सदी का असल सत्य सत्यार्थी / प्रमोद कौंसवाल

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क़रीब साठ साल तक भारतीय उपमहाद्वीप का कोई चप्पा नहीं छोड़ा...। संगरूर के एक छोटे से क़स्बे में पैदा हुए। आधी सदी के घुमक्कड़ी के अद्भुत संस्करण हैं। उपन्यास, कहानियां और कविताएं अलग। यह देवेंद्र सत्यार्थी के उस दौर की बात है जब वह पिछली सदी के आख़िरी सालों (1992 के आसपास) भी बयासी साल की उम्र में वह काफी सक्रिय रहे। जब चरम पर लिख रहे थे, रचनाशील समाज में भारी बिडंवनाएं थीं। उस समय वैन गॉग और मायोकोवस्की जैसे लोगों ने आत्महत्याएं कीं। लाहौर के लाल चौक पर देवेंद्र सत्यार्थी ने भी आत्महत्या करने की सोची, लेकिन क्यों सोची इस पर यकीन ही नहीं होता।

‘माडर्न रिव्यू’ में प्रकाशित तुम्हारे क़रीब-क़रीब सारे लेख पढ़ डाले; उनकी उच्च प्रामाणिकता के लिए आपको बधाई देता हूं, वह गांवों में बसे भारत की अंतर्रात्मा का दिग्दर्शन कराते हैं। संसार के अन्य प्रदेशों से उनका परिचय नितांत वांछनीय है। मुझे खुशी है कि जिस ‘एशिया’ पत्र को मैं बहुत पसंद करता हूं वह तुम्हारे कुछ लेख प्रकाशित कर रहा है

- रवींद्रनाथ ठाकुर (देवेंद्र सत्यार्थी को 5 दिसंबर, 1935 को शांतिनिकेतन, पं. बंगाल से भेजे गए पत्र का अंश)।

और-

भाई देवेंद्र, तुम्हारे ख़त की प्रतीक्षा कर रहा था। तुम्हारा पता- ठिकाना भी न था। गढ़वालियों के गीत मैं रस से पढ़ गया। वैसे ही नेपाल के। मैंने इंदौर में तुम्हारा काफी काम कर दिया, ऐसा मेरा ख़्याल है। इस बारे में एक प्रस्ताव भी था।...तुम्हारे नाम की नहीं, काम की दरकार है। किसी समय यहां आ जाओगे तो आनंद आएगा। तुम्हारे काम को ज़्यादा समझ सकूंगा। जो कुछ लिखो, मुझे भेजते रहो।

–मो.क. गांधी (मगनबाड़ी, बर्धा से 29-6-1935 को भेजा गया पत्र)।

लोक प्रकाशन ने 1989 में सत्यार्थी की रचनाओं को जमा करने का काम किया और तीन साल में इस काम को अंज़ाम देकर उनकी प्रमुख रचनाओं का संकलन तैयार किया। इससे पहले मैं और उस समय (1992) के नितांत ग़रीब अश्विनी चौधरी ने उनके दिल्ली के रोहतक रोड निवास पर एक काफी बड़ा इंटरव्यू किया।

(उस समय अश्विनी चंडीगढ़ में मेरा बजाज स्कूटर-जिसे वह 1938 की मर्सडीज़ कहता था- को दिनभर चलाता था और मैं उसे छापकर उसकी रोज़ी का ख़्याल रखता था। कुमुद चौधरी को हमारे ही कुछ हमक़लम मित्र जालंधर से उसे रात को भगाकर लाए थे और सुबह उसकी शादी करा दी गई थी, दोनों ने काफी कठिन जीवन बसर किया। लेकिन फिर बाद में वह दिल्ली आए। श्री विनोद दुआ के कार्यक्रम ‘परख’ की जगह पर उनको दूरदर्शन पर ‘बीचबहस में’ मिला। दोनों ने बड़ी मेहनत से बनाया और दोनों ही इसके एंकर थे। फिर वे मुंबई चले गए और प्रकाश झा जैसे फ़िल्मकारों के साथ मृत्युदंड जैसी फ़िल्में बनाने लगे। हरियाणवी की ‘लाडो’ उनकी ही फ़िल्म है। अश्विनी और कुमुद का सफ़र इसलिए देखा जाना चाहिए कि यह ठेठ पंजाबी खुद्दारी कहीं न कहीं सत्यार्थी के लेखन में भी बड़ी संजीदगी के साथ है जो खुद पंजाब से थे...)

ख़ैर, ‘गिद्दा’ (1936) ‘दीवा बले सारी रात’(1941) ‘हिंदी में धरती गाती है’ (1946) में जो शुरू का लेखन सत्यार्थी ने किया वह लाहौर में थोड़ी बहुत पढ़ाई के बाद घूम फिरकर किया था और इन्हीं से भारतीय साहित्य में लेखक ने अपना लोहा मनवा लिया। उनकी रचनाओं के एकमात्र चयन में सभी कुछ नहीं है। लेकिन काफी उपयोगी है लेकिन सत्यार्थी के संपूर्ण लेखन में उसे ‘कम पढ़ा ज़्यादा समझना’ की तर्ज़ पर ही देखें क्योंकि वह तो असल में हमारे उपमहाद्वीप की ओरल हिस्ट्री से जुड़े रहे और इस पर ही उन्होंने ताउम्र काम किया। इसी के लिए उनको 1976 में पद्मश्री भी मिला लेकिन यह पुरस्कार सत्यार्थी के लेखन का कोई माप नहीं है और न हो सकता है।

घुमक्कड़ जीवन के अननिगत पड़ावों पर रुके हुए, लोक साहित्य के सैकड़ों पेज अपनी गठरी में समाए हुए और मायावी फक़ीर रहे इस व्यक्ति के अनुभवों के बारे में हम शायद ठीक-ठीक अनुमान न लगा पाएं। अनुमान हमारी कल्पना के आसपास का ही शब्द है, इसलिए उनकी रचना को बेहद कल्पनातीत कहना कहीं से भी अतिशयोक्ति नहीं लगता। एक समय के लिए लगता है कि हमारी ही तरह का कोई हाड-मांस वाला शख़्स क्या सचमुच इतना लेखन और यायावरी कर सकता है...! सुना तो यहां तक गया है कि उनको जानने वाले कहते थे कि जब वह अपने घर-ठिकाने पर लौटते थे तो कोई पांच-सात बाद नहीं लौटते थे बल्कि युग (अगर एक युग बारह साल का ही है) बीतने के भी कई साल बाद लौटते थे। बुढ़ापे के दिनों में विलक्षणता की प्रतिभा सत्यार्थी से जब लोग मिलते तो कोई उन्हें कोई ‘बूढ़ा बच्चा’ तो कोई एक ‘धारावाहिक व्यक्तित्व’ कहता। कोई ‘फक़ीर’ और कोई ‘असंतुष्ट यायावर’…। उनको कई नामों से लोग बुलाते या उनके बारे में लिखा जाता। लेकिन जो उनको कम पढ़ पाया और महज़ घर पर ही मिल पाया, वह उनको दूर किसी पहाड़ की किसी कंदरा या तीर्थधाम से निकला साधू लगता जो अपनी पुरानी दाढ़ी के लट सुलझाता-खुलजता होता। एक पुराने से खटारे रेडियो और शायद आवाज़हीन भी, के पास बैठी-पसरी रवींद्रनाथ ठाकुर की प्रतिमूर्ति...। इन सबसे अलग हटकर उन्हें गांधी और टैगोर के अलावा कई लेखकीय अध्येताओं ने अपनी-अपनी तरह से पहचाना। लेकिन बिल्कुल आधुनिक परिवेश ने, जिस रूप में ख़ास पहचान उनकी दिखती है, उसकी एक तस्वीर कुमार विकल की कविता में है-

‘ हर यात्रा से लौटने के बाद
देवेंद्र सत्यार्थी कहता है
इस बार भी उसका कोई सुराग़ नहीं मिला
वह तो एक शरारती नदी है
जो अक़्सर रास्ता बदलती है
सत्यार्थी
जो ख़ुद एक चालाक दरिया है
नदियों के रास्ते ख़ूब जानता है
ई नदियां जिसकी जेब से होकर गुज़रती हैं
रात-रातभर उसे
एक नदी के गूंजने की आवाज़ सुन पड़ती है
जिस नदी को तुमने कभी नहीं देखा
क्यों उसका रास्ता तलाशते हो…!’

अपने क़दमों से सारा हिंदुस्तान नापने वाले सत्यार्थी को दिल्ली को उनके पते पर ढूंढना आसान काम न था। पटियाला के सालों पुराने भदौड़ गांव के यह ‘पृथ्वी-युग’ रोहतक रोड स्थित कल्पना में रहते थे। बड़ी-बड़ी आलीशान कोठियों और काले पैसे वालों के इस इलाक़े में एक पतली-सी गली अंदर को कटती है। इसी से चलकर उनके 1955 में बने घर में पहुंचा जा सकता था। पूरे इलाक़े में अपने बुढ़ापे और बदरंग होते हाल से अलग से पहचाना जा सकता था- कुछ वैसे ही जैसे खुद देवेंद्र सत्यार्थी को हम पहचान सकते थे। हालांकि घर की जर्जरता तो कहीं किताबों के सेल्फ़ तो कहीं पर्दे अपने ही आधुनिक तरीक़े से ढके होते थे।

इस चमक में निश्चित तौर पर पुरानी चमक अपनी ओर खींचती। ऊंची छत का पुराना-सा कमरा, दीवारों से उखड़ा हल्क़ा नीला पलस्तर, एक पुराना-सा तख़्त, पांच-छह थकी-मांदी सी कुर्सियां। सामने खिड़की पर जंग लगे सांकल से बंधा कूलर...। और इनके सामने टैगोर के साथ उनकी एक ऑयल पेंटिंग। दीवार के साथ शीशे-लकड़ियों वाली पुरानी अलमारी में किताबें ही किताबें, पीली और पुरानी पड़ चुकी। यहां देखो किताबें...। उनकी मृत्यु के कुछ समय पहले ही लोगों को याद आने लगा कि कैसे कोई मां वह गीत गाती है, जहां ऊंची अटारी है, महल चित्रसारी है, जहां दीवा जलता ही रहता है सारी रात। यह सब हमारे देश की गांवों और ख़ासकर उत्तरभारत के गांवों की लोकचेतना में है। इस लोकज्ञान को जानने के लिए शिक्षित होने की जरूरत नहीं है। ये सब बिना शिक्षा के हो सकता है। इनके लिए शब्दों की ज़रूरत नहीं, ये शब्दातीत साहित्य है। कोई दो राय नहीं हो सकती कि लोकगीत मुख्यधारा की कविता का भले अनगढ़ रूप हो, लेकिन हमें भीतर तक छूने वाली कविता, जो पैठ बनाती है उसका लोकसंसार लोगों के जीवन में है, उनके उसी सुख-दुख और अतंर्विरोधों के बीच से ही निकला है। उनके समय के कई सारे साथी, उनके साथ चलने की इच्छा या साहस नहीं रख सके। वह मानते थे कि वे सभी भौतिक समाज में खाने-कमाने के काम में लगे हैं, फक़ीरी में रहकर दूरदराज़ के गांवों के जीवन को उसकी ख़ूशबू या त्रासदियों की युगद्रष्टता को देखने की आंख उनके पास नहीं है। दुख-सुख के लिए जो सबसे संवेदनशील है और शोषण की पीढ़ियां लंबी यातनाएं सहते हुए जो संवेदनहीन हो गए दिखते हैं, उस तरह के चेहरों की भीड़ में से अलग-अलग चेहरों को पहचानने में सत्य को सत्यार्थी ने ही देखा। उनके दौर में माना जाता रहा कि परिवार के सुखों की कीमत पर लोक साहित्य की तलाश करते हुए फूल से ईंधन हो गए बहुत कुछ ही नहीं, काफी कुछ परत-दर-परत लिख दिया है। अब सवाल यह भी उठता है कि अगर समाज को उसकी नींव से पहचानने की ज़हमत उठाने वाले यायावर को लोग सुनना या उससे मिलना भी मुनासिब न समझें तो समाज के साहित्यिक और सांस्कृतिक मूल्यों को नहीं बचाया जा सकता है। यह एक बहस हो सकती है। सत्यार्थी उद्भट अध्येता, यायावर मनीषी के संतुष्ट फक़ीर रहे। उनकी रचनाओं के भीतर, मूल रचना संसार के अलावा भी दूसरी गूंजें हैं या दूसरे भी चौराहे या दूसरी और खोजों की कई आवाज़ें मिलती हैं...। कुछ भी कह लीजिए...।

बैठे-ठाले जो साहित्य समाज की जड़ों से हम तक पहुंचा है उसकी उपयोगिता का एक और विस्तार जानने के लिए थामस हार्डी की ये पंक्तियां ग़ौर की जा सकती हैं-

‘मैं मैं हू
जब भी करता हूं मैं कुछ
करता हूं सब अकेले...’

यह सवाल उठता है कि देवेंद्र सत्यार्थी यह महसूस करने लगे थे कि यह काम आख़िरी-सा है जो वह कर रहे हैं। हार्डी की कविता पंक्तियों से सत्यार्थी के व्यक्तित्व और कृतित्व की एक साफ़ झलक है। भीड़ में भी वह अकेले पहचाने गए। लबीं पेट को छूती दाढ़ी, माथे पर खिंची पड़ी रेखाएं और आंखों का तेज़ मानो सब मिलाकर कह रहे हों कि जैसे मैं ही हूं जिसे कहते हैं देवेंद्र सत्यार्थी...। घूमने निकला नितांत अकेले। अकेला ही ऐसा शख़्स हूं जिसने लोकसाहित्य के ज़रिए भारत की आत्म को पहचान डाला। उनका पहला शौक़ कहानी और उपन्यास रहे। बाद में वह घुमक्कड़ी में आए और इसलिए आए कि असल में उनका जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ था जहां सब आर्य समाजी विचारों वाले थे। उनके घर में पंजाबी ही बोली जाती थी लेकिन पंजाबी लोककथा, लोकगीतों के लिए कोई श्रद्धा थी ही नहीं। स्कूल में आसपास के लड़के कोई गीत गाते तो उनको काफी भाते। उनके घर में मंत्र कंठस्थ कराए जाते थे। लेकिन सत्यार्थी को लगता था कि मंत्रों और लोकगीतों में युग-युगांतरों का अंतर है। यह बात शायद कम ही लोग जानते हैं कि एक कापी उन्होंने मिडिल पास करते-करते ही भर दी थी। जब उनके पिता को पता चला तो उन्होंने उसे आग की भेंट कर दिया। आगे की पढ़ाई के लिए वह मोगा गए और पास के गांवों में लोकगीत जमा करने लगे।

बाद में उन्होंने लाहौर डीएवी कॉलेज में दाखिला लिया। वहां काफी संख्या में पठानी, पंजाबी, कश्मीरी और यूपी के छात्रों की भरमार थी। उन सबके गीतों में उनको लगा कि भावधारा एक जैसी ही है। सत्यार्थी को तभी लगा कि लोकगीत ऐसा शिलालेख है जिसके माध्यम से धरती की आत्मा तक पहुंचा जा सकता है। इसके बाद उन्होंने झटके में फ़ैसला लिया कि अब कॉलेज को अलविदा करना ही ठीक रहेगा। सबसे पहले वह अमरनाथ की यात्रा पर निकले जिस पर उन्होंने काफी बाद में एक कहानी लिखी। यह कहानी ‘बह्मचारी-पंचतरणी’ के बारे में थी। टैगोर से उनकी मुलाका़त का सिलसिला कुछ यूं हुआ कि उन दिनों उन्होंने गीतांजलि का उर्दू अनुवाद पढ़ा था। बाद में स्कूल में स्टोरीज़ ऑफ़ टैगोर भी पढ़ाई गई। कॉलेज में एक टीचर भट्टाचार्य ने उनसे कहा कि लोकज्ञान में रुचि है तो शांतिनिकेतन जाकर गुरुजी से मिलो। वह वहीं पहुंच गए। टैगोर ने उनको बताया कि बचपन में उन्होंने (टैगोर) ने भी यही काम किया था। लेकिन बंगाल की सीमा में रहते हुए, उन्होंने कहा, क्योंकि तुम यह काम सारे देश में घूमघूम कर करना चाहते हो तो ये बचन दो कि आजीवन इसमें रुचि बनाए रखोगे। इसे सत्यार्थी ने आशीर्वाद की तरह लिया और एक धर्म की तरह अंत तक निभाया भी। वह घूमने निकल पड़े। लोकगीत तो जैसे एक बहाना था तब उनके लिए। असल इच्छा तो देश में घूमकर उसे देखने की थी। मुत्यु के तेरह साल पहले तक वह मानते रहे कि वह काफी समय देश के भीतर ही रहे लेकिन बर्मा और श्रीलंका की यात्रा उन्होंने चाव से की। श्रीलंका की यात्रा पर उनकी पत्नी लोकमाता भी उनके साथ गईं। कविता नाम की बड़ी बेटी को भी वह साथ ले गए थे जिसने कुछ समय बाद दुनिया को अलविदा कह दिया। असल में सत्यार्थी अपनी बेटी से बहुत प्यार करते थे। कुछ लोग होते हैं जो ज़िदगी को जैसे इस तरह भी खो देते है। (क्या कुछ खोकर ही हम ज़िदगी में कुछ पाते हैं...?)

सत्यार्थी का मानना था कि उस दौर में कुछ लोग ऐसे थे जो महज़ अपनी तारीफ़ की पढ़ना-सुनना पसंद करते थे। भले लोग भी काफी थे। एक सज्जन थे- केपी जगन्नाथन, वह ‘कलई मगल’ के संपादक थे। वह सत्यार्थी को एक बार अपने गुरु के पास ले गए। उनका नाम डॉक्टर स्वामीनाथन था जो पुरानी पांडुलिपियों पर शोध का काम किया करते थे। सत्यार्थी ने कहा कि स्वामीनाथन जी आप अपना शिष्य मुझे दे दीजिए। सत्यार्थी की तमन्ना पूरी हुई। केपी को हुक़्म हुआ कि एक किताब लिखो कि जब वो (सत्यार्थी) 1948 में आजकल का संपादक थे तो जगन्नाथन ने तमिल की एक किताब उनको भेंट की। उस किताब का पहला अध्याय इन्हीं तीन लोगों का रेखाचित्र था। बाद में सत्यार्थी को एक टाइपराउटर मिला जो याददाश्त के तौर पर उन्होंने जितने भी जतन से हो सकता था, संभाल कर रखा। सत्यार्थी को अफ़सोस था कि तब कैसे-कैसे लोग थे। तमाम लोगों में वैमनैस्य-सा बना रहता था। उनकी पत्नी उनसे कहती कि उनको बूढ़ों से ज़रा भी प्यार नहीं है। सदा ही बच्चों में लगे रहते। सत्यार्थी सोचते कि एक बूढ़ा दूसरे बूढ़े को क्या दे सकता है। लेकिन जीवन मूल्य कहते थे कि दुनिया में अच्छे-बुरे की हमेशा तमीज है। और आगे भी रहेगी। ऐसे-ऐसे लोग उनके जीवन में मिले कि जिनकी उन्होंने कल्पना तक न की थी।

एक बार लगा कि सत्यार्थी अपने उपन्यासों और कहनी के पात्रों की खोज में देश भ्रमण पर हैं- शायद शुरुआती रचनाओं के कारण। लोकगीतों का कविता, उपन्यासों या कविता में इस्तेमाल होता होगा, ऐसा सत्यार्थी ने सोचा ही न था। कहानीकार तो वह शायद न बनते लेकिन जब वह श्रीलंका से लौटे तो उनकी भेंट होती है राजिंदर सिंह बेदी से। दोनों जब शाम को सैर पर निकलते तो सत्यार्थी उनको यात्रा की एक घटनाएं सुनाते। बेदी इस पर उनसे कहते कि ये सब तो खुद ही बन गई कहानियां हैं। ऐसे माहौल में सत्यार्थी का खुद ही कहानीकार बनना लाजिमी था। तब वह उर्दू में लिखते थे। यह सब सत्यार्थी के जीवन और रचनाशीलता में कैसे धीरे-धीरे आती है, खुद वह इसका विवरण प्रस्तुत करने में अपने को सक्षम नहीं पाते। वह भारत-पाक बंटवारे के डेढ़ दो साल बाद हिंदुस्तान आ गए थे। ‘आजकल’ के संपादन की बात हुई। कई लोग दौड़ में थे। अज्ञेय और कैलाश चंद्र टक्कर में थे। लेकिन कहा जाता है कि गांधी ने सरदार पटेल को इशारा करके बताया कि वह जो दाढ़ीवाला आदमी बैठा है, उसे काम पर लगाना है, उस आदमी ने अपने क़दमों से हिंदुस्तान को नापा है। ‘आजकल’ के सात साल के कार्यकाल के दौरान सत्यार्थी उपन्यास लिखने लगे। पहला था ‘रथ के पहिए’ फिर ‘ब्रह्मपुत्र’, बाद के कई उपन्यास लिखे।

यहां एक और बात बताता चलूं कि अश्विनी के साथ, पंजाब में आतंकवाद का साया जब पूरा उठा नहीं था, तो उस मुलाक़ात में उनसे यह पूछा कि पंजाबी होने के नाते उन्होंने पंजाबी में लिखा लेकिन उस अंधेरे दौर के वह कैसे साक्षी बनते हैं तो उन्होंने कहा कि वह दुख और भीषण चिंता में हैं। उन्होंने उन काले दिनों को अपने उपन्यास ‘बाबा दरवेश’ में पेश किया। एक काल्पनिक जगह ‘रेशमवाला’ कहानी गढ़ी...। बाबा दरवेश निर्दोष लोगों की मौत का सफ़रनामा बना। वह मानते थे कि अपनी सीमा के भीतर इस उपन्यास से वहां हत्याएं बंद हो जाएंगी लेकिन हां इतना ज़रूर है कि वह इस दौर का दस्तावेज़ हो सकेगा। इस दौर में वह इस बात से दुखी थे कि भारतीय मानस के जो लोकगीत उन्होंने काफी तादाद में लिखे और इस्तेमाल किए, उनकी हिफ़ाजत कैसे होगी। बड़ी-बड़ी चीज़ें हुई। साहित्य अकादमी ने इस पर कुछ करने की ठानी, काम शुरू किया पर सत्यार्थी के याद दिलाने के बाद भी सब कुछ ढीला पड़ता गया।

अपनी दर्जनों पुस्तकों के लेखन में वह सहयोग के लिए अपनी पत्नी लोकमाता को श्रेय देना कभी नहीं भूले। शादी से दो साल पहले भी वह ‘भागे’ रहे और शादी के दो साल भी ‘लापता’। वह पत्नी से आकर सीधे बोले कि मैं अपना रास्ता नहीं छोड़ सकता। वह कहते थे, लोकमाता का इस पर जबाव होता तुम ठहरे राजा पर मैं भी हूं रानी या तुम भिखारी तो मैं भिखारन...। चलूंगी तो आपके साथ ही। दोनों का काफी सारा समय लोगों की आवाभगत में बीता। कुछ लोगों ने पैसा देकर मदद की। एक आदमी जिसने अपनी उम्र में सबसे बड़ा काम लिखने का किया, उनके मित्र ही उनसे कहते रहे कि देखो हर चीज़ बरबाद हो रही है। दीमक सब खा रहे हैं जो कुछ जीवनभर जमा किया। वह मज़ाक करते कि कमबख़्त दीमक जब लगता है तो उसे पता नहीं होता, वह पांडुलिपि है और अभी किताब की शक़्ल में नहीं आई है। सत्यार्थी को कई बार अपनी ही जो किताब अपने घर में न मिली वह फुटपाथ पर मिलीं। सत्यार्थी का बड़प्पन देखिए कि वह अपने लेखन को कहते कि भाई यकीन मानिए, सबकुछ पहले से लिखा था, उन्होंने तो उसे महज़ काग़ज़ पर उतारा। लेखन और जीवन के मेल की मिसाल में उनकी पत्नी की मौजूदगी का ज़िक्र बड़ा दिलचस्प होगा। वह कहते कि देखो न मैंने भी चार शादियां कीं...। ऐं...! वह उपेंद्रनाथ अश्क की मिसाल देते कि उसकी पहली बीबी मरी, एक शादी की, फिर दूसरी और फिर तीसरी...। कौशल्या वहां बेवजह घुस गई। सत्यार्थी की पत्नी लोकमाता का नाम पहले शांति था (शांति निकेतन वाली शांति नहीं)। शांति के माता-पिता कहते कि उनको कभी तो शांति मिले...। उन्होंने पत्नी का नाम जयजयवंती रखा। मीट माई पीपुल्स के पहले एडीशन में उनका यही नाम था। सत्यार्थी को लगा कि नाम ज़रा लंबा है, फिर ‘रेखा’ नाम दिया और फिर ‘शिवानी’…। वह कहते हैं मैं अश्क से कम नहीं, मैंने भी देखो कितनी शादियां कीं। बहरहाल वह मानते कि नाम में काफी कुछ रखा है। उन्होंने अपनी पत्नी को समर्पित किताब लिखी...नाम दिया- ‘चाय का रंग’। तब वह कहते कि इतने नाम बदल दिए तुम्हारे रेखा डार्लिंग, तीसरी शादी का मज़ा ले रहा हूं, एक प्याला चाय तो थमा दो डार्लिंग...। नाम के महत्व को वह एक घटना से जोड़ते हैं। वह मसूरी के लिए घूमने निकले तो उनको कुछ किताब बेचने वालों ने बताया कि उन्होंने उनकी किताब चाय के रंग की पच्चीस कॉपियां बेची हैं। इतनी ही प्रकाशक ने भिजवाई थीं। ख़ैर, सत्यार्थी को पता लगा कि ये किताबें असल में चाय के एजेंटों या बनाने-बेचने वालों ने ख़रीदी हैं- शायद चाय नाम से यह समझकर कि यह तो चाय के बारे में होगी ही...। लेकिन यह किताब थी असम के चाय बाग़ानों के मज़दूरों के आंदोलन को लेकर...। आपको बता दें कि अश्क के कहानी संग्रह ‘बैंगन का पौधा’ के साथ भी यही हुआ। किताब ख़त्म हो गई कि तभी उनकी पत्नी राजस्थान से किताब ख़रीद का आर्डर लेकर आई। वह दोबारा छापी गई। पता चला कि पुस्तकों की ख़रीद का आर्डर वहां के एग्रीकल्चर डिपार्टमेंट से है...। उन्होंने सोचा होगा कि किताब में बैंगन के बारे में कुछ शानदार बातें तो होंगी ही! एक और दिलचस्प क़िस्सा उनसे सुना। पटियाला में कुछ दिन उन्होंने बीएससी करते हुए गुज़ारे थे। महेंद्रा कॉलेज में उनके एक मित्र थे- पंजाबी के टीचर। दोनों चंडीगढ़ गए। पीजीआई में एक दुकान से दवा ले रहे थे और सत्यार्थी पास में चाय वाले के पास बैठ गए। यह बनावट में बड़ी ख़ास तरह की जगह है। सत्यार्थी ने पंजाबी में ये लाइन बनाई-

‘कल दे जमे चंडीगढ़ दा की इतिहास।’

मित्र ने पूछा आगे पीछे कुछ नहीं है क्या। सत्यार्थी बोले-नहीं। फिर पटियाला लौट गए और डेढ़ महीने बाद चंडीगढ़ की उसी दुकान पर बैठ गए और ये लाइनें जोड़ दीं-

‘तू आप सोच मिस दास/
कल दे जमे चंडीगढ़ दा की इतिहास/
चुप चुपीते सुनी जान च की परवास/
इस मौसम दा ना मधुमास...।’

पटियाला जाकर क्लास में ये लाइनें सुनाईं तो वहां मिस दास नाम की एक लड़की निकल आई। वह लड़की बड़ी थुलथुल सी थी। लेकिन कविता लड़कों के बीच काफी पापुलर हुई। सभी रोककर सत्यार्थी से कविता सुनते, मज़ा लेते। फिर एक रोज़ तो वाइस चांसलर नारंग साबह ने सत्यार्थी को घर ही बुला दिया और कहा कि ज़रा वह कविता सुनाओ तो...। पता लगा कि वहां हॉस्टल की एक वार्डन का नाम भी मिस दास था। लड़कियों ने शिकायत की थी कि वार्डन को बदनाम करने के लिए सत्यार्थी ने ये अंटशंट लिखा है। फिर महाशय सत्यार्थी को क्लास में खड़े होकर सफ़ाई देनी पड़ी कि कविता कहां और किस जगह लिखी थी और उनका आशय तो महज़ कविता के अनुप्राश से है, किसी भी मिसदास से इसका कोई लेना-देना नहीं। ख़ैर, इस तुकबंदी ने काफी दिन तक सत्यार्थी का जीना मुहाल रखा...।

सत्यार्थी पर मैक्सिम गोर्की का साफ़ प्रभाव देखा जा सकता है। शायद एक तो इसलिए भी कि गोर्की भी काफी घूमते थे। गोर्की की अंग्रेज़ी में छपी कहानी ‘हाउ द सांग वाज़ मेड’ की एक जगह एक आदमी ने दो लाइनें लिखीं। वे पंक्तियां आगे-आगे पॉपुलर होती चलीं। फिर उसमें किसी ने दो लाइनें और जोड़ दीं। आगे पहुंची तो किसी ने एक पंक्ति हटा दी और चार जोड़ दीं। ज़रा-सी आगे गईं तो किसी ने एक बची पंक्ति को हटाकर सात पंक्तियां अपनी ओर से जोड़ दीं। इस तरह एक नया ही गीत बन गया...। पता लगाना मुश्किल है कि सत्यार्थी गोर्की में थे या गोर्की सत्यार्थी में- इत्तेहादे मियां मनुते...। 12 फ़रवरी 2003 (नई दिल्ली) में सत्यार्थी का इंतकाल हुआ। संसार है "यहां वो 'सा' और 'है' लंबा। आलेख भी और सत्यार्थी के पचानवे साल की मानिंद।