सन्दर्भ / रमेश बतरा

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बेटी जब से कालेज में दाखिल हुई थी, माँ को लग रहा था कि वह दिन-प्रतिदिन परकटी होती जा रही है । उसका मन पढ़ाई में कम और सिनेमा, पिकनिक और मटरगश्ती में अधिक लगने लगा है और वह फैशनपरस्ती में पड़कर काफी फिजूलखर्च भी हो गई है ।

तीन वर्ष तक वह उसके ये सब रंग-ढंग देखती, सुनती और सहती रही । वह सोचती रही कि बच्ची है, बड़ी होने पर खुद ही समझ जाएगी । पर चौथा वर्ष आते न आते बेटी उसे एकदम जवान प्रतीत होने लगी । यह परिवर्तन बेटी के लिए प्रगतिशील हो सकता था, लेकिन उसके लिए बड़ा प्रतिक्रियावादी था । उसने पति से परामर्श करके निश्चय किया कि स्नातक करते ही बेटी का विवाह कर दिया जाए ।

इसलिए एक दिन उसे समझाने के उद्देश्य से बोली, 'देखो बेटा, भले घर की लड़कियाँ ऐसा नहीं करतीं । तुम्हारे लच्छन इसी प्रकार बिगड़ते गए तो कोई अच्छा लड़का तुमसे ब्याह नहीं करेगा । फ़ैशनपरस्त और फ़िज़ूलखर्च लड़कियों को कोई पसन्द नहीं करता ।

— मगर मैं ऐसे लोगों को जानती हूँ, जो केवल इसी तरह की लड़कियाँ ही पसन्द करते हैं ।

— ऐसे लोग ख़ुद कैसे होते होंगे, भला ?

— जैसे पिताजी हैं ।

माँ को लगा — सूर्य आकाश से छूटकर पाताल में जा धँसा है; और अब पृथ्वी नहीं, वक़्त घूम रहा है । उसने कुछ डाँटने के लिए बेटी की ओर देखा । बेटी दरवाज़े की ओर जा रही थी । उसका कोई मित्र आया था । वह वहीं से उसके साथ कहीं... शायद कालेज चली गई ।

रमेश बतरा / 8 दिसम्बर, 1975 / दैनिक हिन्दी मिलाप, जालन्धर