सपने का सच / मनीषा कुलश्रेष्ठ

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कहानी लिखना क्या आसान काम है?

रवीन्द्रनाथ टैगौर के अनुसार रचना का जन्म लेना और प्रसव पीड़ा एक समान है।

मेरे लिये तो यह और भी दुश्कर है। मेरे लिये कहानी लिखना स्वयं जन्म लेता हुआ शिशु होना है। अनजाने फिसलन भरे रास्तों पर, अनजाने दबावों और खींचतान के बीच अजनबी जगह पर, अनजाने ठण्डे हाथों में उतर आना है, कहानी लिखना। कम से कम इस बार तो यही महसूस हुआ है।

स्वानुभूत कहानी हो तो कहानी लिखना, सूखते खुरंटों को उखाड़-उखाड़ क़र हरा करना है। कल्पना या फन्तासी हो तोकहानी लिखना अवचेतन की गुह्य, अनदेखी गलियों से गुजरना है। कहानी लिखना, कोकून में कैद कीडे क़ा, अपनी ही बनाई कैद से तमाम जद्दोजहद के बाद बाहर निकलना है।

मुझे नहीं पता यह कहानी कल्पना है या सत्य? फंतासी है या अर्धसत्य? मेरे जीवन से उलझ कर, गुजर गई कोई घटना है या मन पर पडा कोई अतीत का निशान! मुझे सच में नहीं पता। जब से इसे लिखना शुरु किया तबसे मैं सोते - जागते इसी कहानी की प्रेतबाधा से ग्रसित हूँ। इसे लिखते - लिखते मैं स्वयं इन्सोम्निया का शिकार हो गई हूँ, पूरे हफ्ते से सोई कहां हूँ?अजीबो - गरीब सपनों के बीच - बीच में से पसीना - पसीना हो कर कई बार मध्यरात्रि में उठ बैठी हूँ। यकीन मानिये अब इस कहानी के आदि - अंत पर भी मेरा अधिकार नहीं रहा है। मुझे नहीं पता अंत होते - होते यह कहानी कहां पहुंचने वाली है। कहानी लिखने के पहले ही दिन की तो बात है, मैं ने उस रात सपने में देखा -

शहर के बीचों - बीच, एक रेजीड़ेन्सी कैम्पस है। इतिहास कहता है, पहले यहां अंग्रेजों की रेजीड़ेन्सी थी, पर अब इस रेजीड़ेन्सी के पेडों से भरे विस्तृत क्षेत्र और इमारतों में एक कन्या महाविद्यालय, उसका हॉस्टल, एक सीनियर सैकेण्ड्री गर्ल्स स्कूल, एक एस टी सी गर्ल्स स्कूल और उनका छात्रावास, एक मेडिकल कॉलेज का पी जीगर्ल्स हॉस्टल है, एक उजाड क़ोने में आदिवासी कन्या छात्रावास भी है। इनमें से कुछ इमारतें नई हैं, कुछ पुरानी ऐतिहासिक इमारतों को बढा - घटा कर स्कूल - कॉलेज लायक बना लिया गया है। इस रेजीड़ेन्सी के तीन गेट हैं। एक कन्या महाविद्यालय का मेन गेट है, जो बाकि शहर की बढिया मुख्य सडक़ों से जुडा है। एक कन्या महाविद्यालय को हॉस्टल से जोडती सडक़ है, उसके बीच से काट कर एक सडक़ रेजीड़ेन्सी सीनीयर सैकेण्ड्री स्कूल को जाती है तो उसके उस तरफ स्कूल की निकासी का एक बडा गेट है,उसके बाहर पुलिस चौकी है। पुलिस चौकी के बाहर निकल कर चेतक सर्कल है, जहां शहर के पिक्चर हॉल हैं, कुछ उम्दा रैस्टोरेन्ट्स भी हैं। तीसरा गेट पीछे को है, एस टी सी स्कूल का प्रवेश व निकास। इसके बाहर कई अच्छी सभ्रान्त बस्तियां हैं और थोडा बाहर निकल कर, थोडा रोड चढ क़र चौराहे के पार मेडिकल कॉलेज है। बीच की सडक़ें यहां - वहां से गर्ल्स हॉस्टल्स से जुडी हुई हैं।

लेकिन रेजिड़ेन्सी सीनीयर सैकेण्ड्री गर्ल्स स्कूल के खेल के मैदान के पार, जिधर आदिवासी हॉस्टल है, उधर से बाहर निकलने का गेट नहीं है न पुलिस चौकी न शहर को जोडती चहल - पहल से भरी सडक़ेंन कॉलोनियाँ जैसा कि पहले मैं ने कहा वह उजाड क़ोना हैउसके पार भी शहर की मध्यमवर्गीय या गरीब बस्तियाँ हैं। इस बडे मैदान के एक कोने में एक कैन्टीन है। यह मैदान हर हॉस्टल, कॉलेज स्कूल के ठीक बीचों-बीच है। वैसे यह कैन्टीन रेजिड़ेन्सी सीनियर सैकेण्ड्री गर्ल्स स्कूल का है। कन्या महाविद्यालय का भी अपना अलग कैन्टीन है। लेकिन इस कैन्टीन वाले के समोसे बढिया हैं और चाय सस्ती तो इस वजह से यहां गंगा-जमुनी मिलन रहता है लडक़ियों का। यहाँ हरी टयूनिक पहने सीनियर सैकेण्ड्री गर्ल्स स्कूल की लडक़ियां तो घिरी होती ही हैं। गुलाबी चैक का कुरता और सफेद सलवार-चुन्नी पहने कन्या महाविद्यालय की लडक़ियां भी समोसों - चाय पर टूटी रहती हैं। सफेद एप्रन पहने एक दो पी जी डॉक्टर भी कभी खडी दिख जाती हैं। एस टी सी स्कूल की नीली साडी वाली छात्राएं भी दिख जाती हैं। कभी - कभी बाउण्ड्री फांद कर आई दो चार धाकड आदिवासी लडक़ियां भी दिख जाती हैं, चाव से समोसे खाती, जिनके चेहरों व हाथों पर गुदने गुदे होते हैं, गहरा चमकीला काला रंग, अनगढ नक्श!

अरे! और यह मैं हूँ, यहां एन्टीगोनम की बेल के गुलाबी फूल तोडती! हां! यहीं तो कन्या महाविद्यालय के हॉस्टल में रहती हूँ मैं।

मेरी नींद खुल गई है - वह माहौल और वे दिन कल की ही की - सी बात तो लगते हैं। मैं ने अपना ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन यहीं से तो किया था। मैं चकित हूँ - कैसे वह पूरा का पूरा माहौल सपने में उतर आया?

पर कल रात क्या मैं कुछ ऐसा ही लिख रही थी हॉस्टल वगैरह? हां, कल रात मैं ने एक कहानी की शुरुआत की थी कुछ दिन पहले न्यूज म़ें देखी हुई एक विवादास्पद घटना पर लिखने की कोशिश कर रही थी - “सर्वोदय विद्यालय के कन्या छात्रावास में दो लडक़ियों ने यौनशोषण से त्रस्त होकर आत्महत्या की”

वह शहर, वह रेजीड़ेन्सी कैम्पस हू - ब - हू मेरे सपनों में आता रहा जब तक मैं कहानी लिखती रही

उस इलाके में अंग्रेजों के लगाये बडे दुर्लभ पेड थे मोर पंखी के लम्बे - लम्बे पेड, ज़ैकेरेण्डा,गुलमोहर, अमलतास जाने कौन - कौन से लाल, जामुनी, पीले, नीले फूलों के पेड। क़ितने तो फलों के पेड थे। आम, इमली, जामुन, अमरूद, बेल फलों के मौसम में लडकियां उन पर झूली रहती थीं। अंग्रेजों की लगायी एन्टीगोनम की गुलाबी फूलों वाली लतरें तो अब पूरे कैम्पस में खरपतवार की तरह उगती थीं। लेकिन इन पेडों का बहुतायत में होना बहुत अच्छा भी नहीं था। कई बार किन्ही - किन्ही रास्तों और पुरानी सडक़ों पर दिन में भी रात का सा अंधेरा छाया रहता था।

मुझे अर्धजाग्रत अवस्था में वह बात याद आ गई ।

बी एस सी में एडमिशन के पहले वर्ष और पहले ही महीने की बात है। जूलोजी प्रेक्टीकल में डिसेक्शन के बाद ही लैब में मुझे उलटी हो गई , तो हमारी लैक्चरर ने मुझे हॉस्टल जाकर आराम करने को कहा। और और मैं शॉर्टकट लेकर जूलोजी डिपार्टमेन्ट के पिछवाडे से निकल,आदिवासी कन्या छात्रावास की पगडण्डी पकड हॉस्टल की तरफ मुड रही थी कि मुझे एक अधेड आदमी दिखा, पेड क़ी तरफ मुंह करके लघुशंका से निवृत हो रहा था मैं चलती रही हाय! वह जिप खोले हुए ही अपने जननांग का प्रदर्शन करता हुआ अचानक सीधा हो गया। मैं बेवकूफ ठिठक कर खडी हो गई मैं ने जो देखाउससे मेरी मितली बढ ग़ई और मैं हाथ में पकडी प्रेक्टीकल फाइल और पेन्सिल बॉक्स वहीं फेंक कर भागती चली गई। वह उम्र और वह अनुभव दोनों ही ऐसे थे कि चाह कर भी मैं किसी से कह नहीं पाई। न वार्डन से शिकायत की, न मेट्रन को बताया।

आज सोचती हूँ, सीधे पुलिसचौकी क्यों नहीं भागी? हॉस्टल जाकर इतना क्यों रोई? अपनी एक मेडिकल गर्ल्स हॉस्टल में रहने वाली चचेरी बहन के अलावा किसी को क्यों नहीं बतायाउन्होंने भी तो यह कह कर टाल दिया। “- अरे, कितनी उलटियां करेगी? हम तो रोज ही जिन्दा और मुर्दों का यही सब देखा करते हैं। ले, खा यह गोली और यहीं मेरे कमरे में सो रह। शाम को वार्ड से आकर तुझे हॉस्टल छोड दूंगी।

उस वक्त मुझे दिन ही कितने हुए थे, कॉलेज में एडमिशन लिये हुए?

फिर तो पुराने हो गये थे हम, मैं ने सबक सीख लिया था , अकेले नहीं आना - जाना है। पहले मैं बहुत धाकड थी, एन सी सी कैडेट, लगता था, मेरा कोई क्या बिगाड लेगा? पर उस घटना ने,उस विकृत प्रदर्शन ने ऊपर से तो मेरा कुछ नहीं बिगाडा पर अन्दर मन के, जाने कहां जाकर एक गन्दगी सी चिपक गई थी, जो रगड - रगड क़र भी नहीं छूटती थी। वह पहला कटु अनुभव था, लडक़ी होने का! अब तो फर्क ही नहीं पडता, इन्हीं रास्तों पर कितने शोहदे, अधेड ग़न्दी - गन्दी बातें बुदबुदाते चले जाते हैं। हालांकि बात पहुंची थी, वार्डन तक - प्रिन्सीपल तक, पुलिस चौकी तक भी, फिर तो दिन में भी एक सिपाही गश्त भी करने लगा था।

जल्दी ही हॉस्टल की छतों पर घूम - घूम कर, पढते - पढते, मुझे पढने के लिये एक एकान्त और धूप - छांव वाला कोना मिल गया था। बस तभी मुझे पता चला था कि हमारे हॉस्टल के पीछे की विंग की छत से रेजिड़ेन्सी का खेल - मैदान लगा है, पीछे से वह आदिवासी हॉस्टल भी दिखता है। यह मेरा प्रिय कोना था, एंटीगोनम की लतर से ढंका, मोरपंखी के एक विशाल पेड क़ी छांव लेता, पानी की टंकी के पीछे छिपा यह दुर्लभ स्थान। जहां मैं पढती तो थी ही, कभी - कभी नई बहार के उन नये दिवास्वप्नों में खो जाती थी, कभी - कभी एक सहज उत्सुकता के तहत मैं अपने प्रिय कोने से पढते - पढते आदिवासी हॉस्टल की गतिविधियां देखा करती थी। वे लडक़ियां कभी कपडे धोते, बाल सुखाते, कभी - कभी एक - दूसरे की चोटी गूंथती कोई लोकगीत गाते दिख जाती थीं। मुझे लगता वह हॉस्टल दिन के इतने उजालों में भी एक किस्म के अंधेरों में घिरा रहता है। इस हॉस्टल की लडक़ियों के चेहरों की तरह इनकी दीवारें, मुंडेरें काली क्यों हैं? यहां कभी क्या कोई पुताई नहीं होती? सरकारी बातें तो इतनी होती हैं। मुफ्त शिक्षा, बेहतर सुविधाएं,बेहतर अवसर - आदिवासी लडक़ियों के लिये आरक्षण का एक बडा हिस्सा। फिर भी ये हम से बेहतर क्यों नहीं हैं?

मैं उस कोने से देखती, हर उम्र की आदिवासी लडक़ियां, आठ साल से लेकर अठारह साल तक,ये सभी रेजिड़ेन्सी स्कूल में पढती थीं। वे सभी मुझे कभी कपडे धोती दिखतीं तो, कभी बाहर चूल्हे पर चाय बनाती। लेकिन कभी वे हमारी तरह शोर नहीं मचातीं थीं, न खेलती थीं। हालांकि उनमें से दो राज्यस्तरीय पुस्कार प्राप्त एथलीट भी थीं। मैं ने उन्हें अपने कॉलेज के खेल मैदान में प्रेक्टिस करते देखा था।

एक दिन हमारी हॉस्टल की एक सीनीयर, सोशयोलॉजी में एम फिल कर रही पद्मा दीदी ने मुझसे पूछा, क्या मैं उनके साथ जरा आदिवासी छात्रावास तक चलूंगी? मैं ने अपनी उसी पुरानी उत्सुकता के तहत हां कर दिया।

दीवारें पास से उतनी काली नहीं थीं, जितनी दूर से दिखती थीं, थोडी सलेटी थीं। बडा सा गेट था,जिस पर लिखा हुआ शासकीय आदिवासी महिला छात्रावास धुंधला पड ग़या था। एक टूटी दीवार पर शिलन्यास का अवशेष - वह पत्थर किसी नेता की गौरव - गाथा कह रहा था। हम खेल मैदान पार करके, मोटे लोहे के खुले गेट के अन्दर हॉस्टल के अहाते में खडे थे। सूखा, झडबेरी की झाडियों, जंगली पेडों, बडी - बडी सूखी घास से भरा वह अहाता, जिसमें जगह - जगह जंगली झबरी पूंछ वाले चूहों के बिल थे। हमें देखते ही उछलकूद मचाते चूहे गङ्ढों में घुस गये थे। एकाध दु:स्साहसी चूहा दोनों हाथ गिलहरी की तरह उठाए पीछे के पैरों से खडा एक सूखी रोटी खा रहा था। पास ऊंचाई पर टूटी फूटी सीढियों पर चढक़र एक पंक्ति में कुछ मटमैले कमरे थे। दुपहर ढल रही थी पर एक अलसायापन माहौल पर तारी था। एक अलसाई शान्ति धूप के साथ - साथ मैदान और हॉस्टल की छत पर पसरी थी।

पद्मा दीदी के हाथ में उनके डेजटर्ेशन वर्क के कुछ छपे हुए पर्चे थे, यह शायद एक प्रश्नावली थी, अजीबोगरीब प्रश्नों वाली। वे हमसे भी कई बार यह सब भरवा चुकी हैं। यहां कोई चौकीदार नहीं था। एक मैट्रननुमा अधेड आदिवासी स्त्री एक पेड क़े नीचे चारपाई पर बैठी थी। गले में लटकी चिमटी से दांत खोदती। पास ही बीडी क़ा बण्डल पडा था। गोल - गोल भेदक आंखें और चपटी नाक और मोटे होंठ। माथे पर गोदने की कई बिन्दियां थीं, पर उसने सिन्थेटिक, छींट का हरा सलवार कुर्ता पहना था, दुपट्टा चारपाई पर, तकिये की जगह सिरहाने गोल - मोल बिछा था। वह हमसे बुरी तरह बोली -

“क्या है?

“मैं रिसर्च कर रही हूँ, मुझे यहां की लडक़ियों से यह पर्चे भरवाने थे।”

“आपने किससे परमिसन ली?

“किसी से नहीं, मैडम, ये सादा पर्चे हैं, सवालों के लडक़ियों से भरवाने हैं। जैसे उनकी उम्र,माता पिता क्या करते हैं, गांव, क्या पढती हैं?

“आपसे मतलब! हमारी लडक़ियां क्या पढ रहा है? फिर आना। भागो भागो।”

तब तक लडक़ियां जो पढ तो कतई नहीं रही थीं। कमरों से बाहर निकल आईं। मैं ने उन्हें ध्यान से देखा, छोटी - छोटी लडक़ियां जंगली मैना सीमानो यहां आकर वह स्वच्छन्दता भूल गई हों,जबरन एक उदासीनता तह जमा कर चेहरे पर पोते हुए थीं पर कहीं भीतर एक मिट्ठू सा कौतुहल आंखों की कोटरों में से झांक रहा था। बडी लडक़ियां एक तटस्थता के साथ हमारे कपडों और हमारे चेहरों को आंक रही थीं। वे गलियारे के चूना उखडे ख़म्भों से सटी खडी थीं । खम्भे ही नहीं एक - दूसरे से भी सटी। लगभग एक से कटाव के अनगढ सांवले चेहरे। एकाध थोडा गोरा चेहरा, और बाल भूरे भूरे। तरह - तरह के गोदने। सभी के नाक कान छिदे हुए पर आदिवासी गहने नदारद थे। वे सभी अलग - अलग रंगों के मगर लगभग एक सी प्रिन्ट के सूती कपडे पहने थीं, उम्र के हिसाब से। बच्चियों ने फ्रॉक, लडक़ियों ने सलवार - कुर्ते। शायद खाना - फीस,किताबों के साथ कपडे भी उन्हें सरकारी अनुदान से मिलते हैं।

“ए, सुना नहीं क्या?”मैट्रन फिर गुर्राई।

“अरे! आप समझ ही नहीं रहे हो हम बस सर्वे के लिये आये हैं, भील जनजाति की लडक़ियों पर। देखो अगर तुमने मुझे अन्दर नहीं जाने दिया तो मुझे क्षेत्रीय जनजाति विभाग के दफ्तर जाकर शिकायत करनी पडेग़ी। यह सरकारी सर्वे है। मैं वहीं से पूछ कर ये पर्चे लेकर आई हूँ।”

मैट्रन पद्मा दीदी के छद्म रौब से डर गई।

तभी उन बडी लडक़ियों में से एक सीधे दालान में उतर आई, “क्या बात है बइण जी? “पास से देखकर मैं पहचान गई यह वही एथलीट लडक़ी है। लम्बा हरा कुर्ता, बेढंगी सिली, पीली हो आई सफेद सलवार पहने। अनगढ नाक में मोटी गुलाबी नग की लौंग, गहरा काला रंग, बडी आंखें मोटे होंठ जिन्हें आज आप क्यूपिड की बो की उपमा दे सकते हैं। लम्बा, दुरूस्त मांसपेशियों से कसा - कसा बदन।

“तू अन्दर जा।”

“आने दो इनको, मैं जानती हूँ इन दीदी को। “उसने मेरी तरफ उंगली कर दी।

“ठीक है, बेनुडी तेरी जिम्मेदारी। “मैट्रन पर उसके भी रौब का असर हुआ। वह चुपचाप चारपाई पर लेट कर बीडी पीने लगी।

पद्मा दीदी ने रास्ते में आदिवासी लोगों के बारे में बहुत कुछ बताया था - कि इनमें ज्यादातर लडक़ियां भील जनजाति की हैं। सही अर्थों में वन कन्याएं। सर्वे का क्वेश्चनायर भरवाते में पता चला कि कुछेक लडक़ियां जो थोडे ग़ोरे रंग की थीं, वे कंजर जनजाति की थीं, ये कंजर कन्याएं जरा फैशनेबल सी थीं। सुर्ख नेलपॉलिश लगाये, काजल लदी आंखें और उनमें एक कटाक्ष, तीखे होंठ जिनमें एक जन्मजात विलास! एक लडक़ी गाडियालोहार जनजाति की भी थी। गाडियालोहार वही लोग हैं , जिन्होंने महाराणा प्रताप का युध्द में साथ दिया था अपनी कृषिभूमि दान कर कसम खाई थी कि वे अब कभी घर बना कर नहीं रहेंगे, गाडियों में घर बनाएंगे और प्रदेशभर में घूमेंगे। भील, कंजर, गाडियालोहार कुल मिला कर दस बारह आदिवासी लडक़ियां। आधे कमरे लगभग खाली ही थे।

पद्मा दीदी को लडक़ियों ने घेर लिया था। वे स्वयं ही पूछ - पूछ कर प्रश्नावली भर रही थीं, और खरीद कर लाया केक बांट रही थीं। मैं एक बैंच पर बैठ कर यहां - वहां ताक रही थी। इस छात्रावास के कमरे क्या थे, दडबे ही थे। न जाने कब से पुताई नहीं हुई थी। मैं ने बैंच पर बैठे - बैठे कमरों में झांका, कमोबेश हर कमरे का एक ही सा परिदृश्य - अलमारियां नदारद, बस कुछ ताखें थीं जिनपर आदिवासी लडक़ियों ने अपने पीतल - कांसे के बर्तन जमा रखे थे। या कंघा और शीशा। कमरे के बीच में चारपाई की मूंज की रस्सी बंधी थी जिस पर कपडे, स्क़ूल की यूनिफॉर्म बेतरतीबी से टंगे थे। टेबल नहीं थी, डेस्क थीं उन पर किताबें थीं। प्रकाश के लिये मकडी क़े जालों से ढका धूमिल बल्ब, कांच की खिडक़ी बन्द थी उस पर मोटा काला कागज चिपका था। कैसे पढती होंगी इतनी कम रोशनी में?

जिन लडक़ियों ने क्वैश्चनायर भर दिया था वे कुतुहलवश मेरे पास भी आ गईं। उनमें वह एथलीट भी थी।

“आप मीरा गर्ल्स कॉलेज के हो न!”

“हां।”

“आप को बास्केटबॉल खेलते देखा था।”

“मैं ने भी तुम्हें देखा है। यहीं रेजिडेन्सी में पढती हो?

“हां!

“भर दिया पर्चा?

“हां, पर मां सोच्या मेरा मतलब कि मैं ने समझा पर्चे में पूछेंगे कि हम यहां कैसे रहते हैं। क्या खाते हैं। हमें मिलने वाली छातरवत्ती( छात्रवृत्ति) का क्या होता है। पण उसमें तो कुछ होर है। रीति - रिवाज”वे लडक़ियां आपस में आधी हिन्दी आधी बागडी( राजस्थान के बागड क्षेत्र डूंगरपुर की भाषा) से मिलती - जुलती आदिवासी भाषा में बात कर रही थी।

“हां, वो दीदी ये ही विषय पढती है। तुम भी तो पढते होगे न सामाजिक ज्ञान में।”

“पेले भी कितने संस्था वाले आये ये मेट्रन और वो इंचार्ज उन्हें झूठ - झूठ बता के भगा देते हैं।”

“तुम्हारा नाम क्या है?”

“बेनु

“बेनु , कुछ समस्या है क्या।”

“समस्या! शश् मेट्रान आ री है आप पढाई की बात करो।”

“किस कक्षा में पढती हो?

पद्मा दीदी का काम पूरा हो चुका था, छोटी लडक़ियों को उन्होंने टॉफियां पकडाईं और हम वापस आ गये। लेकिन बेनु के साथ सिलसिला बना रहा तब तक कि जब तकवह अचानक गायब नहीं हो गई। एक दिन अचानक अखबार की सुर्खियों में आकर उसने मुझे चौंका दिया। बाद तक मेरी मित्र मुझसे पूछती रही थीं - यह वही लडक़ी है ना जो तुझसे मिलने आती थी हॉस्टल! ' बेनु ! बनमाला!

हां हम मिलते थे, खेल के मैदानों में। कैण्टीन में। पेडों भरे रास्तों में। कई बार वह पैसे मांगने मेरे पास आई थी, मेरे हॉस्टल।

“मनु दीदी, कल खेलने नहीं आये।”

“नहीं बेनु, मेरा जूलॉजी प्रेक्टीकल था।”

“मैं स्टेट लेवल पर सलेक्ट हो गई।”

“वाह!

“जयपुर जायेंगे।”

“कब?

“अगले मीणे, अक्टोम्बर में। पर वो कमीनी मैट्रन लिखत परमिसन नहीं दे रही। इंचार्ज भी भग गया है।”

“क्यों?

“कहती है कुत्ती कि माता - पिता के दस्खत लाओ। छुट्टी मांगो तो जाने नईं देती। डूंगरपुर से भी आगे सालमगढ क़े पास हमारा गांव है। आणे - जाणे के तीन दिन। दीदी पैसे हों तो।”

“बेनु पहले के ही सौ रूपए तूने नहीं लौटाए!”

“पिछले दो महीने की छातरवत्ती इंचारज ने अटका दी है। 500 की जगह 200 देता है साईन500 पर करवाता है। या फिर के आगे नंगे हो जाओ”एक भद्दी सी गाली दी बेनु ने, और वह अपना भरा हुआ गला सहज करने लगी। वह कमबख्त रोना कहां जानती थी।

“क्या बकवास करती है बेनु!

“आपको बताया नी मैं पेले वो छोटकी चिरमी दस्स बरस की पूरी चङ्ढी लाल थी उसकी जब इंचारज के पास से आई।”

“बेनु, मुझे यह सब बताने से अच्छा है पुलिस चौकी जाकर बता। “मैं घबरा गई थी।

“हं, पूलीस? वो हमारे यहां की दोनों कंजडिनें हैं न! वो खुसी से इंचारज के साथ पुलिस चौकी क्या, बडी ज़गह भी जाती हैं।”

“मैट्रन?

“मैट्रन? उसको पैसा दे दो तो अपनी बेटी भी बेच के आ जाये।”

मेरा दिल बुरी तरह घबरा गया था, बेनु की बातों से! मैं ने उसे पैसे नहीं दिये थे। उसके बाद मैं ने उससे कतराना शुरु कर दिया था। पद्मा दीदी को यह सब बताया भी, तो उन्होंने और भी डरा दिया -

“मनस्वी तू शान्त बैठ। उससे मत मिला कर। वो बेनु कम नहीं है। उसके कोच के साथ मैं ने उसे घूमते देखा है। और वह कोई बच्ची नहीं है। उसकी शादी भी हो गई है। पर सब छोड - छाड क़र पढने आ गई है

“तो क्या गलत किया दीदी?”

“बस कह दिया न तू मत मिला कर उससे। अपने पैसे वापस ले लेना।”

“पर दीदी, छोटी आदिवासी लडक़ियां? आप तो इन पर रिसर्च कर रही हो

“ऐसी बातें छिपती हैं क्या? एक दिन खुलेंगी। फिर हम क्या कर सकते हैं? हम यहां पढने आये हैं। इससे सालों पहले से आदिवासी छात्रावास यहां है। यह सब तो”उन्होंने मुझे समझा कर भगा दिया था। बेनु मुझसे फिर नहीं मिली। शायद वह अपनी स्टेट लेवल पर होने वाले टूर्नामेन्ट की तैयारियों में व्यस्त थी।

आदिवासी कन्या छात्रावास की ऐसी बातें मैं ने कई बार बेनु के मुंह से सुनीं थीं इन सब बातों के बाद मैं ने उससे मिलना तो बन्द कर दिया था, लेकिन बहुत विचलित रही मैं। भीरू थी मैं?नहीं, उम्र की विवशता थी, मैं खुद बी एस सी ही तो कर रही थी। किस से जाकर क्या कहती?कौन सुनता तब मेरी? बेनु की ही किसी ने नहीं सुनी तब अब बात अलग है

इस कहानी के जन्म के दौरान मैं ने फिर सपना देखा -

मैं बेखबर अपने मनपसन्द कोने में बैठ कर अगले दिन होने वाली कैमिस्ट्री के पेपर की तैयारी कर रही हूँ, सर्दियों के दिन थे सुबह की मीठी धूप अचानक कडवी हो गई है। आदिवासी छात्रावास में शोर गूंजा। चीख - चिल्लाहटें, छोटी लडक़ियों का रोना दस पन्द्रह मिनट में पुलिस आ गई है। मुझे छत पर से कुछ नहीं दिखा, मैं कुछ समझ नहीं सकी पर उन छोटी लडकियों की घुटती हुई चीख इतनी दिल दहला देने वाली थी कि मैं घबरा कर नीचे आई हूँ। कमरे में जाकर मैं कपडे बदल कर आदिवासी छात्रावास दौड ज़ाती अगर पद्मा दीदी ने वहीं हाथ पकड क़र घसीट कर मुझे अपने कमरे में बन्द न कर लिया होता।

“बेवकूफ है क्या?

“हुआ क्या है?

“सुनेगी? सुनना चाहती है न? सुन और फिर जा आदिवासी हॉस्टल में दो लडक़ियों ने आत्महत्या की है। “वे डांट रही थीं।

“मैं कुछ समझ ही नहीं पाई।

“अब मैं ने तुझे देखा ना, बेनु के आस पास तो मुझे तेरे पेरेन्ट्स को फोन करना पडेग़ा कि आपकी बेटी किसी बडी मुसीबत में पडने वाली है। अभी तू चुपचाप यहां से जाकर अपनी कजिन सुनयना के पास मेडिकल हॉस्टल चली जा, वहीं पढ क़र एग्जाम देना।”

नींद फिर आई नहीं मैं कैसे सोती! सपना था? पूरी रात उन्हीं रास्तों में भटकी हूँ। उदयपुर का रेजिड़ेन्सी इलाका जहां की शै, हर दरख्त, हर बेल - बूटा, टूटी दीवारें, कच्चे - पक्के रास्ते बहुत जाने पहचाने थे। उन लोगों के बीच पहुंच गई हूँ जिनके साथ वह अहम् वक्त सात साल का गुजरा था, शुरु का चहकते - महकते। बीच का डरते - सहमते। बाद का एक ऊब और तटस्थता के साथ।

पर यह बात तो सच थी, फाइनल इयर में मेरे ऑर्गेनिक कैमेस्ट्री के पेपर के दिन कुछ तो हुआ था। पर क्या? एक ऑटो वाले का मर्डर! हमारे ही कैम्पस में! मेरा आर्गेनिक कैमेस्ट्री का पेपर बिगड ग़या था। गनीमत थी कि वह आखिरी था। उसके बाद लम्बा गैप फिर प्रेक्टीकल एग्ज़ाम्स थे। पर जब पेपर देकर आई तो पूरा हॉस्टल न्यूजपेपर्स की टेबल पर जमा था। सब सकते में थे। क्या यह कैम्पस अब सुरक्षित रह गया था, गर्ल्स हॉस्टल्स के लिये? बी एस सी के बाद भी यहीं से एम एस सी करना विवशता थी और मैं ने की उसी डर और अविश्वास के साथ।

आज जिस तटस्थता से कह रही हूँ , इस तटस्थता की अवस्था तक पहुंचना क्या आसान था?इन्सोम्निया टर्म तब मैं जानती नहीं थी, न ही तब यह टर्म महिलाओं में आम थी आज की तरह। तब नींद न आने, डरने की बात पर लडक़ियों को उनके माता - पिता मनोचिकित्सक के पास नहीं ले जाया करते थे। लेकिन मुझ पर इससे भी कुछ गंभीर गुजरा था जिसके निशान अब तक अंतस पर गहरें हैं। शायद यही वजह है कि - वह रैजिड़ेन्सी कैम्पस हू - ब - हू यूं मेरे सपनों में आ गया, इतने सालों बाद!

मैं उस बेनु से नहीं मिली फिर पता नहीं वह कहां चली गई? बहुत दिनों बाद जिससे मिली तो वह बेनु थोडे ही ना थी वह तो बनमाला थी।

लेकिन कल रात अचानक वही बेनु सपने में आकर उस कैन्टीन की बैंच पर बैठ कर मुझसे क्या कह रही थी? ठीक से याद नहीं आ रहा था कोई कडी टूट कर हाथों से छूट - छूट जा रही थी। इन्होंने मुझे अचानक जो जगा दिया था “अरे! मनु तुम कैसी आवाजें निकाल रही हो?”और वह कडी वहीं टूट गई मैं किस हॉस्टल की टूटी दीवार की बात कह रही थी?

ओह! याद आ गया

सपने में - वही कैन्टीन, टीन की छत वाला सामने घास का मैदान, बगल में एक गङ्ढा जिसके आस - पास गुलाबी एन्टीगोनम के फूल खिले थे। मैं और बेनु लकडी क़ी संकरी बैंच पर बैठे हैं खुले आसमान के नीचे। सर के ऊपर एक बादल का टुकडा तैर रहा था। मैं उसी युनिफॉर्म मेंगुलाबी सफेद नहीं सफेद स्कर्ट था, हाथ में बास्केटबॉल थी। उसने क्या पहना था? दिखा नहीं चेहरा भी स्प्ष्ट नहीं। गोदना याद हैतोता - मैना वाला हाथ की संवलाई त्वचा पर नीला गाढा गोदना।

मैं ने उससे चीख कर पूछा था- “कहां जा कर मर गई थी कम्बख्त, कितनी चिन्ता हुई तेरी! जयपुर से कब लौटी?

फूट - फूट कर रो दी हूँ मैं पूछते - पूछते।

“कहां? कहां गई जैपुर? जाने नईं दिया न कुत्ते इंचारज ने।”

“कोच सर ने कहा भी उससे कि वो सिकायत करेंगे इंचारज की जनजाती बिभाग में, बडे साब से एक प्रतिभासाली भील छात्रा को तुम खुद ही आगे नहीं आणे देते।”

“कोच सर ने एप्लीकेसन लिखवाई, मैं ने सब कुछ लिख दिया था उसमें। छोटी लडक़ियों के साथ छेडख़ानी, पुलिस चौकी वालों का कंजरियों के कमरे में आना मैट्रन भी कुत्ती कंजर जाती की थी न। भीलनियों की जात भले ही छोटी हो, आन बडी होती है, इज्जत भी।”

“वो अपलीकेसण मेरे कन्ने थी। पेटी-बकस में। मैट्रन ने पीछे से निकाल ली, ताला तोड क़े पेटी का। उसी दिन कोच सर और मैं जाते जनजाती के दफ्तरक्योंकि मेरा जैपुर जाना बहुत जरूरी था। स्टेट के बाद, नेसनल फिर इन्टरनेसनल कोच सर कहते हैं कि तू बहुत ऊपर जाएगी बेनु।”

“कहां जा सकी। आते ही इंचारज और मैट्रन ने खूब मारा हाथ छुडा के रात के अंधेरे में भागी थी मैं वो हॉस्टल के पीछे की टूटी दीवार से कूद के शहर के उस तरफ माथे पे चोट लगीलहू ही लहू पर पकड लियाउस हडक्ये कुत्ते ने, दोनों ने मिल कर गला टीप दिया। फिर रस्सी लटका दी गले में

“कौन? मुन्नी? उसे क्या हुआ? न मुझे नहीं पता। वो तो घर गई हुई थी। ना! ना! वो मेरे साथ नहीं थी। उसे भी मार डाला क्या ?”वह चीख रही है मुझे झिंझोडते हुए।

मैं फिर उठ बैठी हूँ पसीने में तर - ब - तर। कौन मुन्नी? कौन बेनु? यह कैसा सपना था?

“क्या हुआ मनु?”इन्होंने मुझे झिंझोड क़र पूछा।

“मैं पसीने - पसीने बुत बने, रजाई उघाडे बैठी कांप रही थी। 

“वो हॉस्टल की टूटी दीवार।”

“मनु! सपना देखा?

“हां शायद पर ऐसा लगा सच ही था।”

“डर गई हो सो जाओ। “वे करवट बदल कर सो गये।

मैं नींद में अपना आप टटोल रही हूँ। अजीब सी नींद में स्वयं से पूछ रही हूँ - कौन थी यह बेनु? कहीं बनमाला तो नहीं? अरे! अभी पिछले महीने मेरे जन्मदिन पर तो फोन आया था उसका।

यह कहानी तो उसकी ही कहानी है, उसके सिर का वह निशान और उसका इतिहास उसीने तो बताया था। पर उसने तो कभी आत्महत्या नहीं की। वह अखबार की सुर्खियों में जरूर आई थी। लेकिन इस तरह - पहली भील आदिवासी लडक़ी आर पी एस बनी। मैं ने उसे बधाई दी थी,पता ढूंढ कर तब से वह मुझसे फोन पर सम्पर्क रखती आई है। दो बार वह घर भी आई है। उसने कोच से विवाह कर लिया था, जयपुर जाकर। उसी ने, उसके कोच देवराजसिंह मीणा ने उसे आगे पढाया और इस गरिमामय पडाव तक उसे ले आया।

मेरे हाथ - पैर बरफ हो रहे हैं। कुछ समझ नहीं आ रहा है। यह सब क्या है? मेरी समाचार वाली कहानी बनमाला से क्यों जा जुडी है? वह तो जिन्दा है। अपने उसी जांबाज व्यक्तित्व के साथ। एक पुलिस अधिकारी के जिम्मेदार पद पर बैठ न जाने ऐसे कितने साधुओं, नारीनिकेतनों,छात्रावासों के गंदले गुदडों के बखिया उधेडें हैं और वहां के निकृष्ट कर्मचारियों को पिस्सू सा निकाल फेंका है।

पूरे सप्ताह कहानी लिखने के दौरान मुझे न जाने क्या - क्या याद आता रहा है, और मैं अपनी मूल कहानी से भटक कर - उदयपुर, रेजिड़ेन्सी के उस विस्मृत इलाके में घूमती रही हूँ। कुछ सच, कुछ स्वप्न मुझे नहीं पता यह कहानी स्वयं अपने आपको और मुझे कहां ले आयी है? पर गनीमत है, पूरी तो हुई , अब कहीं जाकर मेरा मन संभला है। बस पेन और डायरी को रख दिया है, भीतरअलमारी में  ! अब एक - दो महीने कोई कहानी नहीं लिखूंगी। उफ! कम से कम किसी अखबार की छपी दारुण खबर को प्लॉट बना कर तो कभी नहीं, ये खबरें जब आपके अतीत से कहीं छूकर गुजरती हैं तो अवचेतन पर जाकर, नानाप्रकार की रासायनिक क्रियाओं से गुजर कर,सपनों के धरातल पर प्रेसीपिटेट(अवक्षेपित) होती हैं।