सपना / विद्या रानी

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अंग्रेजी राज में तेॅ विकास होइये रहलोॅ छेलै, मतरकि एतना नै कि सब्भे लोग ठाट-बाट सें टेम्पो-रिक्शा-मोटर पर चढ़ी केॅ चललोॅ जाय रहलोॅ छै। तखनी तेॅ लोग दू-चार कोस कूदी-फांदी केॅ लांघी दै छेलै आरो कुछुवो नै बुझावै छेलै। असरगंज सें सुल्तानगंज करीब चार कोस छै आरू ज्यादातर मौगी-मरद, बच्चा-बुतरू-सब्भे बुलले गंगा नहाय लेॅ जाय छेलै। कार्तिक महीना में तेॅ आठ बजे भोरे झुंड के झुंड लोग चललोॅ गेलोॅ आरू फरचोॅ होतें-होतें घुरी ऐलोॅ।

गांग नहाय जाय में गनपतिया माय बड़ी तेज, आपनो गेलोॅ आरू संगी-साथी भी बनाय लेलकोॅ। गाँमोॅ के लोग सिनी सुतले रहै छेलै, नै तेॅ जागी केॅ बिछौना पर ओघरैले छौं कि सुनाय पड़ेॅ लागै छेलै-"प्रात दरसन देहु गंगा मइया, प्रातः दरसन दुहु।" बुतरुओ सिनी ओकरोॅ साथें जाय के उमंगोॅ में राती सुतेॅ नै पारै छेलै। ओकरा सिनी केॅ गांग नहावै सें जतना प्रेम नै छेलै, ओतना नहाय केॅ जलेबी, मूढ़ी-घुघनी खाय सें छेलै।

गनपतिया माय केॅ एक बेटा आरो चार बेटी. बेटी सिनी सयानी छेलै, से ओकरा सिनी केॅ घोॅर के काम समझाय केॅ बेचारी गंगा-गोंसाय में लागली रहै छेली। कामना छेलै कि गंगा माय के किरपा होय जैतै तेॅ सब्भे काम पुरी जैतै-नै तेॅ यही रङ घुरची खैतेॅ रहवै।

घोॅर सें धूल भरलोॅ सड़कोॅ पर चलतें-चलतें जबेॅ पक्की सड़कोॅ पर आवै छेलै तेॅ ओकरा खूब आराम लगै-माटी, कंकड़ सें मुक्ति। अलकतरा सें चपड़लोॅ पक्की सड़क-तेलिया धार रङ चिकनोॅ लागै छेलै। भोर के ठंडा-ठंडा कारोॅ सड़कोॅ पर पैर रखला सें सबकेॅ यहेॅ लागै छेलै, हेने बुझावै छेलै कि ई रं सड़कोॅ पर तेॅ कत्तो उड़लोेॅ चललोॅ जा, कुछू नै बुझैतौं। एक तरफ बड़का-बड़का गाछ आरू तखनी बिना मोटर-टमटम के खाली सड़क-चार कोस जाय में कुछू थोड़े बुझावै छेलै।

सुल्तानगंज पहुँचला पर गनपतिया माय एक बार ज़रूरे राजा किशनदेव के महलोॅ केॅ देखै छेलै। "अगे माय, एतना ऊँचोॅ दीवारोॅ पर बड़का महल" सोचै छेलै-ऐह स्वर्ग जुकां लगतेॅ होतै ऊ महलोॅ में, जेना किस्सा-कहानी में कहै छेलै कि राजा छेलै; ओकरा रानी छेलै। धन-पाट-राजवंश सें भरपूर। कतना सुन्नर लागै छै देखै में। गनपतिया माय के सपना छेलै-एक दाव महलोॅ केॅ देखी लेतियै आरू रानी केॅ देखै के मौका मिली जाय तेॅ आरू सुन्नर। हिनकोॅ महल तेॅ दूरे सें चमकै छै, हमरा सिनी के घोॅर तेॅ मिट्टी के दीवार आरू खपड़ा के छौनी। कार्तिक महीना में दीवार ढौरतें-ढौरतें, घोॅर लीपतें-लीपतें कम्मर धरी लै छै। हों भाय, पुरूव जनम के पुन्न छै कि ई जनमोॅ में एतना सुख मिललोॅ छै-नै तेॅ हमरे सिनी रङ कपार नै फोड़तियै- सुल्तानगंज आवी केॅ गनपतिया माय भुलाय जाय छेलै आपनोॅ घोॅर। खाली राजाहै के महल, रानीये के रूप के बारें में सोचतैं रहै छेलै।

संगी-साथी सब मजाको करेॅ लागै छेलै कि हे, हे, आबेॅ गंगा नहाय केॅ घोॅर जैवौ कि राजा-रानी के बारे में सोचवौ। आपनोॅ-आपनोॅ करम छै। सोचला सें की होतों। तबेॅ गनपतिया माय बोलै छेलै, "देखै के मोॅन करै छै आरू की, हम्में की रानी बनी जैतियै, खाली देखतियै कि कैन्होॅ छै रानी।"

यहेॅ रङ दिन उड़लोॅ जाय छेलै। एक रोज ओकरोॅ मनोकामना पूरा होय गेलै। आभी घाटोॅ पर कपडा-लत्ता धरी केॅ बैठले छेली कि हल्ला सुनेॅ लागली, "हटोॅ-हटोॅ, रस्ता छोड़ोॅ, रानी साहिबा गंगा नहाय लेॅ जाय रहली छै।" गनपतिया माय संगी-साथी संगे आपनोॅ-आपनोॅ मोटरी उठाय केॅ किनारा पर चल्लोॅ गेली। सोचेॅ लागली कि आय तेॅ रानी जी केॅ देखिये लेवै। बैठलोॅ-बैठलोॅ खूब देर होला पर देखै छै कि चार दाय चारो तरफ सें चद्दर पकड़ी केॅ चल्लोॅ आवी रहली छै। रानी जी ओकरे बीचोॅ में चली रहलोॅ छेली। अबेॅ तेॅ रानी केॅ देखवै केना, ठीके कहै छै गाँव में कि रानी चंदोवा तरोॅ में नाही केॅ घोॅर जाय छै, कोइयो नै देखेॅ पारै छै। आबेॅ गनपतिया माय रानी के दइये केॅ ध्यान सें देखेॅ लागलै जेकरोॅ हाथोॅ में हुनकोॅ लूंगा सिनी छेलै-खूब छायादार साड़ी-तखनी, जखनी कि कोरे वाला साड़ी लोगें रङाय केॅ पिन्है छेलै-दइया नें छापेदार साड़ी, लाल ब्लाउज पहननें छेली। खोपा उलटाय केॅ बांधनें छेली, गल्ला में मोटोॅ सिकड़ी चमकी रहलोॅ छेलै-खाली चाँदी के जेवर-गिलट, पीतल नै। हाथोॅ में कंगन, बौउटी, बाजूबंद, कमर में करधनी, कानोॅ में तैरकी, गोड़ोॅ में पाजेब-झमर-झमर चली जाय रहली छेलै। गनपतिया माय नगीच जाय केॅ ओकरा देखेॅ लागलै तेॅ वैनें कहलकै "हुन्नें नै, हुन्नें नै, रानी जाय रहलोॅ छै।" चिढ़ी गेलै गनपतिया माय "ऊँह रानी जाय रहली छै कि तोहें दरवानी करै छैं, हमरा सिनी की देख्हौ नै पारियौं" फेनू दइया सें बोललकी "हम्मू अगर रानी जी के दाय रहतियै तेॅ तोरे रङ बाजू-बौसन झपकैतियो। तोहें हुवेॅ पारै छैं दाय आरू हम्में नै? हमरा की लूर नै छै कि तोहें ई रङ झांटै छैं।"

दइयो सकपकाय गेलै-ओकरा ई रङ जवाब सुनै के आदत नै छेलै-सब्भे डरवे करै छेलै। ओकरा बड्डी खराब लगलै कि एक देहाती महिला नें ओकरा झमारी देलकै। गोस्सा पीवी केॅ दइया बोललकी, "की कहियौं रानी के हुकुम छै कि हुनका नहैतें कोइयो नै देखेॅ पारेॅ, यही लेॅ चद्दर तानलोॅ जाय छै, हम्मू यही लेॅ बोलै छियै। अरे बहिन, जे तोहें, से हम्में। की अंतर छै, हम्में रानी के काम करै छियै तेॅ बढ़िया पीन्है-ओढ़य लेॅ मिली जाय छै आरो की।" गनपतिया माय बोलेॅ लागली कि ठीक्के कहै छौ, अहे रानी तेॅ एकदम्में परी जुकां नी होतै,। ई सुनी केॅ दाय हाँसै लागली आरो कहलकी "अरे हुनकोसिनी तेॅ आदमिये नी छेकै, हां खान-पान, पहनावा-ओढ़ावा सें दिव्य जुकां लागै छै। तोरा बड़ी मोॅन छौं नी देखै के, तेॅ हम्में कहवौ रानी साहिबा सें कि तोरा सें बात करी लों।"

गनपतिया माय के तेॅ मोॅन खुश होय गेलै, चलोॅ एतना तेॅ जानलियै कि की रङ रहै छै रानी सिनी, हम्में सिनी सीधे गंगा में नहाय छी, आरो हुनका सिनी चंदोवा में ढुकी केॅ नहाय छै।

यही रङ बात करतें-करतें सुरूज उगी गेलै, गंगा घाट-एकदम बलुआही मिट्टी थरिया रङ घाट आरू झलमल उजरोॅ पानी। रानी के दाय आरू रानी ओकरोॅ दिमागोॅ सें नै निकललोॅ छेली, वें डुबकी लगाय केॅ घाट पूजी लेलकी आरू जलखय करै लेॅ बैठी गेली।

ओकरोॅ आदत छेलै कि गंगा नहाय केॅ जलेबी ज़रूर कीनतियै-घोॅर लेॅ, दू घंटा चलतेॅ-चलतेॅ घर पहुंचली तेॅ बेटी सिनी नें पूछलकै कि एतना देर केना होलौ माय, तेॅ वैंनें सब किस्सा कही सुनलकै तेॅ ओकरा सुनी केॅ बेटियो सिनी के मोॅन में रानी के रूपोॅ के सपना जगेॅ लागलै।

मजदूर-किसान सिनी, मुंशी, तहसीलदार, खजांची, कारिन्दा आरू राजा-रजवाड़ा लोग-इहू तरह के समाज के वर्ग छेलै, तेकरा सबसें ऊपर अंग्रेज, जे तखनी आवि केॅ जे-सें और्डर दै जाय छेलै आरू राजा लोग मानै लेॅ मजबूर छेलै। खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूषा, आचार-विचार-सबके नकल ऊपर सें नीचें तक होय छेलै। ज़िन्दगी तेॅ ऐन्हे दिन आरू रातोॅ में कटै छेलै, मतरकि कौनें कबेॅ राजदरबार में नौकरी पावी जैतै आरू के निकाली देलोॅ जैतै-एकरोॅ ठिकाना नै छेलै।

एक साधारण किसान परिवार में जनमली गनपतिया माय कहाँ तेॅ राजा-रानी के खिस्से सुनै छेलै-ई असरगंज में बीहा होला के बाद सुल्तानगंज के राजा केॅ पहलोॅ बार देखला के बाद ओकरोॅ कल्पना में जेना पर लगी गेलै आरू ऊ गामोॅ बीच रुचिकर किस्सो होय गेली कि केना वैंनें रानी के दाय केॅ झमारलेॅ छेलै।

गनपतिया माय गाँव मेॅ सब्भे सें तेज समझलोॅ जाय छेली। ऊ रानियो के दाय सें डरै नै छै, सब्भे कामोॅ में सुगढ़ छै। घरोॅ केॅ दीवार जे नीपेॅ लागतौं तेॅ एक ठो नुड़पोतनी के दाग नै देखेॅ पारवौ, ऐंगना जबेॅ नीपी देतै तेॅ लागतौं कि तेल सें पोछलेॅ छै, चीकनोॅ-चाक, एकटा कंकड़-माटी नै।

एक दाफी आपनोॅ पिताजी के मृत्यु पर राजा नें भंडारा के आयोजन करलकै। गाँमोॅ में खबर ऐलै कि राजा घर भंडारा होय छै, जेकरा सिनी केॅ कार सेवा करना छै, वहाँ जाय केॅ करोॅ आरू धरम कमावोॅ। गनपतिया माय सोचेॅ लागली कि चलोॅ, यहू बहाना रानियो केॅ देखी लेवोॅ आरू धरमो होतै। घरोॅ के लोगें ओकरोॅ पागलपन सें तंग आवी गेलोॅ छेलै, "अरे आपनोॅ स्तर देखीये केॅ सपना देखना चाहियोॅ, कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगू तेली, ई मुँह आरू मसूर रोॅ दाल, की करवैं रानी केॅ देखी केॅ।" गनपतिया माय बोललकी, "देखी लेवै, बाल-बुतरू केॅ बतैवै कि हम्में रानी केॅ देखलेॅ छी, एकरा में की पाप छै। आरू कौन ठिकानोॅ, ई गांधी बाबा जे आन्दोलन चलैलेॅ छै, तेॅ रानी सिनी के राज खतम होय जाय-बादोॅ के आदमी सिनी तेॅ खिस्से नी सुनतै।" गनपतिया बाबू केॅ आपनोॅ कनियाइन बड़ी बुधिगरी लागै छेली, सोचलकोॅ कि जों रानी केॅ देखै सें एकरोॅ जी जुड़ाय जैतै तेॅ की हानि। ओकरा भेजी देलकै राजा कन भंडारा में। एक ठो झोला में लूंगा-कपड़ा लै केॅ आपनोॅ सखी-संगी साथें ऊ चल्लोॅ गेली सुल्तानगंज। दू-चार दिन गंगो नहाय लेवोॅ आरू जे करै लेॅ मिलतै, ऊ करी लेवौ।

वहाँ ओकरा भंडारा के अनाज साफ करै के काम मिललै। एकरोॅ तेॅ सब्भे काम चिकनोॅ छेलै। एक-एक दाना साफ करी केॅ ढेर लगाय दै छेलै, ओकरोॅ बाद रांधै में भी लगी जाय छेली। तिरपाल के एक कोना में ओकरा सुतै लेॅ मिललोॅ छेलै-अन्दर तरफ वें देखै छेली, मतरकि भीतर जाय के हिम्मत नै पड़ै छेलै। लागै छेलै कोय डांटी देतौ। महलोॅ के भव्यता देखी केॅ ओकरोॅ मोॅन जुड़ाय गेलोॅ छेलै-रानी सें मिलै के सपना बांकी छेलै।

एक दिन ऊ बाजूबंद वाली दैया केॅ देखलकी, दौड़ली पास गेली आरू हाथ पकड़ी केॅ कहलकै, "हे-हे, हमरा तनी रानी जी केॅ नै देखाय देभौ। अरे तोहीं नी छेकी जे गंगाघाट पर मिलली छेली?"

"हौं-हौं, रानी जी केॅ कही केॅ बताय देभौं।"

तीन-चार दिन खूब भंडारा होलोॅ, ढेरी-ढेरी लोग जगह-जगह सें आवी केॅ भोजन करलकौ, हवन-पूजा, गंगास्नान-वहाँ पवित्रा वातावरण छेलै।

पाँचवा दिन सब्भे केॅ नहाय के अनुमति मिली गेलै, तभिये रानी जी नें खबर करवैलकी कि जे लोग निस्वार्थ भाव सें सेवा देनें छै, ओकरा सें हम्में मिलवै आरो आपनोॅ तरफ से कुछ भेंटो दै केॅ विदाय करवै। "

ई खबर सुनी केॅ तेॅ गनपतिया माय के खुशी के ठिकानोॅ नै रहलै। आबेॅ तेॅ रानी जी सें मिलीये लेवै। ऊ दिनो आवी गेलै, गनपतिया माय नें आपनोॅ लूंगा फीची-फाची केॅ राखलोॅ छेली, कैन्हें की गन्दा लूंगा पिन्हला सें रानी जी केॅ खराब लागतै, फेनू सोचतै कि कत्तेॅ गन्दा रहै छै।

मांग फटकारी केॅ, माथा बांधी केॅ टिकुली साटी लेलकै, आरू चिर संचित कामना पूरा करै के खुशी में ओकरोॅ चेहरा चमचम चमकेॅ लागलै। सब मजदूर लाइनोॅ में खाड़ोॅ होय गेलै। गनपतिया माय पीछू में ठाड़ी छेली। रानी जी के पास गेला पर गनपतिया माय केॅ बगोछोॅ लगी गेलै। हुनका आँख उठाय केॅ केना देखवै, जेकरा देखैलेॅ एतना दिनोॅ सें सोचै छेलियै-ऊ सामनां में छै। झुकी केॅ गोड़ लागी लेलकी गनपतिया माय आरू घोघोॅ तानी केॅ ठाढ़ी होय गेली। रानी जी के गोड़ उजरोॅ-जेना मक्खन के लोइया रहेॅ, नाखून रंगलोॅ आरू बिछिया-पायल चमचम करै छेलै। हाथ केन्होॅ एकदम कोमल-कमल के फूल नाँखी, साड़ी दै के वक्ती रानी के हाथ ओकरोॅ हाथोॅ में सटी गेलै तेॅ गनपतिया माय धन्य होय गेली। घोघा के फांक सें एक्के झलक देखेॅ पारलकी रानी जी के मुंह-लक्ष्मी जी रङ लागै छेलै। चकचक गोल मुंह, बड़का-बड़का आँख, तिलोॅ के फूल जुकां नाक, न मोटोॅ न पातरोॅ, ठोर तनी टा, नोक वाला ठुड्डी, उच्चोॅ कपार पर अठन्नी एतना बड़ोॅ टीका, ओह, यही रं ते ॅ सोचै छेलियै हम्में-रानी दिव्य छै, आह दर्शन होय गेलै-बड़ा भाग मानुष तन पावै, तेॅ मानुष-मानुष में अंतर छै, रानी-रानी छेकै, हम्में-हम्में छी, मतरकि दरशन के आस पूरी गेलै। उपहार लै केॅ गनपतिया माय धन्य होय गेली, आबेॅ मोॅन के उमंग केॅ केना सब्भे केॅ बतावै आरू देखावै कि रानी नें की देलेॅ छै।

गनपतिया माय केे परिवार में कोय अंतर नै होलोॅ छेलै-नै बेटा केॅ नौकरी, नै बेटी केॅ दहेजोॅ में दस बीघा खेत-जेना छेलै तेन्हैं छेलै, मतरकि ओकरा लागै छेलै जेना कतना बड़का धोॅन पावी गेली छै, सपना साकार होय गेलै। बेटी सें कहै छै गनपतिया माय, "कोनो जनमोॅ के पुण्य होतै कि रानी केॅ साक्षाते देखी लेलियै।"

माय के सपना साकार देखी केॅ बेटी मुसकेॅ लागै छै।