सपनों के अंत के समारोह का इनकार / राकेश बिहारी

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(संदर्भ : ज्ञानरंजन की कहानियाँ)

बात समकालीन राजनीति की दो घटनाओं से शुरू करना चाहता हूँ - पहली घटना है अन्ना का 'भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन' - जो निजी जिंदगी में अपने पेशेवर फीस का अधिकांश 'नकद' में लेने वाले 'विश्वास-कुमारों' के बड़बोले कंधे के सहारे कुछ कदम चल कर न सिर्फ अब लड़खड़ाने लगा है बल्कि जिसके बहाने सुविधाभोगी मध्यवर्गीय क्रांतिकारिता की पोल भी खुल गई है। दूसरी घटना है - राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के बाद भव्य राज्य-प्रासाद में जाने के पहले संसद के केंद्रीय कक्ष में महामहिम प्रणव मुखर्जी का भाषण - जिसमें उन्हें बंगाल के भीषण अकाल की याद आती है। समकालीन राजनीति की इस अभिसंधि पर खड़े हो कर अपने अग्रज कथाकार ज्ञानरंजन की कहानियों से गुजरते हुए मेरे दिमाग में उनकी दो कहानियाँ - 'घंटा' और बहिर्गमन ठहर-सी जाती हैं। उन कहानियों के पात्र यथा - कुंदन सरकार, 'घंटा' कहानी का सूत्रधार -'मैं', मनोहर, सोमदत्त आदि के चेहरे जैसे अपने आस-पास ही चलते-डोलते दिखने लगते हैं और इन सबके बीच 'घंटा' कहानी की कुछ शुरुआती पंक्तिया मेरी उँगली पकड़कर मेरे साथ चलने लगती हैं - "हमारी नागरिकता एक दुबले हाड़ की तरह किसी तरह बची हुई है। उखड़े होने के कारण लग सकता था, समय के साथ सबसे अधिक हम हैं लेकिन हकीकत यह है कि बैठे-बैठे हम आपस में ही फुफकार लेते हैं, हिलते नहीं हैं। हमारे शरीर में लोथड़ों जैसी शांति भर गई है। नशे की वजह कभी-कभार थोड़ा-बहुत गुस्सा बन जाता है और आपसी चिल्लपों के बाद ऊपर आसमान में गुम हो जाता है। इस नशे की स्थिति में कभी ऐसा भी लगता है, हम सजग हो गए हैं। उद्धार का समय आ गया है और भेड़िया-धसान पूरी तरह पहचान लिया गया है। लेकिन हमलोगों के शरीर में मलूकदास इस कदर गहरा आसन मारकर जमे हुए थे कि भेड़िया-धसान हमेशा चालू रहा।"

ज्ञानरंजन ने उक्त कहानी में वर्षों पूर्व जिस सामाजिक-राजनैतिक संकट की शिनाख्त की थी उसे आज और गहराते देख उपर्युक्त उद्धरण की आखिरी पंक्तियों को भी वर्तमान काल में ही लिखने का मन होता है। मध्यवर्गीय लेखकों-बुद्धिजीवियों की नपुंसक क्रांतिधर्मिता और रोज-ब-रोज बढ़ती उनकी लोलुपता के बीच सामाजिक यथार्थों के कसैलेपन से दो-चार होती ये कहानियाँ अपने पूरे विन्यास में संपूर्ण व्यवस्था पर एक गहरा-तीखा तंज हैं - तिलमिला देने की हद तक कचोटता हुआ।

घंटा कहानी अपने दो प्रमुख पात्रों - कुंदन सरकार और सूत्रधार 'मैं' की दोस्ती और उसके पीछे के ढोंग के बहाने न सिर्फ भारतीय समाज की राजनैतिक-सामाजिक व्यवथा का असली चेहरा दिखाती है बल्कि 'इंटेलेक्चुअल ब्यूरोक्रैट' और छद्मचिंताधारी लेखकों के घृणित गठजोड़ को भी हमारे सामने बेनकाब कर जाती है। मिथ्या आदर्श और अकर्मण्यता के रसायन से तैयार एक मौकापरस्त लेखक जहाँ देशी-विदेशी दारू के लोभ में किसी तथाकथित बुद्धिजीवी अधिकारी का 'घंटा' बना फिरता है वहीं अपनी पोजीशन को लात मार कर हौली जाने को भी हमेशा तैयार रहने वाला कोई उच्च अधिकारी लेखकों-बुद्धिजीवियों की लोलुपता को तृप्त कर अपनी कुंठाओं और बौद्धिक विलास की भूख को सहलाता रहता है। किसी 'शरीफ' किस्म के रेस्तराँ में चखने का चबेना चबाते और कैबरे देखते हुए बौद्धिक जुगाली करने वाली व्यवस्था-पोषकों और क्रांतिधर्मियों की ऐसी युगल-जोड़ियाँ हम अपने आस-पास आसानी से देख सकते हैं। खाए-पीए-अघाए ऐसे लोग जिनकी जिंदगी में दुख और चिंता जैसी कोई चीज शामिल नहीं इस सभ्य समाज के 'शरीफ' रेस्तराँ के स्थायी सदस्य होते हैं। उनके भीतर कोई विचलन या असंतोष जैसी चीज भी नहीं होती लेकिन सारी दिक्कतें तब शुरू होती हैं जब किसी वंचित वर्ग का व्यक्ति अपनी लोलुपता के आगे बेबस होकर किसी ढोंग की तरह किसी का 'घंटा' बनकर वहाँ प्रवेश करता है, उसकी असलियत भीतर ही हीतर उसका मुँह चिढ़ाती है और नशे की हालत में उसका सच उसके ढोंग पर हावी हो उसे अराजक बना देता है। अपनी और व्यवस्था की हकीकतों के भँवर में फँसा वह बेचारा आदमी तब उन तथाकथित सभ्य लोगों की नजरों में लोफर करार दिया जाता है और गुंडा किस्म का कोई सुरक्षा कर्मचारी उसे पीट कर बाहर धकेल देता है। रेखांकित किया जाना चाहिए कि तब ऐसे 'घंटाओं' को कोई 'कुंदन सरकार' बचाने नहीं आता और कुछ देर के व्यवधान के बाद 'शरीफ' रेस्तराँ का खेल वैसे ही चालू हो जाता है जैसे क्षण भर पहले वहाँ कुछ हुआ ही न हो। विडंबना यह कि रेस्तराँ के बाहरी दरवाजे पर खड़ा गेटमैन उसे सलाम मारता है, इस बात से बिल्कुल बेखबर कि वह कौन है। दरवाजे के भीतर के सच से बेखबर दरबान तक आते-आते जैसे कहानी व्यवस्था के पुर्जे-पुर्जे का चीथड़ा उड़ाती हुई, पूरी परिस्थिति पर अट्टहास करने लगती है... अपनी ढोंग के छिलने से उत्पन्न जख्म को सहलाता हुआ 'मैं' अपने उन्हीं पुराने साथियों तक फिर जा पहुँचता है जिन्हें बिना बताए वह कुंदन सरकार के आगे-पीछे घूम रहा था। सवाल है कि 'घंटा' की अपने साथियों के बीच पुनर्वापसी उसका घर लौटना है या फिर एक तात्कालिक मजबूरी? उसकी आँखों मे तैरती क्रांति की द्युति बेनूर हो उसके आगे सनाट्टा बन कर गूँज रही है या फिर मन ही मन उसने एक और झूठ की तैयारी शुरू कर ली है?

ज्ञानरंजन का व्यंग्यबोध इस कहानी में अपने चरम पर है, एक नमूना देखिए - "मेरे देखते ही देखते डायस पर एक अजीब बात हुई। उस लड़की के साथ जो गा रही थी उसकी सलवार का नाड़ा, लगातार हिप्स चलाने या पहनने की जल्दबाजी के कारण सुनहले वस्त्र के नीचे लटक आया। उसकी नीचे और ऊपर की पोशाक की तुलना में वह मैला-कुचैला लग रहा था। संगीत के साथ अब यह नाड़ा भी हिल रहा था। मैं मनमना कर हँस पड़ा। यह हृदय प्रदेश से निकली हँसी थी - बिल्कुल बेकाबू।" सुनहले पोशाक के बीच संगीत के साथ हिलते मैले-कुचैले नाड़े का यह प्रतीक कभी हड़बड़ी में 'वीवीआईपीज' के आगमन के पूर्व चमकाए गए सड़कों की तो तो कभी बरसात के मौसम में बहते पुलों-तटबंधों के 'विकास-प्रतीकों' की याद दिला जाता है। आजादी के पैंसठ वर्षों बाद भी हमारा आधा-अघूरा विकास क्या उसी मैले-कुचैले नाड़े की तरह नहीं हिल रहा है जिसे अक्सर हम मखमल के नीचे टाट की तरह छुपाए फिरते हैं लेकिन वक्त-बेवक्त वह टाट मखमली पैबंद से सिर निकाल कर अपनी असलियत बयान करता रहता है...?

ज्ञानरंजन का कटाक्ष समदर्शी है - क्या लेखक, क्या बुद्धिजीवी, क्या प्रशासक, क्या महंत, क्या राजा, क्या मंत्री, क्या हँसी, क्या रुलाई, क्या पुरुष क्या, स्त्री सब पर समान रूप से आघात करता है, लेकिन यहाँ मेरे मन में एक आशंका है कि क्या इस क्रम में स्त्रियों के मामले में किया उनका गया व्यंग्य, व्यवस्था का समूचा चेहरा हमारे सामने रख पाता है? - "दमदार मुस्कुराहट तो राजा की होती है, महंत की होती है, औरत की होती है और खतरों से मुक्त जिनका चमन है उनकी होती है?" क्या राजा, महंत और स्त्रियों की मुस्कुराहट को एक ही तुला में तौला जा सकता है? राजा और महंत जिस तबके से आते हैं क्या स्त्रियाँ उसी तबके का शिकार नहीं? हो सकता है ऐसा कहते हुए ज्ञानरंजन की निगाह में वैसी औरतें रही हों जिन्होंने इंदिरा से ले कर मायावती तक की परंपरा का निर्माण किया है। लेकिन ऐसा सोचते हुए इन खास महिलाओं की जिस विशेष मुस्कुराहट की याद ताजा होती है, क्या वह सचमुच किसी औरत की मुस्कुराहट होती है, या कि उन औरतों की चमड़ियों के नीचे भी कोई राजा या महंत ही बैठा होता है? औरत एक जातिवाचक संज्ञा है और उसका प्रयोग यहाँ किन्हीं विशेष स्त्रियों के विशेष यथार्थ को प्रकट नहीं करता। इतना ही नहीं 'शरीफ' किस्म की रेस्तराँ में दुबली और पतली महिलाओं का जिक्र करते हुए जो पंक्ति आती है वे हैं - "हॉल में दो तरह की महिलाएँ थी। कुछ बिल्कुल डाँगर चिरईजान और कुछ जिन्हें देखकर लगता बाल्टी भर के हगती होंगी। मोटी औरतें पुरुषों के प्रति सबसे अधिक ललकपन दिखा रही थीं। पुरुष भी पीछे नहीं थे। चीजों को चखते हुए वे दूसरों की औरतों का शील सभ्यता-पूर्वक चाट रहे थे।" सच है कि दुराचरण किसी लिंग का मोहताज नहीं होता लेकिन इस सामाजिक यथार्थ से भी तो इनकार नहीं किया जा सकता न कि 'पुरुष भी पीछे नहीं थे' और 'स्त्रियाँ भी पीछे नहीं थीं' के बीच अर्थों का एक विपरीतधर्मी अनुशासन काम करता है! ज्ञानरंजन जैसे तीक्षण व्यंग्यबोध का लेखक जिसने हिंदी कहानी की भाषा को नए सिरे से संस्कारित करने का काम किया हो, के संदर्भ में यह कहना कि उन्हें इन दोनों पदों के बीच के सामाजिक अंतर का भान नहीं रहा होगा मेरी मूर्खता ही होगी। इस क्रम में इस बात का भी जिक्र जरूरी है कि इस 'शरीफ' रेस्तराँ में जो लड़कियाँ नाच रही हैं, कहानी में उनकी आँखों और स्तनों की हरमजदगियों का भी उल्लेख है। भारतीय समाज में नाच कर अपना और अपने परिवार, जिसमें जाहिर है पुरुष भी शामिल होते हैं, का पेट भरनेवाली औरतों का जीवन क्या मजबूरियों और विवशताओं के अँधेरे में नहीं सिसकता है? काश तंज और व्यंग्य की इस प्रत्यंचा के निशाने पर उन आँखों की हरमजदगियाँ भी होती जो दारू और दौलत के नशे में ऐसे नाचों का मजा लेने पहुँचती हैं!

लेकिन हाँ, उस 'शरीफ' किस्म के रेस्तराँ में अराजक होने के पूर्व महज दो-चार पैग महँगी शराब की लालच में किसी बुद्धिजीवी अधिकारी का 'घंटा' बने 'मैं' के यह सोचने में कि - "देश के लिए मोटी पगार काटते इन तर लोगों और संगीत-नायिका बनी बैठी नखास की इस रंडी को कुछ भी परवाह क्यों हो। यह समझती है कि सारा देश जैसे नारी के एक सेंटीमीटर वाले 'अमुक' प्रदेश में ही घुसड़ जाने का इंतजार कर रहा है।", जरूर एक मारक व्यंग्य छिपा है जो ऊपर से भले नकार दिखता हो अपने भीतर लार टपकाऊ मर्दवाद का वह सनातन सच छिपाए बैठा है जो स्त्री को उस 'अमुक' प्रदेश से इतर कुछ नहीं समझता।

'बहिर्गमन' कई अर्थों में 'घंटा' का विस्तार है, न सिर्फ पात्रों का बल्कि परिस्थितियों और उसकी त्रासदी का भी। पात्रों की मनःस्थितियों तथा समय और समाज की परिस्थितिजन्य विरूपताओं की एकरूपीय समानता के कारण इन दोनों कहानियों में एक अंतःसूत्र आसानी से खोजा जा सकता है।

"घंटा' जहाँ अकर्मण्य और मौकापरस्त क्रांतिधर्मिता के मिथ्या आडंबर की कहानी है वहीं 'बहिर्गमन' ख्वाब के महत्वाकांक्षा और फिर महत्वाकांक्षा के एक अंधी दौड़ में बदल जाने की त्रासद कथा - एक ऐसी अंतहीन दौड़ जो तरक्की के नए अर्थों का अनुसंधान करते-करते प्रेम, संवेदना और रिश्तों के अर्थों को भुला देने में ही अपनी सार्थकता खोजने लगती है। 'बहिर्गमन' कहानी के दो पात्र - मनोहर और सोमदत्त सच पूछिए तो मुझे 'घंटा' के सूत्रधार - 'मैं' और कुंदन सरकार का ही विस्तार लगते हैं। 'घंटा' के 'मैं' की लिप्सा बहिर्गमन तक आते-आते एक आत्महंता महत्वाकांक्षा में तब्दील हो जाती है और वह एक दिन अपने कस्बे को राम-राम कहता हुआ शहर की ओर चला जाता है। त्रासदी यह नहीं है कि मनोहर अपने सपनों की दुनिया सिरजने के लिए शहर चल गया बल्कि त्रासदी यह है कि शहर जाते-जाते वह अपने कस्बे के प्रति नफरत से भरा है - उस कस्बे के प्रति जो निहायत ही गंदा है और जहाँ धूल उड़ाती गाड़ियों और विश्राम करते हुए लोगों का साम्राज्य फैला पड़ा है। मनोहर का यही रोष यदि उस व्यवस्था के खिलाफ होता जो ऐसे कस्बों के लिए जिम्मेदार है, तो तस्वीर दूसरी होती। लेकिन नहीं, उसके भीतर फैल रही महत्वाकांक्षा ने तो जैसे उसके विवेक को कुंद कर उसकी आँखों में तथाकथित सफलता के लिए एक अंधी दौड़ के जायज-नाजायज मंसूबे भर दिये हैं। नतीजा...? उसके सपने शहर जा कर भी पूरे नहीं होते... उसकी नई-नई समृद्धि जहाँ उसे अपने कस्बे से रोजगार तलाशने आए साथी की दयनीयता को देख उसे एक विशिष्टता बोध से भर देती है तो वहीं प्रवासी सोमदत्त की ऊँची दुनिया का तिलस्म उसे हीन भावना का शिकार बना देता है।

यह सोमदत्त और कोई नहीं 'घंटा' का कुंदन सरकार ही तो है जिसने अब और तरक्की कर ली है - नौकरशाह से प्रवासी व्यवसायी बन गया है। कुंदन सरकार के रूप में जो कभी कैबरे देख कर अपनी कुंठाएँ सहलाते हुए बुद्धि-विलास करता था अब उसकी प्रेमिकाएँ हांगकांग से लेकर लंदन तक फैली हैं। इतना ही नहीं, अब वह तब के अपने 'घंटाओं' को तरक्की के नए मंत्र भी देना जान गया है..." यह बहुत आसान है मित्र, सोमदत्त संजीदगी से बोला, 'लेकिन तुम्हें इसके लिए बहुत-सी तैयारियाँ करनी होंगी। सबसे पहले तुम्हें अपनी प्रेमिका से मुक्ति लेनी होगी। यहाँ अपनी पूँछ छोडकर तुम्हारा जाना मुनासिब नहीं है। तुम्हारे दिल को देखते हुए मुश्किल काम है, लेकिन मैं सोचता हूँ कि अगर तुम अपने माँ बाप और घर को छोड़ सकते हो तो प्रेमिका को क्यों नहीं छोड़ सकते?'" मनोहर, सोमदत्त के गुरु मंत्र को जैसे आत्मसात ही कर लेता है। आखिर करे भी क्यों नहीं, उसे शोर, गर्द, भीड़, घरेलू औरतों और शक्की मर्दों की इस दुनिया से निकल कर अपनी विकास यात्रा के लिए प्रवासी जो हो जाना है - "मनोहर जोश में बोलता रहा, मैं जानता हूँ तुम्हारे पास उत्तर नहीं है, तुम बस भाग सकती हो। स्त्री तुम मित्रता के अयोग्य हो, तुम बिल्ली और चिड़िया हो, अधिक से अधिक एक गाय हो। वह सोफे पर खड़ा हो गया, 'नीत्शे तुमने सच कहा था' । मनोहर का हाथ काफी समय तक मशाल की तरह उठा था।" लेकिन अफसोस, इस मशाल में रोशनी का उजास नहीं धुएँ का अँधेरा और धुँधलापन था। मनोहर सोमदत्त की उँगली पकड़ विदेश चला गया लेकिन इस प्रवास के पीछे जो उससे छूट गया, क्या कभी उसका भान हो पाएगा उसे? कहानी खत्म हो कर भी खत्म नहीं होती, अपने पीछे सन्नाटे और शोर की तरह भाँय-भाँय करता यह सवाल छोड़ जाती है। ज्ञानरंजन शब्द-सजग कथाकार हैं, गाँव से शहर और शहर से विदेश जाने की इस महात्वाकांक्षी दौड़ को विस्थापन नहीं कहते। विस्थापन में एक मजबूरी का भाव छिपा है, लेकिन जान-बूझ कर चले जाना, अपनी आँखों पर पट्टी बाँध कर - बहिर्गमन नहीं तो और क्या है! यहीं आकर यह कहानी जिसे मैंने पात्रों और परिस्थितियों की एकरूपता के कारण 'घंटा' का विस्तार कहा था, 'घंटा' के 'मैं' और बहिर्गमन के मनोहर की अलग-अलग नियतियों के कारण उसका प्रतिलोम भी बन जाती है।

'शरीफ' किस्म के उस रेस्तराँ में कुंदन सरकार के 'घंटा' को थोड़ी देर के लिए अपनी भारत भूमि का ध्यान आया था, आज राष्ट्रपति भवन की दहलीज पर खड़े महामहिम को बंगाल के अकाल की याद आई। घंटा का 'मैं', बहिर्गमन में मनोहर का रूप धर कर जहाज पर चढ़ गया। ऐसी ही तरक्की कुंदन सरकार की भी हुई जब 'बहिर्गमन' में वह सोमदत्त बन गया। कल को यदि ३४० कमरों वाले राष्ट्रपति भवन में जाकर महामहिम को बंगाल के उस भीषण अकाल की सुध न रहे, या फिर नौकरशाह से तथाकथित 'समाज-सुधारक सेल्समैन' बने 'केजरीवाल' जैसे लोग राजनैतिक विकल्प तलशते-तलाशते खुद उसी राजनीति का हिस्सा बन जाएँ तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। हाँ, 'घंटा' और 'बहिर्गमन' जैसी कहानियाँ तब भी हमारी आँखों में आँखें डाल कर सवाल पूछते हुए बेगुनाह सपनों के अंत का समारोह मनाने से इनकार करती रहेंगी।