव को आखिरी बार परदे पर हमने दिबाकर बनर्जी की 'बॉम्बे टॉकीज' में देखा।