सब तरफ़ आग है लगी हुई / संतोष श्रीवास्तव

Gadya Kosh से
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किरन जम्मू में शरणार्थियों के कैंप में चार पाँच दिनों से है और उसकी हर सुबह जैसे मसोस कर निकली घड़ियों से शुरू होती है और हर रात चूर-चूर... यहाँ का माहौल ही ऐसा है। कश्मीरी पंडितों का कश्मीर से भागा हुआ परिवार दस बाई दस की चार दीवारी में घुटी साँसों केबल परजी रहा है। कहाँ खुली-खुली रौनक दार वादियों में रहने वाले कश्मीरी और कहाँ पत्थरों काशहर जम्मू। चिलचिलाती धूप में उनके गोरे बदन ताँबई होते जा रहे हैं। कैंप में भी कोई आराम की ज़िंदग़ी तो है नहीं। टीन की छतों वाली कोठरियाँ धूप में ख़ूब तपती हैं। गरमहवाएँ चलती हैं और साँप, बिच्छुओं का डर बना रहता है। किरन यहाँ दैनिक अख़बार की वरिष्ठ संवाददाता के रूप में अपनी टीम के साथ कव्हरेज के लिए आई है। परहाल उसका भी बेहाल है। कोठरी के पास के गटर जैसे बदबूदार नाले ने साँस लेना मुहाल कर दिया है। इन्हीं नालों से रात को पीली पड़ गई रोशनी के तिलस्मी अँधेरे में रेंग कर आए साँप कोठरियों में सोए कश्मीरियों को न जाने किस दुश्मनी से डँसते हैं। श्रीनगर से आए जोशीजी बता रहे थे कि अब तक आठ दस लोगों की मृत्यु सर्पदंश से हो चुकी है। किरन की आँखें फटी की फटी रह गई थीं... उफ, इतनीदुर्दशा? वह तो अब तक ख़ुद को सबसे अधिक दुःखी मानती आई है और अपनी इस हालत के लिए उसने विधाता को जी भर कोसा भी है कि उसे उसी की ज़िंदग़ी उजाड़नी थी? और अगर उजाड़नी थी तो बसाई क्यों? क्यों मिलवाया रंजीत से... मात्र एक छोटे से सफ़र के लिए? रंजीत और किरन ने एक दूसरे में ईश्वर को देख लिया था और चुंबक की तरह वह खिंचे चले आये थे। पास... पास... सिर्फ़ एक होने के लिए नहीं बल्कि एक होकर जीने के लिए... एक संग ज़िंदग़ी की राहों को तय करने के लिए।

"यार किरन कहाँ ऽऽऽ तुम पत्रकारिता की ओर क़दम बढ़ा रही हो? बस, इसीएक जगह हम तुम अलग-अलग हैं।"

" जैसे तुम रंजीत, मर्चेंट नेव्ही में जाने का शौक पाले हो वैसे ही मैं पत्रकारिता में... प्रेम सुधा इतनी बरसा दो...

रंजीत कितना खुश था जबउसका सिलेक्शन मर्चेंट नेव्ही में हो गया था। समुद्र की पहली यात्रा में जाने से पहले उन्होंने अँधेरी के वर्सोवा इलाके में अपना छोटा-सा आशियाना बना लिया था। तब आज की तरह महँगे नहीं थे मकान... पच्चीस तीस साल पहले अच्छा ख़ासा फ़्लैटउन्होंने सस्ते मेंख़रीदा था।

छै: महीने समुद्र में रहकर जब रंजीत लौटा था, किरन में अकेले रहने का आत्मविश्वास उसने देख लिया था। बाईस वर्षीया किरन वैसे भी आम लड़की नहीं थी। गंभीरता, हर बात को दूर तक सोचना, अच्छे बुरे की समझ किरन में फूट-फूट कर भरी थी। बी. ए. के बाद उसने पत्रकारिता में डिप्लोमा लिया और विभिन्न अख़बारों में स्वतंत्र पत्रकारिता करने लगी। वह हमेशा जोश में भरी रहती। रंजीत के साथ उसकी बातें कभी घरेलू मसलों को लेकर नहीं हुईं। हर बार सामजिक, राजनीतिक मुद्दों पर ही वे चर्चा करते। बीच में या तो रंजीत या किरन उठ कर कॉफीबना लाते। दो-ढाई घंटे की बहस के बाद किरन को सात आठ कॉफी के मग धोने पड़ते। रात के खाने के बाद दोनों वर्सोवा की सड़कों पर हाथ में हाथ डाले टहलते। कभी समुद्र की ओर निकल जाते जहाँ मछुआरों के जाल ही जाल होते। एक बार तो पूरे चाँद की रात में दोनों ने एक मछुआरे की नौका किराए पर लेकर समुद्र में जाने का दुस्साहस कर डाला था। लहरें ऊँची-ऊँची उठ रही थीं। मछुआरा कुशलता से नाव चला रहा था पर लहरों की चपेट में दोनों का संतुलन डगमगा गया था। गनीमत थी वे समुद्र में गिरे नहीं। दोनों एक दूसरे से कसकर आलिंगनबद्ध हो गए और तभी एक चंचल लहर ने उन्हें पूरा भिगो दिया। मछुआरा मस्ती में आकर गाने लगा-"ओ रे ताल मिले नदी के जल से, नदी मिले सागर से, सागर मिले कौन से जल से कोई जाने न।"

दोनों मुस्कुरा पड़े थे। चाँद लहरों की गलबहियों में था और समुद्र उफ़ान पर ...

एक सुबह अचानक किरन को एहसास हुआ कि हौले-हौले कोई तीसराउनकीज़िंदग़ी में घुसपैठ कर रहा है।

"कर रहा है नहीं, कर चुका है।" मिताली ने किरन की जाँच करने के बाद किरण और रंजीत को इस सूचना से सराबोर कर डाला। रंजीत का बस चलता तो मिताली के सामने ही किरन को बाँहों में उठा लेता पर मिताली एक तो किरन की दोस्त ऊपर से डॉक्टर। लंबी चौड़ी लिस्ट बनी... यह लाना किरन केलिए, यह खिलाना, वह नहीं, नियमित घूमना, क़सरत करना वगैरह वगैरह...

"बाप रे रंजीत, माँ बनना तो मशक्कत है यार।"

मिताली के जाते ही किरन उसकी बाँहों में थी-"और तुमने क्या समझा था मेरी बुलबुल... इंसान में से इंसान जन्म लेता है। औरत तब ब्रह्मा हो जाती है... सर्जन के सुख से भरी पूरी।"

"जल रहे हो? कि मर्द होने के कारण इस सुख से वंचित हो।"

"ऑफ़कोर्स डियर।"

रात नौ बजे तक मिताली की दी लिस्ट हाथ में पकड़ेदोनों खरीदारी करते रहे थे ... दवाईयाँ, टॉनिक, सूखे मेवे महीने भर के लिए थे। इसी शनिवार को रंजीत का जहाज़ कूच करेगा... फिर छै: महीने का बिछोह...

सभी सामान अलमारी में रखते हुए रंजीत ख़ुशी से छलका पड़ रहा था लेकिन किरन सोच में डूब गई थी। उसे अकेले ही मातृत्व की लंबी राह तय करनी है। रंजीत लौटेगा तब तक उसका शरीर बेडौल हो चुका होगा।

दूरदर्शन पर शिमला, मसूरी बर्फ से ढँका दिखा रहे थे। कल रात भारी बर्फ़बारी हुई है। सारेरास्ते ठप्प पड़ गये हैं। शीत लहर की चपेट में है दिल्ली, पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजस्थान। यहाँ मुंबई में तो ठंडपड़ती नहीं। वर्सोवा चूँकि समुद्र के किनारे है इसलिए हवाएँ ठंडी चल रही थीं। खाने के बाद दोनों बिस्तर में दुबक गये।

"कल तुम चले जाओगे रंजीत..." कहते हुए किरन रंजीत के गले लगी तो रंजीत चौंक पड़ा-"तुम्हाराशरीर थरथरा क्यों रहा है किरन? आर यू ओ. के.?"

"रंजीत, डरती हूँ, कहीं तुम्हारा प्यार न खो दूँ।"

"क्याऽऽऽ... होश में तो हो।"

"नहीं रंजीत, तुम्हारा इतने लंबे समय के लिए जाना मन में तरह-तरह के सवाल खड़े करता है। लगता है आज जी लूँ... कल हो न हो..."

और वह रंजीत का हाथ पकड़कर अपने शरीर पर फिसलाने लगी... गला...गले से होते हुए पेट तक... पेट पर देर तक...

"लौटोगे तो यह ऐसा नहीं मिलेगा।"

"जानता हूँ... यह मेरे प्यार के अंश कोपाल रहा होगा।"

"क्या तुम तब भी मुझमें आकर्षण पाओगे?"

रंजीत किरन के उहापोह को समझ उसे नन्ही बच्ची-सा सीने से लगाते हुए बोला-"अब से और ज़्यादा।"

सूने सन्नाटे में समुद्र का गर्जन खिड़कियों के पल्लों से टकरा रहा था। सामने जामुन के पेड़ पर कब से टिटहरी टिहुक्-टिहुक् सन्नाटे को टकोर रही थी।

जिस महीने रौनक का जन्म हुआ उसी महीने रंजीत मर्चेंट नेव्ही का चीफ़ ऑफ़ीसर हो गया। नौकरी में भी उसकी जिम्मेदारियाँ बढ़ गईं और घर में भी। हालाँकि घर कीजिम्मेवारियों से उसे किरन ने मुक्त ही रखा था। चूँकि वह फ्री लांसर थी इसलिए दिन का बहुत बड़ा हिस्सा उसने रौनक के लिए सुरक्षित रखा था। उस हिस्से में उसे किसी का दखल पसंद नहीं था। जैसे शिल्पकार मिट्टी के लौंदे को बड़ी तन्मयता से गढ़कर मूर्ति का आकार देता है उसी प्रकार वह रौनक की परवरिश में तन्मयता के साथ जुट गई थी।

देशएक बड़ी त्रासदी से गुज़र रहा था। सिक्ख विद्रोह पर उतर आए थे। प्रधानमंत्रीइंदिरागाँधीकी हत्या हो गई थी और कश्मीर आतंकवादियोंकी चपेट में आ चुका था। सुबह और सांध्य अखबारों में किरन की पुकार होने लगी। वह एक होनहार पत्रकार थी। और उसकी लाई हुई ख़बरें अक्षरशः सच होनी थीं। एक शब्द भी इधर का उधर नहीं। किरन ने महसूस किया इस समय अख़बार की दुनिया को उसकी ज़रुरत है। रंजीत ने भी उकसाया-"रौनक अब छै: साल का है। कुछ समय मिताली के पास गुज़ार सकता है। तुम रिपोर्टिंग करो... दुनिया की असलियत लोगों के सामने लाओ। यह तुम्हारा फ़र्ज़ है।"

"लेकिन तुम तो दो दिन बाद आबूधाबी जा रहे हो। फिर वही छै: महीनों का लंबा बिछोह।"

"अब तो आदत हो गई है न कि तुम मेरे बग़ैर और मैं तुम्हारे बग़ैर ज़िंदग़ी का पचास प्रतिशत हिस्सा अकेले जिएँ और किरन, हम तो डोलते यात्री हैं... कब सागर की तरंगे तलहटी में खदेड़ दें, नहीं कहा जा सकता। टेक इट इजी डियर... ज़िंदग़ी इसीको कहते हैं।"

किरन की आँखें डबडबा आई थीं-"फिरदुबारा ऐसी बात मुँह से मत निकालना वरना... मैं अगस्त्य मुनि बन सारा सागर पी जाऊँगी।"

सुनकर रंजीत इतने ज़ोर से हँसा था कि बालकनी की मुँडेर पर फुदकती चिड़ियाँ सहम गई थीं। वह शाम दोनों ने रौनक के साथ थियेटर में अंग्रेज़ी की कॉमेडी फ़िल्म देखकर और रेस्तरां मेंबढ़िया डिनर लेकर गुजारी। रौनक ने कहा था-"पापा...-सी में तो बहुत बड़ी-बड़ी फिश होती हैं... लाइक व्हेल, डॉल्फिन वग़ैरह... ये जहाज़ भी तो उलट सकती हैं न!"

"हाँ बेटा... ये बड़ी शक्तिशाली होती हैं।"

लेकिन किरन ऐसी मनहूस बात नहीं सुन पाई उसने रौनक को डपट दिया-"कुछ भी बकते हो... क्यों उलटेंगी जहाज? वे बड़ी डिसिप्लिंड होती हैं। कभी किसी का बेवजह नुक़सान नहीं करती।"

"तुम बहुत अंधविश्वासी हो गई हो किरन, रौनक ठीक कह रहा है शक्तिशाली मछलियाँ जहाज़ तक उलट सकती हैं।"

किरन ने ख़ुद को खँगाला तो पाया कि वह रंजीत के प्रति या उसके प्रोफेशन को लेकर कोई भी अशुभ संकेत सह नहीं पाती अत्यधिक प्रेम शंका को जन्म देता है।

किरन और रौनक रंजीत को कलकत्ते तक छोड़ने आये थे। इस बार का उनका सफ़र अरब सागर का नहीं था बल्कि बंगाल की खाड़ी से आरंभ होता था। जहाज़ तो शाम छै: बजे छूटा था पर रंजीत की ड्यूटी सुबह से शुरू हो चुकी थी। इस बीच किरन रौनक को म्यूज़ियमघुमा लाई थी। म्यूज़ियममें अंग्रेज़ों के ज़माने का भारत देख रौनक तरह-तरह के सवाल करता रहा था। अब वह कैसे रौनक को समझाए कि वह गुलाम भारत था। इसलिए उस पर जुल्म-ओ-सितम तो होने ही थे पर आज़ाद भारत तो आतंकवाद, नक्सलवाद, लिट्टे आदि अराजक विनाशकारी शक्तियों के शिकंजे में कसता जा रहा है। आदमी की जान सांसत में है। किसी भी वक़्त कुछ भी हो सकता है।

वह छै: बजे बंदरगाह पर मौजूद थी। रंजीत से मिलना तो नहीं हो पाया पर भोंपू की गूँजती आवाज़ के साथ ही वह लहरोंपरजहाज का धीरे-धीरे सरकना देखती रही। सुरमईअँधेरे में भी जहाज़ का नाम 'नित्यानंद' की तख़्ती वह साफ़ पढ़ पा रही थी। क्या रंजीत जहाज़ के डेक से उन्हें देख पा रहा था? कैसी लगन थी? कैसा मोह? लगता था जैसे दिल को चीरकर कोई लिये जा रहा है और वह बाक़ी कतरों को बटोर रही है।

मुंबईलौटने के दो दिन बाद उसे जी मिचलाने की बीमारी शुरू हो गई। मिताली ने चेकअप के बाद घोषणा की कि वह प्रेग्नेंट है।

"मिताली, मैंने तो सोचा था बस एक बार ही माँ बनूँगी। रौनक को ढंग से पाल लूँ वही काफ़ी है। रंजीत हमेशा टूर पर रहता है और मेरी पत्रकारिता... देखो, तुम्हारे पास छोड़ना पड़ रहा है न उसे? ऐसे कैसे चलेगा?"

"चलेगा नहीं... बल्कि दौड़ेगा। बस, तुम हिम्मत मत हारना किरन।" कहतीमिताली कॉफी बनाने किचन की ओर जा ही रही थी कि फ़ोन बज उठा।

"रुको, मैं देखती हूँ।"

दूसरी तरफ़ से भारी मर्दानी आवाज़ में कोई कह रहा था-

"मिसेज़ रंजीत को ख़बर कर दीजिए। मिसटर रंजीत का जहाज़ श्रीलंका के पास से लापता हो गया है।"

"क्याऽऽऽ... मिताली की चीख़ती-सी आवाज़ सुन किरन ने उसके हाथ से रिसीवर छीना-" हाँ, बताइए... कौन हैं आप? क्याहुआ रंजीत को, वह ठीक तो हैं। "

"देखिए इस वक़्त हम कुछ नहीं कह सकते। हमारी कोशिशें जारी हैं। आपकोमुनासिब बातों की ख़बर मिलती रहेगी।" और फ़ोन कट गया।

किरन कटे पेड़-सी गिर पड़ी। मिताली ने सम्हाला... रोते-रोते उसकी हिचकियाँ बँध गई थी। मिताली लगातार कहे जा रही थी-"कुछनहीं होगा रंजीत को... भरोसा रखो किरन और प्रार्थना करो... लापता होने की ही तो ख़बर है। ऐसा हो जाता है कभी-कभी।"

मिताली ने किरन को अकेला नहीं छोड़ा। वह अविवाहित थी इसलिए घर की जिम्मेवारियों से मुक्त थी। बस सुबह शाम क्लीनिक भर जाती थी। किरनया तो रेडियो या टी. वी. पर आँख गड़ाए समाचार सुनती रहती। तमाम अख़बार छान मारती पर जहाज़ के लापता होने के अतिरिक्त और कोई ख़बर सामने नहीं आती। उसकी नज़रों के सामने समुद्री तूफान में डूबता उतराता जहाज़ होता। उसे महसूस होता जैसे जहाज़ के केबिन में पानी भरता चला जा रहा है और रंजीत मदद के लिए चिल्ला रहा है। कभी देखती कि वह विशाल समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरों में फँस गया है और उसका जहाज़ गहरेअथाह जल में समाता चला जा रहा है। वह घबरा जाती, दम घुटता-सा लगता। नींद न आने की वज़ह से आँखें सूज गई थीं और उसके नीचे कालेघेरे बन गये थे। हारकर मिताली ने उसे नींद की गोली देनी शुरू कर दी।

रंजीत के मर्चेंट नेवी के जो दोस्त इस जहाज़ में नहीं थे वे किरन के पास हालचाल पूछने आते थे। बासु और म्हात्रे तो अक़्सर आ ही जाते थे। शाम को सभी बैठकर इसी विषय पर चर्चा करते।

"हम कैसे मान लें कि जहाज़ डूब गया है क्योंकि जहाज़ के रूट से हम परिचित हैं। जहाँ से वह लापता हुआ है या डूबा है जैसे कि नेवी वाले कह रहे हैं...200 मीटर पर ही तो ज़मीन है। अगर जहाज़ डूबता तो क्या वह लोग 200 मीटर तैर नहीं सकते थे। इम्पॉसिबिल..."

"तो फिर, कहाँ गया जहाज?" किरन का सवाल जहाँ का तहाँ था। बस, दो ही बातें हो सकती हैं, या तो डूब सकता है, या हाईजैक..."

"हाईजैक...ओ गॉड...फिर क्या होगा?"

"श्रीलंका में तो तमिल उग्रवादियों यानी लिट्टे का बोलबाला है। वह जहाज़ हाईजैक करके लोगों को या तो अपने दल में शामिल कर लेते हैं (या मार डालते हैं यह बात बासु किरन के सामने कह नहीं पाया पर इस बात की आशंका शत-प्रतिशत रहती है) हथियारों का गुप्त जखीरा यहाँ से वहाँ भेजने के लिए जहाज़ को मालवाही बना देते हैं।"

किरन गहरे अवसाद में डूबती चली गई। सप्ताह पर सप्ताह बीत गये... रंजीतके बिना जीवन ज़हर हो गया था पर वह इंतज़ार के सिवा कर ही क्या सकती थी। लगभग डेढ़ माह बाद यहख़बर पक्की हो गई कि जहाज़ डूबा नहीं है क्योंकि समुद्र में न तो उसके अवशेष मिलेहैंन कोई जीवित या मृतव्यक्ति...जहाज को लिट्टेदल के द्वारा अपहृत कर लिया गया है और इस आशय का टेप किरन के पास भेजा गया मर्चेंट नेवीके आलाक़मान की आवाज़ में ताकि किरन इसे अफवाह नहीं बल्कि हक़ीक़त कबूल करे। किरन चूँकि जागरूक पत्रकार थी इसलिए वह टेप लेकर दिल्ली प्रधानमंत्री राजीव गाँधी से मिलने गई। उन्हें टेप सुनाया गया और काफ़ी जद्दोजहद के बाद किरन को इतना आश्वासन मिला कि इस विषय में कार्यवाही होगी क्योंकि यह व्यक्तिगत नहीं बल्कि देश की क्षति है। उन्होंने श्रीलंका में शांतिसेना भेजने का आश्वासन भी दिया।

लेकिन किरन के हाथ क्या आया... एक तल्ख हक़ीक़त भर। वह तो यह भी नहीं जान पाई कि रंजीत जिंदाभी है या नहीं। रंजीत के लिए दिवंगत शब्द उसके शब्दकोश में नहीं था इसलिए वह हर सुबह इस आस में उठती कि आज रंजीत लौट आएगा। दिन भर की प्रतीक्षा के बाद उदास तनहा शाम उसे मायूस कर देती और रात को वह रेत के घरौंदे की तरह बिखर जाती...सुबह फिर ख़ुद को समेट कर थोप देती, घरौंदा फिर बन जाता। चूँकि प्रेम विवाह था इसलिएससुराल मायका उससे खुश नहीं था। ससुराल ने तो उसकी पीड़ा को तवज्जो नहीं दी लेकिन पापा उसकी वेदनासे बिलख उठे। दौड़े आए, साथ ले जाने की ज़िद्द की पर किरन ने इंकार कर दिया-"नहीं पापा, इस वक़्त अगर आपने सहारा दिया तो मैं और भी टूट जाऊँगी। मुझे अकेले फेस करने दीजिए।" पापा को अपनी इस बहादुर बेटी पर गर्व हो आया। इतने साल उसे अपने से दूर रखने का मलाल लिए वे लौट गये।

देखते-देखते नौ महीने गुज़र गये। किरन ने रंजीत की शक्ल की बेटी को जन्म दिया जो दीपशिखा बन कर उसके अंधकार भरे जीवन में रोशनी फैलानेको ही जैसे आई थी। मितालीकी भरपूर मदद लेकर...आर्थिक नहीं, बच्चोंकीदेखभाल की। वह दैनिक अख़बार की सह संपादक हो गई। डेस्क वर्क में उसका शुरू से मन नहीं लगता था पर मजबूरी थी। कम से कम बँधी बँधायी तनख्वाह तो हाथ आयेगी। बीच-बीच में विज्ञापन एजेंसियों के संपर्क में भी रही... जिंगललिखने, कॉपीराईटिंग वर्क के लिए। इस ऊपरी आय ने उसे काफ़ी सम्बल दिया। तीन साल के बाद मर्चेंट नेव्ही ने उसे रंजीत की जान की कीमतमात्र डेढ़ लाख रुपए दो किश्तों में अदा करने की बात लिखकर भेजी। उसमें से भी पचास हज़ार कैश मिलेंगे और एक लाख का पाँच साल का फिक्स्ड डिपॉजिट जिसेबीच में तोड़ा नहीं जा सकता। उसे इस मदद से इंकार था। एक चीफ़ ऑफ़ीसर ने समझाया-"अगर आप नहीं लेंगी तोउन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। इन रुपियों को बच्चों के लिए ले लीजिए। रंजीत का मर्चेंट नेव्ही से जुड़ा आख़िरी सूत्र है ये।"

सुनकर वह रो पड़ी थी। उसका दृढ़ होता जा रहा व्यक्तित्व इस थोड़ी-सी आँच से पिघल उठा था। उसे सम्हलने में हफ्ता भर लगा।

रंजीत का इंतज़ार फिर भी जारी था। साल दर साल निकलते चले गये। उसे लगता बस आज तो रंजीत आ ही जाएगा और वह उसके कंधे पर सिर रख गुज़र गये वक़्त की दास्तान सुनेगी। दीपशिखा और रौनक बड़े हो गये। दीपशिखा ने उसकी तरह पत्रकारिता का क्षेत्र चुना लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का। वह एक प्राइवेट चैनल में ऊँची तनख्वाह पर काम करने लगी। रौनक ने पहले ज़िद्द की थी मर्चेंट नेव्हीमें जाने की। सुनकर किरन का विश्वास डगमगा उठा था। पिता की राह पर बेटा! नहीं, हरगिज़ नहीं। रौनक ने उसे समझाने की बहुत कोशिश की-"जाँबाज़ी का जॉब है ममा, एक रोमांच बना रहता है। ओह, वह जल राशि... दूर-दूर तक फैली, महीनों थल के दर्शन नहीं होते। जल ही दुनिया हो जाता है। जल, आकाश और जहाज...बस तीन का संग साथ। बदलाव के लिए आकाश कभी-कभी बादलों से घिर जाता है, बिजलियाँ चमकने लगती हैं। गर्जन-तर्जन शुरू हो जाती है और बौछारों में तन मन भीगने लगता है। या जब आसमान साफ़ बादल रहित होता है तो चाँद जहाज़ के संग-संग चलता है। समुद्र के काले दिखते जल परचंद्रिका की आभा लहरों को रजत बना देती है।"

"ठोस ज़मीन पर पाँव टिकाओ रौनक। मेरे इतने दिनों की तपस्याको व्यर्थ मत जाने दो। अब मैं जीवन में कुछ भी खोना नहीं चाहती।" रौनक का समझाना बुझाना व्यर्थ गया। किरन की ज़िद्द के आगे उसे घुटने टेकने पड़े। उसनेबिना किसी बहस के एनवायरमेंट साइंस की राह पकड़ी। किरन को इस क्षेत्र की ज़्यादा जानकारी नहीं थी। उसे पता होता कि इस पढ़ाई के लिए रौनक को समुद्र में ही जाना होगा तो वह कभी न लेने देती उसे यह विषय। समुद्र में उठी सूनामी लहरों से तटीय इलाक़े जिस वनस्पति सेबच सकते हैं वह है मेंग्रोव्ज। रौनक इसी विषय को लेकर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने लगा। जब उसका दल समुद्र में जाता तो एक छोटी-सी बोट में वे दो तीन हफ़्ते गुज़ार देते। बोट में रसोईघर, सोने का कमरा और टॉयलेट की सुविधा थी। रात में वे बोट को किनारे मेंग्रोव्स की जड़ों से बाँध देते और मिल जुल कर खाना बनाते। रोमांच, चुनौती औरजाँबाजीइसमें भी थी। रात को समुद्री जीवों का ख़तरा रहता। वेबारी-बारी से पहरा देते। जब समुद्र में भाटा होता तो वे उथले पानी में पैदल ही निकल जाते। लेकिन इन बातों की जानकारीरौनक ने किरन को नहीं होने दी। वह तो पढ़ लिख कर जब बड़ा वैज्ञानिक हो गया तब उसने ये सारे किस्से उसे सुनाए लेकिन तब तक किरन का ज़िंदग़ी के प्रति विश्वास लौट आया था।

दीपशिखाने अपने सहयोगी गौतम से जब शादी की इच्छा प्रकट की तो किरन को अपना ज़माना याद आ गया। रंजीतके साथ मिलना याद आ गया। बहारों भरे वे निश्चिंत दिन जब लगता था वे हवा में हथेली फैलाएँगे और एक ही पल में सारी दुनिया को मुट्ठी में कर लेंगे। पर...किरन की दुनिया मुट्ठी से फिसल चुकी थी। पच्चीस साल गुज़र गये। मिताली ने भी अब बड़ा अस्पताल खोल लिया है और वह शहर की सबसे महँगी लेकिन बहुत अधिक अनुभवी डॉक्टर है। गौतम उसकी बहन का लड़का है। किरन को भला क्यों इंकार होता। शादी ख़ूब धूमधाम से हुई और किरन को ताज्जुब तो तब हुआ जब इस शादी में रंजीत के भाई बहन भी परिवार सहित शामिल हुए। कन्यादान के वक़्त सबकी सवालियानज़रें किरन के चेहरे पर आकर टिक गईं-"कन्यादान कौन करेगा?"

रंजीत की बहन आगे बढ़ीं-"अरे, अभी दीपशिखा के चाचा चाची ज़िंदा हैं, कन्यादान भी वे ही करेंगे।"

किरन की आँखों के सामने से उसके संघर्ष भरे दिन गुज़रे जब इन सबने उससे आँखें फेर ली थीं... मान लिया था कि रंजीत के साथ वह भी मर गई और अब?

वह अपनी जगह से उठकर मंडप में गई-"मैं ही करूँगी कन्यादान। माँ बाप दोनों बन कर पाला है मैंने इसे।"

भीड़ में सन्नाटा छा गया। मितालीखुशी से उठी और पंडित जी के पास गई-"मंत्र पढ़िए पंडित जी... मुहूर्त निकला जा रहा है।"

कैंप में रातउतर आई थी। कहाँ पहुँच गई थी किरन... उन अँधेरे उजाले भरे दिनों के साथ रंजीत को पल भर भी तो नहीं भुला पाई वह... जैसे काले गहरे समुद्र पर हलके नीले बादल। सिर भारी हो चला था। उसने पानी और चाय मँगवा कर दवा खाई। सामने स्टूल पर अनंत-नाग के लेखक की लड़की बैठी सूनी-सूनी आँखों से उसे और उसके दल को देख रही थी। आतंकवादियों ने उसके पिता के हाथ पैर काट डाले थे, आँखें निकाल ली थीं और पिता तड़प-तड़प कर दम तोड़ता रहा था और वे सब इस लड़की की अस्मत से खेलते रहे थे। फिर पिता की लाश को पेड़ से लटका कर भाग गये थे। यह कैसा जेहाद था जिससे हैवानियत भी शर्मिंदा थी। किरन ने लड़की को पास बुलाकर उसका सिर सहलाते हुए समझाया-"बेटी, राक्षसों के सींग नहीं होते। न इनका कोई दीनहै न धर्म... ये सिर्फ़ आतंक लिए घूमते हैं और तुम्हें, मुझे ज़िंदग़ी भर सिसकने को छोड़ देते हैं। भगवान के पास ईमानदारों को देने के लिए सिर्फ़ आँसू हैं।"

तभी मोबाइल बजा। गौतम था-"मम्मी जी, मिठाई मँगवाकर पूरे कैंप में बाँटिए। लिट्टे सरगना मारा गया।"

उसके दिल में हौल-सा उठा। ख़ुद के भीतर चुभा वह दर्द, वह आतंक उसे सब ओर फैला नज़र आया, सब तरफ़ आग है लगी हुई।