सफेद हाथी की भेंट का अर्थ? / जयप्रकाश चौकसे

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सफेद हाथी की भेंट का अर्थ?
प्रकाशन तिथि : 10 नवम्बर 2014



चंद्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म "जेड प्लस' कथित तौर पर मात्र एक दृश्य के लिए सेंसर के शिकंजे में फंसी है। कथा सारांश कुछ इस तरह है कि साइकिल के पंचर सुधारने वाला गरीब आदमी अपने कष्टों के बारे में एक खत प्रधानमंत्री को लिखता है और उनके दौरे के समय प्रधानमंत्री के कथन का कुछ ऐसा परिणाम होता है कि अगले दिन उसकी सुरक्षा के लिए सशस्त्र कमांडो जाते हैं और विपदा का मारा यह गरीब आदमी जहां भी जाता है वहां सुरक्षा गार्ड उसे घेरे रहते हैं और उसकी पत्नी दु:खी है कि वे इतने गरीब है कि चौबीस घंटे तैनात सुरक्षा गार्डस को चाय तक नहीं पिला सकते। वह पंचर सुधारते हुए भी सुरक्षा गार्डस से घिरा होता है और लाख प्रयास करने के बाद भी अपनी सुरक्षा के लिए तैनात लोगों से छुटकारा नहीं पाता। पास-पड़ोस के लिए सारा प्रसंग हास्यमय है। हमारे यहां रोटी मांगने वाले को गन से लैस सुरक्षा प्रदान की गई है। इस आदमी की मुसीबतों का अंत नहीं है। सेंसर प्रधानमंत्री का दृश्य काटना चाहता है और अगर ऐसा होता है तो पूरी कथा ही नष्ट हो जाती है।

दुनिया भर के साहित्य और सिनेमा में इस तरह की लोक-कथाएं है कि राजा की मेहरबानी भी महंगी पड़ती है। एक देश में राजा एक आदमी को सफेद हाथी भेंट कर देता है जिसे खिलाते-खिलाते वह आदमी स्वयं भूखा मर रहा है। राजा की भेंट किसी और को दी नहीं जाती, बेची नहीं जा सकती क्योंकि राजा का अपमान होगा। इसी के आधार पर जानलेवा दान के लिए अंग्रेजी में फ्रेज बना व्हाइट एलिफेंट। सारी व्यवस्थाओं के ताम-झाम भी 'सफेद हाथी' है जिनका पेट भरते-भरते जनहित के काम ही नहीं हो पाते। इस ताम-झाम के कारण ही साधारण से काम भी उलझ जाते हैं। सरकारी अनिर्णय या कार्यवाही से जुड़ा उतरदायित्व नहीं लेने की प्रवृति से कितने हानि हो चुकी है, इसका आकलन पब्लिक ऑडिट वाला नहीं कर सकता। एक दौर में कृषि विभाग के ताम-झाम पर सालाना पंद्रह हजार करोड़ खर्च होते थे और देश में अनाज उपजाने वाली जमीन का प्रतिशत घटता जा रहा है। हर शहर की सीमा की जमीनों पर नई बस्तियां बस रही है, खेती की जमीन घटती जा रही है। हजारों एकड़ खेती की जमीन रसायन कारखानों के लिए आवंटित हो चुकी है। जब सौ 'स्मार्ट शहर' बस जाएंगे तब कितने ही बसे हुए पुराने शहर उजड़ जाएंगे। क्या कभी बसे शहर अब लचर या ढीले शहर हो गए हैं, या ये अब गंवार हैं?

इस प्रकरण से सआदत हसन मंटो की कहानी याद आती है जिसमें एक शहर की निर्णायक शक्तियां तवायफों को निष्कासित कर देते हैं। वे जंगल में डेरा डाल देती हैं, ग्राहक आने लगते हैं, उनकी सेवा के लिए खाने-पीने के लिए ठिए लग जाते हैं और कालांतर में वहां पेड़ काटकर बस्ती बस जाती है। विकास के बाद निर्णायक शक्तियां उभरती है और निर्णय लेती है कि तवायफों को निष्कासित कर दें। विकास चक्र ऐसे ही चलता है। अत: इस कहावत के बारे में भी गौर करना चाहिए कि क्या तवायफें घरों को उजाड़ देती है परंतु शहर बसा देती हैं। हाल ही में दिल्ली के एक दंगाग्रस्त क्षेत्र में हिजड़ों के समूह ने हुल्लड़बाजों को खदेड़ा और सड़क से टूटे कांच, जले हुए टायर इत्यादि की सफाई भी की। वीआईपी केंद्रित मीडिया सामाजिक परिवर्तन की खबरों को कब जगह देता है।

आम आदमी मांगता कुछ है और चौपट राजा देता कुछ और है। यह खेल सदियों से जारी है और चौपट राजा का नाम और शक्ल बदलती रहती है। स्मार्ट मोबाइल फोन गया, स्मार्ट शहर बसना दूर नहीं। हम इस कदर 'स्मार्ट' से प्रभावित हैं कि अब साधारण और सामान्य के लिए कोई स्थान नहीं रहेगा। बेचारे चंद्र प्रकाश द्विवेदी जिन्होंने 'पिंजर' जैसी फिल्म बनाई है को अब आशा करनी चाहिए कि सेंसर के नए अध्यक्ष जिनकी घोषणा होने वाली है से मिले। खबर है कि विवेक ओबेरॉय के पिता सुरेश ओबरॉय इस पद पर सुशोभित होने वाले हैं। पुत्र ने चुनाव प्रचार किया, पिता को भेंट मिली। इसे 'त्वरित न्याय' कहते हैं।