सपने में धूमिल से मुलाकात / तुषार कान्त उपाध्याय

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दुनिया बदल जाएगी! बदलते पारिवारिक मूल्यों, राजनितिक संक्रमण के दौर से गुजरती व्यवस्था, सोने के दरवाजों में तब्दील होते न्याय के घर, पेशेगत समझौते का पर्याय बनता प्रजतन्त्र का चौथा स्तम्भ को देखकर कुछ ऐसा ही लगता था बीस साल पहले। लगता है जैसे अभी कल ही की तो बात है। क्या बदला? शायद बहुत कुछ। पर क्रमिक विकास की गति ने उतनी तीव्रता से झकझोरा नहीं। अपना बच्चा कब बड़ा हो गया, पता चलता है क्या कभी। जब तक बाहर आया कोई इसका एहसा न करा दे।

परिस्थियाँ और चुनौतियाँ कमोबेस वैसे ही मुंह बाये खड़ी हैं। पता चला?-मोहल्ले की किसी भी घर में कभी भी साधिकार प्रवेश कर जाने वाले हम शायद शादी-व्याह या किसी दुःख संताप में ही मिल पाते हैं अपने पड़ोसियों से। । हर घर एक द्वीप कैसे बन गया और घर के भीतर सभी कमरे अपने-अपने दायरे में कैसे सिमट गए. इन प्रवृतियों पर लगाम लगेगी या ये और भी उत्श्रृंखल हो जाएंगी ...

और सूचना क्रांति, जीवन में संचार तकनीक की बढ़ती अनिवार्यता, सोशल मीडिया के उभार ने दाल में तड़के का काम किया है। हम एक ही घर में और कभी-कभी तो एक ही बिस्तर पर दो अलग-अलग नक्षत्रों के यात्रा कर रहे होते हैं। मोबाइल और कम्प्पूटर की दुनिया में गोता लगाते।

सपनों के अनंत आकास और उन्हें पाने के लिए किसी भी समझौते को पार कर जाने की मानसिकता, एकनिष्ठ व्यक्तिवाद की ओऱ चहलकदमी करती दिखती है। खुली अर्थव्यवथा और बाजारवाद अपनी शायद जीवन को और भी एकाकी कर दे। बाज़ारों और दुकानों की जगह मालों ने ले ली और अब। । सबकुछ आपके घर पर। ।शब्जी से लेकर जूतों तक, कंप्यूटर से लेकर गाड़ियों तक। लुभवाने प्रचार इन 'ऑनलाइन शॉप्स' की व्यक्ति के अहम् को तुष्ट कर रहे हैं। इनकी बढ़ती भूमिका मिलने जुलने के ये थोड़े से अवसर भी छिनने लगी हैं।

सोशल मीडिया ने जहाँ लोगों को नजदीक पहुँचाया, बिछड़ो को मिलाया वही बगल वाला बिछड़ गया। सौहार्द्र से ज़्यादा विद्वेष फ़ैलाने का माध्यम बनने लगा है। अगले बीस सालो में इस मीडिया से मोह भंग की स्थि खड़ी हो जाये और सामाजिक मेलजोल के अन्य अवसरों की शिद्दत से ज़रूरत महसूस हो। सोशल मीडिया से बाहर असली वाले दोस्तों और रिस्तेदारो की फिर उनका खोया हुआ मान वापस मिलने की प्रक्रिया शुरू हो। हमारी संवेदनाये बने लगें इस भ्रम की बानी दुनिया'वर्चुअल वर्ल्ड'।

सोचते सोचते मेरी आँख लग जाती है। ये स्वप्न है या भ्रम। धूमिल खड़े हो पूछते हैं-"मैंने भी कुछ ऐसा सोचा था। क्या बदला। ।तुम भी वही दूर रहे हो। सत्ता एक परिवार की गुलामी से निकल कई सामंतो के परिवार में बाँट गयी। जनता को क्या मिले।"

सुनो—
बीस साल बाद
मेरे चेहरे में वे आँखें लौट आयी हैं
जिनसे मैंने पहली बार जंगल देखा है:
हरे रंग का एक ठोस सैलाब जिसमें सभी पेड़ डूब गए हैं।
और जहाँ हर चेतावनी
ख़तरे को टालने के बाद
एक हरी आँख बन कर रह गयी है।

राजनीति ने सारे आदर्शों के चोले उतार कर 'परिवारिक नवसामंतवाद' के जिस निर्मम और धोखेबाज प्रक्रिया की नींव जमाई है उसके पुष्पित-पल्लवित होने का काम बीस आने वाले सालों के गर्भ में छिपा है। समाजवादी और समानता की बात करने वाले संविधान से उपजे सत्ता तंत्र में असमानता की नए अध्याय जुड़ जाये। बीस साल बाद के काल खंड में खड़ा मई देख पा रहा हूँ, जातिगत विद्वेष अपने चरम की तरफ बढ़ते हुए। जातियाँ नृशंश और निरंकुश सत्ता को जन्म दे रहीं है। जातीय बहुलता ने तमाम तर्क और विवेक पर मिटटी दाल दी है।

बीस साल बाद
मैं अपने-आप से एक सवाल करता हूँ
जानवर बनने के लिए कितने सब्र की ज़रूरत होती है?
और बिना किसी उत्तर के चुपचाप
आगे बढ़ जाता हूँ
क्योंकि आजकल मौसम का मिज़ाज यूँ है
कि खून में उड़ने वाली पंक्तियों का पीछा करना
लगभग बेमानी है।

कभी आज़ादी का अलख जगाने वाले, सभी विषंगतियो से टकराने वाली पत्रकारिता अब पूरी तरह खेमो में बंट गयी। प्रजतन्त्र का यह चौथा स्तम्भ अपनी गरिमा की चमक खो चूका है और हीरे-पन्नो की चमक से जगमगा रहा है।

दोपहर हो चुकी है
हर तरफ़ ताले लटक रहे हैं
दीवारों से चिपके गोली के छर्रों
और सड़कों पर बिखरे जूतों की भाषा में
एक दुर्घटना लिखी गई है
हवा से फड़फड़ाते हिन्दुस्तान के नक़्शे पर
गाय ने गोबर कर दिया है।
मगर यह वक़्त घबराये हुए लोगों की शर्म
आँकने का नहीं
और न यह पूछने का–
कि संत और सिपाही में
देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य कौन है!
आह! वापस लौटकर
छूटे हुए जूतों में पैर डालने का वक़्त यह नहीं है
बीस साल बाद और इस शरीर में
सुनसान गलियों से चोरों की तरह गुज़रते हुए
अपने-आप से सवाल करता हूँ–
क्या आज़ादी सिर्फ़ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई खास मतलब होता है?
और बिना किसी उत्तर के आगे बढ़ जाता हूँ
चुपचाप।

और ये सब संवार कर कालातिरेक करता हुआ साहित्य 'किंडल और कंप्यूटर' पर अपने नए अस्तित्व की पहचान के लिये उदास हो रहा है। अब सर्जन किसी खास विचारधारा या जातीय राजनीत उन्माद का वाहक मात्र बन कर रह गया है।

अचानक मेरी नींद टूट जाती है। । शरीर पसीने में डूबा हुआ और लगता आत्मा ने वापस भोर की कल्पना ही छोड़ दीए हो।