सदैव खुले बाजार की रास लीला / जयप्रकाश चौकसे

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सदैव खुले बाजार की रास लीला
प्रकाशन तिथि :01 जुलाई 2016


भारत के पश्चिमीकरण की राह में हिंदुत्व की लहर पर चुनी गई सरकार ने एक बड़ा कदम यह उठाया है कि सारे बाजार चौबीसों घंटे खुले रहेंगे। गुमाश्ता कानून दो गज जमीन के नीचे गाड़ दिया गया है। भारत के 41 फीसदी युवा मतदाताओं की कृपा से चुनाव जीती सरकार ने युवा वर्ग को यह सौगात दी है तथा व्यापारी वर्ग भी प्रसन्न है कि अब लाभ कमाने के लिए अधिक समय मिलेगा। जगमग करती रोशनी के आगोश में बाजार जागता रहेगा और चहल-पहल बनी रहेगी। अब रात के किसी भी प्रहर में कुछ भी खरीदा जा सकेगा। दरअसल, बेरोजगारी को कम करने में इस नियम से सहायता मिलेगी। यह बात अलग है कि काम करने के इस अवसर का उत्पादकता से क्या संबंध यह कौन बताएगा! सरकार को आशा है कि माल अधिक बिकने से उत्पादकता भी बढ़ेगी। गौरतलब यह भी है कि खरीदने के खुले अवसरों का लाभ लेने के लिए खरीददार की जेब में धन होना चाहिए और सरकार ने महंगाई भत्ता तथा वेतन बढ़ोतरी के माध्यम से एक लाख करोड़ बांटने का भी मन बनाया है ताकि खरीददार की जेब भरी हो गोयाकि भारत को जलसाघर बना दिया जाएगा, जहां सारे समय रक्स जारी रहेगा।

बाजार के उदारीकरण में यह अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय है। चौबीसों घंटे खुले बाजार में खाने-पीने की दुकानें खूब बिक्री करेंगी परंतु आधी रात को कोई कमीज खरीदने नहीं जाएगा, न ही कम्प्यूटर बिकेंगे। भोजनप्रेमी लोगों को खूब भकोसने का उत्सव है, जिससे परोक्ष रूप से किसान वर्ग को भी लाभ मिलेगा। इस बाजार को शांतिपूर्ण ढंग से चलाए रखने के लिए अधिक पुलिस वालों की आवश्यकता पड़ेगी। भरी जेब वालों के लिए स्वर्ण अवसर है परंतु खरीदने की क्षमता नहीं रखने वाले वर्ग के मन में कुंठाएं पैदा होंगी, जिससे अपराध बढ़ने के खतरे को अनदेखा नहीं कि जा सकता। ज्ञातव्य है कि अमेरिका में 1929 की मंदी के दौर में अपराध सिनेमा की लहर ने जोर पकड़ा था। संगठित अपराध ने भी अनेक कथाओं और फिल्मों को जन्म दिया है। फिल्म व्यवसाय को यह लाभ मिलेगा कि सितारा सज्जित फिल्म के शो सारे समय चलते रहेंगे। अमेरिका में दर्शक एक टिकट खरीदकर मनचाहे शो देख सकता था। हमारे यहां यह संभव नहीं है परंतु अब सिनेमा मािलकों को रात-दिन शो चलाने की सुविधा मिलेगी। पहले तो 12 बजे तक सिनेमाघर बंद करने का आदेश था। गणेश विसर्जन के दिन इंदौर के सिनेमाघरों में दिन-रात फिल्में दिखाई जाती थीं।

इस दौर में माता-पिता की परेशानी यह है कि बच्चे अधिक पढ़ें, क्योंकि प्रतियोगिता के कालखंड में अधिकतम अंक प्राप्त करने वाले छात्र को ही बेहतर संस्थानों में दाखिला मिलता है। अब तैंतीस प्रतिशत अंक लाकर परीक्षा पास करने का कोई लाभ नहीं है। यह सारा खेल औसत या साधारण के लिए कठिनाइयां बढ़ा रहा है। अब जंगल नियम की वापसी नए अवतार में हुई है कि सबसे मजबूत ही बचा रहेगा। छात्र को किताबी कीड़ा बनना जरूरी कर दिया गया है, अत: व्यक्तित्व के संपूर्ण विकसित होने का अवमूल्यन हो चुका है। यह सब ताम-झाम चुनिंदा वर्ग को सहूलियत देगा और अार्थिक खाई अधिक गहराएगी। यह खाई ही अपराध की गंगोत्री भी हमेशा रही है।

फिल्मकारों को रोचक फिल्में बनानी होंगी। अपराध फिल्मों की संख्या बढ़ेगी। अब सामाजिक सौद्‌देश्यता की फिल्मों का दायरा और ज्यादा सिमट जाएगा। यह खुला हुआ बाजार अब खुद एक नया विषय है। शराब की खपत के अनुसार उसका उत्पादन भी बढ़ेगा। चौबीसों घंटे खुले बाजार में शराब और भोजन के ठिये खूब चमकेंगे। इस रियायत का लाभ वेश्यालय को भी मिलेगा गोयाकि भारी संख्या में तवायफों की आवश्यकता पड़ेगी। अंचलों से लड़कियां उठाने वाले कारोबार में भी काम करने वालों की संख्या बढ़ेगी। हमारे वक्त में जाने हम बोते क्या हैं और काटते क्या हैं? क्या जमीन का मिजाज भी बदल रहा है। कहीं एेसा न हो कि हम गेहूं बोएं और धतूरा काटें? गुलाब बोएं और अफीम उपजे? धरती के मिजाज के साथ ही कहीं गर्भाशय भी तो नहीं बदल जाएगा कि राम की जगह रावण ही रावण पैदा हो रहेे हैं। हमें कितने वाल्मीकि और कितने व्यास लगेंगे परंतु यह तय है कि मारियो पुजो अनेक संख्या में उपलब्ध होंगे। मारियो पुजो की 'गॉडफादर' पूंजीवाद की महाभारत है।

जब रात शुरू होगी आधी रात को, तब आधी रात का अखबार भी निकलेगा। सागर सरहदी की फिल्म 'बाजार' में खाड़ी देश के सौागर भारत के गरीबों की कन्या को खरीद लेते हैं और श्याम बेनेगल की 'मंडी' में वेश्याएं नए बाजार और बस्तियां बसाने में सक्षम होती हैं। एक बस्ती के पवित्रतावादी हुक्मरान तवायफों को शहर बदर करते हैं और वे दूर निर्जन जगह पर बस जाती हैं। उनके ग्राहक इतनी संख्या में आने लगते हैं कि एक नई बस्ती बस जाती है। दरअसल, पुरुष लंपटता तवायफ रचती है। प्रतिस्पर्द्धा से शासित समाज अपने पुरुषों से ही तवायफाना काम कराते हैं। बाजार शासित समाज समझौते कराता है और हर समझौता करने वाला अन्य अर्थ में तवायफ ही होता है। 'चोरी चोरी' का गीत है, 'जो दिन के उजाले में न मिला, दिल ढूंढ़े ऐसे सपने को, इस रात की जगमग में डूबी, मैं ढूंढ़ रही हूं अपने को।' चौबीसों घंटे खुले बाजार की जगमग में, यह भय है कि कहीं हम स्वयं ही गुम न हो जाएं!